Saturday, July 9, 2011

इन दिनों जो बच्चे हैं, वो इस फिल्म को संजोएंगे अपने बचपन की सुनहरी स्मृतियों में

फिल्म: चिल्लर पार्टी
डायरेक्टर: नीतेश तिवारी और विकास बहल
कास्ट: सनथ मेनन, नमन जैन, चिन्मय चंद्रांशु, रोहन ग्रोवर, आरव खन्ना, विशेष तिवारी, वेदांत देसाई, दिवजी हांडा, इरफान खान, श्रेया शर्मा
स्टार: साढ़े तीन, 3.5


बहुत दिन बात किसी मूवी से तृप्त होकर लौटा हूं। 'चिल्लर पार्टी' फिल्म का नाम जितना लापरवाह सा लगता है, इसकी स्टोरी और निर्देशन उतना ही झकास है। फिल्म में शायद ही कोई ऐसा सेकंड हो जहां आप नुक्स निकाल सकें। जहां भी हंसी (बहुत) आती है वो बासी नहीं लगती है। मुझे लगता है कि बहुत बरस के बाद बच्चों के लिए कोई अद्भुत मूवी आई है। इस मूवी को आप कैसे देखें, किसके साथ देखें... ये इस बार आपसे कहने की जरूरत नहीं पड़ेगी। हर क्लास और हर एज ग्रुप इसे जीभर के एंजॉय कर सकता है। शायद मैं 'दबंग' देखते वक्त भी उतना नहीं हंसा था, जितना 'चिल्लर पार्टी' ने हंसाया। अ मस्ट वॉच। जांगिया की भूमिका निभा रहे नमन जैन हंसाने में मामले में आज के बड़े-बड़े एक्टर्स से बहुत आगे खड़े नजर आते हैं।

इन बच्चों का परिचय
चंदन नगर कॉलोनी में ये सब बच्चे रहते हैं। कुछ-कुछ 'तारक मेहता का उल्टा चश्मा' की टप्पू सेना की तरह। इन्हें पड़ोस के एक अंकल (रवि झांकल) ने नाम दिया है चिल्लर पार्टी। टप्पू सेना ड्रमैटिक है पर चिल्लर पार्टी एंटरटेनिंग, रियलिस्टिक और ठहाकेदार। खैर, कहानी पर आते हैं। ज्यादा कुछ नहीं बताऊंगा, अदरवाइज फिल्म देखने में मजा नहीं आएगा। ये सात बच्चे एक ही स्कूल में पढ़ते हैं। इनके नाम तो अर्जुन, बलवान, लकी, लक्ष्मण और रमाशंकर है, मगर दोस्त कुछ और कहकर पुकारते हैं। एनसाइक्लोपीडिया (सनथ मेनन), जांगिया (नमन जैन), पनौती (चिन्मय चंद्रांशु), अकरम (रोहन ग्रोवर), अफलातून (आरव खन्ना), सेकंड हैंड (विशेष तिवारी), साइलेंसर (वेदांत देसाई) और शाओलिन (दिवजी हांडा).. ये निक नेम इनकी फनी आदतों और अजीब लाइफ की वजह से पड़े हैं। इनकी कॉलोनी में एक दिन गाड़ी साफ करने का काम करने फटका (इरफान खान) और उसका दोस्त भीड़ू (कुत्ता) आता है। इन सबमें गहरा लगाव हो जाता है। पर इस बीच कुछ ऐसा होता है कि इन बच्चों को अपनी दोस्ती के लिए एक लोकल नेता से भिडऩा पड़ता है। बिना कोई भाषणबाजी के फिल्म क्लाइमैक्स तक पहुंचती है। कैसे, यही पार्ट सबसे इंट्रेस्टिंग है।

बहुत ही कम्युनिकेटिव
देखा जाए तो ऐसी कहानी और विषय में करने के लिए ज्यादा कुछ होता नहीं है। मगर नीतेश तिवारी और विकास बहल ने अनूठा निर्देशन किया है। कैरेक्टर इंट्रोडक्शन से लेकर, फिल्म में एंटरटेनमेंट को लगातार बनाए रखने तक कहीं एक पल भी फेल नहीं होते। पहले मुझे लगा था कि यूटीवी के एसी ऑफिस में क्रिएटिव ऑफिसर बनकर बैठने वाले विकास डायरेक्शन में भला क्या कर पाएंगे, मगर उन्होंने बहुत कुछ किया। जितनी दिखती है ये फिल्म अपने ट्रीटमेंट में उससे ज्यादा मैच्योर है। आप कहीं भी इसे बाल फिल्म समझकर इग्नोर नहीं कर सकते हैं। अपने मिशन के पूरा करते वक्त ये बच्चे 'लगान' और 'चक दे इंडिया' के किरदारों और उनकी तैयारी जैसे लगते हैं। अमित त्रिवेदी का म्यूजिक सदाबहार नहीं है तो कहीं भी फिल्म पर थोपा गया नहीं लगता।

आखिर में...
एक फिल्ममेकर के लिए चैलेंज होता है कि उसकी फिल्म किसी रिक्शॉ चलाने वाले को भी बहुत आसानी से समझ आए और वही फिल्म ज्यादा पढ़े-लिखों को भी उतनी ही अच्छी लगे। 'चिल्लर पार्टी' ये चैलेंज पूरा करती है। इस साल की सार्थक फिल्मों में से एक। निश्चित तौर पर एंटरटेनमेंट टैक्स से मुक्त कर दिए जाने लायक।

