Monday, February 27, 2012

सब स्पेशल एजेंटों में हीरोइज्म से भरी बस एक, मैलोरी

फिल्मः हेवायर
निर्देशकः स्टीवन सोडरबर्ग
कास्टः जीना कैरेनो, चैनिंग टेटम, माइकल एंगरैनो, माइकल फासबैंडर, माइकल डगलस, एंटोनियो बैंडारेस, इवॉन मैकग्रेगर
स्टारः तीन, 3.0/5
एक लड़की मैलोरी (जीना कैरेनो) अपस्टेट न्यू यॉर्क के एक कैफे में आई है। थोड़ी देर में एरॉन (चैनिंग टेटम) बाहर से आता है और उसके सामने अलसाए चेहरे के साथ बैठ जाता है। बीयर मांगता है, पर वहां मिलती नहीं इसलिए कॉफी ऑर्डर करता है। मैलोरी को अपने साथ चलने के लिए कहता है, पर वह मना कर देती है। और वह सर्व होती गर्मागर्म कॉफी एकदम से मैलोरी के चेहरे पर फैंक देता है और उसे बुरी तरह पीटना और लात-घूसे चलाना शुरू करता है। वहीं कुछ दूर बैठा एक लड़का स्कॉट (माइकल एंगरैनो) उसे पीछे से पकड़कर रोकने की कोशिश भी करता है। खैर, यहां फिल्म आपकी हलक सुखा देती है। कि कोई एक लड़की को ऐसे कैसे पीट सकता है। जब लगता है कि लड़की तो अधमरी हो गई तभी वो पलटती है और लपेट-लपेट कर एरॉन को पीटती है। उसे गोली लगी है पर बिना किसी ऊह-आह के फौलाद की तरह वह स्कॉट के साथ उसकी कार लेकर चली जाती है। यहां तक आते-आते अंदाजा हो जाता है कि जरा कमर सीधी करके बैठ जाइए, ये कोई ऐसी-वैसी फिल्म नहीं है। तो 'हेवायर' अच्छी फिल्म है। जरूर देखें। चूंकि ये थोड़ी गैर-पारंपरिक ट्रीटमेंट वाली फिल्म है इसलिए धीमी लग सकती है। कम नाटकीय लग सकती है। इसका बैकग्राउंड स्कोर आपके रौंगटे खड़े नहीं करता और इसकी हीरो जीना मर्मस्पर्शी एक्टिंग नहीं करती, पर देखते वक्त तारीफ के लहजे में जरूर सोचेंगे कि फिल्म का डायरेक्टर कौन है?

ये
अमेरिकी फिल्मों के कमर्शियल हीरोइज्म को बागी तरीके से इंसानी बनाने में जुटे निर्देशक स्टीवन सोडरबर्ग की फिल्म है। उनके तेवर भी ऐसे ही हैं। उनकी फिल्मों में बड़े-बड़े चेहरे (यहां माइकल डगलस, एंटोनियो बैंडारेस, माइकल फासबैंडर) होते हैं, पर उन स्टार्स को उतना ही भाव मिलता है जितनी स्क्रिप्ट में जरूरत होती है। एक्ट्रेस और पूर्व मिक्स्ड मार्शल आर्ट्स फाइटर जीना कैरेनो को लेकर बनाई उनकी ये फिल्म अब तक की सबसे रियल लगती स्पेशल एजेंट मूवी है। हर एक स्टंट वैसा है जैसा कि इंसानी क्षमताओं में संभव है। बार्सिलोना की सड़कों पर मैलोरी के दौड़ने वाला लंबा सीन, मैलोरी और एरॉन का ओपनिंग फाइट सीन और उसका होटल की छत की दूसरी छतों पर होते हुए बच निकलने का सीन... ये सब बेहतरीन फाइट कॉर्डिनेशन है। जो बहुत ही कच्चे, रॉ और रफ लगते हैं। आखिरी कितनी स्पेशल एजेंट फिल्मों में ऐसा होता है कि हीरो (यहां मैलोरी) गाड़ी तेजी से बैक लेकर पुलिस से बच रहा है और पीछे से अचानक कोई जानवर (बारहसिंगा) आ टकरा घुसे। ऐसा सोडरबर्ग की फिल्मों में होता है। 'मिशन इम्पॉसिबल' या 'रा.वन' या 'एजेंट विनोद' में संभवत नहीं।

'हेवायर' मैलोरी नाम की एक स्पेशल एजेंट की कहानी है जो एक प्राइवेट कंपनी में कॉन्ट्रैक्टर है। ये कंपनी गवर्नमेंट के लिए काम करती है और उनके गुप्त मिशन ठेके पर लेती है। कंपनी के एक मिशन के तहत मैलोरी और उसकी टीम बार्सिलोना में किडनैप किए गए जियांग (एंथनी ब्रैंडन वॉन्ग) को बचाती है और उसे कॉन्ट्रैक्ट देने वाले रॉड्रिगो (एंटोनियो बैंडारेस) को सौंप देती है। इसके बाद कंपनी का डायरेक्टर और मैलोरी का एक्स-बॉयफ्रेंड कैनेथ (इवॉन मैकग्रेगर) उसे एक आसान का काम करने को मनाता है, पर बाद में उसे पता चलता है कि उसे फंसाया गया है। इस धोखे का बदला लेने के लिए मैलोरी लौटकर एक-एक से हिसाब चुकता करती है।*** *** *** *** ***
गजेंद्र सिंह भाटी

