Showing posts with label Indian theatre. Show all posts
Showing posts with label Indian theatre. Show all posts

Thursday, January 24, 2013

मैं तां अक्खां बंद कर तुरनाः स्वरा भास्कर

वह उत्तरोतर बढ़ रही हैं। इस साल उनकी कई महत्वपूर्ण फिल्में आएंगी। दिल्ली की घटना पर अपने समूह के साथ बनाए उल्लेखनीय गीत मां नी मेरी, मैं नी डरना, तेरे वरगा मैं नी बणना... वाला होंसला उनमें है। उनसे पहले हुई बातचीत यहां पढ़ सकते हैं।


Swara Baskar.
दो साल पहले आई फिल्म ‘तनु वेड्स मनु’ में पायल के किरदार ने दिल्ली मूल की स्वरा भास्कर को एकाएक नई लोक-पहचान दी थी। फिल्म रिलीज होने के बाद वह एक राष्ट्रीय पत्रिका के मुखपृष्ठ पर दिखीं तो उन्हें देश के छह शीर्ष पुरस्कारों में बेस्ट सपोर्टिंग एक्ट्रेस के नॉमिनेशन मिले। अब 2013 में स्वरा लौट रही हैं पांच अनोखे किरदारों के साथ। ‘रांझणा’, ‘औरंगज़ेब’, ‘लिसन अमाया’, ‘मछली जल की रानी है’ और ‘सबकी बजेगी बैंड’ उनकी आने वाली फिल्मों के नाम हैं। इसके अलावा वह मुंबई में अपने थियेटर ग्रुप ‘स्वांग’ के साथ प्ले और वर्कशॉप भी कर रही हैं। हाल ही में पाश की कविताओं पर आधारित एक नुक्कड़ नाटक ‘बीच का रास्ता नहीं होता’ उनके समूह ने तैयार किया है। 1 फरवरी को रिलीज होने जा रही उनकी फिल्म ‘लिसन अमाया’ इसलिए भी सुर्खियां बटोर रही है क्योंकि कोई 28 साल बाद फारुख शेख और दीप्ति नवल की जोड़ी साथ नजर आने वाली है। इन्हीं सब संदर्भों में स्वरा से बातें हुईं, विस्तार से, पढ़ें।

 और कौन सी फिल्में आ रही हैं?
‘लिसन अमाया’ के अलावा ‘औरंगज़ेब’ है, यशराज फिल्म्स की। उसमें अर्जुन कपूर हैं डबल रोल में और मैं पृथ्वीराज सुकुमारन (अय्या वाले) के ऑपोजिट हूं। इसका निर्देशन अतुल सभरवाल कर रहे हैं। वह फिल्म लेखक रहे हैं। रामगोपाल वर्मा के साथ काम किया है। ‘माई वाइफ्स मर्डर’ फिल्म उन्होंने ही लिखी थी। सोनी पर एक यशराज का सीरियल आता था ‘पाउडर’, अतुल उसके लेखक-निर्देशक थे। फिर ‘रांझणा’ है। उसमें मेरे साथ धनुष (कोलावेरी डी), सोनम कपूर और अभय देओल हैं। बहुत मजेदार रोल है। परफॉर्मेंस ओरिएंटेड है। फिल्म के लेखक-निर्देशक आनंद राय हैं। कुछेक और फिल्में हैं जो इस साल रिलीज हो सकती हैं। ‘सबकी बजेगी बैंड’ मॉडर्न रिश्तों पर बनी एक कॉमेडी है। इसे अनिरुद्ध चावला डायरेक्ट कर रहे हैं, नए निर्देशक हैं। फिर एक हॉरर फिल्म है ‘मछली जल की रानी है’। इसका निर्देशन देबलॉय डे कर रहे हैं। दूरदर्शन पर एक सीरियल आता था ‘स्वाभिमान’, ये उसके निर्देशक थे। फिर एक फिल्म आई थी ‘चंद्रमुखी’ (1993) जिसमें सलमान खान और श्रीदेवी थे, ये भी उन्होंने ही डायरेक्ट की थी। बाद में वो कैनेडा चले गए थे, अब इस फिल्म के साथ लौट रहे हैं।

‘लिसन अमाया’ की कहानी क्या है?
बड़ी स्वीट सी स्टोरी है। रिश्तों पर और खासकर मां-बेटी के रिश्ते पर आधारित है। दीप्ति नवल मेरी मां का किरदार कर रही हैं, मैं अमाया का किरदार कर रही हूं। अमाया की मां विधवा हैं और अपने फैमिली फ्रेंड (फारुख़ शेख़) से प्रेम करती हैं। अमाया को जब ये पता चलता है तो सबके जीवन में बदलाव आते हैं और तीनों किरदारों की यात्रा आगे बढ़ती है। बड़े सहज और संवेदनशील तरीके से बनाई गई है। कई फिल्म समारोहों में जा चुकी है, पुरस्कार भी मिले हैं। सर्वश्रेष्ठ निर्देशक और फिल्म का पुरस्कार मिला था ‘न्यू जर्सी इंडिपेंडेंट साउथ एशियन सिनेफेस्ट-2012’ में। अब मार्च में लंदन जा रही है एक और फिल्म समारोह में हिस्सा लेने। जहां-जहां लोगों ने फिल्म देखी है, आखिर में एक मुस्कान साथ लेकर जा रहे हैं। एक संपूर्ण फिल्म है। इसमें हंसी-मजाक भी है, खिलखिलाहट के पल भी हैं, भावुकता भी है और साफ-सुथरी है। परिवार के साथ देख सकते हैं।

फिल्म की निर्देशक-लेखक जोड़ी अविनाश और गीता हैं, उनकी पृष्ठभूमि क्या है?
मूलतः दोनों दिल्ली में विज्ञापन फिल्में बनाते थे, अब पहली फीचर फिल्म बनाने मुंबई आए हैं।

माइक मिल्स की ‘बिगीनर्स’ हो या महेश मांजरेकर की ‘अस्तित्व’ या फिर नागेश कुकनूर की ‘मोड़’... ये बड़ी महत्वपूर्ण फिल्में रहीं, सिनेमा की व्यावसायिक मजबूरियों के कोलाहल से परे, कम किरदार, बांधे रखने वाला कथ्य और अच्छी कहानी लिए। जैसे कि संभवतः ‘लिसन अमाया’ है। मगर क्या ऐसा नहीं है कि ये भी उन्हीं फिल्मों की तरह कुछेक तक ही सिमट कर रह जाएगी या फिर फिल्म बनाने से पहले ही ये आप लोगों को स्पष्ट था?
Poster of Listen Amaya.
अविनाश-गीता ने अपनी कहानी बड़े साफ मन और ईमानदारी के साथ लिखी है। स्क्रिप्ट पढ़कर मुझे ये लगा और उन्होंने इसे वैसे ही परदे पर उतारा भी है। मैं इसे एक नॉन-कमर्शियल आर्ट फिल्म का दर्जा नहीं दूंगी, मैं इसे छोटी फिल्म का दर्जा भी नहीं दूंगी। क्योंकि 30 साल बाद ये फिल्म फारुख़ सर और दीप्ति मैम को साथ ला रही है। ये बड़ा यादगार कपल रहा है। दोनों बहुत ही बढ़िया एक्टर्स हैं। लोगों की प्रतिक्रिया इस न्यूज को लेकर बहुत अच्छी आई है, जिसने भी सुना है उसने कहा है कि अरे हमें दोनों बहुत पसंद हैं, हम उन्हें देखना चाहेंगे। उस कपल को लेकर बहुत नॉस्टेलजिया है, रोमैंस है। ईमानदार फिल्म इस लिहाज से भी है कि जितना डायरेक्टर से बन पाया उन्होंने उतना ही दिखाया। ये जैसी नहीं है, वैसी फिल्म होने की कोशिश भी नहीं करती। इसे दिल्ली में शूट किया, इंटीरियर भी वहीं थे, एक्सटीरियर भी वहीं शूट किए बड़े दिलचस्प ढंग से। हम सब उम्मीद से भरे हुए हैं। किसी के जीवन में ऐसी घटना नहीं भी घटी हो तो फिल्म देखकर उससे एक जुड़ाव जरूर बनेगा। गाने और म्यूजिक काफी रोचक है। इसमें किशोर कुमार और मधुबाला पर फिल्माए गाने ‘इक लड़की भीगी भागी सी’ का रीमिक्स भी रखा है। मुझे लकी फीलिंग भी हुई क्योंकि मधुबाला मेरी फेवरेट एक्ट्रेस हैं।

मुंबई नगरिया में कैसे-कैसे अनुभव हो रहे हैं? ‘तनु वेड्स मनु’ के बाद प्रकार-प्रकार की स्क्रिप्ट आ रही होंगी?
‘तनु वेड्स मनु’ के बाद मुझे कई वैसे ही रोल पेश किए गए। इसी वजह से उस फिल्म के कुछ वक्त बाद तक मैं बहुत मना कर रही थी। मेरे कई महीने इनकार करने में निकल गए। फिर ये पांच फिल्में चुनी इस वक्त में, और पांचों में मेरी भूमिकाएं ऐसी हैं कि मैं बहुत खुश हूं। लग रहा है कि आगे भी उत्साहजनक काम आएगा। ‘रांझणा’ का अभी शूट चल रहा है और जैसे मैंने पिछली बार आपसे कहा था कि मुझे मीटी रोल चाहिए तो उस पर खुद भी खरा उतरने के लिए बहुत मेहनत कर रही हूं।

जीवन फिल्मी हो या कोई दूसरा, बहुत बार निराश होकर रोते हैं, जो पाना चाहते हैं या जो करना चाहते हैं, हो नहीं पाता। आपके साथ ऐसा कितनी बार हुआ है कि भूमिकाओं के स्तर की वजह से या खुद के अभिनय को ढूंढने की कोशिश करते हुए पर ढूंढ न पाते हुए, आप निराश हुई हों?
मुंबई में कोई भी एक्टर हो, स्थापित या नया... उसकी जिदंगी में ये आती-जाती रहती है, निराशा या असुरक्षा। मैं ‘तनु वेड्स मनु’ के तुरंत बाद वाले दिनों में निराश तो नहीं, पर परेशान हो जाती थी। क्योंकि मुझे आठ-नौ ऐसे रोल पेश किए गए जो पायल के किरदार की हूबहू नकल थे। मुझे तो लगा कि अपने फोन में रिंगटोन लगवा लूं कि “अगर आप मुझे हीरोइन की फ्रेंड के रोल के लिए फोन कर रहे हैं तो अभी रख दीजिए, नहीं तो मैं उठा रही हूं फोन”। मगर उसके बाद से मैं बहुत भाग्यशाली रही हूं। कुल-मिलाकर निराशा से बची हुई हूं। जब मैं शूट नहीं करती हूं तो काफी सारे एक्टिंग वर्कशॉप करती रहती हूं। चूंकि मैं एन.एस.डी. या एफ.टी.आई.आई. जैसे किसी स्कूल से नहीं हूं तो कहीं एक्टिंग करना भूल न जाऊं इस लिहाज से व्यस्त रहती हूं। मुंबई में हमारा छोटा सा थियेटर ग्रुप है, ‘स्वांग’, जिसके साथ हम थियेटर की वर्कशॉप या नाटक करते रहते हैं।

फिर भी परेशानी की घड़ी में तुरंत राहत पाने के लिए क्या करती हैं? कौन सी फिल्म देखती हैं, किताब पढ़ती हैं, मां को फोन करती हैं?
मैं बहुत परेशान हो जाती हूं तो दिल्ली चली जाती हूं अपने माता-पिता से मिलने। नहीं तो ‘अमर अकबर एंथनी’ देखती हूं और ‘केसाब्लांका’ देखती हूं। ये मेरी दो फेवरेट फिल्में हैं। बहुत ज्यादा खाना खाती हूं, मीठा खा लेती हूं बहुत ज्यादा। कुल मिलाकर बच ही जाती हूं।

जब दिल्ली न जाना हो पाए या तीन घंटे ‘अमर अकबर एंथनी’ देखने के लिए न हों तो क्या सूत्रवाक्य रहता है?
मुझे लगता है कि हिंदी फिल्मों के जो गाने हैं, वो जिंदगी की सबसे बढ़िया फिलॉसफी होते हैं। वो मुझे हमेशा काम आए हैं और अकसर याद रहते हैं। जैसे, “ओ राही मनवा दुख की चिंता क्यों सताती है दुख तो अपना साथी है...” (दोस्ती, 1964)। मुझे लगता है कि इससे सच्ची बात लाइफ में इन चीजों को लेकर नहीं बोली गई है। दूसरा, देवआनंद साहब का गाना, “मैं जिंदगी का साथ निभाता चला गया…” (हम दोनों, 1961)। मुझे कमाल लगते हैं ये दोनों दर्शन। इन्हें अगल-बगल में इंसान रखकर चले तो कट जाएगी।

‘स्वांग’ के बारे में बताएं, इसे कितना वक्त देती हैं?
मुंबई में हमारा ये लेखकों, निर्देशकों, अभिनेताओं और संगीतकारों का छोटा सा समूह है। सब अलग-अलग कोशिश कर रहे हैं बॉलीवुड में जाने की। सब उसी जनवादी कला और थियेटर से आते हैं। कुछ लोग इप्टा के सदस्य थे, कुछ दिल्ली की एक और संस्था के सदस्य थे। अलग-अलग समूहों से थे और मुंबई आकर हम सभी जुड़े। यहां हमने एक बड़ा अच्छा नुक्कड़ नाटक तैयार किया, पंजाब के नामवर कवि पाश की कविताओं पर आधारित, उसका नाम था ‘बीच का रास्ता नहीं होता’। पुणे और मुंबई में उसके शो किए। पहली बार कविता को नुक्कड़ नाटक के प्रारूप में किया जा रहा था और प्रतिक्रियाएं बहुत अच्छी रहीं। अभी इस ग्रुप ने एक गाना बनाया है, ‘मां नी मेरी मैं नी डरना’, दिल्ली की घटना के संदर्भ में। इसे रविंदर रंधावा ने लिखा और ग्रुप में संगीतकार हैं रोहित शर्मा उन्होंने कंपोज किया है।

‘रांझणा’ में फिर आनंद राय के साथ काम कर रही हैं…
बहुत खुश हूं। मुझे लग रहा है कि शायद इस बार मैं उनको बेहतर समझ पा रही हूं, उनके निर्देशों को बेहतरी से ले पा रही हूं। हम लोग 31 दिसंबर को बनारस में ही थे और न्यू ईयर सेलिब्रेशन हमने गंगा नदी में एक बोट पर किया था। वहां मैंने आनंद सर को कहा था कि “पता है अगर मैं ये फिल्म हॉल में देखती और मैं ये किरदार नहीं निभा रही होती तो मेरा दिल टूट जाता इसलिए थैंक यू सो मच”। बहुत कमाल का कैरेक्टर हैं। राइटर हिमांशु शर्मा ने कमाल लिखा है। इसमें बिंदिया का रोल कर रही हूं जो शायद पायल से भी मजबूत होगा। मैं पूरी उम्मीद कर रही हूं कि ये वैसे ही निकले जैसे लिखा गया था। दर्शकों को बिंदिया जरूर याद रहेगी, क्योंकि अभी तक जितने किरदार किए हैं उनमें सबसे मजेदार ये रहा है।

एक्सेंट बनारस का पकड़ा होगा?
कोशिश तो की है। बहुत ज्यादा भी भोजपुरी नहीं जा रहे थे। ऐसी भाषा रखी है जो एक आम हिंदी भाषी को समझ में आए और महाराष्ट्र, गुजरात, बेंगलुरु के दर्शकों को भी। फुल भोजपुरी नहीं है पर हां एक टच देने की कोशिश की है। मेरी नानी दरअसल बनारस की हैं, उनकी पैदाइश और परवरिश वहां की रही है।

‘औरंगज़ेब’ में क्या किरदार है?
ज्यादा तो नहीं बता पाऊंगी पर एक एक्शन ड्रामा है। मेरा किरदार एकदम अलग किस्म का है। उसके आसपास इतना कुछ हो रहा है पर बाकी सभी से ये बिल्कुल अलग दिखती है। ‘लिसन अमाया’ की अमाया, ‘रांझणा’ की बिंदिया और ‘औरंगज़ेब’ की सुमन ये तीनों विपरीत किरदार हैं। एकदम अलग-अलग दिशाओं में खड़ी औरतें हैं। ‘औरंगज़ेब’ शायद 17 मई को रिलीज हो रही है और ‘रांझणा’ शायद 28 जून को, तो उस वक्त तक मैं बिल्कुल अलग-अलग रोल कर चुकी होऊंगी।

