बुधवार, 17 जुलाई 2013

मानो मत, जानोः “कित्ते मिल वे माही” ...अभूतपूर्व पंजाब

हॉली और बॉली वुडों ने दावा किया कि दुनिया बस वही है जो उन्होंने दिखाई... बहुत बड़ा झूठ बोला, क्योंकि दुनिया तो वह नहीं है। दुनिया का सच तो हिलाने, हैराने, हड़बड़ाने और होश में लाने वाला है, और उसे दस्तावेज़ किया तो सिर्फ डॉक्युमेंट्री फ़िल्मों ने। “मानो मत, जानो” ऐसी ही एक श्रंखला है जिसमें भारत और विश्व की अऩूठे धरातल वाली अविश्वसनीय और परिवर्तनकारी डॉक्युमेंट्रीज पढ़ व देख सकेंगे।

 Documentary. .Where the twain shall meet (2005), by Ajay Bhardwaj.

“ जो लड़ना नहीं जाणदे
  जो लड़ना नहीं चौंदे ...
  ... ओ ग़ुलाम बणा लये जांदे ने ”
           - लाल सिंह दिल, क्रांतिकारी कवि और दलित
              जीवन के बाद के वर्षों में इस्लाम अपना लिया

Lal Singh Dil, in a still.
उस दुपहरी में अपने पड़ोसी के साथ ऐसे पार्क में बैठे लाल सिंह दिल, जहां कोई न आता हो। जरा नशे में, पर होश वालों से लाख होश में। वहां का सूखापन और गर्मी जलाने लगती है, उन्हें नहीं मुझ दर्शक को। वो तपन महसूस करवा जाना अजय भारद्वाज की इस फ़िल्म की कलात्मक सफलता है, कथ्यात्मक सफलता है और जितनी किस्म की भी सफलता हो सकती है, है। इस डॉक्युमेंट्री को मैं कभी भूल नहीं पाऊंगा। कभी नहीं। लाल सिंह दिल जैसे साक्षात्कारदेयी और उनके उस दोस्त और पड़ोसी शिव जैसा साक्षात्कारकर्ता मैंने कभी नहीं देखा। विश्व सिनेमा के सबसे प्रभावी साक्षात्कार दृश्यों में वो एक है। अभिनव, अद्भुत, दुर्लभ।

लाल सिंह के विचार आक्रामक हैं। वो देश के उन तमाम समझदार लोगों के प्रतिनिधि हैं जो इसी समाज में हमारे मुहल्लों-गलियों में रहते हैं, पर चूंकि वैचारिक समझ का स्तर सत्य के बेहद करीब होने की वजह से उनका रहन-सहन और एकाकीपन समाज के लोगों की नासमझ नजरों को चुभता है, तो हम एक बच्चे के तौर पर या व्यस्क के तौर पर उनके करीब तक कभी नहीं जा पाते। कभी उनसे पूछ नहीं पाते कि ये दुनिया असल में क्या है? हमारे इस संसार में आने का व्यापक उद्देश्य क्या है? हमारे समाज ऐसे क्यों हैं? ये समाज की प्रतिष्ठासूचक इबारतें कैसे तोड़ी या मोड़ी जा सकती हैं? कैसे इंसान और मानवीय बनाए जा सकते हैं? काश, हम छुटपन में ऐसे किसी लाल सिंह दिल के पास बैठते तो एक बेहतर इंसान होते। समाजी भेदभाव के भविष्य पर दार्शनिक और दमपुख़्त यकीन भरी नजरें लिए एक मौके पर वे कहते भी है न,

“ जद बोहत सारे सूरज मर जाणगे
 तां तुहाडा जुग आवेगा...” 
  When many suns die
  Your era will dawn...

