Thursday, February 24, 2011

'मैं मांसाहारी एक्टर हूं, मुझे मीटी रोल चाहिए'

मिलिए 'तनु वेड्स मनु' फिल्म के लीड एक्टर्स में से एक स्वरा भास्कर से। पायल का कैरेक्टर प्ले कर रही स्वरा इसमें तनु (कंगना रानाउत) की दोस्त बनी हैं...

'माधोलाल कीप वॉकिंग' जैसी छोटी मगर सराही गई फिल्म से पहली बार परदे पर दिखने वाली स्वरा भास्कर को अब भी अपनी पहली फिल्म 'नियति' की रिलीज का इंतजार है। ये बिहार में लड़कों के अपहरण और जबरन विवाह जैसे सोशल इश्यू पर बनी थी। इन दो गैर-कमर्शियल फिल्मों के बीच स्वरा की पहली कमर्शियल बॉलीवुड फिल्म 'तनु वेड्स मनु' इस शुक्रवार 25फरवरी को थियेटरों में आ रही है। फिल्म में उनका रोल बिहार से ताल्लुक रखने वाली एक एनर्जेटिक लड़की पायल का है जो इंटरकास्ट मैरिज कर रही है। चूंकि फैमिली की कद्र समझती है इसलिए इस शादी के लिए उन्हें भी राजी कर लिया है। फिल्म के पहले हाफ में पायल की शादी के संदर्भ में ही तनु (कंगना) और मनु (आर. माधवन) की मुलाकात होती है। दिल्ली में पली-बढ़ी स्वरा के पिता रक्षा विशेषज्ञ सी. उदय भास्कर हैं तो मां इरा भास्कर जवाहरलाल नेहरु विश्वविद्यालय में सिनेमा की प्रफेसर।

फिल्म में अपने कैरेक्टर का एक्सेंट कैसे पकड़ा? इसके जवाब में स्वरा कहती हैं, 'मेरी मां बिहार से हैं और बाकी काफी परिवार अब भी बिहार में रहता है। ऐसे में मेरे रोल में उस इलाके के जिस साउंड की जरूरत थी उससे मैं वाकिफ थी। इसके साथ ही फिल्म के राइटर भी यूपी से हैं तो उस इलाके का ट्वेंग उनके पास था। म्यूजिक डायरेक्टर मधेपुरा बिहार से थे।' फिल्म में स्वरा के साथ जोड़ी है टीवी एक्टर एजाज खान की। उनके सरदारों वाले लुक और पंजाब में शूटिंग के अनुभव के सवाल पर स्वरा की आवाज में उत्साह झलकने लगता है। वह बताती हैं, 'एजाज तो इतना असली सरदार लग रहा था कि लोग आ आ कर उससे पंजाबी में बात कर रहे थे। मीका भी आकर पंजाबी बोलने लगे, तो उसने कहा कि सर मैं एजाज हूं मुंबई से। हमने पंजाब में डेढ़ महीने की शूटिंग में इतने मजे किए कि बता नहीं सकती। जालंधर, अमृतसर और बाकी इलाकों से आए आर्टिस्ट इतनी बढ़िया एक्टिंग कर रहे थे कि आपको ये सब स्क्रीन पर दिखेगा।' इसके साथ वह ये भी कहती हैं, 'वो जूनियर आर्टिस्ट बच्चियां मेरी मेंहदी और दुल्हन वाले सीन में इतने देसी तरीके से प्रैंक कर रही थीं कि मैं तो दंग रह गई। जब हम गुरुद्वारे में शादी का सीन शूट कर रहे थे तो वहां बैठे लोग पिन पॉइंट कर रहे थे। कहने लगे कि इतनी बार फेरे ले लोगे तो सच्ची में शादी हो जाएगी ध्यान रखना। जिस घर में शूट कर रहे थे उन्होंने भी असली प्रोसेस बताया। मैंने पहले सिर्फ सुना ही था कि पंजाब के लोग जिंदादिल होते हैं, पर वो सच में जिंदादिल निकले।'

फिल्म की शूटिंग जालंधर, पंजाब, कपूरथला और लखनऊ में हुई है। स्वरा के मुताबिक 'तनु वेड्स मनु' का सेलिंग पॉइंट इसकी कमाल की स्क्रिप्ट है। परफॉर्मेंस में माधवन, दीपक डोबरियाल, एजाज और कंगना सबका काम अच्छा है। दीपक तो दिल्ली में मेरे थियेटर ग्रुप में सीनियर रह चुके हैं। उनका काम भी अमेजिंग है। पर स्क्रिप्ट ऐसी है कि हर दस मिनट में उम्मीद के उलट चीजें मिलेंगी। जो लव स्टोरी इसमें है वो बाकी बॉलीवुड लव स्टोरी जैसी नहीं है। इसमें आपको कोई पुराना क्लीशे नहीं मिलेगा। फिल्म बनने के दौरान के दिलचस्प किस्से बताते हुए वह कहती हैं, 'मैं दो वाकये बताती हूं। एक बार डांस डायरेक्टर सरोज जी का इंतजार कर रही थी। कुछ दूर एक मोटी-छोटी औरत भी खड़ी थी। मैंने किसी टेक्नीशियन से पूछा कि अब तक सरोज जी नहीं आई तो उसने कहा कि तुमने पहचाना नहीं ये ही सरोज जी हैं.. तुमने नमस्ते भी नहीं किया। पहले मैं नहीं मानी पर बाद मैं गई और जैसे ही उनको नमस्ते किया तो वो भी झेंप गईं और सब जोर-जोर से हंसने लगे। मैं पानी-पानी हो गई। बाद में सरोज जी आईं तो मैंने दूर से ही उन्हें नमस्ते किया। तो ऐसी ही हंसी मजाक खूब हुई। हम जालंधर के आसपास जब शूटिंग कर रहे थे तो जालंधर-चंडीगढ़ हाइवे पर एक खाने की जगह थी, जहां मैं और एजाज अकसर जाते थे। वहां एजाज की बहुत सी फैन लड़कियां भी आ जाती थीं और मुझसे पूछती कि क्या आप एजाज के साथ हैं। तो इस तरह मैंने उस दौरान उनके बीच चिट पास करने का काम किया।'

फिल्म के डायरेक्टर आनंद राय इससे पहले फिल्म 'स्ट्रैंजर्स' और 'थोड़ी लाइफ थोड़ा मैजिक' को डायरेक्ट कर चुके हैं। उनके साथ काम करने के अनुभव पर स्वरा कहने लगती हैं, 'वह जाने माने डायरेक्टर रह चुके हैं। उनकी खासियत ये है कि सबसे प्यार से बात करते हैं और हर अदाकार से काम भी प्यार से ही निकलवा लेते हैं।' पंजाबी तासीर वाली 'तनु वेड्स मनु' के दोनों गाने साड्डी गली भुल्ल के वी आया करो...और जुगनी... शीर्ष पर चल रहे हैं, तो इसमें डांस भी बड़ा करना पड़ा होगा? इस पर वह कहती हैं, 'मेरी फॉर्मल ट्रेनिंग डांस में ही है। मैंने भरतनाट्यम सीखा है लीला सेमसन से। इस मूवी में तो बिंदास टाइप डांस है। हम सब ऐसे ही नाचे भी।'

आर्ट और कमर्शियल दोनों ही फिल्मों का अनुभव स्वरा को हो चुका है। ये पूछने पर कि दोनों में कौनसा प्रेफर करती हैं, वह कहती हैं, 'ऑफबीट और आर्ट सिनेमा के साथ समस्या ये होती है कि उसकी पहुंच नहीं होती, कमर्शियल फिल्मों की पहुंच दूर तक होती है। पर एक एक्टर का काम होता है कि वो दोनों ही करे। अगर उसे लंबा करियर देखना है तो कमर्शियल ज्यादा जरूरी है।' अब बॉलीवुड को कैसे लेना है? इसके जवाब में स्वरा कहती हैं, 'मैं बेसीकली अब लीड रोल करना चाहती हूं। ऐसी मूवीज जो लोगों तक पहुंचे, ऐसा नहीं कि एक्ट्रेस है तो बस पेड़ पकड़े नाचते रहो। मैं मांसाहारी एक्टर हूं तो मुझे मीट चाहिए, मीटी रोल चाहिए। ऐसा रोल जिसमें कुछ करने को हो।'(प्रकाशित)
गजेंद्र सिंह भाटी

