मुलाकात अरुंधति नाग से, अनुभवी थियेटर एक्ट्रेस जिन्हें 'दिल से' और 'पा' में देखा होगा
अरुंधति नाग की जिंदगी का पहला उत्कृष्ट बिंदु रहा रहा निर्देशक आर. बाल्की की फिल्म 'पा' के लिए बेस्ट सपोर्टिंग एक्ट्रेस का राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार पाना। दूसरा, बेंगलुरु में अपने मरहूम पति शंकर नाग के सपने को पूरा करना। 'रंग शंकरा थियेटर' की स्थापना जिसका आज बेंगलुरु के सांस्कृतिक नक्शे में बड़ा महत्व है। कन्नड़ फिल्मों के अभिनेता, डायरेक्टर और थियेटर हस्ती शंकर ने 1987 में अमर टीवी सीरीज 'मालगुड़ी डेज' का निर्देशन किया था। 1990 में उनकी रोड़ एक्सीडेंट में मृत्यु हो गई, जिसमें अरुंधति और उनकी बेटी भी गंभीर रूप से घायल हुए थे। नौ महीने व्हीलचेयर पर रहने के बाद सच्चे दोस्तों की फौज और थियेटर के मोह ने अरुंधति को फिर पैरों पर ला खड़ा किया। तब से उन्होंने खुद की जिंदगी को रंगमंच के नाम कर दिया। नतीजा है रंगमंच में उनकी कद्दावर शख्सियत। नतीजा है जिंदगी के हर सवाल के प्रति उनका सकारात्मक रवैया। जितने सवाल पूछे जाएं, वह बेहद शांति, सहजता, विनम्रता और खुशी से जवाब देती हैं।
आमतौर पर ऐसा नहीं होता कि कोई साक्षात्कार के दौरान इतना समझदार बना रहे। कोई साक्षात्कार ले रहा है तो व्यक्ति को लगता कि वह बेहद विशेष है, उसकी राय ली जा रही है, उससे कुछ पूछा जा रहा है। ऐसे में वह तान-तानकर शब्दों के गुच्छे छोडऩे शुरू करता। अरुंधति ऐसा नहीं करतीं। क्यों? वह इतनी सकारात्मक और सामान्य क्यों हैं? प्रत्युत्तर में वह बोलती हैं, "जिंदा हूं। ...थियेटर कर रही हूं, ...यहां बैठी हूं ...इसलिए। ...खुश हूं"। इसके बाद कुछ पल तक उनका ये जवाब गूंजता रहता है और विश्लेषित होता रहता है। उनकी बातों में बार-बार थियेटर का जिक्र आता है। शांत वार्ता के बीच वह कहीं-कहीं थोड़े से हास्य को भी छोड़ देती हैं। मसलन, उनके कई भाषाएं बोल पाने का गुण। वह कहती हैं, "हर इंडियन दो से तीन भाषा तो बोल ही लेता है, मेरा ये है कि मैं बस छह बोलती हूं"।
बतौर अदाकारा 1979 में आई अरुंधति की पहली फिल्म मराठी में थी। नाम था '22 जून 1897'। इस वक्त अरुंधति नाग का नाम अरुंधत्ति राव था। फिल्म जून 1897 में पुणे में घटी उन घटनाओं और परिस्थितियों के बारे में थी जिनकी वजह से ब्रिटिश सरकार के दो अधिकारियों की हत्या कर दी जाती है। फिर अरुंधति ने कन्नड़, तमिल और हिंदी में फिल्में की। इस साल उनकी मलयालम फिल्म 'दा थडिया' आने वाली है। इप्टा (इंडियन पीपुल्स थियेटर एसोसिएशन) के साथ उन्होंने मराठी और गुजराती में प्ले तो किए ही थे। ज्योति व्यास की टीवी सीरिज 'हाजी आवती काल चे' में भी उन्होंने गुजराती में अभिनय किया। इतने वृहद काम और