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ग़जेंद्र सिंह भाटी

...क्योंकि लैरी कभी टॉम हैंक्स नहीं हो सकता है

फिल्म: लैरी क्राउन
डायरेक्टर: टॉम हैंक्स
कास्ट: जूलिया रॉबट्र्स, टॉम हैंक्स, गुगु मबाथा, सेड्रिक द एंटरटेनर, विल्मर वॉल्डरामा, जॉर्ज ताकेई
स्टार: दो, 2.0

टॉम हैंक्स की लिखी और डायरेक्ट की इस मूवी के लिए चंडीगढ़ में इससे बुरा और कुछ नहीं हो सकता था। टिकट काउंटर पर बैठी युवती फिल्म के बारे में पूछने पर बोली, 'केड़ी मूवी?' आखिर तक उनका उच्चारण वो लैरी वाली फिल्म से आगे नहीं बढ़ पाया। ऑडी के दरवाजे पर पहुंचा तो अटेंड करने खड़ा युवक बोला, 'एनी अदर मूवी सर, क्योंकि आपके अलावा कोई भी नहीं आया है।' खैर, हॉलीवुड की फिल्मों को लेकर शहर में इतनी कम जानकारी होना नई बात नहीं है। आते हैं 'लैरी क्राउन' पर। टॉम हैंक्स के करियर की सबसे कम याद रखी जाने वाली ये फिल्म जरूरत से ज्यादा ही हल्की है। न तो स्टोरी में कोई एक्साइटमेंट है, न ही इसमें कोई कथ्य है और न ही कहानी किसी लक्ष्य तक पहुंचती है। हैंक्स फैन हैं तो एक बार देख सकते हैं, जो कभी-कभार ही फिल्म देख पाते हैं उन्हें कुछ और ट्राई करना चाहिए। लैरी के पड़ोसी की भूमिका में लमार (सेड्रिक द एंटरटेनर) बार-बार आकर कुछ रिलैक्स करते हैं, पर उनका रोल भी दबा हुआ ही है।

बिना कहानी जैसी कहानी
खुशमिजाज एक्स नैवीमेन लैरी क्राउन (टॉम हैंक्स) यू मार्ट स्टोर में काम करता है। पिछले नौ साल उसे बेस्ट वर्कर का अवॉर्ड दिया गया है, इस बार मिलता है नौकरी से निकाला। इस पार्ट तक आते-आते 'अप इन द एयर' के जॉर्ज क्लूनी याद आने लगते हैं। टर्मिनेशन लेटर देने की बेस्ट गाथा तो वही है। खैर, लैरी को कारण ये बताया जाता है कि उसने अपनी पढ़ाई पूरी नहीं की थी। थोड़ी निराशा के बाद वह ईस्ट वैली कम्युनिटी कॉलेज में भर्ती होता है। जिस स्पीच कोर्स में उसने दाखिला लिया है उसकी निराश-खड़ूस प्रफेसर है मर्सी उर्फ मिस टेनो (जूलिया रॉबट्र्स). वह डॉ. मत्सुतानी (जॉर्ज ताकेई) की इकोनॉमिक्स क्लास में भी बैठता है और वहां बेस्ट है। वहीं उसकी यंग दोस्त बनती है तालिया (गुगु मबाथा). तालिया का बॉयफ्रेंड है स्कूटर गैंग का लीडर और अच्छे दिलवाला डेल गोर्दो (विल्मर वॉल्डरामा). देखिए ऐसे उलझिए मत, बताने को कहानी के नाम पर बस यही है। बाकी ये तो अंदाजा आपको भी होगा कि आखिरकार लैरी और टेनो एक-दूसरे के दिल में बस जाएंगे।

दो दिग्गज, दोनों व्यर्थ

जूलिया का रोल स्क्रिप्टवाइज बिल्कुल भी ऐसा नहीं है कि उस पर मोहित हो सकें। टॉम हैंक्स कॉलेज में आकर आखिर क्या हासिल करते हैं, ये समझ नहीं आता है। वह कहते हैं कि मिस टेनो की क्लास ने उनकी लाइफ बदल दी जबकि पूरे सैशन के दौरान वह सिखाती कुछ भी नहीं है। टॉम के साथ पढऩे वाली तालिया उसकी बेस्ट फ्रेंड क्यों है ये भी नहीं बताया जाता। वह टॉम को नई ड्रेसेज, घड़ी और हेयर कट देती रहती है, उसकी चिंता करती रहती है, क्यों ये नहीं पता। शायद सिर्फ इसलिए कि वो टॉम हैंक्स है। इसमें सुकून भरा सिर्फ उनका स्कूटर और लाइफ को जीने का शांत अंदाज है। हां, ये जरूर है कि ये कहानी, टॉम जैसे लोग और टेनो जैसी प्रफेसर हमारे आस-पास के ही लगते हैं। शायद इसी ने टॉम को कहानी लिखने के लिए प्रेरित किया हो।

आखिर में...
एक फिल्म पहले फिल्म होती है फिर कुछ और। चूंकि अब टॉम इतनी क्लासिक फिल्में कर चुके हैं तो किसी लैजेंड की तरह दर्शकों के छोर से नहीं खुद के छोर से सोचने लगते हैं। जिन्हें बुरा लग रहा हो वो नाखुश न हों 'द टर्मिनल', 'फॉरेस्ट गंप', 'कास्ट अवे' और 'सेविंग प्राइवेट रायन' जैसी हैंक्स मूवीज की ओर मुड़ें।

