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Friday, June 14, 2013

श्लोक शर्मा की ‘हिडन क्रिकेट’ : खेल जो करप्ट नहीं हुआ

 5 Short Films on Modern India 

विदेश मंत्रालय, गूगल, वायाकॉम 18 और अनुराग कश्यप की फिल्म निर्माण कंपनी ने मिलकर “इंडिया इज... अ विजुअल जर्नी” विषय पर पांच शॉर्ट फ़िल्में बनाई हैं। मौजूदा भारत के विभिन्न पहलुओं को दिखाती और नए विमर्शों की बयार लाती ये फ़िल्में हैं अनुभूति कश्यप की ‘मोइ मरजाणी’, श्लोक शर्मा की ‘हिडन क्रिकेट’, नीरज घैवन की ‘द एपिफनी’, वासन बाला की ‘गीक आउट’ और गीतांजलि राव की ‘चाय’। पांचों फिल्में यूट्यूब पर उपलब्ध हैं।

 



श्लोक शर्मा का अब तक का काम आगे के लिए उम्मीदें जगाता है। उनकी शॉर्ट फिल्म ‘सुजाता’ को ही लें। एक ऐसी लड़की की कहानी जिसकी जिंदगी में बहुत छटपटाहट है। मजबूरी है कि रिश्तेदारों के यहां रहना पड़ता है। रिश्ते में लगता उसका एक भाई है। उसका बड़ा डर है। बचने के लिए वह पते बदलती है, पहचान बदलती है लेकिन कहीं से मदद नहीं मिलती। अंततः वह चीजें अपने हाथ में लेती है। 2011 में बनी ‘सुजाता’ में मुख्य भूमिका हुमा कुरैशी ने निभाई है। इसके अलावा श्लोक की दो शॉर्ट फिल्में दो साल पहले आ चुकी हैं। ‘द जॉय ऑफ गिविंग’ और ‘ट्यूबलाइट का चांद’। देखकर सुख मिलता है। उनकी ‘हिडन क्रिकेट’ इस साल बनाई गई पांचों शॉर्ट फिल्मों में सबसे छोटी है, कोई साढ़े तीन मिनट की। हम बहुत बार ये पंक्ति दुहराते हैं कि भारत में क्रिकेट एक धर्म है, हिडन क्रिकेट एक नास्तिक के नथुनों में उड़कर आता वो लोबान का धुँआ है जो उसी ऊपरवाले के लिए सुलगाया गया है। ये क्रिकेट स्टेडियम में खेला जाने वाला नहीं है, पार्कों में खेला जाने वाला नहीं है और ये खेला जाने वाला है ही नहीं, ये गलियों, दुकानों, झरोखों, सड़कों, मुहानों और जमानों में बिना दिखे बहने वाला है।

 मुंबई में रह रहे श्लोक ने सबसे पहले 2004 में आई विशाल भारद्वाज की फिल्म ‘द ब्लू अम्ब्रेला’ में बतौर प्रोडक्शन असिस्टेंट काम किया था। विशाल की ही फिल्म ‘ओमकारा’ और एड्स विषय पर बनी शॉर्ट फिल्म ‘ब्लड ब्रदर्स’ में वह असिस्टेंट डायरेक्टर रहे। इसके बाद उन्होंने अनुराग कश्यप के साथ ‘नो स्मोकिंग’, ‘दैट गर्ल इन यैलो बूट्स’, ‘देव डी’ और ‘गैंग्स ऑफ वासेपुर’ में निर्देशन और निर्माण के अलग-अलग स्तरों पर काम किया। सिनेमा के सौ साल पूरे होने के उपलक्ष्य में इस साल बनाई गई ‘बॉम्बे टॉकीज’ में वह सहयोगी निर्देशक रहे। नवाजुद्दीन सिद्दीकी को लेकर वह अपनी पहली फीचर फ़िल्म ‘हरामखोर’ की शूटिंग पूरी कर चुके हैं। अभी पोस्ट-प्रोडक्शन किया जा रहा है। उनसे ‘हिडन क्रिकेट’ पर यह संक्षिप्त बातचीत हुई।

