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Saturday, February 12, 2011

काहलों फैमिली से एक परिचय कर ही लें

फिल्मः पटियाला हाउस
डायरेक्टरः निखिल अडवाणी
कास्टः अक्षय कुमार, अनुष्का शर्मा, ऋषि कपूर, डिंपल कपाड़िया, टीनू आनंद, फराज खान, हार्ड कौर, सोनी राजदान, अरमान किरमानी, रैबिट सेक सी, जेनेवा तलवार, नासिर हुसैन, एंड्र्यू साइमंड्स
स्टारः ढाई 2.5

'पटियाला हाउस’ एकबारगी का ठीक-ठाक मनोरंजन है। ऋषि कपूर 'दो दूनी चार’ में संतोष दुग्गल देसाई के रूप में इम्प्रैस करने के बाद यहां बाउजी के मजबूत रोल में हैं, तो डिंपल कपाडिय़ा 'दबंग’ बाद फिर पति का साथ देने वाली मां के रोल में दिख रही हैं। 'बैंड बाजा बारात’ की श्रुति कक्कड़ बनना अनुष्का शर्मा के करियर की सबसे सुनहरी घटना थी, दूसरी ऐसी घटना है 'पटियाला हाउस।‘ अक्षय कुमार को कुछ हद तक अपने जीवन की 'स्वदेश’ मिल गई है। याद रखिएगा पूरी तरह नहीं। फ्रेंड्स, फैमिली, फिलॉसफी या अकेले.. किसी भी मूड के साथ 'पटियाला हाउस’ देखने जा सकते हैं, आपके पैसे जाया नहीं जाएंगे। चूंकि अच्छी फिल्ममेकिंग और नए किस्म के एंटरटेनमेंट का तकाजा है इसलिए मैं इसे खास फिल्म नहीं मान सकता। ग्रेटर लंदन में रहने वाले थियेटर एक्टर फराज खान पुनीत सिंह कहलों के रोल में बाकियों से अलग दिखते हैं, इसलिए खास जिक्र।

पता पटियाला हाउस काः स्टोरी
कहानी गुरतेज सिंह काहलों (ऋषि कपूर) की है। इन्हें घर पर सब बाउजी कहते हैं। 20 साल पहले सीनियर एडवोकेट लीडर सैनी साब (प्रेम चोपड़ा) को बेदर्दी से कत्ल कर दिए जाने के बाद से ही बाउजी ब्रिटिश कौम से नफरत करने लगे। उन्होंने लंदन के साउथहॉल में अपनी इंडियन कम्युनिटी को मजबूत बनाया, उनके लिए जेल गए, उनके अधिकारों के लिए लड़े। एक दिन पूरी कम्युनिटी के सामने कह दिया कि उनका फास्ट बॉलर बेटा परगट (अक्षय कुमार) इंग्लैंड के लिए क्रिकेट नहीं खेलेगा। अगले 17 साल तक परगट उर्फ गट्टू सिर झुकाए अपने बाउजी के वचनों का पालन करता है। मां (डिंपल कपाड़िया) भी अपने पति के आगे चुप है पर बेटे के दबे सपनों को खूब समझती है, जानती है कि वह आज भी रोज रात छिपकर बॉलिंग प्रैक्टिस करने जाता है। पड़ोस में रहती है सिमरन (अनुष्का शर्मा), जो 'शोले’ की बसंती जैसी चुलबुली और प्यारी है। वो परगट की जिंदगी में सपने फिर से जगाने की कोशिश करती है। इसी का हिस्सा बनते हैं बेदी साब (टीनू आनंद) भी। इस कहानी में पटियाला हाउस फैमिली से जुड़े बाकी मेंबर कोमल, जसमीत, हिमान, जसकिरण, अमन, डॉली, पुनीत, रनबीर और प्रीति हैं। इनमें से किसी का ड्रीम शेफ-रैपर-फिल्ममेकर या डिजाइनर बनने का है तो कोई इसाई बॉयफ्रेंड से शादी करना चाहती है। ये सब चुप हैं क्योंकि गट्टू चुप है। अब गट्टू को बाउजी के हुकुम और अपने सपने के बीच एक को चुनना है। क्लाइमैक्स का अंदाजा लगाना ज्यादा मुश्किल नहीं है। बाकी आप मालिक।