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गजेंद्र सिंह भाटी

Wednesday, July 6, 2011

रियल प्रेस कॉन्फ्रेंस के रील सबक

इन एसीपी राठौड़ को हमने जॉन मैथ्यू मथान के निर्देशन में बनी 'सरफरोश' में देखा था। पहली बार कोई फिल्मी असिस्टेंट कमिश्नर ऑफ पुलिस इतना ह्यूमन लगा था। तब से 'सरफरोश' मेरी फेवरेट फिल्मों में और जय सिंह राठौड़ फेवरेट किरदारों में शामिल हो गए। उसके बाद अगर कोई दूसरा ऐसा किरदार मिल पाया है तो वो है जेसीपी रॉय का। जॉइंट कमिश्नर ऑफ पुलिस मुंबई (क्राइम) हिमांशु रॉय। मौका सीनियर क्राइम जर्नलिस्ट जे.डे के मर्डर केस पर रॉय की सबसे महत्वपूर्ण प्रेस कॉन्फ्रेंस का था, जो 27 जून को हुई। मैंने ज्यों ही देखना शुरू किया, त्यों ही इस इमेज एनेलिसिस में घुसता चला गया। घनी काली मूछें साउथ के हीरोज (सुपर) जैसी, मुख पर गंभीरता, दिमाग बर्फ सा शांत, चौड़ा ललाट, चौड़ा सीना, चौकड़ी वाला ब्लू शर्ट, अंदर सफेद टी-शर्ट, खाकी पेंट और खाकी सा बेल्ट। बोलने का अंदाज सीधा, सोफिस्टिकेटेड, बैलेंस्ड, सुलझा हुआ, क्लीयर, मैच्योर और एक फिल्मी हीरो (एसीपी/एसपी/डीसीपी/जॉइंट कमिश्नर/एसीपी क्राइम ब्रांच स्पेशल टीम) के लिहाज से बिल्कुल परफेक्ट। शायद परफेक्ट से भी ज्यादा ही परफेक्ट।

दर्जनों कैमरों के सामने केस सुलझाने वाली स्पेशल टीम खड़ी थी। सादे कपड़ों में ये सब 'आन:मेन एट वर्क' के डीसीपी हरिओम पटनायक (अक्षय कुमार) की सीबीआई टीम के मेंबर लग रहे थे। इनमें कोई अप्पा कदम (सुनील शेट्टी) था, कोई विक्रम सिंह (शत्रुघ्न सिंह) तो कोई कॉन्सटेबल खालिद अंसारी (परेश रावल). माइक के सामने जेसीपी हिमांशु रॉय के आते ही मुझे टीवी स्क्रीन 70 एमएम का परदा लगने लगी। अपनी प्रेंजेंटेशन में हीरोइक, सशक्त और रियलिस्टिक सी रॉय की ये कॉन्फ्रेंस फिल्ममेकर्स के लिए एक रियल डॉक्युमेंट साबित हो सकती है। इसमें फिल्मी जरूरत जितना ड्रामा भी है, हीरोइज्म वाला एटिट्यूड भी और देश की नजरों में चढ़ा हुआ बड़ा केस भी। बाकी उनकी मूछें और कपड़े भी सिचुएशन और कैरेक्टर को रियल बनाते हैं। केस के बारे में मीडिया को उन्होंने बेदाग अंग्रेजी, अच्छी हिंदी और मराठी तीनों भाषाओं में बताया। केस की एक-एक डीटेल बिना अटके, बिना कोई प्रेस नोट पढ़े वह बताते गए। ये लेंग्वेज वाला ऐसा पहलू है जो एक्टर्स के रोल को बहुत प्रभावी बना सकता है।

ये सोचने वाली बात है कि कमिश्नर, जॉइंट कमिश्नर और एसीपी तो पहले भी रहे हैं फिर बात सिर्फ रॉय के बारे में ही क्यों। क्योंकि उनके अनुकूल ही अभी हमारे दौर के फिल्मी पुलिसवाले और उनकी फिजिकैलिटी है। हमारे पुलिस और नॉन-पुलिस रोल में रॉय की घनी मूछें नजर आने लगी हैं। तभी तो बिन मूछ वाले हीरोज के दौर में हमने 'वंस अपॉन अ टाइम इन मुंबई' में एसीपी विल्सन (रणदीप हुड्डा, हीरो नहीं सूत्रधार), 'गंगाजल' में एसपी अमित कुमार (अजय देवगन) और 'खाकी' में डीसीपी अनंत श्रीवास्तव (अमिताभ बच्चन) को स्वीकार किया। मूछों और प्लॉट के मामले में साउथ के गहरे असर वाला फेज अभी हमारी फिल्मों पर चल रहा है। 'रावण' के एसपी देव प्रताप (विक्रम), 'दम मारो दम' के एसीपी विष्णु कामथ (अभिषेक) और 'सिंघम' के बाजीराव सिंघम (देवगन) में मूछों और अच्छी कद काठी वाला फैक्टर है। सबके चेहरे में वो एक हीरो और एक मॉडल वाला अंश झलकता है। 'शैतान' में भी राजीव खंडेलवाल की इंटेंसिटी में इनवेस्टिगेटिव एजेंसियों के काम करने के तरीके को देख सकते हैं। कमिश्नर पवन मल्होत्रा के साथ उनके अनौपचारिक-औपचारिक रहते, उग्र-शांत होते ताने-बाने को देख सकते हैं।

