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Friday, January 27, 2012

वीजू और कांचा के सम्मोहन वाली अग्निपथ 2.0

फिल्म: अग्निपथ
निर्देशक: करण मल्होत्रा
कास्ट: ऋतिक रोशन, संजय दत्त, ऋषि कपूर, प्रियंका चोपड़ा, जरीना वहाब, अरिश भिवंडीवाला, कनिका तिवारी, ओम पुरी, राजेश टंडन, चेतन पंडित
डायलॉग: पीयूष मिश्रा
स्टार: साढ़े तीन, 3.5
अरसे बाद आई तीन घंटे बांधकर रखने वाली एक हिंदी फिल्म, रगों में दौड़ते लहू को गर्म करती हुई, दिमाग को सहूलियत देती हुई, हमें 'मारो-मारो' कहने वाली भीड़ का हिस्सा बनाती हुई, खुश करती हुई, डराती हुई, एक मसीहा देती हुई, स्मार्ट-सरल-संतुष्ट डायलॉग सुनाती हुई और जिंदगी की हकीकतों से दूर एक झूठी मगर जरूरी फिल्मी दुनिया में ले जाती हुई। कुछ खामियों और धीमेपन के अलावा फिल्म बड़ी दुरुस्त है। जरूर देखें और मसालेदार सपनीले से काव्यात्मक सिनेमा को एंजॉय करें। फिल्म में बहुत सा अपराध और खून-खराबा है इसलिए बच्चों को ये फिल्म दिखाना चाहते हैं कि नहीं ये तय करें।

1990 में करण जौहर के पिता यश जौहर ने प्रॉड्यूस की थी मूल 'अग्निपथ', निर्देशन था मुकुल आंनद का। कवि हरिवंश राय बच्चन की कविता 'अग्निपथ' से ऊष्मा लेती हुई इस फिल्म में अमिताभ बच्चन ने खराश भरी आवाज वाले एंग्री हीरो विजय दीनानाथ चौहान का रोल निभाया था। ये कल्ट फिल्म बनी। उसकी हूबहू कॉपी या रीमेक बनने की बजाय ये नई 'अग्निपथ' उसे सही मायनों में ट्रिब्यूट देती है। इस फिल्म में न तो कृष्णन अय्यर एम.ए. (मिथुन चक्रवर्ती) हैं और न ही कई यादगार पल। मां की इज्जत पर हाथ डालने वालों के पेट्रोल पंप को आग लगाने वाला कजरारी आंखों वाला छोटा विजय, थाने में ईमानदार इंस्पेक्टर गायतोंडे (विक्रम गोखले) के सामने नाम-बाप का नाम-उम्र--गांव वगैरह वगैरह बताता हुआ छोटा विजय, घायल विजय को नारियल पानी के ठेले पर डालकर ले जाता हुआ कृष्णन अय्यर, उसके लुंगी ऊपर करने का अंदाज, अस्पताल में घायल विजय की हालत जानने को लेकर बाहर आपे से बाहर होती भीड़ और न जाने ऐसे कितने ही सीन। इस फिल्म में ये सब नहीं हैं। पर कोई बात नहीं, हम उन्हें इतना मिस नहीं करते। क्योंकि ये फिल्म अलग परिभाषा के साथ आती है।

