‘रॉक ऑन’ के पांच साल बाद अपनी फिल्म ‘काई पो चे’ लेकर आ रहे निर्देशक
अभिषेक कपूर से बातचीत। अगले साल फरवरी में रिलीज होने वाली इस फिल्म में
राज कुमार यादव, सुशांत राजपूत, अमित साध और अमृता पुरी जैसे चेहरे नजर
आएंगे।
अभिषेक कपूर से मैं पहली बार सितंबर, 2010 में मिला था। ‘फीयर फैक्टर: खतरों के खिलाड़ी-3’ में वह प्रतिभागी थे। कार्यक्रम के बारे में बात करने वह अपने सह-प्रतिभागी शब्बीर अहलुवालिया के साथ चंडीगढ़, हमारे दफ्तर पहुंचे थे। मुख्यतः उस कार्यक्रम से जुड़े सवाल पूछते हुए मेरे मन में चल रहा था, कि ये वही है जिसने ‘रॉक ऑन’ का निर्देशन किया था? क्या हो गया है इसे? क्यों किसी टीवी कार्यक्रम के करतबों में खुद को जाया कर रहा है? पर वह जिंदगी को लेकर ज्यादा शिकायती नहीं लगे, तो ज्यादा नहीं टटोला। ऐसा नहीं था कि निर्देशन ही उनका इलाका रहा था। अभिनय से उनका गहरा नाता पहले था। 1995 में आई फिल्म ‘आशिक मस्ताने’ की छोटी सी भूमिका को छोड़ दें तो दो हिंदी फिल्मों में बतौर हीरो वह दिख चुके थे। पहली थी ‘उफ ये मोहब्बत’, जिसमें वह ट्विंकल खन्ना के लिए बौद्ध मठों में “उतरा न दिल में कोई इस दिलरुबा के बाद...” गाना गाते हुए एक टिपिकल हिंदी फिल्म हीरो वाले स्टेप्स करते आज भी याद आते हैं। दूसरी थी 2000 में आई ‘शिकार’। दोनों ही फिल्में नहीं चलीं और एक उगते अभिनेता का सूरज ढल गया। 2004 तक आते-आते उन्होंने यश चोपड़ा की फिल्म ‘वीर-जारा’ का स्क्रीनप्ले लिखा। इसके दो साल बाद बॉक्सिंग की कहानी को लेकर सोहेल खान के साथ ‘आर्यन’ बनाई। वह अब निर्देशक बन गए थे। पर संघर्ष जारी रहा। फिल्म नहीं चली। दो साल बाद बतौर निर्देशक उनकी दूसरी फिल्म ‘रॉक ऑन’ लगी। यहां से उनके लिए दुनिया बिल्कुल बदल गई थी। इस फिल्म ने लोगों के दिल में खास जगह बनाई, फरहान अख्तर को बतौर अभिनेता पहला मंच देते हुए स्थापित भी किया, अर्जुन रामपाल को उनके मॉडल वाले पट्टे से मुक्ति देते हुए ‘जो मेस्केरेनहैस’ जैसा यादगार किरदार दिया और अगले साल दो राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार जीते। उनसे अब दूसरी बार बातें हो रही थीं। वजह थी ‘काई पो चे’। चेतन भगत के अंग्रेजी उपन्यास ‘3 मिसटेक्स ऑफ माई लाइफ’ की कहानी पर बनाई गई ये फिल्म 22 फरवरी, 2013 को भारत और बाहर लगनी प्रस्तावित है।