Wednesday, February 23, 2011

कुछ इरानियन लुक वाली सतरंगी पैराशूट

हिंदी फिल्म 'सतरंगी पैराशूट' के निर्देशक विनीत खेत्रपाल से संक्षेप में बातचीत

मेरे लिए नए फिल्मकार और अपनी पहली फिल्म बना सकने वाले (डेब्युटेंट) फिल्मकार हमेशा कौतुहल और महत्व का विषय रहे हैं। अपनी फिल्म बना पाना एक तपस्या है। तमाम विषम परिस्थियों से गुजरते हुए, हारते, रोते और घुटनों पर गिरते-उठते हुए एक फिल्म बन पाती है। इनकी फिल्म बनती है तो तब के दौर में फिल्म निर्माण के तमाम सूत्र पता चल पाते हैं। एक ऐसी ही फिल्म है 'सतरंगी पैराशूट।' इसके प्रोमो टेलीविजन पर इन दोनों काफी भीनी-भीनी उत्सुकता जगा रहे हैं। इसे प्रॉड्यूस और डायरेक्ट किया है दिल्ली के विनीत खेत्रपाल ने। लंदन से फिल्ममेकिंग पढ़कर लौटे विनीत ने अपनी उम्र के दूसरे फिल्ममेकर्स की तरह किसी डार्क फिल्म या रोमैंटिक कॉमेडी की बजाय कहानी चुनी कुछ भोले बच्चों की, जो सपने देखना चाहते हैं। ये फिल्म इस शुक्रवार 25 फरवरी को रिलीज हो रही है। परिचय स्वरूप इस युवा डेब्युटेंट फिल्मकार से एक संक्षिप्त साक्षात्कारः

अपने बारे में बताएं। ब्रिटेन से फिल्ममेकिंग सीखकर लौटने से लेकर सतरंगी पैराशूट बनने तक की जर्नी कैसी रही?
पैदाइश, पढ़ाई और परवरिश दिल्ली में हुई। स्कूल में होने वाले प्ले में एक्टिव रहता था, डायरेक्शन का भूत रहता था। ग्रेजुएशन के बाद लंदन में चार साल फिल्ममेकिंग पढ़ी। डेढ़ साल पहले भारत लौटा तो एड फिल्में और डॉक्यूमेंट्री बनाईं। मैंने कुल छह एड फिल्में बनाईं जिनमें एक इक्रेडेबल इंडिया भी थी। चार डॉक्यूमेंट्री बनाईं, जिनमें एक बीबीसी के लिए थी। 'सतरंगी पैराशूट' को पेपर पर लिखने से लेकर पोस्ट प्रॉडक्शन-डबिंग सब करने तक कुछ छह महीने लगे।

ये फिल्म किस बारे में है?
बच्चों की कहानी है जो नैनिताल में शुरू होकर मुंबई तक जाती है। कहानी के मेन प्रोटोगनिस्ट हैं आठ बच्चे। हिंदुस्तान में बच्चों पर फिल्में कम ही बनती हैं, इसलिए मैंने इस विषय को चुना। मूवी में मैसेज ये कि नन्हे बच्चों को अपने सपनों के पीछे जरूर दौड़ना चाहिए। बाकी फिल्मों की तरह इसमें बैंग-बैंग कुछ भी नहीं है। सब लाइट हार्टेड है, फिल्म में कुछ भी ओवर नहीं होता है।

फिल्म के म्यूजिक में क्या खास है?
सॉफ्ट-हल्का सा म्यूजिक है। खास ये है कि लता मंगेशकर ने फिल्म के लिए गाना गाना स्वीकार किया। उन्होंने 83 उम्र में एक आठ साल की बच्ची के लिए गाना गाया है। मैं नया लड़का हूं, पर सब सिंगर और एक्टर फिल्म के बारे में वन-लाइनर सुनते ही राजी हो गए। बाकी सिंगर्स में राहत फतेह अली खान, श्रेया घोषाल, कैलाश खेर और शान जैसे नाम हैं।

बच्चों की फिल्म है, मगर प्रोमो में संजय मिश्रा पुलिसवाले बने कुछ आपत्तिजनक डायलॉग बोलते दिखते हैं?
ये दरअसल प्रोमो में फिल्म के संदर्भ से अलग लग रहा है। फिल्म के ओवरऑल मैसेज में देखेंगे तो साधारण ही लगेगा।

शूटिंग कहां पर और कितने दिनों में हुई?
कुल अस्सी फीसदी शूटिंग नैनिताल में हुई और बाकी मुंबई में। क्रू थी 125-150 लोगों की। छह महीने में शूटिंग पूरी हो गई। सबका इतना सहयोग था कि नैनिताल में 45 दिन का शूट 32 दिन में निपट गया। बीच में खूब बारिश हुई, पर सब आर्टिस्ट आकर बोले कि जो चीज दस दिन में खत्म होने वाली थी वो हम तीन दिन में करेंगे।

इस प्रोसेस में सबसे बेस्ट चीज क्या थी?
मैंने एक बार एक्टर्स को कैरेक्टर समझाए तो उसके बाद सबने अपनी तरफ से रोल में कुछ न कुछ जोड़ा। के. के. मेनन, जैकी श्रॉफ, संजय मिश्रा, राजपाल यादव और रुपाली गांगुली जैसे सब एक्टर पहले पांच दिन कैरेक्टर्स में घुले, फिर डिस्कशन हुआ और उसके बाद शूटिंग शुरू हुई। पहले ये डर था कि मूवी में बच्चे क्या काम ठीक से कर पाएंगे। शेड्यूल भी तय दिनों का था, मौसम भी खराब था। पर आखिर में सब ठीक रहा। के. के. और संजय जैसे एक्टर्स जैसे ही सेट पर आते तो पूरा सेट लाइव हो जाता था। सब मोटिवेट हो जाते थे।

बच्चों की कास्टिंग कैसे हुई?
पूरे भारत में हमने दस हजार बच्चों का ऑडिशन लिया। सब टेलेंटेड थे। इनमें से आठ बच्चे फिट हुए। इनका रिहर्सल लिया। आठ साल का बच्चा पप्पू इसमें मेन प्रोटोगनिस्ट है। आपने इस छोटे एक्टर को सर्फ एक्सेल के एड में रोजी मिस का कुत्ता मर जाने पर उनको हंसाने के लिए कुत्ता बनते देखा होगा।

पहली फिल्म के लिए ये कहानी ही क्यों चुनी?
देखिए, कोई मूवी बिना नैतिकता नहीं आती। हालांकि मैंने दस-पंद्रह स्क्रिप्ट पहले पढ़ी थी, पर इसका पंच इतना मजबूत लगा कि पहले इसे ही बनाया।

अब जब बना चुके हैं तो क्या फीलिंग हो रही है? क्या कुछ मुश्किलें भी आईं?
हम सब लोगों को तो बहुत अच्छा लग रहा है। इंतजार है लोगों के रिएक्शन का। जहां तक मुश्किलों की बात है तो पिक्चर बनाना जितना आसान था, ऑडियंस तक इसे पहुंचाना उतना ही मुश्किल। पर जब रिलीज डेट सामने आती है तो संतुष्टि मिलती है। फिल्म को प्रिव्यू में देखने वाले सभी लोगों का यही कहना था कि इसका लुक फ्रैश है और कंटेंट भी अच्छा है।