इतनी सारी भाषाओं में उसे करने का श्रेय वह क्रॉस मैरिजेस को देती हैं। उनकी मां की पृष्ठभूमि, पिता का परिवार, दिल्ली में रहने के दिन, फिर मुंबई में फैमिली का आ बसना, बाद में कन्नड़ मूल के शंकर से शादी होना और ससुराल में अलग भाषाई माहौल का होना। सांस्कृतिक और भाषाई अनुभव में इन हालात से भी ज्यादा योगदान वह थियेटर का मानती हैं। अरुंधति कहती हैं, "थियेटर सबसे बड़ा कार्यवाहक रहा इस दौरान। जैसे, मेरी कन्नड़ शब्दावली उन 20 प्ले तक ही सीमित है जो मैंने किए हैं। मैं जिस-जिस भाषा में प्ले करती गई, उसमें थोड़ा-थोड़ा सीखती गई। इस साल मलयालम फिल्म की है। आगे अगर चाइनीज रोल करूंगी तो उस भाषा को भी सीमित तौर पर ही सही लेकिन सीखूंगी जरूर"।
हालांकि उनका अभिनय अनुभव 40 साल का है, पर हिंदी दर्शक अरुंधति को सिर्फ दो फिल्मों से पहचानते हैं। पहली मणिरत्नम की 1998 में आई फिल्म 'दिल से' और दूसरी आर. बाल्की की 'पा'। 'दिल से' में वह ऑल इंडिया रेडियो की हैड और एआईआर में ही काम करने वाले अमर वर्मा (शाहरुख) की बॉस बनी थीं, 'पा' में ऑरो (अमिताभ) की 'बम' नानी। चूंकि अमिताभ-शाहरुख भी शुरुआती पृष्ठभूमि में थियेटर से जुड़े रहे तो अनुमान लगता है कि उन फिल्मों के सेट्स पर थियेटर जरूर डिस्कस होता रहा होगा। मगर अरुंधति कहती हैं कि ऐसा नहीं था। वह बताती हैं, "वह दोनों बहुत बिजी इंसान थे। ज्यादातर वक्त तो शॉट्स के बीच अपनी एड फिल्म्स और आने वाली फिल्मों पर बात करते थे या फिर अपनी वैनिटी वैन में चले जाते थे। इसलिए थियेटर पर ऐसी कोई बातचीत तो उनके साथ नहीं हो पाती थी। किसी भी विषय पर नहीं हो पाती थी। पर हां, चूंकि मैं रंगमंच की पृष्ठभूमि से थी इसलिए दोनों मेरी बहुत इज्जत करते थे"।
बातों के आखिर से पहले वह कुछ जीवन ज्ञान भी दे चुकी होती हैं। कहती हैं कि अगर कोई सीखना चाहता है या अपने काम में सर्वश्रेष्ठ होना चाहता है तो उसे हर छोटे से छोटा काम ईमानदारी से करना चाहिए। अगर मैं झाड़ू भी निकाल रही हूं तो बहुत अच्छे से निकालूं, अगर टॉयलेट भी साफ कर रही हूं तो बहुत मन लगाकर करूं। जब उनसे पूछा जाता है कि थियेटर में संतुष्टि भले ही हो पर पैसा नहीं है तो वज्र-स्पष्टता से कहती हैं, "सफलता का पैमाना सिर्फ पैसा नहीं है"। आज के वक्त की भौचक भूल-भुलैया में जिन नैतिक शिक्षाओं को थामे रहना असंभव सा हो चुका है वहां उनका ये कहना कि पैमाना पैसा नहीं है, समाज के लिए बेहद फायदेमंद सूत्रवाक्य बनता है। अफसोस है कि सिनेमा या थियेटर के माध्यम से जो ज्यादातर लोग आज जनता के बीच विशाल छवि बन चुके हैं उनके मुंह से ऐसा कुछ नहीं निकलता। उल्टे वह गलत आर्थिक रास्ते पर लोगों को ले जाते हैं, क्योंकि उन्हें विज्ञापनों और कैसी भी फिल्मों से पैसे कमाने हैं। खैर, अरुंधति नाग तेज धारा के विपरीत खड़ी हैं, वह प्रेरणा हैं। ये भी कह जाती हैं कि एक्सीलेंस ढेर में नहीं आती। थोड़ा कीजिए पर अच्छा काम कीजिए।
