Showing posts with label Arunodaya Singh. Show all posts
Showing posts with label Arunodaya Singh. Show all posts

Sunday, August 5, 2012

क्यों सनी, पूजा और महेश भट्ट हमें उत्प्रेरित नहीं कर पाते!

फिल्म: जिस्म-2
निर्देशक: पूजा भट्ट
कास्ट: रणदीप हुड्डा, सनी लियोनी, अरुणोदय सिंह
स्टार: एक, 1.0
आगे कहानी के कुछ अंश का खुलासा भी है, ये ध्यान रखते हुए ही पढ़ें...
सेंसर और बाकी कैंचियों के बाद ‘जिस्म-2’ की विषय-वस्तु उतनी वयस्क नहीं रह गई है, जितनी किसी को उम्मीद हो सकती है। फिल्म में एक भी असहज करने वाला या रौंगटे खड़े करने वाला या यौन सुख देने वाला दृश्य नहीं है। हिसाब से ‘ए’ सर्टिफिकेट भी नहीं बनता... अगर मां-बहन की दो गालियों, मुख्य दृश्यों में सनी के अल्प वस्त्रों, पांच-छह स्मूच और नग्न पीठ पर तेल मसाज करने के एक दृश्य को छोड़ दें तो। अब फिल्म में एडल्ट भाव इतना ही रह जाता है कि सनी लियोनी नाम की इंडो-कैनेडियन पॉर्नस्टार एक हिंदी फिल्म में पहली बार नजर आ रही हैं (हालांकि दर्शकों को ये भूलकर सनी को वैसे ही देखना चाहिए जैसे उन्होंने ‘जन्नत-2’ में ईशा गुप्ता का या फिर ‘रॉकस्टार’ में नरगिस फाकरी को देखा था)। और यही भाव स्क्रिप्ट राइटर महेश भट्ट और निर्देशक पूजा भट्ट के लिए ‘जिस्म-2’ को बनाने का सबसे बड़ा उत्प्रेरक रहा। उन्हें लोगों की नसों में भी बस यही उत्प्रेरक भरकर काम चलाना था।

मगर हम उत्प्रेरित नहीं हुए। इसी जिस्मानी विषय वस्तु से चल रहा भट्ट निर्माण उद्योग ‘जिस्म-2’ को ‘जन्नत-2’, ‘राज’ और ‘मर्डर-2’ जितना अच्छा भी नहीं बना पाता। सिंगल स्क्रीन के दर्शकों को भी खुश नहीं कर पाया। दर्शक देखते हुए अपनी सीट पर ऊंघने लगते हैं, या फिर वो सनी की डबिंग, आंहों, कपड़ों और किसिंग दृश्यों की मजाक उड़ाते हैं। जाहिर है फिल्म एंगेज कर पाती तो दर्शक पूरे अनुशासन के साथ देखते। महज चार कलाकारों (सनी, अरुणोदय, रणदीप, आरिफ जकारिया) और एक आलीशान फार्महाउस की लोकेशन के भरोसे एक महात्वाकांक्षी कहानी को खींचने की कोशिश की जाती है। इसके अलावा फिल्म को जिन तत्वों का सहारा होता है वो हैं सनी लियोनी की देह, महेश भट्ट की लिखी कहानी और स्क्रिप्ट, शगुफ्ता रफीक के काव्यात्मक संवाद और यंग म्यूजिक डायरेक्टर अर्को मुखर्जी के गाने। अफसोस ये सब बैल बनकर भी फिल्म को खींच नहीं पाते। खैर, इन पर जाने से पहले आते हैं कहानी पर।