पिछले दो साल में कोई दर्जन भर डेब्युटेंट डायरेक्टर बॉलीवुड में आए हैं और सबने अच्छी फिल्में बनाई हैं। अब पहली फिल्म बनाना इतना आसान क्यों हो गया है?
आडियंस को चाहिए रियल फिल्में। डेब्यूटेंट 25 से 30 की उम्र में आते हैं। उनके दिमाग में और युवा दर्शकों के मन में एक ही तरीके के सब्जेक्ट चल रहे होते हैं, यही सबसे बड़ी वजह है। दूसरा हर मूवी एक कंसेप्ट के साथ आ रही है। किसी प्रॉड्यूसर के पास जाते हैं तो वो सबसे पहले ये नहीं पूछते कि एक्टर कौन सा लोगे, वो पूछते हैं कि कंटेंट क्या है। कंटेंट अच्छा है तभी मूवी चलेगी। मोबाइल जैसी टेक्नोलजी ऐसी है कि बच्चे भी आज दो मिनट-दो मिनट की क्लिप मूवी बना लेते हैं।

बच्चों के इमोशंस को ईरानी फिल्में बहुत अच्छे से डील करती हैं, क्या वो भी प्रेरणा रही हैं?
ईरानी मूवीज सॉफ्ट इमोशन को केप्चर करती हैं। मुझे एक ऐसी फिल्म 'काइट रनर' बहुत पसंद आई। 'सतरंगी पैराशूट' में भी आपको कुछ ऐसा इरानियन लुक देखने को मिलेगा। इसकी झलक आपको मेरी मूवी में भी दिखेगी।

कौनसी फिल्में और फिल्ममेकर फॉलो करते हैं?
ऑनेस्टी से कहता हूं, बहुत फिल्में फॉलो की हैं। कोई मूवी नहीं छोड़ता हूं। सब देखता हूं। आमिर खान की सब मूवीज का क्रेज है। आमिर कंसेप्ट से लेकर हर चीज पर खरे उतरते हैं। बॉलीवुड में राजू हीरानी और यशराज चोपड़ा मुझे खूब पसंद हैं। अनुराग कश्यप को भी पंसद करता हूं। अंग्रेजी फिल्मों में 'सिटीजन केन' सबसे ज्यादा पसंद हैं। डायरेक्टर्स में स्टीवन स्पीलबर्ग के बाद डैनी बॉयल और जैम्स कैमरून बेहतरीन हैं।

इंडिया से बाहर स्टूडेंट इंडियन फिल्मों को कैसे देखते हैं?
लंदन में हम करीब पांच-छह इंडियन स्टूडेंट थे। सब गोरों में बॉलीवुड को जानने की जिज्ञासा रहती थी। 'मुगले आजम', 'दिलवाले दुल्हनिया ले जाएंगे' और अनुराग कश्यप की 'देव डी' ...इन तीन फिल्मों पर खूब बात होती थी। जब कोर्स करके निकल रहा था तो 'थ्री इडियट्स' आ गई। विदेशी बच्चे क्यूरियस होकर पूछते थे कि यार, बॉलीवुड की फिल्में इतनी भव्य दिखती हैं, ये तो हॉलीवुड की फिल्मों से महंगी होती हैं। अब मेरी मूवी आ गई है तो क्यूरियस हैं, वहां पर उसे प्रमोट कर रहे हैं। (प्रकाशित)
गजेंद्र सिंह भाटी

Saturday, February 19, 2011

इस खून की माफी नहीं मिलेगी

फिल्मः सात खून माफ
निर्देशकः
विशाल भारद्वाज
कास्टः प्रियंका चोपड़ा, विवान शाह, नील नितिन मुकेश, जॉन अब्राहम, इरफान खान, अन्नू कपूर, अलेक्जांद्र दाइशेंको, नसीरुद्दीन शाह, उषा उत्थुप, हरीश खन्ना, शशि मालवीय, कोंकणा सेन शर्मा, मास्टर अयूष टंडन, रस्किन बॉन्ड
स्टारः ढाई 2.5

लिफ्ट में उन फनलविंग यंग दोस्तों में एक मैं ही अजनबी था। 'सात खून माफ’ देखने के दौरान हर सीरियस सीन का उन्होंने मजाक उड़ाया और अब वापिस जा रहे थे। कैसी फिल्म है, इसे उन्हीं की भाषा में कहें तो ...सिर भारी हो गया, यार कुछ समझ ही नहीं आया। हां ये कुछ ऐसी ही मूवी है। विशाल भारद्वाज उन फिल्म मेकर्स में से हैं जो हिंदी फिल्मों के एक कोने में बैठे अपनी ही तरह की फिल्में बना रहे हैं। इनमें कुछ लिट्रेचर होता है, तो कुछ वर्ल्ड सिनेमा। उनकी मूवीज दर्शकों के लिए एक्सपेरिमेंटल फिल्मी भाषा वाली साबित होती हैं। कभी डार्क, डिफिकल्ट और परेशान करती तो कभी प्यारी सी 'ब्लू अंब्रैला’ जैसी। जिन लोगों को अंग्रेजी नॉवेल पढऩा और फिल्में बनाना पसंद हैं, उनके लिए 'सात खून माफ’ अच्छी फिल्म है और जो खुश होने के लिए फिल्में देखने जाते हैं उन्हें यहां खुशी के अलावा सब कुछ मिलेगा। ये फैमिली या दोस्तों के साथ जाकर देखने वाली मूवी नहीं है। ज्यादा अटेंशन रखते हैं तो अकेले जा सकते हैं। फिल्म के आखिर में सुजैना की इस शॉर्ट स्टोरी को लिखने वाले नॉवेल राइटर रस्किन बॉन्ड का भी छोटा सा रोल है.. उन्हें पहचानना न भूलें।

बात सात की
कहानी है सुजैना उर्फ सुल्ताना उर्फ एनी उर्फ सुनयना (प्रियंका चोपड़ा) की। 1964 के आस-पास की बात है। पिता की मौत के बाद सुजैना अपने पॉन्डिचेरी वाले घर में कई फैमिली मेंबर जैसे सर्वेंट्स के साथ रहती हैं। इनमें घोड़ों की देखभाल करने वाला कम कद का गूंगा (शशि मालवीय) है, एक बटलर गालिब (हरीश खन्ना) है, मैगी आंटी (ऊषा उत्थुप) है और गूंगा का गोद लिया बेटा (जिसे गूंगे ने कभी गोद में नहीं लिया) अरुण (मास्टर अयूष टंडन) है। अब आते हैं काम की बात पर और जल्दी से सब पति परमेश्वरों से मिलते हैं। सुजैना की पहली शादी होती है मेजर एडविन रॉड्रिग्स (नील नितिन मुकेश) से। मेजर साब कीर्ति चक्र विजेता हैं और ऑपरेशन ब्लू स्टार में हिस्सा ले चुके हैं। एक टांग लड़ाई में चली गई। मदाम की दूसरी शादी होती है जमशेद सिंह राठौड़ उर्फ जिमी (जॉन अब्राहम) से और तीसरी मोहम्मद वसीउल्ला खान उर्फ मुसाफिर (इरफान खान) से होती है। आगे बढ़ते हैं। पति नंबर चार हैं निकोलाइ व्रॉन्सकी (अलेक्जांद्र दाइशेंको), पांचवें हैं कीमत लाल (अन्नू कपूर) और छठवें पति हैं डॉक्टर मधुसूदन तरफदार (नसीरुद्दीन शाह), सातवां पति सरप्राइज है.. हालांकि ये सरप्राइज चौंकाता नहीं है, बस कहानी को स्पष्ट एंगल पर खत्म करता है। इस कहानी को नरेट करते हैं अरुण (विवान शाह) और सुजैना।