एक शब्द, एक सोच
गिरीष कर्नाड: उनमें एक अलौकिक सी बात है कि वह किरदारों के दिमाग में घुस जाते हैं। वह औरतों के दर्द और चीख को अपनी रचनाओं में अच्छे से उभारते हैं।
सिनेमा: बड़ा चुनौतीभरा माध्यम है। पर कोई फिल्म एक्टर भी थियेटर में आएगा तो उसे मुश्किलें हो सकती हैं। चाहे इतनी लंबी स्क्रिप्ट याद रखना हो या डेढ़ घंटे खड़े रहकर परफॉर्म करना।
बिखरे बिंब: बिखरे बिंब जैसे प्ले का एक शो तीन महीने में एकबार भी हो तो बहुत। मेरी जिंदगी में मर्सिडीज नहीं है या गले में हीरों का हार नहीं है तो क्या हुआ। मुझे बस ज्यादा से ज्यादा थियेटर करना है।
कोका कोला: बेंगलुरु में हमारे थियेटर रंग शंकरा में कोका कोला और पेप्सी जैसे ब्रैंड्स का एक भी बोर्ड आपको नहीं दिखेगा। हम इसे स्वीकार नहीं करते। लाइफ इनके बिना ज्यादा बेहतर है।
रुचियां: म्यूजिक सुनना मुझे बहुत पसंद है। कर्नाटकन-हिंदुस्तानी क्लासिकल दोनों सुनती हूं। सुबह उठते ही मेरे घर में रोज म्यूजिक बजना शुरू हो जाता है। इसके अलावा खाना पकाना बहुत अच्छा लगता है। बुक्स भी पढ़ती हूं।
**** **** ****
गजेंद्र सिंह भाटी
'40 साल बाद आज भी किसी प्ले के पहले पेट में तितलियां उड़ती हैं' Photo Courtsey: Jaswinder Singh |
अरुंधति नाग की जिंदगी का पहला उत्कृष्ट बिंदु रहा रहा निर्देशक आर. बाल्की की फिल्म 'पा' के लिए बेस्ट सपोर्टिंग एक्ट्रेस का राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार पाना। दूसरा, बेंगलुरु में अपने मरहूम पति शंकर नाग के सपने को पूरा करना। 'रंग शंकरा थियेटर' की स्थापना जिसका आज बेंगलुरु के सांस्कृतिक नक्शे में बड़ा महत्व है। कन्नड़ फिल्मों के अभिनेता, डायरेक्टर और थियेटर हस्ती शंकर ने 1987 में अमर टीवी सीरीज 'मालगुड़ी डेज' का निर्देशन किया था। 1990 में उनकी रोड़ एक्सीडेंट में मृत्यु हो गई, जिसमें अरुंधति और उनकी बेटी भी गंभीर रूप से घायल हुए थे। नौ महीने व्हीलचेयर पर रहने के बाद सच्चे दोस्तों की फौज और थियेटर के मोह ने अरुंधति को फिर पैरों पर ला खड़ा किया। तब से उन्होंने खुद की जिंदगी को रंगमंच के नाम कर दिया। नतीजा है रंगमंच में उनकी कद्दावर शख्सियत। नतीजा है जिंदगी के हर सवाल के प्रति उनका सकारात्मक रवैया। जितने सवाल पूछे जाएं, वह बेहद शांति, सहजता, विनम्रता और खुशी से जवाब देती हैं।