आप रॉय की कॉन्फ्रेंस का वीडियो नेट से निकालिए और एक-एक चीज को ऑब्जर्व करना शुरू करिए। आपको अपनी फिल्म का आदर्श हीरो नजर आएगा। एक-एक वाक्य के साथ उनके बोलने का तरीका और इस मर्डर केस में जल्दी रिजल्ट सामने ले आना हमें कायल करता है। जैसे हम एसीपी राठौड़ के 'सरफरोश' में होते जाते हैं। जैसे हम 'सिंघम' में बाजीराव सिंघम के हो सकते हैं। रॉय के पुलिस रिकॉर्ड पर मैं कोई टिप्पणी नहीं करता। मेरा ध्यान रियल और रील की इमेज पर है। कैसे असल जिंदगी के लोग रील के हीरोज से ज्यादा हीरोइक लगने लगते हैं और कैसे रील पर हमारे हीरो इन असली अधिकारियों से कुछ सीखकर ऐतिहासिक रोल निभा सकते हैं। इसमें 'दबंग' छिछला उदाहरण है तो 'सरफरोश-सिंघम' सीरियस। हालांकि 'सिंघम' घोर कमर्शियल फिल्म है पर सीरियस काम करने वाले अजय देवगन और उनकी 'गंगाजल' वाली ईमानदारी 'सिंघम' को सीरियसली स्वीकार करने योग्य बनाती है। रॉबिन हुड पांडे हमारे दिल में छोटी-छोटी अच्छी अदाओं से जगह बना लेते हैं। एसीपी राठौड़ हमारे जीवन के सबसे बेस्ट रोल्स में शुमार होते हैं। इसकी वजह ये है कि अपने काम को सही से न करने और लोगों के साथ बुरे बर्ताव के लिए बदनाम पुलिस की वर्दी को कुछ (फिल्मों में) अच्छे इंसान मिल जाते हैं, जो बहुत अच्छे हैं। सोचिए ऐसे में अगर हिमांशु रॉय जैसे लोग और उनकी क्राइम ब्रांच की रिजल्ट देने वाली टीम यूं मिलती है तो आने वाले वक्त में ऐसे फिल्मी रोल हमें ज्यादा असल लगेंगे और असल लोगों में फिल्मी हीरो वाला अंश दिखाई देने लगेगा।
गजेंद्र सिंह भाटी

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एक हिंदी दैनिक के साप्ताहिक कॉलम सीरियसली सिनेमा में प्रकाशित पहली कड़ी

Saturday, July 2, 2011

'ए' को याद रखिए और हंसिए

फिल्मः डेल्ही बैली
डायरेक्टरः अभिनय देव
कास्टः विजय राज, इमरान खान, वीर दास, कुणाल रॉय कपूर, पूर्णा जगन्नाथन, शैनाज ट्रैजरीवाला
स्टारः तीन, 3.0

जो डर था वही हुआ। कुछ साल पहले जब 'अमेरिकन पाई' देखी थी, तो लगा था कि इसके अंश उड़कर हमारी फिल्मों में भी आएंगे ही। यकीन मानिए, ये सोचकर बहुत अच्छा नहीं लगा था। फिर हाल ही में 'हैंगओवर' आई। अब 'डेल्ही बैली' आई है। अब हम भी 'ऐसी' फिल्में बनाने लगे हैं। सोचना पड़ेगा। एंटरटेनमेंट के मामले में ये फिल्म बहुत अच्छी है। उम्मीदों से दोगुना देती है। सीट से हिलने नहीं देती है और हंसा-हंसाकर (मुझे नहीं) दोहरा कर देती है। सिर्फ एंटरटेनमेंट (ए सर्टिफिकेट वाला) के लिए मैं इसे तीन स्टार दे रहा हूं। मुश्किल है परिवार के साथ जाने में। इसे आप परिवार के साथ नहीं देख सकते हैं, न ही बच्चों और टीनएजर्स को ये फिल्म देखनी चाहिए। एडल्ट हैं तो दोस्तों के साथ जाएं, चाहें तो अकेले जाएं।

दिल्ली का उदर
तीन दोस्त हैं। दिल्ली में न जाने किस कॉलोनी में एक घर के फर्स्ट फ्लोर में किराए पर रहते हैं। कमरे में अंधेरा है, टॉयलेट में पानी नहीं है, सोने-रहने की जगह बिखरी पड़ी है और बिखरी पड़ी है इनकी लाइफ। ताशी (इमरान खान) एक अंग्रेजी अखबार में जर्नलिस्ट है। नितिन (कुणाल रॉय कपूर) उसका फोटोजर्नलिस्ट दोस्त है और 'काम' करना बड़ा पसंद करता है। तीसरा दोस्त अरूप (वीर दास) अखबार में ही कार्टूनिस्ट है। पानी सुबह दो घंटे ही आता है, पर इन तीनों को उठने में आलस आता है और पानी चला जाता है, फिर संडास में मुश्किल होती है। मेनका (पूर्णा जगन्नाथन) ताशी के साथ दफ्तर में काम करती है और सोनिया (शेनाज ट्रैजरीवाला) उसकी होने वाली वाइफ है। ये लो परिचय पूरा। कहानी सिंपल है। इन तीनों की जिंदगी फिल्म के दो घंटों के दौरान नरक बन गई है, कारण कई है। ये पहले भी भाग रहे थे और अब भी भाग रहे हैं।

सिर्फ ये ही अच्छा है
फिल्म में हुफैजा लोखंडवाला की एडिटिंग (अगर उन्होंने अकेले की है तो) पहली अच्छी चीज है। कैरेक्टर्स और कहानी कैसे डिवेलप होंगे, इसको दिमाग में सोचना और उन्हें पेश करना दूसरी बेहतर चीज है। हर बार हालात और कैरेक्टर के चेहरे के पिटे हुए भाव हंसाते हैं। कार्टूनी पहलू भी है। मसलन, वह सीन जिसमें विजय राज इमरान के कैरेक्टर ताशी को गोली मारने वाला है, अरूप टाई के सहारे छत से लटका हुआ है। उसके भार से और ऊपरी फ्लोर में चल रही कथक क्लास से छत क्रैक हो जाती है और कथक कर रही लड़की का पांव छेद में से नीचे निकल आता है। कुछ अच्छे पल भी हैं, जैसे बुरके में बैठे वीर दास का पानी पीना। वह बुरका उठाए बगैर ही पानी की गिलास मुंह को लगाता है और पानी बाहर गिर जाता है। फनी। फिल्म में एक्टिंग को लेकर किसी से शिकायत नहीं है। विजय राज सारे थ्रिल की डोरी अकेले खींचे रहते हैं। उनके मुंह से निकली हिंदुस्तानी गालियां थोपी हुई नहीं लगती। पर गाली तो गाली है, नहीं होती तो बेहतर होता।

