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Saturday, July 23, 2011

एक बड़ी इमेज के फ्रेम में शेरदिल कॉप बाजीराव सिंघम

फिल्म: सिंघम
डायरेक्टर: रोहित शेट्टी
कास्ट: अजय देवगन, प्रकाश राज, अशोक सर्राफ, काजल अग्रवाल
स्टार: तीन 3.0

इस फिल्म से हमें हमारे वही 'फूल और कांटे' वाले अजय देवगन वापस मिल गए हैं। 'सुहाग', 'दिलजले' और 'नाजायज' वाले भी। मूछों के साथ खाकी वर्दी और ह्रष्ट-पुष्ट बॉडी में उनके संवादों और महाशक्तिशाली मुक्कों-लातों का असर डबल हो जाता है। रोहि शेट्टी मेहनती फिल्ममेकर हैं और समाज के सबसे बड़े ऑडियंस ग्रुप की सेंसिबिलिटी के हिसाब से फिल्में बनाते हैं, ऐसे में कुछ ऑडियंस को फिल्म हवा-हवाई ल सकती है, मगर कुल मिलाकर ये डीसेंट एंटरटेनर है। आप अपने फ्रेंड सर्किल के साथ जा सकते हैं। फैमिली के साथ भी। कहानी के ताने-बाने में, म्यूजिक में और फिल्म के अंत में कुछ अद्भुत नहीं है इसलिए कमतर लगता है। पुलिसवालों की ईमानदार कोशिशों, पॉलिटिकल प्रेशर और उनकी तकलीफों को कमर्शियली ही सही फिल्में एक बार फिर सामने रखती है।

गांव का न्यायप्रिय पुलिसवाला
गोवा के नक्शे पर एक छोटा लेकिन खुशहाल गांव है शिवगढ़। सब-इंस्पेक्टर बाजीराव सिंघम (अजय देवगन) इसी गांव का है और हर मसले को चतुराई से हल करता है इसी वजह से यहां अपराध नहीं है। उसके पिता के दोस्त की बेटी काव्या (काजल अग्रवाल) उससे प्यार करती है। जयकांत शिक्रे (प्रकाश राज) वैसे तो गोवा का बड़ा कारोबारी है, पर असल में धन उगाही, अपहरण, हत्या और गुंडागर्दी का काम करता है। एक मर्डर केस में उसे हाजिरी देने शिवगढ़ जाना पड़ता है। यहां बाजीराव से सामना होने पर उसके अहंकार को चोट पहुंचती है और यहीं से शुरू होता है ट्विस्ट। इसके बाद फिल्म पुलिस सिस्टम, बाजीराव और जयकांत के बीच से आगे बढ़ती है। ये कहानी अपनी मूल तमिल वर्जन वाली 'सिंगम' से इंटरवल के बाद अलग हो जाती है।

जहां सीटियां बजती हैं
बाजीराव सिंघम के किरदार के जितने भी अपीयरेंस हैं उन्हें डायरेक्टर रोहित शेट्टी हीरोइक अंदाज में पेश करते जाते हैं। मंदिर के सरोवर में डुबकी लगाकर निकलने के पहले सीन से लेकर मेघा कदम (सोनाली कुलकर्णी) को सेल्यूट करने के आखिरी सीन तक बस सीटियां ही बजती हैं। मशहूर फाइट मास्ट एम.बी.शेट्टी के बेटे रोहित अपनी फिल्म में एक्शन पर सबसे ज्यादा ध्यान देते हैं। स्टंट ऐसे डिजाइन करते हैं जैसे कोई एपिक फिल्म बना रहे हों। 'गोलमाल' जैसी कॉमेडी मूवी में ही इतनी कारें उड़ती हैं तो ये तो फिर 'सिंघम' है। हालांकि चलती गाड़ी से निकलते हुए अजय जैसे गोली चलाते हैं वह सीन पिछले साल आई हॉलीवुड मूवी 'रेड' के ऐसे ही ब्रूस विलिस सीन से हूबहू लिया गया है। फिल्म में तीन बड़े एक्शन सीक्वेंस हैं, जो बहुत खतरनाक हैं। इनका श्रेय जाता है रोहित और स्टंट डायरेक्टर जय सिंह निज्जर को। अशोक सर्राफ (हैड कॉन्स्टेबल प्रभु) के हिस्से आए एक-दो कॉमिक सीन और सचिन खेड़ेकर को गोटिया नाम से बुलाए जाने का शुरुआती सीन फिल्म में कॉमेडी की डोज है। प्रकाश राज भी क्लाइमैक्स के दौरान अपनी उचकती डायलॉग डिलीवरी में हंसाते हैं।