Sunday, February 26, 2012

बेसबॉल और ब्रैड पिट का कुछ विरला इस्तेमाल करती ये तकड़ी फिल्म

फिल्मः मनीबॉल
निर्देशकः बैनेट मिलर
कास्टः ब्रैड पिट, फिलिप सेमूर हॉफमेन, जोना हिल, कैरिस डॉर्सी
सिनेमैटोग्रफीः वॉली पीफिस्टर
एडिटिंगः क्रिस्टोफर टेलेफसन
म्यूजिकः माइकल डाना
स्टारः साढ़े तीन, 3.5/5'मनीबॉल में परंपरागत स्पोट्र्स मूवी वाली बात नहीं है। 'चक दे इंडिया’ का शाहरुख सा कोच, उसके मेहनत करवाने के अलग तरीके, फैन्स, परेशानियां, मैच, हार और फिर आखि में जीत... ये सब अमेरिकी बेसबॉल मूवीज में भी होता आया है। मगर इस फिल्म में बात मैदान के भीतर की कम और एक जनरल मैनेजर बिली की प्रशासनिक कुशलताओं और पैशन की ज्यादा है। वह फोन पर दूसरे स्पोट्र्स एजेंटों से डील करता है, अपने खिलाडिय़ों से कम मिलता है, कोच को निर्देश देता है, प्लेयर्स का सौदा करता है, गुस्से में कुर्सियां इधर-उधर फेंकता है और फ्लैशबैक में अपने बेसबॉल नहीं जीत पाने के दिनों को याद करता है। फिल्म दिल से जरा सा ज्यादा दिमाग के लिए है। मुझे बहुत अच्छी लगी। खासतौर पर बिली बने ब्रैड पिट का एकाकीपन और गहनता। उनके किरदार के प्लेयर्स मैदान प उतना नहीं जलते जितना वह भीतर-भीतर जलता है। अपनी बेटी केजी (कैरिस डॉर्सी) से बात करते हुए वह बिल्कुल अलग हो जाता है। फिल्म का क्लाइमैक्स बहुत अलग और नया है। मोटे ऑफर को अस्वीकार कर अपने लक्ष्य को फिर से पूरा करने में उसका जुटना ही 'मनीबॉल’ को स्वीकार करने लायक बनाता है 2003 में आई माइकल लुइस की किताब 'मनीबॉल’ पर आधारित इस स्क्रीनप्ले के पीछे हैं 'सोशल नेटवर्क’ लिखने वाले एरॉन सॉर्किन और स्टीवन जिलियन। फिल्म की रीढ़ ये स्क्रीनप्ले, बैने मिलर का यंग निर्देशन और ब्रैड पिट-फिलिप सेमूर हॉफमैन जैसों की अक्षुण्ण एक्टिंग है। फिल्म जरूर देखें।

टीम बनाने का सूत्र
ओकलैंड एथलैटिक्स बेसबॉल टीम का जनरल मैनेजर है बिली बीन (ब्रैड पिट)। 2001 में उसकी टीम न्यू यॉर्क यैंकीज से हार गई है। अब जब उसके तीन स्टार खिलाड़ी टीम से बाहर जाने हैं, मैनेजमेंट के पास अच्छे प्लेयर्स खरीदने का पैसा नहीं है। अच्छी टीम खड़ी करने की कोशिशों में वह येल यूनिवर्सिटी से इकोनॉमिक्स पढ़े पीटर ब्रैंड (जोना हिल) से मिलता है और उसे अपना असिस्टेंट बना लेता है। दोनों मिलकर ऐसे खिलाडिय़ों को ढूंढते हैं, जिनके टेलंट को बड़े क्लबों ने नहीं पहचाना है। बाकी मैनेजमेंट के सदस्य और कोच आर्ट हॉवी (फिलिफ सेमूर हॉफमेन) उनके फैसलों से सहमत नहीं हैं। मगर बिली को जीतना है और खुद को साबित करके दिखाना है।*** *** *** *** ***
गजेंद्र सिंह भाटी

