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Sunday, February 19, 2012

“एक रोज किशोरवय पान सिंह दुकान मिर्च लेने जाता है, और एक-डेढ़ साल लौटकर ही नहीं आता”

अभिनेता इरफान खान और निर्देशक तिग्मांशु धूलिया से बातचीत

'स्टार बेस्टसेलर्स और 'चाणक्य जैसी टीवी सीरिज में नजर आने वाला वह मेंढक जैसी बड़ी आंखों वाला एक्टर आज इंडिया की सबसे रईस फिल्मी प्रोफाइल वाला सेलेब्रिटी बनता जा रहा है। नहीं तो आंग ली जैसे प्रशंसित इंटरनेशनल निर्देशक की बहुप्रतीक्षित फिल्म 'लाइफ ऑफ पी में वह क्यों लिया जाता? नहीं तो स्पाइडरमैन फ्रैंचाइजी की आने वाली फिल्म ' अमेजिंग स्पाइडरमैन के लिए जब सिर्फ एक फिल्म पुराने निर्देशक मार्क वेब ने कास्टिंग करनी शुरू की तो उसे ही क्यों चुना? वह एक्टर 2 मार्च को बड़े परदे पर इस बार जब उतरेगा तो ख्यात एथलीट और कुख्यात डकैत पान सिंह तोमर बनकर। ये वह हैं इरफान खान। टौंक मूल के जयपुर से ताल्लुक रखने वाले सीधे-सपाट अभिनेता। उनसे पा सिंह तोमर के संदर्भ में बातें हुईं। साथ में सक्षम निर्देशक और फिल्म लेखक तिग्मांशु धूलिया भी थे। तिग्मांशु साहिब बीवी और गैंगस्टर का भाग-2 बना रहे हैं। इसमें इरफान भी होंगे। दोनों ठोस बातें करते हैं और पूरी सहमति-असहमति के साथ करते हैं। कोई लाग-लपेट नहीं, किसी प्रकार की कोई औपचारिक लोकालाज नहीं। चेहरे पर कोई नकली मुस्कान नहीं। बातें हुईं। सामूहिक सवालों के बीच मेरे चुभते प्रश्न भी थे, और हर प्रश्न पर दोनों की ओर से तकरीबन असहमति का भाव था। मंशा अपनी कला में सक्षम इन दोनों कलाकारों को असहज करने की नहीं थी, बल्कि उन्हें उस मनःस्थिति में डालने की थी, जिसमें रहकर सोचने की जरूरत है। बातचीत के कुछ अंशः


पान
सिंह का नाम पहली बार तिग्मांशु के मुंह से सुनने से लेकर फिल्म बनने तक किन-किन शारीरिक अनुभवों से गुजरे?
इरफान खानः तिग्मांशु ने कहानी मुझसे पहली बार कही तो लगा कि इसपर तो फिल्म बननी ही चाहिए। फिर तैयारी की। रिसर्च की। पर ज्यादा कुछ हाथ नहीं आया। फिर करते-करते इस सपने को पूरा करने में 8-10 साल लग गए। फिल्म में सिर्फ डकैत पान सिंह की कहानी नहीं है। वैल्यूज हैं, देश है, इमोशंस हैं और ढेरों दूसरी चीजें हैं। तैयारी करते हुए दौड़ना तो जाहिर तौर पर सीखना ही था। पर स्टेपलचेज यानी बाधा दौड़ अलग होती है। तो इसे सीखा। फिल्म की शूटिंग के दौरान दौड़ने के एक सीन में मेरा पैर टूट गया। अब जहां शूट कर रहे थे वहां कोई डॉक्टर या हॉस्पिटल तो था नहीं इसलिए गांव वालों से झाड़-फूंक करवाया। इसके अलावा मध्यप्रदेश की बोली बोलनी सीखी। इस रोल को कैसे समझूं और करूं, इसकी जद्दोजहद साथ-साथ दिमाग में चल रही थी।

चंबल में शूटिंग की है, आज क्या हालात हैं उस जगह के?
इरफान खानः वहां बागी आज भी हैं। वैसे ही हैं, उतने ही हैं। वहां के भौगोलिक हालात और सिस्टम ही ऐसा है कि आम लोगों के साथ इंसाफ नहीं होता। हालांकि पान सिंह के बागी बनने के पीछे कुछ और कारण भी रहे। मैं दुनिया घूमा हूं पर इतना खूबसूरत इलाका कहीं नहीं मिला। वहां खूबसूरत चंबल नदी बहती है। शानदार। ये पूरा इलाका ब्रैंड है पर लोग भूखे मर रहे हैं।