इज्ना (सनी) के पास इंटेलिजेंस ऑफिसर अयान (अरुणोदय) और उसके सीनियर गुरु (आरिफ जकारिया) मदद के लिए आते हैं। वह कबीर (रणदीप हुड्डा) नाम के बड़े अपराधी को पकडऩा चाहते हैं। उनके मुताबिक कबीर पहले उन्हीं के साथ काम करता था पर अब एक दुर्दांत हत्यारा बन चुका है और उसका नेटवर्क देश के लिए बहुत बड़ा खतरा है। वह इज्ना के पास इसलिए आए हैं क्योंकि एक वही है जो कबीर के सबसे करीब पहुंच सकती है और उसकी हार्ड ड्राइव में बंद गुप्त जानकारियां ला सकती है। क्योंकि एक वक्त (पांच-छह साल पहले) में इज्ना और कबीर एक-दूसरे के बेपनाह प्यार करते थे। इज्ना और अयान के बीच भी कुछ-कुछ प्यार जैसा है ये कहानी में महसूस होने लगता है। इज्ना इस मिशन का हिस्सा इसलिए नहीं बनना चाहती क्योंकि वह कबीर को बड़ी मुश्किल से भुला पाई है (जो बिना बताए एक रात उसे छोड़कर चला गया), दूसरा वो बहुत बड़ा हत्यारा है। खैर, वह मिशन का हिस्सा बनती है और कबीर के करीब जाती है। लेकिन यहीं से उलझने और प्यार की धक्का-मुक्की चालू हो जाती है। कबीर नहीं चाहता कि उसकी वजह से इज्ना को कोई तकलीफ हो और जिस जिंदगी को वह अभी जी रहा है उसमें इज्ना को सिर्फ दुख ही मिलेगा। कहानी में बस यही कहानी है। आखिर में जो जैसा है वो वैसा नहीं निकलता ये एक सरप्राइज करने वाली चीज है, पर इसे असरदार तरीके से प्रस्तुत नहीं किया जाता।

बात कलाकारों की। कहानी में अरुणोदय इंटेलिजेंस ऑफिसर बने हैं पर उनके हाव-भाव वैसे नहीं हैं। वह ज्यादा से ज्यादा इतना कर पाते हैं कि बीच-बीच में आरिफ जकारिया को सर (यस सर) कहते हुए सावधान की मुद्रा में खड़े हो जाते हैं। या फिर रोने लगते हैं, या फिर चिल्लाने लगते हैं, या फिर सहनशीलता की प्रतिमूर्ति बनकर सबकुछ सहन करते रहते हैं। अरुणोदय की जबान बहुत साफ है। अंग्रेजी का एक्सेंट भी और खालिस हिंदी-उर्दू जबान भी। पर किरदार में ब्यौरे और बारीकियों की काफी कमी है। उन्हें अपने किरदार की पृष्ठभूमि और अनोखे हावभाव की अध्ययन करना चाहिए था। अरुणोदय ने अयान के किरदार को अपनी तरफ से कुछ नहीं दिया है, बस उसे औसत बनाकर छोड़ दिया है, जो हिंदी सिनेमा की डिजिटल रीलों में कहीं न कहीं दबा रह जाएगा।

सनी लियोनी ने जिंदगी भर महज एक इमोशन देते हुए तमाम फिल्में की हैं। ऊंची-ऊंची गर्म आंहें। यहां भी पहले सीन से लेकर आखिर तक वह बस सांसों से ही एक्सप्रेशन देती हैं। पहले सीन में जब आरिफ और अरुणोदय के किरदार उनसे कबीर के बारे में बातें कर रहे होते हैं, तो तकरीबन पांच-छह मिनट से भी लंबे इस सीन में सनी असमंजस भरे चेहरे के साथ लंबी-लंबी सांसें लेती रहती हैं और बिखरे हाव-भाव दिखाती रहती हैं। उनका वॉयसओवर जिसने भी किया है, उसी अनुशासन से किया है जैसे कटरीना कैफ या नरगिस फाकरी का किया जाता रहा है। स्वर में कोई भाव नहीं निकलता। सबकुछ सपाट है।