कहीं तो लिमिट रखो
इसे यूथ की फिल्म कहा जा रहा है, पर मैं नहीं मानता। हां, मैट्रोपॉलिटन सिटीज के अंग्रेजी बोलने वाले यंगस्टर इसे देखकर तुरंत आकर्षित हो जाएंगे, फिर भी ये फिल्म भारत के आधे युवाओं को भी रेप्रजेंट नहीं करती है। मैं गारंटी के साथ कह सकता हूं कि फिल्म में जितनी बार 'एफ' शब्द का इस्तेमाल हुआ है, उतनी बार उसके हिंदी वर्जन वाले शब्द को बोला जाता तो थियेटर में बैठे लोग कानों में अंगुलियां डाल लेते और इसे सी ग्रेड माना जाता। आखिर 'अमेरिकन पाई' और अब 'डेल्ही बैली' के अलावा कितनी ऐसी फिल्में हैं जिनमें 'विष्ठा' (स्टूल) दिखाई गई है। कितनी ऐसी हिंदी फिल्में हैं (हॉलीवुड में तो हर दूसरी फिल्म में) जहां एक बॉयफ्रेंड अपनी गर्लफ्रेंड की शादी रोकने आता है और एक ऐसी यौन क्रिया का नाम लेता है जो शारीरिक संबंध बनाने के दौरान की जाती है। आखिर ये कैसा मनोरंजन है जिसमें लड़की को 'जा चुड़ैल' कहा जाता है, ताकि हम सब हंसें। इन सबमें लॉजिक ये दिया जाता है कि फिल्म को 'ए' सर्टिफिकेट मिला है। पर कितने ऐसे मल्टीप्लेक्स हैं जहां इटेबल्स के साथ-साथ अठारह से कम उम्र के टीनएजर्स को भी अंदर नहीं जाने दिया जाता है, बाहर ही रोक दिया जाता है।

क्या ये हमारी फिल्म है?
'डेल्ही बैली' दिखने में हिंदुस्तानी फिल्म लगती है। एक्टर्स यहां के हैं, उनके कैरेक्टर और जबान हॉलीवुड के। खासतौर पर वीर दास और इमरान खान के कैरेक्टर्स और उनके मैनरिज्म। देखते वक्त ध्यान रखें कि आपकी रगों में अलग किस्म का सेंस ऑफ ह्यूमर स्थापित किया जा रहा होगा। बरास्ते फिल्म के राइटर अक्षत वर्मा, ये ह्यूमर लॉस एंजेल्स से आया है। वहीं पर उन्होंने फिल्ममेकिंग कोर्स सीखा और वहां की इंडस्ट्री की मनोरंजन की परिभाषा को यहां ले आए। ये जो फिल्मों में गंदा बोलकर और दिखाकर दर्शकों के मन में शॉक वैल्यू पैदा करने की आदत है, वह हमारी फिल्मों में कभी नहीं थी। हॉलीवुड से आई है। फिल्म राइटिंग और मेकिंग की एक आचार संहिता होती है, कि एंटरटेनमेंट के बहाने हम इस सीमा को पार नहीं करेंगे। अब इस फिल्म के आने के बाद ये आचार संहिता टूटेगी और बुरे नतीजे सामने आएंगे। धन्यवाद, उन दो दर्जन हिंदी फिल्ममेकर्स का जिन्होंने अपने स्वयं के तय किए नैतिक नियमों में रहते हुए ही अब तक की सर्वश्रेष्ठ फिल्में बनाईं। ऐसी फिल्में जो अगले सौ-हजार साल तक हमें स्वस्थ मनोरंजन देती रहेंगी।

आखिर में...
फिल्म के शुरुआती सीन किरण राव की 'धोबीघाट' जैसे ट्रीटमेंट वाले हैं। 'भेजा फ्राई' में भारत भूषण नाम को सुनकर अंग्रेजीदां यूथ हंस पड़ता है। 'धोबीघाट' में मुन्ना (प्रतीक बब्बर) के बिहारी मूल को सुनकर ये यूथ हंसता है। 'थ्री ईडियट्स' में राजू रस्तोगी (शरमन जोशी) की सांवली-मोटी बहन को देखकर ये यूथ हंसता है। इस फिल्म में इस यूथ को हंसाने के लिए के.एल.सहगल जैसी आवाज में 'दुनिया में प्यार जब बरसे, ना जाने दिल ये क्यों तरसे, इस दिल को कैसे समझाऊं, पागल को कैसे मैं मनाऊं' गाना बजता है। आमिर खान आइटम नंबर में अपनी छाती पर उगे नकली घने बालों को अनिल कपूर के बालों से जोड़ते हैं। आखिर हम कब, कहां, किसपर, क्यों हंस रहे हैं, ये सोचना क्या अब गैर-जरूरी हो गया है।
गजेंद्र सिंह भाटी