वीरेन को मिली, जीवन से भरी, मिनी

फिल्मः तेरे नाल लव हो गया
निर्देशकः मनदीप कुमार
कास्टः रितेश देशमुख, जेनेलिया डिसूजा, ओम पुरी, स्मिता जयकर, टीनू आनंद, चित्राशी रावत, नवीन प्रभाकर
सिनेमैटोग्रफीः चिरंतन दास
एडिटिंगः मनीष मोरे
म्यूजिकः सचिन-जिगर
स्टारः तीन, 3.0निर्देशक मनदीप कुमार ने अपनी इस पहली हिंदी फिल्म से निराश नहीं किया है। स्क्रिप्ट, आइडिया और संगीत के स्तर पर हम सबकुछ बहुतों बार देख चुके हैं। फिर भी 'तेरे नाल लव हो गया’ ऐसी है कि आप बेझिझक जा सकते हैं। फैमिली या फ्रेंड्स के साथ। जिनेलिया में जितनी तरह की मासूमियत और चंचलता इस फिल्म में समेटी गई है उतनी पहले कभी नहीं। 'पहले डांस करके दिखाओ और 'या लगाऊं कान के नीचे एक जैसे संवाद वही इतने चुलबुलेपन से निभा सकती थीं। ओमपुरी फिल्म में जान ले आते हैं। उनका हरियाणवी एक्सेंट बेदाग लगता है। बहुत अच्छा। जैसे एक सीन में मिनी के पिता बने टीनू आनंद फिरौती के पैसे लेकर आए हैं और वो जाना नहीं चाहती, सबसे कह रही है कि मुझे रोक लो, यहां ओम पुरी के किरदार की आंखें लाल और गीली हो जाती हैं। आमतौर पर टाइमपास फिल्मों में ऐसी बातों पर कोई ध्यान नहीं देता है। पर यहां दिया गया, जो खूबसूरत बात है। स्मिता जयकर को हरियाणवी औरत की वेशभूषा में देख अच्छी हैरत होती है। उनका किरदार जब जिनेलिया को रसोई में कहता है कि 'ले, खड़े प्याज काट दे’ तो यकीन हो जाता है कि मनदीप हल्के फिल्मकार नहीं हैं। उनको जमीनी चीजों का ज्ञान है। ऐसा कई जगहों पर है। वीरेन का मुंह अंधेरे ऑटो चलाने जाना, चौधरी के लिए खाने की थाली लेकर गई मिनी का बातें करते वक्त आंगन में नीचे बैठ जाना और कसौली की सड़कों पर एक बूढ़ी औरत का वीरेन को अखबार से पीटते हुए कहना कि 'क्यों, लड़की लेकर भागता है, लड़की लेकर भागता है। कुछ ढर्रे वाली चीजें भी हैं। मसलन, जिनेलिया का लाल लंगोट पहने पहलवानों को ऐरोबिक्स करवाना। फिल्म कुल मिलाकर लव करने वालों को खासतौर पर हंसाती-लुभाती है।

प्यार की हैपी-हैपी कहानी
भट्टी (टीनू आनंद) के यहां किराए का ऑटो चलाता है वीरेन (रितेश देशमुख)। साठ हजार जुटा चुका है, चार पहियों वाली टैक्सी लेना चाहता है। उधर भट्टी अपनी बेटी मिनी (जिनेलिया डिसूजा) की शादी एक रईस मगर नाकारा पंजाबी लड़के से करना चाहता है। उस लड़के को मिनी के कैनेडा वाले ग्रीन कार्ड में इंट्रेस्ट है। फिर वीरेन की परेशानियां शुरू होती हैं। उसके पैसे चले जाते हैं और चुलबुली मिनी उससे खुद को किडनैप करवा लेती है। दोनों भाग रहे हैं, प्यार हो रहा है और सरप्राइज हमारा इंतजार कर रहे हैं। कहानी में दमदार से चौधरी (ओम पुरी), चौधराइन (स्मिता जयकर), धानी (चित्राशी रावत) और नायडू (नवीन प्रभाकर) भी हैं।

तौले-मोले कुछ और बोल
# पंजाबी सिंगर और एक्टर दिलजीत दोसांझ का 'पी पा पी पा’ गाने में एंट्री लेना पंजाबी दर्शकों के लिए जोरदार फन बन जाता है।
# वीना मलिक का आइटम सॉन्ग 'मैं तेरी फैन बन गई’ फिल्म की सबसे बुरी-बेकार चीज है।
# पेट्रोल पंप पर अंगूठी वाले सीन में पंजाबी एक्टर राणा रणबीर मुझे जॉनी लीवर की याद दिलाते लगे, पर चलो हिंदी फिल्मों में उनकी एंट्री ठीक रही।
# चौधरी किडनैपिंग का कारोबार करते हैं। उनका अगुवा हाउस मुझे सीधे 'फंस गए रे ओबामा’ की याद दिला देता है। हूबहू वैसा। संयोग है कि प्रेरणा, फिल्मकार जाने।
# अभिजीत संधू की स्टोरी उतनी अभिनव या ताजी नहीं है जितना कि डायरेक्टर मनदीप कुमार का फिल्म के प्रति नजरिया। ताजेपन की ऐसी ही कमी सचिन-जिगर के संगीत में है। बस काम चलाऊ है।*** *** *** *** ***
गजेंद्र सिंह भाटी

मार्क वॉलबर्ग की बाकी फिल्मों सी तृप्ति यहां भी

फिल्म: कॉन्ट्राबैंड
निर्देशकः बाल्टसर कॉर्मेकर
कास्टः मार्क वॉलबर्ग, केट बेकिंगसेल, जियोवानी रिबिसी, सालेब लॉन्ड्री जोन्स, बेन फॉस्कर
स्टारः ढाई, 2.5/5