कितने अलग हैं परगट
पिछली दर्जनों फिल्मों की तरह 'पटियाला हाउस’ भी अक्षय कुमार की कोई नई इमेज नहीं गढ़ पाती है। जिन क्रिकेटिंग शॉट्स पर अक्षय के कैरेक्टर का अलग होना टिका था, उनमें परफेक्शन की खासी कमी दिखती है। हालांकि कुछ बॉलिंग वाले सीन में एनिमेशन के इस्तेमाल से काम चल जाता है। मगर इस क्रिकेट तत्व वाली फिल्म से 'लगान’ वाले रियल टच की उम्मीद करना बेकार है। हल्के-फुल्के ड्रामा वाले मनोरंजन के साथ चूंकि ये मूवी बेहतरीन होने की महत्वाकांक्षा भी नहीं रखती इसलिए हमें भी इस पर कोई बात नहीं ही रखनी चाहिए। फिर भी स्पोर्ट्स का हिस्सा कहानी में जहां भी आएगा, इसकी तुलना हमेशा दूसरी खेल वाली फिल्मों से होगी ही। जैसे 1992 में मंसूर खान की बनाई 'जो जीता वही सिंकदर।‘ खेल के साथ परिवार, कॉलेज लाइफ और प्रेम जैसे तत्वों से मिलकर बनी ये हिंदी फिल्म इस श्रेणी में आज भी शीर्ष पर बनी हुई है। हालांकि इस फिल्म का संजय लाल शर्मा (आमिर खान) और 'पटियाला हाउस’ का परगट सिंह काहलों कई मायनों में अलग हैं, पर खेल खेलने या न खेलने का पैशन, बीच में पिता के साथ गैप भरा रिश्ता, एक चाहने वाली फ्रेंड-कम-लवली सी गर्लफ्रेंड, कुछ यंग दोस्त-रिश्तेदार और क्लाइमैक्स में जीत पर टिकी सबकी आंखें.. जैसी बातें दोनों फिल्मों को जोड़ती हैं।

इंडिया से दूर परदेस
अब अगर लंदन, साउथहॉल, नस्लभेद, एशियाई कम्युनिटी और खेल के पैशन वाले नायकों वाली कहानी की बात करें तो 'दन दना दन गोल’ सबसे करीबी नाम है। विवेक अग्निहोत्री ने कुछ अंग्रेजी फिल्में लीं और कुछ जॉन अब्राहम, अरशद वारसी, बोमन इरानी लिए.. और डायरेक्ट कर दी 'दन दना दन गोल।‘ ऐसे में करण जौहर को 'कुछ कुछ होता है’ में असिस्ट कर चुके निखिल अडवाणी के लिए कोई मुश्किल नहीं थी। उन्होंने और अन्विता दत्त गुप्ता ने मिलकर एक ठीक-ठाक स्क्रीनप्ले लिख दिया। बाकी काम फिल्म विधा में मौजूद चालाकी कर देती है। जिन स्पोर्ट्स फिल्मों का मैंने जिक्र किया है, उनसे कुछ अलग इसमें मिल पाता है तो वो है अक्षय कुमार का अंडरडॉग वाला कैरेक्टर। अपने बाउजी के सामने हाथ बांधे खड़े रहने वाले और घर में सब छोटे भाई-बहनों के ताने सुनने वाले इस नॉन-वॉयलेंट कैरेक्टर को उन्होंने अपनी एक्टिंग क्षमताओं के साथ पूरी ईमानदारी से निभाया है। कुछ सीन में वो अपनी सारी कमियों को पीछे छोड़ देते हैं। बताना चाहूंगा कि सुबह-सुबह साउथहॉल की सड़कों-गलियों से चुपचाप अपनी शॉप की ओर बढ़ता परगट 'दिलवाले दुल्हनिया ले जाएंगे’ के बाउजी (अमरीश पुरी) वाली सिनेमैटिक एनआरआई यादें दे जाता है। ऐसा हो भी क्यों न सुबह के हल्के कोहरे में, बादलों के बीच, देस से दूर लंदन की सड़कों से गुजरने वाले, कबूतरों को दाना डालने वाले अमरीश पुरी ही तो पहले थे न, उसमें भी गोरों के खिलाफ गुस्सा और पंजाब की संस्कृति से अनहद प्यार करने वाला सरदारी तेवर वहीं से आया है। इससे पहले के जुड़ाव ढूंढने के लिए मनोज कुमार की फिल्मों के नाम लिए जा सकते हैं।