तीन-चार महीने में दोनों पूरी हो चुकी होंगी?
हां, तकरीबन शूट तो हो ही चुका है। ‘रांझणा’ का म्यूजिक ए. आर. रहमान साहब तैयार करने में लगे हैं।

इन दिनों टेलीविजन पर माधुरी दीक्षित का ओले क्रीम का विज्ञापन चल रहा है, उसमें (क्रीम बरतने के बाद परिणाम के तौर पर) उनका चेहरा फोटोशॉप से ज्यादा गोरा और समतल बनाकर दिखाया गया है। 2011 में ब्रिटेन की एक विज्ञापन नियामक एजेंसी ने जूलिया रॉबर्ट्स के ऐसे ही विज्ञापन पर, इसी वजह से रोक लगा दी थी। फिर प्राकृतिक खूबसूरती के साथ डॉक्टरी छेड़छाड़ के उदाहरण लें तो लगता है अनुष्का शर्मा ने अपने ऊपरी होठ को हाल ही में ज्यादा रसीला बनाया है। कटरीना-कंगना और कई दूसरी संभवतः ऐसा पहले करवा चुकी हैं। हो सकता है आपको भी कभी ऐसे फैसले लेने पड़ें। तो सवाल ये है कि इन कदमों से आप कितनी सहमत हैं? दूसरा, ब्यूटी की जो मौजूदा परिभाषा अभी की फिल्में और इन अभिनेत्रियों के डॉक्टरी फैसले गढ़ रहे हैं, वो परिभाषा कितना प्रतिनिधित्व करती है पायल और बिंदिया जैसी औसत हिंदुस्तानी लड़कियों का, निम्न-मध्यमवर्गीय लड़कियों को छोड़ भी दें तो?
मैं इस पर तो कुछ नहीं कहूंगी कि कौन सी एक्ट्रेस ने क्या किया, क्या नहीं किया। निजी पसंद भी होती है लोगों की। आपका शरीर है आपको जो करना है उसके साथ। मैं सिर्फ अपनी बात बोलूंगी। मुझे किसी ने एक बार लैला-मजनू की कहानी सुनाई थी, शायद सच हो, कि किसी ने लैला को देखा तो मजनू के पास आकर बोले, “भई तुम पागल-वागल हो क्या, मतलब काली है”। तो मजनू हंसकर बोले, “भई लैला की सुंदरता देखने के लिए तुम्हें मजनू की आंखें चाहिए”। मुझे भी ऐसा ही लगता है। ब्यूटी का कोई एक नोशन या पैमाना नहीं होता है और नहीं भी होना चाहिए। कहावत भी है कि ‘सुंदरता देने वाले की आंखों में होती है’। हां, ये जरूर है कि मुंबई की इंडस्ट्री ऐसी जगह है जो आपको असुरक्षित बना सकती है। एक एक्टर या औरत के तौर पर सुंदरता को लेकर, उम्र को लेकर, मोटापे और पतलेपन को लेकर। मैं खुद हर वक्त यही सोचती रहती हूं कि मोटी हो रही हूं, पतली हो रही हूं, छोटी हो रही हूं, क्या हो रही हूं। अगर उस पथ पर अग्रसर हो जाएं तो आप बहुत असुरक्षित हो सकते हैं। लेकिन मैं अपने बारे में बोलूंगी कि मैं बहुत कोशिश करती हूं एक संतुलन बनाकर चलने की। जहां तक सर्जरी या सर्जिकल प्रोसेस का सवाल है, तो मैं इन सबसे अभी तक तो बची ही हुई हूं। आगे भी बचूंगी। मुझे बस एक ही डर लगता है कि अगर एक बार आप शुरू हो गए तो फिर कहां रुकेंगे। ये भी ठीक नहीं लगेगा, वो भी ठीक नहीं लगेगा। दिमाग जो है न वो सच में शैतानखाना है और मैं अपने आप को जानती हूं, अगर मैं एक बार शुरू हो जाऊंगी तो पता नहीं कहां जाकर रुकूंगी। इसलिए अच्छा है कि मैं उस पथ पर जाऊं ही ना। जहां तक इन गोरेपन और कालेपन वाले विज्ञापनों की बात है तो मुझे बड़े ऑफेंसिव लगते हैं ये। जैसे ये फेयर एंड लवली वाले विज्ञापन या इस किस्म का जो रंग को लेकर फितूर है हमारे देश में, खासकर लड़कियों को लेकर, ये मुझे बहुत नारी विरोधी लगता है। बहुत बुरा लगता है। ये हम लोगों के जीवन में एक रियल प्रॉब्लम हो सकती है। जैसे मेरी क्लास में ही लड़कियां होती थीं और लड़के उन्हें काली-काली कहकर परेशान करते थे। ये बड़ा मूर्खतापूर्ण है।

‘गैंग्स ऑफ वासेपुर’ में ऋचा चड्ढा की भूमिका को ही लें तो अब किरदार ऐसे लिखे जा रहे हैं कि उनके लिए आपको खास हिंदी-अंग्रेजी उच्चारण, विशेष चेहरे-मोहरे या आकार की जरूरत नहीं पड़ेगी। एक औसत हिंदुस्तानी लड़की वाले नाक-नक्श चलेंगे।
हां, ये बहुत अच्छी बात है। क्या रोल था, ऋचा ने कमाल का परफॉर्मेंस दिया है। मैं स्कूल टाइम से ही उसे बहुत अच्छे से जानती हूं। उसने बहुत बढ़िया काम किया और बहुत अच्छी एक्ट्रेस है वो। जैसे एक सीन है ‘गैंग्स ऑफ वासेपुर-2’ में जहां वो गाना आता है “तार बिजली से पतले हमारे पिया...” उसमें ऋचा एक जगह गाते हुए ही रोने लगती हैं... क्या कमाल का सीन किया है। मैंने उसे फोन करके कहा भी था कि यार तुमने तो शानदार निर्वाह किया है। तो ऐसे रोल लिखे जा रहे हैं, वाकई में अच्छी बात है। ऐसे ही रोल में आपको अपना अभिनय दिखाने का मौका मिलेगा।

मुंबई में नए-नए फिल्मकार पंख फैलाने की तैयारी में हैं, आपकी उन पर नजर है?
मैं किसी समूह का हिस्सा तो नहीं हूं, पर जानती हूं कि मुंबई में सिनेमा के लिए बहुत अच्छा दौर अभी है। सब अवसर खुल रहे हैं। युवाओं को, नए अभिनेताओं को, राइटर्स को, डायरेक्टर्स को मौके मिल रहे हैं। मैं भी चाहती हूं कि अच्छे रोल करूं। मैंने तो पहले भी कहा है कि एक लालची एक्टर हूं। मैं चाहती हूं कि मुझे और बेहतर, बेहतर, बेहतर काम मिले और बेहतर परफॉर्मेंस करने का मौका मिले। कि मैं ऐसी फिल्म करूं जिसे करने के बाद थक गई हूं, दस किलो वजन घट गया है, दिमाग खाली हो गया है, कुछ समझ नहीं आ रहा है, इमोशनली आप बह गए हो। बहुत ख्वाहिश है कि उस स्तर का अनुशासन एक एक्टर के तौर पर खुद के अंदर ला पाऊं। इस लिहाज से मैं खुद को एक नए और छोटे बॉलीवुड का हिस्सा मानती हूं।

आपकी मां सिनेमा पढ़ाती हैं और सिनेमा पढ़ाते हुए जिन चीजों की आलोचना करती हैं या सिनेमा को जिस तरह देखना सिखाती हैं या खुद जैसे देखती हैं, उसका कितना असर आप पर पड़ा है, फिल्मों को देखने के आपके तरीके पर और रोल करने के आपके फैसले पर?
काफी अलग है हमारी सोच। क्योंकि मां स्कॉलर, शिक्षक और विश्लेषक के तौर पर फिल्मों को देखती हैं। एक लिहाज से जिसे आप सिनेमा एप्रीसिएशन कह सकते हैं। जब मेरे पास स्क्रिप्ट आती है तो मैं एक्टर के नजरिए से देखती और सोचती हूं। थोड़ा ये देखती हूं कि मेरा रोल कैसा लग रहा है, क्या है इसमें, कितनी बड़ी फिल्म है, कितनी छोटी फिल्म है... ये सब मैं भी सोचने लगी हूं, थोड़ी दुकानदारी में लग गई हूं, यू नो। कुछ साल मुंबई में रहते हुए हो गए तो इस मामले में खुद को बिल्कुल दूध की धुला नहीं मानूंगी।

लेकिन जब आप सिनेमा की दुनिया में नहीं आईं थीं तब तक तो आप पर असर रहा होगा क्योंकि जैसी फिल्मों या उससे जुड़े साहित्य का ढेर आपके घर लगा रहता होगा...
कभी-कभी मेरी मम्मी कहती हैं कि तुम मुझे बिल्कुल घर की मुर्गी दाल बराबर ट्रीट करती हो। सारी दुनिया आकर मुझसे फिल्म ले जाती है और तुम्हें कोई कद्र नहीं है मेरी फिल्मों की। लेकिन हां, मैं अपनी मां के कई लेक्चर में बैठी हूं, बहुत अच्छी टीचर हैं और मजेदार ढंग से पढ़ाती हैं। उनके साथ कई फिल्में भी देखी हैं। यहां तक कि मैंने अंतरराष्ट्रीय फिल्में बहुत कम देखी हैं पर जितनी भी देखी हैं मां के साथ ही देखी हैं। जाहिर है असर तो रहा ही है और संभवतः फिल्मों के लिए मेरे अंदर जो प्रेम है वो मुझे मेरी मां से मिला है विरासत में। अब तो वो व्यस्त रहती हैं और कुछ-कुछ मैं भी।

विदेशी फिल्में जो आपने उनके साथ देखीं और हिल गईं?
‘डांसर इन द डार्क’। मेरी हालत खराब हो गई। इसके निर्देशक हैं लार्श वॉन त्रियर। मैं इतनी डिस्टर्ब कभी किसी फिल्म को देखकर नहीं हुई हूं जितनी ‘डांसर इन द डार्क’ (2000) को देखकर हुई। और कमाल का परफॉर्मेंस था, और जो सिंगर्स इसमें लिए हैं... ये मैंने अपनी मां के साथ देखी थी। पेड्रो एल्मोडोवर की कई फिल्में देखी हैं, जैसे एक थी ‘ऑल अबाउट माई मदर’ (1999)। तो ये दो फिल्में आज भी जेहन में ताजा हैं।

कॉमोडोर भास्कर (पिता) ने आपकी कौन सी फिल्म देखी है, उनको कैसी लगी?
वैसे बिल्कुल फिल्में नहीं देखते पर मेरी सारी फिल्में देखते हैं। जब मैं ज्यादा परेशान कर रही होती हूं तो इन दिनों धमकाते हुए कहते हैं, “देखो तुम मुझे ज्यादा परेशान करोगी तो मैं भी आ जाऊंगी मुंबई, एक्टर बनने”। तो मैं कहती हूं कि नहीं प्लीज मुंबई मत आना। तो मेरी सारी फिल्में मेरे पेरेंट्स देखते हैं, मेरे करियर में पूरे जोश से रुचि लेते हैं। जब मुझे पिछले साल नॉमिनेशन मिले थे तो पेरेंट्स साथ आए थे अवॉर्ड सेरेमनी में।

अपने किरदारों को आप कैसे सुनती है? कैसे समझती हैं? कैसे आत्मसात करती हैं? कैमरे के सामने कैसे खुद को अभिव्यक्त करती हैं? जैसे सीन्स के बीच में, कुर्सी पर बैठे हुए, उस दिन का शेड्यूल खत्म कर घर जाते हुए रास्ते में, रात को सोते हुए, सुबह उठकर स्पॉट पर पहुंचते हुए... क्योंकि आपको हर किरदार में जान डालनी है तो ऐसी कई क्रियाएं करनी पड़ती हैं। जैसे मैंने दीपक डोबरियाल से बात की थी तो उन्होंने अपनी अनूठी क्रिया बताई, इरफान खान भी ऐसा करते हैं। नतीजतन ‘तनु वेड्स मनु’ में जिस किस्म के पप्पी भैया दीपक बने थे शायद वैसा यू.पी. वाला किरदार कोई पहले नहीं आया है, आता भी है तो बड़ा घिसा-पिटा। फिर ‘नॉट अ लव स्टोरी’ में उन्होंने चौंका दिया। आपकी क्या प्रक्रिया रहती है, आप खुद से कैसे बात करती हैं? किरदार सुनने से लेकर कैमरे के आगे अभिव्यक्त करने के बीच क्या-क्या चीजें हो जाती हैं?
मेरा थोड़ा अजीब है मामला। चूंकि मैं कॉलेज में लिट्रेचर की स्टूडेंट रही हूं तो मुझे अपने हाथ में सबसे पहले स्क्रिप्ट चाहिए। मैं बहुत असुरक्षित हूं अपनी स्क्रिप्ट को लेकर, मुझे उसे बार-बार छूने की जरूरत पड़ती है। वो हर वक्त मेरे पास रहती है। मुंबई में जैसे आदत होती है कि आपको सीन के प्रिंट मिलते हैं, लेकिन मैं हमेशा कहती हूं, मुझे नहीं चाहिए मेरे पास अपनी स्क्रिप्ट है। मैं दो-तीन बार पढ़ती हूं स्क्रिप्ट को। फिर अपनी समझ के हिसाब से और जो भी डायरेक्टर से ब्रीफ मिला है, उसके नोट्स बनाना शुरू करती हूं। आप अगर मेरी स्क्रिप्ट देखेंगे तो वो पूरी लिखाई से भरी हुई है, आगे-पीछे नोट्स लिखे पड़े हैं। जैसे स्टूडेंट्स वाली हरकतें होती हैं। फिर ये करती हूं कि कहानी में जहां मेरा किरदार आता है उससे पहले जब वो पैदा हुआ, उसके पैदा होने से फिल्म की कहानी में प्रवेश करने तक की पूरी काल्पनिक कहानी अपने मन में बना लेती हूं। फिर फिल इन द ब्लैंक्स की तरह सोचती हूं। मतलब छोटी सी चीजें हैं, स्टूपिड चीजें हैं, कि उसे कौन सी फिल्म पसंद आती होगी? उसके दोस्त कैसे होंगे? वह क्या खाना पसंद करती है? उसे किसके सपने आते हैं? स्टूपिड चीजें... जिसका कोई लेना देना नहीं है फिल्म में लिखी उसकी घटनाओं से। मैं उसकी समग्र (होलिस्किटक) पर्सनैलिटी बनाती हूं। जैसे वो लड़की बीच-बीच में आ रही है फिल्म में, तो जहां-जहां नहीं नजर आ रही है तब क्या कर रही होगी? ये मैं अपने लिए चुन लेती हूं। फिर मेरे लिए बहुत जरूरी है कि लड़की कहां की है? किस परिवार में पैदा हुई है? तबका क्या है? मध्यमवर्गीय या निम्न मध्यमवर्गीय या मजदूर वर्ग की है? उसके हिसाब से उसका बॉडी लैंग्वेज, हाव-भाव तय होगा। मतलब न सिर्फ उसके कपड़े... जैसे एक अंदाज होता है न कि सलवार-कमीज पहनकर भी आप साउथ डेल्ही के ही लगोगे... लेकिन अगर आप स्लम के हो या छोटे शहर के हो तो आपकी चाल अलग होगी। आपके कंधों की मुद्रा अलग होगी। तो इन सब चीजों पर ध्यान देने की कोशिश करती हूं। स्पीच या भाषा को लेकर बहुत जागरुक रहने की कोशिश करती हूं। ये देखती हूं कि आप किस उम्र का किरदार निभा रहे हैं। जैसे ‘लिसन अमाया’ में मैंने एक यंग एनर्जी लाने की कोशिश की है। ‘औरंगज़ेब’ में मेरे किरदार में स्थिरता है तो स्थिरता पकड़ने की कोशिश की है। ‘रांझणा’ में बिंदिया अल्हड़ है पागल है थोड़ी सी। तो उस किस्म की एनर्जी पकड़ने की कोशिश की है मैंने। मूलतः मेरी प्रक्रिया यही रहती है। मैं बार-बार वापस जाती हूं स्क्रिप्ट पर, उसे पढ़ती हूं, नोट्स को बार-बार पढ़ती हूं। ये सारी की सारी कवायद करने के बाद मैं खुद में ही वो सीन विजुअलाइज करती हूं। मतलब बिना डायरेक्टर के डायरेक्शन के, बिना ब्लॉकिंग के। और फिर मैं कोशिश करती हूं कि सेट पर आकर ये सारा भूल जाऊं। ताकि वहां पर आकर जो दूसरे एक्टर्स कर रहे हैं ऑन द स्पॉट उसी इंटरैक्शन में कुछ अच्छा सा इम्प्रोव निकले। मतलब वो इम्प्रोव असल भी लगे और सच्चा भी हो उस किरदार की जड़ों के प्रति।

