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Sunday, February 19, 2012

“एक रोज किशोरवय पान सिंह दुकान मिर्च लेने जाता है, और एक-डेढ़ साल लौटकर ही नहीं आता”

अभिनेता इरफान खान और निर्देशक तिग्मांशु धूलिया से बातचीत

'स्टार बेस्टसेलर्स और 'चाणक्य जैसी टीवी सीरिज में नजर आने वाला वह मेंढक जैसी बड़ी आंखों वाला एक्टर आज इंडिया की सबसे रईस फिल्मी प्रोफाइल वाला सेलेब्रिटी बनता जा रहा है। नहीं तो आंग ली जैसे प्रशंसित इंटरनेशनल निर्देशक की बहुप्रतीक्षित फिल्म 'लाइफ ऑफ पी में वह क्यों लिया जाता? नहीं तो स्पाइडरमैन फ्रैंचाइजी की आने वाली फिल्म ' अमेजिंग स्पाइडरमैन के लिए जब सिर्फ एक फिल्म पुराने निर्देशक मार्क वेब ने कास्टिंग करनी शुरू की तो उसे ही क्यों चुना? वह एक्टर 2 मार्च को बड़े परदे पर इस बार जब उतरेगा तो ख्यात एथलीट और कुख्यात डकैत पान सिंह तोमर बनकर। ये वह हैं इरफान खान। टौंक मूल के जयपुर से ताल्लुक रखने वाले सीधे-सपाट अभिनेता। उनसे पा सिंह तोमर के संदर्भ में बातें हुईं। साथ में सक्षम निर्देशक और फिल्म लेखक तिग्मांशु धूलिया भी थे। तिग्मांशु साहिब बीवी और गैंगस्टर का भाग-2 बना रहे हैं। इसमें इरफान भी होंगे। दोनों ठोस बातें करते हैं और पूरी सहमति-असहमति के साथ करते हैं। कोई लाग-लपेट नहीं, किसी प्रकार की कोई औपचारिक लोकालाज नहीं। चेहरे पर कोई नकली मुस्कान नहीं। बातें हुईं। सामूहिक सवालों के बीच मेरे चुभते प्रश्न भी थे, और हर प्रश्न पर दोनों की ओर से तकरीबन असहमति का भाव था। मंशा अपनी कला में सक्षम इन दोनों कलाकारों को असहज करने की नहीं थी, बल्कि उन्हें उस मनःस्थिति में डालने की थी, जिसमें रहकर सोचने की जरूरत है। बातचीत के कुछ अंशः


पान
सिंह का नाम पहली बार तिग्मांशु के मुंह से सुनने से लेकर फिल्म बनने तक किन-किन शारीरिक अनुभवों से गुजरे?
इरफान खानः तिग्मांशु ने कहानी मुझसे पहली बार कही तो लगा कि इसपर तो फिल्म बननी ही चाहिए। फिर तैयारी की। रिसर्च की। पर ज्यादा कुछ हाथ नहीं आया। फिर करते-करते इस सपने को पूरा करने में 8-10 साल लग गए। फिल्म में सिर्फ डकैत पान सिंह की कहानी नहीं है। वैल्यूज हैं, देश है, इमोशंस हैं और ढेरों दूसरी चीजें हैं। तैयारी करते हुए दौड़ना तो जाहिर तौर पर सीखना ही था। पर स्टेपलचेज यानी बाधा दौड़ अलग होती है। तो इसे सीखा। फिल्म की शूटिंग के दौरान दौड़ने के एक सीन में मेरा पैर टूट गया। अब जहां शूट कर रहे थे वहां कोई डॉक्टर या हॉस्पिटल तो था नहीं इसलिए गांव वालों से झाड़-फूंक करवाया। इसके अलावा मध्यप्रदेश की बोली बोलनी सीखी। इस रोल को कैसे समझूं और करूं, इसकी जद्दोजहद साथ-साथ दिमाग में चल रही थी।