शेव किए हुए सिर और भौंहों वाले संजय दत्त खौफनाक से कांचा चीना बने हैं।
'तुम क्या लेकर आए थे, तुम क्या लेकर जाओगे। रह जाएगा तो बस एक इंसान। सर्वशक्तिशाली सर्वशक्तिमान। कांचा...' जैसे डायलॉग में वो नहीं डायलॉग राइटर पीयूष मिश्रा बोलते से लगते हैं। संजय दत्त के लिए वह लिखते हैं, 'रामजी लंका पधार चुके हैं? पता करो वानर सेना तो साथ नहीं लाए?' इस कांचा चीना की सनक में हिंदी की शुद्ध डिक्शनरी खुलती लगती है। वह 'प्रबुद्ध' और 'सत्कार' जैसे आज कठिन हिंदी माने जाने वाले शब्दों का रोचक इस्तेमाल करता है। हिंदी फिल्मों और अखबारों से ऐसे शब्दों को आउटडेटेड कहकर हटाया सा जा रहा है, उनका इस्तेमाल बंद किया जा रहा है। ऐसे में पीयूष जाहिर करते हैं कि अगर चाहत हो तो इन शब्दों को योग्य रखा जा सकता है। फिल्म में कांचा विजय को राम, खुद को रावण और मांडवा को लंका बताता है, साथ ही उसकी बातों में महाभारत के संदर्भ भी आते हैं। कांचा चीना की भाषा में ये फ्रैशनेस पीयूष की देन है। बात लुक्स की करें तो मुझे वो 'एपोकलिप्स नाऊ' के कर्नल वॉल्टर (मर्लन ब्रांडो) की याद दिलाते हैं। उनका कूल माइंडेड मिजाज और शारीरिक अंदाज 'द डार्क नाइट' के जोकर (हीथ लेजर) सा है।

मांडवा की शक्ल-सूरत की बात करूं तो यहां आते-आते निर्देशक करण मल्होत्रा पर समकालीन अमेरिकी फिल्मों का असर साफ दिखता है। डेविड फिंचर और क्रिस्टोफर नोलान की फिल्मों के फ्रेम्स में जो गहरी सलेटी और गीली सी धुंध होती है, वो यहां खासतौर पर है। ये शायद करण के ही निर्देश थे, कि कांचा की मौजूदगी वाले सीन्स में अजय-अतुल जो पृष्ठभूमि संगीत देते हैं उस पर 'बैटमैन' और 'द डार्क नाइट राइजेज' का बैकग्राउंड स्कोर कंपोज करने वाले हांस जिमर का असर है। अनजाने में तो हो ही नहीं सकता है, जानबूझकर ही है।

ऋतिक रोशन अपने अभिनय में और गहन और जरीवर्क जितने बारीक हुए हैं। बहुत बार वो रुला जाते हैं। उनका अभिनय बहुत गंभीर और शानदार है। जैसे, अपनी छोटी बहन को जन्मदिन का गिफ्ट चुपके से देने जाना और सामने उसका आ जाना। वह पूछ रही है, 'भैया किसने भेजा है ये। बताइए न,
किसने भेजा है।' उसे नहीं पता कि ये उसका बड़ा भाई विजय है। तभी पीछे से मां आ जाती है, जिससे विजय की
बातचीत बंद है, बरसों से। अब वह खुद को डिलिवरी बॉय बताकर वहां से निकलने लगता है। संकरी सी गैलरी से उथले, बोझिल, कष्टभरे सीने को ले वह जब निकल रहा है तो उसका भीतर ही भीतर फट रहा दिमाग हमें थियेटर में फटता महसूस होता है। फिर चाल में सब उसे सरप्राइज देते हैं। गाना चलता है, 'गुन गुन गुना रे, गुन गुन गुना रे, गुन गुन गुना ये गाना रे'। शराब पिए लड़खड़ाते कदमों से वह खड़ा है और काली गौड़े उसे घेरकर तमाम चालवालों के साथ गा-नाच रही है। यहां भी आप विजय बने ऋतिक को देखिए। वह रुआंसे हैं और लगातार रुआंसे बने रहते हैं, पिछले सीन के कष्ट को बरकरार रखते हुए। तो उनके अभिनय के लिए फिल्म कुछ बार देखी जा सकती है।