असल खिलाड़ियों की एक्टिंग
अंग्रेजी फिल्म 'गोल-द ड्रीम बिगिन्स’ के सांतियागो मुनेज (कूनो बेकर) वाली बात अक्षय में यहां नहीं आ पाती है। 2005 में आई डायरेक्टर डैनी कैनन की इस फिल्म को फीफा का पूरा सपोर्ट था इसलिए असल खिलाड़ी पूरे दो घंटे फिल्म में दिखते रहे। 'पटियाला हाउस’ में कुछ छितरे हुए से खाली बैठे प्लेयर ले लिए गए हैं। जिन ऑस्ट्रेलिया और इंग्लैंड के क्रिकेटर्स को रोल प्ले करने के लिए चुना गया उनमें सिर्फ इंग्लैंड की क्रिकेट टीम के कप्तान रह चुके नासिर हुसैन ही फिल्म का हिस्सा लगते हैं। एंड्रयू साइमंड्स परगट सिंह के प्रतिद्वंदी के तौर पर दो-तीन बार मूवी में आते हैं, पर न जाने क्यों वो फिल्म का हिस्सा नहीं बन पाते हैं। इंग्लैंड क्रिकेट चयन बोर्ड की मीटिंग वाले सीन और भी असरदार हो सकते थे। अगर ऐसी स्पोर्ट्स-फैमिली ड्रामा मूवीज में इन बोर्ड मीटिंग्स और खिलाड़ियों के प्रैक्टिस सैशन वाले सीन कुछ गंभीरता से लिखे-फिल्माए जाएं तो औसत होते हुए भी फिल्म की एंटरटेनमेंट वैल्यू 'चक दे’ इंडिया सरीखी हो सकती है। कुछ-कुछ 'लगान’ जैसी भी।

ब्रीफ में बड़ी बातें
अनुष्का के कैरेक्टर का परगट सिंह को आई लव यू बोलना और जाते-जाते पीछे से परगट का लव यू टू बोलना सुनकर लौटकर आना और गुदगुदी करते हुए-गले लगते हुए पूछना कि तुमने भी कहा न, तुमने भी कहा... फ्रैश आइडिया लगता है। अनुष्का के जिस चुलबुलेपन की मैं बात कर रहा था, वो इसमें देख सकते हैं। तुंबा-तुंबा तुड़क गया... और लॉन्ग दा लिश्कारा... दोनों ही (सदाबहार तो नहीं पर) खूबसूरत गाने हैं। हार्ड कौर, सोनी राजदान और टीनू आनंद का फिल्म में उतना इस्तेमाल नहीं किया गया जितना किया जा सकता था। शुरू के दस मिनट फिल्म का फ्लैवर ही कुछ और (रोचक और अच्छा) होता है। उस वक्त बाउजी के यंग-सीरियस और समझदार कैरेक्टर में कोई और एक्टर होता है और वॉयसओवर होता है ऋषि कपूर का। ये भी ठीक ही प्रयोग है, कम से कम कैरेक्टर्स के एज गैप के बाद उनकी शक्लें स्वीकार न भी हो तो आवाज तो एक रहे। शुरू में किन हालात ने बाउजी (ऋषि) को बदलकर इतना सख्त और निरंकुश बना दिया, देखना इंट्रेस्ट जगाता है। फिल्म में मीडियोक्रिटी शब्द का इस्तेमाल किया गया है। मुझे एतराज है। इसे ऐसे ही नहीं मान लेना चाहिए। आप फिल्म एनआरआई ऑडियंस को प्राथमिकता में रखते हुए बनाते हैं, लेकिन नसों में खास किस्म का विचार या विचारधारा इंजेक्ट करते हैं इंडिया के महानगरों और कस्बों में भी। जो गलत है। जब तक इस पर सार्वजनिक बहस पूरी न हो, आपको फिल्मी माध्यम का इस्तेमाल कुछ बेपरवाही से नहीं करना चाहिए। जाहिर है, मीडियोक्रिटी शब्द के पीछे अपने तर्क पुख्ता करने के लिए निखिल अडवाणी ने लॉजिकल सीन और डायलॉग प्रायोजित करने की कोशिश तो की ही है। खैर, इस पर खूब बात होनी चाहिए।

