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Friday, May 6, 2016

फिल्में मैं पूंजीगत प्राप्ति के लिए नहीं कला के लिए बनाता हूं, मैं जागरूकता के साथ रचा आर्ट पसंद करता हूं: राम रेड्‌डी

.Q & A. .Raam Reddy, film writer and director (THITHI).  
The character of Century Gowda in a still from Thithi.

आज बेंगलुरु, मैसूर, मंड्या और हुबली में 23 शोज़ के साथ तिथि रिलीज हो रही है। ये बड़ी विरली सी फिल्म है। दिसंबर के अंत में इसका पहला टीज़र सार्वजनिक किया गया तो सेंचुरी गवडा के विचित्र लेकिन अपने से पात्र ने हैरान किया। ये बुजुर्ग, जो बैठा है, आने-जाने वाले बच्चों और एक पुरुष को छेड़ रहा है, कोस रहा है। भारतीय गांवों में ऐसे व्यंग्य भरे और अल्हड़ पात्र बहुत हैं, हमने देखे हैं लेकिन फिल्मों में इन्हें जगह नहीं मिली है। युवा निर्देशक राम रेड्‌डी की कथ्य को लेकर सोच का भी एक अंदाजा उठा। दिलचस्पी बहुत बढ़ी। अब तो दूसरा टीज़र (उतना ही सटका हुआ) और पूरा ट्रेलर भी मौजूद है लेकिन पहले टीज़र की हस्ती वैसी ही बनी हुई है। राम भारत के युवा फिल्मकारों की उस नई प्रजाति का हिस्सा हैं जो पुराने पथों पर नहीं चलते, वे अपने ही रास्ते बना रहे हैं, फिल्म बनाने की अपनी ही विधियां तलाश रहे हैं और उसमें जबरदस्त साबित हो रहे हैं। निश्चित तौर पर तिथि ऐसी फिल्म है जिसे मिस नहीं किया जाना चाहिए।

साढ़े तीन साल की अवधि में ये कृति तैयार हुई है। पिछले साल बेहद प्रतिष्ठित लोकार्नो फेस्ट में इसने दो शीर्ष पुरस्कार जीते। गोल्डन लियोपर्ड और सर्वोत्कृष्ट पहली फिल्म। इससे पहले पट्‌टाभिरामा रेड्‌डी द्वारा निर्देशित संस्कारा ही ऐसी कन्नड़ फिल्म थी जिसने (1972 में) लोकार्नो में सम्मान पाया था। बुधवार, 3 मई को इसे बेस्ट कन्नड़ फिल्म का नेशनल अवॉर्ड राष्ट्रपति के हाथों मिला। माराकेच, पाम स्प्रिंग्स, सेन फ्रैंसिस्को, मामी और अन्य फिल्म समारोहों में भी तिथि जीती। जिस भी फिल्मकार और दर्शक ने इसे देखा, प्रभावित हुए बगैर नहीं रहा। अगर सब ठीक रहा तो फिल्म देश के बाकी राज्यों में भी लग सकेगी।

राम और उनका परिवार बेंगलुरु में रहता है। कर्नाटक के पहले मुख्यमंत्री के.सी. रेड्‌डी उनके दादा लगते हैं। राम ने दिल्ली के सेंट स्टीफंस कॉलेज से अर्थशास्त्र की पढ़ाई की। फिर 2012 में चैक गणराज्य की राजधानी में बने प्राग फिल्म स्कूल से निर्देशन का कोर्स किया। 8-9 शॉर्ट फिल्में बनाईं जिनमें से दो फिल्म फेस्टिवल्स में भी गई। तिथि की यात्रा ने 2014 में ठोस मोड़ लिया जब एनएफडीसी के फिल्म बाजार में वर्क-इन-प्रोग्रेस सेक्शन में निर्माता इस कहानी से प्रभावित हुए और साथ दिया। ये कहानी और स्क्रिप्ट राम के साथ उनके करीबी दोस्त ऐरे गवडा ने लिखी है जिनके गांव में ही फिल्म स्थित है। राम तबला वादक हैं, फोटोग्राफी और अन्य कलात्मक गतिविधियों का शौक भी रखते हैं। उन्होंने 19 की उम्र में It's Raining in Maya नाम का नॉवेल भी लिखा। उनसे कुछ बात हुई। प्रस्तुत है:

क्या कर्नाटक के अलावा भी देश के किसी हिस्से में ये फिल्म रिलीज हो रही है?
इस चीज पर हम काम कर रहे हैं। आइडिया ये है कि अगर हम पहले अपने होम स्टेट और अपनी भाषा में सफल हो पाएं तो एक मजबूत स्थान पर होंगे और राष्ट्रीय स्तर पर वितरकों के पास जा पाएंगे। योजना है ये कि हम सही शो टाइमिंग प्राप्त कर सकें। जब तक हम कमर्शियल रूप से सफल नहीं होंगे, तब तक वितरक हमें हमारी मर्जी की शो टाइमिंग नहीं देंगे। मैं ये देख रहा हूं कि चाहे हमें कम शो ही मिलें लेकिन वो शाम के शोज़ हों या प्रमुख समय (रात) के शो हों जब लोग जाते ही हैं। क्षेत्रीय फिल्मों के लिए राष्ट्रीय स्तर पर रिलीज का इतिहास आमतौर पर अच्छा नहीं रहा है। ऐसी जिन फिल्मों ने अच्छा प्रदर्शन किया है वे वो फिल्में रही हैं जिन्होंने छोटे स्तर पर शुरू किया और बाद में फैल गईं। तो ये सब कर्नाटक में तिथि की सफलता पर निर्भर करता है। अगर ये कमर्शियली सफल रही तो हम निश्चित तौर पर और जगह भी रिलीज करेंगे। मैं खास तौर पर चाहता हूं कि अंतत: इसे प्रमुख शहरों में ला पाऊं। निश्चित तौर पर मुंबई, चेन्नई, हैदराबाद, दिल्ली और अन्य बड़े शहर। हमारे वितरक बहुत रुचि ले रहे हैं कि हम एक-एक करके कदम बढ़ाएं और मैं सहमत हूं कि हमारे जैसी फिल्म के लिए यही सही रास्ता है।

क्योंकि शिप ऑफ थिसीयस जैसी कुछ फिल्मों ने हाल के वर्षों में अंतरराष्ट्रीय सम्मान पाया है और थियेटर्स तक पहुंची हैं..
हां, हालांकि उन्होंने पूंजीगत सफलता नहीं पाई है..

लेकिन बड़ी फिल्मों के समानांतर रिलीज हो पाना पहले यूं नहीं हो पाता था। जैसे आपकी फिल्म ने बाहुबली: द बिगिनिंग और बजरंगी भाईजान जैसी भीमकाय फिल्मों के साथ नेशनल अवॉर्ड पाया है। दर्शकों के बीच अब इन फिल्मों का फर्क मिट रहा है।
जी, सही है।

आपने तिथि बनाई, चैतन्य तम्हाणे ने कोर्ट या चाहें आनंद गांधी हों जिन्होंने शिप ऑफ थिसीयस बनाई.. आप लोग अचानक ही आए। न जाने इतने वर्षों से कहां, क्या कर रहे थे। फिर एकाएक अपनी ऐसी फिल्में ले आए जो रचनात्मक रूप से बहुत-बहुत अलग थीं और जिन प्रक्रियाओं के साथ आप लोगों ने बनाईं, वो भी। जैसे, आपने फिल्म बिलकुल अलग प्रक्रिया से बनाई। आमतौर पर कहानी और स्क्रीनप्ले पहले आता है और बाद में निर्माता से मिला जाता है और बाद में कास्टिंग होती है, फिर लोकेशन ढूंढ़ी जाती है लेकिन आप पहले एक गांव (नोडेकोप्लु, जिला मंड्या, कर्नाटक) गए। फिर लोगों से मिले। फिर पात्र ढूंढ़े। फिर कहानी और स्क्रिप्ट आई।  ये विशेष तरीका था। यहां तक कि फिल्म स्कूल से पढ़ते हुए भी आपको ऐसा तरीका नहीं सिखाया गया होगा।  आप जैसे फिल्मकारों का ये दृष्टिकोण क्या है?
मुझे लगता है कि इसके पीछे कुछ वजहें हैं। पहली, डिजिटल माध्यम लोगों को उस लागत पर फिल्म बनाने की अनुमति दे रहा है जो किफायती है। जिससे निर्माता ऐसे आइडियाज़ पर जोखिम ले पा रहे हैं जो अन्यथा कर पाना संभव न था। अगर बजट बड़ा न हो तो मेरे हिसाब से तिथि हम फिल्म फुटेज पर बना ही नहीं सकते। क्योंकि फिल्म फुटेज की बर्बादी और 100 ग्रामीण अभिनेताओं के साथ आप जोखिम नहीं ले सकते। ये संभव नहीं। ये उन प्रमुख कारणों में से है जिससे कुछ ऐसा घटित कर पाने की क्षमता हो पाती है। और संभवत: कोर्ट जैसी फिल्म के साथ भी ये सही बैठता है। इसमें भी बहुत सारे टेक-रीटेक हुए थे। इस स्थिति में किसी इंडिपेंडेंट फिल्म को फिल्म रील पर शूट कर पाना संभव ही नहीं है। गैर-पेशेवर अभिनेताओं के साथ काम करने और उन्हें सिनेमाई परदे पर लाने में अब तकनीक बहुत मदद कर रही है।
   ये एक बात है। दूसरी वजह ये है कि ऐसी फिल्में जो सफल हो पाई हैं उनके पीछे ऐसे निर्माता थे जिन्होंने बिना किसी शर्त पूरे मनोयोग से अपना समर्थन दिया। जैसे चैतन्य के साथ विवेक (गॉम्बर) थे। उन्होंने चैतन्य के दृष्टिकोण में अपना भरोसा रखा और उन्हें पूरा समर्थन दिया। ये फिल्में ऐसी हैं जो बनानी आसान नहीं हैं और उनके लिए आपको किसी निर्लिप्त भाव वाले निर्माता की जरूरत पड़ती है। ऐसे बहुत-बहुत फिल्मकार हैं जिनके पास कुशलता है लेकिन जब ऐसी (तिथि) कहानी हो और आप शूट कर रहे हों और जब तक आप बनाने के जटिल और मौलिक रास्ते को सोच पाते हो आपका समय पूरा हो चुका होता है। मैं शिप ऑफ थिसीयस के बारे में बहुत ज्यादा तो कुछ नहीं जानता लेकिन इसे बनाने में बरसों लगे। मुझे लगता है फिल्म 2 से 3 साल तक धन जुटाने में लगी रही। तो चाबी यही है कि लंबे समय तक ऐसी परियोजनाओं में जुटे रह सकें और निर्माता का बेशर्त समर्थन मिले।
   तीसरी वजह ये है कि हमारी प्रक्रियाएं इससे तय होती हैं कि एक खास किस्म की फिल्ममेकिंग के पीछे इरादा क्या है? तो अगर मैं पहले स्क्रिप्ट लिख लेता और फिर किसी गांव में जाकर स्क्रिप्ट की परिस्थितियों का मेल बैठाने की कोशिश करता तो ऐसा नहीं कर पाता। क्योंकि आप उन ग्रामीणों को उस झुकाव तक नहीं ले जा सकते जहां वे कोई और ही इंसान बन जाएं और ऐसा करना हमारे इरादा भी नहीं है। अगर मुझे पेशेवर एक्टर्स मिलते तो मैं एक बुरी फिल्म बनाकर उठता। ऐसा होना ही चाहिए कि गैर-पेशेवर अभिनेता आपके स्क्रीनप्ले को सूचित करें। किसी भी गैर-पेशेवर एक्टर वाली फिल्म में ये मूलभूत ही है कि उन एक्टर्स के व्यक्तित्व और उनका मनोविज्ञान आपको बताए कि उनका किरदार कैसे लिखा जाना है। या तो ऐसा हो, नहीं तो फिर आप महीनों, महीनों तक कास्टिंग करते रहें.. जैसे कोर्ट ने महीनों, महीनों कास्टिंग की। हजारों और हजारों ऑडिशन लिए गए। ये कुछ ऐसे तत्व हैं जो फिल्म की मौलिक और अपरंपरागत प्रक्रियाओं में योगदान देते हैं और मौजूदा से जरा अलग होते हैं।

और दर्शकों का क्या? जिस गति और स्तर तक फिल्ममेकर विकसित हो रहे हैं क्या दर्शक भी उतना बदले हैं या पहले जैसे ही बने हुए हैं?
ये विशुद्ध रूप से इस कारण से कि हमारे यहां 100 करोड़ से ज्यादा लोग हैं और ये दुनिया के सबसे युवा देशों में शुमार होता है। मुझे लगता है हमारे यहां पॉपुलर कल्चर काफी ज्यादा उदार और असंकीर्ण है, जो ऐसा होने दे रहा है। और इस प्रकार के कंटेंट के लिए बाजार भी तैयार हो चुका है। आमतौर पर हम विशुद्ध कमर्शियल फिल्मों के कल्चर से ही आते हैं जहां पर कहानी कहने के खास तरीके को स्टैंडर्ड बना दिया गया है लेकिन फिर भी बदलाव हो रहा है। खासतौर पर इसलिए क्योंकि जैसे मैंने कहा हम एक बहुत युवा देश हैं और नई पीढ़ी की तादाद काफी है। हमारे यहां सबसे ज्यादा जनसंख्या 20 से 30 के आयुवर्ग की है। उनका जायका अभी निर्मित हो रहा है, बदल रहा है। चूंकि ये इतना युवा देश है तो चीजें बदल रही हैं। स्वाद के हिसाब से भी इंटरनेट के जरिए हमारी अंतरराष्ट्रीय विषय-वस्तु तक पहुंच है। अब ऐसी फिल्में विदेशों में ही सीमित नहीं है और हम सिर्फ अपने तक ही सिमटे नहीं रह गए हैं। एक समय ऐसा था जब हम सिर्फ बॉलीवुड या क्षेत्रीय भाषा वाला सिनेमा देखते थे लेकिन इंटरनेट के कारण अब स्थिति वैसी नहीं है। लोग दुनिया भर का सिनेमा देख रहे हैं।
   हमारे यहां ऐसे अंग्रेजी चैनल हैं जो ऐसी फिल्में दिखा रहे हैं जो सिर्फ हॉलीवुड की नहीं हैं। अलग-अलग दिशाओं से नए जायकों की पैदावार हो रही है। तो दर्शक भी बदल रहे हैं। हालांकि बड़ा जमीनी जन-समूह नहीं बदल रहे। अगर तिथि जैसी फिल्मों को एक कमर्शियल वितरक ले रहा है और उसकी कमर्शियल रिलीज हो रही है तो इसका मतलब है कि इस उद्योग ने ऐसे दर्शक तो पैदा किए हैं। अब इंटरनेट भी बराबरी की जमीन तैयार कर रहा है, वो आर्ट का लोकतंत्रीकरण कर रहा है। जनसमूह अब दक्ष और विशेषज्ञ हो चुके हैं। सिनेमा में और मांग कर रहे हैं। वो बहुत ज्यादा उपभोक्तावादी होते जा रहे हैं, इस लिहाज से कि वे चुनने के लिए विकल्प चाहते हैं। मैं कभी भी कमर्शियल सिनेमा के खिलाफ नहीं रहा हूं। मैं बस वैरायटी चाहता हूं। सिनेमाघरों में कमर्शियल स्तर पर वैरायटी। जैसे कि फूड कोर्ट होते हैं जहां हर तरह के व्यंजन का विकल्प होता है। जब आप एक मल्टीप्लेक्स जाते हैं तो आपके पास एक विशुद्ध कमर्शियल फिल्म देखने का विकल्प भी होना चाहिए, एक एिनमेटेड फिल्म का भी और एक इंडिपेंडेंट फिल्म का भी। चॉयस हमेशा वहां होनी चाहिए। इन सबका सह-अस्तित्व होना चाहिए।