कभी स्मग्लिंग की दुनिया का जादूगर कहलाने वाला क्रिस (मार्क वॉलबर्ग) अब घरों में सिक्योरिटी अलार्म और कैमरा लगाने का ईमानदारी भरा काम करता है पर उसकी वाइफ केट (केट बेकिंगसेल) के भाई एंडी (सालेब लॉन्ड्री जोन्स) ने खुद को मुसीबत में डाल लिया है। उसे एक खतरनाक गुंडे टिम (जियोवानी रिबिसी) के ड्रग्स के सात लाख डॉलर दो हफ्ते में चुकाने है। हालात को देखते हुए क्रिस पनामा से एक करोड़ डॉलर के नकली बिल स्मग्ल करने का फैसला करता है। अपने बेस्ट फ्रैंड सबैश्यिन (बेन फॉस्टर) को अपनी वाइफ औ दो बेटों की हिफाजत करने के कहकर वह निकलता है। उसका रास्ता बड़ा मुश्किल है, लेकिन हारने का विकल्प उसके पास है नहीं।

आइसलैंड मूल के निर्देशक बाल्टसर कॉर्मेकर की 'कॉन्ट्राबैंड' को मैं बुरी फिल्म नहीं मानूंगा। ये चौंकाती बहुत कम जगहों पर है, पर ले-देकर जोड़े रखती है। एक हद तक थ्रिल पूरी फिल्म में बनी रहती है। तकनीकी तौर पर फिल्म में कहीं कोई खामी नहीं है, बस हम कुछ अनोखा नहीं पाते हैं। कहानी के लिहाज से भी हम मिलती-जुलती ढेरों फिल्में देख चुके हैं, इसलिए फिल्म खास नहीं हो पाती। हां, दो घंटे से कुछ कम का ये वक्त बीत जाता है और आप ऊबते नहीं हैं। जैसा कि मार्क वॉलबर्ग की मौजूदगी वाली फिल्मों में होता है, उनका एक अपना लहजा और सीधी-सपट एक्टिंग होती है। बस सारा ध्यान फिल्म और दर्शकों के साथ-साथ चलने पर होता है। उनका काम हमेशा डीसेंट होता है।

बेन फॉस्टर गहरे हैं। उनकी बोलती आंखें और पत्थर सा जड़ चेहरा अदाकारी में सबसे ज्यादा यूज होते हैं। जियोवानी रिब्सी को आप 'फ्लाइट ऑफ फीनीक्स' के सहमते लेकिन घमंडी और जिद्दी इलियट के तौर पर देख लें या और ' रम डायरी' के रमबाज फक्कड़ राइटर के रूप में, सब में सनकी होने की बात कॉमन है। इस फिल्म में भी वो सनकी, टैटू गुदाए, ड्रग क्रिमिनल बने हैं। 'कॉन्ट्राबैंड' देखी जा सकती है, अगर रेग्युलर हॉलीवुड मसाला देखना चाहें तो। चूंकि गति ठीक-ठाक है इसलिए देखते वक्त तसल्ली बनी रहती है।*** *** *** *** ***
गजेंद्र सिंह भाटी

Sunday, February 19, 2012

“एक रोज किशोरवय पान सिंह दुकान मिर्च लेने जाता है, और एक-डेढ़ साल लौटकर ही नहीं आता”

अभिनेता इरफान खान और निर्देशक तिग्मांशु धूलिया से बातचीत

'स्टार बेस्टसेलर्स और 'चाणक्य जैसी टीवी सीरिज में नजर आने वाला वह मेंढक जैसी बड़ी आंखों वाला एक्टर आज इंडिया की सबसे रईस फिल्मी प्रोफाइल वाला सेलेब्रिटी बनता जा रहा है। नहीं तो आंग ली जैसे प्रशंसित इंटरनेशनल निर्देशक की बहुप्रतीक्षित फिल्म 'लाइफ ऑफ पी में वह क्यों लिया जाता? नहीं तो स्पाइडरमैन फ्रैंचाइजी की आने वाली फिल्म ' अमेजिंग स्पाइडरमैन के लिए जब सिर्फ एक फिल्म पुराने निर्देशक मार्क वेब ने कास्टिंग करनी शुरू की तो उसे ही क्यों चुना? वह एक्टर 2 मार्च को बड़े परदे पर इस बार जब उतरेगा तो ख्यात एथलीट और कुख्यात डकैत पान सिंह तोमर बनकर। ये वह हैं इरफान खान। टौंक मूल के जयपुर से ताल्लुक रखने वाले सीधे-सपाट अभिनेता। उनसे पा सिंह तोमर के संदर्भ में बातें हुईं। साथ में सक्षम निर्देशक और फिल्म लेखक तिग्मांशु धूलिया भी थे। तिग्मांशु साहिब बीवी और गैंगस्टर का भाग-2 बना रहे हैं। इसमें इरफान भी होंगे। दोनों ठोस बातें करते हैं और पूरी सहमति-असहमति के साथ करते हैं। कोई लाग-लपेट नहीं, किसी प्रकार की कोई औपचारिक लोकालाज नहीं। चेहरे पर कोई नकली मुस्कान नहीं। बातें हुईं। सामूहिक सवालों के बीच मेरे चुभते प्रश्न भी थे, और हर प्रश्न पर दोनों की ओर से तकरीबन असहमति का भाव था। मंशा अपनी कला में सक्षम इन दोनों कलाकारों को असहज करने की नहीं थी, बल्कि उन्हें उस मनःस्थिति में डालने की थी, जिसमें रहकर सोचने की जरूरत है। बातचीत के कुछ अंशः