कहां जन्मे, पले-बढ़े और पढ़े?
नई दिल्ली से हूं। परवरिश मध्य प्रदेश के बिलासपुर और मुंबई के सायन क्षेत्र में हुई। ज्यादातर बचपन और लड़कपन सायन में ही बीता और यहीं से अपनी पढ़ाई भी पूरी की।

Shlok Sharma
हिडन क्रिकेट नाम क्यों रखा?
क्योंकि यह क्रिकेट आपको आम क्रिकेट की तरह दिखता नहीं है। इसे खेलते वक्त एक मैदान, यूनिफॉर्म पहने खिलाड़ी, एक बल्ला और गेंद, इनमें से किसी भी चीज की जरूरत नहीं पड़ती। हिडन क्रिकेट हमारी रोजमर्रा की जिंदगी का हिस्सा है जिसे हम लोग बड़ी आसानी से नजरअंदाज कर जाते हैं।

कहानी जेहन से अस्तित्व में कैसे आई?
मेरे जेहन में 3 साल पहले ही आ गई थी लेकिन सही वक्त नहीं मिल पा रहा था। फिर ये प्रोजेक्ट आया तो गूगल और गुनीत मोंगा (निर्माता) के सौजन्य से यह विचार हकीकत में बदला।

गेंद बल्ला कहानी है... गाने के बोल पर अंतिम राय कैसे बनी और म्यूजिक कैसा चाहते थे?
इसके गीतकार वरुण ग्रोवर और संगीतकार विशाल खुराना अत्यंत प्रतिभाशाली हैं। फ़िल्म के म्यूजिक के संदर्भ में हमने सोच रखा था कि हिंदुस्तान का ध्यान फ़िल्म की ओर खींचना है। साथ ही उन लोगों का परिचय क्रिकेट के जुनून से करवाना है जिन्हें इस खेल में ज्यादा दिलचस्पी नहीं हैं। यहीं से शुरुआत हुई। आगे गाने के बोल और फ़िल्म के संगीत का पूरा श्रेय वरुण और विशाल को है।

शूटिंग कहां और किस कैमरा से की? क्रू कितना बड़ा था और कितने दिन लगे?
ज्यादातर शूटिंग पटियाला के आसपास की है। फिल्मांकन में कोई 3 दिन लगे। हमने रेड एपिक (Red Epic) पर शूट किया एक बहुत ही छोटे क्रू के साथ। जितने कम लोग, उतनी ज्यादा फुर्ती और उतनी ही कम गड़बड़ी।

शूटिंग के दौरान चुनौतियां क्या रहीं?
वही जो हर शूट पर होती हैं। गर्मी और भीड़। हमने सड़कों और बिल्डिंगों पर भाग-भाग कर शूट किया। मगर हमारी टीम ने इन सारी चुनौतियों को आधा कर दिया था। उनका तहेदिल से शुक्रगुज़ार हूं।

बाकी शॉर्ट फ़िल्मों में ‘हिडन क्रिकेट’ ही है जो सबसे छोटी 3 मिनट की है, ऐसा क्यों?
मुझे जो भी कहना था उसके लिए इतना वक्त काफी था। इससे लंबी होती तो खींची हुई महसूस होती।

छोटी फ़िल्म में भी बहुत प्रयास लगता है, उस प्रयास के लिए हिम्मत कैसे मिलती है?
किसी भी कलाकार को अपने आप को पेश करने के लिए हिम्मत नहीं, एक दृष्टी, एक जिद्द, एक जूनून और जूनून को प्रोत्साहित करने वाली टीम की जरूरत होती है। बाकी सब तो अपने आप हो जाता है।

इससे पहले क्या कर चुके हैं?
इससे पहले कुछ शॉर्ट फ़िल्में बनाईं। उनमें से कुछ ने अन्तरराष्ट्रीय फ़िल्म समारोहों में पुरस्कार भी जीते। अनुराग कश्यप की ‘गैंग्स और वासेपुर’ में सेकेंड यूनिट डायरेक्टर था। अब अपनी पहली फ़िल्म ‘हरामखोर’ के पोस्ट-प्रोडक्शन में व्यस्त हूं। साथ में अगली स्क्रिप्ट का लेखन भी चल रहा है।