रणदीप हुड्डा को आने वाले वक्त में बहुत फिल्में मिलने वाली हैं। क्योंकि उन्हें लगातार गंभीर, शारीरिक तौर पर हीरोइक से लगने वाले और एंग्री एटिट्यूड वाले रोल मिल रहे हैं। ‘रिस्क’, ‘जन्नत-2’, ‘साहिब बीवी और गैंगस्टर’ और ‘जिस्म-2’ के उदाहरण सामने हैं। वह कैजुअल टी-शर्ट पहनते हैं, जिसमें उनका चौड़ा ग्रीक देवताओं जैसा सीना और इमपरफेक्शन वाले परफेक्ट डोले दिखते रहते हैं। उनकी हल्की दाढ़ी-मूछें और साइड से खाली गाल और सिर पर कम बाल उन्हें रफ लुक देते हैं। मगर इस फिल्म के लिए उन्हें न जाने क्या ब्रीफ किया गया था कि सबकुछ व्यर्थ जाता है। फिल्म में उनके रोल को सहारा देने वाले कोई तथ्य और घटनाएं ही नहीं हैं।
इज्ना से उनके प्यार की मन में जो भी भावनाएं हैं, लोगों को नहीं पता चल पाती क्योंकि सबकुछ एब्सट्रैक्ट लगता है। जब इज्ना उनका दरवाजा खटखटाती है तो (दोनों छह-सात साल बाद एक-दूजे को देख रहे हैं) एक पल देखे बगैर वह मुंह पर दरवाजा बंद कर देते हैं। क्लाइमैक्स में उन्हें उनकी किताबों (नोम चोमस्की) वाली विचारधारा का दिखाया जाता है, पर जिसे देश और देश के असली दुश्मन अफसरों के खात्मे की इतनी चिंता है उसके रहने का मिजाज समझ नहीं आता। एक आलीशान फार्महाउस में कबीर रह रहा है, स्विट्जरलैंड में उसके अकाउंट में कभी न खत्म होने वाला पैसा है, वह हथियार बनाने वाली लॉबी से भिड़ रहा है पर फार्महाउस का इंटीरियर खास डिजाइन किया गया है। इसके एक विहंगम नीले रंग वाले अनोखे रोशनीदार कमरे में बैठकर वह सूफी अंदाज में डबल बास बजाते रहते हैं, दूसरे कमरे के इंटीरियर में लाल रंग प्रॉमिनेंट है। मुझे नहीं पता था कि देश के दुश्मनों से लडऩा और सिस्टम के खिलाफ क्रांति का बिुगल बजाना इतना वैभव भरा भी हो सकता है। जब ऐसी खामियां उभरती हैं तो तथाकथित एडल्ट ड्रामा मूवी बनाने की फिल्मकारों की मंशा पर संदेह होता है।

महेश भट्ट ने ‘जिस्म-2’ को ‘लास्ट टैंगो इन पैरिस’ का इंडियन जवाब बताया था। मगर न जाने उन्होंने कैसे मर्लन ब्रांडो और मारिया श्नाइडर के अभिनय की बराबरी रणदीप और सनी से कर दी। बड़बोलेपन से बड़ी फिल्में नहीं बनती, कथ्यात्मक और सिनेमैटिक होने से बनती हैं। उनकी स्क्रिप्ट में कुछ भी नहीं है। किरदारों के उठाव और ब्यौरे पर काम करने की बजाय उन्होंने बस इधर-उधर इम्प्रेस करने की कोशिश की है। जैसे, रणदीप का गुरुदत्त के जमाने का एक ब्लैक एंड वाइट गाना बजाना, या फिर अरुणोदय का सनी के किरदार को बारबरा टेलर ब्रेडफोर्ड का नॉवेल ‘प्लेइंग द गेम’ देना। जाहिर है इन दो-तीन तितरे-बितरे इनपुट से कोई मूवी कल्ट नहीं हो जाती।