पान
सिंह का नाम पहली बार तिग्मांशु के मुंह से सुनने से लेकर फिल्म बनने तक किन-किन शारीरिक अनुभवों से गुजरे?
इरफान खानः तिग्मांशु ने कहानी मुझसे पहली बार कही तो लगा कि इसपर तो फिल्म बननी ही चाहिए। फिर तैयारी की। रिसर्च की। पर ज्यादा कुछ हाथ नहीं आया। फिर करते-करते इस सपने को पूरा करने में 8-10 साल लग गए। फिल्म में सिर्फ डकैत पान सिंह की कहानी नहीं है। वैल्यूज हैं, देश है, इमोशंस हैं और ढेरों दूसरी चीजें हैं। तैयारी करते हुए दौड़ना तो जाहिर तौर पर सीखना ही था। पर स्टेपलचेज यानी बाधा दौड़ अलग होती है। तो इसे सीखा। फिल्म की शूटिंग के दौरान दौड़ने के एक सीन में मेरा पैर टूट गया। अब जहां शूट कर रहे थे वहां कोई डॉक्टर या हॉस्पिटल तो था नहीं इसलिए गांव वालों से झाड़-फूंक करवाया। इसके अलावा मध्यप्रदेश की बोली बोलनी सीखी। इस रोल को कैसे समझूं और करूं, इसकी जद्दोजहद साथ-साथ दिमाग में चल रही थी।

चंबल में शूटिंग की है, आज क्या हालात हैं उस जगह के?
इरफान खानः वहां बागी आज भी हैं। वैसे ही हैं, उतने ही हैं। वहां के भौगोलिक हालात और सिस्टम ही ऐसा है कि आम लोगों के साथ इंसाफ नहीं होता। हालांकि पान सिंह के बागी बनने के पीछे कुछ और कारण भी रहे। मैं दुनिया घूमा हूं पर इतना खूबसूरत इलाका कहीं नहीं मिला। वहां खूबसूरत चंबल नदी बहती है। शानदार। ये पूरा इलाका ब्रैंड है पर लोग भूखे मर रहे हैं।

फिल्म से आपकी यादों में क्या कोई सीन अटका है?
इरफान खानः वैसे तो पूरी फिल्म ही ऐसे सीन से भरी पड़ी है। उनमें से एक सीन है। जब पान सिंह किशोर ही होता है। वह एक दिन घर से बगैर बताए मिर्च लेने दुकान जाता है और वापिस ही नहीं आता। बीवी और मां इंतजार करते रहते हैं। फिर एक-डेढ़ साल बाद एक दिन आता है। दरअसल, कहीं आर्मी की भर्ती होती है, तो उसमें टेस्ट देता है और चुन लिया जाता है। भर्ती हो जाता है। अब जब वह इतने लंबे वक्त बाद लौटा है तो इस कम उम्र में बीवी से जो उसका आमना-सामना होता है वह बहुत इमोशनल सीन था। मैंने बहुत सोचा कि कैसे किया जाए इसे। वो मिलेंगे तो कैसे बात करेंगे। कैसे नजरें मिलाएंगे। फिर वो घर में कहां जगह ढूंढते हैं, मिलते हैं और अपने प्यार को चरम तक पहुंचाते हैं।

लोग आपको अपना पसंदीदा एक्टर मानते हैं, आपको किसका अभिनय पसंद है?
इरफान खानः मुझे जॉनी लीवर का काम बहुत पसंद है। वह बहुत खुले हुए एक्टर हैं। उनकी एक्टिंग को बयां नहीं किया जा सकता है। पर अफसोस है कि उनका अब तक फिल्मों में सही इस्तेमाल नहीं हुआ है। मुझे उन्हें देख बहुत प्रेरणा मिलती है। फिर नसीर साहब हैं। फीमेल एक्टर तो सब अच्छी हैं।

कोई एक संवाद जो पसंद है इस फिल्म में?
इरफान खानः कई हैं। जैसे एक प्रोमो में ही है। पान सिंह का इंटरव्यू लेने कोई जर्नलिस्ट आती है। पूछती है, “डकैत कैसे बने”। तो वह कहता है, आपको समझ नहीं आया। बीहड़ में बागी होते हैं, डकैत मिलते हैं पार्लियामेंट में

अभिनेता नहीं होते तो इरफान क्या करते?
इरफान खानः पतंग उड़ा रहा होता। चैस खेलता। या बैठा होता। या कुछ नहीं करता। वैसे एक बार थैली बनाने का बिजनेस भी शुरू किया। पर बहुत बुरा लगता था, मन नहीं लगता था।