बेकरां हैं बेकरां
फिल्म के म्यूजिक को चतुराई से बरता गया है। इसमें हर शादी की कहानी को रियलिस्टिक बनाने के लिए कैरेक्टर के मिजाज का म्यूजिक इस्तेमाल होता रहता है। मेजर एडविन की कहानी में घुसते ही बैकग्राउंड में तानाशाह और हिंसक माहौल वाला म्यूजिक भी घुसता है। उसका गूंगे के साथ लड़ने के वक्त वो क्रूरता वाला-बेदर्दी वाला थाप, फिर मौत के वक्त चर्च का म्यूजिक और चर्च में जिमी से शादी करने से लेकर इस कहानी के अंत तक गिटार का ही खास इस्तेमाल म्यूजिक में हुई बारीक मेहनत को दिखाता है। मसलन, गिटार बजाने वाले जिमी की कहानी में ओ मामा.. जैसे गिटार आधारित गाने से फिल्म का टेस्ट बदल देना। वादियों की कहानी के दौरान कश्मीर की हवा सा पूरा फेफड़ों भरा सुकून म्यूजिक में दिखता है। बेकरां हैं बेकरां, आंखें बंद कीजे ना, डूबने लगे हैं हम, सांसें लेने दीजे नां... विशाल ने खुद गाया है। मुझे फिल्म का बेस्ट गाना लगा। जब निकोलाइ की कहानी का हिस्सा आता है तो घर की वाइन से लेकर संगीत तक पर रशियन असर आता है। डार्लिंग आंखों से आंखों को.. गाने की मैलोडी भी रूसी गाने 'कलिंका’ से ली गई है। मास्टर सलीम का गाया आवारा.... हवा पे रखे सूखे पत्ते आवारा, पांव जमी पर लगते ही उड़ लेते हैं दोबारा, आवारा... फिल्म का दूसरा सबसे अच्छा लिखा और पिरोया गाना है।

कैसे-कैसे एक्टर लोग
नील नितिन मुकेश मेजर के रोल में मेच्योर लगते हैं। प्रियंका से भी मेच्योर। एक 'मर्द’ होने का जो जरूरी भाव उनके रोल के लिए जरूरी था, वो ले आते हैं। इरफान अपने शायर वाले रोल में भले ही नया कुछ न डाल पाएं हों पर एक पति के तौर पर वो एक्सिलेंट लगे हैं। अपनी मौत को सामने देखकर जो उनकी आंखों से छिपे आंसू ढलक रहे होते हैं, उन्हें शायद ज्यादा लोगों ने नोटिस नहीं किया होगा। जॉन अब्राहम की स्टोरी में ड्रग्स से होने वाली कमजोरी से उनका ढीला पड़ा शरीर देख पाना आश्चर्य था। कैरेक्टर के लिए बॉडी में इतना बदलाव अच्छा लगा। विवान अपनी पहली फिल्म में किसी मंझे हुए एक्टर से लगते हैं। नसीर परिवार का एक और नगीना हैं वो। अन्नू कपूर को 'तेजाब’ और 'जमाई राजा’ जैसी फिल्मों के छोटे मगर सदाबहार रोल के बाद यहां कीमत लाल बने देखना लाजबाव रहा। वो एक अलग ही किस्म के आम इंसान लगते हैं। मिसाल के तौर पर सुजैना के साथ रात बिताने के बाद उनका थैंक्यू बोलने का तरीका और बाद में एक सीन में फफक-फफककर उससे शादी करने की गुहार लगाने को लिया जा सकता है। रूसी एक्टर अलेक्जांद्र और नसीरुद्दीन शाह की भी ठीक-ठाक मूमिका है। प्रियंका की बात करें तो आखिर की तीन कहानियों के दौरान उनके चेहरे के बदलाव में उम्र आगे-पीछे लगने लगती है। पहली तीन कहानियों में उनसे सहानुभूति होती है, बाद की तीन में वो विलेन लगती हैं।

कहानियों का कैलेंडर
ये फिल्म चूंकि सुजैना की लंबी जिंदगी के कई हिस्से दिखाती है ऐसे में कहानी किस साल में कही जा रही है, ये दिखाना जरूरी था। फिल्म में आउटडोर लोकेशन या पब्लिक प्लेसेज वाले सीन तो हैं नहीं, ऐसे में डायरेक्टर विशाल भारद्वाज ने कैलेंडर बना दिया भारत में हो रही तब की राजनीतिक, सामाजिक और दूसरी घटनाओं को। सबसे पहले दिखती है दूरदर्शन के प्रोग्रैम कृषि दर्शन की झलकी। उसके बाद आता है टी-सीरिज और वो दौर जब फिल्मी गानों की ट्यून पर माता के भजन गाए जाते थे। छोटे-बड़े रूप में बर्लिन की दीवार, वी पी सिंह की सरकार, बप्पीदा का गान, बाबरी विध्वंस और कश्मीर में प्रदर्शन करते पत्थरबाज लड़कों का जिक्र दिखाया जाता है। देख तो दिल के जान से उठता है... में मेंहदी हसन और गुलाम अली के रेफरेंस हल्के ही सही नजर आते है। रेफरेंस की छोटी-छोटी कई बातें आती रहती हैं। कुडानकुलम न्यूक्लियर प्रोजैक्ट का जिक्र है। सुजैना के चौथे पति निकोलाइ के मुंह से ही हमें पता चलता है कि उनकी कहानी के दौर में भारत न्यूक्लियर ताकत बनने में रूस की मदद ले रहा है। फिल्म में एंटोल फ्रैंस के नॉवेल 'द सेवन वाइव्ज ऑफ ब्लूबर्ड’ और नॉवेल अन्ना कुरेनिना की कॉपी दिखती हैं। सबसे लेटेस्ट टाइम में हम पहुंचते हैं छठवी कहानी में जब रेडियो पर मुंबई के होटल ताज और ट्राइडैंट पर आतंकवादी हमले की खबर आती है। संदीप उन्नीकृष्णन के शहीद होने की खबर सुनाई जाती है।

तवे से उतरे ताजा डायलॉग
नसीरुद्दीन शाह के बेटे विवान बने हैं अरुण कुमार। अरुण पूरी फिल्म में सूत्रधार हैं। सुजैना की कहानी बताते हैं। इनका कैरेक्टर्स से मिलवाने का तरीका बड़ा सहज और ह्यूमर की टोन वाला है। वॉयसओवर में ताजगी है। वसीउल्ला से मिलवाते वक्त ये कहना... वसीउल्ला अपनी शायरी में जितना नाजुक और रूहानी है... प्यार में उतना ही बीमार या फिर निकोलाइ से सुजैना की शादी के वक्त कहना... इंडिया का न्यूक्लियर टेस्ट सफल रहा और हिरोशिमा हुआ मेरा दिल। दो विस्फोट हुए। एक तो साहेब (प्रियंका) की शादी और दूसरा मैं मॉस्को रवाना हो गया।... दोनों ही डायलॉग के दौरान विवान अलग किस्म के कम्फर्टेबल एक्टर लगते हैं। इनकी आवाज से ये पुख्ता होता रहता है। मेजर रॉड्रिग्स बने नील सुजैना से कहते हैं, तितली बनना बंद करो, यू आर ए मैरिड वूमन तो फिल्म को यूं ही खारिज करना मुश्किल हो जाता है। ये डायलॉग गहरे अर्थों वाले हैं। इनमें चुटीला व्यंग्य हैं, जैसे कि ये डायलॉग.. यही होता है मियां, जल्दी-जल्दी शादी करो और फिर आराम-आराम से पछताओ। फिल्म की सीधी आलोचना करना शायद इसलिए भी मुश्किल है कि फिल्म के कई पहलुओं पर खासा अच्छा काम किया गया है।

मलीना देखी है...
डायरेक्टर गायसिपी टॉरनेटॉर की 2000 में आई इटैलियन फिल्म 'मलीना’ में मलीना (मोनिका बेलुची) भी कुछ ऐसी ही औरत होती हैं, जिसपर पास के एक लड़के का क्रश होता है। उस फिल्म में वो कारण स्पष्ट होते हैं जिनकी वजह से 12 साल का रेनेटो मलीना के प्रति फिल्म के आखिर तक आकर्षित रहता है। 'सात खून माफ’ में अरूण (विवान) सुजैना पर मोहित क्यों होता है इसका सिर्फ एक ही लॉजिक दिया जाता है। वो ये कि उसे नौकरों वाली जिंदगी से निकालकर सुजैना पढ़ने-लिखने स्कूल भेजती है। एक लड़के के एक बड़ी उम्र की औरत पर इस तरह फिदा होने की विश्वसनीय कहानी तो 'मलीना’ ही है 'सात खून माफ नहीं।‘