व्यावहारिक तौर पर भी ये मूर्खतापूर्ण लगता है कि इतनी रेंज की बातें (वॉर लॉबी, विरोध, सिस्टम के खिलाफ व्यक्तिगत जंग, प्यार, जिस्म, जासूसी, लैपटॉप में बंद इनफॉर्मेशन, पॉर्नमूवीस्टार और भी बहुत कुछ) की जाती है, पर फिल्म सिर्फ एक फार्महाउस में पूरी कर ली जाती है। कबीर के इज्ना को छोड़कर जाने के बाद छह-सात साल उसने क्या किया? कैसे लड़ाई लड़ी? कैसे साथी बनाए? किस-किस को मारा? इज्ना को कितना याद रखा-कितना नहीं? उसका मकसद क्या है? उसने जुटाई इनफॉर्मेशन किसे सौंपने का प्लैन बनाया है? और ये फार्महाउस कहां से पाया है?... ये डीटेलिंग कहां है? महेश हमें किसी भी किरदार की कोई आदत नहीं बताते। कमजोरी नहीं बताते। हां, इतना कि अरुणोदय का किरदार इज्ना को चाहता है पर कह नहीं पाता, वह अपने गुरु का विरोध नहीं कर पाता। शुरू में इतना भरोसा करता है कि इज्ना को कबीर के करीब जाने को मनाता है पर फिर शक करने लगता है। हां, ऐसा असल जिंदगी में होता है, पर तर्क कहां है? सबकुछ एब्स्ट्रैक्ट क्यों है?

अगर महेश की नजर में ये सब ‘लास्ट टैंगों इन पैरिस’ की बराबरी है तो, ऐसा नहीं है। बस उन्होंने स्क्रिप्ट में कुछ समानताएं देखकर ये बात की है। मसलन, लंबे वक्त बात दो लोगों का फिर से मिलना और कैजुअल से-क्-स करना, फिर किसी का किसी को मार देना। जाहिर है ये वो महेश भट्ट नहीं हैं जिन्होंने ‘जख्म’ या ‘दुश्मन’ जैसी फिल्में (‘सारांश’ और ‘अर्थ’ का नाम तो ले ही नहीं रहा) लिखी थीं।

इतने के बाद एक दृश्य का जिक्र करना चाहूंगा जो शायद फिल्म में महेश ने इरादतन नहीं रखा हो पर इस तरीके से भी देखा जा सकता है...
रणदीप के एंट्री सीन में होटल के ऊपर से पटाखे (रॉकेट) आसमान में जा रहे हैं रोशनियां बिखेरते हुए फूट रहे हैं। पृष्ठभूमि में आवाज आ रही है रेगिस्तान में मंडराती चील सी। चीं... चीं...। कमतरी से ही सही इस आवाज का यहां अच्छा असर होता है। कबीर के बारे में अब तक फिल्म में एक बड़ा हत्यारा (पॉलिटिकल किलर) होने की हवा बनाई गई है, उसे कुछ-कुछ रहस्यमयी बताया गया है। इर्द-गिर्द भय का जो आवरण बनाना था उसमें ये चीं चीं वाली चील की आवाज असरदार और सांकेतिक लगती है। मगर तब तक फिल्म फ्लैशबैक में जा चुकी होती है जहां वह एक ईमानदार ऑफिसर हुआ करता था।

अब शगुफ्ता रफीक के डायलॉग। वह बहुत काव्यात्मक लिखती हैं। उनकी बातें ज्यादा ही कवियों-शायरों जैसी है। जाहिर है जब किरदार अपने मॉडर्न मुंह से ऐसे चालीस साल पुराने मुशायरों-बैठकों वाले एहसास की बातें बोलते हैं तो कुछ बेमेल सा लगता है। कुछ अतार्किक और संप्रेषणहीन लगता है। हालांकि चार-पांच डायलॉग ऐसे हैं जिनकी तारीफ कर सकते हैं।
मसलन, जब कबीर के लिए इज्ना खून से लिखा खत और गुलदस्ता लेकर आती है। खत पढ़ते हुए कबीर कहता है, ये क्या है? तुमने ऐसा क्यों किया? तो इज्ना कहती है...
सिर्फ एक ही शिकायत है अपने खून से,
कि ये मेरे एहसास जितना गहरा नहीं है...