समकालीन अभिनेता-अभिनेत्रियों में कौन धाकड़ लगते हैं सबसे ज्यादा?
मुंबई में इस वक्त जिधर नजर घुमाएं उधर बहुत बढ़िया एक्टर हैं। सब नए एक्टर बहुत यंग, टेलेंटेड, सुदंर और एनर्जी से भरे हुए हैं। ये हमारे लिए कॉम्पिटीशन भी हैं और हिंदी सिनेमा के लिए अच्छी बात भी हैं। ऋचा चड्ढा मुझे अच्छी लगती हैं, कमाल की एक्टर हैं। पिछले साल जितने भी नॉमिनेट हुए सारे ही बड़े टेलेंटेड थे। परिणीति चोपड़ा बहुत अच्छी एक्ट्रेस है, बहुत अच्छी एनर्जी है उसकी। अदिति राव हैदरी, हुमा कुरैशी बहुत ही सुंदर एक्ट्रेसेज हैं। बहुत खूबसूरत लड़कियां हैं दोनों। शहाना गोस्वामी बहुत उम्दा एक्ट्रेस हैं। मोनिका डोगरा का प्रेजेंस बहुत अच्छा है। पूर्णा जगन्नाथन की स्क्रीन प्रेजेंस मुझे बहुत अच्छी लगती है। प्रियंका चोपड़ा और इलियाना डिक्रूज का काम ‘बर्फी’ में बहुत कमाल लगा। मतलब क्या कंट्रोल है, इतना नियंत्रित परफॉर्मेंस किया। सोनम मेरे साथ ‘रांझणा’ में है। बहुत अच्छी, उदार और दोस्ताना लड़की है। ऐसा मैंने बहुत कम अभिनेत्रियों में देखा है। बहुत साफ और सच्चे मन की है। लड़कों में मुझे लगता है कि आयुष्मान खुराना में बहुत संभावनाएं हैं। उसकी भाषा बड़ी साफ है, चूंकि वह रेडियो जॉकी रह चुका है। साफ हिंदी बोलता है जो मुझे हमेशा पसंद आता है। नवाज (नवाजुद्दीन सिद्दीकी) तो खैर कमाल एक्टर हैं। दीपक डोबरियाल मेरे बहुत पुराने और फेवरेट एक्टर हैं। अर्जुन कपूर बड़ा अच्छा एक्टर है, मैंने उसे ‘इशकजादे’ में देखा, अब ‘औरंगज़ेब’ में भी देखा। बहुत बढ़िया काम किया। धनुष के साथ काम करने का मौका मिला। कमाल का एक्टर है। ‘आडूकलम’ मैंने देखी है जिसके लिए उसे नेशनल अवॉर्ड मिला। धनुष जब आया ‘रांझणा’ के लिए तो उसे बिल्कुल हिंदी नहीं आती थी, लेकिन आप उसका काम फिल्म में देखिए, फ्लो देखिए, कमाल का है। पृथ्वीराज हैं, आई थिंक साउथ के एक्टर्स से मैं बहुत प्रभावित हुई हूं। टेलेंटेड हैं और क्या तकनीकी नॉलेज है उनका, इतने अच्छे से वो कैमरा समझते हैं।

2012 में कौन सी फिल्मों ने आपको प्रभावित किया है?
जाहिर तौर पर ‘कहानी’। मुझे बहुत अच्छी लगी। ‘शंघाई’, कमाल की फिल्म लगी। सटीक, अच्छी और कलात्मक। आज शहरी जीवन में हमारे सामने जो सबसे बड़ा संकट मौजूद है झुग्गियों के पुनर्वास (स्लम रीहैबिलिटेशन) का उसे दिबाकर ने बहुत कमाल तरीके से प्रस्तुत किया। मैं मिली तो मैंने उनसे बोला भी था। ‘विकी डोनर’ मुझे बड़ी मजेदार लगी और क्या परफॉर्मेंस था बाप रे बाप। माई गॉड, डॉली जी और अनु जी और जिन्होंने दादी (कमलेश गिल) का रोल किया, कमाल, कमाल। उनके साथ बाद में मैंने एक विज्ञापन भी किया। ‘गैंग्स ऑफ वासेपुर’ अनुराग ने क्या स्केल पे बनाई है, विजुअली वो शानदार ही बनाते हैं, सबसे ज्यादा तो क्या परफॉर्मेंस रहे उसमें। उसमें मनोज जी, ऋचा और नवाज का काम तो मुझे बहुत ही अच्छा लगा। ‘पान सिंह तोमर’, माई गॉड क्या फिल्म थी। मैं तो पागल हो गई देखकर। मनोज जी का परफॉर्मेंस ‘गैंग्स...’ में और इरफान का ‘पान सिंह...’ में क्लास था। मुझे ‘बर्फी’ भी काफी अच्छी लगी एक्चुअली। रणबीर का काम बहुत कमाल लगा।

कौन ऑलटाइम फेवरेट हैं?
शाहरुख खान। मैं उनसे फिल्मफेयर नॉमिनेशन नाइट पर मिली। पिछले साल जब मैं नॉमिनेट हुई थी ‘तनु वेड्स मनु’ के लिए और वो स्टेज पर कुछ रिहर्स कर रहे थे। मैं स्टेज पर गई और मैंने कहा कि मैं 1995 से इस दिन का इंतजार कर रही हूं। उन्होंने मुझे गले-वले लगाया और मैं स्टेज से गिरने को हुई तो मुझे वापस खींच लिया। मुझे माधुरी दीक्षित बहुत पसंद हैं। बहुत बड़ी फैन हूं उनकी। रानी मुखर्जी की मैं बहुत बड़ी फैन हूं। मधुबाला, वहीदा जी, जूलिया रॉबर्ट्स, मैरिल स्ट्रीप... ये चारों भी मेरी ऑलटाइम फेवरेट में से हैं। मैरिल स्ट्रीप को देखकर तो ये उम्मीद जागती है कि यार उम्र का कोई फर्क नहीं पड़ता। आप अच्छे एक्टर हो तो आप अच्छे एक्टर हो और आपको अच्छा काम मिलेगा।

माधुरी और जूलिया की तो मैंने पहले आलोचना कर दी?
नहीं, ठीक है। एक होता है फिल्म में काम और दूसरा होता है मार्केट का एंगल। दुर्भाग्य से जिस दौर में हम रह रहे हैं उसमें आर्ट पर मार्केट बहुत हावी है। बहुत ज्यादा। कुछ चीजें मजबूरी में भी हो जाती हैं यार, अब क्या करेंगे आप। आप जितने बड़े स्टार बनते जाते हो तो उसका सामना आपको ज्यादा करना पड़ता है। इसीलिए अभी मैं बहुत आसानी से बोल दूं सर्जरी की बात और ये-वो... आगे जाकर आप क्या पता कितने बड़े स्टार बन जाओ और आपको क्या-क्या चीजें एनडोर्स करनी पड़ें। आप दस चीजों का विज्ञापन कर रहे हैं... तो दस शर्तें हैं...। तो ठीक है क्या करेंगे।

लेकिन थोड़ा भिड़ना भी तो चाहिए?
तो फिर ठीक है, हम वहां पहुंचेंगे तो भिड़ेंगे।

मजबूत महिला किरदारों वाली फिल्में देखती या पढ़ती हैं क्या?
मैरिल स्ट्रीप की बात करें तो मुझे उनका काम ‘द ब्रिजेज ऑफ मेडिसन काउंटी’ (1995) में बहुत अच्छा लगा था। बहुत शार्प सा काम था। बहुत शांत तरीके से निभाया है। हाल ही में आई ‘ब्लैक स्वॉन’ (2010) मुझे बहुत अच्छी लगी। मैंने बतौर एक्टर भी उस रोल के बारे में बहुत सोचा। मैं कमर्शियल फिल्में भी उस नजरिए से काफी देखती हूं। श्रीदेवी जी का काम जैसे मैं काफी याद रखती हूं। ‘चालबाज’ हुई, ‘चांदनी’ हुई, ‘मिस्टर इंडिया’… एक्टर के तौर एक एनडियरिंग या प्यारी लगने वाली क्वालिटी उनमें है। मैं हमेशा एक्टिंग ही नहीं देखती हूं, ये छोटी-छोटी चीजें भी मेरे जेहन में रह जाती हैं। ‘मुग़ल-ए-आज़म’ भी आइकॉनिक फिल्म रही। एक एक्टर के लिए ड्रीम रोल है अनारकली का। ‘मदर इंडिया’ मुझे बहुत पसंद है।

लक्ष्य क्या है जिंदगी का?
एक एक्टर के तौर पर मेरा ऐसा बॉडी ऑफ वर्क हो कि याद रहे। मैं फेम भी चाहूंगी पर सिर्फ फिल्में ही वो जरिया नहीं होंगी उसके लिए... जीवन में फिल्मों के आगे भी बहुत सारी चीजें आएंगी। जो भी मैं करूं उसका असर पड़े लाइफ पर। ऐसा काम जो ज्यादा जमीनी हो और उसमें लोगों से इंटरैक्ट करने का ज्यादा मौका मिले।

Swara Bhaskar is a young, energetic and talented actress. She's from Delhi. She studied in Delhi University and did her masters in sociology from Jawaharlal Nehru University. Her mother Ira Bhaskar is a film studies professor at JNU and father C Uday Bhaskar is a well known strategic expert. After doing films like 'Madholal Keep Walking', ‘Guzaarish’, ‘The Untitled Kartik Krishnan Project’ and 'Niyati', Swara appeared in Anand L. Rai's 'Tanu Weds Manu' as Payal and got rave reviews. Now she's coming up with five good movies this year. Avinash Kumar Singh's 'Listen Amaya' is releasing on 1st of Feb. This movie also reunites veterans like Farooq Sheikh and Deepti Naval after 28 years. Then Swara will be seen as Bindiya in Rai’s ‘Raanjhnaa’ with Dhanush, Sonam Kapoor and Abhay Deol. She plays Suman in Yashraj’s ‘Aurangzeb’ directed by debutant Atul Sabharwal. ‘Machali Jal Ki Raani Hai’ and ‘Sabki Bajegi Band’ is her other projects.
*****     *****     *****

Sunday, January 13, 2013

मैंने कुमुद मिश्रा को ‘इल्हाम’ में देखा और बस रो दियाः मंत्र

रंगमंच अभिनेता, टेलीविजन प्रस्तोता, रेडियो जॉकी, फिल्म कलाकार और स्टैंड अप कॉमेडियन मंत्र से मुलाकात हुई। अपने मनमोहक अंदाज में इस लंबी बातचीत में वह छूते चले पिया बहरुपिया, कॉमेडी सर्कस, रेडियो, दिनेश ठाकुर, ओशो, थियेटर, अतुल कुमार, सखाराम बाइंडर, शाहरुख खान, दर्शन, पीयूष मिश्रा, बॉलीवुड, ब्रॉडवे बनाम पारंपरिक रंगमंच, अश्लीलता, बर्फी, कॉमेडी, मिस्टर बीन और जीने का फलसफे जैसे कई विषयों को। धैर्य रख सकें तो पढ़ें।
 
Mantra
सर एंड्रयू एग्यूचीक सीधे बंदे हैं। वह ऑलिविया से शादी करना चाहते हैं, पर सब जानते हैं कि ऐसा कभी नहीं होगा। वह बुद्धिमान हैं, बहादुर हैं, भाषाओं के जानकार हैं, नाचना जानते हैं, रंगत वाले कपड़े पहनते हैं, नौजवान हैं। मगर उनके हालात उनकी छवि किसी मूर्ख की सी बना देते हैं जैसा कि हमारी आदत होती है, मुसीबत में पड़े किसी पर हंसना। विलियम शेक्सपियर के नाटक ‘ट्वेल्फ्थ नाइट’ (वॉट यू विल) में एंड्रयू पर हम हंसते हैं। मगर पूरणजीत दासगुप्ता की परिस्थितियां बेचारगी वाली नहीं हैं। हम उन पर हंसते नहीं हैं, बल्कि वह हमें हंसाते हैं। कोई बारह साल ‘रेडियो मिर्ची’ के पहले ब्रेकफस्ट शो में रेडियो जोकींग करते हुए भी, बाद में भी रेडियो पर ‘बजाते हुए’ लगातार, फिर दिल्ली के गलियारों में 2003 में बैरी जॉन से थियेटर सीखने के बाद बहुत सारे प्ले करते हुए, ‘भेजा फ्राई-2’ और ‘हम तुम और शबाना’ जैसी कुछ फिल्मों में सहायक भूमिकाओं में, टेलीविजन पर भांति-भांति के शो की एंकरिंग करते हुए, ‘कॉमेडी सर्कस’ में स्टैंड अप कॉमेडी करते हुए, थियेटर को समर्पित अतुल कुमार द्वारा निर्देशित शेक्सपियर के हिंदी रूपांतरित प्ले ‘पिया बहरुपिया’ में एग्यूचीक को निभाते हुए... वह लगातार हंसा रहे हैं। असल जिंदगी में भी जब उनसे मिलता हूं तो उनका स्वर, आभा, व्यक्तित्व इलाइची के दानों की गंध से भी हल्का और भीतर समाहित करने लेने वाला होता है। जीवंतता सुलगते लोबान की खूबसूरती लिए सुलगती है। लंबी बातचीत के दौरान बीच-बीच में वह हंसाने की कोशिश करते हैं, हालांकि इससे जवाब कट-कट जाते हैं, पर उनके इरादे नेक होते हैं। कोई बारह-चौदह साल पहले जबलपुर के ओशो आश्रम में उन्होंने सन्यास ले लिया था। वहां उन्होंने ‘मंत्र’ नाम धारण किया। इसीलिए 2000 से शुरू हुए उनके कार्यक्षेत्र में उन्हें मंत्र नाम से ही जाना जाता है। उच्चारण हालांकि मंत्रा हो चुका है। हमें हिंदी नाम को भी पहले अंग्रेजी में लिखकर फिर हिंदी में पढ़ने की कोशिश करने की आदत जो है। मंत्र की मां चंद्रा दासगुप्ता एक अभिनेत्री रहीं। पिता प्रबीर दासगुप्ता कोलकाता में ‘दासगुप्ता पब्लिकेशंस’ चलाते थे। हालांकि मंत्र बातचीत में प्रमुखता से मां के बारे में बात करते हैं। वह खुलकर हर मुद्दे पर बात करते हैं। बहुमुखी प्रतिभा वाले लगते हैं। कहते हैं कि भाषा कोई भी हो बस काम अच्छा होना चाहिए। उन्हें हीरो बनने या मुख्य भूमिका करने की कोई लालसा नहीं है। बोलते हैं, “कैरेक्टर आर्टिस्ट हूं, मुझे हीरो नहीं बनना। मेरे आदर्श शाहरुख नहीं हैं, इरफान खान हैं”। फिलहाल ‘कॉमेडी सर्कस’ के मौजूदा संस्करण में हिस्सा लेते, कुछ टीवी शो की एंकरिंग करते, ‘पिया बहरुपिया’ का मंचन देश के अलग-अलग शहरों में करते हुए... मंत्र अपने तीन नए प्रोडक्शन में व्यस्त हैं। प्रस्तुत है उनसे हुई ये बातचीतः