फिल्म से आपकी यादों में क्या कोई सीन अटका है?
इरफान खानः वैसे तो पूरी फिल्म ही ऐसे सीन से भरी पड़ी है। उनमें से एक सीन है। जब पान सिंह किशोर ही होता है। वह एक दिन घर से बगैर बताए मिर्च लेने दुकान जाता है और वापिस ही नहीं आता। बीवी और मां इंतजार करते रहते हैं। फिर एक-डेढ़ साल बाद एक दिन आता है। दरअसल, कहीं आर्मी की भर्ती होती है, तो उसमें टेस्ट देता है और चुन लिया जाता है। भर्ती हो जाता है। अब जब वह इतने लंबे वक्त बाद लौटा है तो इस कम उम्र में बीवी से जो उसका आमना-सामना होता है वह बहुत इमोशनल सीन था। मैंने बहुत सोचा कि कैसे किया जाए इसे। वो मिलेंगे तो कैसे बात करेंगे। कैसे नजरें मिलाएंगे। फिर वो घर में कहां जगह ढूंढते हैं, मिलते हैं और अपने प्यार को चरम तक पहुंचाते हैं।

लोग आपको अपना पसंदीदा एक्टर मानते हैं, आपको किसका अभिनय पसंद है?
इरफान खानः मुझे जॉनी लीवर का काम बहुत पसंद है। वह बहुत खुले हुए एक्टर हैं। उनकी एक्टिंग को बयां नहीं किया जा सकता है। पर अफसोस है कि उनका अब तक फिल्मों में सही इस्तेमाल नहीं हुआ है। मुझे उन्हें देख बहुत प्रेरणा मिलती है। फिर नसीर साहब हैं। फीमेल एक्टर तो सब अच्छी हैं।

कोई एक संवाद जो पसंद है इस फिल्म में?
इरफान खानः कई हैं। जैसे एक प्रोमो में ही है। पान सिंह का इंटरव्यू लेने कोई जर्नलिस्ट आती है। पूछती है, “डकैत कैसे बने”। तो वह कहता है, आपको समझ नहीं आया। बीहड़ में बागी होते हैं, डकैत मिलते हैं पार्लियामेंट में

अभिनेता नहीं होते तो इरफान क्या करते?
इरफान खानः पतंग उड़ा रहा होता। चैस खेलता। या बैठा होता। या कुछ नहीं करता। वैसे एक बार थैली बनाने का बिजनेस भी शुरू किया। पर बहुत बुरा लगता था, मन नहीं लगता था।

ऑफ बीट फिल्में और मुख्यधारा की फिल्में?
इरफान खानः जिन्हें आप ऑफ बीट कहते हैं, वो कुछ और तरह से एंटरटेन करती है। मुझे जो अच्छी लगती है करता हूं। चाहेथैंक यू हो यानॉक आउट। मुझे ‘नॉक आउट’ की कहानी अच्छी लगी और मैंने की। ‘थैंक यू’ की क्योंकि मुझे अनीस बज्मी के साथ काम करना था। मुझे वो आदमी पसंद है और काम करके बहुत मजा आया। कोई भी कहानी जो अच्छी लगे मैं करता हूं। ऑफ बीट या मुख्यधारा की बात नहीं है।

फिल्में जो कुछ-कुछ सच्चे विषयों पर बनी हैं, फिर भी हकीकत भरी नहीं लगती. मसलन, बिजॉय नांबियार कीशैतान’?
तिग्मांशु धूलियाः अलग-अलग फिल्में बनती हैं। बननी भी चाहिए। ‘शैतान’ टेक्नीकली बहुत अच्छी फिल्म थी। मुझे पसंद आई। फिल्म जमीन से जुड़ी नहीं थी। मैं जब देख रहा था तो लग रहा था कि हां, यार ये बच्चे हैं, नाराज से हैं, अजीब सा बर्ताव कर रहे हैं, अपने मां-बाप से, समाज से, ऐसा क्यों कर रहे हैं। मगर ध्यान रखने वाली बात ये है कि ये हमारे देश की पॉइंट वन वन पर्सेंट आबादी है। इतनी नहीं कि इनपर फिल्में बनाई जाए। ऐसी फिल्मों में जिनके बारे में और जो कहानी कह रहे हैं दोनों में फर्क है। दोनों के बीच एक-दूसरे को समझने का अभाव है। इस मामले में महबूब खान मिसाल हैं। वो कमाल के फिल्ममेकर थे। उन्होंनेमदर इंडिया बनाई। आप देखिए उस फिल्म में सबकुछ है। वह हकीकत भरी भी है, बनी भी अच्छे से है और इश्यू भी प्रासंगिक हैं।