चंबल में शूटिंग की है, आज क्या हालात हैं उस जगह के?
इरफान खानः वहां बागी आज भी हैं। वैसे ही हैं, उतने ही हैं। वहां के भौगोलिक हालात और सिस्टम ही ऐसा है कि आम लोगों के साथ इंसाफ नहीं होता। हालांकि पान सिंह के बागी बनने के पीछे कुछ और कारण भी रहे। मैं दुनिया घूमा हूं पर इतना खूबसूरत इलाका कहीं नहीं मिला। वहां खूबसूरत चंबल नदी बहती है। शानदार। ये पूरा इलाका ब्रैंड है पर लोग भूखे मर रहे हैं।

फिल्म से आपकी यादों में क्या कोई सीन अटका है?
इरफान खानः वैसे तो पूरी फिल्म ही ऐसे सीन से भरी पड़ी है। उनमें से एक सीन है। जब पान सिंह किशोर ही होता है। वह एक दिन घर से बगैर बताए मिर्च लेने दुकान जाता है और वापिस ही नहीं आता। बीवी और मां इंतजार करते रहते हैं। फिर एक-डेढ़ साल बाद एक दिन आता है। दरअसल, कहीं आर्मी की भर्ती होती है, तो उसमें टेस्ट देता है और चुन लिया जाता है। भर्ती हो जाता है। अब जब वह इतने लंबे वक्त बाद लौटा है तो इस कम उम्र में बीवी से जो उसका आमना-सामना होता है वह बहुत इमोशनल सीन था। मैंने बहुत सोचा कि कैसे किया जाए इसे। वो मिलेंगे तो कैसे बात करेंगे। कैसे नजरें मिलाएंगे। फिर वो घर में कहां जगह ढूंढते हैं, मिलते हैं और अपने प्यार को चरम तक पहुंचाते हैं।

लोग आपको अपना पसंदीदा एक्टर मानते हैं, आपको किसका अभिनय पसंद है?
इरफान खानः मुझे जॉनी लीवर का काम बहुत पसंद है। वह बहुत खुले हुए एक्टर हैं। उनकी एक्टिंग को बयां नहीं किया जा सकता है। पर अफसोस है कि उनका अब तक फिल्मों में सही इस्तेमाल नहीं हुआ है। मुझे उन्हें देख बहुत प्रेरणा मिलती है। फिर नसीर साहब हैं। फीमेल एक्टर तो सब अच्छी हैं।

कोई एक संवाद जो पसंद है इस फिल्म में?
इरफान खानः कई हैं। जैसे एक प्रोमो में ही है। पान सिंह का इंटरव्यू लेने कोई जर्नलिस्ट आती है। पूछती है, “डकैत कैसे बने”। तो वह कहता है, आपको समझ नहीं आया। बीहड़ में बागी होते हैं, डकैत मिलते हैं पार्लियामेंट में

अभिनेता नहीं होते तो इरफान क्या करते?
इरफान खानः पतंग उड़ा रहा होता। चैस खेलता। या बैठा होता। या कुछ नहीं करता। वैसे एक बार थैली बनाने का बिजनेस भी शुरू किया। पर बहुत बुरा लगता था, मन नहीं लगता था।

ऑफ बीट फिल्में और मुख्यधारा की फिल्में?
इरफान खानः जिन्हें आप ऑफ बीट कहते हैं, वो कुछ और तरह से एंटरटेन करती है। मुझे जो अच्छी लगती है करता हूं। चाहेथैंक यू हो यानॉक आउट। मुझे ‘नॉक आउट’ की कहानी अच्छी लगी और मैंने की। ‘थैंक यू’ की क्योंकि मुझे अनीस बज्मी के साथ काम करना था। मुझे वो आदमी पसंद है और काम करके बहुत मजा आया। कोई भी कहानी जो अच्छी लगे मैं करता हूं। ऑफ बीट या मुख्यधारा की बात नहीं है।

