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Friday, September 21, 2012

आर्थिक नस्लभेद पर आज चाहिए कई ‘अ ड्राई वाइट सीजन’

अ ड्राई वाइट सीजन (1989) निर्देशकः यूजैन पाल्सी कास्टः डोनल्ड सदरलैंड, मर्लन ब्रैंडो, जेक्स मोकाइ, जैनेट सूजमैन, जुरजेन प्रॉचनाओ, सुजैना हार्कर, सूजन सैरेनडन दक्षिण अफ्रीकी उपन्यासकार आंद्रे फिलिपस ब्रिंक के 1979 में लिखे नॉवेल ‘अ ड्राई वाइट सीजन’ पर आधारित
Characters of Gordon Ngubene and his son, Ben (Right) and his son Johan.

दक्षिण अफ्रीका में अपार्थाइड या नस्लभेद के दौरान की अच्छी गाथा। स्कूल में सम्मानित टीचर, साउथ अफ्रीका में रहने वाले और अफ्रीका को रहने लायक बनाने वाला होने का दावा करते समाज के ही गोरे सदस्य हैं बेन दु त्वा (डोनल्ड सदरलैंड)। समाज में नस्लभेद का खूनी दौर है। काले लोग उठाकर मारे जा रहे हैं, सीधा विरोध प्रदर्शन कर रहे हैं तो कुचले जा रहे हैं।

बेन की बीवी और बेटी सब खिलाफ हैं कालों के। उसके अश्वेत माली के बेटे को पहले पीटा जाता है, फिर मार दिया जाता है, फिर माली को गिरफ्तार किया जाता है, उसे भी पैशाचिक पीड़ाएं देने के बाद मार दिया जाता है, बाद में कहा जाता है कि उसने आत्महत्या कर ली... तो इन सब से बेन का दिल बदल जाता है। उसे इस वक्त लगने लगता है कि ये वो अफ्रीका तो है ही नहीं जिसमें वह इतने साल से रहता है या उसे रहने लायक मानता है। अपने माली की मौत के जिम्मेदार पुलिसवालों के खिलाफ वह केस दायर करता। वह बड़े मानवाधिकारवादी वकील इयान मैकिंजी (मर्लन ब्रैंडो) के पास जाता है जो जानता है कि नस्लभेद की हकीकत क्या है और कचहरियों की हकीकत क्या है। खैर, वह बेन की तसल्ली के लिए केस लड़ता है। अपने रोल के प्रति मर्लन का रवैया अद्भुत है। एक औसत वकील के सारे पैमानों और सांचों के बिल्कुल उलट। ऐसा यूनीक वकील फिल्मों में बहुत कम हुआ है जो इतने खूनी और हत्यारे माहौल वाले तथ्यों की बात करते हुए बर्फ जितना शांत है। कुर्सी पर विपरीत दिशा में मुंह करके बैठे होने पर भी गवाह से वह कैसे बात करता है, कैसे जज को संबोधित करता है बिना उनकी ओर देखे, कैसे अपना शांतचित्त बनाकर रखता है। ये सब विशेष है। फिल्मों से सन्यास ले चुके ब्रैंडो फिल्म की सार्थकता देखकर ही ये रोल निभाने को लौटे थे।