मान लें कला के लोकतंत्रीकरण के बाद, आज से 20-30 साल बाद जब वो आदर्श स्थिति फिल्म निर्माण विधा में आए तो वो क्या हो?
ऐसी स्थिति जहां निर्माता कम शर्तों के साथ मौजूद हो। अगर आप एक निर्माता हैं और निर्देशक का साथ मुक्त भाव से दें तो वही कुंजी है। क्योंकि मुझे लगता है हम एक इंटस्ट्री के तौर पर वहां जूझ रहे हैं कि निर्माता कला के दृष्टिकोण से नहीं बल्कि धन के दृष्टिकोण से निर्देशक को सहारा देते हैं। मैं ये कह रहा हूं कि आप निर्माता हैं तो किसी भी डायरेक्टर को ही चुन लीजिए, कोई ऐसा ले लीजिए आपके हिसाब से जिसके नजरिए में कमर्शियल तत्व हैं। एक निर्माता के तौर पर ये आपका अधिकार क्षेत्र है कि ऐसा निर्देशक चुनें जो आपको ठीक लगे लेकिन फिर आपको उसे पूरा सपोर्ट देना होगा और आपको ये समझना होगा कि ये क्षेत्र गुणवत्ता का है, यही पहला कदम होना चाहिए और यहीं पहुंचने में हम संघर्ष कर रहे हैं। आप सीधे आकर ये नहीं कह सकते कि फिल्म को 10 मिनट छोटा कर दो। आप ऐसा कर सकते हैं लेकिन आर्ट की देखरेख की भावना के साथ और ये अभी भी हमारे देश में होता नहीं है।
   दूसरी चीज है वितरण अधिकार। अच्छे कंटेंट से संचालित होने वाली फिल्मों या कथ्य उन्मुख फिल्मों के वितरण की समस्या आती है। ये चिकन और एग वाली स्थित है। वितरक आपका साथ तभी देगा जब फिल्म को दर्शक स्वीकार करें, दर्शक उसे तभी स्वीकार करते हैं जब आप थीम मुताबिक चुनो.. और उनकी यही जड़ता बनी हुई है। तो मेरे लिए आदर्श स्थिति वो होगी जब निर्माता अपने निर्देशक को निष्काम भाव से सपोर्ट करे और उसमें पूरा भरोसा जताए। चाहे उसके लिए किसी ऐसे को चुन लोग जिसका दिमाग कमर्शियल हिसाब से सोचता हो लेकिन फिर उसे पूरी तरह समर्थन दो। और वितरकों को फिल्म चुननी चाहिए जब वे उसके कंटेंट में विश्वास रखते हों। कलात्मक फिल्म को भी ऐसे ही बेचो जैसे किसी कमर्शियल फिल्म को बेचोगे। और धीरे-धीरे लोगों का स्वाद बदलेगा। एक कम से कम नियंत्रण वाली फिल्म इंडस्ट्री बहुत फायदे की होगी। जो एक तरह से सेक्युलर हो, जहां जियो और जीने दो वाली बात हो।
  मैं ये पूरी यकीन से सोचता हूं कि इंटरनेट आने वाले पांच से दस बरसों में फिल्म वितरण को पूरी तरह से बदल देगा। अभी वैश्विक वितरण व्यवस्था की योजना में सिनेमाघर जहां खड़े हैं, वो हाल पूरी तरह बदल जाएगा। जैसे, सभी ए-लेवल के फिल्म फेस्टिवल, स्टूडियोज, नेटफ्लिक्स और अन्य सभी मंच पारंपरिक वितरकों को पूरी तरह बेदखल कर दे रहे हैं। अब सारी अर्थव्यवस्था इंटरनेट पर आ गई है। और जब अर्थव्यवस्था इंटरनेट पर है तो बहुत सारी चीजें बदल जाती हैं। इंटरनेट का इस्तेमाल करते हुए आप हजारों फिल्मों से महज एक क्लिक की दूरी पर होते हो। इस अनुभव को पाने के लिए आप जो प्रयास अभी करते हैं वो काफी अलग है जैसे आप पैसे देते हैं, कार में बैठते हैं, थियेटर जाते हैं। तो जड़ता का जाना जरूरी है। और कंटेंट का लोकतंत्रीकरण इस लिहाज से इंटरनेट से होगा। वितरण के मंच भी बदलेंगे। एक फिल्ममेकर होने के लिए ये बहुत अच्छा वक्त है। मैं सोच रहा था कि अगर 20 साल पहले पैदा हुआ होता तो कुछ भी समान न होता।

मार्क जकरबर्ग ने भी वर्चुअल रिएलिटी के आविष्कार ऑक्युलस रिफ्ट में धन (2 बिलियन डॉलर में खरीदा) लगाया है जो वीडियो देखने के अनुभव को बिलकुल बदल देगा..
हां, बिलकुल। आनंद गांधी भी इसमें पूरी तरह लगे हैं। मैंने हाल ही में बॉम्बे में उनके साथ वक्त बिताया और वो ये महाकाय रिग्स बना रहे हैं और पूरी तरह वर्चुअल रिएलिटी पर काम कर रहे हैं। मुझे लगता है कि ये निश्चित तौर पर भविष्य होगा कि हम आर्ट का अनुभव कैसे लेते हैं। ये छोटे से शुरुआत करेगा लेकिन बाद में एक नया अनुभव और अपने आप में नया माध्यम बन जाएगा।

आर्ट में आविष्कार की हद तक ऐसे प्रयत्न हो रहे हैं। जैसे आपने तिथि की एक तरह से खोज ही की। या फिर स्वीडिश बैंड विंतरगेतान (Wintergatan) का काम। जैसे इन लड़कों ने एक ट्रैक बनाने के लिए अनोखी वैज्ञानिक मशीन बनाई जिसे बनाने में 11 महीने लगे।
हां, है न ये पागलपन (हंसते है).. मार्बल्स के स्वर..

ऐसे तमाम प्रयोगी लोगों का नाम इतिहास में लिखा जाएगा कि ये अपने समय के ऐसे रचनाकार थे और बिलकुल नए तरीके से सोच रहे थे। क्योंकि अभी हमारे दिमाग रेडीमेड रास्तों पर ही डेरा डाले हैं। जब भी हमें रचनात्मकता में कोई संदर्भ लेना होता है तो हम सैकड़ों या हजारों साल पहले की कृतियों पर चले जाते हैं। अगर हमें संगीत पर बात करनी है तो हम क्लासिकल (दक्षिण भारतीय, हिंदुस्तानी) के बारे में बात करने लगते हैं लेकिन हम मौजूदा संगीत से ऐसे संदर्भ नहीं दे पाते क्योंकि मौजूदा समय में कोई ऐसी रचना नहीं कर रहा। तिथि में आपने कुछ अपने मुताबिक ही रचा है जिसमें कोई स्टार नहीं है, कोई गाना उस लिहाज से नहीं है, इसमें काम कर रहे लोगों को कोई मैथड एक्टिंग भी नहीं आती, वो नवाजुद्दीन सिद्दीकी या इरफान खान जैसे मंझे अभिनेता भी नहीं हैं, आप खुद भी पहली बार के निर्देशक हैं, उम्र में भी कम हैं लेकिन फिल्म ऐसी रचकर लाए हैं जिसमें एक भी नोट हिला हुआ नहीं है। मौजूदा परिदृश्य में युवा लोगों के जेहन में चीजों की खोज करने और रचने की प्रवृति को कैसे देखा जा सकता है? कला और तकनीक में वे गुजरे वर्षों की प्रक्रियाओं को अपना नहीं रहे बल्कि अपने ही आविष्कार कर रहे हैं।
एक तो ये कि पुराने ढांचों के कारण हमारे भीतर के कलाकारों को अपनी आवाज नहीं मिल पाई थी, इंडस्ट्री और इसके स्ट्रक्चर्स की बात हमने की थी। फिल्म को आवश्यक रूप से कभी विशुद्ध आर्ट नहीं माना गया। शायद 70 के दशक में माना गया है तो समानांतर सिनेमा का आंदोलन शुरू हुआ था लेकिन बाद में वो भी बिजनेस बनकर रह गया। इस गतिरोध को तोड़ने में हम आर्टिस्ट लोगों की बड़ी रुचि है। जैसे कि किताबें लिखी जाती हैं। ये बहुत रोचक है कि कैसे जादुई यथार्थवाद (Magic realism) को सिनेमा का जॉनर नहीं माना जाता। और मैं कहूंगा वो सिर्फ इसलिए क्योंकि निर्माता इस श्रेणी की फिल्मों में धन नहीं लगाते। जबकि लेखक अपने कमरों में बैठे इन पर किताबें लिख रहे हैं। फिल्मों में जादुई यथार्थवाद क्या करता है कि ये आपको ज्यादा रचनात्मक बनने का अवसर देता है, अगर आप नायकत्व (Heroism) पर फिल्में बना रहे हैं तो ऐसा नहीं कर पाते हैं। तो आर्टिस्ट लोगों में रचनात्मकता के प्रति एक अंतर्निहित झुकव होता है। मुझे लगता है अब ऐसे निर्माता हैं जो समग्र भाव से साथ दे रहे हैं। और आपके पास कुछ नया आजमाने की जगह है और आप अपने अंदर के कलाकार को ऐसा करने देते हैं। तो ये निश्चित रूप से एक प्रमुख वजह है।
   एक अन्य बात और है कि दुनिया में हर साल बहुत सी फिल्में बनती हैं। जैसे किसी ने मुझे आंकड़ा बताया था जो गलत भी हो सकता है कि हर साल अच्छी प्रोडक्शन वैल्यू की और अच्छे निर्देशकों की करीब 600 फिल्में रिलीज होती हैं। हर साल 15,000 फिल्में बनती हैं। अगर हम भारत की बात करें तो यहां स्थिति और भी दीवानगी भरी है। यहां हर साल हजारों फिल्में बनती है जो खास नहीं हैं। अगर सालाना 15,000 वैश्विक फिल्मों की बात करें तो उनमें से 50 के करीब फिल्में ही हैं जो सिनेमाघरों में रिलीज और लोगों के बीच लोकप्रियता के लिहाज से वर्ल्ड सिनेमा सक्सेस बन पाती हैं। जैसे इस साल सन ऑफ सॉल (Son of saul), मस्टैंग (Mustang) और एम्ब्रेस ऑफ द सरपेंट (Embrace of the serpent)। दुनिया की उन 15,000 फिल्मों में से आप करीब ऐसी 50 फिल्मों को हटके गिन सकते हो। अब अगर आप मौलिक नहीं होंगे तो फिर उन 15,000 फिल्मों से आपको क्या बात अलग करती है? तो ये कुछ आर्ट की बात है और कुछ विश्व परिस्थिति को समझने की बात है। तो आपको खुद को अपनी हदों के पार धकेलना होगा, मौलिक होना होगा, समझदार होना होगा और जो भी रचने जा रहे हैं उसे लेकर ईमानदार होना होगा।
   अगर आप रचनात्मक और मौलिक होकर ऐसी एक्सपेरिमेंटल फिल्म बना देते हैं जो किसी आर्ट इंस्टॉलेशन जैसी है तो आप सिनेमाघरों तक नहीं पहुंच पाएंगे, ये असंभव होगा। लेकिन अगर आप मौलिक होंगे और एक अलग तरीके की कथानक आधारित फिल्म बनाएंगे तो उन 15,000 फिल्मों से अलग हो पाने का रास्ता बन पाएगा। और शायद उन 20 फिल्मों में भी शामिल हो सकते हैं जो विश्व स्तर पर असर डालती हैं। इसी तरह भारत में, मुझे लगता है ऐसी ही चीजें हैं जो लोगों को तय पैमाने से भी आगे जाने और अलग चीजें आजमाने की ओर धकेल रही हैं। जिस किस्म की मौलिक फिल्में आ रही हैं उससे मैं ये महसूस कर रहा हूं कि अगले पांच साल में परिणाम और बेहतर से बेहतर होते जाएंगे। 
   मैं ये भी सोचता हूं कि इंडिपेंडेंट फिल्मों के मुल्क के तौर पर हम अभी शुरुआत ही कर रहे हैं। जैसे हमारी इंडी फिल्में अभी भी पूरी तरह स्वतंत्र नहीं हैं। वे अभी भी ऑटरनुमा (auteuristic) नहीं हैं। कोर्ट ऐसी फिल्म है जो पूरी तरह ऑटरनिर्मित थी। पूरी तरह। निश्चित तौर पर इसके साथ ही एक ऑटर (चैतन्य तम्हाणे) का जन्म हुआ है। ये बहुत ही विशुद्ध और बहुत ही बढ़िया तरीके से बनाई गई है। लेकिन मैं कहूंगा कि आम इंडी फिल्म सर्किट अभी भी भावुक है और उसमें दर्शक पाने की चाह बनी हुई है। लेकिन एक ऑटर वो है जो दर्शकों की इज्जत जरूर करता है लेकिन वो फिल्में उनके लिए नहीं बनाता है।

क्या आप कर्नाटक फिल्म उद्योग के लोगों के साथ फिल्म बनाएंगे? उन्होंने आपकी बहुत तारीफ की है। आपको कर्नाटक का गौरव कहते हैं। हालांकि वे आपकी फिल्ममेकिंग के बिलकुल विपरीत हैं। क्या आपको लगता है कि तिथि उन्हें अलग तरीके से फिल्म बनाने के लिए प्रेरित करेगी? क्या आप कर्नाटक फिल्मों के सितारों के साथ काम करेंगे?
एक करियर की अवधि में कुछ भी हो सकता है। मैं आमतौर पर मौजूदा पल में ही समर्पित रहता हूं। जैसे अभी मैं जो कर रहा हूं। वैसे सामान्य तौर पर मैं किसी एक इंडस्ट्री में यकीन नहीं रखता। मैं इंडस्ट्री के आधार पर सोचता भी नहीं हूं चाहे वो कर्नाटक हो या राष्ट्रीय स्तर पर। मैं जैसी फिल्में बनाता हूं उन्हीं के लिहाज से सोचता हूं। मैं कभी किसी भी चीज से उत्प्रेरित हो जाऊंगा और महसूस करूंगा कि यही वो चीज है जो मैं करना चाहता हूं और उसे बनाने के लिए जो भी रास्ता या आभियांत्रिकी चाहिए वो करना शुरू कर दूंगा। लेकिन तब तक किसी फिल्म उद्योग में काम करना बड़ा मुश्किल है जब तक वे मुझे मेरी मर्जी की फिल्म बनाने में मदद न करें। और अभी ऐसा संभव कम ही लगता है। मैं फिल्में बनाने का काम किसी पूंजीगत प्राप्ति या किसी और चीज के लिए नहीं कर रहा हूं। मैं ये आर्ट के लिए कर रहा हूं। मैं जागरूकता के साथ रचित कला को पसंद करता हूं। इस संदर्भ में कि मैं जानता था कि तिथि ऐसी फिल्म है जिसे पसंद किया जा सकता है और उसी लिए मैंने उसे एक खास तरीके बनाया। मैं इसे फनी बनाना चाहता था। हम जानते थे कि लोगों को हंसना पसंद है। अगर आप ये जानते हैं तो महसूस कर लेंगे कि आपकी फिल्म की तैनाती कैसे कर सकते हैं ताकि ये सफल हो सके। ये नहीं कि ये कला में योगदान दे बल्कि कैसे ये आर्थिक ढांचे वाली दुनिया में सफल हो सके। आपके सवाल का जवाब दूं तो मूलत: ये निर्भर करता है कि फिल्म का आइडिया क्या है? बाकी सब कुछ उल्टे क्रम में सोच (backward engineered) लेता हूं। अगर फिल्म का आइडिया गैर-पेशेवरों के साथ काम करने को कहेगा तो मैं उनके साथ काम करूंगा। अगर आइडिया कहता है कि मुझे रेगिस्तान में जाकर सिर्फ एक आदमी के साथ अपनी फिल्म बनानी है तो मैं बनाऊंगा। ये सब निर्भर करता है कि विचार को क्या दरकार है।