इन्हीं के बीच बात आगे बढ़ती है... तो एक कहता है
ये इश्क नहीं पागलपन है
जवाब आता है,
जो पागल न कर दे वो इश्क ही क्या

एक सीन में कबीर ब्लैक एंड वाइट जमाने का एक गाना बजा रहा होता है तो इज्ना चौंकती है...
तो कबीर कहता है
पुराने गाने अच्छे लगते हैं मुझे,
हम सब अपना चलता-फिरता अतीत ही तो हैं...

एक मौके पर कबीर कहता है,
मौसम गुजर जाते हैं याद नहीं गुजरती

शुरू में अपनी प्रेम कहानी का जिक्र करते हुए इज्ना कहती है,
और एक दिन वो चला ही गया
छोड़ गया अपनी खुशबू
मेरे तन पे, मेरे कपड़ों पे

कुछ संवाद ऐसे भी हैं जो सैंकड़ों बार सुने-सुनाए जा चुके हैं, मसलन
और भी गम है जमाने में मोहब्बत से सिवा

फिल्म में सिर्फ म्यूजिक ऐसी चीज है जिसे आलोचना के दायरे से बाहर रखा जा सकता है। इस फिल्म को नए लड़के अर्को मुखर्जी (इनके नाम के आगे डॉ. की उपाधि भी लगी है) के कंपोज किए गाने ही संभालते हैं। ‘इश्क भी किया रे मौला…’ मजबूत गाना है, रसभरा है, इमोशन भरा है। इसके साथ ‘ये जिस्म है तो क्या’ भी पाकिस्तानी गायक अली अजमत ने गाया है। ‘ये कसूर मेरा है कि यकीन किया है, दिल तेरी ही खातिर रख छोड़ दिया है’ सोनू कक्कड़ ने गाया है। उनकी आवाज सपाट नहीं है, कई लहरों-परतों वाली है, इतनी कि सनी को गाने के वक्त खूबसूरत बनाती है। जब गाना शुरू होता है तो आप पहचानने की कोशिश करते हो कि ये कौन सी सिंगर है, पहले इसे कभी नहीं सुना।

पूजा भट्ट के निर्देशन में ही ऊपर के सारे तत्व कहीं न कहीं मिल जाते हैं। यानी अगर कहीं कुछ कसर रही तो जिम्मेदारी उन्हीं की बनती है। जैसे समझने के लिए, अगर मणिरत्नम या सुधीर मिश्रा अरुणोदय और सनी को लेकर कोई फिल्म बनाते तो दोनों एक्टर्स की लाइफ का बेस्ट काम होता। जैसे अगर इसी कहानी पर तिग्मांशु धूलिया फिल्म का निर्देशन करते तो स्वरूप ही कुछ और होता, जैसा ‘साहिब बीवी और गैंगस्टर’ का था। क्योंकि तिग्मांशु की उस फिल्म में भी कोई बड़े एक्टर नहीं थे, उसे भी खींचा तो बस तिग्मांशु की स्क्रिप्ट ने, डायलॉग ने और उनके निर्देशन ने। इसी लिहाज से पूजा बुरी निर्देशक साबित होती है।
उनकी नजरों से बची दो खामियां देखिए...
  • मौला... गाने में रणदीप की लिप सिंक। पहली लाइन गाने की वह सही से लिप सिंक करते हैं.. दूसरी लाइन में उनके होठ नहीं हिलते और कहीं से गाना बजता रहता है, तीसरी लाइन में फिर से रणदीप लिप सिंक करने लगते हैं। गाना खत्म होने तक ये गलती चलती रहती है। कभी लगता है हीरो गाना गा रहा है, कभी लगता है कि कहीं बज रहा है।
  • एक सीन में रणदीप घर का ताला खोलने के लिए चाबी का गुच्छा निकालते ही हैं कि सीढिय़ों के नीचे खड़ी सनी आहट देती है... वह रिवॉल्वर निकाल लेता है... फिर उससे बात करता है, वह कहती है यहीं बात करोगे.. तो वह अंदर आने के लिए कहते हुए दरवाजे को धक्का देता है.... यानी पता नहीं चल पाता कि ताला कब खुला। क्योंकि सीन तो बिना टूटे चल रहा है।
 हिंदी सिनेमा की हाल ही में आई बहुत सी दूसरी बचकानी फिल्मों में से एक ‘जिस्म-2’ भी रही है। अगर फिल्म में सनी लियोनी नहीं भी होती तो भी ये उतनी ही बुरी होती।
*** *** ***
गजेंद्र सिंह भाटी