तो इस बार उन्हें देख रहा था बदले स्वरूप में। गालों पर घनी काली दाढ़ी छा चुकी थी। बीच-बीच में कुछ सफेद बाल निकल आए थे। आंखों पर जॉन लूक गोदार जैसे ऑटरों के माफिक काला चश्मा लगा था। बातों में निर्देशकों वाली खनक ज्यादा थी। समझदारी थी। इस अवतरण के इतर वह ट्विटर पर जॉन लेनिन, जी. बी. शॉ और विलियम ब्लेक को उद्धरित करने लगे थे। उनके निर्देशक दिमाग को जरा और समझने की इच्छा हो तो कुछ वक्त ट्विटर पर ही हो आ सकते हैं। यहां वह ज्यादातर दर्शन की बात करते हुए लिखते हैं... “रचनात्मकता तब जिंदा हो उठती है जब हम अपने आराम के दायरे से बाहर निकलते हैं. जब हम डर के भ्रम को तोड़ डालते हैं. प्रदीप्ति बस उसी के बाद है. जादुई!” और... “ये जो दो गहरी सांसों के बीच हम आराम पाते हैं न, कई बार पूरे दिन में बस वही एक सबसे जरूरी चीज होती है.” सपट भावों को बिना छाने, आने देने की प्रवृति भी कभी उनमें नजर आती है। मसलन... “आहहहह!! मैंने अपना बटुआ खो दिया.. लग रहा है कि मैं एक मूर्ख हूं... मुझे वो वापस चाहिए.. हे विश्व क्या तुम सुन रहे हो!” या “एयरपोर्ट पर आज मेरा सबसे बुरा अनुभव रहा.. थाई एयरवेज तुम्हारी ऐसी की तैसी...” सामाजिक और राजनीतिक मुद्दों पर भी वह भावुक और समझदार टिप्पणी करते हैं। इसमें इजरायल-फिलीस्तीन हिंसा है तो कसाब की फांसी भी। “इजरायली और फिलीस्तीनी जो एक-दूसरे के साथ कर रहे हैं उसे देख दिल टूटा जाता है। हालात बेहद नाजुक लग रहे हैं। दुआ है कि अक्लमंदी बरपे”। और “कसाब को लटकाने को लेकर लोगों की खुशी को मैं समझ नहीं पा रहा हूं। इससे न तो हो चुके नुकसान की भरपाई हो पाएगी, न ही अपने पड़ोसी मुल्क के साथ अपनी मुश्किलों को दूर करने में हमें मदद मिलेगी”। उनकी निजी जिंदगी, बीते अफेयर और एकता कपूर के ममेरे भाई होने के पेशेवर फायदों वाले सवालों से ज्यादा रुचिकर है एक निर्देशक वाले मन में झांकना। क्योंकि इससे ज्यादा बेहतरी से पता चलता है कि ‘काई पो चे’ बनाने वाला व्यक्तित्व भावुक, तार्किक, शैक्षणिक और बौद्धिक तौर पर कैसा है, और वही जानना जरूरी भी है।
तो, काई पो चे! सबसे पहली तो अनूठा नाम रखने की बात और इस तीन शब्दों वाले नाम के मायने। अभिषेक बताने लगते हैं, “जब पतंग कटती है तो गुजरात में काटने वाला चिल्लाता है काई पो चे। यानि कि वो काटा। इस नाम में मुझे जिस किस्म की ऊर्जा महसूस हुई, किसी दूसरे नाम में नहीं हो सकती थी। ऊर्जा भरा नाम इसलिए भी जरूरी था क्योंकि युवा मन और यूथ की फिल्म है। कहानी के केंद्र में ढेर सारी एनर्जी है। फिल्म की पृष्ठभूमि गुजरात है तो ये नाम सटीक बैठता है। एक अहम निहित अर्थ ये भी है कि फिल्म की थीम में जैसे तीन यारों की दोस्ती एक बिंदु पर टूटती है, वैसे ही है पतंगों का कटना। दोनों ही बातों में एक किस्म का सांकेतिक जुड़ाव है”। पहले ऐसा भी बताया जा रहा था कि फिल्म चेतन के ही अंग्रेजी उपन्यास ‘टू स्टेट्स’ पर बन रही है, मगर ऐसा नहीं हुआ। इस बारे में अभिषेक बताते हैं कि उन्हें ‘टू स्टेट्स’ और ‘3 मिसटेक्स...’ में से कोई एक कहानी चुननी थी। ऐसे में उन्होंने दूसरे उपन्यास की कहानी इसलिए चुनी क्योंकि बतौर फिल्मकार दूसरी कहानी में बदलाव करने की गुंजाइश ज्यादा थी। इसमें लव स्टोरी भी थी, भूकंप भी, पॉलिटिक्स भी और दोस्ती भी। और जाहिर है उन्हें दोस्ती ने सबसे ज्यादा प्रभावित किया, तो फिल्म की मुख्य थीम दोस्ती हो गई। जब ये तय हो गया तो लिखने की बारी आई। हालांकि ‘रॉक ऑन’ सफल रही थी पर उसके पहले उनकी राह में काफी संघर्ष रहा, ये वह यहां स्वीकारते हैं। जब ‘काई पो चे’ को लेकर बाकी योजनाएं बन गई तो उन्होंने 8-10 महीने की छुट्टी ली और फिल्मी प्रारुप में इस कहानी को लिखा। वह कहते हैं, “जब आप किताब या उपन्यास को एडेप्ट करते हो फिल्मी स्क्रीनप्ले में, तो बहुत टाइम लगता है। खुद को दीन-दुनिया से पूरी तरह काटना पड़ता है”।
ये कहानी तीन अमदावादी (अहमदाबादी) लड़कों और नई सदी के नए भारत में उनके सपनों, आकांक्षाओं, टूटन और मिलन की है। मगर तीनों ही किरदारों में अभिषेक ने नए चेहरों को चुना। ईशान, ओमी और गोविंद के ये किरदार निभाए हैं टीवी के ज्ञात चेहरे सुशांत सिंह राजपूत, बिग बॉस में नीरू बाजवा (अब स्थापित पंजाबी हिरोइन) की तस्वीर लिए फफकते रहने वाले अमित साध और इन दिनों बहुत ही तेजी से शानदार फिल्मों में नजर आ रहे राज कुमार यादव (लव सेक्स और धोखा, रागिनी एमएमएस, गैंग्स ऑफ वासेपुर-2, शैतान, चिटगॉन्ग, तलाश, काई पो चे और इनके इतर एक बहुत ही महत्वपूर्ण फिल्म, शाहिद) ने। किसी स्थापित अभिनेता को नहीं लेने की इस बात पर अभिषेक बोले, “ऐसा नहीं है कि मैंने बड़े स्टार्स को इन भूमिकाओं में लेने के बारे में सोचा नहीं था। मैंने सोचा था। मगर जब आप तीन लड़कों की कहानी कह रहे हो और बात एक खास उम्र समूह की कर रहे हो तो फिर उम्रदराज अभिनेता लेने संभव न थे। और फिर मेरे प्रॉड्यूसर्स ने भी इस मामले में पूरी आजादी दी कि मन की कास्टिंग कर सकूं। इस दौरान मैंने कई एक्टर देखे। फिल्म शुरू होने से पहले मैंने डेढ़ साल कास्टिंग करने की चाह में बिता दिए। भई नॉवेल था तो अलग कास्ट होनी भी तो बहुत जरूरी थी। तभी मैंने इन लड़कों को देखा। जब टीवी पर ये नजर आए तो मुझे वही एनर्जी नजर आई जो मेरी फिल्म के किरदारों में होनी थी”।
इस दौरान वह उस सवाल को खारिज कर देते हैं जो फिल्म की रिलीज से पहले बहुत ओर से पूछे जा रहे हैं। कि भला टीवी वाले एक्टर एक बड़ी हिंदी फिल्म में गहन-गंभीर एक्टिंग कैसे दे पाएंगे? अभिषेक कहते हैं कि टीवी वालों की एक्टिंग को किसी अलग श्रेणी में बांटना बकवास बात है। टेलिविजन पर बहुत सारे लोग काम कर रहे हैं, सभी टेलेंटेड हैं और काम को लेकर बेहद ईमानदार हैं। वह