आखिर में...
आदमखोर शेर या पैंथर को पकडऩे की कहानियां सिर्फ 'सत्यकथा’ में ही पढ़ी थीं। हिंदी मूवीज में ऐसा काफी कम देखने को मिलता है। पैंथर पकड़ने के लिए बकरी बंधी है और मेजर रॉड्रिग्स सुजैना के साथ ऊंची मचान पर बैठे हैं। ऐसे कई अलग-अलग रंग सुखद हैं। (प्रकाशित)
गजेंद्र सिंह भाटी

Saturday, February 12, 2011

काहलों फैमिली से एक परिचय कर ही लें

फिल्मः पटियाला हाउस
डायरेक्टरः निखिल अडवाणी
कास्टः अक्षय कुमार, अनुष्का शर्मा, ऋषि कपूर, डिंपल कपाड़िया, टीनू आनंद, फराज खान, हार्ड कौर, सोनी राजदान, अरमान किरमानी, रैबिट सेक सी, जेनेवा तलवार, नासिर हुसैन, एंड्र्यू साइमंड्स
स्टारः ढाई 2.5

'पटियाला हाउस’ एकबारगी का ठीक-ठाक मनोरंजन है। ऋषि कपूर 'दो दूनी चार’ में संतोष दुग्गल देसाई के रूप में इम्प्रैस करने के बाद यहां बाउजी के मजबूत रोल में हैं, तो डिंपल कपाडिय़ा 'दबंग’ बाद फिर पति का साथ देने वाली मां के रोल में दिख रही हैं। 'बैंड बाजा बारात’ की श्रुति कक्कड़ बनना अनुष्का शर्मा के करियर की सबसे सुनहरी घटना थी, दूसरी ऐसी घटना है 'पटियाला हाउस।‘ अक्षय कुमार को कुछ हद तक अपने जीवन की 'स्वदेश’ मिल गई है। याद रखिएगा पूरी तरह नहीं। फ्रेंड्स, फैमिली, फिलॉसफी या अकेले.. किसी भी मूड के साथ 'पटियाला हाउस’ देखने जा सकते हैं, आपके पैसे जाया नहीं जाएंगे। चूंकि अच्छी फिल्ममेकिंग और नए किस्म के एंटरटेनमेंट का तकाजा है इसलिए मैं इसे खास फिल्म नहीं मान सकता। ग्रेटर लंदन में रहने वाले थियेटर एक्टर फराज खान पुनीत सिंह कहलों के रोल में बाकियों से अलग दिखते हैं, इसलिए खास जिक्र।

पता पटियाला हाउस काः स्टोरी
कहानी गुरतेज सिंह काहलों (ऋषि कपूर) की है। इन्हें घर पर सब बाउजी कहते हैं। 20 साल पहले सीनियर एडवोकेट लीडर सैनी साब (प्रेम चोपड़ा) को बेदर्दी से कत्ल कर दिए जाने के बाद से ही बाउजी ब्रिटिश कौम से नफरत करने लगे। उन्होंने लंदन के साउथहॉल में अपनी इंडियन कम्युनिटी को मजबूत बनाया, उनके लिए जेल गए, उनके अधिकारों के लिए लड़े। एक दिन पूरी कम्युनिटी के सामने कह दिया कि उनका फास्ट बॉलर बेटा परगट (अक्षय कुमार) इंग्लैंड के लिए क्रिकेट नहीं खेलेगा। अगले 17 साल तक परगट उर्फ गट्टू सिर झुकाए अपने बाउजी के वचनों का पालन करता है। मां (डिंपल कपाड़िया) भी अपने पति के आगे चुप है पर बेटे के दबे सपनों को खूब समझती है, जानती है कि वह आज भी रोज रात छिपकर बॉलिंग प्रैक्टिस करने जाता है। पड़ोस में रहती है सिमरन (अनुष्का शर्मा), जो 'शोले’ की बसंती जैसी चुलबुली और प्यारी है। वो परगट की जिंदगी में सपने फिर से जगाने की कोशिश करती है। इसी का हिस्सा बनते हैं बेदी साब (टीनू आनंद) भी। इस कहानी में पटियाला हाउस फैमिली से जुड़े बाकी मेंबर कोमल, जसमीत, हिमान, जसकिरण, अमन, डॉली, पुनीत, रनबीर और प्रीति हैं। इनमें से किसी का ड्रीम शेफ-रैपर-फिल्ममेकर या डिजाइनर बनने का है तो कोई इसाई बॉयफ्रेंड से शादी करना चाहती है। ये सब चुप हैं क्योंकि गट्टू चुप है। अब गट्टू को बाउजी के हुकुम और अपने सपने के बीच एक को चुनना है। क्लाइमैक्स का अंदाजा लगाना ज्यादा मुश्किल नहीं है। बाकी आप मालिक।

कितने अलग हैं परगट
पिछली दर्जनों फिल्मों की तरह 'पटियाला हाउस’ भी अक्षय कुमार की कोई नई इमेज नहीं गढ़ पाती है। जिन क्रिकेटिंग शॉट्स पर अक्षय के कैरेक्टर का अलग होना टिका था, उनमें परफेक्शन की खासी कमी दिखती है। हालांकि कुछ बॉलिंग वाले सीन में एनिमेशन के इस्तेमाल से काम चल जाता है। मगर इस क्रिकेट तत्व वाली फिल्म से 'लगान’ वाले रियल टच की उम्मीद करना बेकार है। हल्के-फुल्के ड्रामा वाले मनोरंजन के साथ चूंकि ये मूवी बेहतरीन होने की महत्वाकांक्षा भी नहीं रखती इसलिए हमें भी इस पर कोई बात नहीं ही रखनी चाहिए। फिर भी स्पोर्ट्स का हिस्सा कहानी में जहां भी आएगा, इसकी तुलना हमेशा दूसरी खेल वाली फिल्मों से होगी ही। जैसे 1992 में मंसूर खान की बनाई 'जो जीता वही सिंकदर।‘ खेल के साथ परिवार, कॉलेज लाइफ और प्रेम जैसे तत्वों से मिलकर बनी ये हिंदी फिल्म इस श्रेणी में आज भी शीर्ष पर बनी हुई है। हालांकि इस फिल्म का संजय लाल शर्मा (आमिर खान) और 'पटियाला हाउस’ का परगट सिंह काहलों कई मायनों में अलग हैं, पर खेल खेलने या न खेलने का पैशन, बीच में पिता के साथ गैप भरा रिश्ता, एक चाहने वाली फ्रेंड-कम-लवली सी गर्लफ्रेंड, कुछ यंग दोस्त-रिश्तेदार और क्लाइमैक्स में जीत पर टिकी सबकी आंखें.. जैसी बातें दोनों फिल्मों को जोड़ती हैं।