मास्टर दीनानाथ के अग्निपथ कविता को पढ़ने और विजय के अपना परिचय देने के संदर्भ को इस फिल्म में अलग जगहों पर रखा गया है और बिना अमिताभ की खराश भरी आवाज के भी वो प्रभावी लगते हैं। ऋषि कपूर अलिफ मीट
एक्सपोर्ट की आड़ में छोटी-छोटी बच्चियों को बेचने वाले रौफ लाला को यूं निभाते हैं कि उनके बेटे रणबीर की रीढ़ में भी सिहरन दौड़ जाए। प्रियंका चोपड़ा का रोल छोटा पर कॉम्पैक्ट है। वह ठीक-ठाक हैं। छोटे विजय (अरिश भिवंडीवाला) और बहन शिक्षा (कनिका तिवारी) के रोल में दोनों चेहरे फ्रैश हैं। अरिश के बोलने का तरीका कुछ-कुछ बड़े होने पर ऋतिक कैसे बोलेंगे, इससे मेल खाता है। जो आश्चर्य रहा।

जरीना वहाब मां के रोल में अच्छी-अच्छी फिल्मों में पहली पसंद बनती जा रही हैं। उनके आंसू असली लगते हैं, एक्टिंग नहीं। जब रौफ के बाजार से विजय शिक्षा को बचाता है और रौफ को मार रहा होता है तो शिक्षा अपनी मां से बार-बार पूछ रही होती है, 'आई बताओ ना कौन है ये, बताओ ना आई।' और इसके बाद अप्रत्याशित रूप से सन्नाटा तोड़ते हुए जरीना गहराई तक बींध देने वाली चीख के साथ जवाब देती है, 'भाई है तेरा', इतनी जोर से कि हम भावनात्मक रूप से कांप जाते हैं। गायतोंडे के रोल में ओम पुरी ठीक-ठाक हैं, उनका किरदार बस कहानी को सहारा देता चलता है। मास्टर दीनानाथ चौहान बने चेतन पंडित आराम में दिखते हैं, उनका रोल छोटा सा है, उतना प्रभावी नहीं है जितना मूल अग्निपथ के मास्टर दीनानाथ चौहान का था।

टीवी के गट्टू यानी देवेन भोजानी यहां रौफ लाला के मैंटली चैलेंज्ड बेटे अजहर लाला बने हैं, कमजोर अदाकारी के साथ। कैसे अपराध की दुनिया के बड़े गुंडों की पर्सनल लाइफ दिखाने का सीधा फॉर्म्युला है, कि एक पापी किस्म का गुंडा है, उसका बड़ा बेटा बहुत गुस्सैल (अग्निपथ में रौफ लाला का गुस्सैल बड़ा बेटा मजहर लाला, जो राजेश टंडन अच्छे से बने हैं) है, कुछ-कछ बाप से बागी है, काम के अपने तरीके व्यापना चाहता है और छोटा बेटा मैंटली चैलेंज्ड है। जैसे कि डायरेक्टर शशिलाल नायर की 'अंगार' में था। इसमें मुंबई के अच्छे लेकिन बुरे भाई जहांगीर खान बने कादर खान थे। इनके बड़े बेटे माजिद (नाना पाटेकर) गुस्सैल और बाप के कामकाज के तरीकों से कुछ बागी हैं, तो घर पर एक छोटा भाई भी है जो चल फिर नहीं सकता, खुद खाना तक नहीं खा सकता, बोल नहीं सकता। तो ऐसी कुछेक और फिल्में हैं। डायरेक्टर जीवा की फिल्म 'रन' में भी गनपत चौधरी (महेश मांजरेकर) नाम के गुंडे के घर पर एक लूला किरदार है, जो चल नहीं सकता और बोल भी नहीं सकता, पर जब अभिषेक बच्चन का किरदार सिद्धार्थ जाह्नवी को भगा ले जा रहा होता है तो वह गाड़ी के आगे आ जाता है और उनको रोकने की कोशिश करता है। महेश मांजरेकर के निर्देशन में बनी 'कुरुक्षेत्र' में भी इकबाल पसीना (मुकेश ऋषि) के घर में ऐसा ही एक घुंघराले बालों वाला किरदार है, जो बोल नहीं सकता और कुछ मैंटली एब्सेंट है। जब एसीपी पृथ्वीराज सिंह बने संजय दत्त 'जंजीर' स्टाइल में इकबाल के मोहल्ले में उससे भिड़ने जाते हैं और लड़ते हैं तो मारपीट के दौरान वह किरदार खुद को बचता-बचाता दिखता है। 'अग्निपथ' पर लौटे तो करण मल्होत्रा के फिल्म बनाने के मिजाज में किसी बड़े अपराधी को और असल बनाने के दौरान ये मनोविज्ञान हावी रहा। रौफ लाला जैसे बच्चियों को बेचने वाले दरिंदे के घर एक अपंग बेटा देने का मनोविज्ञान। याने जितना बड़ा अपराधी और दरिंदा, उसके घर तमाम समृद्धि के बावजूद ईश्वर की लाठी उतनी ही जोर से बजती है। खैर, हम बात देवेन भोजानी की कर रहे थे, उनका काम फीका रहा है।