Saturday, February 5, 2011

बुलेट और इश्क में मिला मनोरंजन

फिल्मः ये साली जिंदगी
डायरेक्टरः सुधीर मिश्रा
कास्टः इरफान खान, अरुणोदय सिंह, सौरभ शुक्ला, अदिति राव हैदरी, चित्रागंदा सिंह, यशपाल शर्मा, प्रशांत नारायणन, सुशांत सिंह, विपिन शुक्ला, विपुल गुप्ता
डायलॉगः मनु ऋषि और सुधीर मिश्रा
स्टारः 3.5

सुधीर मिश्रा की ये फिल्म अच्छी मिसाल है इस बात की कि ग्रे शेड्स में कभी 'कमीने’ जैसी फिल्म बनाना चाहें, तो आप उसे सौ फीसदी एंटरटेनिंग भी रख सकते हैं। फिल्म के क्रेडिट 'सिन सिटी’ और 'जेम्स बॉन्ड’ मूवीज के अंदाज में स्कैची से आते हैं। छूटते ही सौरभ शुक्ला की जबान में ठेठ हरियाणवी डायलॉग आ लगता है... रे घुस गी ना पुराणी दिल्ली अंदर और आ गे ना प्रैण भार (प्राण बाहर)... यहां जो सिनेमा शुरू होता है वो आखिर तक बांधे रखता है। फिल्म में बहुत बार हिंदी के कर्स वर्ड इस्तेमाल हुए हैं। हालांकि ये रेग्युलर और फनी लगते हैं, बाकी फैमिली के साथ जाना न जाना अपनी पसंद पर है। बेस्ट ऑप्शन है अपने फ्रेंड्स के साथ जाना। काफी दिन बाद कोई रिपीट वेल्यू वाली फिल्म आई है जिसे आप दूसरी और तीसरी बार देख सकते हैं। सौरभ शुक्ला, इरफान, अरुणोदय, अदिति, यशपाल शर्मा और किडनैपिंग गैंग के मेंबर्स खासे याद रहेंगे।

ये साली... क्या है कहानी?
अरुण (इरफान खान) को गोली लगी है, प्रीति (चित्रागंदा सिंह) उसे थामे है। यहीं से अरुण फ्लैशबैक में अपनी कहानी में हमें ले जाता है। पेशे से सीए अरुण अपने दोस्त और दुश्मन मेहता (सौरभ शुक्ला) की फर्म में ब्लैक-वाइट मनी इधर-उधर करता है। इस काम में उसका कोई मुकाबला नहीं। जब से सिंगर प्रीति से मिला है धंधे पर असर पड़ रहा है। उधर तिहाड़ में बंद है कुलदीप सिंह चौधरी (अरुणोदय सिंह), अपनी बीवी शांति (अदिति राव हैदरी) से बहुत प्यार करता है, पर शांति को कुलदीप का धंधा पसंद नहीं। वह बड़े (यशपाल शर्मा) के साथ काम करता है। जेल में बंद बड़े का रूस में बैठा सौतेला भाई छोटे (प्रशांत नारायणन) बड़े के खातों की डिटेल लेने के बाद उसे मारने का प्लैन बना रहा है। आगे की कहानी मैं नहीं बताउंगा। इतना बता देता हूं कि प्रीति कैबिनेट मिनिस्टर वर्मा के होने वाले दामाद श्याम सिंघानिया (विपुल गुप्ता) से प्यार करती है। बड़े को जेल से छुड़ाने के लिए श्याम को किडनैप होना है। बस इतना ही। मूवी देखने जाएं तो ये कहानी भूल जाएं। नए सिरे से देखें। ढेर सारे कैरेक्टर हैं, पर ढेर सारे एंटरटेनमेंट के साथ।