आप कैसे तय करते हैं कि संबंधित पल में जो आइडिया आपको आया वो अंतिम है? और वो उस अंतिम रचना में तब्दील हो ही जाएगा जैसे आप कल्पना कर रहे हैं। आपके जेहन में कई आइडिया होते हैं आप किसी एक को कैसे तय करते हैं? चुनने का पैमाना क्या है? या ये सिर्फ गट फीलिंग होती है?
मुझे लगता है ये गट फीलिंग ही है। निजी रूप से देखें तो अलग-अलग लोगों की अलग प्रक्रियाएं होती हैं। मैं सिर्फ एक ही आइडिया पर पूरी तरह फिक्स हो जाता हूं। मैं जब एक आइडिया खड़ा कर रहा होता हूं तो खुद को अन्य विचारों पर मंडराने नहीं देता हूं। मैं खुद को कहीं भी और जाने की अनुमति नहीं देता। मैं सिर्फ और सिर्फ एक आइडिया के बारे में सोचता हूं कि उसे बनाऊंगा कैसे? शुरुआत एक दृश्य से भी हो सकती है, एक फीलिंग से भी हो सकती है और फिर उसे आगे निर्मित करने की प्रक्रिया होती है। बेहद सूक्ष्म आइडियाज़ के निर्माण से ये शुरू होता है। मैं अनुराग कश्यप जैसे फिल्मकारों को भी जानता हूं जो इस प्रक्रिया में बहुत ही प्रतिभाशाली और विरले हैं। वो इतनी तेजी से काम करते हैं और इतनी मजेदार फिल्में बनाते हैं। मुझे उनकी प्रक्रियाएं बहुत पसंद है। लेकिन मैं उन जितना कुशल और गतिशील नहीं हूं। मैं धीरे-धीरे सोचता हूं। और आगे बढ़ता हूं। मैं कुछ भी लिखकर उसे रद्दी में नहीं फेंकता। बंद नहीं करता। कभी नहीं। अगर मैं कुछ लिखता हूं और मुझे वो पसंद नहीं आता तो मैं उसे दोबारा लिखता हूं। 
   मेरी निजी प्रक्रिया ये हुई कि गट फीलिंग से पहला आइडिया आता है और फिर सूक्ष्म आइडियाज़ का एक अनुशासित निर्माण होता है और कुछ वक्त तक मैं पीछे मुड़कर नहीं देखता। जैसे मैंने 18-19 की उम्र में एक नॉवेल लिखा था। वो तिनके से शुरू किया था और उसे खत्म करना आसान नहीं था। मैंने उसकी हर चीज को बार-बार लिखा। हर अध्याय को। मुझे इसे लिखने में 3 साल लगे। ये मेरे जीवन का पहला इतना लंबा लेखन था और मुझे बड़ी मुश्किल हुई थी। लेकिन मैंने अधूरा नहीं छोड़ा, पूरा किया। मैं कभी चीजों को यूं जाने नहीं देता हूं। ये बहुत जरूरी है कि आप एक बार किसी चीज को लेकर प्रतिबद्धता जता दें तो फिर उसे पूरा करें।

अगर मैं 25 के करीब हूं और किसी भी आर्ट फॉर्म में अपना करियर शुरू कर रहा हूं और जब मैं रचनात्मक फैसले ले रहा हूं तो मुझे लगता है कि ऐसी एक अंदरूनी व्यवस्था भीतर है जो मुझे ये काम सक्षमता से करने दे रही है। ये व्यवस्था या ताकत उस रचनात्मक महौल से भी आती है जो बचपन में हमें मिलता है। माता-पिता ने हमें जो कहानियां सुनाई हो, हमें फिल्में दिखाने ले गए हों। हमारे पूर्व जीवन में ऐसी क्रियाओं से हम उम्दा फैसले इस उम्र में जाकर ले पाते हैं। जैसे आपने कहा कि एक खास स्पष्टता चीजों को लेकर है और एक बार जो शुरू करते हैं उसे खत्म करते ही हैं। आपके जीवन में ये मूल्य और व्यवस्था कैसे आई?
मेरा पूरा परिवार ही परफेक्शनिस्ट लोगों का है। हम लोगों पर कभी दबाव नहीं रहा कि अपने इस परफेक्शन को किसी खास क्षेत्र में ही भेजना है। मैं कलाकारों के परिवार से नहीं आता हूं लेकिन वहां विचार ये रहा है कि एक बार जो भी चीज हम उठाएं तो उसे पूरे समर्पण के साथ करें। मेरी मां (अनीता रेड्‌डी, पद्मश्री) सोशल वर्कर हैं। मैं ऐसे किसी को नहीं जानता जो उनसे ज्यादा काम करता हो। काम को लेकर उनके मूल्य पागलपन की हद तक हैं। उनके अंदर बहुत सारी ऊर्जा है। हमारी परवरिश ऐसे हुई और हममें ये विकसित किया गया कि हम हटके हो सकते हैं लेकिन जो भी करेंगे वो अपने सर्वश्रेष्ठ, कड़ी मेहनत और अनुशासन के साथ। मैं कुछ भी बन सकता था। विज्ञान का क्षेत्र ले सकता था। अर्थशास्त्री बन सकता था। उस दौरान भी मेरा अंदाज इसी तरह का होता।

आपके पिता और भाई? उनसे क्या प्रेरणा मिली?
बहुत। मेरे पिता (प्रताप रेड्‌डी) तिथि में पहले निर्माता भी हैं। हम एक अध्यात्म-उन्मुख परिवार हैं। अाध्यात्मिकता इस हिसाब से नहीं कि किसी धर्म से जुड़े हैं बल्कि अपने भीतर की ओर एक यात्रा। मेरे पिता स्पिरिचुअली बहुत केंद्रित हैं। मेरे जीवन के सबसे स्थिर, अपनी जड़ों में केंद्रित और बेफिक्र लोगों में वे हैं। मेेरे जीवन में बेपनाह स्थिरता उनसे आती है। चाहे कोई भी संकट आ जाए उनको कोई फर्क नहीं पड़ता, उनकी स्पिरिचुअल ताकत की वजह से। मेरे भाई (सिद्धार्थ रेड्‌डी) के साथ भी ऐसा ही है। वो भी आर्टिस्ट हैं। वो वाइल्डलाइफ फोटोग्राफी करते हैं। स्टॉक मार्केट में भी हैं। वो भी अाध्यात्मिक हैं। अाध्यात्मिक वातावरण कला में पवित्रता और विचारों में पवित्रता लाता है। चीजों की ओर देखने का बहुत ही सीधा और सपट तरीका, बहुत जटिल नहीं, बहुत दुनियावी नहीं। इसी से एक किस्म का खुलापन आता है। मेरी बहन (पूजा रेड्‌डी नाकामूरा) भी हैं जो पूरी तरह अलग हैं। उनके पास भाषा विज्ञान (Linguistics) में पीएचडी है। वो अमेरिका में हैं। तो हम पांच लोगों का परिवार है। खुश रहते हैं, खुश रहने देते हैं। इस वातावरण से सारा फर्क पड़ा। खासतौर पर बचपन के उन अनुभवों के बिना आज ये जज़्बा और खुशी नहीं होती।

बचपन में कॉमिक बुक्स, कहानियां, संगीत किस पर जोर था?
म्यूजिक से तो मैं आज भी प्यार करता हूं। ये ऐसी कला है जो मुझे सबसे ज्यादा भावुक करती है। संभवत: फिल्मों से भी ज्यादा।

आप साज भी बजाते हैं।
हां, मैं तबला बजाता हूं। अपने लिए बजाते हुए आनंद लेता हूं। आर्ट फॉर्म के तौर पर मैं संगीत का सबसे ज्यादा अहसानमंद हूं।

ये तिथि की धुनों में दिखता भी है जो बहुत अलग है। फिल्म देखने के अनुभव और कहानी को अलग ही आवरण दे देता है। पर अन्य साहित्य और फिल्मों में क्या पसंद रहा?
मैं पढ़ता बहुत था। इतनी फिल्में नहीं देखी थीं। पढ़ने में मुझे जादुई यथार्थवाद बहुत पसंद रहा है। ये जॉनर मुझे बहुत लुभाता है। अपनी फिल्मों में भी मैं इसे निश्चित तौर पर टटोलना चाहूंगा। मुझे लगता कि अपने सिनेमा में इसे ज्यादा एक्सप्लोर नहीं किया गया है और दर्शकों को ये सही रूप में समझ भी नहीं आता। लेकिन लोगों को चम्मच से तो वो नहीं खिला सकते न जो वो देखना चाहते हैं। बहुत से लोग रहे हैं जो जब मैजिक रियलिज़्म में सफल रहे हैं तो उन्होंने बहुत ही अच्छा किया है। मुराकामी (Haruki Murakami), मार्केज़ (Gabriel García Márquez), येन मार्टल ( Yann Martel), इटालो कैल्वीनो (Italo Calvino) कुछ ऐसे लोग हैं जो बहुत ही ताकतवर मूड रचते हैं, और उनका यथार्थ उनके कलात्मक मनोवेग के लिए इतना मौलिक है कि उनके जैसे कोई नहीं कर सकता। इन लोगों की दुनियाएं भी बेहद विशेष तरह की हैं। जैसे लाइफ ऑफ पाई की दुनिया ऐसी है जो कभी उस तरह से फिर नहीं रची जा सकी है। ये जैसे लिखी गई है उसमें भी सच्ची है और जैसे प्रस्तुत की गई है उसे लेकर भी सच्ची है। इसका स्वरूप (form) से बहुत लेना देना है। जैसे मुझे लगता है कि मैजिक रियलिज़्म में फॉर्म और कंटेंट समान रूप से महत्वपूर्ण हैं। मैं ये नहीं कहता कि कंटेंट महत्वपूर्ण नहीं है लेकिन ऐसा भी नहीं है कि सिर्फ कंटेंट से संचालित होने लगें और फॉर्म जरूरी न लगे। इन लोगों का फॉर्म और कथानक का संतुलन मुझे बहुत-बहुत पसंद है। मैं इसे अपनी आने वाली परियोजनाओं में काफी बरतूंगा। तिथि में जितना किया है उससे भी ज्यादा। तिथि ज्यादा यथार्थवादी है और ऐसे ही हमने इस बनाया लेकिन मैं खुश होऊंगा अगर इसे बहुत निजी रूप में एक्सप्लोर कर पाया तो।

मैजिक रियलिज़्म जॉनर की कौन सी फिल्में आपको सबसे अच्छी लगती हैं?
कहना कठिन है। इस सवाल से मैं हमेशा जूझने लगता हूं। मैं बताता हूं कि मैजिक रियलिज़्म में कुछ उल्लेखनीय फिल्में हैं जो मेरी पसंदीदा नहीं हैं। जैसे Eternal Sunshine of the Spotless Mind (2004) उल्लेखनीय है। Groundhog Day (1993) उल्लेखनीय है। मुझे ऐसा भी लगता है कि In the Mood for Love (2000) जादुई यथार्थवाद है। हालांकि ये नहीं है लेकिन जैसे ये चरम पर जाती है वो बहुत ताकतवर है। मियाज़ाकी (Hayao Miyazaki) के कुछ एनिमेशन हैं मैजिक रियलिज़्म के दायरे में हैं। मैजिक रियलिज़्म और फैंटेसी के बीच बड़ी महीन रेखा है। अब मैड मैक्स (Mad Max 1979-2015) जैसी फिल्म को लें जिसे मैं शायद फैंटेसी की ओर जाता हुआ देखता हूं लेकिन इसे मैजिक रियलिज़्म कहा जाता है। इसमें कई तत्व ऐसे हैं जो फैंटेसी जॉनर में आते हैं। बहुत से ईस्टर्न यूरोपियन सिनेमा में मैजिक रियलिज़्म के तत्व हैं। मुझे महीन मैजिक रियलिज़्म पसंद है जो परत में चलता है न कि फैला हुआ। मैंने मैजिक रियलिज़्म पर शॉर्ट फिल्में बनाई हैं। "बसंत’ (Jaro, 2013) चैक गणराज्य में स्थित थी, "पंख’ (Ika, 2012) तेलुगु में थी। इन्हें देखेंगे तो जान पाएंगे कि मैजिक रियलिज़्म में मेरी रुचि किसमें हैं। एक आर्टिस्ट के तौर पर इसमें मैं क्या ढूंढ़ना चाहता हूं। तिथि में ये उसकी लय और चीजों में नजर आता है।

आपने कहा कि जीवन के शुरुआती वर्षों में ज्यादा फिल्में नहीं देखी, तो जब विश्व सिनेमा से वास्ता पड़ा तो किन फिल्मों ने आपको बहुत प्रभावित किया?
जैसे बहुत से फिल्मकार कहते हैं कि उन्होंने रेजिंग बुल (Raging Bull, 1980) या कोई एक फिल्म 10 बार देखी और उनकी जिदंगी बदल गई। ईमानदारी से कहूं तो मेरे लिए कोई ऐसी एक फिल्म नहीं थी जिसने मेरी जिंदगी बदल दी। जब मैं सेंट स्टीफंस में पढ़ने लगा तो मैंने अलग-अलग तरह की बौद्धिक फिल्में देखीं और लेखन देखा। तब मैं वर्ल्ड सिनेमा से थोड़ा-बहुत परिचित हुआ ही था। पहली फिल्म जो मैंने देखी वो ईरानी थी। बहुत से लोग वर्ल्ड सिनेमा में अपनी शुरुआत ईरानी फिल्मों से ही करते हैं। मैंने तुर्की की भी कुछ फिल्में देखीं। ऐसी फिल्मों में आप लोगों को इस आर्ट फॉर्म पर बिलकुल अलग तरीके से काम करते देखते हैं और आप पाते हैं कि उनके लिए एक फिल्म कितनी अहमियत रखती है। गस वन सांत (Gus Van Sant) की शुरुआती फिल्में मैंने देखी। मेरे मन में उन्हें लेकर बड़ी इज्जत जन्मी। मुझे याद है उन्हें देखते हुए मैं सोचता था कि इस आदमी में माद्दा है। उनकी फिल्मों का ढांचा ऐसा होता है कि .. जैसे उनकी एक फिल्म है एलीफेंट (Elephant, 2003) जो मुझे इतनी ज्यादा प्रिय नहीं है लेकिन ऐसी फिल्म बनाने में बहुत जिगरा लगता है। आपके पास जिगरा होना चाहिए कि किसी को 70 मिनट तक बोर करो और आखिरी 3 मिनट में शॉक कर दो। फिर मैंने वॉन्ग कार-वाय (Wong Kar-wai) की फिल्में देखनी शुरू कीं जो इतनी काव्यात्मक थीं, कथ्य-हीन से स्वरूप वाली जहां चीन में स्थित फिल्म में वे स्पेन का म्यूजिक देते हैं। ऐसी चीजें सिनेमा क्या होता है इसे लेकर आपके विश्व दर्शन को फैलाव देती हैं। वहीं आप जब हॉलीवुड या ऐसी आम फिल्में देखते हुए बड़े होते हैं तो ऐसा नहीं हो पाता। मैंने धीरे-धीरे फिर खुद को निर्मित करना शुरू किया। धीरे-धीरे मैंने सोचना शुरू किया कि मेरी स्टाइल वाले फिल्मकार कौन हैं और मैं किनकी ओर आकृष्ट होता हूं? ये फिल्मकार ऐसे हैं जो एक-दूसरे को कॉपी नहीं करते। जैसे वॉन्ग कार-वाय जैसा कोई नहीं है, हेनेके (Michael Haneke) जैसा कोई नहीं है।

तिथि को लेकर सबसे अच्छी तारीफ आपने कौन सी पाई है?
फ्रांसिस फोर्ड कोपोला (Francis Ford Coppola) को ये बहुत पसंद आई। उन्होंने मुझसे कहा कि वे सेंचुरी गवडा बनना चाहते हैं। ये मेरे लिए सबसे कूल पल था। कोपोला की अपोकलिप्स नाओ (Apocalypse Now, 1979) और द गॉडफादर (The Godfather 1972-1990) ने एक लिहाज से मॉडर्न क्लासिकल सिनेमा रचा था। वे इसके अग्रदूतों में रहे हैं। उन्होंने अपनी फिल्में भयावह परिस्थितियों में बनाई हैं। जैसे द गॉडफादर को देखें तो लगता है कि ये बहुत ही व्यवस्थित और लयबद्ध प्रोडक्शन है लेकिन ये सबसे अधिक बिखरे हुए, कोलाहल भरे और बगैर-समर्थन वाले प्रोडक्शंस में से था। लेकिन फिल्म देखते हुए ऐसा नहीं लगता। उनके अलावा (15वें माराखेच इंटरनेशनल फिल्म फेस्टिवल) ज्यूरी में जॉन पियेर ज़नेत (Jean-Pierre Jeunet) भी थे। ये मोरक्को की बात है। उनकी एमिली (Amélie, 2001) भी एक ऐसी फिल्म है जो मैंने वर्ल्ड सिनेमा दायरे में शुरू-शुरू में देखी थी। सबसे कलात्मक फिल्मों में से एक। कुछ लिहाज से कॉमेडी को लोग जॉनर में ही नहीं गिनते। उन्हें लगता है कि कॉमेडी करते हुए आपको कलात्मक होने की जरूरत नहीं है। कि आपको बस जोक मारने हैं लेकिन ये कतई सच नहीं है। एमिली इसका सबूत है। मुझे लगता है कि एमिली को बनाना एक बहुत जटिल काम रहा होगा। ये बहुत ही यथार्थपरक है और बिलकुल भी आसान नहीं है।

अपनी नई फिल्म (Distant Vision) के साथ भी वे सबको चौंकाने वाले हैं। ये पांच साल में बनेगी और 500 पन्नों लंबी इसकी स्क्रिप्ट है। ये भी एक इटैलियन फैमिली की चार पीढ़ियों की कहानी है।
हां, वो इस बारे में बात कर रहे थे। उन्होंने कहा था कि वे लाइव परफॉर्मेंस जैसा कुछ शूट कर रहे हैं। फिल्म कई लाइ‌व कैमरा के बीच घटित होगी। पूरी फिल्म लाइव दिखाई जाएगी। वे अब भी खुद को अपनी क्षमताओं से परे धकेल रहे हैं और ये ही मजा है, वरना जीवन पूरी तरह बोरिंग हो जाए।