आमतौर पर ऐसा नहीं होता कि कोई साक्षात्कार के दौरान इतना समझदार बना रहे। कोई साक्षात्कार ले रहा है तो व्यक्ति को लगता कि वह बेहद विशेष है, उसकी राय ली जा रही है, उससे कुछ पूछा जा रहा है। ऐसे में वह तान-तानकर शब्दों के गुच्छे छोडऩे शुरू करता। अरुंधति ऐसा नहीं करतीं। क्यों? वह इतनी सकारात्मक और सामान्य क्यों हैं? प्रत्युत्तर में वह बोलती हैं, "जिंदा हूं। ...थियेटर कर रही हूं, ...यहां बैठी हूं ...इसलिए। ...खुश हूं"। इसके बाद कुछ पल तक उनका ये जवाब गूंजता रहता है और विश्लेषित होता रहता है। उनकी बातों में बार-बार थियेटर का जिक्र आता है। शांत वार्ता के बीच वह कहीं-कहीं थोड़े से हास्य को भी छोड़ देती हैं। मसलन, उनके कई भाषाएं बोल पाने का गुण। वह कहती हैं, "हर इंडियन दो से तीन भाषा तो बोल ही लेता है, मेरा ये है कि मैं बस छह बोलती हूं"।
बतौर अदाकारा 1979 में आई अरुंधति की पहली फिल्म मराठी में थी। नाम था '22 जून 1897'। इस वक्त अरुंधति नाग का नाम अरुंधत्ति राव था। फिल्म जून 1897 में पुणे में घटी उन घटनाओं और परिस्थितियों के बारे में थी जिनकी वजह से ब्रिटिश सरकार के दो अधिकारियों की हत्या कर दी जाती है। फिर अरुंधति ने कन्नड़, तमिल और हिंदी में फिल्में की। इस साल उनकी मलयालम फिल्म 'दा थडिया' आने वाली है। इप्टा (इंडियन पीपुल्स थियेटर एसोसिएशन) के साथ उन्होंने मराठी और गुजराती में प्ले तो किए ही थे। ज्योति व्यास की टीवी सीरिज 'हाजी आवती काल चे' में भी उन्होंने गुजराती में अभिनय किया। इतने वृहद काम और इतनी सारी भाषाओं में उसे करने का श्रेय वह क्रॉस मैरिजेस को देती हैं। उनकी मां की पृष्ठभूमि, पिता का परिवार, दिल्ली में रहने के दिन, फिर मुंबई में फैमिली का आ बसना, बाद में कन्नड़ मूल के शंकर से शादी होना और ससुराल में अलग भाषाई माहौल का होना। सांस्कृतिक और भाषाई अनुभव में इन हालात से भी ज्यादा योगदान वह थियेटर का मानती हैं। अरुंधति कहती हैं, "थियेटर सबसे बड़ा कार्यवाहक रहा इस दौरान। जैसे, मेरी कन्नड़ शब्दावली उन 20 प्ले तक ही सीमित है जो मैंने किए हैं। मैं जिस-जिस भाषा में प्ले करती गई, उसमें थोड़ा-थोड़ा सीखती गई। इस साल मलयालम फिल्म की है। आगे अगर चाइनीज रोल करूंगी तो उस भाषा को भी सीमित तौर पर ही सही लेकिन सीखूंगी जरूर"।
हालांकि उनका अभिनय अनुभव 40 साल का है, पर हिंदी दर्शक अरुंधति को सिर्फ दो फिल्मों से पहचानते हैं। पहली मणिरत्नम की 1998 में आई फिल्म 'दिल से' और दूसरी आर. बाल्की की 'पा'। 'दिल से' में वह ऑल इंडिया रेडियो की हैड और एआईआर में ही काम करने वाले अमर वर्मा (शाहरुख) की बॉस बनी थीं, 'पा' में ऑरो (अमिताभ) की 'बम' नानी। चूंकि अमिताभ-शाहरुख भी शुरुआती पृष्ठभूमि में थियेटर से जुड़े रहे तो अनुमान लगता है कि उन फिल्मों के सेट्स पर थियेटर जरूर डिस्कस होता रहा होगा। मगर अरुंधति कहती हैं कि ऐसा नहीं था। वह बताती हैं, "वह दोनों बहुत बिजी इंसान थे। ज्यादातर वक्त तो शॉट्स के बीच अपनी एड फिल्म्स और आने वाली फिल्मों पर बात करते थे या फिर अपनी वैनिटी वैन में चले जाते थे। इसलिए थियेटर पर ऐसी कोई बातचीत तो उनके साथ नहीं हो पाती थी। किसी भी विषय पर नहीं हो पाती थी। पर हां, चूंकि मैं रंगमंच की पृष्ठभूमि से थी इसलिए दोनों मेरी बहुत इज्जत करते थे"।