'अग्निपथ' देखते हुए बहुत बार आंखों में बूंदों की लड़ियां बनती हैं। खून रगों को चीरकर बाहर आने की कोशिश करता है। अरसे बाद तीन घंटे की फिल्म देख रहे होते हैं तो बैचेनी भरी शंका होती है कि अब तक इंटरवल नहीं हुआ, क्या कहीं फिल्म बिना ब्रेक के ही खत्म तो नहीं हो जाएगी? फिर तसल्ली होती है। विजय दीनानाथ चौहान भी उतना ही बड़ा गुंडा है, अपराधी है जितना कि कांचा चीना, पर उसके अपराधी होने की वजहें इतनी भारी इमोशनल हैं कि लोग उसके साथ होते हैं। आखिर में भी कोई दुनियावी अदालत उसे सजा न दे पाए इसलिए फिल्ममेकर्स ने उसका फैसला ईश्वर की अदालत पर छोड़ा, हमारी अदालत के हिस्से उसका हीरोइज्म ही आया, अपराध पक्ष नहीं।

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गजेंद्र सिंह भाटी

Saturday, February 12, 2011

काहलों फैमिली से एक परिचय कर ही लें

फिल्मः पटियाला हाउस
डायरेक्टरः निखिल अडवाणी
कास्टः अक्षय कुमार, अनुष्का शर्मा, ऋषि कपूर, डिंपल कपाड़िया, टीनू आनंद, फराज खान, हार्ड कौर, सोनी राजदान, अरमान किरमानी, रैबिट सेक सी, जेनेवा तलवार, नासिर हुसैन, एंड्र्यू साइमंड्स
स्टारः ढाई 2.5

'पटियाला हाउस’ एकबारगी का ठीक-ठाक मनोरंजन है। ऋषि कपूर 'दो दूनी चार’ में संतोष दुग्गल देसाई के रूप में इम्प्रैस करने के बाद यहां बाउजी के मजबूत रोल में हैं, तो डिंपल कपाडिय़ा 'दबंग’ बाद फिर पति का साथ देने वाली मां के रोल में दिख रही हैं। 'बैंड बाजा बारात’ की श्रुति कक्कड़ बनना अनुष्का शर्मा के करियर की सबसे सुनहरी घटना थी, दूसरी ऐसी घटना है 'पटियाला हाउस।‘ अक्षय कुमार को कुछ हद तक अपने जीवन की 'स्वदेश’ मिल गई है। याद रखिएगा पूरी तरह नहीं। फ्रेंड्स, फैमिली, फिलॉसफी या अकेले.. किसी भी मूड के साथ 'पटियाला हाउस’ देखने जा सकते हैं, आपके पैसे जाया नहीं जाएंगे। चूंकि अच्छी फिल्ममेकिंग और नए किस्म के एंटरटेनमेंट का तकाजा है इसलिए मैं इसे खास फिल्म नहीं मान सकता। ग्रेटर लंदन में रहने वाले थियेटर एक्टर फराज खान पुनीत सिंह कहलों के रोल में बाकियों से अलग दिखते हैं, इसलिए खास जिक्र।