Saturday, June 25, 2011

जब कोई कॉमेडी चिड़चिड़ा-दुखी बनाने लगे

फिल्मः डबल धमाल
डायरेक्टरः
इंद्र कुमार
कास्टः जावेद जाफरी, रितेश देशमुख, संजय दत्त, आशीष चौधरी, अरशद वारसी, कंगना रनाउत, मल्लिका सेहरावत
स्टारः ढाई 2.5

मुझे लगता है कि अच्छी कॉमेडी के लिए आने वाली फिल्मों का इंतजार करने से अच्छा है कि खुद ही कुछ बंदोबस्त कर लूं। 'डबल धमाल' देखने के बाद ये सोच पुख्ता हो गई है। पीवीआर के ऑडी फोर में मेरे अलावा बहुत कम ऐसे लोग थे जो हंस नहीं रहे थे। इसके बावजूद मैं 'डबल धमाल' को एक बुरी फिल्म कहूंगा चूंकि ये फिल्म जहां-तहां हंसाती रहती है, एंटरटेन करती है इसलिए थियेटर जाकर इसे देखने से आपको बिल्कुल नहीं रोकूंगा। डेविड धवन और प्रियदर्शन की फिल्में अब अच्छी लगने लगी हैं और हमारे दौर की गोलमाल-धमाल चिड़चिड़ा और दुखी बनाने लगी हैं। इस एंटरटेनमेंट में कोई कहानी और आत्मा नहीं है पर आप देखने जा सकते हैं। किसी का साथ हो तो अच्छा।

बात कहानी की नहीं
'धमाल' के पांच मुख्य किरदार 'डबल धमाल' में भी हैं। आदि (अरशद वारसी), मानव(जावेद जाफरी), रॉय (रितेश देशमुख) बोमन (आशीष चौधरी) और इंस्पेक्टर कबीर (संजय दत्त). पिछली मूवी में जिस छिपे खजाने के पीछे सब दौड़ रहे थे वो चैरिटी में चला गया था। चारों दोस्त अब रोड़ पर आ गए हैं। इसका दोष वो कबीर को देते हैं। एक दिन कबीर उन्हें एक बड़ी गाड़ी में बड़े से आफिस जाता दिखता है। चारों तय करते हैं कि कबीर से सब छीन लेंगे। जाहिर है मजाकिया अंदाज में ही ये सब हो रहा है। कबीर की वाइफ है कामिनी (मल्लिका सेहरावत) और सेक्रेटरी कीया (कंगना रनाउत). असल में ये चारों कबीर के प्लैन में फंस रहे हैं। इसमें उसकी गर्लफ्रेंड कामिनी और छोटी बहन कीया भी शामिल है। खैर, ये चार बेचारे बाटा भाई (सतीश कौशिक) को चूना लगाकर ढाई सौ करोड़ रुपए कबीर को देते हैं और कबीर मकाऊ भाग जाता है। अब भाई लोग इन चारों के पीछे है और ये भी मकाऊ चले जाते हैं। यहां ये फिर कबीर को सबक सिखाने की सोचते हैं। फिल्म के आखिर तक लगता है कि इन्होंने कबीर को मूर्ख बना दिया, पर यहां भी मामला उल्टा है। होता वही है जो तीसरी फिल्म बनने के लिए जरूरी है। मॉरल ऑफ द स्टोरी इज, कोई स्टोरी नहीं है और भूल कर भी दिमाग मत लगाइएगा।

मुझे क्या दिक्कत है
दरअसल 'दबंग', 'भेजा फ्राई' (ये भी एक फ्रेंच फिल्म से प्रेरित है), 'दो दूनी चार' और 'थ्री ईडियट्स' जैसी फिल्मों में वो सब है जो 'डबल धमाल' बनाने वालों ने बस कमर्शियली बनाना चाहा, पर बना नहीं पाए। ये फिल्में मेहनत से लिखी गई थी, कुछ चीजों को छोड़ दें तो हेल्दी और फ्रैश मनोरंजन वाली थी। 'डबल धमाल' में बासीपन बहुत ज्यादा है और मौलिकता यानी ऑरिजिनेलिटी न के बराबर। हम फिल्म में बाटा भाई बने सतीश कौशिक को देखते हैं। उनके एक्सेंट, हाव-भाव, लहजे और रोल को हू-ब-हू डेविड धवन की 1997 में आई कॉमेडी 'दीवाना मस्ताना' के किरदार पप्पू पेजर से उठाया गया है। राजू श्रीवास्तव के 'भाई आया बाबागिरी के धंधे में' गैग को इसमें बिल्कुल कॉपी कर लिया गया है, जो वह टीवी के हालिया पहले स्टेंडअप कॉमेडी शो 'द ग्रेट इंडियन लाफ्टर चैलेंज' में चार-पांच साल पहले कर चुके हैं। चलिए ये भी माफ। अब साथ-साथ चल रही है वल्गर कॉमेडी, डबल मीनिंग डायलॉग्स, रिपीटेशन, शोर, सुने-सुनाए वन लाइनर और ऐसे पंच जो पांच रुपए में फुटपाथ किनारे मिलने वाली चुटकुले की किताब में पिछले बीस साल से लिखे-पढ़े जा रहे हैं। जमीन से क्रूड ऑयल निकलने वाला जो सीन है वो हंदी फिल्मों में आधा दर्जन बार तो यूज हो ही चुका है। मसलन, 1986 में आई जीनत अमान स्टारर 'बात बन जाए' जिसमें संजीव कुमार के किरदार की जमीन से क्रूड ऑयल का फव्वारा फूट पड़ता है।