जैसे आपने कहा कॉमेडी को गंभीरता से नहीं लिया जाता है। जब 2012 में एक ऑडिटोरियम में गुरविंदर सिंह की अन्ने घोड़े दा दान देख रहा था तो लोग सबसे गंभीर और पीड़ादायक मौकों पर हंस रहे थे। उसमें डार्क ह्यूमर है जिस पर हंसा नहीं जाता। तिथि एक अलग फिल्म है। लेकिन पूछना चाहता हूं कि एक डायरेक्टर के तौर पर आप किसानों और ग्रामीणों की दशा को कितना महसूस करते हैं? ग्रामीणों की कठिनाइयां बनाम कॉमेडी जो हम दिखा रहे हैं तिथि में, इससे हम हासिल क्या कर रहे हैं सिवा कलाकत्मक रूप से एक मजेदार फिल्म देने के?
मैं समझ रहा हूं आप क्या कह रहे हैं। मैं आर्ट में नैतिकता से दूर ही रहता हूं। कहानी में तीन मुख्य किरदार हैं और उन्हें एक खास तरीके से इरादतन एक-दूसरे का विरोधाभासी रखा गया है। भौतिकवाद (materialism) और अभौतिकवाद (non-materialism) पर भी इसमें टिप्प्णी है। कई बातों में एक बात यह भी है कि फिल्म सिर्फ गांव-केंद्रित नहीं मानव-केंद्रित भी है। आप भौतिकतावादी ढंग से किसी चीज के पीछे हो तो ये कई मायनों में आत्म-विनाशकारी है। यही फिल्म के सूत्रधार के साथ होता है। अगर आप फिल्म के किरदारों से खुद को थोड़ा अलग करके देख सकें तो उस स्थिति में होने के अलावा आप बहुत आत्म-शक्ति भी पा सकते हैं।
   हम कभी भी राजनीतिक वकतव्य देने के इच्छुक नहीं थे, हम मानवीय टिप्पणी कर रहे थे। ये सिर्फ स्थिति ही थी कि हम किसानों के साथ काम कर रहे थे। कोई राजनीतिक इरादा न था। सिर्फ एक इरादा था और मानवीय परिस्थितियों पर टिप्पणी के लिहाज से इस फिल्म में सार्वभौमिकता है। मैंने कभी भी उन संघर्षों को महसूस नहीं किया जब मैं वहां गया.. ये जीवन जीने का एक तरीका था। जिस क्षेत्र में हमने शूट किया वो उपजाऊ जमीन वाला था और उनके यहां खेती की संस्कृति है और वे अच्छा कर रहे हैं। हम उस संस्कृति के प्रति ईमानदार बने रहे। ये हमारे शहरों से अलग दुनिया थी। वहां कोई कठिनाई नहीं थी।
  ये बहुत ही अपने में सिमटा समुदाय था और वे बहुत मजबूत थे। वे लाउड थे, खुश थे, उनके जीवन में सकारात्मकता थी और इसे फिल्म में होना ही था। सामाजिक मुद्दों पर बनी फिल्में अच्छी और उपयोगी हैं लेकिन कई बार ये नेगेटिव भी हो सकता है। हमारे देश और उसकी संस्कृति में इतनी सकारात्मकता है और ये बहुत ही सूक्ष्म स्तर पर है और उसे भी सामने लाया जाना जरूरी है। है न? हमें अच्छे की ओर भी देखने की जरूरत है। इस कहानी में कुछ कभी न भूले जा सकने वाले पात्र हैं और फिल्म की स्क्रिप्ट लिखने की प्रक्रिया में हमने बहुत कुछ सीखा। मुझे लगता है उन्हें देखने के बाद उनसे कुछ ग्रहण किया जा सकता है। खासकर के फिल्म के दो पात्रों से। तिथि एक सादगी है और मानव स्थिति पर टिप्पणी है। ये राजनीतिक चीज नहीं है।

आप सही हैं कि हमारे गांव हमें सकारात्मकता देते हैं, हम बहुत कुछ सीखते हैं वहां के जीवन जीने के तरीके से जिसे फिल्मों में ज्यादा टटोला नहीं गया है। लेकिन वहां जाित भेद है, ऐसी परंपराएं हैं जो माननी ही पड़ती हैं। जैसे आप प्राग में पढ़े हैं, वहां की सभ्यता में एक किस्म की निजी स्वतंत्रता है। क्या ये ठीक है कि गांवों में वैयक्तिकता या आजादी नहीं है? क्या शहर वैयक्तिकता, आजादी देते हैं, प्रगतिवादी होने देते हैं? गांवों का विचार समुदाय पर आधारित है, निजता पर नहीं। आप जब तिथि बना रहे थे तो मंड्या में सकारात्मकता देखी लेकिन उन परंपराओं का क्या जैसे कोई मर गया है तो 12 दिनों तक भला एक गरीब परिवार मिठाई और भोज की व्यवस्था कहां से करेगा? आदमी रोता है और कर्ज लेकर शोक के दिनों में देसी घी का भोज पूरे गांव के लिए आयोजित करता है। आपको लगता है कि किसी सुधार की जरूरत है? या जो भी जीवन अभी वहां है वो अच्छा है?
ये एक रोचक सवाल है लेकिन मैं आर्ट की ओर ऐसे नहीं बढ़ता हूं। मैं पॉजिटिव चीजें ही लेना पसंद करता हूं। मुझे लगता है कि गांवों में सकारात्मकता है और वो शहरों से ज्यादा है। जैसे समुदायायिकता का मजबूत भाव होने के कई फायदे हैं। लोग गांव में ज्यादा आत्म-निर्भर हैं। वहां विषमताएं या असमानताएं इतनी नहीं हैं जितनी कि शहरों में है। शहरों में गैर-बराबरी भयंकर है। गांव में लोग तकरीबन समान स्तरों पर ही हैं जो कि पॉजिटिव बात है। ऐसी कई अच्छी चीजें गांवों में हैं। मुझे लगता है कि कृषक समुदाय भी एक विकसित समुदाय है। मुझे लगता है कि शहरों में हम लोग अति-उपभोक्तावादी हो गए हैं। निजी तौर पर अगर आप मुझसे पूछें और जिस स्पिरिचुअल परिवार से मैं आता हूं, तो मुझे लगता है कि सबसे सही और एकमात्र रास्ता भीतर ही है। यदि हर इंसान अपने भीतर की यात्रा करे तो समाज की बहुत सी समस्याएं चाहे वो गांव में हों या शहर में हल हो जाएंगी। फिल्म को भी मानवीय स्तर पर मैं ऐसा ही अहसास देना चाहता था।
Raam Reddy with Ere Gowda.

अपने दोस्त ऐरे गवडा के बारे में बताएं जो फिल्म को रचने में आपके भागीदार हैं?
बहुत गहरा रिश्ता है हमारा। फिल्म बनाना आमतौर पर बहुत ही जटिल प्रक्रिया है लेकिन हमारे बेजोड़ साथ से ये आसान हुआ। हम दोनों के दिमागों ने एक-दूसरे का बेहतरी से साथ दिया। ऐरे बहुत अच्छा लेखक है। हम बहुत सालों के दोस्त हैं। हमारी दोस्ती किन्हीं कर्मों का ही फल लगती है क्योंकि हम अलग-अलग पृष्ठभूमि से आते हैं और उसका दोस्ती पर कहीं असर नहीं पड़ा। हम लोगों ने तिथि मिलकर बनाई है। फिल्म देखते हुए आपको हमारा रिश्ता भी नजर आएगा। हास्य को जैसे हमने बुना है, किरदार जैसे हैं, उनमें बहुत सारा मैं भी हूं, बहुत सारा वो भी है। वो ग्रामीण जीवन को बहुत भीतर से जानता है और उसने जितनी संभव थी उतनी प्रामाणिकता दी। इसी कारण फिल्म बहुत ईमानदार और पर्यवेक्षणीय (observational) बनी। इसमें जो ईमानदारी है उसमें कोई मसाला नहीं है। ये दुनिया जैसी थी हमने वैसी ही कैप्चर की है। ऐरे उसी गांव से हैं जिसमें हमने शूट किया और जहां के सब किरदार है।

निराश और हतोत्साहित होते हैं तो हौसला पाने के लिए क्या करते हैं? आपके जीवन दर्शन के केंद्र में क्या है?
मेरे जीवन दर्शन के केंद्र में ये है कि जो ये पल है इसी में जिओ। जब आप मौजूदा पल में ही जीने लगते हैं तो आप बुझते नहीं हैं। ये समझा पाना कठिन है, ये हर बार संभव नहीं लेकिन आप तभी बुझ जाते हैं जब मौजूदा पल से बाहर सोच रहे होते हैं। आप या तो अतीत में मनन कर रहे होते हैं या फिर भविष्य को लेकर बेचैन होते हैं। मैं हमेशा इसी पल पर ध्यान केंद्रित करता हूं। इसमें बहुत ताकत है। इसके अलावा मेरा ये भरोसा भी है कि हर चीज नहीं होने वाली है, हर बार सफलता नहीं मिलने वाली है लेकिन अगर आप अपने दिल के प्रति ईमानदार रहें और फिर फेल हों तो उसे स्वीकार करना आसान होता है बजाय उसके कि आपको दिल मना कर रहा हो और आप वो काम करते जाएं। इसका कोई परिमाप नहीं है लेकिन जो भी आ रहा है सामने, उसे आप लेते जाएं।

वाकई?
भारत वो देश है जिसने शून्य की संकल्पना की। हम सबसे प्राचीन और बुद्धिमत्तापूर्ण सभ्यताओं में से हैं। भीतर की ओर यात्रा के लिहाज से हमारे इतिहास में किसी भी अन्य स्थान के मुकाबले ज्यादा गहराई है। और मुझे लगता है कि अभी हम ऐसा देश हैं जो बहुत ज्यादा बाहर की ओर देखने लगे हैं। अगर हम अपनी जड़ों की ओर लौटें तो वहां बहुत समझदारी मिलेगी। जैसे 10 या 15 हजार साल पू्र्व या 5000 साल पूर्व जब योग की रचना की गई।
The other three generations in the film.

Raam Reddy, 26, is from Bengaluru. He is a very talented Indian film writer and director. His first feature film Thithi has been very very exciting. It has won many prestigious awards all over the world including the Golden Leopard at the Locarno I'ntl Film Fest in 2015 and a National Award this year for the Best Kannada Film. The film opens today in Karnataka.
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Thursday, October 9, 2014

कोई भी मुश्किल ऐसी नहीं है जिसका हल न हो और मेरा एक बड़ा उसूल है कि बड़ा फोकस नहीं रखतीः समृद्धि पोरे

 Q & A. .Samruddhi Porey, Director Hemalkasa / Dr. Prakash Baba Amte-The Real Hero.



मला आई व्हायचय! समृद्धि पोरे की पहली फिल्म थी। इसे 2011 में सर्वश्रेष्ठ मराठी फिल्म का राष्ट्रीय पुरस्कार मिला। बॉम्बे हाईकोर्ट में सरोगेट मदर्स के मामलों से उनका सामना हुआ और उन्होंने इसी कहानी पर ये फिल्म बनाई। एक विदेशी औरत एक महाराष्ट्रियन औरत की कोख किराए पर लेती है। उसे गोरा बच्चा होता है लेकिन बाद में मां पैसे लेने से इनकार कर देती है और बच्चा नहीं देती। फिर वही बच्चा मराठी परिवेश में पलता है। आगे भावुक मोड़ आते हैं। समृद्धि कानूनी सलाहकार के तौर पर मराठी फिल्म ‘श्वास’ से जुड़ी थीं और इसी दौरान उन्होंने फिल्म निर्देशन में आने का मन बना लिया। कहां वे कानूनी प्रैक्टिस कर रही थीं और कहां फिल्ममेकिंग सीखने लगीं। फिर उनकी पहली फिल्म ये रही। अब वे एक और सार्थक फिल्म ‘हेमलकसा’ लेकर आ रही हैं। इसका हिंदी शीर्षक ये है और मराठी शीर्षक ‘डॉ. प्रकाश बाबा आमटे – द रियल हीरो’ है। रमन मैग्सेसे पुरस्कार से सम्मानित समाजसेवी प्रकाश आमटे और उनकी पत्नी मंदाकिनी के जीवन पर ये फिल्म आधारित है। इसमें इन दो प्रमुख भूमिकाओं को नाना पाटेकर और सोनाली कुलकर्णी ने निभाया है। फिल्म 10 अक्टूबर को हिंदी, मराठी व अंग्रेजी भाषा में रिलीज हो रही है। विश्व के कई फिल्म महोत्सवों में इसका प्रदर्शन हो चुका है। इसे लेकर प्रतिक्रियाएं श्रद्धा, हैरत और प्रशंसा भरी आई हैं।

प्रकाश आमटे, प्रसिद्ध समाजसेवी बाबा आमटे के पुत्र हैं। बाबा आमटे सभ्रांत परिवार से थे। उनके बारे में ये सुखद आश्चर्य वाली बात है कि वे फिल्म समीक्षाएं किया करते थे, ‘पिक्चरगोअर’ मैगजीन के लिए। वर्धा में वे वकील के तौर पर प्रैक्टिस करते थे। ये आजादी से पहले की बात है। वे स्वतंत्रता संग्राम में भी शामिल हुए। गांधी जी के आदर्शों से प्रभावित बाबा आमटे गांधीवादी बन गए और ताउम्र ऐसे ही रहे। उन्होंने कुष्ठ रोगियों की चिकित्सा करनी शुरू की। तब समाज में कुष्ठ को कलंक से जोड़ कर देखा जाता था और इसे लेकर अस्पर्श्यता थी। आजादी के तुरंत बाद उस दौर में बाबा आमटे ने ऐसे रोगियों और कष्ट में पड़े लोगों के लिए महाराष्ट्र में तीन आश्रम खोले। उन्हें गांधी शांति पुरस्कार, पद्म विभूषण और रमन मैग्सेसे से सम्मानित किया गया। डॉक्टरी की पढ़ाई करने के बाद अपना शहरी करियर छोड़ बेटे प्रकाश आमटे भी गढ़चिरौली जिले के जंगली इलाके में आ गए और 1973 में लोक बिरादरी प्रकल्प आश्रम खोला और आदिवासियों, पिछड़े तबकों और कमजोरों की चिकित्सा करने लगे। बच्चों को शिक्षा देने लगे। उनका केंद्र महाराष्ट्र, आंध्र प्रदेश और मध्य प्रदेश की सीमाओं से लगता था और वहां के जंगली इलाकों में मूलभूत रूप में रह रहे लोगों के जीवन को सहारा मिला। उनकी एम.बी.बी.एस. कर चुकीं पत्नी मंदाकिनी भी इससे जुड़ गईं। बाबा आमटे के दूसरे पुत्र विकास और उनकी पत्नी भारती भी डॉक्टर हैं और वे भी सेवा कार्यों से जुड़ गए। आज इनके बच्चे भी गांधीवादी मूल्यों पर चल रहे हैं और अपने-अपने करियर छोड़ समाज सेवा के कार्यों को समर्पित हैं।