तो क्लाउन आपका स्कूल ऑफ थियेटर है, कुछ बताइए आपकी इस दुनिया के बारे में।
2008 से ही मैं अतुल कुमार से जुड़ गया था। उनके स्कूल ऑफ थियेटर को पसंद करता हूं। जो इस एक्सट्रीम पर हैं जैसे रजत कपूर, विनय पाठक, रणवीर शौरी। इनका ‘हैमलेट - द क्लाउन प्रिंस’, ये जो थियेटर क्लाउन वाला करते हैं जिसमें शेक्सपीयर की बड़ी से बड़ी ट्रैजेडीज को वो क्लाउन के जरिए पेश करते हैं, ये मेरा स्कूल ऑफ थियेटर था। मैंने ज्यादातर अंग्रेजी थियेटर किया है और अंग्रेजी थियेटर का मार्केट है भी और नहीं भी। इंडिया हैबिटैट सेंटर से लेकर कामानी से लेकर एलटीजी से लेकर चिन्मय मिशन तक.. दिल्ली में कोई ऐसा हॉल नहीं है जो हमने छोड़ा हो। 60-65 प्रतिशत तक मेरे प्ले अंग्रेजी में रहे हैं। इसकी एक अलग ऑडियंस है, जो कमर्शियल थियेटर में नहीं गिनी जाती है, हालांकि मैं हिंदी में पोस्ट ग्रेजुएशन कर चुका हूं। हिंदी मेरी उत्तीर्ण भाषा है, सबसे ज्यादा मैं हिंदी का ही उपयोग करता हूं लेकिन अंग्रेजी पर मेरी पकड़ उतनी ही ज्यादा है और ये जो थोड़ा चेहरा मिला है फिरंगियों माफिक तो इसका भरपूर फायदा डायरेक्टर साहब उठाते हैं।

और नाम आपका मंत्र है...
हां, और नाम मंत्र है तो आदमी कन्फ्यूज हो जाता है कि भइया ये आदमी है क्या, गोरा-चिट्टा लग रहा फिरंगी है, नाम मंत्र है, बोल शुद्ध हिंदी रहा है, आवाज अमरीश पुरी जैसी है, क्या करेगा ये? ...थियेटर करते मुझे 12 साल हो गए। लेकिन ‘पिया बहरुपिया’ मेरा सबसे बड़ा हिंदी प्रोडक्शन रहा है। इसके अलावा मेरे अंग्रेजी प्रोडक्शन बहुत बड़े रहे। अतुल के साथ काम करना मेरे लिए बहुत जरूरी था। वो अगर मुझे प्रोडक्शन में भी ले लेते तो मैं अपने बिजी शेड्यूल में से टाइम निकालकर प्रोडक्शन भी देखता, क्योंकि अतुल के आस-पास बहुत कुछ देखने को मिलता है, समझने को मिलता है। हालांकि उनका डायरेक्शन का स्टाइल बहुत अलग है। वह बेहतर एक्टर हैं, ही इज अ ब्रिलियंट एक्टर ऑन स्टेज। और एक डायरेक्टर के तौर पर वह सब-कुछ एक्टर्स पर छोड़ देते हैं। ‘पिया बहरुपिया’ भी वैसे ही बना। हम पे ही छोड़ दिया और हम पूछते रहे कि सर करें क्या? बोले, कल्ल लो। तो अच्छा कर लेते हैं, तो हमने अपने हिसाब से किया। थोड़ा ये, थोड़ा वो। सब इम्प्रोवाइजेशन था। बाकी मेरा अपना एक अलग स्कूल ऑफ थॉट है, अलग स्कूल ऑफ थियेटर है, वो मैं करूंगा आने वाले टाइम में, मेरे अपने तीन प्ले तैयार हो रहे हैं। उन पर काम कर रहा हूं।

आदमी एक हद के बाद सीख चुका होता है, या सीखता रहता है?
नहीं, नहीं... हमेशा सीखता रहता है। थियेटर में तो हमेशा वही हालत रहती है जो कक्षा में एग्जाम देने वाले बच्चे की होती है। कि क्या होगा? बड़े से बड़ा एक्टर... वहां जाकर जबान फिसल जाए... फंबल कर जाए, कितना भी बड़ा आपका कॉन्फिडेंस क्यों न हो। और मेरे लिए तो हर प्ले के साथ कुछ नया हो जाता है। टीवी का क्या है एक-बार कर दिया तो वही रहता है, 25 साल बाद भी ‘शोले’ में बच्चन साहब को देखेंगे तो उनका हाथ वैसा ही रहेगा लेकिन अगर वो प्ले होता तो अलग हो जाता। बच्चन साहब कुछ और कर रहे होते, शाहरुख कुछ और कर रहे होते।

स्टेज पर उतरने के बाद नर्वस होते हैं स्कूली दिनों के माफिक, लेकिन जब एक बार उतर जाते हैं तो खुलकर खेलते हैं?
अरे, उसके बाद तो... मैं इतना मानता हूं कि एक बार स्टेज पर उतरने के बाद डायरेक्टर मेरा क्या कल्ल लेगा। डायरेक्टर का सबसे बड़ा डर भी रहता है कि ऐसे एक्टरों से पाला न पड़े लेकिन मैं कभी साथी कलाकारों को परेशान करने वाला रिस्क, चेंज या एक्सपेरिमेंट नहीं लेता। ऐसी कोई लाइन नहीं बोल दूंगा कि मेरे सामने जो एक्टर है वो घबरा जाए कि ये क्या बोल गया। लेकिन खेलने का बड़ा मौका मिलता है। थियेटर में मेरे लिए सबसे जरूरी चाह ये है कि मुझे पुराने जमाने वाला ख्याल आ जाता है कि सामने ऑडियंस बैठी हैं और आप उनके सामने पेश कर रहे हो कुछ। ये कहीं हिल के जाएगा नहीं ये आदमी...। टीवी पर वह मुझे रिमोट से बंद करके उठ सकता है, ये (थियेटर ऑडियंस) उठ कर जाएगा नहीं, मैं रोक सकता हूं इसको। मुझे ये सब करने में बड़ा मजा आता है।

लेकिन इतने किस्म की पहचान आपकी हैं, कहीं न कहीं तो दिक्कत होती होगी? कहीं तो सोचते होंगे कि मैं इस आइडेंटिटी का अपने से करीबी ताल्लुक मानता हूं? जैसे अब लग रहा है कि आप थियेटर को सबसे ज्यादा करीब पाते हैं।
नहीं गजेंद्र जी, मैं क्या बताऊं। मैं ये कहता हूं कि मैं एक कलाकार हूं। मुझे मीडियम से इत्ता फर्क नहीं पड़ता। अपने करियर के ज्यादातर वक्त मैं रेडियो पर रहा। 12 साल रेडियो किया। 10 साल थियेटर किया। तकरीबन 6 साल से टेलीविजन कर रहा हूं मैं। फिल्में कर रहा हूं 5-6 सालों से लेकिन मेरे लिए कोई बदलाव नहीं रहा। हां, रेडियो पर मेकअप नहीं लगाना पड़ता था। बस यही फर्क था। रेडियो में चड्डी बनियान पहनकर पहुंच गए, जो भी बोल दिया बोल दिया, लोगों को मजा आता था। आपको वो नहीं करना पड़ता था कि थोड़ी बॉडी बनाएं, थोड़ा फिट रहें, फेशियल कराने जाएं, थोड़ा शेव करें। मैं तो सर एक्टर नहीं होता, मैं कभी दाढ़ी नहीं बनाता। नेचुरल चीजें रोकने में मेरे को बड़ा तकलीफ होती है। मैं दाढ़ी-बाल नहीं काटता, लेकिन अब एक्टर हूं तो करना पड़ता है। कोई मीडियम मेरे लिए खास नहीं है, कोई मीडियम मेरे लिए दूसरे से ज्यादा उत्तीर्ण नहीं है। हां, रेडियो से प्यार करता हूं क्योंकि रेडियो ने बहुत ज्यादा सिखाया है। ये नाटक करना भी एक तरह से रेडियो से ही शुरू हुआ। रेडियो पर प्ले हुआ करते थे, ‘हवामहल’ प्रोग्रैम आता था। स्टूडेंट होते थे हम तब। ‘ऑल इंडिया रेडियो’ में हम लोग साउंड डिपार्टमेंट में हुआ करते थे। आज हमारे पास हजार चीजें हैं। आपको किसी की भी आवाज चाहिए, दुनिया में किसी की आवाज चाहिए, बटन दबाया आ गया। उस टाइम पे मेरे को आज भी याद है हमारे सीनियर थे बोस साहब। वो विनोद के किरदार की आवाज निकालते थे तो... हमारे पास क्यू शीट आती थी लंबी सी, कि मतलब 2 मिनट 35 सेकेंड के बाद चहल-कदमी होगी। वो चहल-कदमी का मेरे पास क्यू आता था तो ईंट लगाते थे और ऐसे रस्सी बांधते थे, वेट करते थे, जैसे ही लाल लाइन वहां पर जली, चहल-कदमी शुरू, खटक-खटक-खटक-खटक... बीच-बीच में गड़गड़ाहट के लिए एल्युमीनियम शीट बजाते थे। वो रेडियो थियेटर ही था एक तरह से। एक तरह से आप बना रहे थे, इट वॉज अ थियेटर ऑफ माइंड। कहते हैं न नेत्रहीन का चलचित्र है रेडियो। जो आप पेंट कर सको एक पिक्चर श्रोता के लिए वही मजेदार बात है।

मगर आपकी ‘कॉमेडी सर्कस’ वाली पहचान भी हावी है, लोग स्टेज पर प्ले के बाद कामेडी करने की रिक्वेस्ट करने लगते हैं।
‘कॉमेडी सर्कस’ चल गया यार। मतलब, आप विश्वास नहीं करेंगे, मैंने ‘कॉमेडी सर्कस’ को पांच सीजन लगातार ना बोला है। क्योंकि मेरा प्रण था कि मैं कभी कोई रिएलिटी शो नहीं करूंगा। ये लोग लगातार मेरे पीछे पड़े रहे जबकि मेरा फिक्स था कि एक्टिंग के लिए फिल्म्स और थियेटर। टेलीविजन, सिर्फ एंकरिंग। बहुत सारे शो मैंने एंकर किए हैं। मैं चैनल वी का वीजे था। बिंदास टीवी पर वीजेइंग करता था। ज्यादातर मैं वीजे ही था, पर ये लोग पीछे पड़े। फिर एक बार तो लिटरली हमारे जो प्रोड्यूसर-डायरेक्टर हैं विपुल शाह और निकुल देसाई, उनने आए और बोला कि (बेहद ड्रमैटिक अंदाज में) “देखो बेटा, छोटी सी इंडस्ट्री है, कहीं न कहीं टकराएंगे, अच्छा नहीं लगेगा ...तब हम ना बोल दें”। मैंने कहा, सर आप धमकी दे रहे हो क्या। “...हां, ...यही समझो”। (हंसते हुए) मजाक कर रहे थे, फिर उन्होंने मुझे समझाया।

जैसे नसीरुद्दीन शाह हैं, शबाना आजमी हैं। बाद के इंटरव्यू में इन्होंने एक तौर पर स्वीकार किया कि “जितनी जान हम थियेटर के प्लेज में लड़ाते थे, बीच में हमारे पास जो ऐसी कमर्शियल फिल्में आईं जो बिल्कुल सिर के ऊपर से निकलने वालीं थीं, उनमें जब हमने काम किया तो उतनी मेहनत नहीं की। हमने सोचा कि जब उतनी ही ऊर्जा की जरूरत है तो ऊपर-ऊपर से ही करके निकल जाते हैं”। आपके परफॉर्मेंस में ‘कॉमेडी सर्कस’ में ऐसा नहीं नजर आता, आप अपने परफॉर्मेंस में अनवरत हैं, वहां स्क्रिप्ट चाहे कितनी भी ढीली हो।
‘कॉमेडी सर्कस’ थियेटर ही है। उसे करने के लिए मेरे पास सबसे बड़ा कारण ही ये है कि वो थियेटर है। वो उसको कैप्चर करके टीवी पर दिखा रहे हैं, उसका मेरे से कोई लेना-देना नहीं है। मैं उस वक्त वहां मौजूद उन चालीस-पचास लोगों और सामने बैठे अर्चना-सोहेल के लिए परफॉर्म कर रहा हूं। आखिरकार वो एक्ट दस-पंद्रह मिनट के प्ले ही तो हैं।

...लेकिन जो स्क्रिप्ट आपको दे रहे हैं, वो आपके पसंद न आए, कभी बचकानी लगे?
उसमें आप कुछ नहीं कर सकते। ‘कॉमेडी सर्कस’ फैक्ट्री है। वहां मशीन से जैसे प्रोडक्ट निकलते हैं वैसे प्रोडक्ट निकलते हैं। शो के राइटर्स सात-सात दिन कमरे से बाहर नहीं निकलते हैं। मैं उनको जानता हूं। मेरे चहेते राइटर हैं वकुंश अरोड़ा, कानपुर का लड़का है। इतना बेहतरीन राइटर है। वो एक ही चीज बोलता है, “यार और कोई टेंशन नहीं है, पर बाहर निकलूं और देखूं, तो कुछ नया लिखूं न”। वो कमरे से बाहर नहीं निकलते। हफ्ते के सातों दिन अंदर ही रहते हैं और मशीन की तरह लिखते हैं। कैसे लिख लेते हैं मेरे को भी नहीं मालूम। और वहीं पर से ये हल्की स्क्रिप्ट आती हैं। ऐसे में आपको जुगाड़ बिठाकर, कुछ नया-पुराना लगाकर एक कलाकारी दिखाकर, अगर वो आठ नंबर की है तो उठाकर नौ पर पहुंचाना पड़ता है। लेकिन आप कुछ नहीं कर सकते क्योंकि ये शो ही ऐसा है। उनको बनाना है। चैनल कितने साल से चला है? पांच साल से चल रहा है..।
Mantra performing in 'Piya Behrupiya.'

फिल्मों में अगर ऐसे रोल आएं तो, या उनमें रुचि नहीं है?
नहीं, किए हैं मैंने पांच-छह रोल। लेकिन फिल्मों की दुनिया ही अलग लगी। एक थियेटर एक्टर के तौर पर मेरे लिए बड़ा मुश्किल काम रहा। क्योंकि आप समझते हैं, थियेटर की जैसे शुरुआत होती है, मसलन, ‘पिया बहरुपिया’। फरवरी (2012) में हमने प्ले बनाना चालू किया। किरदार को डिवेलप किया। लगातार लाए, लाए, लाए और प्ले के महीने भर पहले आप किरदार बन गए। प्ले के दिन तो आप अपने आपको जानते ही नहीं, किरदार को ही जानते हैं। और प्ले शुरू होता है और आखिर तक जाता है, एक ग्राफ रहता है। फिल्मों में जिस दिन आया तो मेरी जान ही निकल गई, पहले दिन ही क्लाइमैक्स शूट। ओपनिंग सीन, आखिरी दिन। मैं बोला ऐसे कैसे होगा, मुश्किल है थोड़ा। तो बोले, “ऐसे ही होगा सर, हमारे पास यही लोकेशन पहले है तो क्लाइमैक्स ही शूट होगा”। मैंने बोला, हीरो-हिरोइन मिले नहीं, रोमैंस हुआ नहीं, तुम पहले शादी का सीक्वेंस शूट कर रहे हो, फिर उनका कॉलेज में मिलना दिखाओगे, फिर कहीं बीच में रोमैंस करोगे। तो फिल्मों के साथ बड़ा मुश्किल है। और एक सीन डिवेलप होता है प्ले में। अगर कोई सीन है, मां मर गई... तो पहले मां मरेगी, फिर बेटे को मालूम पड़ेगा, फिर बेटा रिएक्ट करेगा, फिर वो कुछ करेगा। जबकि फिल्म के अंदर सीधे, मां मर गई... । वो फीलिंग जब तक कि आती है, तब तक तो कट है। मैं ये नहीं कहता कि फिल्म के एक्टर्स कुछ कम हैं। मैं बोलता हूं फिल्म के एक्टर्स को ज्यादा मेहनत करनी पड़ती है, टु बी ऑन द मूमेंट, ऑन द स्पॉट। तुरंत, शिफ्ट। मैंने फिल्म एक्टर्स को देखा है, मैंने थियेटर एक्टर्स को भी देखा है, प्ले से पहले लगे पड़े हैं, लाइनें रट रहे हैं। वहीं फिल्म वाले मजे से सुट्टा मार रहे हैं, आने-जाने वाले को ...और बढिय़ा सब, क्या हाल-चाल... फिर आवाज आई... मां मर गई और वो मां-मां करके रोने लगता है। औचक कट, औचक शिफ्ट।

