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Sunday, October 2, 2011

तेरे मेरे बड़े लाऊड फेरे

फिल्मः तेरे मेरे फेरे
निर्देशकः दीपा साही
कास्टः विनय पाठक, रिया सेन, जगरत देसाई, साशा गोराडिया
स्टारः दो, २.०

जब कोई फिल्म सिर्फ दो-तीन किरदारों पर टिकी हो तो ये बहुत जरूरी हो जाता है कि स्क्रिप्ट और डायलॉग दर्शक को बांधकर रखें। कॉमेडी है तो सिचुएशन आती जाएं और हर सीन कसा हुआ रहे। 'तेरे मेरे फेरे' देखते वक्त बहुत बार लगता है कि काश हाथ में रिमोट होता और फिल्म को फास्ट फॉरवर्ड कर पाते। डायरेक्टर दीपा साही ने शादी के बाद एक-दूसरे के साथ एडजस्ट करने की बात को अलग तरीके से दिखाया है, पर फिल्म इंट्रेस्टिंग नहीं रह पाती। राहुल और पूजा के चीखने और चिल्लाने की आवाज कान फोड़ देती है। हां, माना कि इससे फिल्म का कंसेप्ट प्रूव हो जाता है, पर दर्शकों की तो बैंड बज जाती है न। फिल्म में सभी सिचुएशन बड़ी रियल हैं और कुछ सीन तो बेहद हंसाने वाले हैं पर कुल खूबियां बस इतनी ही हैं। फ्रेम में जब तक विनय पाठक रहते हैं तब तक मजा आता है, उसके बाद नहीं। एक बार ट्राई कर सकते हैं।

कहानी है एडजस्ट करने की
राहुल भसीन (जगरत देसाई) और पूजा पाहूजा (साशा गोराडिया) को पहली ही नजर में एक-दूजे से प्यार हो जाता है और दोनों शादी कर लेते हैं। शादी से पहले दोनों को अपने गुण और आदतें बिल्कुल एक सी लगती हैं, लेकिन सिर्फ तब तक जब वो हनीमून पर जाते हैं। अपनी कैरवन में हिमाचल के रास्तों से गुजरते हुए इन दोनों की चें चें पें पें शुरू हो जाती है। लि ट लेकर चढ़े जय धूमल (विनय पाठक) को अपनी प्रेमिका मुस्कान (रिया सेन) के पास पहुंचना है, पर राहुल और पूजा की पकाऊ लड़ाई देख-देख आखिर में वह भी कभी शादी नहीं करने की कसम खा लेता है। आखिर में इन दोनों जोडिय़ों का क्या होता है, ये छोटी सी मिस्ट्री है।

कुछ और...
'माया मेमसाब' और ' डार्लिंग ये है इंडिया' में जो तेवर हम एक्ट्रेस दीपा साही में देखते हैं, वही तेवर और वही लाउड आवाज उनके निर्देशक बनने के बाद उनकी पहली फिल्म की हीरोइन शाशा गोराडिया में भी हमें नजर आते हैं। पीछे-पीछे ओवरएक्टिंग करते हुए फिल्म के सह-लेखक जगरत भी हो जाते हैं। झगड़े में इन दोनों का चीखना चिल्लाना ये भी महसूस करवाता है कि संभवत: दीपा ने थियेटर के स्टेज पर और फिल्मी कैमरे के लेंस के आगे रहने वाली दो एक्टिंग दुनियाओं का ख्याल नहीं रखा। बावजूद इसके अपने अनुभव की वजह से विनय पाठक चीखते और लाऊड होते हुए भी सुहावने लगते हैं। राहुल के मां, पिता और छोटे भाई बने सुष्मिता मुखर्जी, दर्शन जरीवाला और रोहन शाह बीच-बीच में राहत देते हैं। रिया सेन के हिस्से ज्यादा कुछ है नहीं, पर कहीं से भी वो हिमाचली तीखी मिर्च नहीं नजर आती हैं। उनके इंग्लिश एक्सेंट के आगे सारी एक्टिंग पसर जाती है। ईमानदार होने के बावजूद दीपा साही की ये कोशिश दर्शकों का पूरा मनोरंजन नहीं कर पाता है।

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गजेंद्र सिंह भाटी

Sunday, February 6, 2011

अफसोस! नाम जैसा ऊट-पटांग कुछ नहीं

फिल्मः ऊट पटांग
डायरेक्टरः
श्रीकांत वी. वेलागलेती
कास्टः सौरभ शुक्ला, विनय पाठक, संजय मिश्रा, माही गिल, मोना सिंह, बृजेंद्र काला
स्टारः 2

विनय पाठक की फिल्म-एक्टर के तौर पर जो कैटेगरी बनी है, उसमें उन्हें 'भेजा फ्राई’, 'दसविदानिया’, 'खोसला का घोंसला’ और 'मनोरमा सिक्स फीट अंडर’ जैसी फिल्मों के किरदारों से जोड़कर देखा जाता है। ऐसे में 'ऊट पटांगका आना एक बड़ी निराशा है। राम और लकी के दोहरे रोल में वो किसी सीमित एक्टिंग वाले टीवी सोप के एक्टर से भी बुरे लगते हैं। फिल्म में सबसे ज्यादा परेशान करती हैं मोना सिंह। या तो डायरेक्टर श्रीकांत उनके कैरेक्टर को सही से पेश नहीं कर पाए या फिर अब मान लेना चाहिए कि मोना बहुत ओवररेटेड एक्ट्रेस हैं। माही गिल हमेशा की तरह एक लाउड से रोल में हैं। 'ऊट पटांग’ में ठंडी हवा का झौंका बनकर आते हैं संजय मिश्रा और सौरभ शुक्ला। फिल्म को देखना ही चाहते हैं तो ये मान कर जाएं कि कोई मिनी टेलीविजन सीरिज देखने जा रहे हैं, वरना 'मिथ्या’, 'ओ माई गॉड’ या 'भेजा फ्राई’ में से कोई भी फिल्म डीवीडी पर देख लें, बेहतर रहेगा।