आखिर में...
मुझे सबसे अच्छा लगा फिल्म में अक्षय के कैरेक्टर का नाम... परगट सिंह काहलों। ऐसे जमीनी ठसक वाले नाम गुडी-गुडी फिल्मों के चक्कर में जैसे गायब ही हो गए थे। सरदारों के नाम बस मजाक में ही इस्तेमाल करने के लिए गढ़े जाने लगे। परगट सिंह काहलों छाछ और दही पिया हुआ नाम लगता है। दूसरी अच्छी बात अनुष्का-अक्षय की कैमिस्ट्री। तीसरी ऋषि की परफॉर्मेंस और डिंपल की साथ उनकी जोड़ी। (प्रकाशित)
गजेंद्र सिंह भाटी

Saturday, July 3, 2010

कैसे लड़ी जाए ये लड़ाई, कैसे देखी जाए प्रहार ?

प्रहार को गांधी जयंती के दिन देखा था। हिंसा और प्रति-हिंसा का दिन और फिल्म। फिल्म में कई पहलू हैं। देखने के कई तरीके हैं। मनोरंजन के लिए देखी जाए? फिल्म निर्देशन की नई ताजा भाषा का विश्लेषण करने के लिए देखी जाए? फासीवाद जैसे वाद की मौजूदगी पर कैसे बात की जाए, यह देखने के लिए देखी जाए? या, जैसे दिखे वैसे देखी जाए? ज़ाहिराना तौर पर सब अलग-अलग आंखों से ही देखेंगे। मगर, फिल्म मनोरंजन-मनोरंजन के बहाने कैसे आपकी रगों में एक वाद इंजेक्ट कर देती है, यह देखना जरूरी होगा। एक बार देखने में प्रहार जरूर मज़ेदार लगे। मगर, क्या इसमें सुझाए तरीके सही हैं? समर्थन करने लायक हैं? इस पर ख़ूब बात होनी चाहिए। कुछ अन्य बातें...


नाना पाटेकर का निर्देशन है। ये निर्देशन प्रहार में एक औसत किरदार (जो किरदार ग्लैमर से भरा नहीं है) में ग्लैमर गर्ल माधुरी दीक्षित को एक सीधे-साधे रूप में लाया है। ये निर्देशन थियेटर के बड़े पुरूष हबीब तनवीर को भी पीटर डिसूजा के पिता के किरदार में लाया है। कौन नहीं है इसमें..? मकरंद देशपांडे माधुरी के भाई के रूप में, डिंपल कपाड़िया एक विधवा के किरदार में और मकरंद-माधुरी के पिता के किरदार में अच्युत पौद्दार है। विलेन और बुरे किरदार हैं, स्टंट निर्देशक-फाइटर चीता यग्नेश शेट्टी। वही चीता शेट्टी, जिन्होंने रित्विक रोशन को कसरती बदन वाला बनाया।