ये होता तो अच्छा होता
फिल्म में अजय के कैरेक्टर की इमेज बिल्डिंग और एक्शन सीक्वेंस के अलावा किसी चीज पर खास ध्यान नहीं दिया गया है। एक्टिंग में तो किसी से शिकायत नहीं है, बस काजल अग्रवाल की रंगत में अकडऩ अजीब लगती है। डिजाइनर सलवार-कमीज दिखाने के अलावा उनके रोल की कोई संजीदा प्लानिंग नहीं की गई है। एक सबसे कमजोर हिस्सा है फिल्म का म्यूजिक। पहला इंट्रोड्यूसिंग गाना मन भंवर उठे, तन सिहर उठे, जब खबर उठे, के आवे सिंघम... 'दबंग' के इंट्रो सॉन्ग हुड़ हुड़ दबंग दबंग.. की तर्ज पर है। गाने के बोल अच्छे हैं, बस सुखविंदर की भन्नाती आवाज में समझ नहीं आते। ये बड़ा माइनस पॉइंट है। दूसरा रोमेंटिंक गाना साथिया... भी कोई भावनाएं नहीं जगा पाता। प्रकाश राज की एक्टिंग उनकी सभी कमर्शियल हिंदी फिल्मों (वॉन्टेड, सिंघम, बुड्ढा होगा तेरा बाप) में एक जैसी बासी लगने लगी है। हर फिल्म में उनका थुलथुल शरीर, क्लीन शेव्ड चेहरा, अजीब डायलॉग डिलीवरी और कपड़े एक जैसे लगते हैं, जो कि स्टूपिड बात है। अगर अजय क्लीन शेव्ड से मूछों वाले हो सकते हैं तो प्रकाश की फिजिकल पहचान भी तो कुछ बदली जा सकती थी। मतलब, उन्हें देखकर किसी खूंखार विलेन वाली फीलिंग नहीं होती, जब ऐसा नहीं होता तो फिल्म का नेगेटिव पक्ष कमजोर हो जाता है और हम उसे सीरियसली नहीं लेते। इससे कहानी हमें इमोशनली इस्तेमाल नहीं कर पाती।

आखिर में..
जैकी चेन की फिल्मों की तरह रोहित की फिल्मों की भी ये पहचान बन चुकी है कि अंत में के्रडिट्स के साथ शूटिंग की रॉ फुटेज दिखाई जाती है। ये स्टंट सीन्स की मेकिंग की एक्सक्लूसिव वीडियो होती हैं। इसलिए 'सिंघम' खत्म हो तो सीटों से उठकर दौड़ें नहीं, बैठकर क्रेडिट्स को पूरा देखें।

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गजेंद्र सिंह भाटी

Wednesday, July 6, 2011

रियल प्रेस कॉन्फ्रेंस के रील सबक

इन एसीपी राठौड़ को हमने जॉन मैथ्यू मथान के निर्देशन में बनी 'सरफरोश' में देखा था। पहली बार कोई फिल्मी असिस्टेंट कमिश्नर ऑफ पुलिस इतना ह्यूमन लगा था। तब से 'सरफरोश' मेरी फेवरेट फिल्मों में और जय सिंह राठौड़ फेवरेट किरदारों में शामिल हो गए। उसके बाद अगर कोई दूसरा ऐसा किरदार मिल पाया है तो वो है जेसीपी रॉय का। जॉइंट कमिश्नर ऑफ पुलिस मुंबई (क्राइम) हिमांशु रॉय। मौका सीनियर क्राइम जर्नलिस्ट जे.डे के मर्डर केस पर रॉय की सबसे महत्वपूर्ण प्रेस कॉन्फ्रेंस का था, जो 27 जून को हुई। मैंने ज्यों ही देखना शुरू किया, त्यों ही इस इमेज एनेलिसिस में घुसता चला गया। घनी काली मूछें साउथ के हीरोज (सुपर) जैसी, मुख पर गंभीरता, दिमाग बर्फ सा शांत, चौड़ा ललाट, चौड़ा सीना, चौकड़ी वाला ब्लू शर्ट, अंदर सफेद टी-शर्ट, खाकी पेंट और खाकी सा बेल्ट। बोलने का अंदाज सीधा, सोफिस्टिकेटेड, बैलेंस्ड, सुलझा हुआ, क्लीयर, मैच्योर और एक फिल्मी हीरो (एसीपी/एसपी/डीसीपी/जॉइंट कमिश्नर/एसीपी क्राइम ब्रांच स्पेशल टीम) के लिहाज से बिल्कुल परफेक्ट। शायद परफेक्ट से भी ज्यादा ही परफेक्ट।