स्क्रिप्ट लिखने वालों की सीमा
फिल्म में सबसे बुरी और कमजोर कड़ी है स्क्रिप्ट राइटर तुषार हीरानंदानी और डायलॉग राइटर राशिद साजिद। 'धमाल' में कम से कम असरानी, विजय राज, टीकू तलसानिया और संजय मिश्रा थे और कहानी में मिस्टर बीननुमा ह्यूमन कॉमेडी वाला पहलू था। इस सीक्वल में तो ले-देकर सात-आठ बेरंग किरदार हैं। रीतेश, अरशद, आशीष और जावेद जाफरी अपने एक्सप्रेशन और एक्टिंग में बेइंतहा कोशिशें झोंकते नजर आते हैं, पर हर बार हंसी मुंह से निकलकर हवा में ही राख बनकर खत्म हो जाती है। आप किसी सीन को रिवाइंड करके कभी हंसना चाहें तो भूल ही जाइए। इसका मतलब ये है कि कॉमेडी फिल्म के साथ ये सबसे बड़ी ट्रेजेडी है। स्क्रिप्ट में मौजूदा वक्त की फिल्मों के रेफरेंस कूट-कूटकर डाले गए हैं।
ज्यादातर तो इनका मखौल उड़ाया गया है। इनमें दबंग, डेल्ही बेली, थ्री ईडियट्स,रंग दे बसंती, पीपली लाइव, कौन बनेगा करोड़पति, बच्चन साहब, प्रोमो, फिल्म डिवीजन, मकाऊ, वंस अपऑन अ टाइम इन मुंबई, बारबरा मोरी, तारे जमीं पर और गुजारिश के रेफरेंस देखे जा सकते हैं। इसके अलावा फिरोज खान, अमिताभ बच्चन, शाहरुख, धर्मेंद्र, शत्रुघ्न सिन्हा और गुजरे जमाने के विलेन जीवन की मिमिक्री पूरी मूवी के दौरान चलती रहती है।

ऐसा लगता है
- चल कुडि़ए नी चल चल मेरे नाल... गाने की कोरियोग्रफी बड़ी ढीली है। इसमें कुछ और ढिलाई जोड़ देते हैं संजय दत्त, जिनका अकड़ा-फूला हुआ शरीर और धंसा हुआ गला देखने में बोझिल सा लगता है।
- बाटा भाई बने सतीश कौशिक बहुत दिन बाद ऐसी कॉमेडी में दिखे, पर उनकी तेज हरकतों और करंट मारती एक्टिंग में अब धीमापन आ गया है। शायद, उसे सही से एंजॉय करने के लिए फिर से 'दीवाना मस्ताना' की डीवीडी की ओर लौटना पड़ेगा।
- निर्देशक इंद्र कुमार 'दिल', 'बेटा', 'इश्क' और 'मन' बनाकर जितना ऊपर उठे उतना ही नीचे गिरते गए 'डैडी कूल', 'प्यारे मोहन' और 'डबल धमाल' जैसी फिल्मों से।
- वक्त आ गया है कि चश्म-ए-बद्दूर, प्रतिज्ञा (1975), जाने भी दो यारों, गोपी (1970), राम और श्याम, चुपके-चुपके, राजा बाबू, साजन चले ससुराल और चलती का नाम गाड़ी (1958) जैसी ढेर सारी दूसरी फिल्मों को जमा कर लें, क्योंकि आगामी कॉमेडीज पर से विश्वास कुछ उठता जा रहा है। ये हंसाती जरूर है, पर तीन घंटे बाद हम खुद को भूखा और टेंशन से भरा हुआ पाते हैं।

आखिर में
अगर इस कॉमेडी में कोई एक बात है जो ध्यान जुटाती है और खुश करती है तो वो है एक्टर के और कैरेक्टर के तौर पर जावेद जाफरी की ईमानदारी। फिल्म में सबसे ज्यादा हंसी आती है उन्हीं की बातों पर। अपनी कॉमिक टाइमिंग और डांस स्टेप्स में वो पूरे नंबर ले जाते हैं। बहुत बार वह एक्टिंग में अपने पिता जगदीप की याद दिलाते हैं। वेरिएशन के मामले में नंबर ले जाते हैं रितेश देशमुख।
गजेंद्र सिंह भाटी

Saturday, June 11, 2011

ब्लूडी गुड! खान फैमिली

फिल्मः वेस्ट इज वेस्ट
डायरेक्टरः एंडी डिमोनी
राइटरः अयूब खान-दीन
कास्टः ओम पुरी, अकिब खान, लिंडा बैसेट, विजय राज, इला अरुण, राज भंसाली, एमिल मारवाह, नदीम सावल्हा,लेस्ली निकोल
स्टारः तीन 3.0
कहानी कहने के तरीके में 'ईस्ट इज ईस्ट’ में एक नॉवेल जैसा रोमांच, एक टेंशन हर मोड़ पर रहती है कि अब क्या होगा। इस टेंस-फैमिली ड्रामा के उलट 'वेस्ट इज वेस्ट’ किसी पुरानी खुद को एक्सप्लोर करने वाली अच्छी कहानी जैसी लगती है। सैलफर्ड के हरदम गीले रहने वाले आसमान और मुहल्ले को छोड़कर इस फिल्म में हम पहुंचते हैं धूल भरे पाकिस्तान में। जो पेस पसंद करने वाले दर्शक हैं उन्हें कहीं-कहीं फिल्म धीमी लगेगी। मगर मुझे अच्छी लगी। साफ-सुथरी, समझ आने वाली, चेहरे पर चुटीली हंसी ले आने वाली और टेंशन फ्री। पर्याप्त फिल्मी एंटरटेनमेंट, पर्याप्त स्टोरी सेंस। हर तरह का सिनेमा पसंद करने वाले इसे देखें और फैमिली ऑडियंस भी ट्राई करें। ब्लैंक होकर दोस्तों के साथ जाएंगे तो मजा आएगा।