Brando with director Palsy.
डोनल्ड सदरलैंड फिल्म को पूरा संभालते हैं। डायरेक्टर यूजैन पाल्सी खुद अश्वेत हैं और वह अपनी जिंदगी में सिर्फ ये एक ही फिल्म बनाने के लिए जानी जाती हैं, अगर मैं गलत नहीं हूं तो। उनका जन्म ही ये कहानी कहने के लिए हुआ था। डोनल्ड के किरदार बेन दु त्वा में हिंसा की भावना नहीं है, बस एक बार वह पिस्टल तान देता है डर के मारे अपनी सुरक्षा के लिए, अन्यथा पूरी फिल्म में शांत रहता है। बीवी सूजन (जैनेट सुजमैन) के तानों के आगे भी, बेटी सुजेत (सुजैना हार्कर) के अपशब्दों के आगे भी, अपने गोरे समाज के रवैये के प्रति भी। हां, एक मौके पर वह अपने स्कूल के प्रिंसिपल को थप्पड़ जड़ देता है जब वह उसे और उसके बेटे को देशद्रोही कहता है। नस्लभेद पर बनी चंद खूबसूरत फिल्मों में से एक ये भी है। कहानी में इतनी संतुलित कि मिसाल। नस्लभेद जैसे मुद्दों पर किस विषय को फिल्म में कैसे ढालना है, दो घंटे की स्क्रिप्ट मं कहां से क्या उठाना है, क्या साबित करना है, वगैरह सब कवर होता है। ज्यादा ध्यान कहानी कहने पर रहता है और उसी साधारणता की वजह से फिल्म पचने लायक बनती है।

बेन का बेटा जोहान (रोवेन एल्म्स) भी आकर्षक लगता है। छोटा है पर अपने पिता पर उसे गर्व है। साम्यवाद, श्वेत, अश्वेत की डिबेट में वह समझता है कि सही क्या है। जैसे उसका पिता बार-बार उन लोगों को ये कहता है कि मैं सच के साथ हूं, जो भी उसे पूछते हैं कि तुम हमारे साथ हो कि उनके। वैसे ही बेटा समझता है कि उसके पिता कुछ बहुत अच्छा कर रहे हैं, जिसमें उसकी मां और बहन तक पिता का साथ नहीं दे रहीं। उसे सही का पता इतने में ही चल जाता है कि फिल्म के शुरुआती चार मिनट के क्रेडिट्स वाले सीन में वह जिस अश्वेत लड़के के साथ खेल रहा होता है वो मारा जाता है और अंत तक केस का आधार वही रहता है। फिल्म का सूत्रवाक्य ही जैसे ये है। कि अगर बेन फिल्म के आखिर में मारा भी जाए तो अपने बेटे में उसने पर्याप्त संस्कार डालें हैं कि वह उनकी विरासत को कायम रखेगा और अश्वेत भाइयों की ओर से लड़ना जारी रखेगा। ये जाहिर भी इस बात से हो जाता है जब बेन अपनी बेटी की चालाकी को समझकर उसे नकली कागज देकर भेजता है सहेजने के लिए और जब वह उन्हें लेकर सीधे पुलिसवाले के पास पहुंच जाती है, तब डोनल्ड का बेटा अपनी साइकिल पर असली डॉक्युमेंट अखबार के दफ्तर में पहुंचा रहा होता है। वह नस्लभेद के खिलाफ इस बड़ी लड़ाई और शानदार योगदान में बड़ा भागीदार होता है, इतनी कम उम्र में।

A French Poster of the movie.
ये फिल्म जरूर देखें। आज भी समाज कुछ वैसा ही है, जहां अगर कोई कुछ कड़वी सच्ची बड़ी बात बोलना चाहता है तो उसे बोलने नहीं दिया जाता। सब साथ मिल चुके हैं। कोई सवाल ही पैदा नहीं होता कि हकीकत सामने आ भी पाएगी। आप नहीं ला सकते। अरविंद रो-रोकर मर जाएंगे, हजारे आंदोलन में जान दे देंगे तो भी राजनेताओं और कॉरपोरेट्स की भ्रष्ट नीतियां कभी लोगों के सामने नहीं आ पाएंगी। संभवत, अगले 100 साल हमारा खून जब चूस लिया जाएगा तब कहीं कोई जूलियन पैदा होगा और वो कहीं से कागज निकाल-निकालकर सबकी करनी उघाड़ेगा और दुनिया सच जानेगी। ‘अ ड्राई वाइट सीजन’ कुछ ऐसा सोशल रियलिस्ट ड्रामा है जैसी 1969 में आई कोस्टा गेवरास की राजनीतिक रहस्य रोमांच कथा ‘जेड’ थी, जिस पर दिबाकर ने हाल ही में ‘शंघाई’ बनाई। हो सकता है कोई ‘अ ड्राई वाइट सीजन’ से प्रेरणा लेकर हिंदुस्तानी समाज के भीतर विद्यमान भेदभाव कथा कहे तो लोग संदर्भ के लिए यूजैन पाल्सी की फिल्म पर लौटकर जाएं।
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गजेंद्र सिंह भाटी