  • कोई और फिल्म होती तो होटल में मेजर चौहान बने नाना पाटेकर से मिलने डिंपल कपाड़िया अकेले आती, लेकिन इसमें माधुरी भी साथ आईं। क्योंकि, कोई भी अकेली औरत एक होटल में एक अनजान आदमी से मिलने अकेले नहीं आएगी। समाज और हमारी फिल्मों के नैतिक ढांचे में यह बात है।
  • कमांडो ट्रैनिंग ले रहे युवक देखे़। उनकी अंगुलियां पत्थर से भी सख्त और काली। उभरे हुए अंगुलियों के जुड़ाव। प्रशिक्षक पाटेकर की त्वचा, चेहरे पर उभरा तेज, हड्डीनुमा मुंह और किसी आम कपड़ों में दिखने वाले किसी फौजी की तरह। एकदम वैसे ही। यही ख़ास है।
  • प्रहार के अलावा कोई ऐसी फिल्म नहीं जहां एक मरे हुए बेटे के पिता से उसके बेटे का सेना प्रशिक्षक मिलने आया है। और, उसके जवान बेटे के मरने का कारण पूछ रहा है। और, बातों के बीच उसका बाप एक तमाचा आर्मी अधिकारी के गाल पर जड़ देता है। यह दृश्य भी ख़ास है।


प्रहार फिल्म है। लक्ष्य भी थी। सेना में जाने के इच्छुक और एनसीसी के कैडेट युवाओं से पूछिए। उनके बीच हमेशा दोनों फिल्मों को लेकर बहस चल रही होती है। कि, आख़िर कौनसी फिल्म सेना के यथार्थ के ज्यादा क़रीब है। जाहिर है कि दोनों पक्ष अपने पर ही अड़े रहते हैं। सेना में चयन हो जाने या पीछे छूटकर सिविलियन रह जाने पर तर्क और भी पक्के या कच्चे होते जाते हैं। हां, सेना में जाने वाले युवक शहादत की कहानियों को और नायकत्व के आम रोमांसवाद को ख़ारिज करते हुए इस पैशे के साथ बिना किसी ग़लतफहमी के साथ जीने लगते हैं। फिल्म में पुलिस अधिकारी की भूमिका में जो भी है, वह एक आम बॉलिवुडी पुलिसवाला नहीं है।

मीडिया का विश्लेषण यहां भी है। अ वेडनसडे, आमिर, मुंबई मेरी जान, रण, न्यू डेहली टाइम्स, नरसिम्हा और कई ऐसी ही फिल्मों में अलग-अलग रूपों में हमारे सामने पहले से है। पर यहां सब कुछ धारदार है। मेजर चौहान यानी नाना पाटेकर अख़बार के दफ़्तर जाता है। पीटर को मीडिया के ज़रिए इन्साफ जैसा ही कुछ दिलाने। या शायद परिस्थितियों को टटोलने। वहां बैठे अधेड़ उम्र के पत्रकार से नाना पाटेकर का संवाद चलता है।
" आप इसे न्यूज कहते हैं. बंबई जैसे शहर में यह कोई न्यूज है। रोज़ यहां लोग मरते हैं।"
" पीटर कोई आम इंसान नहीं था। ...उसे शौर्य चक्र मिला था। उग्रवादियों से लड़ते हुए। "
" उग्रवादियों पर तब छापा था। ...अब कोई न्यूज नहीं है। "
(तभी मेज़ पर पड़े फोन की घंटी बजती है)
" हैलौ... क्या? होम मिनिस्टर को ठंडी लग गई ? छापता हूं। क्या? फोरेन जा रहे हैं? ओ भी छापता हूं। "
आगे के संवाद नाना की आंखें कहती है। दृश्य का पटाक्षेप।