इंडिया से दूर परदेस
अब अगर लंदन, साउथहॉल, नस्लभेद, एशियाई कम्युनिटी और खेल के पैशन वाले नायकों वाली कहानी की बात करें तो 'दन दना दन गोल’ सबसे करीबी नाम है। विवेक अग्निहोत्री ने कुछ अंग्रेजी फिल्में लीं और कुछ जॉन अब्राहम, अरशद वारसी, बोमन इरानी लिए.. और डायरेक्ट कर दी 'दन दना दन गोल।‘ ऐसे में करण जौहर को 'कुछ कुछ होता है’ में असिस्ट कर चुके निखिल अडवाणी के लिए कोई मुश्किल नहीं थी। उन्होंने और अन्विता दत्त गुप्ता ने मिलकर एक ठीक-ठाक स्क्रीनप्ले लिख दिया। बाकी काम फिल्म विधा में मौजूद चालाकी कर देती है। जिन स्पोर्ट्स फिल्मों का मैंने जिक्र किया है, उनसे कुछ अलग इसमें मिल पाता है तो वो है अक्षय कुमार का अंडरडॉग वाला कैरेक्टर। अपने बाउजी के सामने हाथ बांधे खड़े रहने वाले और घर में सब छोटे भाई-बहनों के ताने सुनने वाले इस नॉन-वॉयलेंट कैरेक्टर को उन्होंने अपनी एक्टिंग क्षमताओं के साथ पूरी ईमानदारी से निभाया है। कुछ सीन में वो अपनी सारी कमियों को पीछे छोड़ देते हैं। बताना चाहूंगा कि सुबह-सुबह साउथहॉल की सड़कों-गलियों से चुपचाप अपनी शॉप की ओर बढ़ता परगट 'दिलवाले दुल्हनिया ले जाएंगे’ के बाउजी (अमरीश पुरी) वाली सिनेमैटिक एनआरआई यादें दे जाता है। ऐसा हो भी क्यों न सुबह के हल्के कोहरे में, बादलों के बीच, देस से दूर लंदन की सड़कों से गुजरने वाले, कबूतरों को दाना डालने वाले अमरीश पुरी ही तो पहले थे न, उसमें भी गोरों के खिलाफ गुस्सा और पंजाब की संस्कृति से अनहद प्यार करने वाला सरदारी तेवर वहीं से आया है। इससे पहले के जुड़ाव ढूंढने के लिए मनोज कुमार की फिल्मों के नाम लिए जा सकते हैं।

असल खिलाड़ियों की एक्टिंग
अंग्रेजी फिल्म 'गोल-द ड्रीम बिगिन्स’ के सांतियागो मुनेज (कूनो बेकर) वाली बात अक्षय में यहां नहीं आ पाती है। 2005 में आई डायरेक्टर डैनी कैनन की इस फिल्म को फीफा का पूरा सपोर्ट था इसलिए असल खिलाड़ी पूरे दो घंटे फिल्म में दिखते रहे। 'पटियाला हाउस’ में कुछ छितरे हुए से खाली बैठे प्लेयर ले लिए गए हैं। जिन ऑस्ट्रेलिया और इंग्लैंड के क्रिकेटर्स को रोल प्ले करने के लिए चुना गया उनमें सिर्फ इंग्लैंड की क्रिकेट टीम के कप्तान रह चुके नासिर हुसैन ही फिल्म का हिस्सा लगते हैं। एंड्रयू साइमंड्स परगट सिंह के प्रतिद्वंदी के तौर पर दो-तीन बार मूवी में आते हैं, पर न जाने क्यों वो फिल्म का हिस्सा नहीं बन पाते हैं। इंग्लैंड क्रिकेट चयन बोर्ड की मीटिंग वाले सीन और भी असरदार हो सकते थे। अगर ऐसी स्पोर्ट्स-फैमिली ड्रामा मूवीज में इन बोर्ड मीटिंग्स और खिलाड़ियों के प्रैक्टिस सैशन वाले सीन कुछ गंभीरता से लिखे-फिल्माए जाएं तो औसत होते हुए भी फिल्म की एंटरटेनमेंट वैल्यू 'चक दे’ इंडिया सरीखी हो सकती है। कुछ-कुछ 'लगान’ जैसी भी।

ब्रीफ में बड़ी बातें
अनुष्का के कैरेक्टर का परगट सिंह को आई लव यू बोलना और जाते-जाते पीछे से परगट का लव यू टू बोलना सुनकर लौटकर आना और गुदगुदी करते हुए-गले लगते हुए पूछना कि तुमने भी कहा न, तुमने भी कहा... फ्रैश आइडिया लगता है। अनुष्का के जिस चुलबुलेपन की मैं बात कर रहा था, वो इसमें देख सकते हैं। तुंबा-तुंबा तुड़क गया... और लॉन्ग दा लिश्कारा... दोनों ही (सदाबहार तो नहीं पर) खूबसूरत गाने हैं। हार्ड कौर, सोनी राजदान और टीनू आनंद का फिल्म में उतना इस्तेमाल नहीं किया गया जितना किया जा सकता था। शुरू के दस मिनट फिल्म का फ्लैवर ही कुछ और (रोचक और अच्छा) होता है। उस वक्त बाउजी के यंग-सीरियस और समझदार कैरेक्टर में कोई और एक्टर होता है और वॉयसओवर होता है ऋषि कपूर का। ये भी ठीक ही प्रयोग है, कम से कम कैरेक्टर्स के एज गैप के बाद उनकी शक्लें स्वीकार न भी हो तो आवाज तो एक रहे। शुरू में किन हालात ने बाउजी (ऋषि) को बदलकर इतना सख्त और निरंकुश बना दिया, देखना इंट्रेस्ट जगाता है। फिल्म में मीडियोक्रिटी शब्द का इस्तेमाल किया गया है। मुझे एतराज है। इसे ऐसे ही नहीं मान लेना चाहिए। आप फिल्म एनआरआई ऑडियंस को प्राथमिकता में रखते हुए बनाते हैं, लेकिन नसों में खास किस्म का विचार या विचारधारा इंजेक्ट करते हैं इंडिया के महानगरों और कस्बों में भी। जो गलत है। जब तक इस पर सार्वजनिक बहस पूरी न हो, आपको फिल्मी माध्यम का इस्तेमाल कुछ बेपरवाही से नहीं करना चाहिए। जाहिर है, मीडियोक्रिटी शब्द के पीछे अपने तर्क पुख्ता करने के लिए निखिल अडवाणी ने लॉजिकल सीन और डायलॉग प्रायोजित करने की कोशिश तो की ही है। खैर, इस पर खूब बात होनी चाहिए।

आखिर में...
मुझे सबसे अच्छा लगा फिल्म में अक्षय के कैरेक्टर का नाम... परगट सिंह काहलों। ऐसे जमीनी ठसक वाले नाम गुडी-गुडी फिल्मों के चक्कर में जैसे गायब ही हो गए थे। सरदारों के नाम बस मजाक में ही इस्तेमाल करने के लिए गढ़े जाने लगे। परगट सिंह काहलों छाछ और दही पिया हुआ नाम लगता है। दूसरी अच्छी बात अनुष्का-अक्षय की कैमिस्ट्री। तीसरी ऋषि की परफॉर्मेंस और डिंपल की साथ उनकी जोड़ी। (प्रकाशित)
गजेंद्र सिंह भाटी

Sunday, February 6, 2011

अफसोस! नाम जैसा ऊट-पटांग कुछ नहीं

फिल्मः ऊट पटांग
डायरेक्टरः
श्रीकांत वी. वेलागलेती
कास्टः सौरभ शुक्ला, विनय पाठक, संजय मिश्रा, माही गिल, मोना सिंह, बृजेंद्र काला
स्टारः 2

विनय पाठक की फिल्म-एक्टर के तौर पर जो कैटेगरी बनी है, उसमें उन्हें 'भेजा फ्राई’, 'दसविदानिया’, 'खोसला का घोंसला’ और 'मनोरमा सिक्स फीट अंडर’ जैसी फिल्मों के किरदारों से जोड़कर देखा जाता है। ऐसे में 'ऊट पटांगका आना एक बड़ी निराशा है। राम और लकी के दोहरे रोल में वो किसी सीमित एक्टिंग वाले टीवी सोप के एक्टर से भी बुरे लगते हैं। फिल्म में सबसे ज्यादा परेशान करती हैं मोना सिंह। या तो डायरेक्टर श्रीकांत उनके कैरेक्टर को सही से पेश नहीं कर पाए या फिर अब मान लेना चाहिए कि मोना बहुत ओवररेटेड एक्ट्रेस हैं। माही गिल हमेशा की तरह एक लाउड से रोल में हैं। 'ऊट पटांग’ में ठंडी हवा का झौंका बनकर आते हैं संजय मिश्रा और सौरभ शुक्ला। फिल्म को देखना ही चाहते हैं तो ये मान कर जाएं कि कोई मिनी टेलीविजन सीरिज देखने जा रहे हैं, वरना 'मिथ्या’, 'ओ माई गॉड’ या 'भेजा फ्राई’ में से कोई भी फिल्म डीवीडी पर देख लें, बेहतर रहेगा।