हिंदी फिल्मों की दुनिया में स्क्रिप्ट की कमी है क्या?
तिग्मांशु धूलियाः वो क्या होती है। हर तरफ स्क्रिप्ट ही स्क्रिप्ट है। हर आदमी की जिंदगी इतनी रोचक है कि फिल्म बन सकती है। और दस मिनट लगते हैं स्क्रिप्ट लिखने में। बात स्क्रिप्ट की कमी की नहीं लोगों और समाज को समझने की कमी की है।

नाच-गाने वाली रॉम-कॉम ही इन दिनों ज्यादा से ज्यादा बन रही हैं। क्या ये अच्छी फिल्मों, सही मुद्दों वाली फिल्मों और सीरियस फिल्मों के बनने में रोड़ा हैं?
तिग्मांशु धूलियाः रोमैंस और सिंगिंग मुख्यधारा के कमर्शियल सिनेमा का मुख्य हिस्सा है और होना भी चाहिए। उसमें कोई खराबी नहीं है। क्योंकि नौटंकी के नाच गाने से ही तो एक्टिंग और फिल्में आई हैं। रही बात सोशल चेंज की तो बदलाव फिल्मों से नहीं आता। लोग फिल्में देखते हैं, एंजॉय करते हैं, सिगरेट जलाते हैं और फिल्म को भूल जाते हैं। मेरा स्पष्ट मानना है कि बदलाव का कोई दूसरा जरिया हो नहीं सकता। वह सिर्फ और सिर्फ पॉलिटिकल क्रांति से ही आता है।

गली-गली चोर हैजैसी सार्थक इश्यू वाली फिल्म नहीं ली?
तिग्मांशु धूलियाः प्रोमो देखकर मुझे लगा था कि चल जाएगी, पर क्यों नहीं चली, पता नहीं। रूमी भाई (डायरेक्टर) बहुत अच्छे राइटर हैं और मुझे काफी पसंद हैं। पर आमतौर पर ही देखें तो सार्थक फिल्म होना ही काफी नहीं है। फिल्म अच्छी बनी हो ये भी बहुत जरूरी है। सबसे जरूरी है। फिल्ममेकिंग के अलावा सबसे जरूरी चीज है कि फिल्ममेकर अपने समाज को समझें। और आजकल के फिल्मकार अपने समाज को बिल्कुल भी नहीं समझ पा रहे। यही दिक्कत है।

फिल्म के कलाकारों को कहां से चुना है?
तिग्मांशु धूलियाः माही गिल और इरफान तो मुख्य कलाकार हैं ही। बाकी सभी थियेटर से हैं। नेशनल स्कूल ऑफ ड्रामा से हैं। कुछ मध्यप्रदेश से हैं। एफटीआईआई में हाल ही में एक्टिंग का कोर्स शुरू हुआ है तो कुछ वहां से हैं।

चंबल के डाकूओं या लोगों की बात होती है तो उनकी आवाज में एक किस्म के खुरदरेपन या रगड़ की उम्मीद स्वत: होती है। क्या आपने इसे तथ्य पर विचार किया है या इसे कैसे लेते हैं?
इरफान खानः देखिए मैं इस बात से इत्तेफाक नहीं रखता। डाकू है तो तिलक लगाएगा, घोड़े पर बैठेगा, भारी आवाज में बोलेगा, ये सब घिसे-पिटे सांचे हैं। चंबल के पानी में कुछ ऐसा थोड़े ही है कि सबकी आवाज खुरदरी या रगड़ वाली ही होगी। वहां हर आवाज और हर तरह का आदमी हो सकता है।