Thursday, April 5, 2012

हैपी हंगर गेम्स! मुबारकबात में छिपा गूढ़ सामाजिक व्यंग्य, पहचान सको तो पहचानो, बाद में मत बोलना बताया नहीं था

Happy Hunger Games. May the odds be ever in your favour.

फिल्मः द हंगर गेम्स (अंग्रेजी)
निर्देशकः गैरी रॉस
कास्टः जैनिफर लॉरेंस, जॉश हचरसन, डोनल्ड सदरलैंड, वेस बेंटली, वूडी हैरलसन, लियाम हैम्सवर्थ
स्टारः तीन, 3.0डायरेक्टर गैरी रॉस की ये फंतासी फिल्म हमारे दौर के समाजों के लिए बहुत रेलेवेंट है। इसकी सतह पर ठीक-ठाक मनोरंजन चलता रहता है, जिसे देखा जा सकता है। वहीं दूसरी परत पर रिएलिटी शोज और लोगों को मूर्ख बनाकर रखने की सरकारों की साजिशों पर टिप्पणी भी चलती रहती है। मतलब सामाजिक बहस की बहुत सारी चीजें मिलती हैं। जैसे, हंगर गेम्स नाम के खूनी ग्लैमर भरे टीवी प्रोग्रैम के पीछे का क्या मनोरंजन निर्माण है, पता चलता है। फिर कैसे पेनम देश का प्रेसिडेंट कोरियोलिनस (डोनल्ड सदरलैंड) 'उम्मीद’ और 'राष्ट्रभक्ति’ जैसे शब्दों में लोगों को बरगलाए रखता है।

इन गेम्स के ऑर्गनाइजर सेनेका (वेस बेंटली) से वह कहता है...
हम हर साल इन गेम्स में एक विनर का कंसेप्ट क्यों रखते हैं?
डिस्ट्रिक्ट्स को डराना ही हो, तो हम हर साल कोई 24 लोग चुनकर उन्हें सीधे गोली भी मार सकते हैं।
लोग डरे रहेंगे और प्रोसेस भी छोटा होगा। पता है क्यों?
होप।
लोगों को होप देने के लिए।
उम्मीद देने के लिए।
क्योंकि उम्मीद एक अकेली ऐसी चीज है जो डर से ज्यादा मजबूत होती है