कहानी का क
कथा शुरू होती है एक रेस्टोरेंट-कम-बार से जहां राम (विनय पाठक) और उसका प्राइवेट डिटेक्टिव दोस्त नंदू उर्फ नंदन पांडे (सौरभ शुक्ला) बैठकर बातें कर रहे हैं। वेटर को सस्ते वाला पानी और बर्गर ऑर्डर कर रहे हैं। राम का अपनी गर्लफ्रेंड संजना (माही गिल) से ब्रेकअप हो गया है। वहां उन्हें मिलती है गुमसुम सी बैठी कोयल (मोना सिंह), वह अपना घर छोड़ आई है। क्यों? कहां से? कब? ये कहानी में नहीं बताया जाता। संजना राम को छोड़ एक फ्रेंच हैंगओवर वाले डॉन लकी (विनय पाठक) के पास चली गई थी, पर अब उसे भी छोड़ उसके ढाई करोड़ रुपए लेकर भागना चाह रही है। लकी की बीवी (डेलनाज पॉल) दुबई में है। अपने डॉन पिता (गोविंद नामदेव) को बिना बताए वह मुंबई में फ्लैट खरीदने के लिए पांच करोड़ रुपए लकी को भेजती है। अब इस लफड़े में कहानी आगे बढ़ती है। कहानी कहने और प्रस्तुत करने का तरीका ही फिल्म को स्पेशल बनाता है। जैसा कि छोटे बजट वाली स्मार्ट फिल्मों के साथ होता है, क्लाइमैक्स तक ये स्टोरी भी देखने लायक बनी रहती है।

पिंक पैंथर का फिक्सेशन
मुझे लगता है कि फिल्म की योजना बनाते वक्त डायरेक्टर श्रीकांत वेलाग्लेती ने विनय पाठक को पिंक पैंथर के अंदाज में बड़ा एक्साइटिंग पाया होगा। पर इसमें करना क्या पड़ता है, आपसे कुछ इनोवेटिव होते नहीं बनता तो वैसी काली हैट, मूछें, फ्रेंच एक्सेंट और हाव-भाव तक फिक्स मिल जाते हैं। बस पिंक पैंथर सीरिज वाली फिल्में लीजिए और जैक्स क्लूजों बने स्टीव मार्टिन का अनुसरण कर लीजिए। इसलिए यहां विनय भी अपनी तरफ से कुछ अलग नहीं जोड़ पाते हैं। हालांकि प्रेरणा के लिए हमारे पास जगदीप जैसे ऑरिजिनल सोर्स हैं, जिन्होंने अपने एक्सप्रेशन खुद डिवेलप किए हैं। राम के रोल में विनय को झेलना बड़ा मुश्किल है। स्लोद नाम के सुस्त जानवर की तरह उनकी एक्टिंग चुभती रहती है।

राहत के पल
फिल्म में खुशी होती है संजय मिश्रा को देखकर। वो लकी के गैंग के मैंबर हैं। एक सीन में नंदू लकी के ऑफिस में पैसों वाला बैग चुपके से रखने जाता है। पूछने पर संजय से कहता है वो पिज्जा डिलीवरी बॉय है और फ्री डिलीवरी देने आया है। हमने हिंदी फिल्मों में ऐसे बाहर से सख्त और होशियार होने का दिखावा करते भोले कैरेक्टर बहुत देखे हैं। 'शोले’ के जेलर असरानी से लेकर 'तू चोर मैं सिपाही’ के कमिश्नर अनुपम खेर तक सब ऐसे ही होते हैं। बृजेंद्र काला भी हमेशा ऐसे ही रोल में दिखते हैं पर यहां वो कॉमिकल नहीं होते हुए भी कॉमिकल लगते हैं। सौरभ शुक्ला उस सीन को इंगेजिंग बनाते हैं जहां वो संजना बनी माही को कहते हैं कि दाई से पेट नहीं छुपाते। उनका रेफरेंस संजना के बीते कल से होता है। फिल्म की स्टोरी के भीतर कैरेक्टर्स और घटनाओं का प्रेजेंटेशन ही ऐसी बात है जो इस फिल्म को बुरी फिल्म की कैटेगरी में जाने से बचा लेता है।

आखिर में...
मुरली शर्मा और गोविंद नामदेव फिल्म के आखिर में एक-एक सीन के लिए आते हैं। उनको इससे पहले भी फिल्म में शामिल किया जा सकता था। ‘ऊट पटांग’ शुरू में जितनी बोरिंग है, आखिर तक आते-आते कुछ देखने लायक बन जाती है। (प्रकाशित)
गजेंद्र सिंह भाटी