  • किराये पर दिए जाने वाले अपने घर के कमरे को दिखाता छोटा लड़का , जो कि लड़की है, विशेष है। चंद्रकांत देवधर यानी प्यार का नाम चीकू। .. फिल्म में किरण का किरदार निभाती डिंपल कपाड़िया का बेटा।
  • एक बूढ़े पिता से उसका जवान बेटा छिन गया। क्योंकि, उसने ग़लत के सामने घुटने नहीं टेके। गर्भवती डिंपल कपाड़िया अपने पति के साथ पिकनिक पर गई, गुंडों ने छेड़खा़नी की तो ग़लत के विरोध में उसका पति मारा गया।
  • शर्ली यानी माधुरी का भाई मकरंद भी विशेष किरदार है। फौज के जीवन आदर्शों से अलग किरदार है शर्ली का भाई। ख़ासतौर पर नाना पाटेकर के लिए। उसके पास भी समाज और देश की कुछ शिकायतें हैं। सिगरेट के काग़ज में मसाला भरकर पीने का डंडा तैयार कर रहा है और अपनी परेशानियां गिनवा रहा है। सामने लाचार वृद्ध बाप बैठा है। पास ही में फौज के अधिकारी बने नाना पाटेकर बैठे हैं। मकरंद का किरदार अपने पिता को बोल रहा है और दर्शक सुन रहे हैं।

" फ्रीडम फाइटर बनते हैं। अरे कंट्री के वास्ते कोई घर बरबाद करता है। जिंदगी भर ईमानदारी की चिंगम चबाते रहे। अरे ईमानदारी से पेट भरता है क्या। अच्छी नौकरी मिल रही थी मुंबई में। लाखों के ढेर लगा देता। मगर, एक 5,000 रुपया नहीं निकला तुम्हारे से। मदद के नाम पर सरकारी भूख मिलती है, .... उसके लिए भी जिंदा होने का सर्टिफिकेट देना पड़ता है।"
यहां संवाद अदायगी में ठहराव और गति इस दृश्य को अक्षुण्ण बनाती है।

सड़क पर से मंत्री की गाड़ी गुजरने वाली है। लोगों को चलने फिरने, सड़क पार करने से रोक दिया गया है। एक पुलिसवाला है, जो एक गर्भवती औरत को सड़क पार कर जाने नहीं देता है। दया की याचना कोई काम नहीं आती है। साथ वाली औरतें फिर भी गिड़गिड़ाती है। सेना के समाज से निकल कर नाना का किरदार नागरिक समाज में आया है। इसलिए घूमकर लोगों, चीजों और समाज के भीतर के समाजों का जायजा ले रहा है। लोगों के बीच बने आर्थिक और सामाजिक वर्गों को देख रहा है। वह इस वक्त खड़ा सबकुछ देख रहा है। पाटेकर पुलिसवाले को झकझोरता है। ".. किस बात की तनख्वाह लेते हैं आप ? किसकी तनख्वाह लेते हैं आप ?अगर आप भी सड़क पर पैदा होते तो। वो देखिए, वो आपकी मां है। और वो आप है.... आप पैदा हुए और मर भी गए।"
हफ्ता लेते गुंडों से भिड़ने पर मुहल्ले के लोग पाटेकर पर ही पत्थर फैंकते हैं। पाटेकर पत्थर खा रहा है। उसका ध्यान पत्थरों पर नहीं है, बल्कि पत्थर मारने वालों पर है। आख़िर ये कैसे लोग हैं। आख़िर ये हमने कैसा समाज बना दिया है। इन गुंडों के ख़िलाफ किसी की नजरें भी नहीं उठती, मगर मेजर चौहान के गुंडों से भिड़ने पर उसे ही मारने के लिए सब अपने-अपने हाथों में पत्थर ले लेते हैं। पाटेकर का किरदार समझ रहा है। माथे से लहू बह रहा है। दिमाग़ लोगों और समाजों को समझने में व्यस्त है। दिल टूट गया है।