कहानी का क
कथा शुरू होती है एक रेस्टोरेंट-कम-बार से जहां राम (विनय पाठक) और उसका प्राइवेट डिटेक्टिव दोस्त नंदू उर्फ नंदन पांडे (सौरभ शुक्ला) बैठकर बातें कर रहे हैं। वेटर को सस्ते वाला पानी और बर्गर ऑर्डर कर रहे हैं। राम का अपनी गर्लफ्रेंड संजना (माही गिल) से ब्रेकअप हो गया है। वहां उन्हें मिलती है गुमसुम सी बैठी कोयल (मोना सिंह), वह अपना घर छोड़ आई है। क्यों? कहां से? कब? ये कहानी में नहीं बताया जाता। संजना राम को छोड़ एक फ्रेंच हैंगओवर वाले डॉन लकी (विनय पाठक) के पास चली गई थी, पर अब उसे भी छोड़ उसके ढाई करोड़ रुपए लेकर भागना चाह रही है। लकी की बीवी (डेलनाज पॉल) दुबई में है। अपने डॉन पिता (गोविंद नामदेव) को बिना बताए वह मुंबई में फ्लैट खरीदने के लिए पांच करोड़ रुपए लकी को भेजती है। अब इस लफड़े में कहानी आगे बढ़ती है। कहानी कहने और प्रस्तुत करने का तरीका ही फिल्म को स्पेशल बनाता है। जैसा कि छोटे बजट वाली स्मार्ट फिल्मों के साथ होता है, क्लाइमैक्स तक ये स्टोरी भी देखने लायक बनी रहती है।

पिंक पैंथर का फिक्सेशन
मुझे लगता है कि फिल्म की योजना बनाते वक्त डायरेक्टर श्रीकांत वेलाग्लेती ने विनय पाठक को पिंक पैंथर के अंदाज में बड़ा एक्साइटिंग पाया होगा। पर इसमें करना क्या पड़ता है, आपसे कुछ इनोवेटिव होते नहीं बनता तो वैसी काली हैट, मूछें, फ्रेंच एक्सेंट और हाव-भाव तक फिक्स मिल जाते हैं। बस पिंक पैंथर सीरिज वाली फिल्में लीजिए और जैक्स क्लूजों बने स्टीव मार्टिन का अनुसरण कर लीजिए। इसलिए यहां विनय भी अपनी तरफ से कुछ अलग नहीं जोड़ पाते हैं। हालांकि प्रेरणा के लिए हमारे पास जगदीप जैसे ऑरिजिनल सोर्स हैं, जिन्होंने अपने एक्सप्रेशन खुद डिवेलप किए हैं। राम के रोल में विनय को झेलना बड़ा मुश्किल है। स्लोद नाम के सुस्त जानवर की तरह उनकी एक्टिंग चुभती रहती है।

राहत के पल
फिल्म में खुशी होती है संजय मिश्रा को देखकर। वो लकी के गैंग के मैंबर हैं। एक सीन में नंदू लकी के ऑफिस में पैसों वाला बैग चुपके से रखने जाता है। पूछने पर संजय से कहता है वो पिज्जा डिलीवरी बॉय है और फ्री डिलीवरी देने आया है। हमने हिंदी फिल्मों में ऐसे बाहर से सख्त और होशियार होने का दिखावा करते भोले कैरेक्टर बहुत देखे हैं। 'शोले’ के जेलर असरानी से लेकर 'तू चोर मैं सिपाही’ के कमिश्नर अनुपम खेर तक सब ऐसे ही होते हैं। बृजेंद्र काला भी हमेशा ऐसे ही रोल में दिखते हैं पर यहां वो कॉमिकल नहीं होते हुए भी कॉमिकल लगते हैं। सौरभ शुक्ला उस सीन को इंगेजिंग बनाते हैं जहां वो संजना बनी माही को कहते हैं कि दाई से पेट नहीं छुपाते। उनका रेफरेंस संजना के बीते कल से होता है। फिल्म की स्टोरी के भीतर कैरेक्टर्स और घटनाओं का प्रेजेंटेशन ही ऐसी बात है जो इस फिल्म को बुरी फिल्म की कैटेगरी में जाने से बचा लेता है।

आखिर में...
मुरली शर्मा और गोविंद नामदेव फिल्म के आखिर में एक-एक सीन के लिए आते हैं। उनको इससे पहले भी फिल्म में शामिल किया जा सकता था। ‘ऊट पटांग’ शुरू में जितनी बोरिंग है, आखिर तक आते-आते कुछ देखने लायक बन जाती है। (प्रकाशित)
गजेंद्र सिंह भाटी

Saturday, February 5, 2011

बुलेट और इश्क में मिला मनोरंजन

फिल्मः ये साली जिंदगी
डायरेक्टरः सुधीर मिश्रा
कास्टः इरफान खान, अरुणोदय सिंह, सौरभ शुक्ला, अदिति राव हैदरी, चित्रागंदा सिंह, यशपाल शर्मा, प्रशांत नारायणन, सुशांत सिंह, विपिन शुक्ला, विपुल गुप्ता
डायलॉगः मनु ऋषि और सुधीर मिश्रा
स्टारः 3.5

सुधीर मिश्रा की ये फिल्म अच्छी मिसाल है इस बात की कि ग्रे शेड्स में कभी 'कमीने’ जैसी फिल्म बनाना चाहें, तो आप उसे सौ फीसदी एंटरटेनिंग भी रख सकते हैं। फिल्म के क्रेडिट 'सिन सिटी’ और 'जेम्स बॉन्ड’ मूवीज के अंदाज में स्कैची से आते हैं। छूटते ही सौरभ शुक्ला की जबान में ठेठ हरियाणवी डायलॉग आ लगता है... रे घुस गी ना पुराणी दिल्ली अंदर और आ गे ना प्रैण भार (प्राण बाहर)... यहां जो सिनेमा शुरू होता है वो आखिर तक बांधे रखता है। फिल्म में बहुत बार हिंदी के कर्स वर्ड इस्तेमाल हुए हैं। हालांकि ये रेग्युलर और फनी लगते हैं, बाकी फैमिली के साथ जाना न जाना अपनी पसंद पर है। बेस्ट ऑप्शन है अपने फ्रेंड्स के साथ जाना। काफी दिन बाद कोई रिपीट वेल्यू वाली फिल्म आई है जिसे आप दूसरी और तीसरी बार देख सकते हैं। सौरभ शुक्ला, इरफान, अरुणोदय, अदिति, यशपाल शर्मा और किडनैपिंग गैंग के मेंबर्स खासे याद रहेंगे।

ये साली... क्या है कहानी?
अरुण (इरफान खान) को गोली लगी है, प्रीति (चित्रागंदा सिंह) उसे थामे है। यहीं से अरुण फ्लैशबैक में अपनी कहानी में हमें ले जाता है। पेशे से सीए अरुण अपने दोस्त और दुश्मन मेहता (सौरभ शुक्ला) की फर्म में ब्लैक-वाइट मनी इधर-उधर करता है। इस काम में उसका कोई मुकाबला नहीं। जब से सिंगर प्रीति से मिला है धंधे पर असर पड़ रहा है। उधर तिहाड़ में बंद है कुलदीप सिंह चौधरी (अरुणोदय सिंह), अपनी बीवी शांति (अदिति राव हैदरी) से बहुत प्यार करता है, पर शांति को कुलदीप का धंधा पसंद नहीं। वह बड़े (यशपाल शर्मा) के साथ काम करता है। जेल में बंद बड़े का रूस में बैठा सौतेला भाई छोटे (प्रशांत नारायणन) बड़े के खातों की डिटेल लेने के बाद उसे मारने का प्लैन बना रहा है। आगे की कहानी मैं नहीं बताउंगा। इतना बता देता हूं कि प्रीति कैबिनेट मिनिस्टर वर्मा के होने वाले दामाद श्याम सिंघानिया (विपुल गुप्ता) से प्यार करती है। बड़े को जेल से छुड़ाने के लिए श्याम को किडनैप होना है। बस इतना ही। मूवी देखने जाएं तो ये कहानी भूल जाएं। नए सिरे से देखें। ढेर सारे कैरेक्टर हैं, पर ढेर सारे एंटरटेनमेंट के साथ।