फिल्म से दो पल के लिए बाहर आकर देखें, तो क्या ये उम्मीद वाला जाल हमें हमारे चारोंमेर बुना हुआ नहीं दिखाई देता? हमारे टीवी कार्यक्रमों में? हमारी सरकारों के बयानों में? खैर आगे बढ़ते हैं। इन गेम्स में यंग केटनिस एवरडीन और पीटा मलार्क का मैंटोर (जैसे हमारे सिंगिंग और डांस रिएलिटी शोज में मैंटोर होते हैं) हैमिच (वूडी हैरलसन) है, जो एक बार ये गेम्स जीत चुका है। वो दिल का भला है, पर इस तंत्र से भीतर तक इतना ऊब चुका है कि शराब पीता रहता है। उसने सारी आशाएं त्याग दी हैं। किसी क्रांति की या बदलाव की उम्मीदें छोड़ दी हैं। ठीक वैसे ही जैसे हमने छोड़ी हैं। या फिरदामिनी के गोविंद (सनी देओल) ने छोड़ दी थी, जब तक कि किसी पराई कमजोर नौकरानी ऊर्मी को न्याय दिलाने के लिए अपनी जिदंगी दाव पर रख देने वाली दामिनी (मीनाक्षी शेषाद्रि) उसे नहीं मिल गई थी। जो काला कोट उसने उतार फेंका था, वह उसने फिर से पहना। शराब छोड़ी और इंदरजीत चड्ढा (अमरीश पुरी) को कोर्ट में धूल चटाई। ‘दामिनी’ का ये संदर्भ ‘हंगर गेम्स’ पर बिल्कुल खरा उतरता है। क्योंकि जब डिस्ट्रिक्ट एक और दो के प्रशिक्षित प्रतियोगी लड़के-लड़कियों की आंखों में खून बहाकर ये रिएलिटी शो जीतने की अमानवीयता नजर आ रही होती है, ठीक उसी वक्त हैमिच को किशोरवय लड़की केटनिस की आंखें नजर आती हैं। मेहनतकश, पुरुषार्थ और सदाचार से भरी आंखें। हैमिच गलत नहीं होता। केटनिस अपनी अच्छाई नहीं छोड़ती। ग्लैमर और सत्ता के भटकाव के किसी भी मोड़ पर नहीं छोड़ती। जो क्रांति नामुमकिन लगती है, वह संभवतः आती है। सुजैन कॉलिन्स के 2008 में लिखे इस उपन्यास (हंगर गेम्स) के दूसरे (कैचिंग फायर) और तीसरे (मॉकिंगजय) भाग में। जो आप संभवतः फिल्म के दूसरे और तीसरे सीक्वल में देख पाएंगे।

शुरू में हैमिच इन लड़के-लड़की को टालता रहता है, पर बाद में वह भी अपने स्तर पर कोशिशें करता है। अगर गौर करेंगे तो पाएंगे कि शुरू के एक-दो सीन के अलावा हैमिच कहीं भी शराब की बोतल पकड़ लड़खड़ाते नहीं दिखता। हमारे गोविंद की तरह। हैमिच हमें और केटनिस-पीटा को स्पॉन्सरशिप के छल के बारे में बताता है। वह सीधी-स्वाभिमानी केटनिस को सिखाता है कि जब ये खेल शुरू होगा तो तुम्हें जिंदा रहने के लिए खाने-पीने, दवा और पानी की जरूरत होगी। उसके लिए स्पॉन्सर चाहिए। और, स्पॉन्सर तभी मिलते हैं जब लोग तुम्हें लाइक करें। (इस लाइक शब्द की माया बड़ी भारी है, जो फेसबुक जैसे माध्यमों पर अनाज मंडी में बिखरे गेहूं के दानों जितनी असंख्य हो रही है, बहुत कुछ सोचने की गुंजाइश है अभी) जब खेल शुरू होते हैं तो हैमिच खराब सिस्टम के भीतर रहते हुए ही कुछ न कुछ करता है। आग के घावों से तड़प रही केटनिस के लिए मरहम भिजवाता है। स्पॉन्सर्स के जरिए। बाद में दर्शकों को मसाला देने के लिए केटनिस और पीटा के बीच के अनाम रिश्तों को लव स्टोरी बनाकर बेचा जाता है। हालांकि असल में होता बस इतना ही है कि पीटा मन ही मन केटनिस को बहुत पहले से चाहता है। वहीं वह पीटा की एक भलाई को कभी नहीं भूल पाई है। कि एक वक्त में जब वह भूख से किलबिला रही थी, बेकरी वाले के बेटे पीटा ने जानवरों के लिए रखी ब्रेड चुपके से उसके लिए फेंकी थी। केटनिस कृतज्ञ है, पर पीटा कहता है कि मुझे तुम्हें कुछ और गरिमामय तरीके से वह ब्रेड देनी चाहिए थी।