कोई 30-35 साल पहले जैसे हमारी फिल्मों में चरित्र भूमिकाएं (कैरेक्टर आर्टिस्ट) हुआ करती थीं। जो ‘मिली’ में गोपी काका थे, ‘मदर इंडिया’ में लाला थे, या वही ‘गंगा-जमुना’ में लाला बने थे और पॉजिटिव लाला बने थे, और जो ललिता पंवार के रोल हुआ करते थे, निरुपा रॉय के हुआ करते थे, उनमें एक किस्म से इमोशंस की इंटेंसिटी थी जो बाद में वैसे किरदारों के लिए इतनी क्लीशे बना दी न... कॉमेडी से भी बनी.. कि देखो मां है तो रोती ही रहती है। लेकिन उन अदाकारों की जो एक्टिंग हुआ करती थी, जैसे आप कह रहे हैं न कि चुटकी बजाते बोलोगे और रोने लगेंगे कि मां मर गई.. तो क्या उस मामले में वो दिग्गज नहीं थे। उन्हें आज कितना कम पहचाना जाता है?
अरे, कैरेक्टर आर्टिस्टों के बल पर तो फिल्में चलती हैं और उन्हीं को सबसे कम पहचान मिलती है। आज आप देखिए हीरोज को जरूरत है कैरेक्टर आर्टिस्ट की। अकेले नहीं संभाल पा रहे। कैरेक्टर आर्टिस्ट एक रिएलिटी लाते हैं। एक असलियत लाते हैं फिल्म के अंदर, क्योंकि हीरो तो हीरो ही लगता है।

जैसे ‘रॉकस्टार’ में कैंटीन वाले खटाना (कुमुद) का रोल न होता तो रणबीर के किरदार में भी बात नहीं आती...
कुमुद जी से मेरी बातचीत होते रहती है वक्त-वक्त पे। उनका मैंने लास्ट प्ले देखा ‘इल्हाम’मानव कौल का प्ले था। सर मैं रो दिया। मैं स्टेज पर रो दिया। मैं बैकस्टेज गया उनसे बात करने के लिए मैं बात नहीं कर पाया मैं रो दिया। मैं इतना भावुक हो गया कि मैंने बोला ये आदमी असली रॉकस्टार है। मेरे ख्याल से रणबीर ने बहुत सीखा होगा उनसे। लेकिन कुमुद जी को आप फिल्म में देखिए... और कुमुद जी को आप स्टेज पे देखिए। दोनों में अलग इंसान नजर आएंगे आपको। स्टेज एक अलग दुनिया है सर।
Kumud Mishra (right) in 'Ilhaam'. Photo Courtesy: Kavi Bhansali
मैं अगर एक आम आदमी की तरह समझना चाहूं। कि मुझे कुछ नहीं पता थियेटर के बारे में। मैं अपनी जिंदगी और दो वक्त की रोटी में उलझा रहता हूं, बस मनोरंजन के लिए कभी घुस जाता हूं फिल्मों में। कभी थियेटर का नाम अखबार में पढ़ लेता हूं ... कि ये थियेटर वाले हैं, ऐसा... वैसा। इस बीच आखिर ऐसा क्या है थियेटर में कि लोग इतनी तारीफ करते हैं? थियेटर ही सब-कुछ है, फिल्में उतनी नहीं हैं?
आम आदमी को सबसे ज्यादा मजा थियेटर में इसलिए आता है... दो कारण मानता हूं मैं इसके। एक तो मुझे एंटरटेन किया जा रहा है, ये शाही फीलिंग आती है, ठीक है...। कि मेरे लिए हो रहा है कुछ काम। एक महत्व महसूस होता है। कि ये एक्टर मुझसे बात कर रहा है। फिल्म के अंदर वो स्टार है, वो कैमरे से बात कर रहा है। यहां पर वो मुझसे बात कर रहा है, मेरी आंखों में आंखें डालकर बात कर रहा है। एक वो वाली फीलिंग सबसे ज्यादा जरूरी है। दूसरी सबसे बड़ी बात है, आप टच कर सकते हो थियेटर को। आप छू सकते हो, महसूस कर सकते हो। जबकि फिल्मों के अंदर वो नहीं होता, फिल्मों में अगर हवा चली है तो वहां चली है। थियेटर में अगर मैं बोल रहा हूं कि ये चली हवा, तो सामने वाले को अंदर महसूस होने लगता है। वो जो लाइव सा इसका तत्व है, वो आपको केवल थियेटर में मिल सकता है। अतुल कुमार का मैं उदाहरण देता हूं आपको। हाल ही में वह दक्षिण अफ्रीका में थे। जोहानसबर्ग में प्ले कर रहे थे, ‘नथिंग लाइक लीयर’। किंग लीयर का रूपांतरण। उसके अंदर एक सीन है। जहां पर उसकी जिंदगी में कुछ तूफान आया है और वो तूफान से कहता है, अंग्रेजी में डायलॉग है कि जिसका मतलब है कि “मेरी जिंदगी में तू जब से आया है, मेरी जिंदगी में खलबली मचा दी है। ए तूफान तू कब तक चलेगा”। जिस वक्त वो ये डायलॉग बोल रहे थे, जोहानसबर्ग में, स्टेज के ऊपर बने कांच के गुंबद के ऊपर ओले गिरने लगे। और यहां पर उन्होंने कहा कि “ऐ तूफान ..” तो वहां घड़ घड़ घड़.. मतलब असली। अतुल बोले, “मेरे तो रौंगटे खड़े हो गए और ऑडियंस में दो-तीन की फ* गई”। बोले, “ये क्या हो गया”। लाइव फील... वहां पर हो गया तो हो गया। आपके डायलॉग बोलते-बोलते, आप बारिश की बात कर रहे हो बारिश हो गई, तूफान की बात कर रहे हो तूफान हो गया, फिल्म में नहीं हो सकता। फिल्म में क्रिएट किया जाता है, लेकिन वो माहौल जो लाइव होता है। आपको मजा आने लग जाता है कि यार केवल एक्टर और थियेटर ही नहीं, पांचों तत्व जो हैं वो उस वक्त एकजुट हो गए हैं। तो हवा मेरी बात सुन रही है, पानी मेरी बात सुन रहा है, ये फीलिंग आती है।

थियेटर के इतिहास में चाहे भारत में ले लीजिए, क्षेत्रीय या अंतरराष्ट्रीय... ऐसे कौन से तानसेन या बैजू बावरा हैं जो दीया जला देते हैं गाके, या दिया बुझा देते हैं?
मैं गिरीष कर्नाड साहब का बहुत बड़ा फैन हूं। उनके लेखन का बहुत कायल हूं। भले ही वो ‘अग्निबरखा’ हो जिसमें मैंने किरदार निभाया था ब्रह्मराक्षस का, उसका किरदार फिल्म में प्रभुदेवा जी ने निभाया था। और प्रभुदेवा जी को लोग याद रखते हैं क्योंकि उन्होंने ब्रह्मराक्षस का किरदार निभाया था। सब ने अपने अलग-अलग किस्म के ब्रह्मराक्षस बनाए हैं। या गिरीष कर्नाड साहब का ‘तुग़लक’। मैं तो मोहम्मद-बिन-तुग़लक को वैसे ही याद करता हूं जैसे कर्नाड साहब ने दिखाया है। मैंने इतिहास नहीं पढ़ा, मैंने कर्नाड साहब को पढ़ा। वहां से मुझे बहुत कुछ उठाने को मिला, सीखने को मिला क्योंकि वो मेरी जेनरेशन के नहीं हैं पर कम से कम उन्हें ही मैं देख सकता हूं, मैंने तानसेन को तो देखा नहीं, जहां तक नाटक का सवाल है। उसके बाद अगर आप संगीत पर आ जाएं, लाइव परफॉर्मेंस में जो जादू क्रिएट करते हैं, वो अपने आप में फिर बेताज बादशाह हैं आरिफ लोहार साहब पाकिस्तान के। उनका एक लाइव परफॉर्मेंस देख लिया मैंने.. (सरप्राइज होते हुए) कौन है वो आदमी.. कहां से आया है? उनके जो वालिद साहब हैं आलम लोहार वो अपने आप में संगीत के सम्राट हुआ करते थे। संगीत थियेटर का अंतनिर्हित अंग है। मैं आजकल हर चीज को संगीत के साथ जोड़कर देखता हूं। कि कहीं न कहीं इन दोनों का कॉम्बिनेशन मिल जाए थियेटर और म्यूजिक का, तो असली जादू पैदा होता है।

और कौन हैं जिनकी परफॉर्मेंस नहीं देखी तो क्या देखा?
दिनेश ठाकुर साहब, दुर्भाग्य से अब वह नहीं हैं। मुझे याद है, मैं 2006 में रेडियो कर रहा था और कर-कर के गला बंद हो गया और ऐसा बंद हुआ कि आवाज की सिसकी तक बंद हो गई। मैंने महीने भर की छुट्टियां ले ली थीं। करने को कुछ था नहीं तो उस वक्त तकरीबन एक हफ्ते तक मैंने दिनेश ठाकुर साहब का पूरा फेस्टिवल देखा और उनके अलग-अलग नाटक देखे। सिंपल। कोई ताम-झाम नहीं। कि कहीं से लाइट आ रही है, कि कहीं से म्यूजिक आ रहा है, कि कहीं से कुछ विजुअल डिलाइट आ रहा है। कुछ नहीं, बस स्टोरीटेलिंग। साधारण स्टोरीटेलिंग। उनको देख बड़ा मजा आया। एक रियल एलिमेंट। ये दिनेश ठाकुर, कुमुद मिश्रा आम इंसान दिखते हैं। स्टार्स नहीं दिखते हैं। मैं एक तरीके से कभी-कभी खुश होता हूं कि यार ऊपर वाले ने सूरत दी है, फिर मैं ये सोचता हूं कि इस सूरत के साथ एक आम इंसान का किरदार निभाना मेरे लिए बहुत मुश्किल है। जबकि कुमुद जी के लिए या दिनेश जी के लिए ये बाएं हाथ का खेल था। क्योंकि कहते हैं न, इफ यू लुक द कैरेक्टर, हाफ द वर्क इज डन। नाना पाटेकर को देखा, मराठी प्ले करते हुए। अरे, उस आदमी के तो मैं पैर धो-धो के पिऊं। ‘सखाराम बाइंडर’ देखा मैंने उनका। बाप रे, मतलब, मुझे नहीं लगता कि सखाराम उनसे बेहतर कोई कर सकता है। ‘सखाराम...’ सयाजी शिंदे ने किया, वो भी थियेटर किया करते थे, मतलब ये लोग रियल लगते हैं। मैं ‘सखाराम बाइंडर’ करूंगा तो मेरे को किसी अलग तरीके से सखाराम को पेश करना पड़ेगा। मैं नहीं लगता वो बीड़ी फूंकने वाला। अगर मुझे वीजे का रोल मिलेगा तो बड़ा आसानी से कर लूंगा। लेकिन वहीं पर तो एक कलाकार, वहीं पर तो एक अभिनेता का काम शुरू होता है। मुझे ऐसे किरदार मिलें इसका मैं इतंजार कर रहा हूं। भले ही वो फिल्मों में हों, भले ही वो थियेटर में हों।

कुछ शानदार रोल वाली फिल्में करने की इच्छा नहीं है?
उस किस्म के किरदारों के लिए बेसब्री से इंतजार कर रहा हूं। अभी तक जो भी फिल्में करी थीं अधिकतर में मेरा सहयोगी किरदार था, हीरो के बेस्ट फ्रेंड वाला रोल था, अब वही रोल आ रहे हैं। क्योंकि फिल्में बड़ी सीमित हैं। कि जो चलता है वही चलने दो। कोई भी एक्सपेरिमेंट करने को तैयार नहीं हैं। इसीलिए खान साहब चलते हैं और चलते ही हैं। और सही बात है। बॉलीवुड जो है क्रिएटिव आर्ट को दिखाने से ज्यादा बिजनेस मीडियम है। आज आप सलमान खान साहब की ‘एक था टाइगर’ को लेकर 400 करोड़ कमा सकते हैं, वहीं सलमान खान अगर मंत्र को ले लेते तो 4000 रुपये नहीं कमा पाते, या चार लाख नहीं कमा पाते। क्योंकि स्टोरी ऐसी कोई खास नहीं थी। वो सलमान खान थे इसलिए चली। लेकिन फिल्म इंडस्ट्री कला को पलट के नहीं देगी केवल बिजनेस करेगी तो कब तक चलेगा ये। इसी लिए जो ये डायरेक्टर्स की नई खेंप है... ये कुछ नया करने की कोशिश कर रहे हैं। लेकिन ये भी अब उसी सेक्टर का हिस्सा बन गए हैं। सब आते हैं, एक ऑफ बीट फिल्म बनाते हैं और उसके बाद इंतजार करते हैं कि एक बड़ा डायरेक्टर उन्हें मिल जाए क्योंकि सबको रोटी कमानी है।

जो आते हैं वो पहले सिस्टम और स्टार्स के खिलाफ खरी-खोटी सुनाते हैं, पर उन्हीं के साथ फिल्में डिस्कस करने लगते हैं, पूछने पर कहते हैं कि यार क्या करें उनके साथ भी काम करना पड़ेगा।
सबको कमर्शियल हिट चाहिए। बहुत कम ऐसे... अतुल कुमार की बात करता हूं। इस मामले में मैंने उनके जैसा आदमी मंच पर नहीं देखा। उन्होंने ‘तक्षक’ फिल्म में काम किया था। उन्हीं के साथी हैं रजत कपूर, विनय पाठक, रणवीर शौरी, कोंकणा सेन शर्मा। आज आप उन सबको देखते हैं, वक्त निकाल कर ... वो करते हैं। अतुल कुमार ने जीवन रंगमंच को समर्पित किया है। इस बात पर मैं उनकी बहुत इज्जत करता हूं। इसलिए जब मुझे उन्हें बोलना होता है कि दो नई फिल्में मेरे को मिली हैं तो मैं गर्व के साथ नहीं जाता हूं उनके पास, शर्म के साथ जाता हूं, सिर झुकाकर जाता हूं कि सर... फिल्में... मिली हैं... करता .... हूं मैं... जाके। वो भी कहते हैं, ...ठीक है बेटा, करो। करो सबका अपना-अपना है। न कि ये कि क्या बात कर रहा है दो नई फिल्में मिली हैं, वाह। तो बहुत कम हैं जो थियेटर को समर्पित हैं। इसलिए मैं परेश रावल साहब को बहुत मानता हूं। जैसे उनकी ‘ओ माई गॉड’ आई है वो उन्हीं का प्ले है ‘किशन वर्सेज कन्हैया’, उसी पर बनी है। परेश रावल या नसीरुद्दीन शाह ऐसे हैं जिन्होंने बैलेंस बनाकर रखा है। ये मेरे आदर्श हैं। मैं ऐसा बैलेंस बनाकर रखना चाहता हूं जहां पर मैं थियेटर, फिल्म या टेलीविजन, सब में समान रूप से मिल-बांटकर काम कर सकूं और वो बड़ा मुश्किल है। क्योंकि टाइम नहीं निकलता है। प्ले के लिए अपने शूट छोड़कर जाता हूं। वहां प्ले की फीस जितनी मिलती है उससे दोगुना तो मैं अपने खाने-पीने पर खर्च कर देता हूं। थियेटर पैसे के लिए नहीं किया जा सकता। अगर पैसों के लिए आप थियेटर कर रहे हो तो आप जी नहीं पाओगे। और पैसों के लिए नहीं कर रहे हो तो कहां से लाओगे पैसा। कहीं न कहीं से तो आएगा, आज मैं थियेटर में पैसा लगाता हूं, खुद का प्रोडक्शन चालू करने वाला हूं, कहां से लाऊंगा प्रोडक्शन करने का पैसा। वो मैं दूसरे क्षेत्रों से लाता हूं लेकिन उसका मतलब ये नहीं है कि उनकी इज्जत कम है। टेलीविजन ने तो बहुत कुछ दिया है, उसकी वजह से आज लोग जानते हैं पहचानते हैं और शायद वो देखकर मेरा प्ले देखने आते हैं।

लेकिन अतुल और सत्यदेव दुबे जैसे व्यक्तित्व थियेटर के गलियारों तक ही सिमट कर रह जाते हैं।
चलेगा न सर। हमारे लिए अतुल कुमार अमिताभ बच्चन से बड़ा है। सत्यदेव जी का जब निधन हुआ तो जो एक रैली निकली थी पृथ्वी (पृथ्वी थियेटर, मुंबई) से वो देखने लायक थी, जब मैंने देखी तो मैं मान गया कि सत्यदेव जी अमर हो गए। जरूरी नहीं कि अख़बार में उनके बारे में छपे, कि लोग उनके बारे में बात करें या न करें। जिनको जानना था वो उनके कायल थे, उनका (सत्यदेव दुबे) काम हो गया। उन्हें हमेशा याद रखा जाएगा। थियेटर का समुदाय भी बहुत बड़ा समुदाय है। ऐसा नहीं है कि कम लोग हैं। लेकिन बात ये है कि हर थियेटर एक्टर फिल्म अभिनेता नहीं बनना चाहता। ...ये जानकर मेरे को खुशी होती है। कि केवल थियेटर को सीढ़ी बनाकर नहीं चल रहे फिल्मों में जाने के लिए, वो अपने आप में एक जरिया है, अपने आप में एक मीडियम है।