फिल्में जो कुछ-कुछ सच्चे विषयों पर बनी हैं, फिर भी हकीकत भरी नहीं लगती. मसलन, बिजॉय नांबियार कीशैतान’?
तिग्मांशु धूलियाः अलग-अलग फिल्में बनती हैं। बननी भी चाहिए। ‘शैतान’ टेक्नीकली बहुत अच्छी फिल्म थी। मुझे पसंद आई। फिल्म जमीन से जुड़ी नहीं थी। मैं जब देख रहा था तो लग रहा था कि हां, यार ये बच्चे हैं, नाराज से हैं, अजीब सा बर्ताव कर रहे हैं, अपने मां-बाप से, समाज से, ऐसा क्यों कर रहे हैं। मगर ध्यान रखने वाली बात ये है कि ये हमारे देश की पॉइंट वन वन पर्सेंट आबादी है। इतनी नहीं कि इनपर फिल्में बनाई जाए। ऐसी फिल्मों में जिनके बारे में और जो कहानी कह रहे हैं दोनों में फर्क है। दोनों के बीच एक-दूसरे को समझने का अभाव है। इस मामले में महबूब खान मिसाल हैं। वो कमाल के फिल्ममेकर थे। उन्होंनेमदर इंडिया बनाई। आप देखिए उस फिल्म में सबकुछ है। वह हकीकत भरी भी है, बनी भी अच्छे से है और इश्यू भी प्रासंगिक हैं।

हिंदी फिल्मों की दुनिया में स्क्रिप्ट की कमी है क्या?
तिग्मांशु धूलियाः वो क्या होती है। हर तरफ स्क्रिप्ट ही स्क्रिप्ट है। हर आदमी की जिंदगी इतनी रोचक है कि फिल्म बन सकती है। और दस मिनट लगते हैं स्क्रिप्ट लिखने में। बात स्क्रिप्ट की कमी की नहीं लोगों और समाज को समझने की कमी की है।

नाच-गाने वाली रॉम-कॉम ही इन दिनों ज्यादा से ज्यादा बन रही हैं। क्या ये अच्छी फिल्मों, सही मुद्दों वाली फिल्मों और सीरियस फिल्मों के बनने में रोड़ा हैं?
तिग्मांशु धूलियाः रोमैंस और सिंगिंग मुख्यधारा के कमर्शियल सिनेमा का मुख्य हिस्सा है और होना भी चाहिए। उसमें कोई खराबी नहीं है। क्योंकि नौटंकी के नाच गाने से ही तो एक्टिंग और फिल्में आई हैं। रही बात सोशल चेंज की तो बदलाव फिल्मों से नहीं आता। लोग फिल्में देखते हैं, एंजॉय करते हैं, सिगरेट जलाते हैं और फिल्म को भूल जाते हैं। मेरा स्पष्ट मानना है कि बदलाव का कोई दूसरा जरिया हो नहीं सकता। वह सिर्फ और सिर्फ पॉलिटिकल क्रांति से ही आता है।

गली-गली चोर हैजैसी सार्थक इश्यू वाली फिल्म नहीं ली?
तिग्मांशु धूलियाः प्रोमो देखकर मुझे लगा था कि चल जाएगी, पर क्यों नहीं चली, पता नहीं। रूमी भाई (डायरेक्टर) बहुत अच्छे राइटर हैं और मुझे काफी पसंद हैं। पर आमतौर पर ही देखें तो सार्थक फिल्म होना ही काफी नहीं है। फिल्म अच्छी बनी हो ये भी बहुत जरूरी है। सबसे जरूरी है। फिल्ममेकिंग के अलावा सबसे जरूरी चीज है कि फिल्ममेकर अपने समाज को समझें। और आजकल के फिल्मकार अपने समाज को बिल्कुल भी नहीं समझ पा रहे। यही दिक्कत है।

फिल्म के कलाकारों को कहां से चुना है?
तिग्मांशु धूलियाः माही गिल और इरफान तो मुख्य कलाकार हैं ही। बाकी सभी थियेटर से हैं। नेशनल स्कूल ऑफ ड्रामा से हैं। कुछ मध्यप्रदेश से हैं। एफटीआईआई में हाल ही में एक्टिंग का कोर्स शुरू हुआ है तो कुछ वहां से हैं।