Cover of Ran Mitra
प्रकाश और मंदाकिनी आमटे को 2008 में उनके सामाजिक कार्यों के लिए फिलीपींस का सार्थक पुरस्कार रमन मैग्सेसे दिया गया। उनके अनुभवों के बारे में प्रकाश की लिखी आत्मकथा ‘प्रकाशवाटा’ और जंगली जानवरों से उनकी दोस्ती पर ‘रान मित्र’ जैसी किताब से काफी कुछ जान सकते हैं। जब उन्होंने गढ़चिरौली में अपने कार्य शुरू किए, उसी दौरान उन्होंने वन्य जीवों के संरक्षण का काम भी शुरू किया। आदिवासी पेट भरने के लिए दुर्लभ जीवों, बंदरों, चीतों, भालुओं का शिकार करके खा जाते थे। प्रकाश ने देखा कि उनके बच्चे पीछे भूखे बिलखते थे तो उन्होंने भोजन के बदले मारे गए जानवरों के बच्चे आदिवासियों से लेकर अपने जंतुआलय की शुरुआत की। लोक बिरादरी प्रकल्प, इस जंतुआलय और करीबी इलाके को हेमलकसा के नाम से जाना जाता है। इसी पर फिल्म का हिंदी शीर्षक रखा गया है। यहां शेर, चीते, भालू, सांप, मगरमच्छ, लकड़बग्गे और अन्य जानवर रहते हैं। प्रकाश उन्हें अपने हाथ से खाना खिलाते हैं, उनके साथ खेलते हैं और उनके बीच एक प्रेम का रिश्ता दिखता है। समृद्धि ने अपनी फिल्म में ये रिश्ता बयां किया है। महानगरीय संस्कृति के फैलाव और प्रकृति से हमारे छिटकाव के बाद जब हेमलकसा जैसी फिल्में आती हैं तो सोचने को मजबूर होते हैं कि हमारी यात्रा किस ओर होनी थी। सफलता, करियर, समृद्धि, आधुनिकता, निजी हितों के जो शब्द हमने चुन लिए हैं, उनके उलट कुछ इंसान हैं जो मानवता के रास्ते से हटे नहीं हैं। उनकी महत्वाकांक्षा प्रेम बांटने और दूसरों की सहायता करने की है। और इससे वे खुश हैं। ‘हेमलकसा/डॉ. प्रकाश बाबा आमटे – द रियल हीरो’ ऐसी फिल्म है जिसे वरीयता देकर देखना चाहिए। इसलिए नहीं कि फिल्म को या फिल्म के विषय को इससे कुछ मिलेगा, इसलिए कि हमारी जिंदगियों में बहुत सारी प्रेरणा, ऊर्जा और दिशा आएगी। खुश होने और एक बेहतर समाज बनाने की कुंजी मिल पाएगी।

इस फिल्म को लेकर समृद्धि पोरे से बातचीत हुई। प्रस्तुत हैः

फिल्म को लेकर अब तक सबसे यादगार फीडबैक या कॉम्प्लीमेंट आपको क्या मिला है?
बहुत सारे मिले। …मुझसे पहले आमिर खान प्रोडक्शंस प्रकाश आमटे जी के पास पहुंच गया था। उन्हें ये अंदाजा हो गया था कि कहीं न कहीं ये कहानी विश्व को प्रेरणा दे सकती है। मैं वहां प्रकाश आमटे जी के साथ रही 15-20 दिन। मैंने कहा, मुझे आपकी जिंदगी पर फिल्म बनानी है। उन्होंने इसके अधिकार आमिर खान जी को दिए नहीं थे, लेकिन वो सारे काग़जात वहां पड़े हुए थे। मैं सोच रही थी कि नतीजा जो भी होगा, कोई बात नहीं, क्योंकि कोई बना तो रहा है। तब मुझे अपनी पहली फिल्म के लिए दो नेशनल अवॉर्ड मिल चुके थे। ऐसे में दर्शकों को ज्यादा उम्मीदें थीं। मेरी भी इच्छा थी कि इस बार फिर किसी सामाजिक विषय पर काम करूं। दूसरी फिल्म में भी मैं समाज को कुछ लौटाऊं। इसी उधेड़-बुन में मैंने कहा, “भाऊ (प्रकाश जी को मैं इसी नाम से बुलाती हूं), कोई बात नहीं, कोई तो बना रहा है”। वे ऐसे इंसान हैं जो ज्यादा बोलते नहीं हैं, बस कोने में चुपचाप काम करते रहते हैं। लेकिन अगर सही मायनों में देखें तो इतना विशाल काम है। शेर, चीते यूं पालना कोई खाने का काम नहीं है। पर वे करते हैं। उसमें भी उन्हें सरकार की मदद नहीं है। तो मन में था कि मैं कुछ करूं। मैं सोच रही थी कि आमिर खान बैनर के लोग करेंगे तो भी ठीक। बड़े स्तर पर ही करेंगे।

Dr. Mandakini, Samruddhi & Prakash Amte
भाऊ पर 11 किताबें लिखी जा चुकी हैं, मैं सब पढ़कर गई थी। मैं जब वहां रही तो उनसे पूछती रहती थी कि ये क्या है? वो क्या है? ये कब हुआ? वो कब हुआ? इन सारे सवालों के जवाब वे देते चले जाते थे। सुबह 5 बजे हम घूमने जाते थे। साथ में शेर होता था, मंदाकिनी भाभी होती थीं। जो-जो वे करते थे, मैं करती थी। कुछ दिन बाद मैं मुंबई आ गई। सात दिन बाद में उन्होंने ई-मेल पर अपनी बायोपिक के पूरे एक्सक्लूसिव राइट्स मुझे मेल कर दिए। सारी भाषाओं के। उन्होंने कहा कि “जब समृद्धि हमारे साथ 15-20 दिन रही तो हमें लगा कि 40 साल से जो काम हम कर रहे हैं, उसे वो जी रही थी। हमें लगा कि वो बहुत योग्य लड़की है और हमारे काम को सही से जाहिर कर सकती है”। तो भगवान के इस आशीर्वाद के साथ मेरी जो शुरुआत हुई वो अच्छा कॉम्प्लीमेंट लगा।

फिल्म बनने के बाद भी कई लोगों ने सराहा। अभी मैं स्क्रीनिंग के लिए कैनेडा के मॉन्ट्रियल फिल्म फेस्टिवल गई थी जहां फोकस ऑन वर्ल्ड सिनेमा सेक्शन में पूरे विश्व की 60 फिल्में दिखाई गईं। उनमें अपनी फिल्म ‘डॉ. प्रकाश बाबा आमटे’ चुनी गई थी। भारत से ये सिर्फ एक ही फिल्म थी। और जिन-जिन की फिल्में वहां थीं, उन मुल्कों के झंडे लगाए गए थे। तिरंगा मेरे कारण वहां लहरा पाया, ये आंखों में पानी लाने वाला पल था। लंदन में थे तो ब्रिटिश प्रधानमंत्री डेविड कैमरॉन ने नानाजी और मुझे खास न्यौता दिया कि एक प्रेरणादायक व्यक्ति पर फिल्म बनाई है। ये सब यादगार पल हैं लेकिन जो मुझे सबसे ज्यादा बढ़िया लगा वो ये कि फिल्म बनने के बाद सिंगापुर में मैंने प्रकाश आमटे जी को पहली बार दिखाई। फिल्म शुरू होने के पांच मिनट बाद ही उनकी एक आंख रो रही थी और होठ हंस रहे थे। मैं पीछे बैठी थी, मोहन अगाशे मेरे साथ थे। उनका हाथ कस कर पकड़ रखा था क्योंकि मैं बहुत नर्वस थी। जिन पर मैंने फिल्म बनाई उन्हें ही अपने साथ बैठाकर फिल्म दिखा रही हूं, ये मेरी लाइफ का बड़ा अद्भुत पल था। फिल्म पूरी होने के बाद वे बहुत रो रहे थे क्योंकि उन्हें बाबा आमटे, अपना बचपन और बिछड़े हुए लोग जो चले गए हैं, वो सब दिख रहा था। उनकी खासियत ये है कि वे सब पर विश्वास करते हैं। चाहे सांप हो या अजगर। तो फिल्म बनाने के प्रोसेस में उन्होंने मुझे कभी नहीं टोका। उन्होंने मुझ पर जो विश्वास किया था मुझे लग रहा था कि क्या मैं उसे पूरा कर पाई हूं।

स्क्रीनिंग खत्म होने के बाद जैसे ही मैं उनके सामने पहुंची, उन्होंने मुझे एक ही वाक्य कहा, “तुमने क्या मेरे बचपन से कैमरा ऑन रखा था क्या? इतनी सारी चीजें तुम्हें कैसे पता चली? क्योंकि मैंने किसी को बताई नहीं”। मुझे ये सबसे बड़ा और उच्च कॉम्प्लीमेंट लगा। उसके बाद मुझे कोई भी अवॉर्ड उससे छोटा ही लगता है।

फिल्म के आपने नाम दो रखे, मराठी और हिंदी संस्करणों के लिए, उसकी वजह क्या थी? जैसे ‘हेमलकसा’ है, मुझे लगता है ये दोनों वर्जन के लिए पर्याप्त हो सकता था। ‘डॉ. प्रकाश बाबा आमटे’ भी दोनों में चल सकता था।
बहुत ही बढ़िया क्वेश्चन पूछा आपने। कारण है। दरअसल प्रकाश आमटे जी का साहित्य मराठी में बहुत प्रसिद्ध है। देश के बाहर भी, लेकिन बाकी महाराष्ट्र और भारत में उनके बारे में ज्यादा नहीं पता है। लोग मेरे मुंह के सामने उन्हें बाबा आमटे कहते हैं। कहते हैं कि ये फिल्म बाबा आमटे पर बनाई है। बाबा आमटे ने कुष्ठ रोग से पीड़ितों के लिए बहुत व्यापक काम किया। प्रकाश जी उन्हीं के असर में पले-बढ़े और उसके बाद उन्होंने वहां एक माडिया गोंड आदिवासी समुदाय है जिसके लोग कपड़े पहनना भी नहीं जानते, उनके बीच काम किया। उनकी वाइफ मंदाकिनी सिर्फ अपने पति का सपना पूरा करने के लिए इस काम में उनके साथ लगीं, जबकि इसमें उनका खुद का कुछ नहीं था। दोनों के बीच एक अनूठी लव स्टोरी भी रही। जिस इलाके में उन्होंने काम किया वो नक्सलवाद से भरा है। वहां काम करना ही बड़ी चुनौती है। मैं भी बंदूक की नोक पर वहां रही। अब तो वे हमें जानने लगे हैं। ऐसे इलाके में जान की परवाह न करते हुए प्रकाश जी काम करते हैं। ऐसा कहा जाता है कि वहां के लोगों के बच्चे बंदूक थाम लेते हैं तो पीछे लौटने का रास्ता नहीं बचता। लेकिन प्रकाश जी ने इसे भी झुठलाया है। उन्होंने इन बच्चों को इंजीनियर-डॉक्टर बना दिया है। आज कोई न्यू यॉर्क में काम कर रहा है, कोई जापान में काम कर रहा है, कोई जर्मनी में। ये ऐसे बच्चे थे जिन्हें कोई भाषा ही नहीं आती थी। उन बच्चों को लेकर पेड़ के नीचे उन्होंने स्कूल शुरू किया था, आज वो जापान जैसे मुल्कों में बड़े पदों पर हैं।

तो ये इतनी विशाल कहानी थी। पहले तो मुझे हिंदी में ये कहानी समझानी थी। मराठी में प्रकाश जी को चाहने वाले लोग हैं, तो वहां पर मुझे डॉ. प्रकाश बाबा आमटे के सिवा कोई और नाम नहीं रखना था। लोग इंटरनेशनली गूगल करते हैं और प्रकाश जी का नाम डालते हैं तो जानकारी आ जाती है। पूना, कोल्हापुर, शोलापुर में उन्हें सब नाम से जानते हैं। वहां लोग अपने बच्चों को उन पर लिखी कहानियों की किताब लाकर देते हैं। मुझे पता था मराठी में उनके नाम में ही वैल्यू है। लेकिन हिंदी के लिए मुझे लगा कि एक सामाजिक पिक्चर है वो कहीं बह न जाए। हेमलकसा क्या है? लोगों को पता ही नहीं है। उसका अर्थ क्या है? वहीं से जिज्ञासा पैदा हो जाती है। कि नाना पाटेकर इस फिल्म में काम कर रहे हैं, पोस्टर में शेर के साथ दिख रहे हैं लेकिन ये हेमलकसा क्या है? इसका अर्थ क्या है? ये जानने के लिए लोग खुद ढूंढ़ेंगे।

हेमलकसा ऐसी जगह है जो बहुत साल तक भारत के नक्शे पर ही नहीं थी। नक्सलवाद के बड़े केंद्रों में से एक था। कई स्टेट पहले मना करते थे कि ये हमें हमारे दायरे में नहीं चाहिए। आंध्र प्रदेश, मध्य प्रदेश और महाराष्ट्र के बिलकुल किनारे पर हेमलकसा है। वहां जाने के लिए 27 नदियां पार करनी पड़ती हैं। वहां तीन नदियों का संगम है। भारत में नदियों के संगम पर ऐसी कोई जगह नहीं जहां मंदिर, मस्जिद या गुरुद्वारा नहीं हो, लेकिन वहां पर प्रकाश आमटे जी ने होने ही नहीं दिया। वो ईश्वर सृष्टि को मानते हैं। तो मैं हेमलकसा से कहानी को जोड़ना चाहती थी। प्रकाश आमटे बोलो तो लोग सिर्फ सामाजिक कार्यों का सोचकर भूल जाते हैं। लेकिन मुझे ज्यादा से ज्यादा लोगों से हेमलकसा का परिचय करवाना था। कि इसका मतलब क्या है, ये कहां है।

ये सवाल मुझे बहुत महत्वपूर्ण तो नहीं लगता है लेकिन हर बार पूछना चाहता हूं कि सार्थक और छोटे बजट की फिल्में जब रिलीज होती हैं तो उनका सामना बॉलीवुड की करोड़ों की लागत वाली फिल्मों से होता है। क्या ऐसी फिल्मों से आपको कोई चुनौती महसूस होती है? आपका ध्यान किस बात पर होता है?
बराबर है कि लोग करोड़ों की फिल्में बनाते हैं और उनका उद्देश्य सिर्फ और सिर्फ पैसा कमाना होता है। लेकिन मुझे वैसी नहीं बनानी, पहले से ही स्पष्ट है। मेरा इस फिल्म को बनाने का पहला कारण ये था कि मुझे प्रकाश आमटे जी की कहानी में एक फिल्म की कहानी नजर आई। उन्होंने अपना पूरा जीवन लगा दिया है। हर आदमी कहता कि जो आप दिखा रहे हो वो सच में है क्या। विदेशों में स्क्रीनिंग के दौरान मुझसे बार-बार लोगों ने पूछा है। कि क्या ऐसा आदमी सच में है। मैं कहती हूं वे अभी भी जिंदा हैं। आप जाइए हेमलकसा और देखिए कैसे शेरों और भालुओं के साथ प्रकाश आमटे जी खेल रहे हैं। हम लोग जब उन जानवरों के पास जाते हैं तो वो नाखुन निकालते हैं, लेकिन उनको कुछ नहीं कहते है। क्योंकि कहीं न कहीं बॉन्डिंग है आपस में। तो ये अद्भुत कहानी है। आज भी घट रही है और लोगों को पता नहीं है। अब आपका सवाल, तो मुझे दुख नहीं होता बड़ी फिल्मों से मुकाबला करके। मेरी पहली फिल्म ने 37 अवॉर्ड जीते थे। दुनिया घूम ली। ये फिल्म भी अब तक 17 इंटरनेशनल अवॉर्ड जीत चुकी है। मॉन्ट्रियल जैसे बड़े फिल्म महोत्सवों में इसका प्रीमियर हुआ है। शिकागो फिल्म फेस्टिवल से बुलावा आया। यंग जेनरेशन के लोग ये फिल्म देखते हैं तो सुन्न हो जाते हैं, थोड़ी देर मुझसे बात नहीं कर पाते हैं। उन्हें लगता है कि वे बेकार जीवन जी रहे हैं। जैसे, सिंगापुर।

वहां हमारा शो होना था। चूंकि फिल्म का नाम ऐसा था और उसमें कोई इंटरनेशनल स्टार नहीं था तो टिकट बिक नहीं रही थी। सब इंग्लिश फिल्म देखने वाले बच्चे हैं। स्क्रीनिंग से पहले कुछ सीटें खाली पड़ी थीं तो हमारे आयोजक ने कुछ अनिच्छुक युवाओं को भी बुला लिया। वो बैठ गए। फिल्म पूरी होने के बाद सेशन के दौरान वो लड़के कोने में खड़े रहे। उनके बदन में टैटू वगैरह थे और वेस्टर्न फैशन वाले अजीब कपड़े पहन रखे थे। वे खड़े रहे ताकि समय मिलने पर बात कर सकें। जब मिले तो एकदम गिल्टी फील के साथ जैसे कोई गुनाह कर दिया हो, “हम आना नहीं चाहते थे पहले तो। जबरदस्ती ही आए थे। अब लग रहा है कि हम बहुत फालतू जिए हैं आज तक। हम इंडिया से यहां आकर बस गए हैं। बहुत पैसे कमा रहे हैं। डॉलर घर भी भेज रहे हैं। हमें लगता था कि हम सक्सेसफुल हैं, पर अब लगता है जीरो हैं। ये आदमी (प्रकाश आम्टे) तो जांघिया-बनियान पहनकर भी सबसे बड़ा विनर है दुनिया का। हम तो बड़ी गाड़ियों, चमक-धमक और दुनिया घूमने को ही अपनी उपलब्धि मान रहे थे”। वे लड़के पूरी तरह सुन्न हो गए थे। उनका कहना था कि “हमें कुछ तो अब करना है”। वे आदिवासियों के बीच आकर रुकना वगैरह तो कर नहीं सकते थे तो बोले कि “एक मेहरबानी करें, हम साल में एक बार कॉन्सर्ट करते हैं, ये उसके पैसे हैं, ये प्रकाश जी को दे दें। ये हमारा एक छोटा सा योगदान हो जाएगा। आप काम कर रहे हैं, करते रहें, हमसे सिर्फ पैसे ले लें”।