हर फील्ड में जो एक अंदरूनी आलोचना चलती रहती है ...कम्युनिटी के भीतर कि हम लोग क्या कर रहे हैं, क्यों कर रहे हैं, वो बंदा गलत कर रहा है, ये सही कर रहा है, उसने एक्सपेरिमेंट ज्यादा कर दिया ये नहीं करना चाहिए था, वहां सीमा पार कर दी। पत्रकारिता में जैसे होता है कि हम बहुत से एंकर्स की आलोचना करते हैं कि वो किस तरीके से बात कर रहे हैं, जिसका मजाक सीरियल्स या फिल्मों में उड़ता भी है जो जायज है। तो थियेटर में अभी कौन सी आलोचना है जो चल रही है?
... कि क्या आप ब्रॉडवे या वेस्टर्न थियेटर को टक्कर दे सकते हैं? या क्या वो टक्कर देने लायक हैं? या उनकी दुनिया अलग है, हमारी दुनिया अलग है? मैं लंदन में थियेटर पढ़ा हूं, वहां पर गया, मैं वहां के म्यूजिकल्स का हिस्सा बना। इतने भव्य प्रोडक्शंस कि उत्ते मैं तो फिल्म बन जाए। हवा में उड़ रहा है आदमी, आप केबल ढूंढ नहीं सकते कि काहे में उड़ रहा है। हमारे यहां दिल्ली में वो... ‘किंगडम ऑफ ड्रीम्स’ या ‘जिंगारो’। उन्होंने भरपूर कोशिश की वहां पर पहुंचने की। बहुत पैसे लगाए ...क्या हुआ? वो एक जगह रुके हुए हैं। क्योंकि वो अपना थियेटर बदल नहीं सकते हैं। वो कमानी में आकर शो नहीं कर पाएंगे। क्यों? क्योंकि उनका सीमित है। वहीं पर चार केबल उन्होंने लगा रखी हैं, उसी से उनको उडऩा है। तो सबसे बड़ी आलोचना ये भी है कि कहीं ये तामझाम या विजुअल डिलाइट, इस शब्द को मैं बार-बार कह रहा हूं, दिखाने के चक्कर में प्ले की आत्मा को तो नहीं खो रहे? या आत्मा दिखाने के चक्कर में आप सामने वाले को बोर तो नहीं कर रहे? कि ये फ्लड लाइट लगा ली और उसी में पूरा प्ले निपटा दिया। ऐसा भी नहीं हो सकता। ऑडियंस वहां पर आई है और अपना कीमती समय आपको दे रही है। उसे मनोरंजन दो। भले ही वह किसी भी जॉनर का प्ले हो, उसको एंटरटेनमेंट दो। ये जो दुविधा है कि थियेटर में ये करना चाहिए या नहीं? क्या केवल एक कहानीकार से काम चल जाएगा या उसके साथ उसको एक आइटम डांस डालना जरूरी है? थियेटर में भी वही हो रहा है, आइटम क्या है प्ले का? मतलब रंग, विजुअल डिलाइट, गाना-बजाना... क्या इनकी इतनी ज्यादा जरूरत है? या जैसे पुराने जमाने के सादे नाटक हुआ करते थे। कि मैं आऊंगा, कहानी सुनाऊंगा, ये मां है ये बेटा है, दोनों की बातचीत... बस। लेकिन अब उसे नए तरीके से दर्शाया जाता है। पहले बालक का रोल, फिर वो बड़ा हुआ थोड़ा, फिर और बड़ा हुआ, फिर पूरा बड़ा हुआ तो इस तरह चार एक्टर हो गए एक ही किरदार को निभाते हुए... सबका अपना-अपना क्रिएटिव तरीका है उसे दर्शाने का।

पीयूष मिश्रा जब थे ‘एक्ट-वन’ में दिल्ली में तो उनके दीवाने बहुत थे और जैसे सुपरस्टार्स के फैन होते हैं, वैसे उनके हुआ करते थे। उस समय उनकी जो एक बाग़ी विचारधारा थी, वो तेजाब फैंकते थे जब बोलते थे... लोग जल जाते थे। लेकिन पिछले दिनों जब उनसे मुलाकात हुई तो पूरी बातचीत में ये लगातार आता रहा कि यार अब छोड़ो। तो ऐसे लोग जो इतना असर अपने कहने-करने में रखते हैं और बॉलीवुड में यूं पूरी तरह चले जाते हैं और विज्ञापन और फिल्म करने के बाद उनके सार्वजनिक बोल-चाल में सपोर्ट की बजाय थियेटर वालों के लिए एक चुनौती आ जाती है... तो लोग कहते हैं अब आपके पास क्या जवाब है आपका सबसे खास बंदा तो ये कह रहा है? उसके जवाब में आप क्या कहेंगे? या वो थियेटर और फिल्मों में एक बैलेंस बनाकर चल रहे हैं? या ठीक है फर्क नहीं पड़ता? या उनको हक़ है कि वो इतनी कमाई करें... या ये कि अभी वो अपना नया मत ठीक से बना नहीं पाए हैं, बना रहे हैं? जैसे वो बड़ा मजबूती से कहते हैं कि यार ठीक है छोड़ो, सबको पैसा कमाना है। ‘बॉडीगार्ड’ हिट है तो हिट है, तुम कौन होते हो खारिज करने वाले...
पीयूष मिश्रा जी जैसे जो हैं, इन्होंने इतना काम कर दिया है कि अब उनको उस मामले में टोका नहीं जा सकता। वो जितना थियेटर को दे सकते थे उन्होंने दिया है और अभी भी कोशिश कर रहे हैं देने की। और हम कोई नहीं होते कि उन्हें कहें कि आप ऐसा न करें। जैसे सचिन तेंडूलकर को कब रिटायर होना चाहिए, ये उस इंसान पर ही निर्भर करता है जिसने इतना कुछ कर दिया है। हां, मैं रोहित शर्मा के लिए बोल सकता हूं, क्योंकि रोहित शर्मा को खुद को प्रूव करना बाकी है। एक वक्त के बाद उन्हें (पीयूष) एक्सपेरिमेंट करने का पूरा-पूरा हक़ है। आज अगर पीयूष मिश्रा जी प्ले करने आएंगे तो वो आदमी जिसने उन्हें फिल्मों से या किसी और माध्यम से जाना है वो दूसरे को भी कहेगा कि अरे यार उनका ये प्ले देखने चलते हैं इनको अपन ने उसमें देखा था न। वो बड़ा मजेदार होता है। शाहरुख खान ने भी अपने करियर की शुरुआत थियेटर से की। उन्होंने भी काफी थियेटर किया। जरा सोचिए, अगर शाहरुख खान कल को एक प्ले करता है, थियेटर को कितना बड़ा बूस्ट मिलेगा। इसलिए नहीं कि उन्हें ऐसा करने की जरूरत है, इसलिए नहीं कि हमें उनकी जरूरत है लेकिन उनका भी एक हक बनता है। ये उनका कर्तव्य और दायित्व है दरअसल। उनको वक्त निकाल कर एकाध प्ले कर देना चाहिए। फिर मैं विदेश का उदाहरण दूंगा आपको। वहां सौ-सौ पाउंड की टिकट है। सौ पाउंट कित्ते हो गए... आठ हजार.. आठ हजार की टिकट है। क्यों? क्योंकि वो प्ले में लीड एक्टर वो है... क्या नाम है उसका हैरी पॉटर... डेनियल रेडक्लिफ और सुनने में आया है प्ले में वो पूरा न्यूड सीन दे रहा है। लोग सोचते हैं अरे क्या बात है, न्यूड सीन... प्ले देखें तो सही क्या कर रहा है..। बहुत बड़े-बड़े एक्टर्स हैं हॉलीवुड के, जो अपना वक्त निकालकर थियेटर करते हैं, न केवल थियेटर को कुछ देने के लिए बल्कि थियेटर से बहुत कुछ लेने के लिए। तो ये दूरी कम होनी बहुत जरूरी है। थियेटर वालों को फिल्मों में जाने की जरूरत है, फिल्म वालों को थियेटर में जरूरत है। बहुत कुछ एक-दूसरे से सीखने को मिलेगा।

‘कॉमेडी सर्कस’ का कुल-मिलाकर अनुभव कैसा रहा? वो जो एक अनवरत मजाक जज लोगों की और एक-दो जोड़ियों की होती है वहां। जिन्हें सबसे ज्यादा पसंद किया जाता है जैसे कृष्णा-सुदेश हो गए या कपिल हो गए, उनकी स्क्रिप्ट में कुछ लोगों का मजाक एक बार नहीं बार-बार लिखा जाता है। राजीव ठाकुर हुए और दूसरे भी हैं... तो वो शर्मसार करने वाला वाकई में होता है उनके लिए जिनका मजाक उड़ता है?
अरे होता है। राजीव ठाकुर बता रहा था। ठाकुर साहब फ्लाइट में बैठे हैं और पीछे से बीच सीटों के आवाज आई, “ठाकुर बोहत आठ-आठ ले रहे हो”। तो वो शर्म से पानी-पानी हो गए। क्योंकि इस मामले में ‘कॉमेडी सर्कस’ में हम बड़े मजे लेते हैं ठाकुर साहब के। हमारे भी लिए जाने लगे, सस्ता डेली बोला जाने लगा। अब उसका कितना अपने ऊपर ले रहे हैं ये आप पर है। जैसे ‘गुरु’ में अभिषेक बोलता है न कि “लोग बात कर रहे हैं तो अच्छा ही है”। ‘कॉमेडी सर्कस’ के अंदर वैरी फ्रैंकली, ये आपस में ही मजे ले रहे हैं और जनता को मजा इसीलिए आ रहा है कि ये हंसते-खेलते लोग हैं, एक-दूसरे की खिंचाई कर रहे हैं। जिस दिन सीरियस हो गए न उस दिन इनका भी वही हाल हो जाएगा जो बाकियों का हुआ है। ये मस्तमौला लोग हैं, इसमें काम करने वाले 80 प्रतिशत पंजाबी हैं और काम करवाने वाले बाकी 20 पर्सेंट गुजराती हैं। तो इन्हीं दोनों ने दुनिया चला रखी है। तो एक-दूसरे का मजाक उड़ाना या बॉलीवुड के बड़े लोगों का मजाक उड़ाना इसकी हिम्मत सिर्फ ‘कॉमेडी सर्कस’ ही कर सकता है, ये जोक कोई और करे तो उस पर पुलिस केस हो जाएगा। कभी-कभी जोक हद पार कर जाते हैं, वल्गैरिटी की सीमा पार कर जाते हैं। उस समय पर हमारी भी भौंहे चढ़ जाती हैं कि यार, क्या हम सही कर रहे हैं? तो हम भी अपनी तरफ से बोल देते हैं कि भई ये नहीं बोलेंगे हम। लेकिन वो कॉमेडी का जॉनर ही वही सर। आप वेस्टर्न कॉमेडी भी देखें, स्टैंड अप कॉमेडी, दो ही चीज है से-क्-स और ड्रग।

लेकिन आपको नहीं लगता कि इस समय जितनी भी फिल्में बन रही हैं, जैसे ‘क्या सुपरकूल हैं हम’ नहीं बन सकती थी इस टाइम के अलावा कभी। हालांकि ‘क्या सुपरकूल...’ को मैं बहुत खराब फिल्म मानता हूं, बेहद गैर-जरूरी फिल्म मानता हूं... लेकिन जो ये कोशिश हो रही है कि ‘कॉमेडी सर्कस’ में एडल्ट बातें जितनी होती हैं... है न... डाल दिया निकाल लिया... तो इसकी एक वजह ये नहीं है कि भारत में ज्यादातर अभी व्यस्क हैं। गर्लफ्रेंड-बॉयफ्रेंड वाली उम्र के ज्यादा हैं, नए-नवैले शादीशुदा हैं?
हां, और वैरी फ्रैंकली, आज का यूथ जो भाषा बोल रहा है, उस जेनरेशन को अभी-अभी पार किया है मैंने। मैंने 15-16 साल की उम्र में वो सब चीजें नहीं बोली थीं... लेकिन आज न केवल टेलीविजन के जरिए, फिल्मों के जरिए ये डायलॉग अब बहुत आम हो गए हैं। और बच्चे-बच्चे की जबां पर गाली है, बच्चे-बच्चे की जबां पर नंगाई है। वह केवल टेलीविजन तक सीमित नहीं है। सबसे बड़ा अगर कोई जरिया है तो वो है इंटरनेट। वो दिन दूर नहीं जब इंटरनेट सब चीजों को खा जाएगा। टीवी, फिल्म, रेडियो सब निगल लेगा वो... दुनिया केवल इंटरनेट से चलेगी, शादियां इंटरनेट पे हो जाएंगी, बच्चे इंटरनेट पे पैदा हो जाएंगे और वो कोई नहीं रोक सकता। एक वक्त में मुझे कोई जानकारी चाहिए होती थी तो फलानी लाइब्रेरी में जाके फलाने कोने से फलानी किताब निकालनी होती थी। आज मैं गूगल टाइप करता हूं सब मालूम चल जाता है यार, दो सेकेंड के अंदर-अंदर। तो एक्सेसेबिलिटी बहुत ज्यादा बढ़ गई है। उसी का नतीजा है कि आप क्या सुपरकूल हैं हम या कॉमेडी सर्कस या इस किस्म के काम देखते हैं।

हेल्दी सब्जेक्ट पर ‘विकी डोनर’ भी आती है। स्पर्म डोनेशन पर बहुत ही सकारात्मक तरीके से सोचते हैं। इससे करीने से बनी आ भी नहीं सकती थी।
अच्छे तरीके से दिखाया गया। वही चीज अगर अश्लील तरीके से दिखाते तो फिल्म बिगड़ जाती। आपको हर दौर में एक गांधी और एक हिटलर मिलेगा ही मिलेगा। इस दौर में भी वैसे ही हैं। अभी भी अपने आपको साध कर काम कर रहे हैं सब। नहीं भई, हम साफ-सुथरा काम ही करेंगे। कुछ हैं जो वक्त के साथ चल रहे हैं और वक्त इस वक्त का ये है कि उल्टा-सीधा एक समान।

आपका और ‘कॉमेडी सर्कस’ के बाकी लोगों का इस पर कोई मत नहीं होता... जो प्रोसेस उन्होंने एक शुरू किया है या बाकी जगह भी चल चुका है? ऐसा प्रोसेस जिसे रोका या पलटा नहीं जा सकता। जैसे आप कह रहे हैं इंटरनेट कब्जा कर लेगा, तो उससे पहले के जिस एक टाइम फ्रेम में हम हैं कि कौन क्या कर रहा है और कितना जिम्मेदार है, तो उस पर कोई ओपिनियन है कि यार सब ऐसा ही हो गया है हम क्या करें?
नहीं, नहीं। बिल्कुल नहीं। मेरा पूरा मानना है कि एक-एक चीज जो हमारे आस-पास है वो हमारी ही बनाई गई है। ऐसा तो है नहीं कि एक दिन अचानक से आकर अश्लीलता ने हमें टेकओवर कर लिया। हमारे ही द्वारा बनाई गई चीज है। और कितना ज्यादा इंसान ईज़ी हो गया है, चीजों को अपनाने लग गया है। एक टाइम था, बाहरवाली औरत बहुत बड़ा हौव्वा था और घरवाली-बाहरवाली एक कॉमन फैक्टर हो गया है। वैसे ही कॉमेडी में चार्ली चैपलिन का केले के छिलके पर फिसलकर गिरना ह्यूमर था। आज होता है तो... अरे यार बहुत पुराना कर रहा है यार। आज तो तंबू और बंबू है। आज जब तक कोई जाकर गर्म तवे पर बैठ नहीं जाता, ऐसे टेढ़े-मेढ़े चलता नहीं है तब तक हंसी नहीं आती है। तो वक्त बदल रहा है और वक्त के साथ बहुत सारी चीजें बदलती हैं। और बदलाव तो प्रकृति का नियम है उसे अपनाना भी चाहिए। लेकिन वही है बैलेंस... कितना बैलेंस आप बनाकर चल सकते हो।