कच्ची कैरी, अरुणोदय अदिति
अरुणोदय हिंदी फिल्मों के उन बाकी भारी डील-डौल वाले लड़कों की तरह नहीं हैं, जो मेट्रोसेक्सुअल तो दिखते हैं, पर रोल के मुताबिक ऑर्डिनरी नहीं लग पाते। पर अरुणोदय यहां खुद में ठेठपन लेकर आते हैं। फिल्म में बीवी शांति से बार-बार थप्पड़ खाते हैं, और अपने पत्थर जैसे चेहरे पर अपनी रूठी बीवी को तुरंत मनाने का भाव ले आते हैं। अरुणोदय के जेल वाले इंट्रोडक्टरी सीन देखिए। यहां वो इतने बलवान शरीर के होने के बावजूद एक आम कैदी की तरह डरे-डरे और रियलिस्टिक से रहते हैं। इस फिल्म के साथ वो इंडस्ट्री के कई नए लड़कों से आगे निकले हैं। इसमें सुधीर के उन्हें प्रस्तुत करने के तरीके को भी श्रेय जाता है। अदिति दिल्ली की चाल-ढाल वाली लड़की लगती हैं। एक ऐसे बच्चे की मां भी लगती हैं जिसका पिता जेल में है और सब जिम्मेदारी का बोझ उसी पर है। वो जब गुस्से में कुलदीप को साला कुत्ता कमीना... बोलती हैं तो उनके एक्सप्रैशन ओवरएक्टिंग नहीं लगते। चेहरे पर मुस्कान ले आते हैं। सिर्फ इस कपल की स्टोरी देखने के लिए ही मैं फिल्म दो बार और देख सकता हूं। जब भी दोनों फ्रेम में आते हैं तो फिल्म में कच्ची कैरी का सा स्वाद और खूबसूरती घुल जाती है। ये कपल झगड़ते हुए भी इतना रोमैंटिक लगता है, कि शादी से पहले के प्यार की गर्लफ्रेंड-बॉयफ्रेंड वाली कोई फिल्म नहीं लगी है। हम नए जमाने के 'राजों' और 'सिमरनों' से खुद को कनेक्ट शायद न कर पाएं, पर शांति और कुलदीप से कर पाते हैं।

अब हिंदी के एफ वर्ड
फिल्म में कर्स वर्ड और आम बोलचाल वाली गालियां खूब हैं। पर ये थोपी हुई नहीं लगतीं। इस बार सुधीर मिश्रा की फिल्म का एक मुख्य कैरेक्टर ये फाउल लेंग्वेज है। ज्यादातर वक्त पर परिस्थितियों के हिसाब से खुद-ब-खुद सामने आते बुरे शब्द हंसाते हैं। संभावना यही है कि फैमिली के साथ देखने आई ऑडियंस को ये पसंद नहीं आए, पर हिंदी बोलने-समझने वाली यंग ऑडियंस को सब बहुत नेचरल और मजेदार लगेगा। फिल्म की कहानी ही हरियाणा-दिल्ली के बीच डोलती है इसलिए वहां की बसों, गलियों, रोड़ों, फॉर्म हाउसों और मॉन्युमेंटों, सब जगह देसी एफ-सी-जी-एम-बी वर्ड घुले हैं। इस वजह से फाउल लेंग्वेज की ज्यादा शिकायत नहीं कर सकता। वैसे इन शब्दों का फिल्मों में न होना तो हमेशा ही स्वस्थ रहता है।