उस 100 करोड़ क्लब वाली फिल्मों के सवाल पर भी नाखुश नजर आते हैं। ये राहत की बात है कि इस आंकड़े के पागलपन के बीच बतौर निर्देशक उनका ये जवाब स्पीडब्रैकर का काम करता है। वह बोलते हैं, “100 करोड़ रुपये की कमाई करने का दबाव मुझे बकवास बात लगती है। मुझे समझ नहीं आता कि ये 100 करोड़-100 करोड़ है क्या? क्यों है? हर तरह की फिल्म होती है और फिल्म अपनी कमाई से बेहतर नहीं होती है। कुछ फिल्मों ने कमाई कर ली तो आखिर बाकियों को भी उसमें छलांग लगाने के लिए क्यों कहा जा रहा है?” बात जब एक और स्टीरियोटिपिकल या सांचे में ढले सतही सवाल (आइटम नंबर) पर आती है तो वह शांत होकर कहते हैं, “जबर्दस्ती का लफड़ा फिल्म पर भारी पड़ सकता है। और फिर ऐसी चीजें सेंसिबल फिल्मों के कथानक को बहुत ज्यादा बाधित करती हैं। हमारी फिल्म एक संजीदा कोशिश है और उसमें कोई ऐसा खतरा हम नहीं उठा सकते थे। हालांकि फिल्म में गाने जरूर होंगे। पर अलग तरीके से और अलग संदर्भों में होंगे”। फिल्म में संगीत अमित त्रिवेदी का है। अभिषेक गुजराती किरदारों के टीवी और फिल्मों में इन दिनों किए जाने वाले स्टीरियोटिपिकल चित्रण से जुड़ी चिंता पर आश्वस्त करते हैं। कहते हैं, “गुजराती लोगों का जैसा घिसा हुआ चित्रण किया जाता है, मैं आपको पूरी तरह भरोसा दिलाता हूं कि इस फिल्म में कतई नहीं होगा”।
***** ***** *****
गजेंद्र सिंह भाटी
Raj Kumar Yadav, Sushant Rajput and Amit sadh seen in movie's official poster |
अभिषेक कपूर से मैं पहली बार सितंबर, 2010 में मिला था। ‘फीयर फैक्टर: खतरों के खिलाड़ी-3’ में वह प्रतिभागी थे। कार्यक्रम के बारे में बात करने वह अपने सह-प्रतिभागी शब्बीर अहलुवालिया के साथ चंडीगढ़, हमारे दफ्तर पहुंचे थे। मुख्यतः उस कार्यक्रम से जुड़े सवाल पूछते हुए मेरे मन में चल रहा था, कि ये वही है जिसने ‘रॉक ऑन’ का निर्देशन किया था? क्या हो गया है इसे? क्यों किसी टीवी कार्यक्रम के करतबों में खुद को जाया कर रहा है? पर वह जिंदगी को लेकर ज्यादा शिकायती नहीं लगे, तो ज्यादा नहीं टटोला। ऐसा नहीं था कि निर्देशन ही उनका इलाका रहा था। अभिनय से उनका गहरा नाता पहले था। 1995 में आई फिल्म ‘आशिक मस्ताने’ की छोटी सी भूमिका को छोड़ दें तो दो हिंदी फिल्मों में बतौर हीरो वह दिख चुके थे। पहली थी ‘उफ ये मोहब्बत’, जिसमें वह ट्विंकल खन्ना के लिए बौद्ध मठों में “उतरा न दिल में कोई इस दिलरुबा के बाद...” गाना गाते हुए एक टिपिकल हिंदी फिल्म हीरो वाले स्टेप्स करते आज भी याद आते हैं। दूसरी थी 2000 में आई ‘शिकार’। दोनों ही फिल्में नहीं चलीं और एक उगते अभिनेता का सूरज ढल गया। 