पता पटियाला हाउस काः स्टोरी
कहानी गुरतेज सिंह काहलों (ऋषि कपूर) की है। इन्हें घर पर सब बाउजी कहते हैं। 20 साल पहले सीनियर एडवोकेट लीडर सैनी साब (प्रेम चोपड़ा) को बेदर्दी से कत्ल कर दिए जाने के बाद से ही बाउजी ब्रिटिश कौम से नफरत करने लगे। उन्होंने लंदन के साउथहॉल में अपनी इंडियन कम्युनिटी को मजबूत बनाया, उनके लिए जेल गए, उनके अधिकारों के लिए लड़े। एक दिन पूरी कम्युनिटी के सामने कह दिया कि उनका फास्ट बॉलर बेटा परगट (अक्षय कुमार) इंग्लैंड के लिए क्रिकेट नहीं खेलेगा। अगले 17 साल तक परगट उर्फ गट्टू सिर झुकाए अपने बाउजी के वचनों का पालन करता है। मां (डिंपल कपाड़िया) भी अपने पति के आगे चुप है पर बेटे के दबे सपनों को खूब समझती है, जानती है कि वह आज भी रोज रात छिपकर बॉलिंग प्रैक्टिस करने जाता है। पड़ोस में रहती है सिमरन (अनुष्का शर्मा), जो 'शोले’ की बसंती जैसी चुलबुली और प्यारी है। वो परगट की जिंदगी में सपने फिर से जगाने की कोशिश करती है। इसी का हिस्सा बनते हैं बेदी साब (टीनू आनंद) भी। इस कहानी में पटियाला हाउस फैमिली से जुड़े बाकी मेंबर कोमल, जसमीत, हिमान, जसकिरण, अमन, डॉली, पुनीत, रनबीर और प्रीति हैं। इनमें से किसी का ड्रीम शेफ-रैपर-फिल्ममेकर या डिजाइनर बनने का है तो कोई इसाई बॉयफ्रेंड से शादी करना चाहती है। ये सब चुप हैं क्योंकि गट्टू चुप है। अब गट्टू को बाउजी के हुकुम और अपने सपने के बीच एक को चुनना है। क्लाइमैक्स का अंदाजा लगाना ज्यादा मुश्किल नहीं है। बाकी आप मालिक।

कितने अलग हैं परगट
पिछली दर्जनों फिल्मों की तरह 'पटियाला हाउस’ भी अक्षय कुमार की कोई नई इमेज नहीं गढ़ पाती है। जिन क्रिकेटिंग शॉट्स पर अक्षय के कैरेक्टर का अलग होना टिका था, उनमें परफेक्शन की खासी कमी दिखती है। हालांकि कुछ बॉलिंग वाले सीन में एनिमेशन के इस्तेमाल से काम चल जाता है। मगर इस क्रिकेट तत्व वाली फिल्म से 'लगान’ वाले रियल टच की उम्मीद करना बेकार है। हल्के-फुल्के ड्रामा वाले मनोरंजन के साथ चूंकि ये मूवी बेहतरीन होने की महत्वाकांक्षा भी नहीं रखती इसलिए हमें भी इस पर कोई बात नहीं ही रखनी चाहिए। फिर भी स्पोर्ट्स का हिस्सा कहानी में जहां भी आएगा, इसकी तुलना हमेशा दूसरी खेल वाली फिल्मों से होगी ही। जैसे 1992 में मंसूर खान की बनाई 'जो जीता वही सिंकदर।‘ खेल के साथ परिवार, कॉलेज लाइफ और प्रेम जैसे तत्वों से मिलकर बनी ये हिंदी फिल्म इस श्रेणी में आज भी शीर्ष पर बनी हुई है। हालांकि इस फिल्म का संजय लाल शर्मा (आमिर खान) और 'पटियाला हाउस’ का परगट सिंह काहलों कई मायनों में अलग हैं, पर खेल खेलने या न खेलने का पैशन, बीच में पिता के साथ गैप भरा रिश्ता, एक चाहने वाली फ्रेंड-कम-लवली सी गर्लफ्रेंड, कुछ यंग दोस्त-रिश्तेदार और क्लाइमैक्स में जीत पर टिकी सबकी आंखें.. जैसी बातें दोनों फिल्मों को जोड़ती हैं।