चंबल के डाकूओं या लोगों की बात होती है तो उनकी आवाज में एक किस्म के खुरदरेपन या रगड़ की उम्मीद स्वत: होती है। क्या आपने इसे तथ्य पर विचार किया है या इसे कैसे लेते हैं?
इरफान खानः देखिए मैं इस बात से इत्तेफाक नहीं रखता। डाकू है तो तिलक लगाएगा, घोड़े पर बैठेगा, भारी आवाज में बोलेगा, ये सब घिसे-पिटे सांचे हैं। चंबल के पानी में कुछ ऐसा थोड़े ही है कि सबकी आवाज खुरदरी या रगड़ वाली ही होगी। वहां हर आवाज और हर तरह का आदमी हो सकता है।

बैंडिट क्वीनसेपान सिंह तोमरकी तुलना होनी लाजमी है।बैंडिट क्वीनमें सबसे दो खास बातें थीं। पहली उसके लंबे-लंबे खूबसूरत वीराने वाली सिनेमैटोग्रफी और दूसरा झुनझुनाने वाला संगीत। इन दो चीजों का आपनेपान सिंह तोमरमें कितना ख्याल रखा है?
तिग्मांशु धूलियाः बहुत से लोगों को शायद नहीं पता कि मैं ‘बैंडिट क्वीन’ में था। कास्टिंग और डायरेक्शन से जुड़ा था। शेखर जी मेरे गुरू हैं और मैं चाहता नहीं था कि दिखने में पान सिंह तोमर’ ‘बैंडिट क्वीन सी लगे। नहीं तो लोग कहते कि चेले ने गुरू की नकल कर ली। लैंडस्केप का जहां तक सवाल है तो ‘बैंडिट क्वीन’ पूरी की पूरी चंबल में ही शूट हुई थी। मगर पान सिंह में कहानी चंबल के बाहर भी बहुत देर रहती है। जैसे पान सिंह ओलंपिक जाता है तो, उसके घर में जो कहानी चलती है वो और उसका फौज में भर्ती होना। संगीत का सवाल है तो हमारी फिल्म में दो-तीन गाने हैं जो पृष्ठभूमि में चलते हैं। म्यूजिक अभिषेक रे का है।

महानगरों में एंटरटेनमेंट की हल्की-फुल्की (गैर-गंभीर विषयों वाला) डोज चाहने वाले युवाओं की तादाद ज्यादा है और हो रही है। क्या उन्हें पान सिंह सहन होगी?
तिग्मांशु धूलियाः ऐसी कोई बात नहीं है। जैसे चंडीगढ़ है और अहमदाबाद है। ये दो बहुत हॉट टैरेटरी हैं। यहां ऑडियंस के पास खूब पैसा है। पर हल्की या भारी डोज वाला मामला नहीं है। सब फिल्म पर निर्भर करता है। स्क्रिप्ट पर निर्भर करता है। और अगर मैं स्क्रिप्ट पढ़कर सुना दूं, तो नरेट करने के पैसे ले सकता हूं, इतनी कमाल की स्क्रिप्ट पान सिंह की।
इरफान खानः मैं इस सवाल से सहमत नहीं हूं। यंगस्टर मुद्दों से जुड़ता है, चाहे भारी हो या हल्के या कैसे भी हों। ‘साहिब बीवी और गैंगस्टर’ उन्होंने पसंद की, वो देखना चाहते हैं। आपने अगर हॉलीवुड फिल्म की कॉपी बनाई है, या अच्छी नहीं बनाई है या बचकानी फिल्म बनाई है तो उन्हें पसंद नहीं आएगी। हमने ये परिभाषा भी बहुत सीमित कर दी है। एंटरटेनमेंट का मतलब सिर्फ हंसना नहीं होता। फिल्म ने अगर किसी को रुला दिया तो वो भी एंटरटेनमेंट ही है।*** *** *** *** ***
गजेंद्र सिंह भाटी