अपनी मां को ढूंढने के भ्रम में या कहें तो उसकी यादों और अपने बचपन को ढूंढने नाना पाटेकर नगरवधुओं के इलाके में जाता है। आपके सटीक शब्दों में कहें तो वेश्याओं के मोहल्ले में। मगर, अब क्या। अब वहां कुछ भी तो नहीं है। रात के अंधेरे में लौटते कदमों में मदद के लिए चिल्ला रही एक लड़की को नाना जबरदस्ती करने वालों से छुड़वाता है। छोटी उमर में तो पाटेकर अपनी मां को गुंडों यानी बुरे लोगों से नहीं छुड़ा पाया, मगर अब उसने ऐसा करके अपना कर्तव्य पूरा किया है। अपने किराये के कमरे की सीढ़ियां चढ़ते वक्त डिंपल उससे पूछती हैं, "क्या राजकुमार को उसकी मां मिली?" जवाब में पाटेकर मुस्कुराता है, आज उसने अपनी मां को बिकने से बचा लिया।

अंत में नाना पाटेकर हफ्ता मांगने और पीटर के सिर पर पत्थर पटककर मारने वाले को उसी की बेकरी की दुकान के आगे मारता हैं। ...मार देता है। संहारक की आवाज कहती है, "तुम्हें ख़त्म करना बहुत मुश्किल है। तुम्हारी तादाद बहुत ज्यादा है। कीड़े-मकोड़ों की तादाद में हो तुम। इसका मतलब ये नहीं है कि मैं चुप बैठुंगा। मैं तुम्हें मारता रहूंगा।"

अंतिम दृश्यों में एक अदालत का दृश्य है। इसमें थियेटर का प्रभाव साफ है। डिंपल, इंस्पेक्टर, शर्ली का भाई, नाना का वरिष्ठ सैन्य अधिकारी, पीटर का पिता, शर्ली और बाकी सभी बैठे हैं। अदालत कहती है कि मेजर चौहान को मानसिक चिकित्सा की जरूरत है।

मानसिक रूग्णालय में नाना जमीन में पौधे लगा रहा है। चिंटू आता है। चेहरे पर लालिमा आ जाती है
"तुम्हारे हाथ में मिट्टी लगी है। छी...
...चिंटू ....मिट्टी को छी नहीं कहते, इसी में तो फूल उगते हैं.." जैसा संवाद फिल्म की रेंज बताता है। यह बताता है कि देश की नई पौध कैसी हो।

फिल्म का अंतिम दृश्य है। नाना पाटेकर खिड़की के बाहर डूबते सूरज को देख रहा है। कि, अगली सुबह नई सुबह होगी। नई पौध को दुश्मन से लड़ने की ट्रैनिंग देंगे। सुबह की दौड़ से शुरुआत होगी। हालांकि इस सोच को एक आदर्श सोच नहीं कहा जा सकता है। मगर, फिल्म के इस दृश्य को देखें। सेना की पोशाक में प्रशिक्षक नाना दौड़ रहे हैं। और, पीछे हैं सैंकड़ों बच्चे। ये बच्चे दौड़ रहे हैं, उसी अवस्था में जैसे वे मां की कोख़ से इस दुनिया में आते हैं। ये सभी पवित्र हैं और दुनिया में आने के साथ ही यहां अपने निर्माण की प्रक्रिया में हैं।
दुश्मन से लड़ने का प्रशिक्षण शुरू हुआ है। पार्श्व में गीत बज रहा है.....
" हमारी ही मुट्ठी में आकाश सारा, जब भी खुलेगी चमकेगा तारा...
कभी ना ढले जो, वो ही सितारा, दिशा जिस से पहचाने संसार सारा..."

हथेली पे रेखाएं हैं सब अधूरी, किस ने लिखी हैं नहीं जानना है,
सुलझाने उनको न आएगा कोई, समझना हैं उनको ये अपना करम है।
अपने करम से दिखाना हैं सब को, खुद को पनपना, उभरना है खुद को,
अंधेरा मिटाए जो नन्हा शरारा, दिशा जिस से....

हमारे पीछे कोई आए न आए, हमें ही तो पहले पहुंचना वहां है
जिन पर है चलना नई पीढ़ियों को, उन ही रास्तों को बनाना हमें है।
जो भी साथ आए उन्हें साथ ले ले, अगर ना कोई साथ दे तो अकेले
सुलगा के खुद को मिटा ले अंधेरा, दिशा जिस से..."



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गजेंद्र सिंह भाटी