‘कित्ते मिल वे माही’ हमें उस पंजाब में ले जाती है, जहां पहले कोई न लेकर गया। पंजाबी फ़िल्मों, उनके ब्रैंडेड नायकों, यो यो गायकों और पंजाबियों की समृद्ध-मनोरंजनकारी राष्ट्रीय छवि ने हमेशा उस पंजाब को लोगों की नजरों से दूर रखा। जाहिर है उनके लिए वो पंजाब अस्तित्व ही नहीं रखता। सन् 47 के रक्तरंजित बंटवारे के बाद इस पंजाब में न के बराबर मुस्लिम पंजाबी बचे। उनके पीछे रह गईं तो बस सूफी संतों की समाधियां। डॉक्युमेंट्री बताती है कि ये सूफी फकीरों की मजारें आज भी फल-फूल रही हैं। खासतौर पर समाजी बराबरी में नीचे समझे जाने वाले भूमिहीन दलितों के बीच, जो आबादी का 30 फीसदी हैं। जैसे, बी.एस. बल्ली कव्वाल पासलेवाले पहली पीढ़ी के कव्वाल हैं। उनके पिता मजदूरी करते थे और इन्होंने उस सूफी परंपरा को संभाल लिया। सूफी और दलितों का ये मेल आश्चर्य देता है। और इसे सिर्फ धार्मिक बदलाव नहीं कहा जा सकता, ये सामाजिक जागृति का भी संकेत है। महिला-पुरुष का भेद भी यहां मिटता है। जैसे, हम सोफीपिंड गांव में संत प्रीतम दास की मजार देखते हैं, जो दुनिया कूच करने से पहले अपने यहां झाड़ू निकालने वाली अनुयायी चन्नी को गद्दीनशीं कर चन्नी शाह बना गए।

फ़िल्म का महत्वपूर्ण हिस्सा 1913 से 1947 तक गदर आंदोलन के नेता रहे बाबा भगत सिंह बिल्गा भी हैं। उन्हें देखना विरला अनुभव देता है। वे और लाल सिंह दिल फ़िल्म बनने के चार साल बाद 2009 में चल बसे। ऐसे में जो हम देख रहे हैं उसका महत्व अगले हजार सालों के लिए बढ़ जाता है। डॉक्युमेंट्री के आखिर में लाल सिंह ये मार्मिक और अत्यधिक समझदारी भरी पंक्तियां सुनाते हैं...

“ सामान, जद मेरे बच्चेयां नूं सामान मिल गया होऊ
 तां उनाने की की उसारेया होवेगा…
 ... बाग़
 ... फसलां
 ... कमालां चो कमाल पैदा कीता होवेगा उनाने
 जद मेरे बच्चेयां नूं समान मिल गया होऊ
 जद मेरे बच्चेयां नूं समान मिल गया होऊ ”

(कृपया ajayunmukt@gmail.com पर संपर्क करके अजय भारद्वाज से उनकी 'पंजाब त्रयी' की डीवीडी जरूर मंगवाएं, अपनी विषय-वस्तु के लिहाज से वो अमूल्य है)

“Where The Twain Shall Meet” - Watch an extended trailer here:

Punjab was partitioned on religious lines amidst widespread bloodshed in 1947, and today there are hardly any Punjabi Muslims left in the Indian Punjab. Yet, the Sufi shrines in the Indian part of Punjab continue to thrive, particularly among so-called ‘low’ caste Dalits that constitutes more than 30% of its population. Kitte Mil Ve Mahi explores for the first time this unique bond between Dalits and Sufism in India. In doing so it unfolds a spiritual universe that is both healing and emancipatory. Journeying through the Doaba region of Punjab dotted with shrines of sufi saints and mystics a window opens onto the aspirations of Dalits to carve out their own space. This quest gives birth to ‘little traditions’ that are deeply spiritual as they are intensely political.

Enter an unacknowledged world of Sufism where Dalits worship and tend to the Sufi Shrines. Listen to B.S. Balli Qawwal Paslewale – a first generation Qawwal from this tradition. Join a fascinating dialogue with Lal Singh Dil – radical poet, Dalit, convert to Islam. A living legend of the Gadar movement, Bhagat Singh Bilga, affirms the new Dalit consciousness. The interplay of voices mosaic that is Kitte Mil Ver Mahi (where the twain shall meet), while contending the dominant perception of Punjab’s heritage, lyrically hint at the triple marginalisation of Dalits: economic, amidst the agricultural boom that is the modern Punjab; religious, in the contesting ground of its ‘major’ faiths; and ideological, in the intellectual construction of their identity.

(Users in India and International institutions, can contact Ajay Bhardwaj at ajayunmukt@gmail.com for the DVDs (English subtitles). You can join his facebook page to keep updated of his documentary screenings in a city near you.)