Wednesday, July 6, 2011

रियल प्रेस कॉन्फ्रेंस के रील सबक

इन एसीपी राठौड़ को हमने जॉन मैथ्यू मथान के निर्देशन में बनी 'सरफरोश' में देखा था। पहली बार कोई फिल्मी असिस्टेंट कमिश्नर ऑफ पुलिस इतना ह्यूमन लगा था। तब से 'सरफरोश' मेरी फेवरेट फिल्मों में और जय सिंह राठौड़ फेवरेट किरदारों में शामिल हो गए। उसके बाद अगर कोई दूसरा ऐसा किरदार मिल पाया है तो वो है जेसीपी रॉय का। जॉइंट कमिश्नर ऑफ पुलिस मुंबई (क्राइम) हिमांशु रॉय। मौका सीनियर क्राइम जर्नलिस्ट जे.डे के मर्डर केस पर रॉय की सबसे महत्वपूर्ण प्रेस कॉन्फ्रेंस का था, जो 27 जून को हुई। मैंने ज्यों ही देखना शुरू किया, त्यों ही इस इमेज एनेलिसिस में घुसता चला गया। घनी काली मूछें साउथ के हीरोज (सुपर) जैसी, मुख पर गंभीरता, दिमाग बर्फ सा शांत, चौड़ा ललाट, चौड़ा सीना, चौकड़ी वाला ब्लू शर्ट, अंदर सफेद टी-शर्ट, खाकी पेंट और खाकी सा बेल्ट। बोलने का अंदाज सीधा, सोफिस्टिकेटेड, बैलेंस्ड, सुलझा हुआ, क्लीयर, मैच्योर और एक फिल्मी हीरो (एसीपी/एसपी/डीसीपी/जॉइंट कमिश्नर/एसीपी क्राइम ब्रांच स्पेशल टीम) के लिहाज से बिल्कुल परफेक्ट। शायद परफेक्ट से भी ज्यादा ही परफेक्ट।

दर्जनों कैमरों के सामने केस सुलझाने वाली स्पेशल टीम खड़ी थी। सादे कपड़ों में ये सब 'आन:मेन एट वर्क' के डीसीपी हरिओम पटनायक (अक्षय कुमार) की सीबीआई टीम के मेंबर लग रहे थे। इनमें कोई अप्पा कदम (सुनील शेट्टी) था, कोई विक्रम सिंह (शत्रुघ्न सिंह) तो कोई कॉन्सटेबल खालिद अंसारी (परेश रावल). माइक के सामने जेसीपी हिमांशु रॉय के आते ही मुझे टीवी स्क्रीन 70 एमएम का परदा लगने लगी। अपनी प्रेंजेंटेशन में हीरोइक, सशक्त और रियलिस्टिक सी रॉय की ये कॉन्फ्रेंस फिल्ममेकर्स के लिए एक रियल डॉक्युमेंट साबित हो सकती है। इसमें फिल्मी जरूरत जितना ड्रामा भी है, हीरोइज्म वाला एटिट्यूड भी और देश की नजरों में चढ़ा हुआ बड़ा केस भी। बाकी उनकी मूछें और कपड़े भी सिचुएशन और कैरेक्टर को रियल बनाते हैं। केस के बारे में मीडिया को उन्होंने बेदाग अंग्रेजी, अच्छी हिंदी और मराठी तीनों भाषाओं में बताया। केस की एक-एक डीटेल बिना अटके, बिना कोई प्रेस नोट पढ़े वह बताते गए। ये लेंग्वेज वाला ऐसा पहलू है जो एक्टर्स के रोल को बहुत प्रभावी बना सकता है।