ऑफ बीट फिल्में और मुख्यधारा की फिल्में?
इरफान खानः जिन्हें आप ऑफ बीट कहते हैं, वो कुछ और तरह से एंटरटेन करती है। मुझे जो अच्छी लगती है करता हूं। चाहेथैंक यू हो यानॉक आउट। मुझे ‘नॉक आउट’ की कहानी अच्छी लगी और मैंने की। ‘थैंक यू’ की क्योंकि मुझे अनीस बज्मी के साथ काम करना था। मुझे वो आदमी पसंद है और काम करके बहुत मजा आया। कोई भी कहानी जो अच्छी लगे मैं करता हूं। ऑफ बीट या मुख्यधारा की बात नहीं है।

फिल्में जो कुछ-कुछ सच्चे विषयों पर बनी हैं, फिर भी हकीकत भरी नहीं लगती. मसलन, बिजॉय नांबियार कीशैतान’?
तिग्मांशु धूलियाः अलग-अलग फिल्में बनती हैं। बननी भी चाहिए। ‘शैतान’ टेक्नीकली बहुत अच्छी फिल्म थी। मुझे पसंद आई। फिल्म जमीन से जुड़ी नहीं थी। मैं जब देख रहा था तो लग रहा था कि हां, यार ये बच्चे हैं, नाराज से हैं, अजीब सा बर्ताव कर रहे हैं, अपने मां-बाप से, समाज से, ऐसा क्यों कर रहे हैं। मगर ध्यान रखने वाली बात ये है कि ये हमारे देश की पॉइंट वन वन पर्सेंट आबादी है। इतनी नहीं कि इनपर फिल्में बनाई जाए। ऐसी फिल्मों में जिनके बारे में और जो कहानी कह रहे हैं दोनों में फर्क है। दोनों के बीच एक-दूसरे को समझने का अभाव है। इस मामले में महबूब खान मिसाल हैं। वो कमाल के फिल्ममेकर थे। उन्होंनेमदर इंडिया बनाई। आप देखिए उस फिल्म में सबकुछ है। वह हकीकत भरी भी है, बनी भी अच्छे से है और इश्यू भी प्रासंगिक हैं।

हिंदी फिल्मों की दुनिया में स्क्रिप्ट की कमी है क्या?
तिग्मांशु धूलियाः वो क्या होती है। हर तरफ स्क्रिप्ट ही स्क्रिप्ट है। हर आदमी की जिंदगी इतनी रोचक है कि फिल्म बन सकती है। और दस मिनट लगते हैं स्क्रिप्ट लिखने में। बात स्क्रिप्ट की कमी की नहीं लोगों और समाज को समझने की कमी की है।

नाच-गाने वाली रॉम-कॉम ही इन दिनों ज्यादा से ज्यादा बन रही हैं। क्या ये अच्छी फिल्मों, सही मुद्दों वाली फिल्मों और सीरियस फिल्मों के बनने में रोड़ा हैं?
तिग्मांशु धूलियाः रोमैंस और सिंगिंग मुख्यधारा के कमर्शियल सिनेमा का मुख्य हिस्सा है और होना भी चाहिए। उसमें कोई खराबी नहीं है। क्योंकि नौटंकी के नाच गाने से ही तो एक्टिंग और फिल्में आई हैं। रही बात सोशल चेंज की तो बदलाव फिल्मों से नहीं आता। लोग फिल्में देखते हैं, एंजॉय करते हैं, सिगरेट जलाते हैं और फिल्म को भूल जाते हैं। मेरा स्पष्ट मानना है कि बदलाव का कोई दूसरा जरिया हो नहीं सकता। वह सिर्फ और सिर्फ पॉलिटिकल क्रांति से ही आता है।

गली-गली चोर हैजैसी सार्थक इश्यू वाली फिल्म नहीं ली?
तिग्मांशु धूलियाः प्रोमो देखकर मुझे लगा था कि चल जाएगी, पर क्यों नहीं चली, पता नहीं। रूमी भाई (डायरेक्टर) बहुत अच्छे राइटर हैं और मुझे काफी पसंद हैं। पर आमतौर पर ही देखें तो सार्थक फिल्म होना ही काफी नहीं है। फिल्म अच्छी बनी हो ये भी बहुत जरूरी है। सबसे जरूरी है। फिल्ममेकिंग के अलावा सबसे जरूरी चीज है कि फिल्ममेकर अपने समाज को समझें। और आजकल के फिल्मकार अपने समाज को बिल्कुल भी नहीं समझ पा रहे। यही दिक्कत है।

फिल्म के कलाकारों को कहां से चुना है?
तिग्मांशु धूलियाः माही गिल और इरफान तो मुख्य कलाकार हैं ही। बाकी सभी थियेटर से हैं। नेशनल स्कूल ऑफ ड्रामा से हैं। कुछ मध्यप्रदेश से हैं। एफटीआईआई में हाल ही में एक्टिंग का कोर्स शुरू हुआ है तो कुछ वहां से हैं।