हंगर गेम्स की कहानी पर आते हैं। पेनम देश के डिस्ट्रिक्ट-12 में रहती है 16 साल की केटनिस एवरडीन (जैनिफर लॉरेंस)। घर में मां और इस साल 12 की हुई बहन प्रिम है, जिसे वह जान से ज्यादा प्यार करती है। यहां के अत्याधुनिक महानगर 'द कैपिटॉल’ का बाकी मुल्क पर नियंत्रण है। बाकी सब जिलों में गरीबी है। सालाना होने वाले 'हंगर गेम्स’ में 12 जिलों से 12 से 18 साल के दो लड़के-लड़की लॉटरी से भेंट (बलि, फिल्म में इन्हें ट्रिब्यूट कहा जाता है) के तौर पर चुने जाते हैं। हिस्सा लेने वाले 24 यंगस्टर्स में से 23 मरते हैं और एक जीतता है। किसी रिएलिटी शो की तरह इसकी तैयारी और प्रसारण होता है। तो इस बार 74वें हंगर गेम्स में प्रिम चुन ली जाती है, पर उसे बचाने के लिए बड़ी बहन केटनिस वॉलंटियर करती है। उसके साथ डिस्ट्रिक्ट-12 से पीटा (जॉश हचरसन) को चुना जाता है।

इस फिल्म में किसी अच्छी फिल्म वाले पलों को महसूस करना हो तो ऐसा ही एक पल कहानी के इस मोड़ पर आता है। जब ट्रिब्यूट्स का नाम पुकारे जाने के बाद वहां सामने खड़े लोगों के चेहरों पर मरघट सी शांति छा जाती है। बाद में जब उन्हें रेलवे स्टेशन ले जाने के लिए गाड़ी घर आती है तो गाड़ी में बैठने के बाद पीटा रोने लगता है। वह रो रहा है और उसे ले जाने आई हंगर गेम्स की प्रतिनिधि, मेकअप में पुती (फिल्म में दिखाए गए आधुनिक वक्त में पहने जाने वाले सभ्रांत इंग्लिश-फ्रेंच कपड़ों के फैशन के साथ) ऐफी (एलिजाबेथ बैंक्स) इन खेलों की बर्बरता से नावाकिफ राखी सावंत जैसी सतही समझ लिए बोलती जाती है...
कि तुम्हें खुश होना चाहिए,
कि तुम दोनों अपने देश के लिए चुने गए हो,
जिसके लिए लोग तरसते हैं,
अब तुम हीरो हो जाओगे

यानि वह अवसरों, फेम और महानगरीय लालचों की बातें बड़बड़ा रही होती है। और, एक आम आदमी की लाचारी, बेबसी और भलमनसाहत लिए पीटा आंखों से पानी टपका रहा होता है। उसे पता है कि उसे एक ग्लैमर के जहर से बने टीवी रिएलिटी शो की भेंट चढ़ जाना है। वजह सिर्फ इतनी सी है कि उसके इस मुल्क में लोकतंत्र नहीं है, जो तथाकथित लोकतंत्र है भी, वो लोगों को कितना भरमाए रखता है। मनोरंजन, महानगर और विकास के असंवेदनशील खोखले नारों में।