2004 तक आते-आते उन्होंने यश चोपड़ा की फिल्म ‘वीर-जारा’ का स्क्रीनप्ले लिखा। इसके दो साल बाद बॉक्सिंग की कहानी को लेकर सोहेल खान के साथ ‘आर्यन’ बनाई। वह अब निर्देशक बन गए थे। पर संघर्ष जारी रहा। फिल्म नहीं चली। दो साल बाद बतौर निर्देशक उनकी दूसरी फिल्म ‘रॉक ऑन’ लगी। यहां से उनके लिए दुनिया बिल्कुल बदल गई थी। इस फिल्म ने लोगों के दिल में खास जगह बनाई, फरहान अख्तर को बतौर अभिनेता पहला मंच देते हुए स्थापित भी किया, अर्जुन रामपाल को उनके मॉडल वाले पट्टे से मुक्ति देते हुए ‘जो मेस्केरेनहैस’ जैसा यादगार किरदार दिया और अगले साल दो राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार जीते। उनसे अब दूसरी बार बातें हो रही थीं। वजह थी ‘काई पो चे’। चेतन भगत के अंग्रेजी उपन्यास ‘3 मिसटेक्स ऑफ माई लाइफ’ की कहानी पर बनाई गई ये फिल्म 22 फरवरी, 2013 को भारत और बाहर लगनी प्रस्तावित है।
तो इस बार उन्हें देख रहा था बदले स्वरूप में। गालों पर घनी काली दाढ़ी छा चुकी थी। बीच-बीच में कुछ सफेद बाल निकल आए थे। आंखों पर जॉन लूक गोदार जैसे ऑटरों के माफिक काला चश्मा लगा था। बातों में निर्देशकों वाली खनक ज्यादा थी। समझदारी थी। इस अवतरण के इतर वह ट्विटर पर जॉन लेनिन, जी. बी. शॉ और विलियम ब्लेक को उद्धरित करने लगे थे। उनके निर्देशक दिमाग को जरा और समझने की इच्छा हो तो कुछ वक्त ट्विटर पर ही हो आ सकते हैं। यहां वह ज्यादातर दर्शन की बात करते हुए लिखते हैं... “रचनात्मकता तब जिंदा हो उठती है जब हम अपने आराम के दायरे से बाहर निकलते हैं. जब हम डर के भ्रम को तोड़ डालते हैं. प्रदीप्ति बस उसी के बाद है. जादुई!” और... “ये जो दो गहरी सांसों के बीच हम आराम पाते हैं न, कई बार पूरे दिन में बस वही एक सबसे जरूरी चीज होती है.” सपट भावों को बिना छाने, आने देने की प्रवृति भी कभी उनमें नजर आती है। मसलन... “आहहहह!! मैंने अपना बटुआ खो दिया.. लग रहा है कि मैं एक मूर्ख हूं... मुझे वो वापस चाहिए.. हे विश्व क्या तुम सुन रहे हो!” या “एयरपोर्ट पर आज मेरा सबसे बुरा अनुभव रहा.. थाई एयरवेज तुम्हारी ऐसी की तैसी...” सामाजिक और राजनीतिक मुद्दों पर भी वह भावुक और समझदार टिप्पणी करते हैं। इसमें इजरायल-फिलीस्तीन हिंसा है तो कसाब की फांसी भी। “इजरायली और फिलीस्तीनी जो एक-दूसरे के साथ कर रहे हैं उसे देख दिल टूटा जाता है। हालात बेहद नाजुक लग रहे हैं। दुआ है कि अक्लमंदी बरपे”। और “कसाब को लटकाने को लेकर लोगों की खुशी को मैं समझ नहीं पा रहा हूं। इससे न तो हो चुके नुकसान की भरपाई हो पाएगी, न ही अपने पड़ोसी मुल्क के साथ अपनी मुश्किलों को दूर करने में हमें मदद मिलेगी”। उनकी निजी जिंदगी, बीते अफेयर और एकता कपूर के ममेरे भाई होने के पेशेवर फायदों वाले सवालों से ज्यादा रुचिकर है एक निर्देशक वाले मन में झांकना। क्योंकि इससे ज्यादा बेहतरी से पता चलता है कि ‘काई पो चे’ बनाने वाला व्यक्तित्व भावुक, तार्किक, शैक्षणिक और बौद्धिक तौर पर कैसा है, और वही जानना जरूरी भी है।