आपको कैसे विषय लुभाते हैं?
मुझे सबसे ज्यादा दिलचस्प इंसान और उनकी मनोवृत्ति लगती है। इंसानों का स्वभाव अत्यंत अप्रत्याशित होता है। यह मुझे बहुत लुभाता है। मैं अपने बचपन से भी बहुत ज्यादा प्रभावित हूं और मुझे लगता है की इन दोनों का प्रभाव मेरी फ़िल्मों में झलकता है।

विश्व और भारत में सबसे पसंदीदा फ़िल्मकार कौन हैं? क्यों?
सच पूछिये तो मैंने ज्यादा फ़िल्में देखी नहीं हैं मगर इस इंडस्ट्री में आने के पहले मुझे विशाल जी (भरद्वाज) और गुलज़ार सर ने काफी प्रभावित किया है। खासकर विशाल जी की ‘मक़बूल’ और गुलज़ार साब की ‘माचिस’, ‘हु तू तू’ और ‘आंधी’ मुझे खासतौर पर याद हैं। इन सब में इंसानी प्रवृति का विस्तृत वर्णन और संवेदनशील प्रस्तुति, मुझे इतने साल बाद भी हूबहू याद है।

क्या फिलॉसफी पढ़ते हैं? किसकी ने संतुष्ट किया है?
फिलॉसफी तो नहीं पढ़ी मगर इतना मालूम है कि जिस दिन संतुष्ट हो गया, उस दिन रुक जाऊंगा और जिस दिन रुक गया, उस दिन मेरा कौतुहल और चाह खत्म हो जाएगी। और भला बिना चाह के कौन जीता है?

फ़िल्मकार मन में क्या सोच तांडव किया करती है?
वही अंर्तद्वंद जो किसी भी इंसान के मन में चलता है, बस उसे पेश करने के नज़रिए में फर्क होता है।

Shlok Sharma is an Indian filmmaker. He started working as a production assistant on Vishal Bhardwaj’s ‘The Blue Umbrella’ in 2004. He was an assistant director on ‘Omkara’ and ‘Blood Brothers’, both directed by Vishal. He has worked with Anuraag Kashyap on ‘No Smoking’, ‘Dev D’, ‘That Girl in Yellow Boots’, ‘Gangs of Wasseypur’ and ‘Bombay Talkies.’ In 2010 he made three short films ‘The Joy of Giving’, ‘Cut it’ and ‘Tubelight Ka Chaand’. Next year he made another short ‘Sujata.’ Now he has come up with ‘Hidden Cricket.’ He has finished shooting his first feature film ‘Haraamkhor’ with Nawazuddin Siddiqui. Post production of the film is on.
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Saturday, February 19, 2011

इस खून की माफी नहीं मिलेगी

फिल्मः सात खून माफ
निर्देशकः
विशाल भारद्वाज
कास्टः प्रियंका चोपड़ा, विवान शाह, नील नितिन मुकेश, जॉन अब्राहम, इरफान खान, अन्नू कपूर, अलेक्जांद्र दाइशेंको, नसीरुद्दीन शाह, उषा उत्थुप, हरीश खन्ना, शशि मालवीय, कोंकणा सेन शर्मा, मास्टर अयूष टंडन, रस्किन बॉन्ड
स्टारः ढाई 2.5