कच्ची कैरी, अरुणोदय अदिति
अरुणोदय हिंदी फिल्मों के उन बाकी भारी डील-डौल वाले लड़कों की तरह नहीं हैं, जो मेट्रोसेक्सुअल तो दिखते हैं, पर रोल के मुताबिक ऑर्डिनरी नहीं लग पाते। पर अरुणोदय यहां खुद में ठेठपन लेकर आते हैं। फिल्म में बीवी शांति से बार-बार थप्पड़ खाते हैं, और अपने पत्थर जैसे चेहरे पर अपनी रूठी बीवी को तुरंत मनाने का भाव ले आते हैं। अरुणोदय के जेल वाले इंट्रोडक्टरी सीन देखिए। यहां वो इतने बलवान शरीर के होने के बावजूद एक आम कैदी की तरह डरे-डरे और रियलिस्टिक से रहते हैं। इस फिल्म के साथ वो इंडस्ट्री के कई नए लड़कों से आगे निकले हैं। इसमें सुधीर के उन्हें प्रस्तुत करने के तरीके को भी श्रेय जाता है। अदिति दिल्ली की चाल-ढाल वाली लड़की लगती हैं। एक ऐसे बच्चे की मां भी लगती हैं जिसका पिता जेल में है और सब जिम्मेदारी का बोझ उसी पर है। वो जब गुस्से में कुलदीप को साला कुत्ता कमीना... बोलती हैं तो उनके एक्सप्रैशन ओवरएक्टिंग नहीं लगते। चेहरे पर मुस्कान ले आते हैं। सिर्फ इस कपल की स्टोरी देखने के लिए ही मैं फिल्म दो बार और देख सकता हूं। जब भी दोनों फ्रेम में आते हैं तो फिल्म में कच्ची कैरी का सा स्वाद और खूबसूरती घुल जाती है। ये कपल झगड़ते हुए भी इतना रोमैंटिक लगता है, कि शादी से पहले के प्यार की गर्लफ्रेंड-बॉयफ्रेंड वाली कोई फिल्म नहीं लगी है। हम नए जमाने के 'राजों' और 'सिमरनों' से खुद को कनेक्ट शायद न कर पाएं, पर शांति और कुलदीप से कर पाते हैं।

अब हिंदी के एफ वर्ड
फिल्म में कर्स वर्ड और आम बोलचाल वाली गालियां खूब हैं। पर ये थोपी हुई नहीं लगतीं। इस बार सुधीर मिश्रा की फिल्म का एक मुख्य कैरेक्टर ये फाउल लेंग्वेज है। ज्यादातर वक्त पर परिस्थितियों के हिसाब से खुद-ब-खुद सामने आते बुरे शब्द हंसाते हैं। संभावना यही है कि फैमिली के साथ देखने आई ऑडियंस को ये पसंद नहीं आए, पर हिंदी बोलने-समझने वाली यंग ऑडियंस को सब बहुत नेचरल और मजेदार लगेगा। फिल्म की कहानी ही हरियाणा-दिल्ली के बीच डोलती है इसलिए वहां की बसों, गलियों, रोड़ों, फॉर्म हाउसों और मॉन्युमेंटों, सब जगह देसी एफ-सी-जी-एम-बी वर्ड घुले हैं। इस वजह से फाउल लेंग्वेज की ज्यादा शिकायत नहीं कर सकता। वैसे इन शब्दों का फिल्मों में न होना तो हमेशा ही स्वस्थ रहता है।

मोटा मोटी बातें
एक सीन में दूसरा सीन पूरी तरह गुंथा हुआ है, कहीं भी कट या एडिटिंग में खामी नहीं दिखती। किसी सिचुएशन में जो भी अपने आप मुंह में आ जाए वही सुधीर और मनु ऋषि के डायलॉग बन गए हैं। मनु ने ही दिबाकर बेनर्जी की 'ओए लक्की लक्की ओए’ के डायलॉग लिखे थे। आपने उन्हें मजेदार कॉमेडी 'फंस गए रे ओबामा’ में अन्नी के रोल में देखा होगा। 'ये साली जिंदगी’ की हाइलाइट है दिल्ली-हरियाणा की टोन और ठेठ देसी गालियां.. जो कैरेक्टर्स की एक-एक सांस के साथ बाहर निकलती रहती हैं। इंटरवल से पहले किडनैपिंग के प्रोसेस में फिल्म थोड़ी धीमी लगने लगती है, पर हर दूसरा-तीसरा डायलॉग गुदगुदी चालू रखता है। जब गाड़ियां छतरपुर के फार्म हाउसों और हरियाणा बॉर्डर की कच्ची सड़कों पर धूल उड़ाती चलती हैं तो पृष्ठभूमि में चल रहा सारारारारा.. गाना अलग ही असर पैदा करता चलता है।

कुछ कैरेक्टर अलग से
फ्लैशबैक में इरफान अपनी कहानी सबसे आसानी से सुनाते हैं। चाहे फिल्म का शुरुआती सीन हो जब मेहता के आदमी उन्हें बालकनी से लटका देते हैं या फिर क्लाइमैक्स से पहले कुलदीप से करोलबाग का पता बताकर बात करने का सीन, इरफान अपनी 'प्यार में साली हो गई जिंदगी’ वाला शेड बरकरार रखते हैं। वो एक परफैक्ट फिक्सर-सीए लगते हैं और बार-बार लगते हैं। चित्रागंदा ने अपने रोल में कोई कसर नहीं छोड़ी है, पर जो तल्खी और अभिनय-रस अदिति के कैरेक्टर को मिलते हैं उनके कैरेक्टर को नहीं मिलते। कुछ मूमेंट खास हैं फिल्म में। इंस्पेक्टर सतबीर बने सुशांत सिंह का पहले-पहल बावळी बूच.. कहने का अंदाज। बड़े के रोल में यशपाल शर्मा का कुलदीप से कहना क्या हुआ? डर लग रहा है? अबे जान ही तो जाएगी ना, पर कर्जा तो उतर जाएगा ना। इन पलों के अलावा पूरी की पूरी किडनैपिंग गैंग एक विस्तृत कैरेक्टर है। इसमें कोई प्योर हरियाणवी लोकगीत गाता है, तो कोई खास लहजे में अंग्रेजी बोलता है। सब फिल्मों के लिहाज से बिल्कुल ताजा लगता है।

आखिर में...
अरुणोदय का अपने बेटे के स्कूल जाना और प्रिंसिपल की शिकायत पर कि इसने दूसरे बच्चे को मारा उससे पूछना कि क्यों मारा? बड़ा इंट्रेस्टिंग सीन है। बच्चा कुछ-कुछ ऐसे जवाब देता है मेरी खोपड़ी घूम जाती है फिर मुझे कुछ दिखता नहीं है। बस दे घपा घपा.. बोलते वक्त बच्चे का हाव भाव और पिता अरुणोदय को उसमें दिखता अपना अक्स कुछ असहज जरूर लगे पर कमाल है। यहां अगर सुधीर इस सीन को न भी लाते तो उनसे कोई पूछने नहीं आता। मगर यहीं पर आकर, ऐसे ही एंटरटेनिंग पलों से ये साली जिंदगी बाकी क्राइम-थ्रिल-लव वाली स्टोरीज से अलग हो जाती है। (प्रकाशित)
गजेंद्र सिंह भाटी