‘कॉमेडी सर्कस’ पर आपने जितने भी एक्ट किए हैं, उस दौरान मैंने देखा है... कि कृष्णा-सुदेश के हिस्से कुछ गैग आएं हैं तो वो थप्पड़ मार लेंगे या सूदिया बोल देंगे या फिर मां का साकीनाका। कपिल हैं तो वो उस लड़की को गले लगाते रहेंगे या उसे कोस देंगे.. या उनके भी फिक्स गैग्स हैं कि लोग हंस पड़ेंगे। आपके अपने जोड़ीदारों के साथ कोई तय मुहावरे या गैग नहीं हैं, आप व्यस्क बातें भी नहीं करते। ऐसे में ये ज्यादा चुनौती भरा हो जाता है?
मेरे लिए तो ‘कॉमेडी सर्कस’ एक जरिया है भड़ास निकालने का। मुझे वो किरदार जो कहीं और जाकर करने को मिलेंगे नहीं, मैं वहां पर जाकर कर देता हूं। और चूंकि मैं थियेटर से जुड़ा हूं मुझे एक चीज पता है कि प्ले जब खत्म हो तो सामने वाला अपने साथ कुछ लेकर जाए। मनोरंजन तो मिले ही मिले, साथ में कुछ ख़्याल लेकर जाए, सोचना लेकर जाए। तो मेरे 60-70 फीसदी एक्ट व्यंग्यात्मक होते हैं। उनमें सामाजिक या किसी न किसी दृष्टिकोण से मैसेज देने की कोशिश करता ही करता हूं। जैसे, हमारा एक अच्छाई-बुराई वाला एक्ट था, वो ऐतिहासिक एक्ट हो गया, अर्चना पूरण सिंह रो दी उसमें। उनने बोला कि मैंने आज तक पांच साल के करियर में ऐसा एक्ट देखा नहीं। क्यों? क्योंकि कॉमेडी थी और साथ में संदेश भी था। पूरी तरह सेंसफुल था और पूरा पैकेज था। हमारी कोशिश रहती है कि ज्यादातर चीजें वैसी बन पाएं। मैं रेडियो में था, रेड एफएम पर, जहां पर टैगलाइन थी ‘बजाते रहो’, लोगों को बड़ा लगता था, बजाते रहो, मतलब लोगों की बड़ी बजा रहे हैं यार। मेरा मंत्र था कि बजाने वाले को मजा आना चाहिए और बजवाने वाले को मजा आना चाहिए। उसको भी मजा आना चाहिए कि अरे यार अच्छी बात बोली इसने मेरे बारे में, मैं इस चीज का ख्याल रखूंगा अगली बार। नहीं तो आप.. अरे यार तुम तो क्या...। तो वो भी एक तरीका है क्योंकि आपके पास ताकत है माइक्रोफोन की। लेकिन अपनी जिम्मेदारी समझेंगे तो आप उसी चीज को कपड़े में लपेटकर रखेंगे और ऐसे इस्तेमाल करेंगे कि सामने वाले के काम आए।

फैमिली में कौन हैं? कैसा सपोर्ट है?
मेरा खानदान कलकत्ता से है। पूरे खानदान में किसी ने दूर-दूर तक कभी टेलीविजन पर, फिल्मों में या थियेटर में काम नहीं किया। वो संगीत से जुड़े हुए हैं। क्योंकि हर बंगाली घर में आपको रविंद्र नाथ टैगोर की तस्वीरें, किताबें और रबींद्र संगीत मिलेगा ही मिलेगा। हमारे वहां भी है। वो खुश होते हैं। मैं कभी-कभी जाता हूं। पहली बार गया। अपने भाई-बहनों से मिला, कजिन हैं सब। मैंने देखा मेरे खानदान में कोई डबल इंजीनियर, कोई साइंटिस्ट, एक एनवायर्नमेंटलिस्ट, एक जियोलॉजिस्ट, एक डॉक्टर... तो उनने मेरी तरफ पलटकर देखा कि “आप..?” मैं बोला कि मैं... एंटरटेनर हूं मैं। बोले, “हां वो सब तो ठीक है, पर काम क्या करते हो”। खैर, तो उनको क्या समझाऊंगा मैं। वो मेरा खानदान थोड़ा अलग है और उनके साथ मैं कभी रहा नहीं हूं। मेरी पैदाइश इंदौर, मध्य प्रदेश की रही है। बचपन से वही मेरी फैमिली हैं। और माताजी अब मेरी पुत्री जैसी बन गई हैं। जैसे-जैसे वक्त बीतता जा रहा है उनकी उम्र कम ही होती जा रही है। मेरी मां को मजा आता है कि मेरा बेटा टीवी पर आ रहा है। वो कभी मेरे को ये नहीं बोलती कि ये करो, वो करो।

शादी, बच्चे?
नहीं सर मैं बैरागी। मैंने अभी तक अपने आप को बचाए रखा है। और अब पूरी कोशिश रहेगी की ऐसा ही रहूं। हम में इतना प्रेम है कि उसमें एक इंसान समा नहीं पाएगा। तो किसी एक की जिंदगी बर्बाद करने से अच्छा है सबकी जिंदगी आबाद की जाए। मेरा स्कूल ऑफ थॉट आप आध्यात्मिक भी कह सकते हैं और एक तरह से सन्यास आश्रम में पला हूं। मैं कहीं सेटल नहीं हो सकता। कोई एक जगह मेरी फाइनल जगह नहीं है। मेरे लिए यात्रा मायने रखती है, डेस्टिनेशन नहीं। तो किसी एक को मैं डेस्टिनेशन नहीं बना सकता। 

कौन-कौन से दोस्त हैं जो आज फिल्मों में चल गए हैं और खुशी होती है?
खुराना (आयुष्मान) का बड़ा अच्छा लगता है मेरे को। मेरा रेडियो का एक साथी था होज़ेक जो आज एमटीवी पर बड़ा फेमस वीजे बन गया है। और ज्यादातर मेरे साथ थे वो पीछे ही रह गए यार। चंदन राय सान्याल बेहतरीन है। थियेटर में साथ थे। ‘कमीने’ में थे। रणवीर शौरी और विनय पाठक मेरे सीनियर हैं। यही बेल्ट है।

आपमें बड़ी एनर्जी है, ऐसा क्या है कि रोज सुबह उठकर आप इतने उत्साहित पूरे दिन रहते हैं?
जीने की इच्छा है। केवल एक ही सीक्रेट है मेरा। थैंकफुलनेस। शुक्रिया। भगवान का नहीं। मैं नास्तिक नहीं हूं, पर प्रकृति का शुक्रिया जिसने मुझे इतना कुछ दिया। इसने इतनी पत्तियां दी, इतनी हरियाली दी है, आप इतने अच्छे महाशय मेरे सामने बैठकर मुझसे बात कर रहे हैं, मेरे पास फोन है जिससे मैं बात कर सकता हूं, सिगरेट रखी है मेरे पास में, चड्डा मिल गया है पहनने को, हवा लग रही है। छोटी-छोटी चीजों में मेरे को खुशी मिल जाती है। जितना मैं शुक्रिया अदा करता हूं, थैंकफुल रहता हूं उतनी ही एनर्जी मुझमें बढ़ जाती है। जीने की इच्छा रहती है। नहीं तो इंसान जीने की इच्छा छोड़ दे तो अरबों-खरबों पास हों क्या कर लेगा।

निराशाओं से घिर जाते हैं...
मैंने कोई गुरु बना नहीं रखा है पर रजनीश (ओशो) की बातें मुझे बहुत प्रभावित करती हैं। एक वक्त पर मैंने रजनीश को बहुत पढ़ा है। रजनीश ने एक ही चीज कही थी कि लाइफ इज अ सेलिब्रेशन। उस सेलिब्रेशन का हिस्सा बनो और फूल के साथ कांटे भी आना लाजिमी है, अगर फूल ही फूल मांगोगे तो वो कांटे कहां जाएंगे बेचारे। हर चीज को अपना लो तो अपने आप अच्छे-बुरे का अंतर मिट जाएगा। तो निराशाओं से घिरना स्वाभाविक है, पर उसी वक्त में सोचना चाहिए कि सांस ले रहा हूं। कौन है जो सांसें पहुंचा रहा है, टैक्स तो मैं दे ही नहीं रहा हूं इसके लिए। मुफ्त में मिल रही हैं, थैंक यू यार। इत्ता काफी है मेरे लिए।

निजी जिंदगी में दिक्कत हो, उस मौके पर भी परफॉर्म करना होता है। कैसे करते हैं?
मुझे स्टेज पर चढ़ने के बाद मां, बाप, भाई, बहन कोई नहीं दिखता। जब तक एक्ट खत्म नहीं हो जाता मैं और कुछ सोचता भी नहीं हूं। और चिंता हो भी जाती है तो मुझे और ज्यादा ताकत मिलती है। सोचता हूं कि अरे ये तो एक्टर की परीक्षा है। कि यहां पर कोई मृत्युशैय्या पर पड़ा है और तुझे स्टेज पर जाकर कॉमेडी करनी है। राज कपूर साहब की ‘मेरा नाम जोकर’ याद आ जाती है। मैं खुश हो जाता हूं, और बेहतर परफॉर्म कर देता हूं। दो-तीन दोस्तों को बोल रखा है, तबीयत खराब करवाते रहा करो अपनी और फोन करते रहा करो एक्ट के पहले।

प्लैनिंग नहीं करते कभी न आप?
नहीं, मैं बिल्कुल फ़ितरती इंसान हूं। जो भी है अब है, ये मेरा हमेशा का मंत्र है।

बुक्स कौन सी पढ़ते हैं?
रजनीश की किताबें। लोगों से और बाकियों से कहना चाहूंगा कि ‘संभोग से समाधि तक’ के अलावा बहुत कुछ कहा है उनने। वो अपने वक्त के बहुत आगे पैदा हुए शख़्स थे। आप उनकी बातों में विश्वास करें न करें, उनका ज्ञान लें न लें, लेकिन उनकी किताबों में बहुत कुछ पड़ा है। मैंने उन्हें बहुत पढ़ा, मतलब छान मारा, ऐसी कोई उनकी किताब नहीं है जो मैंने न पढ़ी हो। बाकी पब्लिशिंग हाउस से आता हूं। दासगुप्ता पब्लिकेशंस है कलकत्ता में। 1886 से है। तो पढऩे लिखने के तो शौकीन है हीं। कुछ अच्छा आ जाए तो वो पढ़ लेते हैं। उससे कहीं ज्यादा मुझे आध्यात्म की बातें इंट्रेस्ट देती हैं। आजकल सद्गुरू जग्गी वासुदेव काफी चल रहे हैं। उनका ईशा योग। तो वो मुझे ठीक लगते हैं। उनकी बातों को सुनता हूं। सुनता सबकी हूं करता अपनी हूं।

मूवीज जो अच्छी लगी?
‘पान सिंह तोमर’, क्योंकि मैं इरफान खान की कोई फिल्म मिस नहीं करता। ‘बर्फी’ सबसे अच्छी लगी। रणबीर वैसे मेरे पुराने परिचित हैं पर एक बार जब ‘कॉमेडी सर्कस’ में फिल्म प्रमोट करने आए तो धमका कर गए कि फिल्म रिलीज हो रही है देखना और देखकर मैसेज जरूर करना, वरना मैं समझूंगा तूने देखी नहीं। मैं शाम का शो देखने गया। मैंने लिखा कि आपने अच्छा किया और आपमें और भी ज्यादा टेलेंट है तो इससे भी अच्छा करेंगे। ‘बर्फी’ रणबीर-प्रियंका से कहीं ज्यादा डायरेक्टर-सिनेमैटोग्राफर की फिल्म थी। जैसे दार्जिलिंग को उन्होंने दिखाया है। तो इतना क्रेडिट आमतौर पर उन्हें मिलता नहीं है।

बीन, चैपलिन और हार्डी... ये ईंधन के स्त्रोत हैं जो कभी खत्म नहीं होने वाले।
बिल्कुल। बीन का तो मैं बहुत बड़ा कायल हूं। इसलिए कि वो आदमी बहुत ही खडूस आदमी है असली जीवन में। जैसे मेरे साथ भी होता है, पर बीन के सामने आकर कोई कहता है एक जोक सुनाओ न, तो बीन उनके मुंह पर कहता है “तुम्हारी ऐसी की तैसी, मैं तुम्हारे बाप का नौकर बैठा हूं यहां पर। मैं फिल्मों में जो करता हूं वो असल जिंदगी में नहीं हूं”। जो फिल्मों में उन्होंने किया वो असल जिंदगी में नहीं किया। कलाकार की इज्जत करनी चाहिए। वो जहां जो करता है उसे वहां वो करने दो। कहीं प्लंबर मिला तो ऐसे थोड़े ही करोगे कि नल ठीक करने लग जा।

(From Mantra’s wall – “The palaces you build will be the abodes of someone else tomorrow.”)
***** ***** *****

Monday, October 1, 2012

हमारे यहां रंग शंकरा में कोका कोला या पेप्सी का एक बोर्ड भी नहीं दिखेगा आपको: अरुंधति नाग

मुलाकात अरुंधति नाग से, अनुभवी थियेटर एक्ट्रेस जिन्हें 'दिल से' और 'पा' में देखा होगा
'40 साल बाद आज भी किसी प्ले के पहले पेट में तितलियां उड़ती हैं' Photo Courtsey: Jaswinder Singh



अरुंधति नाग की जिंदगी का पहला उत्कृष्ट बिंदु रहा रहा निर्देशक आर. बाल्की की फिल्म 'पा' के लिए बेस्ट सपोर्टिंग एक्ट्रेस का राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार पाना। दूसरा, बेंगलुरु में अपने मरहूम पति शंकर नाग के सपने को पूरा करना। 'रंग शंकरा थियेटर' की स्थापना जिसका आज बेंगलुरु के सांस्कृतिक नक्शे में बड़ा महत्व है। कन्नड़ फिल्मों के अभिनेता, डायरेक्टर और थियेटर हस्ती शंकर ने 1987 में अमर टीवी सीरीज 'मालगुड़ी डेज' का निर्देशन किया था। 1990 में उनकी रोड़ एक्सीडेंट में मृत्यु हो गई, जिसमें अरुंधति और उनकी बेटी भी गंभीर रूप से घायल हुए थे। नौ महीने व्हीलचेयर पर रहने के बाद सच्चे दोस्तों की फौज और थियेटर के मोह ने अरुंधति को फिर पैरों पर ला खड़ा किया। तब से उन्होंने खुद की जिंदगी को रंगमंच के नाम कर दिया। नतीजा है रंगमंच में उनकी कद्दावर शख्सियत। नतीजा है जिंदगी के हर सवाल के प्रति उनका सकारात्मक रवैया। जितने सवाल पूछे जाएं, वह बेहद शांति, सहजता, विनम्रता और खुशी से जवाब देती हैं।

आमतौर पर ऐसा नहीं होता कि कोई साक्षात्कार के दौरान इतना समझदार बना रहे। कोई साक्षात्कार ले रहा है तो व्यक्ति को लगता कि वह बेहद विशेष है, उसकी राय ली जा रही है, उससे कुछ पूछा जा रहा है। ऐसे में वह तान-तानकर शब्दों के गुच्छे छोडऩे शुरू करता। अरुंधति ऐसा नहीं करतीं। क्यों? वह इतनी सकारात्मक और सामान्य क्यों हैं? प्रत्युत्तर में वह बोलती हैं, "जिंदा हूं। ...थियेटर कर रही हूं, ...यहां बैठी हूं ...इसलिए। ...खुश हूं"। इसके बाद कुछ पल तक उनका ये जवाब गूंजता रहता है और विश्लेषित होता रहता है। उनकी बातों में बार-बार थियेटर का जिक्र आता है। शांत वार्ता के बीच वह कहीं-कहीं थोड़े से हास्य को भी छोड़ देती हैं। मसलन, उनके कई भाषाएं बोल पाने का गुण। वह कहती हैं, "हर इंडियन दो से तीन भाषा तो बोल ही लेता है, मेरा ये है कि मैं बस छह बोलती हूं"।