चंबल के डाकूओं या लोगों की बात होती है तो उनकी आवाज में एक किस्म के खुरदरेपन या रगड़ की उम्मीद स्वत: होती है। क्या आपने इसे तथ्य पर विचार किया है या इसे कैसे लेते हैं?
इरफान खानः देखिए मैं इस बात से इत्तेफाक नहीं रखता। डाकू है तो तिलक लगाएगा, घोड़े पर बैठेगा, भारी आवाज में बोलेगा, ये सब घिसे-पिटे सांचे हैं। चंबल के पानी में कुछ ऐसा थोड़े ही है कि सबकी आवाज खुरदरी या रगड़ वाली ही होगी। वहां हर आवाज और हर तरह का आदमी हो सकता है।

बैंडिट क्वीनसेपान सिंह तोमरकी तुलना होनी लाजमी है।बैंडिट क्वीनमें सबसे दो खास बातें थीं। पहली उसके लंबे-लंबे खूबसूरत वीराने वाली सिनेमैटोग्रफी और दूसरा झुनझुनाने वाला संगीत। इन दो चीजों का आपनेपान सिंह तोमरमें कितना ख्याल रखा है?
तिग्मांशु धूलियाः बहुत से लोगों को शायद नहीं पता कि मैं ‘बैंडिट क्वीन’ में था। कास्टिंग और डायरेक्शन से जुड़ा था। शेखर जी मेरे गुरू हैं और मैं चाहता नहीं था कि दिखने में पान सिंह तोमर’ ‘बैंडिट क्वीन सी लगे। नहीं तो लोग कहते कि चेले ने गुरू की नकल कर ली। लैंडस्केप का जहां तक सवाल है तो ‘बैंडिट क्वीन’ पूरी की पूरी चंबल में ही शूट हुई थी। मगर पान सिंह में कहानी चंबल के बाहर भी बहुत देर रहती है। जैसे पान सिंह ओलंपिक जाता है तो, उसके घर में जो कहानी चलती है वो और उसका फौज में भर्ती होना। संगीत का सवाल है तो हमारी फिल्म में दो-तीन गाने हैं जो पृष्ठभूमि में चलते हैं। म्यूजिक अभिषेक रे का है।

महानगरों में एंटरटेनमेंट की हल्की-फुल्की (गैर-गंभीर विषयों वाला) डोज चाहने वाले युवाओं की तादाद ज्यादा है और हो रही है। क्या उन्हें पान सिंह सहन होगी?
तिग्मांशु धूलियाः ऐसी कोई बात नहीं है। जैसे चंडीगढ़ है और अहमदाबाद है। ये दो बहुत हॉट टैरेटरी हैं। यहां ऑडियंस के पास खूब पैसा है। पर हल्की या भारी डोज वाला मामला नहीं है। सब फिल्म पर निर्भर करता है। स्क्रिप्ट पर निर्भर करता है। और अगर मैं स्क्रिप्ट पढ़कर सुना दूं, तो नरेट करने के पैसे ले सकता हूं, इतनी कमाल की स्क्रिप्ट पान सिंह की।
इरफान खानः मैं इस सवाल से सहमत नहीं हूं। यंगस्टर मुद्दों से जुड़ता है, चाहे भारी हो या हल्के या कैसे भी हों। ‘साहिब बीवी और गैंगस्टर’ उन्होंने पसंद की, वो देखना चाहते हैं। आपने अगर हॉलीवुड फिल्म की कॉपी बनाई है, या अच्छी नहीं बनाई है या बचकानी फिल्म बनाई है तो उन्हें पसंद नहीं आएगी। हमने ये परिभाषा भी बहुत सीमित कर दी है। एंटरटेनमेंट का मतलब सिर्फ हंसना नहीं होता। फिल्म ने अगर किसी को रुला दिया तो वो भी एंटरटेनमेंट ही है।*** *** *** *** ***
गजेंद्र सिंह भाटी

पॉटर के साये को पीछे छोड़ परिपक्व होकर आगे बढ़ते डेनियल

फिल्मः वूमन इन ब्लैक
निर्देशकः जेम्स वॉटकिन्स
कास्टः डेनियल रैडक्लिफ, सियरेन हिंड्स, मिशा हैंडली, लिज वाइट, सोफी स्टकी, जैसिका रेन
कॉस्ट्यूमः कीथ मैडन
स्टारः तीन, 3.0रामसे ब्रदर्स से होते हुए ओरेन पैली के आने तक हॉरर ने हमेशा दिल का दौरा देने की हद तक डराया है। छोटे बच्चे थे तो 'भूतिया हवेली देख सहम जाते, बड़े हुए तो 'पैरानॉर्मल एक्टिविटी ने सीना फाड़ दिया। इस लिहाज से 'द वूमन इन ब्लैक’ का हॉरर ज्यादा से ज्यादा लोग देख सकते हैं। बैचेनी भी लगातार बनी रहेगी और जब काले कपड़ों वाली वह औरत सामने आएगी तो डर के मारे हार्ट अटैक भी नहीं आएगा। निर्देशक जेम्स वॉटकिन्स की ये फिल्म सिर्फ भयंकर डर चाहने वाले युवाओं के लिए नहीं है, इसे पूरा परिवार देख सकता है। हां, ये ध्यान रखें कि आप हॉरर फिल्म देखने जा रहे हैं और उसमें तरह-तरह के मोड़, दुख, चिंताएं और क्लाइमैक्स भी आते हैं। उनके लिए तैयार रहें। एक सिंपल स्वस्थ हॉरर फिल्म।