लिफ्ट में उन फनलविंग यंग दोस्तों में एक मैं ही अजनबी था। 'सात खून माफ’ देखने के दौरान हर सीरियस सीन का उन्होंने मजाक उड़ाया और अब वापिस जा रहे थे। कैसी फिल्म है, इसे उन्हीं की भाषा में कहें तो ...सिर भारी हो गया, यार कुछ समझ ही नहीं आया। हां ये कुछ ऐसी ही मूवी है। विशाल भारद्वाज उन फिल्म मेकर्स में से हैं जो हिंदी फिल्मों के एक कोने में बैठे अपनी ही तरह की फिल्में बना रहे हैं। इनमें कुछ लिट्रेचर होता है, तो कुछ वर्ल्ड सिनेमा। उनकी मूवीज दर्शकों के लिए एक्सपेरिमेंटल फिल्मी भाषा वाली साबित होती हैं। कभी डार्क, डिफिकल्ट और परेशान करती तो कभी प्यारी सी 'ब्लू अंब्रैला’ जैसी। जिन लोगों को अंग्रेजी नॉवेल पढऩा और फिल्में बनाना पसंद हैं, उनके लिए 'सात खून माफ’ अच्छी फिल्म है और जो खुश होने के लिए फिल्में देखने जाते हैं उन्हें यहां खुशी के अलावा सब कुछ मिलेगा। ये फैमिली या दोस्तों के साथ जाकर देखने वाली मूवी नहीं है। ज्यादा अटेंशन रखते हैं तो अकेले जा सकते हैं। फिल्म के आखिर में सुजैना की इस शॉर्ट स्टोरी को लिखने वाले नॉवेल राइटर रस्किन बॉन्ड का भी छोटा सा रोल है.. उन्हें पहचानना न भूलें।

बात सात की
कहानी है सुजैना उर्फ सुल्ताना उर्फ एनी उर्फ सुनयना (प्रियंका चोपड़ा) की। 1964 के आस-पास की बात है। पिता की मौत के बाद सुजैना अपने पॉन्डिचेरी वाले घर में कई फैमिली मेंबर जैसे सर्वेंट्स के साथ रहती हैं। इनमें घोड़ों की देखभाल करने वाला कम कद का गूंगा (शशि मालवीय) है, एक बटलर गालिब (हरीश खन्ना) है, मैगी आंटी (ऊषा उत्थुप) है और गूंगा का गोद लिया बेटा (जिसे गूंगे ने कभी गोद में नहीं लिया) अरुण (मास्टर अयूष टंडन) है। अब आते हैं काम की बात पर और जल्दी से सब पति परमेश्वरों से मिलते हैं। सुजैना की पहली शादी होती है मेजर एडविन रॉड्रिग्स (नील नितिन मुकेश) से। मेजर साब कीर्ति चक्र विजेता हैं और ऑपरेशन ब्लू स्टार में हिस्सा ले चुके हैं। एक टांग लड़ाई में चली गई। मदाम की दूसरी शादी होती है जमशेद सिंह राठौड़ उर्फ जिमी (जॉन अब्राहम) से और तीसरी मोहम्मद वसीउल्ला खान उर्फ मुसाफिर (इरफान खान) से होती है। आगे बढ़ते हैं। पति नंबर चार हैं निकोलाइ व्रॉन्सकी (अलेक्जांद्र दाइशेंको), पांचवें हैं कीमत लाल (अन्नू कपूर) और छठवें पति हैं डॉक्टर मधुसूदन तरफदार (नसीरुद्दीन शाह), सातवां पति सरप्राइज है.. हालांकि ये सरप्राइज चौंकाता नहीं है, बस कहानी को स्पष्ट एंगल पर खत्म करता है। इस कहानी को नरेट करते हैं अरुण (विवान शाह) और सुजैना।

बेकरां हैं बेकरां
फिल्म के म्यूजिक को चतुराई से बरता गया है। इसमें हर शादी की कहानी को रियलिस्टिक बनाने के लिए कैरेक्टर के मिजाज का म्यूजिक इस्तेमाल होता रहता है। मेजर एडविन की कहानी में घुसते ही बैकग्राउंड में तानाशाह और हिंसक माहौल वाला म्यूजिक भी घुसता है। उसका गूंगे के साथ लड़ने के वक्त वो क्रूरता वाला-बेदर्दी वाला थाप, फिर मौत के वक्त चर्च का म्यूजिक और चर्च में जिमी से शादी करने से लेकर इस कहानी के अंत तक गिटार का ही खास इस्तेमाल म्यूजिक में हुई बारीक मेहनत को दिखाता है। मसलन, गिटार बजाने वाले जिमी की कहानी में ओ मामा.. जैसे गिटार आधारित गाने से फिल्म का टेस्ट बदल देना। वादियों की कहानी के दौरान कश्मीर की हवा सा पूरा फेफड़ों भरा सुकून म्यूजिक में दिखता है। बेकरां हैं बेकरां, आंखें बंद कीजे ना, डूबने लगे हैं हम, सांसें लेने दीजे नां... विशाल ने खुद गाया है। मुझे फिल्म का बेस्ट गाना लगा। जब निकोलाइ की कहानी का हिस्सा आता है तो घर की वाइन से लेकर संगीत तक पर रशियन असर आता है। डार्लिंग आंखों से आंखों को.. गाने की मैलोडी भी रूसी गाने 'कलिंका’ से ली गई है। मास्टर सलीम का गाया आवारा.... हवा पे रखे सूखे पत्ते आवारा, पांव जमी पर लगते ही उड़ लेते हैं दोबारा, आवारा... फिल्म का दूसरा सबसे अच्छा लिखा और पिरोया गाना है।

