Nick and Trevor in a still shot from the movie. |
स्कूल में बेसबॉल का महत्वपूर्ण सीजन है। वह एक निर्णायक मैच में अंपायरिंग कर रहा है। यहां से फिल्म शुरू होती है। यहां उसके सवालिया निर्णय से फिल्म का दूसरा प्रमुख किरदार, डेव (ट्रेवर मॉर्गन) मैच हार जाता है। डेव का पिता फोटो खींचने और धोने का काम करता है। मां 2-3 साल पहले उसके पिता की असक्रियता और गैर-जिम्मेदारी भरे रवैये से उकताकर घर छोड़ जाती है। डेव और उसकी छोटी बहन (सोनिया फीगलसन) अपने पिता के साथ रहते हैं। मैच हारने के बाद डेव और उसके दोस्त रात में अंपायर के घर जाते हैं और उसकी कार के शीशे तोड़ते हैं, उसका घर गंदा करते हैं। अंपायर उसे पकड़ लेता है। यहां से इन दोनों के बीच अनोखे संबंध की कहानी आगे बढ़ती है। छिटकी हुई पृष्ठभूमि वाले ये दोनों बैठते हैं। तय होता है कि लड़का, रे के साथ उसका बेटा बनकर उसकी 40वीं हाई स्कूल रीयूनियन पार्टी में जाएगा और उसके बाद डेव को कार का नुकसान नहीं भरना होगा।
फिल्म चलती है। इस रीयूनियन पार्टी में और अंपायर के पिता से अस्पताल में मिलकर, डेव अलग अनुभवों से गुजरता है। इसके बाद दोनों रात में अपना जीवन बांटते हैं। लड़के को पिता का प्यार चाहिए तो अंपायर को बेटे का। बातों का अंत होता है। अंपायर लड़के को मुक्त कर देता है। मगर लड़का उससे मिलते रहना चाहता है। मगर अंपायर उसे जाने को कहता है। बाद में अंपायर को अपनी गलती का एहसास होता है। खैर, अगली सुबह लड़के को अंपायर के घर में उसकी लाश मिलती है। उसका अकेलापन उसे लील जाता है। डेव घर लौटता है। अपनी जिंदगी में भावों के गतिरोध के दूर करने का फैसला करता है। अपने पिता को स्थिति देता है कि या तो वह खुद को बदल ले या वह बहन के साथ घर छोड़कर चला जाएगा। पर पिता बेकार जवाब देता है। अप्रभावित सा...। और दोनों चले जाते हैं।
फिल्म में कोई ठोस कहानी, संवाद और नाटकीयता नहीं है, यही इसकी सबसे बड़ी खासियत है। फिल्ममेकिंग, जो एक चलते चित्रों का माध्यम भर है, यहां अनूठी हो जाती है। डेव की बहन के किरदार में सोनिया फीगलसन बेहद चार्मिंग हैं, लुभाने वाली हैं। उनके मृतप्राय भावों वाले पिता के रोल में टिमोथी हटन हैं। उम्दा। अंपायर रे बने निक नोल्टे एक खास किस्म के अभिनय के लिए जाने जाते हैं, यहां भी वो उस अदाकारी को ही निभाते दिखते हैं। शांत, गहन और सीधी। मुख्यधारा की फिल्में जहां ऊपर-ऊपर से नौटंकी बघेरने वाले किरदारों और भावों को फैलाकर निकल जाती हैं, वहीं पर ‘ऑफ द ब्लैक’ जैसी फिल्में बाद में फर्ज निभाने आती हैं। जो नकली नहीं हैं, जो इंसानी भावों और रिश्तों के भीतर घुसती हैं। बहुसंख्यक भावों में नहीं व्यक्तिगत भावों में घुसती हैं। बतौर निर्देशक जेम्स पॉन्सोल्ड की ये पहली फिल्म रही। उसके बाद भी उन्होंने धड़ाधड़ फिल्में बनाने पर ध्यान नहीं दिया। इसी साल उनकी दूसरी फिल्म ‘स्मेश्ड’ आई।
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गजेंद्र सिंह भाटी