ये सोचने वाली बात है कि कमिश्नर, जॉइंट कमिश्नर और एसीपी तो पहले भी रहे हैं फिर बात सिर्फ रॉय के बारे में ही क्यों। क्योंकि उनके अनुकूल ही अभी हमारे दौर के फिल्मी पुलिसवाले और उनकी फिजिकैलिटी है। हमारे पुलिस और नॉन-पुलिस रोल में रॉय की घनी मूछें नजर आने लगी हैं। तभी तो बिन मूछ वाले हीरोज के दौर में हमने 'वंस अपॉन अ टाइम इन मुंबई' में एसीपी विल्सन (रणदीप हुड्डा, हीरो नहीं सूत्रधार), 'गंगाजल' में एसपी अमित कुमार (अजय देवगन) और 'खाकी' में डीसीपी अनंत श्रीवास्तव (अमिताभ बच्चन) को स्वीकार किया। मूछों और प्लॉट के मामले में साउथ के गहरे असर वाला फेज अभी हमारी फिल्मों पर चल रहा है। 'रावण' के एसपी देव प्रताप (विक्रम), 'दम मारो दम' के एसीपी विष्णु कामथ (अभिषेक) और 'सिंघम' के बाजीराव सिंघम (देवगन) में मूछों और अच्छी कद काठी वाला फैक्टर है। सबके चेहरे में वो एक हीरो और एक मॉडल वाला अंश झलकता है। 'शैतान' में भी राजीव खंडेलवाल की इंटेंसिटी में इनवेस्टिगेटिव एजेंसियों के काम करने के तरीके को देख सकते हैं। कमिश्नर पवन मल्होत्रा के साथ उनके अनौपचारिक-औपचारिक रहते, उग्र-शांत होते ताने-बाने को देख सकते हैं।

आप रॉय की कॉन्फ्रेंस का वीडियो नेट से निकालिए और एक-एक चीज को ऑब्जर्व करना शुरू करिए। आपको अपनी फिल्म का आदर्श हीरो नजर आएगा। एक-एक वाक्य के साथ उनके बोलने का तरीका और इस मर्डर केस में जल्दी रिजल्ट सामने ले आना हमें कायल करता है। जैसे हम एसीपी राठौड़ के 'सरफरोश' में होते जाते हैं। जैसे हम 'सिंघम' में बाजीराव सिंघम के हो सकते हैं। रॉय के पुलिस रिकॉर्ड पर मैं कोई टिप्पणी नहीं करता। मेरा ध्यान रियल और रील की इमेज पर है। कैसे असल जिंदगी के लोग रील के हीरोज से ज्यादा हीरोइक लगने लगते हैं और कैसे रील पर हमारे हीरो इन असली अधिकारियों से कुछ सीखकर ऐतिहासिक रोल निभा सकते हैं। इसमें 'दबंग' छिछला उदाहरण है तो 'सरफरोश-सिंघम' सीरियस। हालांकि 'सिंघम' घोर कमर्शियल फिल्म है पर सीरियस काम करने वाले अजय देवगन और उनकी 'गंगाजल' वाली ईमानदारी 'सिंघम' को सीरियसली स्वीकार करने योग्य बनाती है। रॉबिन हुड पांडे हमारे दिल में छोटी-छोटी अच्छी अदाओं से जगह बना लेते हैं। एसीपी राठौड़ हमारे जीवन के सबसे बेस्ट रोल्स में शुमार होते हैं। इसकी वजह ये है कि अपने काम को सही से न करने और लोगों के साथ बुरे बर्ताव के लिए बदनाम पुलिस की वर्दी को कुछ (फिल्मों में) अच्छे इंसान मिल जाते हैं, जो बहुत अच्छे हैं। सोचिए ऐसे में अगर हिमांशु रॉय जैसे लोग और उनकी क्राइम ब्रांच की रिजल्ट देने वाली टीम यूं मिलती है तो आने वाले वक्त में ऐसे फिल्मी रोल हमें ज्यादा असल लगेंगे और असल लोगों में फिल्मी हीरो वाला अंश दिखाई देने लगेगा।
गजेंद्र सिंह भाटी

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एक हिंदी दैनिक के साप्ताहिक कॉलम सीरियसली सिनेमा में प्रकाशित पहली कड़ी