बैंडिट क्वीनसेपान सिंह तोमरकी तुलना होनी लाजमी है।बैंडिट क्वीनमें सबसे दो खास बातें थीं। पहली उसके लंबे-लंबे खूबसूरत वीराने वाली सिनेमैटोग्रफी और दूसरा झुनझुनाने वाला संगीत। इन दो चीजों का आपनेपान सिंह तोमरमें कितना ख्याल रखा है?
तिग्मांशु धूलियाः बहुत से लोगों को शायद नहीं पता कि मैं ‘बैंडिट क्वीन’ में था। कास्टिंग और डायरेक्शन से जुड़ा था। शेखर जी मेरे गुरू हैं और मैं चाहता नहीं था कि दिखने में पान सिंह तोमर’ ‘बैंडिट क्वीन सी लगे। नहीं तो लोग कहते कि चेले ने गुरू की नकल कर ली। लैंडस्केप का जहां तक सवाल है तो ‘बैंडिट क्वीन’ पूरी की पूरी चंबल में ही शूट हुई थी। मगर पान सिंह में कहानी चंबल के बाहर भी बहुत देर रहती है। जैसे पान सिंह ओलंपिक जाता है तो, उसके घर में जो कहानी चलती है वो और उसका फौज में भर्ती होना। संगीत का सवाल है तो हमारी फिल्म में दो-तीन गाने हैं जो पृष्ठभूमि में चलते हैं। म्यूजिक अभिषेक रे का है।

महानगरों में एंटरटेनमेंट की हल्की-फुल्की (गैर-गंभीर विषयों वाला) डोज चाहने वाले युवाओं की तादाद ज्यादा है और हो रही है। क्या उन्हें पान सिंह सहन होगी?
तिग्मांशु धूलियाः ऐसी कोई बात नहीं है। जैसे चंडीगढ़ है और अहमदाबाद है। ये दो बहुत हॉट टैरेटरी हैं। यहां ऑडियंस के पास खूब पैसा है। पर हल्की या भारी डोज वाला मामला नहीं है। सब फिल्म पर निर्भर करता है। स्क्रिप्ट पर निर्भर करता है। और अगर मैं स्क्रिप्ट पढ़कर सुना दूं, तो नरेट करने के पैसे ले सकता हूं, इतनी कमाल की स्क्रिप्ट पान सिंह की।
इरफान खानः मैं इस सवाल से सहमत नहीं हूं। यंगस्टर मुद्दों से जुड़ता है, चाहे भारी हो या हल्के या कैसे भी हों। ‘साहिब बीवी और गैंगस्टर’ उन्होंने पसंद की, वो देखना चाहते हैं। आपने अगर हॉलीवुड फिल्म की कॉपी बनाई है, या अच्छी नहीं बनाई है या बचकानी फिल्म बनाई है तो उन्हें पसंद नहीं आएगी। हमने ये परिभाषा भी बहुत सीमित कर दी है। एंटरटेनमेंट का मतलब सिर्फ हंसना नहीं होता। फिल्म ने अगर किसी को रुला दिया तो वो भी एंटरटेनमेंट ही है।*** *** *** *** ***
गजेंद्र सिंह भाटी

Wednesday, December 21, 2011

“इंडिया में शेखर कपूर से अच्छा डायरेक्टर नहीः तिग्मांशु धूलिया”

तिग्मांशु धूलिया फिल्ममेकिंग की जिन भट्टियों से होकर निकले हैं, वो उन्हें सबसे स्पेशल बनाती हैं। कल्ट फिल्मों की मेकिंग में वो शामिल रहे। चाहे मणिरत्नम की 'दिल से’ की स्क्रिप्ट लिखना हो, या शेखर कपूर की 'बैंडिट क्वीन’ और आसिफ कपाड़िया की अवॉर्ड विनिंग फिल्म 'द वॉरियर’ की कास्टिंग करना। टीवी को उन्होंने 'जस्ट मोहब्बत’ और 'स्टार बेस्टसेलर् जैसे अनोखे सीरियल दिए। बीते दिनों उनकी अच्छी फिल्म 'साहब बीवी और गैंगस्टर’ आई और अब इरफान खान के साथ बहुप्रतीक्षित फिल्म 'पान सिंह तोमर’ के आने की बारी है। इस सुपर सॉलिड निर्देशक से हुई ये बहुमूल्य बातचीत। संक्षिप्त अंश यहां, संपूर्ण संस्करण यानी अनकट वर्जन फिर कभी।