हिंदी फिल्में देखने वालों के लिए इस फिल्म को पहचानने का सबसे पहला और आखिरी बिंदु हैं हैरी पॉटर फिल्मों में हैरी बनने वाले ब्रिटिश एक्टर डेनियल रैडक्लिफ। जिन लोगों को लगा होगा कि डेनियल कभी पॉटर की इमेज से बाहर नहीं निकल पाएंगे, उन्हें ये देखनी चाहिए। इस फिल्म में वह एक चार साल के प्यारे से ब्रिटिश एक्सेंट वाले बेटे जोसेफ (मिशा हैंडली) के पिता आर्थर क्रिप्स बने हैं। औ पिता के तौर पर इनकी पकड़ यहां से आखिर तक कायम रहती है। उनको एक पिता महसूस करवाने में चाइल्ड एक्टर मिशा की स्वीट जबान का बड़ा हाथ है। वह जब उन्हें 'पपा’ बोलते हैं तो थियेटर में मिसरी की डली घुल जाती है। बेटे को जन्म देते वक्त मर गई बीवी स्टेला (सोफी स्टकी) अभी भी आर्थर को अपने आस-पास महसूस होती है। वह उसके बुरे सपनों में आती है। पेशे से वकील ऑर्थर को पैसे की तंगी है और अगर उसने काम में सुधार नहीं किया तो नौकरी से भी निकाल दिया जाएगा। इन सब हालातों से डेनियल टूटे हुए भी लगते हैं, मगर काले कपड़ों वाली औरत के मामले को आखिर तक जानने की कोशिश में हिमत बटोरते दिखते हैं। ये सब भाव उनके चेहरे पर स्वत: ही आते हैं। उनके संपन्न दोस्त सैम डैली बने आयरिश अभिनेता सियरेन हिंड्स डेनियल रैडक्लिफ से ज्यादा बेहतर एक्टर हैं, यही उनके लिए बड़ी परीक्षा थी। वह जब आर्थर बन सैम के घर डिनर कर रहे होते हैं और बाद में कई बार पेग बांटते हैं तो बराबरी के लगते हैं। असल में इन दोनों अभिनेताओं की उम्र में जो दोगुना फर्क है, वह यहां मिट जाता है।

हालांकि सूजन हिल के नॉवेल 'द वूमन इन ब्लैक’ की कहानी पढऩे वालों को पता है, पर फिल्म देखने से पहले उसे न जानें तो ही अच्छा। हल्का सा अंदाजा हो इसलिए जानिए जरा सी कहानी। ये 1901 के बाद के ब्रिटेन की बात है। आर्थर एक वकील है और अपने बच्चे जोसेफ और उसकी दाई मां (जैसिका रेन) के साथ रहता है। कंपनी उसे इंग्लैंड के उत्तर पूर्व में एक द्वीप सी जगह पर बनी एलिस ड्रैब्लो की हवेली का केस दिया जाता है। इस काम से वह दूर बने इस गांव में जाता है। डरे-सहमे इस गांव में हर घर में बच्चों ने आत्महत्याएं कर ली है। लोग कहते हैं कि ये उस काले कपड़े वाली औरत की वजह से है जो हवेली में नजर आती है। आर्थर वहां जाता है और पता लगाने की कोशिश करता है। वहां एलिस अपने पति, बेटे नथैनियल और बहन जैनेट (लिज वाइट) के साथ रहती थी। पर उन सभी के मारे जाने के बाद वह हवेली खंडहर है। कोई वहां जाता नहीं। आर्थर को यहां नथैनियल की मौत और जैनेट (काले कपड़ों वाली औरत) के साये के बारे में पता चलता है। कहानी का अंत उमीद के मुताबिक नहीं होगा तो उसके लिए तैयार रहें।

इस फिल्म में क्वीन विक्टोरिया के मरने के बाद एडवर्ड काल के फैशन, कपड़े और ग्रामीण जीवन के अंधविश्वास की झलक है। कॉस्ट्यूम डिजाइनर कीथ मैडन ने दुख और डर में डूबे लोगों के कपड़ों में पक्का रंग सोच-समझकर दिया है। ब्रिटिश निर्देशक जेस वॉटकिन्स की ये फिल्म अच्छी है, प उनकी पहली हॉरर फिल्म 'ईडन लेक’ ज्यादा प्रभावी है। अपने जॉनर की फिल्मों से 'द वूमन इन ब्लैक’ कुछ कमजोर जरूर हो सकती है पर इसकी खासियत ये है कि ये सिंपल है। इसमें जेस का सारा ध्यान चेहरे वाले भावों और चीजों के इस्तेमाल से फिल्म को आगे बढ़ाने पर होता है।*** *** *** *** ***
गजेंद्र सिंह भाटी