बातों के आखिर से पहले वह कुछ जीवन ज्ञान भी दे चुकी होती हैं। कहती हैं कि अगर कोई सीखना चाहता है या अपने काम में सर्वश्रेष्ठ होना चाहता है तो उसे हर छोटे से छोटा काम ईमानदारी से करना चाहिए। अगर मैं झाड़ू भी निकाल रही हूं तो बहुत अच्छे से निकालूं, अगर टॉयलेट भी साफ कर रही हूं तो बहुत मन लगाकर करूं। जब उनसे पूछा जाता है कि थियेटर में संतुष्टि भले ही हो पर पैसा नहीं है तो वज्र-स्पष्टता से कहती हैं, "सफलता का पैमाना सिर्फ पैसा नहीं है"। आज के वक्त की भौचक भूल-भुलैया में जिन नैतिक शिक्षाओं को थामे रहना असंभव सा हो चुका है वहां उनका ये कहना कि पैमाना पैसा नहीं है, समाज के लिए बेहद फायदेमंद सूत्रवाक्य बनता है। अफसोस है कि सिनेमा या थियेटर के माध्यम से जो ज्यादातर लोग आज जनता के बीच विशाल छवि बन चुके हैं उनके मुंह से ऐसा कुछ नहीं निकलता। उल्टे वह गलत आर्थिक रास्ते पर लोगों को ले जाते हैं, क्योंकि उन्हें विज्ञापनों और कैसी भी फिल्मों से पैसे कमाने हैं। खैर, अरुंधति नाग तेज धारा के विपरीत खड़ी हैं, वह प्रेरणा हैं। ये भी कह जाती हैं कि एक्सीलेंस ढेर में नहीं आती। थोड़ा कीजिए पर अच्छा काम कीजिए।
Arundhati was to perform Girish Karnad Directed play 'Bikhre Bimb' |
एक शब्द, एक सोच
गिरीष कर्नाड: उनमें एक अलौकिक सी बात है कि वह किरदारों के दिमाग में घुस जाते हैं। वह औरतों के दर्द और चीख को अपनी रचनाओं में अच्छे से उभारते हैं।
सिनेमा: बड़ा चुनौतीभरा माध्यम है। पर कोई फिल्म एक्टर भी थियेटर में आएगा तो उसे मुश्किलें हो सकती हैं। चाहे इतनी लंबी स्क्रिप्ट याद रखना हो या डेढ़ घंटे खड़े रहकर परफॉर्म करना।
बिखरे बिंब: बिखरे बिंब जैसे प्ले का एक शो तीन महीने में एकबार भी हो तो बहुत। मेरी जिंदगी में मर्सिडीज नहीं है या गले में हीरों का हार नहीं है तो क्या हुआ। मुझे बस ज्यादा से ज्यादा थियेटर करना है।
कोका कोला: बेंगलुरु में हमारे थियेटर रंग शंकरा में कोका कोला और पेप्सी जैसे ब्रैंड्स का एक भी बोर्ड आपको नहीं दिखेगा। हम इसे स्वीकार नहीं करते। लाइफ इनके बिना ज्यादा बेहतर है।
रुचियां: म्यूजिक सुनना मुझे बहुत पसंद है। कर्नाटकन-हिंदुस्तानी क्लासिकल दोनों सुनती हूं। सुबह उठते ही मेरे घर में रोज म्यूजिक बजना शुरू हो जाता है। इसके अलावा खाना पकाना बहुत अच्छा लगता है। बुक्स भी पढ़ती हूं।
**** **** ****
गजेंद्र सिंह भाटी