इंडिया से दूर परदेस
अब अगर लंदन, साउथहॉल, नस्लभेद, एशियाई कम्युनिटी और खेल के पैशन वाले नायकों वाली कहानी की बात करें तो 'दन दना दन गोल’ सबसे करीबी नाम है। विवेक अग्निहोत्री ने कुछ अंग्रेजी फिल्में लीं और कुछ जॉन अब्राहम, अरशद वारसी, बोमन इरानी लिए.. और डायरेक्ट कर दी 'दन दना दन गोल।‘ ऐसे में करण जौहर को 'कुछ कुछ होता है’ में असिस्ट कर चुके निखिल अडवाणी के लिए कोई मुश्किल नहीं थी। उन्होंने और अन्विता दत्त गुप्ता ने मिलकर एक ठीक-ठाक स्क्रीनप्ले लिख दिया। बाकी काम फिल्म विधा में मौजूद चालाकी कर देती है। जिन स्पोर्ट्स फिल्मों का मैंने जिक्र किया है, उनसे कुछ अलग इसमें मिल पाता है तो वो है अक्षय कुमार का अंडरडॉग वाला कैरेक्टर। अपने बाउजी के सामने हाथ बांधे खड़े रहने वाले और घर में सब छोटे भाई-बहनों के ताने सुनने वाले इस नॉन-वॉयलेंट कैरेक्टर को उन्होंने अपनी एक्टिंग क्षमताओं के साथ पूरी ईमानदारी से निभाया है। कुछ सीन में वो अपनी सारी कमियों को पीछे छोड़ देते हैं। बताना चाहूंगा कि सुबह-सुबह साउथहॉल की सड़कों-गलियों से चुपचाप अपनी शॉप की ओर बढ़ता परगट 'दिलवाले दुल्हनिया ले जाएंगे’ के बाउजी (अमरीश पुरी) वाली सिनेमैटिक एनआरआई यादें दे जाता है। ऐसा हो भी क्यों न सुबह के हल्के कोहरे में, बादलों के बीच, देस से दूर लंदन की सड़कों से गुजरने वाले, कबूतरों को दाना डालने वाले अमरीश पुरी ही तो पहले थे न, उसमें भी गोरों के खिलाफ गुस्सा और पंजाब की संस्कृति से अनहद प्यार करने वाला सरदारी तेवर वहीं से आया है। इससे पहले के जुड़ाव ढूंढने के लिए मनोज कुमार की फिल्मों के नाम लिए जा सकते हैं।

असल खिलाड़ियों की एक्टिंग
अंग्रेजी फिल्म 'गोल-द ड्रीम बिगिन्स’ के सांतियागो मुनेज (कूनो बेकर) वाली बात अक्षय में यहां नहीं आ पाती है। 2005 में आई डायरेक्टर डैनी कैनन की इस फिल्म को फीफा का पूरा सपोर्ट था इसलिए असल खिलाड़ी पूरे दो घंटे फिल्म में दिखते रहे। 'पटियाला हाउस’ में कुछ छितरे हुए से खाली बैठे प्लेयर ले लिए गए हैं। जिन ऑस्ट्रेलिया और इंग्लैंड के क्रिकेटर्स को रोल प्ले करने के लिए चुना गया उनमें सिर्फ इंग्लैंड की क्रिकेट टीम के कप्तान रह चुके नासिर हुसैन ही फिल्म का हिस्सा लगते हैं। एंड्रयू साइमंड्स परगट सिंह के प्रतिद्वंदी के तौर पर दो-तीन बार मूवी में आते हैं, पर न जाने क्यों वो फिल्म का हिस्सा नहीं बन पाते हैं। इंग्लैंड क्रिकेट चयन बोर्ड की मीटिंग वाले सीन और भी असरदार हो सकते थे। अगर ऐसी स्पोर्ट्स-फैमिली ड्रामा मूवीज में इन बोर्ड मीटिंग्स और खिलाड़ियों के प्रैक्टिस सैशन वाले सीन कुछ गंभीरता से लिखे-फिल्माए जाएं तो औसत होते हुए भी फिल्म की एंटरटेनमेंट वैल्यू 'चक दे’ इंडिया सरीखी हो सकती है। कुछ-कुछ 'लगान’ जैसी भी।