लोगों की जिदंगी में ऐसे-ऐसे छोटे बदलाव भी आ जाएं तो मुझे लगता है वो मेरा सबसे बड़ा अवॉर्ड होगा। शाहरुख खान की फिल्म करोड़ों कमा रही है तो मुझे वो नहीं चाहिए। मेरी सिर्फ एक चाह है कि मेरा मैसेज लोगों तक पहुंचे। पूरी दुनिया के कोने-कोने तक पहुंचे। समाज में ऐसे बहुत सारे लोग हैं जो ऐसे काम कर रहे हैं। उनका संदेश लोगों तक पहुंचा सकूं तो मेरा जीवन भी सार्थक होगा।

प्रकाश जी का जीवन इस फिल्म में है, वैसे ही क्या बाबा आमटे और विकास आमटे की कहानी भी इसमें है?
Baba Amte & Prakash
पूरा आमटे परिवार ही सामाजिक कार्यों में जुटा है। हम लोग एक महीने की तनख्वाह भी किसी को नहीं दे सकते, किसी की सेवा नहीं कर सकते। मैं भी अगर जीवन के इस मुकाम पर सोचूं कि रास्ते के रोगी का घर लाकर इलाज करूं तो नहीं कर सकती। लेकिन बाबा आमटे ने वो काम किया है। वो भी अलग-अलग इतनी बड़ी कहानियां हैं कि एक फिल्म में सबको नहीं कहा जा सकता है। उनमें से मैंने प्रकाश जी की ही बायोपिक बनाई है अभी। उनके जीवन में पिता का जितना रोल होना चाहिए, भाई का जितना रोल होना चाहिए, मां का जितना रोल होना चाहिए, और बच्चों का, अभी उतना ही लिया है मैंने।

आपने नाना पाटेकर को प्रकाश जी के मैनरिज्म या अंदाज को लेकर ब्रीफ किया या सब उन्हीं पर छोड़ दिया? जैसे फिल्म में एक दृश्य है जहां वे प्रकाश आमटे जी के किरदार में आगंतुकों के सामने अपने प्रिय तेंदुओं व जंतुओं के साथ खेल रहे होते हैं।
नहीं, नहीं, नाना जी को एक्टिंग सिखाने वाला कोई पैदा नहीं हुआ है। प्रकाश आमटे और नाना बहुत सालों से एक-दूसरे को जानते हैं। बाबा आमटे के तीसरे बेटे के तौर पर नाना बड़े हुए हैं। वे तब से उस परिवार का हिस्सा हैं जब वे बतौर एक्टर कुछ भी नहीं थे। उसका फायदा मुझे फिल्म में मिला। इसके अलावा उनके जंतुआलय में जो प्राणि हैं वो अब नए हैं, तो उनके साथ काम करना था। हम लोग शूट से एक महीना पहले ही वहां चले गए थे। नाना जी ने बहुत मेहनत की। मैंने जो-जो स्क्रिप्ट में उनके किरदार के बारे में लिखा था, उन्होंने किया। जैसे, मैंने एक जगह लिखा था कि जब वे शेर के साथ नदी में नहाते हैं तो लौटते हुए उनके बदन पर टैनिंग का दाग दिखता है। तो वो टैनिंग का दाग मुझे चाहिए थे। उसके लिए भी नाना जी ने धूप में जल-जल के टैनिंग की। ऐसे बहुत सारे दृश्य और जरूरतें थीं। मेरे मन में थी। जब-जब मैंने उसे शेयर की, उन्होंने वो किया। जब तक मेरा मन संतुष्ट नहीं होता था, वे उतनी बार रीटेक्स करवाते थे। प्राणियों के साथ भी उन्होंने काफी वक्त बिताया, उन्हें खाना खिलाया, उनके साथ खेले। थोड़े बहुत शेर के नाखुन भी उन्हें लगे। पेट पर लगे, पीठ पर लगे। उनसे रिकवर होने के बाद उन्होंने फिर प्राणियों से दोस्ती बनाई। फिल्म में अगर वो शेर और तेंदुए के साथ इतने सहज दिख रहे हैं वो इसलिए कि उनकी दोस्ती पहले से ही हो चुकी है।

फिल्ममेकर क्यों बनीं? इतना जज़्बा इस पेशे को लेकर क्यों था?
मैं ये कहना चाहूंगी कि फिल्ममेकर बना नहीं जाता, फिल्ममेकर के तौर पर ही पैदा होते हैं। क्योंकि मैं वैसे पेशे से तो, आपको पता होगा, हाई कोर्ट (बॉम्बे हाई कोर्ट) में वकील हूं। मैं सरोगेट मदर विषय पर केस भी लड़ रही थी। कि कितना बड़ा कारोबार चल रहा है भारत में इस पर। जो पूरा स्कैंडल था। एक वकील के तौर पर मैं कुछ भी नहीं कर पा रही थी क्योंकि एग्रीमेंट हो चुका था दोनों मांओं में। मैंने देखा कि जो सरोगेट मदर्स यहां से भाड़े पर लेती हैं यूरोपियन लेडीज़ वो इसलिए क्योंकि अपना वजन खराब नहीं करना चाहतीं। 2002 में हमारे यहां कायदा बना। उससे सरोगेट मदर्स गैर-कानूनी नहीं है पर उनके लिए फायदेमंद भी नहीं है। पता चला कि ब्रोकर्स बहुत बीच में आ गए हैं। जितनी भी भारतीय महिलाएं अपनी कोख भाड़े पर देती थीं उन्हें पढ़ना-लिखना नहीं आता था। उनसे कहीं भी अंगूठा लगवा लिया जाता था। वो पैसे की मजबूरी में या बच्चे पालने के लिए इस ट्रेड में शामिल हो जाती थीं। कहीं भी अंगूठा लगा रही हैं, पता नहीं कितना जीरो लगता है, कितना लाख मिलता है? अभी एक प्रेगनेंसी के पीछे 10 से 12 लाख भाव चल रहा है भाड़े की कोख का। मैंने ब्रोकर्स को देखा है कि 9 लाख प्लस रखकर एक लाख उस लेडी को प्रेगनेंसी के नौ महीनों के बाद देते हैं। ये सब बहुत इमोशनल था। औरतें नौ महीने के बाद बच्चा हाथ में आता तो दूध पिलाती थीं और फिर कहती कि पैसा नहीं चाहिए बच्चा मेरा है। होता है न। गोरा बच्चा लेकर भाग गई। ये सारा कुछ इमोशनली इतना अजीब था कि मुझे लगा कहीं न कही फिल्म बनानी चाहिए। उस कहानी के साथ आगे बढ़ने के लिए मैंने खुद को फिल्ममेकिंग क्लास में डाला। फिल्ममेकिंग सीखी मुंबई यूनिवर्सिटी से। वहां मैंने एक छोटी फिल्म बनाई जो पूरी यूनिवर्सिटी में फर्स्ट आई थी। मुझे भरोसा हुआ कि मैं फिल्म बना सकती हूं। ये सबसे प्रभावी माध्यम है कहानियां कहने का तो इनके जरिए समाज के लिए कुछ कर सकूं तो सबसे बढ़िया रहेगा। क्योंकि सारे लोग सिर्फ बोलते हैं। मुझे लगा चित्र के साथ बोलो तो लोग सुनते हैं।

आपके बचपन के फिल्मी इनफ्लूएंस क्या-क्या रहे? कहानियों के लिहाज से असर क्या-क्या रहे?
रोचक बात है कि मुझे खुद को भी नहीं पता। अभी मैं सोचूं कि कब से आया होगा ये सब? एक तो मेरी मम्मी बहुत पढ़ती थी। ऐतिहासिक पात्र व अन्य। वो पढ़ने के बाद रोज दोपहर को या सोते समय मुझे व मेरे छोटे भाई को कहानी बताती थी। उनके बताने का स्टाइल ऐसा था कि आंखों के सामने चित्र बन जाते थे। उन्हें मैं विजुअलाइज कर पाती थी। दूसरा, फिल्में बहुत कम देखने को मिलती थी। तुकाराम महाराज वाली या बच्चों वाली ही देखने को मिलती थी। धीरे-धीरे मम्मी-पापा के पीछे लगकर फिल्म देखना शुरू कर दिया। फिर मेरी जो चार-पांच दोस्त थीं, उन्हें बोलती थी कि तुम्हे फिल्म बताऊं कि कहानी बताऊं? अगर फिल्म बतानी है तो मैं सीनवाइज़ बताती थी कि वो ब्लैक कलर की ऊंची ऐड़ी की सैंडल पहनकर आती है और हाथ में कप होता है जिसमें पर्पल कलर के फूल होते हैं.. वही कप पिक्चर में भी होता था। मतलब पूरी की पूरी फिल्म इतनी बारीकी से ऑब्जर्व होती थी फिर दो-चार लड़कियों से आठ लड़कियां मेरी कहानी सुनने आती, फिर दस, फिर बारह, फिर सारा मुहल्ला। फिर धीरे-धीरे ये होने लग गया कि डायेक्टर का सीन कुछ और होता था और मुझे लगता था कि ये सीन ऐसा होता तो ठीक होता, ऐसी कहानी होती तो और अच्छी लगती। तो उन कहानियों में मैंने अपने इनपुट डालने शुरू कर दिए। अगर गलती से किसी ने देख ली होती फिल्म, तो कहती कि अरे ये तो कुछ और ही बता रही है। अगर 8-10 लड़कियों को कहानी में इंट्रेस्ट आने लग जाता था तो उस बेचारी को बाहर निकाल देती थी कि तेरे को नहीं सुनना तो तू जा, हमें सुनने दे। मुझे लगा कि तब से ये आ गया।

लेकिन शुरू में इस तरह आने का इरादा इसलिए नहीं बना क्योंकि हमारे यहां माहौल ऐसा था कि जो लड़के फिल्म देखने जाते हैं वो बिगड़े हुए हैं। फिल्म क्षेत्र शिक्षा का हिस्सा नहीं माना जाता था। कोई प्रोत्साहन नहीं था। तो मैंने बीएससी माइक्रो किया, लॉ की पढ़ाई की, कुछ दिन गवर्नमेंट लॉ कॉलेज में काम भी किया, 15 साल प्रैक्टिस की। इन सबके बीच में लिखती रही। लिख-लिख के रख दिया। आज मेरे पास दस फिल्मों की कहानियां और तैयार हैं। इस बीच सरोगेसी वाला केस आया। इसी दौरान मैंने मराठी फिल्म ‘श्वास’ की टीम के साथ लीगल एडवाजर के तौर पर काम किया। तो एक-दो महीना उनकी मीटिंग्स में जाकर मैंने और मन पक्का कर लिया। घंटों निकल जाते थे लेकिन मैं बोर नहीं होती थी। तब मन इस तरफ पूरी तरह झुक गया।

'श्वास' का आपने जिक्र किया। अभी अगर क्षेत्रीय सिनेमा की बात करें तो मराठी में बेहद प्रासंगिक फिल्में बन रही हैं। यहां के समाज में ऐसा क्या है कि सार्थक सिनेमा नियमित रूप से आता रहता है?
यहां साहित्य बहुत है। घर में बच्चों में पढ़ने का संस्कार डाला जाता है। जैसे बंगाल में रविंद्रनाथ टैगोर का है। मुझे लगता है कि आपके बचपन से ही ये मूल रूप से आ जाता है। रानी लक्ष्मीबाई हैं, शिवाजी महाराज हैं, विनोबा भावे हैं, गांधी जी हैं, इन सबकी कहानियां स्कूली किताबों में भी होती हैं। परवरिश में वही आ जाता है। इन कहानियों से मन में भाव रहता है कि समाज के प्रति आपका कोई ऋण है और वो आपको चुकाना है।

आपने कहा कुछ कहानियां आपकी तैयार हैं। कैसे विषय हैं जिनमें आपकी रुचि जागती है? जिन पर भविष्य में फिल्में बना सकती हैं?
जैसे सात रंग में इंद्रधनुष बनता है, वैसे ही मुझे सातों रंगों की फिल्में बनानी हैं। मुझे कॉमेडी बनानी है, हॉरर बनानी है, लव स्टोरी बनानी है... लेकिन सब में कुछ ऐसा होगा कि तुम्हारी-मेरी कहानी लगेगी। ऐसा नहीं लगेगा कि तीसरी दुनिया की कोई चीज है। फिल्में ऐसी बनाऊं जो बोरियत भरी भी न हों। पर उनमें सार्थकता होती है। असल जिंदगी में लोग मुझसे रोज मदद मांगते हैं तो लगता है कहीं न कहीं मैं बहुत भाग्यशाली हूं कि लोगों के काम आ पा रही हूं। वो आते हैं क्योंकि उन्हें लगता है कि ये पूरा कर सकती है। कोई आपको मानता है ये बहुत बड़ा सम्मान है। मुझे लगता है सामाजिक फिल्में बनाने के कारण लोगों का मेरी ओर देखने का नजरिया ऐसा हो गया है। तो मैं उसे भी कम नहीं होने देना चाहती। एंटरटेनमेंट के क्षेत्र में हूं तो मनोरंजन तो करना ही चाहिए लेकिन इसके साथ आपको कुछ (संदेश) दे भी सकूं तो वो मेरी उपलब्धि है।

दुनिया में आपके पसंदीदा फिल्ममेकर कौन हैं?
मैं ईरानियन फिल्मों की बहुत मुरीद हूं। माजिद मजीदी की कोई भी फिल्म मैंने छोड़ी नहीं है। उनकी फिल्में सबसे ज्यादा अच्छी लगती हैं मुझे।

भारत में कौन हैं? सत्यजीत रे, बिमल रॉय, वी. शांताराम?
जी। मैंने सभी फिल्में तो इनकी नहीं देखी हैं लेकिन वी. शांताराम जी की ‘दो आंखें बारह हाथ’ बहुत अच्छी है। इतने साल पहले, ब्लैक एंड वाइट के दौर में, ऐसा सब्जेक्ट लेकर बनाना, हैट्स ऑफ है। बारह कैदियों को लेकर, एक लड़की, मतलब सारी चीजें हैं। कैसे वो आदमी सोच सकता है। उस जमाने में। जब सिर्फ रामलीला और ये सारी चीजें चलती थीं।

आप इतने फिल्म फेस्टिवल्स में गई हैं। वहां दुनिया भर से आप जैसे ही युवा व कुशल फिल्मकार आते हैं। उनकी फिल्मों, विषयों और स्टाइल को लेकर अनुभव कैसा रहा? उनका रिएक्शन कैसा रहा?
सबसे पहले तो बहुत गर्व महसूस होता है कि मराठी फिल्ममेकर बोलते ही लोगों के देखने का नजरिया बदल जाता है। क्योंकि देश से बाहर क्या है, बॉलीवुड, बस बॉलीवुड और बॉलीवुड मतलब सपने ही सपने। फिल्म फेस्टिवल्स में जाकर कहती हूं कि मराठी फिल्ममेकर हूं तो उनके जेहन में आता है कि तब कुछ तो अलग सब्जेक्ट लेकर आई होगी। अन्य देशों के फिल्ममेकर्स की फिल्में देखकर लगता है कि टेक्नीकली वे बहुत मजबूत हैं। बाहरी मुल्कों में यंगस्टर्स इतनी नई सोच लेकर आते हैं, समझौता जैसे शब्द वे नहीं जानते कि भई काम चला लो। नहीं। वे बहुत प्रिपेयर्ड होते हैं, उनका टीम वर्क दिखता है। यही लगता है कि हमारे पास इतने ज्यादा आइडिया और कहानी होती हैं लेकिन हम टेक्नीक में कम पड़ जाते हैं। बजट की दिक्कत होती है। ये सब हल हो जाएगा तो न जाने हिंदुस्तानी फिल्में क्या करेंगी।