Abhishek Kapoor, In conversation. |
तो, काई पो चे! सबसे पहली तो अनूठा नाम रखने की बात और इस तीन शब्दों वाले नाम के मायने। अभिषेक बताने लगते हैं, “जब पतंग कटती है तो गुजरात में काटने वाला चिल्लाता है काई पो चे। यानि कि वो काटा। इस नाम में मुझे जिस किस्म की ऊर्जा महसूस हुई, किसी दूसरे नाम में नहीं हो सकती थी। ऊर्जा भरा नाम इसलिए भी जरूरी था क्योंकि युवा मन और यूथ की फिल्म है। कहानी के केंद्र में ढेर सारी एनर्जी है। फिल्म की पृष्ठभूमि गुजरात है तो ये नाम सटीक बैठता है। एक अहम निहित अर्थ ये भी है कि फिल्म की थीम में जैसे तीन यारों की दोस्ती एक बिंदु पर टूटती है, वैसे ही है पतंगों का कटना। दोनों ही बातों में एक किस्म का सांकेतिक जुड़ाव है”। पहले ऐसा भी बताया जा रहा था कि फिल्म चेतन के ही अंग्रेजी उपन्यास ‘टू स्टेट्स’ पर बन रही है, मगर ऐसा नहीं हुआ। इस बारे में अभिषेक बताते हैं कि उन्हें ‘टू स्टेट्स’ और ‘3 मिसटेक्स...’ में से कोई एक कहानी चुननी थी। ऐसे में उन्होंने दूसरे उपन्यास की कहानी इसलिए चुनी क्योंकि बतौर फिल्मकार दूसरी कहानी में बदलाव करने की गुंजाइश ज्यादा थी। इसमें लव स्टोरी भी थी, भूकंप भी, पॉलिटिक्स भी और दोस्ती भी। और जाहिर है उन्हें दोस्ती ने सबसे ज्यादा प्रभावित किया, तो फिल्म की मुख्य थीम दोस्ती हो गई। जब ये तय हो गया तो लिखने की बारी आई। हालांकि ‘रॉक ऑन’ सफल रही थी पर उसके पहले उनकी राह में काफी संघर्ष रहा, ये वह यहां स्वीकारते हैं। जब ‘काई पो चे’ को लेकर बाकी योजनाएं बन गई तो उन्होंने 8-10 महीने की छुट्टी ली और फिल्मी प्रारुप में इस कहानी को लिखा। वह कहते हैं, “जब आप किताब या उपन्यास को एडेप्ट करते हो फिल्मी स्क्रीनप्ले में, तो बहुत टाइम लगता है। खुद को दीन-दुनिया से पूरी तरह काटना पड़ता है”।
ये कहानी तीन अमदावादी (अहमदाबादी) लड़कों और नई सदी के नए भारत में उनके सपनों, आकांक्षाओं, टूटन और मिलन की है। मगर तीनों ही किरदारों में अभिषेक ने नए चेहरों को चुना। ईशान, ओमी और गोविंद के ये किरदार निभाए हैं टीवी के ज्ञात चेहरे सुशांत सिंह राजपूत, बिग बॉस में नीरू बाजवा (अब स्थापित पंजाबी हिरोइन) की तस्वीर लिए फफकते रहने वाले अमित साध और इन दिनों बहुत ही तेजी से शानदार फिल्मों में नजर आ रहे राज कुमार यादव (लव सेक्स और धोखा, रागिनी एमएमएस, गैंग्स ऑफ वासेपुर-2, शैतान, चिटगॉन्ग, तलाश, काई पो चे और इनके इतर एक बहुत ही महत्वपूर्ण फिल्म, शाहिद) ने। किसी स्थापित अभिनेता को नहीं लेने की इस बात पर अभिषेक बोले, “ऐसा नहीं है कि मैंने बड़े स्टार्स को इन भूमिकाओं में लेने के बारे में सोचा नहीं था। मैंने सोचा था। मगर जब आप तीन लड़कों की कहानी कह रहे हो और बात एक खास उम्र समूह की कर रहे हो तो फिर उम्रदराज अभिनेता लेने संभव न थे। और फिर मेरे प्रॉड्यूसर्स ने भी इस मामले में पूरी आजादी दी कि मन की कास्टिंग कर सकूं। इस दौरान मैंने कई एक्टर देखे। फिल्म शुरू होने से पहले मैंने डेढ़ साल कास्टिंग करने की चाह में बिता दिए। भई नॉवेल था तो अलग कास्ट होनी भी तो बहुत जरूरी थी। तभी मैंने इन लड़कों को देखा। जब टीवी पर ये नजर आए तो मुझे वही एनर्जी नजर आई जो मेरी फिल्म के किरदारों में होनी थी”।
इस दौरान वह उस सवाल को खारिज कर देते हैं जो फिल्म की रिलीज से पहले बहुत ओर से पूछे जा रहे हैं। कि भला टीवी वाले एक्टर एक बड़ी हिंदी फिल्म में गहन-गंभीर एक्टिंग कैसे दे पाएंगे? अभिषेक कहते हैं कि टीवी वालों की एक्टिंग को किसी अलग श्रेणी में बांटना बकवास बात है। टेलिविजन पर बहुत सारे लोग काम कर रहे हैं, सभी टेलेंटेड हैं और काम को लेकर बेहद ईमानदार हैं। वह उस 100 करोड़ क्लब वाली फिल्मों के सवाल पर भी नाखुश नजर आते हैं। ये राहत की बात है कि इस आंकड़े के पागलपन के बीच बतौर निर्देशक उनका ये जवाब स्पीडब्रैकर का काम करता है। वह बोलते हैं, “100 करोड़ रुपये की कमाई करने का दबाव मुझे बकवास बात लगती है। मुझे समझ नहीं आता कि ये 100 करोड़-100 करोड़ है क्या? क्यों है? हर तरह की फिल्म होती है और फिल्म अपनी कमाई से बेहतर नहीं होती है। कुछ फिल्मों ने कमाई कर ली तो आखिर बाकियों को भी उसमें छलांग लगाने के लिए क्यों कहा जा रहा है?” बात जब एक और स्टीरियोटिपिकल या सांचे में ढले सतही सवाल (आइटम नंबर) पर आती है तो वह शांत होकर कहते हैं, “जबर्दस्ती का लफड़ा फिल्म पर भारी पड़ सकता है। और फिर ऐसी चीजें सेंसिबल फिल्मों के कथानक को बहुत ज्यादा बाधित करती हैं। हमारी फिल्म एक संजीदा कोशिश है और उसमें कोई ऐसा खतरा हम नहीं उठा सकते थे। हालांकि फिल्म में गाने जरूर होंगे। पर अलग तरीके से और अलग संदर्भों में होंगे”। फिल्म में संगीत अमित त्रिवेदी का है। अभिषेक गुजराती किरदारों के टीवी और फिल्मों में इन दिनों किए जाने वाले स्टीरियोटिपिकल चित्रण से जुड़ी चिंता पर आश्वस्त करते हैं। कहते हैं, “गुजराती लोगों का जैसा घिसा हुआ चित्रण किया जाता है, मैं आपको पूरी तरह भरोसा दिलाता हूं कि इस फिल्म में कतई नहीं होगा”।
***** ***** *****
गजेंद्र सिंह भाटी