खान कहानी: 'ईस्ट इज ईस्ट’ के चार साल बाद 1975 का सैलफर्ड, इंग्लैंड। पिछली मूवी में जहां जॉर्ज खान (ओम पुरी, दूसरा नाम जहांगीर खान) और वाइफ एला (लिंडा बैसेट) का घर सात बच्चों से भरा था, वहीं अब घर में सिर्फ सबसे छोटा बेटा साजिद (अकिब खान) ही दिखता हैं। 15 साल का साजिद पूरी तरह ब्रिटिश है पर स्कूल में लड़के 'पाकी’ कहकर चिढ़ाते हैं। घर पर पिता उसे सच्चा मुसलमान और पाकिस्तानी होते देखना चाहता है। उसके मन में यही पहचान का गुस्सा और कन्फ्यूजन है। स्कूल से आती शिकायतों और उसके बुरे बर्ताव का इलाज जॉर्ज को यही लगता है कि अब अपने असली घर यानी पाकिस्तान लौट चला जाए। बड़े बेटे मुनीर (एमिल मारवा) को तो जॉर्ज पहले ही अपनी पहली बीवी बशीरा (इला अरुण) के पास पाकिस्तान भेज चुका है। फिल्म की कहानी तो इतनी ही जानिए। आगे तो साजिद की जर्नी है। वह पाकिस्तान आने के बाद अपने पिता, अपनी पहचान और अपने अंदर के इंसान को बेहतर तरीके से जान पाता है। इसमें उसकी मदद करते हैं पीर नसीम (नदीम सावलहा) और हमउम्र दोस्त जायद (राज भंसाली)। इन दोनों की एक्टिंग बड़ी मिस्टीरियस और अच्छी लगी। इस फिल्म का अंत ठीक उसी सीन पर होता है, जिस पर 'ईस्ट इज ईस्ट’ खत्म हुई थी।

किरदार क्या करते हैं!: खान साहब का एक्सेंट फिल्म को 'ईस्ट इज ईस्ट’ के बिल्कुल बाद से जारी रखता है। जब ओम पुरी बास्टर्ड को 'बास्टर’ कहते हैं, हर लाइन में 'ब्लूडी’ (ब्लडी) शब्द का इस्तेमाल करते हैं और 30 साल लंकाशायर, इंग्लैंड में रहने के बाद भी हर वाक्य में से वर्ब खा जाते हैं तो ब्रिटेन में रह रहे उस जमाने के सच्चे एशियन लगते हैं। ...और पाकिस्तान में हल चलाने के बाद अपने हाथों पर उगे छालों की दवाई ढंढते हुए हमारी ट्रेडमार्क मां की गाली बोलते हैं तो पूरे पाकी-हिंदुस्तानी लगते हैं। अकिब ने साजिद के रोल को अपनी तरफ से एक आइडेंटिटी दी है, जो कम उम्र में समझ भरी एक्टिंग की निशानी है। सैलफर्ड में गुस्सा करते हुए और पिता से पिटते हुए अकिब अलग मुंह बनाते हैं और पाकिस्तान पहुंचने के बाद बिल्कुल अलग। उनका चौंकने का अंदाज फिल्म में स्पेशल है, देखते ही हंसी फूट पड़ती है। इला अरुण नीव का पत्थर हैं। 30 साल बाद विदेश से लौटे अपने पति को देखने के बाद एक औरत कैसे रिएक्ट करती है, वो इला से सीखना चाहिए। इस सीक्वेंस के दौरान 'पूरब और पश्चिम’ में निरुपा रॉय और प्राण के कई साल बाद मिलने के सीक्वेंस को याद कर सकते हैं।

ईस्ट और वेस्ट फिल्मों में: इस रंग-रूप वाली कई फिल्में हमारे सामने है। 'मॉनसून वेडिंग’, 'नेमसेक’, 'ब्रिकलेन’, 'ईस्ट इज ईस्ट’, 'द दार्जिलिंग लिमिटेड’ और कुछ हद तक 'आउटसोस्र्ड’। सब की सब रुचिकर। 'वेस्ट इज वेस्ट’ में साजिद की जो जर्नी है वही जर्नी 'द दार्जिलिंग लिमिटेड’ के पीटर, फ्रांसिस और जैक की है। बस पाकिस्तान हिंदुस्तान का फर्क है। इस फिल्म में ओमपुरी का कैरेक्टर 'ब्रिकलेन’ के सतीश कौशिक और 'नेमसेक’ में इरफान खान के किरदारों के करीब खड़ा है। हर मायने में नहीं, पर एशियाई पहचान और परदेस आने के बाद बदलते रिश्तों के लिहाज से। इन सब फिल्मों में एक समानता रेफरेंस की भी है। चूंकि 'वेस्ट इज वेस्ट’ एक फनी टेक ज्यादा है इसलिए इसके रविशंकर, गांधी, मोगली और रुडयार्ड किपलिंग के नॉवेल 'किम’ के रेफरेंस अलग लगते हैं, पर ये ऐसी मूवीज का अहम हिस्सा ही हैं।
आखिर में: फिल्म में आप जिस 15 साल के साजिद को देखते हैं, वो फिल्म के लेखक अयूब खान-दीन का असल किरदार है। 1970 में 13 साल के एक लड़के के तौर पर सैलफर्ड में अयूब ने जो जिंदगी बिताई, उसकी ही यादें 'ईस्ट इज ईस्ट’ और 'वेस्ट इज वेस्ट’ जैसी फिल्म बनी। अब तीसरी फिल्म पर काम चालू है।
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गजेंद्र सिंह भाटी