जिला-12 से केटनिस-पीटा दोनों को रॉयल ट्रेन में महानगर लाया जाता है। ठीक वैसे ही जैसे ऑडिशन होने के बाद छोटे-छोटे कस्बों से प्रतिभागियों को मुंबई लाया जाता है, ईंटो या लकड़ी के घरों में रहने वालों को दानवाकार चमकीली ईमारतों वाले इस महाशहर में। महाशहर लाकर इनके शरीर को रगड़कर-बाल उतारकर ब्यूटी डिजाइनिंग और वस्त्र सज्जा की जाती है। अलग से होटलनुमा फ्लैट्स में ठहराया जाता है। फिर इवैल्यूएशन की नौटंकी शुरू होती है। जैसे इंटरव्यू में या जजेज से सामने डांस रिएलिटी वाले या सिंगिंग रिएलिटी वाले प्रतिभागी परफॉर्म करते हैं, उसी तरह फिल्म में होता है। केटनिस-पीटा दोनों हॉल के बाहर बैठे हैं। नाम पुकारा जाता है, केटनिस अंदर जाती है, वहां उसे अपना कोई टेलंट दिखाना है और जो जज करने वाले सिविलाइज्ड वनमानुष वहां ओपेरानुमा हॉल की बालकनी में बैठे हैं, उनका ध्यान सोशलाइट्स की तरह बातें करने पर है। कोई उसपर ध्यान नहीं देता। वह अपना नाम पुकारकर कहती है,

डिस्ट्रिक्ट 12 से इवैल्यूएशन के लिए केटनिस ऐवरडीन हाजिर है...”

सब स्थिर होते हैं, बैठते हैं, वह धनुष चलाती है, पहला तीर निशाने से जरा दूर लगता है। सब हंसते हैं और फिर से बातों में बिजी हो जाते हैं। केटनिस का अगला तीर टारगेट के सीने में लगता है, मगर कोई उसे देख नहीं रहा होता है। वो वहां डिनर टेबल पर रखे भुने सूअर के इर्द-गिर्द खड़े होकर हंसी-ठिठोली कर रहे होते हैं। इतना देखने के बाद केटनिस का अगला तीर सूअर पर जाकर लगता है। सब भौंच्चके रह जाते हैं। फिर वह एलीट दर्शकों के समक्ष झुकने के किसी बैले डांसर वाले अंदाज में पीछे घुटनों को मोड़कर सिर झुकाती है (उनका मजाक उड़ाते हुए) और कहती है, इन योर कंसीडरेशन सर ये हिस्सा बेहद आनंददायी होता है।

डेथ रेस जैसी तमाम ऐसी फिल्में जो हमारे लिए खून-खराबे वाली कचरा फिल्मों की श्रेणी में आती है, हमें बार-बार आने वाले वैश्विक समाज का आइना दिखाती है। जब टीवी का प्रकोप किस हद तक बढ़ जाएगा। प्रैक्टिकल होने और जो लोगों को पसंद आता है वो दिखाते हैं...’ वाले पूंजावादी तर्क पर हमें सोचने को बहुत कुछ देती हैं। ‘हंगर गेम्स’ इनसे अलग है। और, इसे अलग बनाते हैं गैरी रॉस अगर याद हो तो नौ साल पहले गैरी ने ही टॉबी मैग्वायर को लेकर सीबिस्किटजैसी शानदार स्पोर्ट्स बायोपिक बनाई थी। कम कद के कुछ गैर-मैचो घोड़े सीबिस्किट और उसके जॉकी रेड की ये कहानी हीरो या विजेता की तय छवि के बिल्कुल उलट बनाई गई थी। गैरी ने इसका निर्देशन किया था। फिल्म बड़ी सराही गई।

हंगर गेम्स जरूर देखें। और कुछ अलग दृष्टिकोण के साथ देंखें। क्योंकि ऐसा बार-बार नहीं होगा कि मनोरंजन के पूरी तरह पूंजी आधारित हो चुके इस मीडियम में हर बार कोई मुद्दों को इतने सार्थक ढंग से सिस्टम की नजरों से बचाकर फिल्म में डाल पाएगा। गैरी रॉस ने डाला है और कॉलिन्स ने लिखा है, तो विमर्श करिए। फिल्म में कुछ अश्वेत किरदारों के जरा वाद-विवाद की गुंजाइश युक्त चित्रण के साथ करिए। करिए जरूर।*** *** *** *** ***
गजेंद्र सिंह भाटी