'पान सिंह तोमर’ कब से तैयार है, रिलीज में देरी क्यों?
हुआ ये कि 'पान सिंह तोमर’ की शूटिंग खत्म हो गई और ये तीन-चार फिल्म फेस्टिवल्स में गई। आबू धाबी, लंदन, न्यू यॉर्क। और बहुत सराही गई। बहुत अच्छे रिव्यूज मिले वहां। एक-आध रिव्यू तो ऐसे मिले कि मुझे खुद शर्म आने लग गई, कि ये फिल्म 'बैंडिट क्वीन’ से भी बेहतर है। मेरे तो गुरू हैं शेखर जी (शेखर कपूर, बैंडिट क्वीन के डायरेक्टर)। उसके बाद क्या हुआ कि 'पान सिंह...’ बिक चुकी थी, सैटेलाइट राइट बिक चुके थे। जब बेचे थे तब सैटेलाइट बतौर टैरेटरी बहुत हॉट नहीं थी, फिर एकदम से हॉट हो गई, क्योंकि बहुत से मूवी चैनल लॉन्च होने वाले थे। तो फिल्म के प्रॉड्यूसर यूटीवी ने चैनलों से प्राइस को लेकर फिर से बातचीत की। उसमें वक्त लग गया। उसके बाद क्या हुआ कि तब से लेकर दिसंबर-जनवरी तक हर हफ्ते इतनी सारी फिल्में है न, कि करेक्ट टाइम नहीं मिल रहा था 'पान सिंह...’ को रिलीज करने का, इसलिए अब फाइनली 9 मार्च 2012 को रिलीज होगी।

आपने मणिरत्नम और शेखर कपूर को असिस्ट किया है। आकांक्षी फिल्ममेकर-राइटर जिसका सपना देखा करते हैं। अपनी जिंदगी और फिल्मों में आपने इन दोनों से क्या लिया?
शेखर जी की पर्सनैलिटी बड़े चार्मिंग आदमी की है। वो चार्म तो मैं ला नहीं सकता। उनका अपना डीएनए है। कोशिश भी करता हूं तो फेल हो जाता हूं। लेकिन बतौर डायरेक्टर ईमानदारी से बोलूं तो इंडिया में उनसे अच्छा डायरेक्टर नहीं है। एक्टरों को कैसे हैंडल करना है, वो मैंने उनसे सीखा। बहुत प्यार से हैंडल करते हैं वो, कोई जोर-जबरदस्ती नहीं, कोई चिल्लाना नहीं, बहुत ही पोलाइट आदमी हैं। रियल लाइफ में भी बहुत तमीज से बात करते हैं। मैं कोशिश करता हूं उनके इस पहलू को पकडऩे का। मणि सर कमाल के डायरेक्टर हैं। विजय आनंद साहब के बाद कोई अगर गाने शूट करता है तो मणि सर करते हैं। दूसरा काम को लेकर उनकी इतनी शिद्दत है, एकदम पूजा की तरह लेते हैं। उसको लेकर मैं बहुत ही इंस्पायर्ड हूं।

आपने 'हासिल’ जैसी कल्ट फिल्म बनाई, पर 'साहब बीवी और गैंगस्टर’ तक आते-आते ऐसा क्यों लगने लगा कि कभी आप कोई मैग्नम ओपस (बहुत बड़ी) बनाना चाहें तो बजट के लिए थोड़ा सा स्ट्रगल करना पड़ता है?
नहीं, ऐसा नहीं है। जिस दिन पिक्चर 'चरस’ रिलीज हुई थी, उसके दूसरे ही दिन ही मैंने अपनी थर्ड पिक्चर की शूटिंग शुरू कर दी थी। थोड़ी एक्सपेरिमेंटल फिल्म थी। 'किलिंग ऑफ अ पॉर्न फिल्ममेकर’ नाम था उसका। इरफान (खान) था उसमें, तो हफ्ते भर शूटिंग की। फिर पता चला कि प्रॉड्यूसर ने उसी पैसे से कोई दूसरी फिल्म शुरू कर दी है, जिसका मुझे इल्म ही नहीं था। उन्होंने वो पिक्चर बना दी, पर आज तक रिलीज नहीं हो पाई और हमारी रुक गई। ऐसे में जो टाइम स्क्रिप्ट लिखने और प्री-प्रॉडक्शन में गया वो बर्बाद हो गया। उसके बाद आप जो बोल रहे हैं मैग्नम ओपस, तो मैंने बहुत बड़ी फिल्म उसके बाद शुरू की, 'गुलामी’ 1857 की क्रांति पर थी। सनी देओल के साथ। उसमें सनी, समीरा रेड्डी, इरफान और लंदन के बहुत सारे एक्टर थे। स्क्रिप्ट लिखने में बहुत वक्त लगा। लोकेशंस ढूंढी, कास्टिंग की, हथियार बनाए, कॉस्ट्यूम बनाई। पीरियड फिल्म थी तो उसमें बहुत टाइम गया। पूना के पास एक जगह है भोर, वहां पर मैंने 70 लाख का सेट लगाया। तीन दिन की शूट के बाद मुझे लगा कि कुछ पैसे की कमी हो रही है, कभी डीजल नहीं आ रहा है, कभी कुछ और। पता चला कि प्रॉड्यूसर के पास पैसे नहीं हैं। शूटिंग रुक गई। हफ्ते भर बाद प्रॉड्यूसर बिल्डिंग से गिर गया और शरीर की सारी हड्डियां टूट गई। वो एक साल बेड पर रहे और पिक्चर समेट ली गई। तो ऐसा नहीं है कि मैग्नम ओपस नहीं बनाऊंगा, जरूर बनाऊंगा उस फिल्म को।

'किलिंग ऑफ अ पॉर्न फिल्ममेकर’ के बारे में पूछना चाहता था कि फिर बंद क्यों हो गई?

इरफान और मैं अपने-अपने काम में लग गए। लेकिन बनाऊंगा मैं उसको, बड़ी इंट्रेस्टिंग स्क्रिप्ट है वो, बड़ी स्पिरिचुअल फिल्म है। रेसिज्म पर है, इंटरनेशनल रेसिज्म पर।

बहुत कम लोग जानते हैं कि आप 'बैंडिट क्वीन’ के कास्टिंग डायरेक्टर थे। आप एनएसडी से निकले, आपको ऑफर मिला, आपने किया। पर क्या ऐसा है कि कोई कास्टिंग डायरेक्टर नहीं बने रहना चाहता, आखिर में सबको डायरेक्टर ही बनना है?
जब मैंने 'बैंडिट क्वीन’ की तब कास्टिंग डायरेक्टर का बहुत डिसिप्लिन था नहीं। जो बाहर से फिल्में आती थी उसमें होते थे कास्टिंग डायरेक्टर। डॉली ठाकुर और ये लोग करते थे कुछ। लेकिन 'बैंडिट क्वीन’ की कास्टिंग सबको ऑन द फेस लगी। इंट्रेस्टिंग थी। अभी तो इंडस्ट्री में हैं कास्टिंग डायरेक्टर। मुकेश छाबड़ा है, नमिता सहगल है। अच्छा है और अब ये डिसिप्लिन में आ गया है।

मौजूदा वक्त में कौन फिल्ममेकर अच्छी फिल्में बना रहे हैं?
राजू हीरानी तो बेस्ट हैं। जितने अच्छे फिल्ममेकर हैं उतने ही अच्छे इंसान भी हैं वो। इम्तियाज का काम मुझे बहुत अच्छा लगता है। दिबाकर का काम मुझे बहुत इंट्रेस्टिंग लगता है। नीरज पांडे की 'अ वेडनसडे’ बहुत अच्छी लगी थी।

इतनी अच्छी राइटिंग कैसे कर लेते हैं?
ड्रामा स्कूल में एक्टिंग में स्पेशलाइज किया था। एक बड़ा रियलिस्टिक नाटक हुआ नॉर्वे के प्ले राइटर हैनरिक इब्सन का। उसका हिंदी में ट्रांसलेशन था जो बहुत खराब था। उसमें मुझे मेन रोल दे दिया गया। मैंने रोल निभाया मगर वो नाटक बहुत बड़ा फ्लॉप हुआ। तब से मैंने खुद से कहा कि मैं बहुत बुरा एक्टर हूं। अब कभी एक्ट नहीं करूंगा। पर इस वाकये के बाद से लगातार लिखने लग गया। हमेशा सोचता था कि एक्टर के लिए ऐसे डायलॉग हों जो थोड़े ड्रमैटिक तो हों, वजन वाले तो हों लेकिन ऐसे न लगें कि लिखे गए हैं। बड़े एफर्टलेस हों और एक्टर को बोलने में सुविधा हो। क्योंकि मैं खुद एक्टर था तो डायलॉग जब लिखता तो पहले बोलकर देखता कि मजा कैसे आएगा।
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गजेंद्र सिंह भाटी