और एक बहुत जरूरी बात मुझे कहनी है कि जब हम भारत से बाहर जाते हैं तो एक होता है कि फिल्मों से आपके देश का चित्र तैयार हो जाता है लोगों के मन में। तब बाहर ‘डेल्ही बैली’ या ‘स्लमडॉग मिलियनेयर’, कोई फिल्म लगी थी। उसे सभी ने देखा। उसमें मुझे लगा कि अतिशयोक्ति की गई। जैसे पोट्टी में वो बच्चा भीग गया, ऐसे कहीं नहीं होता है हमारे यहां। ठीक है, गरीबी है हमारे यहां पे, पर ऐसा नहीं होता है। वे गलत दिखा रहे हैं और कैश कर रहा है बाहर का आदमी। ये मुझे अच्छा नहीं लगा। ये हमारी जिम्मेदारी है। जैसे डॉ. प्रकाश बाबा आमटे जिन्होंने भी देखी है, उन्हें लगा है कि एक पति-पत्नी का रिश्ता ऐसा भी हो सकता है। हमारे देश का ये इम्प्रेशन कितना अच्छा जाता है। जबकि उन फिल्मों में किरदार और युवा इतनी गंदी भाषा इस्तेमाल कर रहा है। इससे बाहर के लोगों व दर्शकों में चित्रण जाता है कि भारत में आज का युवा ऐसा है। मुझे लगता है कि ये हम फिल्मकारों की जिम्मेदारी है कि ऐसा नहीं होना चाहिए।

गुजरे दौर की या आज की किन महिला फिल्ममेकर के काम का आप बहुत सम्मान करती हैं?
मुझे लगता है कि स्त्री भगवान ने बहुत ही प्यारी चीज बनाई है। वो क्रिएटर है। दुनिया बना सकती है। आपको जन्म देने वाली मां है, जननी है। वो सुंदर है। मन से सुंदर है, तन से सुंदर है। वो जो करती है अच्छा। मुझे लगता है कि इंडिया में जितनी भी लेडी फिल्ममेकर्स हैं वो कुछ नया लेकर आती हैं। कुछ सुंदरता है उनके काम में। पहले की बात करूं तो मैंने सईं परांजपे की फिल्में देखी हैं। बहुत सारी महिला फिल्मकार हैं जिनमें मैं बराबर पसंद करती हूं। सुमित्रा भावे हैं। नंदिता दास भी कुछ अलग बनाती हैं। दीपा मेहता हैं। इनमें मैं खुद को भी शामिल करती हूं।

‘हेमलकसा’ बनाने के बाद आपकी निजी जिंदगी में क्या बदलाव आया है? क्या व्यापक असर पड़ा है?
बहुत फर्क पड़ा है। मैंने 6 बच्चे गोद लिए हैं। मेरी खुद की दो बेटियां हैं। उन 6 बच्चों को घर पर नहीं लाई हूं पर पढ़ा रही हूं। बहुत से लोगों को प्रेरित किया है कि आप बच्चों की एजुकेशन की जिम्मेदारी ले लो, पैसा देना काफी नहीं है। मैं इन बच्चों को प्रोत्साहित करती हूं। बच्चों को जब दिखा कि कोई हम पर ध्यान दे रहा है, डांट रहा है, पढ़ाई का पूछ रहा है तो उनमें इतना बदलाव आया है। आप ईमारतें बना लो, कुछ और बना लो लेकिन बच्चों को अच्छा नागरिक बनाओ तो बात है। उन्हें बनाना नए भारत का निर्माण हैं। इन छह बच्चों में से कोई आकर कहता है कि मुझे मैथ्स नहीं पढ़नी है, मुझे फुटबॉल खेलना है। उस आत्मीयता में जो आनंद है वो मैं बता नहीं सकती। मेरी लाइफ में विशाल परिवर्तन हो गया है।

छोटा सा आखिरी सवाल पूछूंगा, आपकी जिदंगी का फलसफा क्या है? निराश होती हैं तो खुद से क्या जुमला कहती हैं?
कोई भी प्रॉब्लम ऐसी नहीं है जिसका सॉल्यूशन न हो। विचलित न हों। मेरी जिंदगी का एक बड़ा उसूल है कि मैं बड़ा फोकस नहीं करती हूं। मेरा ये फोकस नहीं है कि राष्ट्रपति के पास जाकर आना है। मैं छोटे-छोटे गोल तय करती हूं। वो एक-एक करके पाती जाती हूं। इसके बीच कुछ भी हो तो शो मस्ट गो ऑन। छोटी-छोटी चीजें हैं, सुबह ड्राइवर नहीं आया तो खुद गाड़ी चला हो। बाई नहीं आई तो चलो ठीक है, आज ब्रेड खा लो। कोई बड़ी मुश्किल नहीं होती। ये छोटी-छोटी बातें हैं जिन्हें हम बड़ा बनाते हैं। दूसरा, मेरी डायल टोन भी है, “आने वाला पल जाने वाला है, हो सके तो इसमें जिंदगी बिता दो”। जीभर जिओ। खुद भी खुश रहो और दूसरों को भी खुश रखो।

Samruddhi Porey is a young Indian filmmaker. She is a practicing lawyer in Mumbai High court as well. Her first film 'Mala Aai Vhaychhy' won the National Award for Best Marathi Film. Now her second movie 'Hemalkasa / Dr. Prakash Baba Amte - The Real Hero' is releasing on October 10. This film is based on Dr. Prakash Baba Amte, a renowned social worker and enviornmentalist from Maharashtra in India. Prakash and his wife Dr. Mandakini Amte has been presented the Ramon Magsaysay Award for community leadership, a few years back. Amte family is an inspiration for people across India and around the world. Nana Patekar and Sonali Kulkarni has played the lead roles in the movie.
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Monday, October 1, 2012

हमारे यहां रंग शंकरा में कोका कोला या पेप्सी का एक बोर्ड भी नहीं दिखेगा आपको: अरुंधति नाग

मुलाकात अरुंधति नाग से, अनुभवी थियेटर एक्ट्रेस जिन्हें 'दिल से' और 'पा' में देखा होगा
'40 साल बाद आज भी किसी प्ले के पहले पेट में तितलियां उड़ती हैं' Photo Courtsey: Jaswinder Singh



अरुंधति नाग की जिंदगी का पहला उत्कृष्ट बिंदु रहा रहा निर्देशक आर. बाल्की की फिल्म 'पा' के लिए बेस्ट सपोर्टिंग एक्ट्रेस का राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार पाना। दूसरा, बेंगलुरु में अपने मरहूम पति शंकर नाग के सपने को पूरा करना। 'रंग शंकरा थियेटर' की स्थापना जिसका आज बेंगलुरु के सांस्कृतिक नक्शे में बड़ा महत्व है। कन्नड़ फिल्मों के अभिनेता, डायरेक्टर और थियेटर हस्ती शंकर ने 1987 में अमर टीवी सीरीज 'मालगुड़ी डेज' का निर्देशन किया था। 1990 में उनकी रोड़ एक्सीडेंट में मृत्यु हो गई, जिसमें अरुंधति और उनकी बेटी भी गंभीर रूप से घायल हुए थे। नौ महीने व्हीलचेयर पर रहने के बाद सच्चे दोस्तों की फौज और थियेटर के मोह ने अरुंधति को फिर पैरों पर ला खड़ा किया। तब से उन्होंने खुद की जिंदगी को रंगमंच के नाम कर दिया। नतीजा है रंगमंच में उनकी कद्दावर शख्सियत। नतीजा है जिंदगी के हर सवाल के प्रति उनका सकारात्मक रवैया। जितने सवाल पूछे जाएं, वह बेहद शांति, सहजता, विनम्रता और खुशी से जवाब देती हैं।

आमतौर पर ऐसा नहीं होता कि कोई साक्षात्कार के दौरान इतना समझदार बना रहे। कोई साक्षात्कार ले रहा है तो व्यक्ति को लगता कि वह बेहद विशेष है, उसकी राय ली जा रही है, उससे कुछ पूछा जा रहा है। ऐसे में वह तान-तानकर शब्दों के गुच्छे छोडऩे शुरू करता। अरुंधति ऐसा नहीं करतीं। क्यों? वह इतनी सकारात्मक और सामान्य क्यों हैं? प्रत्युत्तर में वह बोलती हैं, "जिंदा हूं। ...थियेटर कर रही हूं, ...यहां बैठी हूं ...इसलिए। ...खुश हूं"। इसके बाद कुछ पल तक उनका ये जवाब गूंजता रहता है और विश्लेषित होता रहता है। उनकी बातों में बार-बार थियेटर का जिक्र आता है। शांत वार्ता के बीच वह कहीं-कहीं थोड़े से हास्य को भी छोड़ देती हैं। मसलन, उनके कई भाषाएं बोल पाने का गुण। वह कहती हैं, "हर इंडियन दो से तीन भाषा तो बोल ही लेता है, मेरा ये है कि मैं बस छह बोलती हूं"।

बतौर अदाकारा 1979 में आई अरुंधति की पहली फिल्म मराठी में थी। नाम था '22 जून 1897'। इस वक्त अरुंधति नाग का नाम अरुंधत्ति राव था। फिल्म जून 1897 में पुणे में घटी उन घटनाओं और परिस्थितियों के बारे में थी जिनकी वजह से ब्रिटिश सरकार के दो अधिकारियों की हत्या कर दी जाती है। फिर अरुंधति ने कन्नड़, तमिल और हिंदी में फिल्में की। इस साल उनकी मलयालम फिल्म 'दा थडिया' आने वाली है। इप्टा (इंडियन पीपुल्स थियेटर एसोसिएशन) के साथ उन्होंने मराठी और गुजराती में प्ले तो किए ही थे। ज्योति व्यास की टीवी सीरिज 'हाजी आवती काल चे' में भी उन्होंने गुजराती में अभिनय किया। इतने वृहद काम और इतनी सारी भाषाओं में उसे करने का श्रेय वह क्रॉस मैरिजेस को देती हैं। उनकी मां की पृष्ठभूमि, पिता का परिवार, दिल्ली में रहने के दिन, फिर मुंबई में फैमिली का आ बसना, बाद में कन्नड़ मूल के शंकर से शादी होना और ससुराल में अलग भाषाई माहौल का होना। सांस्कृतिक और भाषाई अनुभव में इन हालात से भी ज्यादा योगदान वह थियेटर का मानती हैं। अरुंधति कहती हैं, "थियेटर सबसे बड़ा कार्यवाहक रहा इस दौरान। जैसे, मेरी कन्नड़ शब्दावली उन 20 प्ले तक ही सीमित है जो मैंने किए हैं। मैं जिस-जिस भाषा में प्ले करती गई, उसमें थोड़ा-थोड़ा सीखती गई। इस साल मलयालम फिल्म की है। आगे अगर चाइनीज रोल करूंगी तो उस भाषा को भी सीमित तौर पर ही सही लेकिन सीखूंगी जरूर"।

हालांकि उनका अभिनय अनुभव 40 साल का है, पर हिंदी दर्शक अरुंधति को सिर्फ दो फिल्मों से पहचानते हैं। पहली मणिरत्नम की 1998 में आई फिल्म 'दिल से' और दूसरी आर. बाल्की की 'पा'। 'दिल से' में वह ऑल इंडिया रेडियो की हैड और एआईआर में ही काम करने वाले अमर वर्मा (शाहरुख) की बॉस बनी थीं, 'पा' में ऑरो (अमिताभ) की 'बम' नानी। चूंकि अमिताभ-शाहरुख भी शुरुआती पृष्ठभूमि में थियेटर से जुड़े रहे तो अनुमान लगता है कि उन फिल्मों के सेट्स पर थियेटर जरूर डिस्कस होता रहा होगा। मगर अरुंधति कहती हैं कि ऐसा नहीं था। वह बताती हैं, "वह दोनों बहुत बिजी इंसान थे। ज्यादातर वक्त तो शॉट्स के बीच अपनी एड फिल्म्स और आने वाली फिल्मों पर बात करते थे या फिर अपनी वैनिटी वैन में चले जाते थे। इसलिए थियेटर पर ऐसी कोई बातचीत तो उनके साथ नहीं हो पाती थी। किसी भी विषय पर नहीं हो पाती थी। पर हां, चूंकि मैं रंगमंच की पृष्ठभूमि से थी इसलिए दोनों मेरी बहुत इज्जत करते थे"।

बातों के आखिर से पहले वह कुछ जीवन ज्ञान भी दे चुकी होती हैं। कहती हैं कि अगर कोई सीखना चाहता है या अपने काम में सर्वश्रेष्ठ होना चाहता है तो उसे हर छोटे से छोटा काम ईमानदारी से करना चाहिए। अगर मैं झाड़ू भी निकाल रही हूं तो बहुत अच्छे से निकालूं, अगर टॉयलेट भी साफ कर रही हूं तो बहुत मन लगाकर करूं। जब उनसे पूछा जाता है कि थियेटर में संतुष्टि भले ही हो पर पैसा नहीं है तो वज्र-स्पष्टता से कहती हैं, "सफलता का पैमाना सिर्फ पैसा नहीं है"। आज के वक्त की भौचक भूल-भुलैया में जिन नैतिक शिक्षाओं को थामे रहना असंभव सा हो चुका है वहां उनका ये कहना कि पैमाना पैसा नहीं है, समाज के लिए बेहद फायदेमंद सूत्रवाक्य बनता है। अफसोस है कि सिनेमा या थियेटर के माध्यम से जो ज्यादातर लोग आज जनता के बीच विशाल छवि बन चुके हैं उनके मुंह से ऐसा कुछ नहीं निकलता। उल्टे वह गलत आर्थिक रास्ते पर लोगों को ले जाते हैं, क्योंकि उन्हें विज्ञापनों और कैसी भी फिल्मों से पैसे कमाने हैं। खैर, अरुंधति नाग तेज धारा के विपरीत खड़ी हैं, वह प्रेरणा हैं। ये भी कह जाती हैं कि एक्सीलेंस ढेर में नहीं आती। थोड़ा कीजिए पर अच्छा काम कीजिए।

Arundhati was to perform Girish Karnad Directed play 'Bikhre Bimb'

एक शब्द, एक सोच
गिरीष कर्नाड: उनमें एक अलौकिक सी बात है कि वह किरदारों के दिमाग में घुस जाते हैं। वह औरतों के दर्द और चीख को अपनी रचनाओं में अच्छे से उभारते हैं।

सिनेमा: बड़ा चुनौतीभरा माध्यम है। पर कोई फिल्म एक्टर भी थियेटर में आएगा तो उसे मुश्किलें हो सकती हैं। चाहे इतनी लंबी स्क्रिप्ट याद रखना हो या डेढ़ घंटे खड़े रहकर परफॉर्म करना।

बिखरे बिंब: बिखरे बिंब जैसे प्ले का एक शो तीन महीने में एकबार भी हो तो बहुत। मेरी जिंदगी में मर्सिडीज नहीं है या गले में हीरों का हार नहीं है तो क्या हुआ। मुझे बस ज्यादा से ज्यादा थियेटर करना है।

कोका कोला: बेंगलुरु में हमारे थियेटर रंग शंकरा में कोका कोला और पेप्सी जैसे ब्रैंड्स का एक भी बोर्ड आपको नहीं दिखेगा। हम इसे स्वीकार नहीं करते। लाइफ इनके बिना ज्यादा बेहतर है।

रुचियां: म्यूजिक सुनना मुझे बहुत पसंद है। कर्नाटकन-हिंदुस्तानी क्लासिकल दोनों सुनती हूं। सुबह उठते ही मेरे घर में रोज म्यूजिक बजना शुरू हो जाता है। इसके अलावा खाना पकाना बहुत अच्छा लगता है। बुक्स भी पढ़ती हूं।
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गजेंद्र सिंह भाटी

Thursday, August 30, 2012

"मरने से पहले दस अच्छी फिल्में बनाना चाहती हूं बस"

शोनाली बोस से बातचीत, राष्ट्रीय पुरस्कार जीतने वाली फिल्म 'अमु' की निर्देशक

शोनाली बोस ने 1984 के दंगों पर 2005 में एक फिल्म बनाई थी। नाम था ‘अमु’। बेहद सराही गई। उस साल फिल्म को नेशनल अवॉर्ड मिला। इस साल के शुरू में ‘अमु’ और अपनी नई स्क्रिप्ट ‘मार्गरिटा, विद अ स्ट्रॉ’ के लिए शोनाली को दुनिया का बड़ा प्रतिष्ठित ‘सनडांस-महिंद्रा फिल्ममेकिंग अवॉर्ड-2012’ दिया गया। पहली बार किसी इंडियन का यह अवॉर्ड मिला था। इसके अलावा 1930 के चिटगॉन्ग विद्रोह पर लिखी उनकी फिल्म ‘चिटगॉन्ग’ भी रिलीज को तैयार है। इसे शोनाली के नासा में साइंटिस्ट हस्बैंड देबब्रत ने डायरेक्ट किया है। उनसे काफी वक्त पहले बातचीत हुई। वह ऐसी इंसान हैं जिनसे जिंदगी और उसके किसी भी पहलू पर गर्मजोशी से बात की जा सकती है। कोई चीज उन्हें दबाती नहीं, कोई विषय उन्होंने भटकाता नहीं और तमाम मुश्किलों के बीच वह जरा भी मुरझाती नहीं। दो साल पहले उनके 16 साल के बेटे ईशान की मृत्यु हो गई। जिस वैल्स ग्रूम्समैन कंपनी के दाढ़ी-मूंछ ट्रिमर को इस्तेमाल करते हुए ईशान की जान गई आज उसके खिलाफ शोनाली और बेदब्रत लॉस एंजेल्स के कोर्ट में केस लड़ रहे हैं। प्रस्तुत है शोनाली से हुई बातचीत के कुछ अंशः