ब्रीफ में बड़ी बातें
अनुष्का के कैरेक्टर का परगट सिंह को आई लव यू बोलना और जाते-जाते पीछे से परगट का लव यू टू बोलना सुनकर लौटकर आना और गुदगुदी करते हुए-गले लगते हुए पूछना कि तुमने भी कहा न, तुमने भी कहा... फ्रैश आइडिया लगता है। अनुष्का के जिस चुलबुलेपन की मैं बात कर रहा था, वो इसमें देख सकते हैं। तुंबा-तुंबा तुड़क गया... और लॉन्ग दा लिश्कारा... दोनों ही (सदाबहार तो नहीं पर) खूबसूरत गाने हैं। हार्ड कौर, सोनी राजदान और टीनू आनंद का फिल्म में उतना इस्तेमाल नहीं किया गया जितना किया जा सकता था। शुरू के दस मिनट फिल्म का फ्लैवर ही कुछ और (रोचक और अच्छा) होता है। उस वक्त बाउजी के यंग-सीरियस और समझदार कैरेक्टर में कोई और एक्टर होता है और वॉयसओवर होता है ऋषि कपूर का। ये भी ठीक ही प्रयोग है, कम से कम कैरेक्टर्स के एज गैप के बाद उनकी शक्लें स्वीकार न भी हो तो आवाज तो एक रहे। शुरू में किन हालात ने बाउजी (ऋषि) को बदलकर इतना सख्त और निरंकुश बना दिया, देखना इंट्रेस्ट जगाता है। फिल्म में मीडियोक्रिटी शब्द का इस्तेमाल किया गया है। मुझे एतराज है। इसे ऐसे ही नहीं मान लेना चाहिए। आप फिल्म एनआरआई ऑडियंस को प्राथमिकता में रखते हुए बनाते हैं, लेकिन नसों में खास किस्म का विचार या विचारधारा इंजेक्ट करते हैं इंडिया के महानगरों और कस्बों में भी। जो गलत है। जब तक इस पर सार्वजनिक बहस पूरी न हो, आपको फिल्मी माध्यम का इस्तेमाल कुछ बेपरवाही से नहीं करना चाहिए। जाहिर है, मीडियोक्रिटी शब्द के पीछे अपने तर्क पुख्ता करने के लिए निखिल अडवाणी ने लॉजिकल सीन और डायलॉग प्रायोजित करने की कोशिश तो की ही है। खैर, इस पर खूब बात होनी चाहिए।

आखिर में...
मुझे सबसे अच्छा लगा फिल्म में अक्षय के कैरेक्टर का नाम... परगट सिंह काहलों। ऐसे जमीनी ठसक वाले नाम गुडी-गुडी फिल्मों के चक्कर में जैसे गायब ही हो गए थे। सरदारों के नाम बस मजाक में ही इस्तेमाल करने के लिए गढ़े जाने लगे। परगट सिंह काहलों छाछ और दही पिया हुआ नाम लगता है। दूसरी अच्छी बात अनुष्का-अक्षय की कैमिस्ट्री। तीसरी ऋषि की परफॉर्मेंस और डिंपल की साथ उनकी जोड़ी। (प्रकाशित)
गजेंद्र सिंह भाटी