बतौर अदाकारा 1979 में आई अरुंधति की पहली फिल्म मराठी में थी। नाम था '22 जून 1897'। इस वक्त अरुंधति नाग का नाम अरुंधत्ति राव था। फिल्म जून 1897 में पुणे में घटी उन घटनाओं और परिस्थितियों के बारे में थी जिनकी वजह से ब्रिटिश सरकार के दो अधिकारियों की हत्या कर दी जाती है। फिर अरुंधति ने कन्नड़, तमिल और हिंदी में फिल्में की। इस साल उनकी मलयालम फिल्म 'दा थडिया' आने वाली है। इप्टा (इंडियन पीपुल्स थियेटर एसोसिएशन) के साथ उन्होंने मराठी और गुजराती में प्ले तो किए ही थे। ज्योति व्यास की टीवी सीरिज 'हाजी आवती काल चे' में भी उन्होंने गुजराती में अभिनय किया। इतने वृहद काम और इतनी सारी भाषाओं में उसे करने का श्रेय वह क्रॉस मैरिजेस को देती हैं। उनकी मां की पृष्ठभूमि, पिता का परिवार, दिल्ली में रहने के दिन, फिर मुंबई में फैमिली का आ बसना, बाद में कन्नड़ मूल के शंकर से शादी होना और ससुराल में अलग भाषाई माहौल का होना। सांस्कृतिक और भाषाई अनुभव में इन हालात से भी ज्यादा योगदान वह थियेटर का मानती हैं। अरुंधति कहती हैं, "थियेटर सबसे बड़ा कार्यवाहक रहा इस दौरान। जैसे, मेरी कन्नड़ शब्दावली उन 20 प्ले तक ही सीमित है जो मैंने किए हैं। मैं जिस-जिस भाषा में प्ले करती गई, उसमें थोड़ा-थोड़ा सीखती गई। इस साल मलयालम फिल्म की है। आगे अगर चाइनीज रोल करूंगी तो उस भाषा को भी सीमित तौर पर ही सही लेकिन सीखूंगी जरूर"।

हालांकि उनका अभिनय अनुभव 40 साल का है, पर हिंदी दर्शक अरुंधति को सिर्फ दो फिल्मों से पहचानते हैं। पहली मणिरत्नम की 1998 में आई फिल्म 'दिल से' और दूसरी आर. बाल्की की 'पा'। 'दिल से' में वह ऑल इंडिया रेडियो की हैड और एआईआर में ही काम करने वाले अमर वर्मा (शाहरुख) की बॉस बनी थीं, 'पा' में ऑरो (अमिताभ) की 'बम' नानी। चूंकि अमिताभ-शाहरुख भी शुरुआती पृष्ठभूमि में थियेटर से जुड़े रहे तो अनुमान लगता है कि उन फिल्मों के सेट्स पर थियेटर जरूर डिस्कस होता रहा होगा। मगर अरुंधति कहती हैं कि ऐसा नहीं था। वह बताती हैं, "वह दोनों बहुत बिजी इंसान थे। ज्यादातर वक्त तो शॉट्स के बीच अपनी एड फिल्म्स और आने वाली फिल्मों पर बात करते थे या फिर अपनी वैनिटी वैन में चले जाते थे। इसलिए थियेटर पर ऐसी कोई बातचीत तो उनके साथ नहीं हो पाती थी। किसी भी विषय पर नहीं हो पाती थी। पर हां, चूंकि मैं रंगमंच की पृष्ठभूमि से थी इसलिए दोनों मेरी बहुत इज्जत करते थे"।

बातों के आखिर से पहले वह कुछ जीवन ज्ञान भी दे चुकी होती हैं। कहती हैं कि अगर कोई सीखना चाहता है या अपने काम में सर्वश्रेष्ठ होना चाहता है तो उसे हर छोटे से छोटा काम ईमानदारी से करना चाहिए। अगर मैं झाड़ू भी निकाल रही हूं तो बहुत अच्छे से निकालूं, अगर टॉयलेट भी साफ कर रही हूं तो बहुत मन लगाकर करूं। जब उनसे पूछा जाता है कि थियेटर में संतुष्टि भले ही हो पर पैसा नहीं है तो वज्र-स्पष्टता से कहती हैं, "सफलता का पैमाना सिर्फ पैसा नहीं है"। आज के वक्त की भौचक भूल-भुलैया में जिन नैतिक शिक्षाओं को थामे रहना असंभव सा हो चुका है वहां उनका ये कहना कि पैमाना पैसा नहीं है, समाज के लिए बेहद फायदेमंद सूत्रवाक्य बनता है। अफसोस है कि सिनेमा या थियेटर के माध्यम से जो ज्यादातर लोग आज जनता के बीच विशाल छवि बन चुके हैं उनके मुंह से ऐसा कुछ नहीं निकलता। उल्टे वह गलत आर्थिक रास्ते पर लोगों को ले जाते हैं, क्योंकि उन्हें विज्ञापनों और कैसी भी फिल्मों से पैसे कमाने हैं। खैर, अरुंधति नाग तेज धारा के विपरीत खड़ी हैं, वह प्रेरणा हैं। ये भी कह जाती हैं कि एक्सीलेंस ढेर में नहीं आती। थोड़ा कीजिए पर अच्छा काम कीजिए।

Arundhati was to perform Girish Karnad Directed play 'Bikhre Bimb'

एक शब्द, एक सोच
गिरीष कर्नाड: उनमें एक अलौकिक सी बात है कि वह किरदारों के दिमाग में घुस जाते हैं। वह औरतों के दर्द और चीख को अपनी रचनाओं में अच्छे से उभारते हैं।

सिनेमा: बड़ा चुनौतीभरा माध्यम है। पर कोई फिल्म एक्टर भी थियेटर में आएगा तो उसे मुश्किलें हो सकती हैं। चाहे इतनी लंबी स्क्रिप्ट याद रखना हो या डेढ़ घंटे खड़े रहकर परफॉर्म करना।

बिखरे बिंब: बिखरे बिंब जैसे प्ले का एक शो तीन महीने में एकबार भी हो तो बहुत। मेरी जिंदगी में मर्सिडीज नहीं है या गले में हीरों का हार नहीं है तो क्या हुआ। मुझे बस ज्यादा से ज्यादा थियेटर करना है।

कोका कोला: बेंगलुरु में हमारे थियेटर रंग शंकरा में कोका कोला और पेप्सी जैसे ब्रैंड्स का एक भी बोर्ड आपको नहीं दिखेगा। हम इसे स्वीकार नहीं करते। लाइफ इनके बिना ज्यादा बेहतर है।

रुचियां: म्यूजिक सुनना मुझे बहुत पसंद है। कर्नाटकन-हिंदुस्तानी क्लासिकल दोनों सुनती हूं। सुबह उठते ही मेरे घर में रोज म्यूजिक बजना शुरू हो जाता है। इसके अलावा खाना पकाना बहुत अच्छा लगता है। बुक्स भी पढ़ती हूं।
**** **** ****
गजेंद्र सिंह भाटी

Thursday, December 29, 2011

माइनस सत्यदेव दुबे इंडियन थियेटर पूरा नहीं होता

" उनके बारे में खासतौर पर बहुत कुछ कहा जाएगा और कहा जाना चाहिए। क्योंकि भारतीय थियेटर में उनके जितनी लौहकाय-भीमकाय और हिमालयी छवि कुछेक ही हुई हैं। अपनी पूरी जिंदगी किसी एक पैशन में गुजार देना यूं ही नहीं आता। ये बड़े त्याग और बड़े रोग मांगता है। सत्यदेव दुबे फक्कड़ बनकर रहे। ज्ञान के मामले में उनसा कोई न था, पर उनके तरीके उतने ही देसी या कहें तो आर या पार वाले थे। छत्तीसगढ़ से आए लेकर महाराष्ट्रियन बनकर रहे। यहां उनके बारे में जरा सी बात करने का मतलब बस इतना ही है कि उनकी स्मृतियां हमारे बीच कायम रहे। हम उन्हें भूले न। क्योंकि ये उन लोगों में से थे जो सदियों में एक-आध बार होते है। और समाज को इतना कुछ देकर जाते हैं कि अगली कई सदियों का जाब्ता हो जाता है।"

सत्यदेव दुबे
1936-2011

'ब्लैक में देबराज साहनी नाम का सनकी और अप्रत्याशित तरीके अपनाने वाला एक गुरु था। लोगों के लिए अजीब, पर मिशेल मेक्नैली के लिए उसकी जिंदगी बदलने वाला टीचर। पंडित सत्यदेव दुबे भी एक ऐसे ही गुरु थे। मुंबई के थियेटर वर्ल्ड सबसे ऊंची पर्सनैलिटी, और इंडियन थियेटर की भी। बीते रविवार को 75 की उम्र में उनका निधन हो गया। हिंदी फिल्मों में आज के कई सुपर एक्टर हैं जिन्हें एक्टिंग की क ख ग उन्होंने ही सिखाई। अमरीश पुरी उनके ऑलटाइम फेवरेट स्टूडेंट रहे और पुरी खुद मानते थे कि एक्टिंग में उन्होंने सब-कुछ दुबे साहब से ही सीखा। थियेटर के नए आकांक्षी उनके सामने हाथ बांधकर जाते, दिल ऊपर नीचे होता रहता कि इस लैजेंड से कैसे बात हो पाएगी और न जाने वो क्या कह देंगे। पर बाद में सत्यदेव दुबे उनके सबसे करीबी फ्रेंड, पेरंट और गाइड हो जाते।

मेरा उनसे पहला परिचय गोविंद निहलानी की फिल्म 'आक्रोश से हुआ। ओमपुरी, नसीरुद्दीन शाह और अमरीश पुरी की एक्टिंग के साथ दिग्गज नाटककार विजय तेंडुलकर की कहानी और वहीं-कहीं डायलॉग के क्रेडिट में लिखा एक नाम, पंडित सत्यदेव दुबे। ये नाम श्याम बेनेगल की छह शानदार समानांतर फिल्मों में भी डायलॉग-स्क्रिप्ट लिखने के क्रेडिट में दिखता रहा। 'अंकुर’, 'निशांत’, 'भूमिका’, 'जुनून’, 'कलयुग और 'मंडी। इन कल्ट फिल्मों और भारत के थियेटर को माइनस सत्यदेव दुबे करके नहीं देख सकते।

मराठी
, इंग्लिश और हिंदी के नाटकों को उन्होंने अपने इंटरप्रिटेशन वाली भाषा दी। उनकी बोलचाल की भाषा बड़ी रंगीन थी। जब वो मीडिया के इंटरव्यू मांगने पर पैसे मांगते तो कुछ और नहीं बल्कि वो थियेटर को किसी की गरज नहीं करने वाला बना रहे होते थे। थियेटर को दिए अपने 50 सालों में उनका अपने और बाकियों के लिए एक ही मूलमंत्र रहा। पैशन। कि थियेटर को प्रमोशन, पब्लिसिटी या स्टार्स की नहीं बल्कि सिर्फ पैशन की जरूरत है। 'अंधा युग', 'शांतता कोर्ट चालू आहे', 'आधे अधूरे’, 'एंटीगॉन और अपने लिखे 'संभोग से सन्यास तक जैसे नाटकों में उनका निर्देशन बेदाग था। उनके जाने के बाद जो तस्वीरें दिखती या उभरती हैं उनमें दुबे जी के दाह संस्कार वाली जगह निराशा में सिर झुकाए बैठे नसीरुद्दीन शाह दिखते हैं, तो अर्थी को हाथ देते निर्देशक गोविंद निहलानी। ट्विटर पर अमिताभ बच्चन बताते हैं कि उन्हें 'दीवार’ में सत्यदेव दुबे के साथ काम करने का सौभाग्य मिला था। सौरभ शुक्ला कहते हैं कि मैं हमेशा उनकी हस्ती से खौफ खाता रहा। एक बार पार्टी में दूर नर्वस खड़ा रहा और वो आकर बोले कि मैंने तुम्हारी फिल्म इस रात की सुबह नहीं देखी, तुमने बड़ा अच्छा काम किया है।

ये
साल एक और लार्जर देन लाइफ नाम को अपने साथ ले जा रहा है, पर उनकी यादें और अमिट योगदान जेहन में सदा बने रहेंगे।
***************

ज्योति सभरवाल के साथ लिखी अपनी ऑटोबायोग्रफी ' एक्ट लाइफ में खुद के थियेटर डेज के दौरान अमरीश पुरी सत्यदेव दुबे का खासतौर पर जिक्र करते हैं। चूंकि दुबे साहब अमरीश को अपना फेवरेट स्टूडेंट मानते थे, तो पढ़िए कि इंडियन फिल्मों का ये सबसे कद्दावर विलेन और एक्टर अपने गुरू दुबे साहब के बारे में क्या लिखता है:

# मेरे साथ जो अगली अच्छी चीज हुई वो दुबे साहब थे। उन्हें हिंदी सेक्शन में नियुक्त किया गया। वो मॉलिएर के फ्रेंच प्ले 'स्कॉर्पियन’ के हिंदी ऐडप्टेशन 'बिच्छू’ को डायरेक्ट कर रहे थे। मैं उसमें लीड रोल कर रहा था। नवाब के घर का नौकर। 'बिच्छू’ के डायलॉग बड़े फनी और चतुराई भरे थे। अप्रत्यक्ष तौर पर दुबे साहब का मजाक उड़ाते हुए मैं उन्हें और भी फनी बना देता था।

# उन दिनों वो बड़े यंग और लड़कों जैसे लगते थे। बहुत सारे घुंघराले बाल वाला एक पतला नाटा बंदा। पहले मुझे उनसे निर्देश लेने में बड़ी दिक्कत हुई। कि कैसे इस लड़के को एक्टिंग में अपना टीचर और डायरेक्टर मानूं। फिर जब उनका निर्देशन सख्त हुआ तो मुझे वो बड़े सक्षम लगे। तालमेल बैठने के बाद मैं उनकी इज्जत करने लगा।

#
उस गहन ट्रेनिंग कोर्स के दौरान दुबे साहब ने ज्यादा इंट्रेस्ट दिखाना शुरू किया। जब भी मैंने कोई पॉइंट मिस किया उन्होंने मुझे डांटा। मैं एक समर्पित स्टूडेंट की तरह उनके कहे मुताबिक काम कर रहा था। वो काफी इम्प्रेस हुए।

#
अपने स्तर पर वो 1954 से इंग्लिश थियेटर ग्रुप से भी जुड़े थे। इसमें अल्काजी साहब, एलेक पदमसी, पर्ल पदमसी और ख्यात बुद्धिजीवी पी.डी.शिनॉय जैसे लोग थे। शिनॉय को दुबे साहब अपना गुरू मानते थे। शिनॉय बहुत ज्यादा ज्ञानवान थे, पर मैं कहूंगा कि दुबे साहब थियेटर के मामले में अंतिम आवाज और अथॉरिटी हैं। उनके परफेक्शन को छू सकने वाला कोई नहीं है।

#
जब मराठी और गुजराती थियेटर के लोग दुबे साहब के संपर्क में आए तो वो उनके नाटकों के मूल तत्व को समझने की कोशिश कर रहे थे। कि कैसे दुबे साहब की थीम्स का इंटरप्रिटेशन बाकियों से बहुत अलग था। 1960 के बाद के वक्त में थियेटर में जो एक्सपेरिमेंटल मूवमेंट चल रहा था, उसके लिए जिम्मेदार लोगों में दुबे साहब ने भी बड़ी इज्जत कमाई। मुंबई में हिंदी, मराठी और इंग्लिश थियेटर को करीब से देखने के बाद मैं पाता हूं कि नाटकों के अपने अलग ही इंटरप्रिटेशन से उन्होंने नाटकों का पूरा ट्रेक ही बदल दिया। सिर्फ लाइन्स के मतलब को पकडऩे के लिए नहीं बल्कि उन लाइन्स के बीच क्या है, उसे पढऩे के लिए भी वो गहराई में जाते थे।

#
अपने एक्टर्स से भी वो हमेशा यही चाहते थे कि प्ले को समझें। जल्द ही हमने कालिदास के प्ले 'आषाढ़ का एक दिन’ जिसे मोहन राकेश ने एडेप्ट किया था, उसे 1963 में मंचित किया। दुबे साहब तीस के भी नहीं हुए थे और इस
प्ले की गहरी परतों को समझना उनके लिए चैलेंजिंग रहा होगा।

#
मुझे याद है एक बार दुबे साहब ने मुझे कहा, 'समर्पण बहुत जरूरी है।‘ उनका कहना था कि अगर वो किसी को ढालना या मोडऩा चाहते हैं तो उस व्यक्ति को उनके आगे पूरी तरह समर्पित होना होगा। संपूर्ण समर्पण।फोटो: चित्रा पालेकर, अमरीश पुरी और सत्यदेव दुबे

****************
गजेंद्र सिंह भाटी