कैसे-कैसे एक्टर लोग
नील नितिन मुकेश मेजर के रोल में मेच्योर लगते हैं। प्रियंका से भी मेच्योर। एक 'मर्द’ होने का जो जरूरी भाव उनके रोल के लिए जरूरी था, वो ले आते हैं। इरफान अपने शायर वाले रोल में भले ही नया कुछ न डाल पाएं हों पर एक पति के तौर पर वो एक्सिलेंट लगे हैं। अपनी मौत को सामने देखकर जो उनकी आंखों से छिपे आंसू ढलक रहे होते हैं, उन्हें शायद ज्यादा लोगों ने नोटिस नहीं किया होगा। जॉन अब्राहम की स्टोरी में ड्रग्स से होने वाली कमजोरी से उनका ढीला पड़ा शरीर देख पाना आश्चर्य था। कैरेक्टर के लिए बॉडी में इतना बदलाव अच्छा लगा। विवान अपनी पहली फिल्म में किसी मंझे हुए एक्टर से लगते हैं। नसीर परिवार का एक और नगीना हैं वो। अन्नू कपूर को 'तेजाब’ और 'जमाई राजा’ जैसी फिल्मों के छोटे मगर सदाबहार रोल के बाद यहां कीमत लाल बने देखना लाजबाव रहा। वो एक अलग ही किस्म के आम इंसान लगते हैं। मिसाल के तौर पर सुजैना के साथ रात बिताने के बाद उनका थैंक्यू बोलने का तरीका और बाद में एक सीन में फफक-फफककर उससे शादी करने की गुहार लगाने को लिया जा सकता है। रूसी एक्टर अलेक्जांद्र और नसीरुद्दीन शाह की भी ठीक-ठाक मूमिका है। प्रियंका की बात करें तो आखिर की तीन कहानियों के दौरान उनके चेहरे के बदलाव में उम्र आगे-पीछे लगने लगती है। पहली तीन कहानियों में उनसे सहानुभूति होती है, बाद की तीन में वो विलेन लगती हैं।

कहानियों का कैलेंडर
ये फिल्म चूंकि सुजैना की लंबी जिंदगी के कई हिस्से दिखाती है ऐसे में कहानी किस साल में कही जा रही है, ये दिखाना जरूरी था। फिल्म में आउटडोर लोकेशन या पब्लिक प्लेसेज वाले सीन तो हैं नहीं, ऐसे में डायरेक्टर विशाल भारद्वाज ने कैलेंडर बना दिया भारत में हो रही तब की राजनीतिक, सामाजिक और दूसरी घटनाओं को। सबसे पहले दिखती है दूरदर्शन के प्रोग्रैम कृषि दर्शन की झलकी। उसके बाद आता है टी-सीरिज और वो दौर जब फिल्मी गानों की ट्यून पर माता के भजन गाए जाते थे। छोटे-बड़े रूप में बर्लिन की दीवार, वी पी सिंह की सरकार, बप्पीदा का गान, बाबरी विध्वंस और कश्मीर में प्रदर्शन करते पत्थरबाज लड़कों का जिक्र दिखाया जाता है। देख तो दिल के जान से उठता है... में मेंहदी हसन और गुलाम अली के रेफरेंस हल्के ही सही नजर आते है। रेफरेंस की छोटी-छोटी कई बातें आती रहती हैं। कुडानकुलम न्यूक्लियर प्रोजैक्ट का जिक्र है। सुजैना के चौथे पति निकोलाइ के मुंह से ही हमें पता चलता है कि उनकी कहानी के दौर में भारत न्यूक्लियर ताकत बनने में रूस की मदद ले रहा है। फिल्म में एंटोल फ्रैंस के नॉवेल 'द सेवन वाइव्ज ऑफ ब्लूबर्ड’ और नॉवेल अन्ना कुरेनिना की कॉपी दिखती हैं। सबसे लेटेस्ट टाइम में हम पहुंचते हैं छठवी कहानी में जब रेडियो पर मुंबई के होटल ताज और ट्राइडैंट पर आतंकवादी हमले की खबर आती है। संदीप उन्नीकृष्णन के शहीद होने की खबर सुनाई जाती है।