मोटा मोटी बातें
एक सीन में दूसरा सीन पूरी तरह गुंथा हुआ है, कहीं भी कट या एडिटिंग में खामी नहीं दिखती। किसी सिचुएशन में जो भी अपने आप मुंह में आ जाए वही सुधीर और मनु ऋषि के डायलॉग बन गए हैं। मनु ने ही दिबाकर बेनर्जी की 'ओए लक्की लक्की ओए’ के डायलॉग लिखे थे। आपने उन्हें मजेदार कॉमेडी 'फंस गए रे ओबामा’ में अन्नी के रोल में देखा होगा। 'ये साली जिंदगी’ की हाइलाइट है दिल्ली-हरियाणा की टोन और ठेठ देसी गालियां.. जो कैरेक्टर्स की एक-एक सांस के साथ बाहर निकलती रहती हैं। इंटरवल से पहले किडनैपिंग के प्रोसेस में फिल्म थोड़ी धीमी लगने लगती है, पर हर दूसरा-तीसरा डायलॉग गुदगुदी चालू रखता है। जब गाड़ियां छतरपुर के फार्म हाउसों और हरियाणा बॉर्डर की कच्ची सड़कों पर धूल उड़ाती चलती हैं तो पृष्ठभूमि में चल रहा सारारारारा.. गाना अलग ही असर पैदा करता चलता है।

कुछ कैरेक्टर अलग से
फ्लैशबैक में इरफान अपनी कहानी सबसे आसानी से सुनाते हैं। चाहे फिल्म का शुरुआती सीन हो जब मेहता के आदमी उन्हें बालकनी से लटका देते हैं या फिर क्लाइमैक्स से पहले कुलदीप से करोलबाग का पता बताकर बात करने का सीन, इरफान अपनी 'प्यार में साली हो गई जिंदगी’ वाला शेड बरकरार रखते हैं। वो एक परफैक्ट फिक्सर-सीए लगते हैं और बार-बार लगते हैं। चित्रागंदा ने अपने रोल में कोई कसर नहीं छोड़ी है, पर जो तल्खी और अभिनय-रस अदिति के कैरेक्टर को मिलते हैं उनके कैरेक्टर को नहीं मिलते। कुछ मूमेंट खास हैं फिल्म में। इंस्पेक्टर सतबीर बने सुशांत सिंह का पहले-पहल बावळी बूच.. कहने का अंदाज। बड़े के रोल में यशपाल शर्मा का कुलदीप से कहना क्या हुआ? डर लग रहा है? अबे जान ही तो जाएगी ना, पर कर्जा तो उतर जाएगा ना। इन पलों के अलावा पूरी की पूरी किडनैपिंग गैंग एक विस्तृत कैरेक्टर है। इसमें कोई प्योर हरियाणवी लोकगीत गाता है, तो कोई खास लहजे में अंग्रेजी बोलता है। सब फिल्मों के लिहाज से बिल्कुल ताजा लगता है।

आखिर में...
अरुणोदय का अपने बेटे के स्कूल जाना और प्रिंसिपल की शिकायत पर कि इसने दूसरे बच्चे को मारा उससे पूछना कि क्यों मारा? बड़ा इंट्रेस्टिंग सीन है। बच्चा कुछ-कुछ ऐसे जवाब देता है मेरी खोपड़ी घूम जाती है फिर मुझे कुछ दिखता नहीं है। बस दे घपा घपा.. बोलते वक्त बच्चे का हाव भाव और पिता अरुणोदय को उसमें दिखता अपना अक्स कुछ असहज जरूर लगे पर कमाल है। यहां अगर सुधीर इस सीन को न भी लाते तो उनसे कोई पूछने नहीं आता। मगर यहीं पर आकर, ऐसे ही एंटरटेनिंग पलों से ये साली जिंदगी बाकी क्राइम-थ्रिल-लव वाली स्टोरीज से अलग हो जाती है। (प्रकाशित)
गजेंद्र सिंह भाटी