आपको सनडांस और महिंद्रा का संयुक्त अवॉर्ड मिला। ये अवॉर्ड कितना बड़ा है, क्या है?
ग्लोबल अवॉर्ड है। वर्ल्ड सिनेमा में योगदान देने के लिए पहली बार किसी भारतीय को यानी मुझे दिया गया है। दुनिया के चारों कोनों से लोगों को मिला, पहली फिल्म ‘अमु’ और अगली फिल्म की स्क्रिप्ट के लिए मिला है। ‘अमु’ मेरी सबसे प्यारी फिल्म रही है तो उसके लिए भी मिला इसकी खुशी ज्यादा है।

‘मार्गरिटा, विद अ स्ट्रॉ’ क्या है, कहानी जेहन में कैसे आई?
इसका आइडिया मुझे जनवरी 2010 में आया। जनवरी में पटकथा लिखनी शुरू की और जून तक पूरी कर दी। लैला की कहानी है। उसका शानदार-हंसोड़ दिमाग एक अवज्ञाकारी देह में फंसा है। वह बार-बार प्यार में पड़ती है, यौन संबंध बनाना चाहती है और बॉलीवुड सॉन्गराइटर बनना चाहती है।

इसकी कास्टिंग को लेकर कौन-कौन दिमाग में हैं?
18 साल की लड़की के लीड रोल में कोई बिल्कुल नई लड़की होगी। एक पावरफुल रोल है उसमें विद्या बालन के लिए ट्राई कर रहे हैं।

Poster of 'Amu'
छह-सात साल बाद अब अमु को देखती हैं तो फिल्म आपको कितनी कमजोर या मजबूत लगती है?
अमु मेरे बच्चे जैसी हैं। एक मां अपने बच्चे को किन आंखों से देखें... पर ओवरऑल प्राइड और लव की फीलिंग है। अभी भी मुझे हर रोज मेल आते हैं, लोग कहते हैं कि आई लव्ड इट। वो मेरी शुरुआत थी।

कबीर के रोल में अंकुर खन्ना भी फिल्म में थे। उन्हें आपने कहां से कास्ट किया। वृंदा कारत को कैसे लिया?
वृंदा मेरी मौसी हैं, मां जैसी हैं, नहीं तो वो नहीं करती। मैं हमेशा नया फेस चाह रही थी। मुझे मालूम था कि वो बड़ी कमाल एक्ट्रैस हैं। वो पहले थियेटर में थीं, फिर राजनीति में चली गईं। मैं तो उनके साथ रहती ही हूं। तो मुझे पता था कि वो राइट पर्सन थी। मैंने मुश्किल से मनाया। मुझे याद है फिल्म देखने के बाद नसीरुद्दीन शाह ने फोन करके कहा कि ये किसी भी इंडियन एक्टर का बेस्ट परफॉर्मेंस था अब तक का, किसी भी फिल्म में। जहां तक अंकुर को लेने का सवाल है, तो मुझे प्रैशर था कि एक्टर में शाहरुख को लो या बड़े स्टार को लो, पर मैं नया एक्टर लेना चाहती थी। ऐसा लड़का चाहती थी जो वलनरेबल (कुछ कमजोर) हो इसलिए उन्हें लिया। अंकुर मुंबई के हैं, कलकत्ता में बड़े हुए, दिल्ली यूनिवर्सिटी में पढ़े। कोंकणा के बैचमेट थे, साथ एक्टिंग करते थे। तब वो कोंकणा के बॉयफ्रैंड थे। वैसे वो खुद डायरेक्टर भी हैं।

और कोंकणा सेन शर्मा फिल्म में कैसे आईं?
कजोरी का किरदार कोई इंडियन-अमेरिकन ही निभा सकती थी। मैंने एक हजार लड़कियों को ऑडिशन किया था। दूसरे रोल के लिए बड़े लोगों को भी अप्रोच किया। अपर्णा सेन से भी संपर्क किया। उन्होंने कहा कि मैं तो पहले ही एक फिल्म डायरेक्ट कर रही हूं इसलिए ये रोल नहीं कर पाऊंगी। फिर उन्होंने पूछा कि लड़की के रोल में किसे ले रही हो? मैंने कहा, ऐसा-ऐसा रोल है और ढूंढ रही हूं तो उन्होंने अपनी बेटी कोंकणा का नाम सुझाया। मैंने सोचा, हद है, मैं मां को लेने आई और ये बेटी को थोप रही है। फिर मैं वहां से निकली। कुछ दिन बाद मैंने अपर्णा मासी को फोन किया और कोंकणा को स्क्रिप्ट देने के लिए कहा। फिर ऑडिशन के लिए उन्हें दिल्ली बुलाया। पर मैंने कहा कि रहना मेरे ही घर पर होगा क्योंकि होटल वगैरह का खर्च नहीं दे सकती। तो इस तरह कोंकणा फिल्म में आईं।

अमु के बाद दूसरी फिल्म में इतना वक्त क्यों लिया?
‘चिटगॉन्ग’ 2009 में शुरू की। उससे पहले ‘अमु’ 2007 में अमेरिका में रिलीज हुई। हमारे लिए नॉर्थ अमेरिका की रिलीज बहुत जरूरी थी। तो बड़ी मेहनत थी। चूंकि फिल्म वहां की सिख कम्युनिटी के सहारे और मदद से बनी थी इसलिए उन्हें दिखानी जरूरी थी। ऊपर से मैं ‘अमु’ को डाऊनटाउन में रिलीज करना चाहती थी, वहां जहां मैनस्ट्रीम अंग्रेजी फिल्में रिलीज होती हैं। तो 2007 में यूएस-कैनेडा रिलीज था। ‘चिटगॉन्ग’ को मैं और मेरे हस्बैंड देबब्रत साथ मिलकर डायरेक्ट करना चाहते थे, फिर हमने फैसला लिया कि वो ही करेंगे। ताकि लोग उसे शोनाली की फिल्म न बताएं।
Shonali with Bedabrata

देबब्रत के बारे में कुछ बताएं?
वह नासा के टॉप साइंटिस्ट हैं। आपके सेलफोन में जो कैमरा होता है उसका चिप उन्होंने ही डिजाइन किया था। आईआईटी पासआउट थे। सत्यजीत रे, रित्विक घटक का प्रभाव था उनपर कलकत्ता में पलते-बढ़ते हुए। ‘अमु’ की मेकिंग में पूरे वक्त वो मेरे साथ थे।

आप फिल्ममेकर पहले हैं कि सोशल एक्टिविस्ट? क्या किसी फिल्ममेकर को फिल्में बनाते हुए इतना मजबूती से सामाजिक और पॉलिटिकल मुद्दों पर कमेंट करना चाहिए जितना आपने ‘अमु’ के वक्त किया?
मैं एक्टिविस्ट ही हूं। 18 की थी जब 1984 दंगों के बाद मंगोलपुरी-त्रिलोकपुरी कैंप्स में जाती थी। भोपाल गैस ट्रैजेडी में भी दिल्ली से ही हिस्सा लिया। मिरांडा की स्टूडेंट बॉडी में एक्टिव थी। तब कई लड़कियों और औरतों के साथ ईव टीजिंग होती थी तो उसका विरोध मैंने किया और कार्रवाही शुरू करवाई जो पहले दिल्ली में नहीं होती थी। ये छोटा सा मुद्दा है पर बता रही हूं कि जुड़ी थी। मैंने देखा कि हर कैंप में सिख रो-रोकर बता रहे थे कि हमारे हिंदु पड़ोसियों ने हमें बचाया। जबकि अखबार में आता है कि ये स्वतः ही हुआ। पढ़कर मैं चकित थी। जब हम ‘अमु’ शूट कर रहे थे तो जगदीश टाइटलर ने हमें डराया कि शूट बंद करो। पर हमने कहा कि नहीं बंद करेंगे। हमने हथियारबंद होकर सामना किया। दो रिंग बनाई शूट के इर्द-गिर्द। मुझे अब भी धमकियां मिलती हैं। फिल्म को सेंसर बोर्ड ने ए सर्टिफिकेट दिया। वो लाइन मिटा दी जिसमें दंगों में शामिल छह जनों का जिक्र होता है। एक बार हमने फिल्म सरदार पटेल स्कूल में प्रीमियर की, वहां बच्चों ने पूछा कि मैम हमें क्यों नहीं बताया गया अपने पास्ट के बारे में। फिल्म को नेशनल अवॉर्ड मिला पर कितने अफसोस की बात है कि इसे किसी चैनल पर दिखाने की मंजूरी नहीं है।

आप खुद कैसी फिल्में देखना पसंद करती हैं?
फेवरेट है ‘चक दे इंडिया’। मुझे हिंदी फिल्मों से प्यार है। मेरे लिए परफैक्ट वो है जो पूरी तरह एंटरटेनिंग हो और मैसेज भी दे। ‘चक दे’ में शाहरुख ने शानदार परफॉर्मेंस दिया, सब लड़कियां नई थी। तो ये खास हो जाता है। ‘बंटी और बबली’ भी पसंद है। उसमें छोटी पॉलिटिकल चीजें हैं, लगता है कि इनके पीछे कुछ थॉट था, एंटी- एस्टेबलिशमेंट वगैरह। ‘कुछ-कुछ होता है’ और ‘दिलवाले दुल्हनिया ले जाएंगे’ भी खूब पसंद हैं। आई लव करन। ‘धोबी घाट’ और ‘उड़ान’ देखकर भी खुशी होती है। कोई भी इंडियन अच्छी फिल्म बनाए तो मैं बड़ी खुश होती हूं।

वर्ल्ड सिनेमा में कौन फेवरेट हैं?
सनडांस में जैसे एक फिल्म थी, ‘बीस्ट ऑफ द सदर्न वाइल्ड’, उसे शायद अगले साल ऑस्कर मिले। ये फिल्म सनडांस की लैब से ही निकली है। वह कोई 20 साल का डायरेक्टर (बेन जेटलिन) था, तो मुझे कुछ-कुछ शर्म भी आई कि कैसे खुद को फिल्ममेकर समझती हूं। इतने यंग लड़के ने क्या ब्रिलियंट फिल्म बनाई है। मैं तो कहीं से भी उसके बराबर नहीं।

कमर्शियल इंडियन सिनेमा में कौन पसंद?
90 पर्सेंट तो मिडियोकर हैं, मुझे आप मिडियोकर का हिंदी शब्द बताइए। ... कुछ भी अच्छा नहीं हो रहा कमर्शियल सिनेमा में। इतनी शानदार कहानियां हमारे देश में हैं तो बनाते क्यों नहीं। स्टूपिड फिल्मों में चालीस-पचास करोड़ लगा देते हैं। पर अच्छी स्टोरी में पैसे नहीं लगाते हैं, क्यों? ‘अमु’ बनाई तो उस वक्त लोगों ने तारीफ की, अच्छी फिल्म बनाएंगे तो तारीफ करेंगे ही, हां, लेकिन निर्माता नहीं हैं। कमर्शियल और आर्ट हाउस दोनों में। पहले आर्टहाउस मूवमेंट में एनएफडीसी ने भी हाथ बंटाया, पर अब ये सब कुछ नहीं कर पाते। अगर हम हजारों फिल्में साल में बनाते हैं तो ऐसा न हो कि उनमें से सिर्फ चार-पांच ही अच्छी हो। ऐसा नहीं है कि टैलेंट नहीं है, पर उसका यूज नहीं हो पा रहा।

मौजूदा वक्त में आपके पसंदीदा फिल्ममेकर कौन हैं और क्यों?
दिबाकर बैनर्जी ने तीन प्यारी फिल्में बनाईं। मुझे ‘खोसला का घोंसला’ बहुत अजीज है। पॉलिटिकल फिल्म है। ‘पीपली लाइव’ भी पॉलिटिकल फिल्म है।

आने वाले वक्त में कैसी फिल्में बनाना चाहती हैं?
जैसे मेरी तीन फिल्मों के सब्जेक्ट तैयार हैं। सब राजनीतिक नहीं है, पर मैं रियल लाइफ सिचुएशन पसंद करती हूं। अलग-अलग तरीकों की पॉलिटिकल फिल्में पसंद करती हूं। जैसे एक क्राइम ड्रामा है जिसमें यूएस में पुलिस और एफबीआई की इमेज कितनी अच्छी है, कितनी बुरी ये दिखाने की कोशिश है। क्योंकि मैं जानती हूं कि अमेरिका में वो क्या तरीके आजमाते हैं। 9-11 के बाद उन्होंने लोगों पर नजर रखी, सिविल राइट्स का पतन हुआ। उनकी हर फिल्म के अंत में ऐसे मुद्दों में वो अच्छे आदमी बन जाते हैं। मेरी फिल्म में हकीकत होगी। पॉलिटिकल रिएलिटी। अब चोर पुलिस की कहानी में आप पुलिस कैसे दिखाओगे। मैं पंजाब की पुलिस भी जानती हूं और अमेरिका की भी। सिस्टम की भी बात है कि वो कैसे हैं। और भी दूसरे सब्जेक्ट हैं।

निजी जिंदगी कैसी चल रही है?
मेरे बच्चे हमेशा मेरी प्राथमिकता हैं। जिदंगी में कुछ वक्त पहले एक दुर्घटना हुई। मेरा 16 साल का बच्चा गुजर गया। तो अमेरिका से मैं इंडिया आ गई। पर मेरे पति को वहीं रहना है उन यादों के साथ। सनडांस में भी मैं गई लॉस एंजेल्स, तो कुछ पलों के लिए इमोशनल हो गई। बस मैं फंक्शन में गिरी ही नहीं। ईशान का जन्म हुआ तब मैं फिल्म स्कूल के पहले साल में थी। तो मां बनने का अनुभव और फिल्में साथ-साथ रही। मैं नही चाहती थी कि बच्चों को बैबी सिटर के पास रखूं। मैं किसी रेस में नहीं थी। मैं मरने से पहले दस अच्छी फिल्में बनाना चाहती हूं। बस। आप कभी सपने में भी नहीं सोचते कि आपका बच्चा आपकी आंखों के आगे दम तोड़ेगा। अब ‘मार्गरिटा...’ भी बनाऊंगी तो अपने बेटे की स्कूल छुट्टियों में। मैं कॉम्प्रोमाइज नहीं करूंगी। न बच्चों के लेवल पर और न ही फिल्म मेकिंग के लेवल पर।

इंडियन सिनेमा में आपके हिसाब से क्या मिसिंग है जो होना चाहिए, या सब कुछ सही है?
हमें सेंसर बोर्ड से छुटकारा पाने की जरूरत है, ये संस्थान पॉलिटिकल है पूरी तरह। हमारा मजाक उड़ाता है। उसके बावजूद देखिए कि आज औरतें कैसे ड्रेस करती हैं। मैं अपने बच्चों को नहीं दिखाना चाहूंगी ये सब। बीड़ी जलइले... गाने को देखिए.. कैसे कमर मटकाती है हीरोइन, पर बच्चे देख रहे हैं। फिर क्या मतलब सेंसर का। नेशनल मूवमेंट होना चाहिए उसे हटाने का। दूसरा प्रोड्यूसर्स को जागना चाहिए और दर्शकों को कोसना बंद करना चाहिए। ‘पीपली...’ भी बनी थी और लोगों ने देखी। ‘खेलें हम जी जान से’ पचास करोड़ में बनती है और लोग पसंद नहीं करते, पर प्रॉड्यूसर्स का पैसा लगता हैं। ‘वाट्स योर राशि’ के बाद भी आशुतोष को फिल्म बनाने के पैसे दिए गए। तो दर्शकों को मत कोसो, प्रोड्यूसर घटिया फिल्मों पर पैसे फैंक रहे हैं। राइटिंग तो अच्छी होनी चाहिए न। सनडांस के लेखकों से लिखवा दो। मैं हूं, फ्री में लिख दूंगी।
Although there couldn't be any talk on the movie, but, here is the poster.
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गजेंद्र सिंह भाटी