तवे से उतरे ताजा डायलॉग
नसीरुद्दीन शाह के बेटे विवान बने हैं अरुण कुमार। अरुण पूरी फिल्म में सूत्रधार हैं। सुजैना की कहानी बताते हैं। इनका कैरेक्टर्स से मिलवाने का तरीका बड़ा सहज और ह्यूमर की टोन वाला है। वॉयसओवर में ताजगी है। वसीउल्ला से मिलवाते वक्त ये कहना... वसीउल्ला अपनी शायरी में जितना नाजुक और रूहानी है... प्यार में उतना ही बीमार या फिर निकोलाइ से सुजैना की शादी के वक्त कहना... इंडिया का न्यूक्लियर टेस्ट सफल रहा और हिरोशिमा हुआ मेरा दिल। दो विस्फोट हुए। एक तो साहेब (प्रियंका) की शादी और दूसरा मैं मॉस्को रवाना हो गया।... दोनों ही डायलॉग के दौरान विवान अलग किस्म के कम्फर्टेबल एक्टर लगते हैं। इनकी आवाज से ये पुख्ता होता रहता है। मेजर रॉड्रिग्स बने नील सुजैना से कहते हैं, तितली बनना बंद करो, यू आर ए मैरिड वूमन तो फिल्म को यूं ही खारिज करना मुश्किल हो जाता है। ये डायलॉग गहरे अर्थों वाले हैं। इनमें चुटीला व्यंग्य हैं, जैसे कि ये डायलॉग.. यही होता है मियां, जल्दी-जल्दी शादी करो और फिर आराम-आराम से पछताओ। फिल्म की सीधी आलोचना करना शायद इसलिए भी मुश्किल है कि फिल्म के कई पहलुओं पर खासा अच्छा काम किया गया है।

मलीना देखी है...
डायरेक्टर गायसिपी टॉरनेटॉर की 2000 में आई इटैलियन फिल्म 'मलीना’ में मलीना (मोनिका बेलुची) भी कुछ ऐसी ही औरत होती हैं, जिसपर पास के एक लड़के का क्रश होता है। उस फिल्म में वो कारण स्पष्ट होते हैं जिनकी वजह से 12 साल का रेनेटो मलीना के प्रति फिल्म के आखिर तक आकर्षित रहता है। 'सात खून माफ’ में अरूण (विवान) सुजैना पर मोहित क्यों होता है इसका सिर्फ एक ही लॉजिक दिया जाता है। वो ये कि उसे नौकरों वाली जिंदगी से निकालकर सुजैना पढ़ने-लिखने स्कूल भेजती है। एक लड़के के एक बड़ी उम्र की औरत पर इस तरह फिदा होने की विश्वसनीय कहानी तो 'मलीना’ ही है 'सात खून माफ नहीं।‘

आखिर में...
आदमखोर शेर या पैंथर को पकडऩे की कहानियां सिर्फ 'सत्यकथा’ में ही पढ़ी थीं। हिंदी मूवीज में ऐसा काफी कम देखने को मिलता है। पैंथर पकड़ने के लिए बकरी बंधी है और मेजर रॉड्रिग्स सुजैना के साथ ऊंची मचान पर बैठे हैं। ऐसे कई अलग-अलग रंग सुखद हैं। (प्रकाशित)
गजेंद्र सिंह भाटी