दर्जनों कैमरों के सामने केस सुलझाने वाली स्पेशल टीम खड़ी थी। सादे कपड़ों में ये सब 'आन:मेन एट वर्क' के डीसीपी हरिओम पटनायक (अक्षय कुमार) की सीबीआई टीम के मेंबर लग रहे थे। इनमें कोई अप्पा कदम (सुनील शेट्टी) था, कोई विक्रम सिंह (शत्रुघ्न सिंह) तो कोई कॉन्सटेबल खालिद अंसारी (परेश रावल). माइक के सामने जेसीपी हिमांशु रॉय के आते ही मुझे टीवी स्क्रीन 70 एमएम का परदा लगने लगी। अपनी प्रेंजेंटेशन में हीरोइक, सशक्त और रियलिस्टिक सी रॉय की ये कॉन्फ्रेंस फिल्ममेकर्स के लिए एक रियल डॉक्युमेंट साबित हो सकती है। इसमें फिल्मी जरूरत जितना ड्रामा भी है, हीरोइज्म वाला एटिट्यूड भी और देश की नजरों में चढ़ा हुआ बड़ा केस भी। बाकी उनकी मूछें और कपड़े भी सिचुएशन और कैरेक्टर को रियल बनाते हैं। केस के बारे में मीडिया को उन्होंने बेदाग अंग्रेजी, अच्छी हिंदी और मराठी तीनों भाषाओं में बताया। केस की एक-एक डीटेल बिना अटके, बिना कोई प्रेस नोट पढ़े वह बताते गए। ये लेंग्वेज वाला ऐसा पहलू है जो एक्टर्स के रोल को बहुत प्रभावी बना सकता है।

ये सोचने वाली बात है कि कमिश्नर, जॉइंट कमिश्नर और एसीपी तो पहले भी रहे हैं फिर बात सिर्फ रॉय के बारे में ही क्यों। क्योंकि उनके अनुकूल ही अभी हमारे दौर के फिल्मी पुलिसवाले और उनकी फिजिकैलिटी है। हमारे पुलिस और नॉन-पुलिस रोल में रॉय की घनी मूछें नजर आने लगी हैं। तभी तो बिन मूछ वाले हीरोज के दौर में हमने 'वंस अपॉन अ टाइम इन मुंबई' में एसीपी विल्सन (रणदीप हुड्डा, हीरो नहीं सूत्रधार), 'गंगाजल' में एसपी अमित कुमार (अजय देवगन) और 'खाकी' में डीसीपी अनंत श्रीवास्तव (अमिताभ बच्चन) को स्वीकार किया। मूछों और प्लॉट के मामले में साउथ के गहरे असर वाला फेज अभी हमारी फिल्मों पर चल रहा है। 'रावण' के एसपी देव प्रताप (विक्रम), 'दम मारो दम' के एसीपी विष्णु कामथ (अभिषेक) और 'सिंघम' के बाजीराव सिंघम (देवगन) में मूछों और अच्छी कद काठी वाला फैक्टर है। सबके चेहरे में वो एक हीरो और एक मॉडल वाला अंश झलकता है। 'शैतान' में भी राजीव खंडेलवाल की इंटेंसिटी में इनवेस्टिगेटिव एजेंसियों के काम करने के तरीके को देख सकते हैं। कमिश्नर पवन मल्होत्रा के साथ उनके अनौपचारिक-औपचारिक रहते, उग्र-शांत होते ताने-बाने को देख सकते हैं।

आप रॉय की कॉन्फ्रेंस का वीडियो नेट से निकालिए और एक-एक चीज को ऑब्जर्व करना शुरू करिए। आपको अपनी फिल्म का आदर्श हीरो नजर आएगा। एक-एक वाक्य के साथ उनके बोलने का तरीका और इस मर्डर केस में जल्दी रिजल्ट सामने ले आना हमें कायल करता है। जैसे हम एसीपी राठौड़ के 'सरफरोश' में होते जाते हैं। जैसे हम 'सिंघम' में बाजीराव सिंघम के हो सकते हैं। रॉय के पुलिस रिकॉर्ड पर मैं कोई टिप्पणी नहीं करता। मेरा ध्यान रियल और रील की इमेज पर है। कैसे असल जिंदगी के लोग रील के हीरोज से ज्यादा हीरोइक लगने लगते हैं और कैसे रील पर हमारे हीरो इन असली अधिकारियों से कुछ सीखकर ऐतिहासिक रोल निभा सकते हैं। इसमें 'दबंग' छिछला उदाहरण है तो 'सरफरोश-सिंघम' सीरियस। हालांकि 'सिंघम' घोर कमर्शियल फिल्म है पर सीरियस काम करने वाले अजय देवगन और उनकी 'गंगाजल' वाली ईमानदारी 'सिंघम' को सीरियसली स्वीकार करने योग्य बनाती है। रॉबिन हुड पांडे हमारे दिल में छोटी-छोटी अच्छी अदाओं से जगह बना लेते हैं। एसीपी राठौड़ हमारे जीवन के सबसे बेस्ट रोल्स में शुमार होते हैं। इसकी वजह ये है कि अपने काम को सही से न करने और लोगों के साथ बुरे बर्ताव के लिए बदनाम पुलिस की वर्दी को कुछ (फिल्मों में) अच्छे इंसान मिल जाते हैं, जो बहुत अच्छे हैं। सोचिए ऐसे में अगर हिमांशु रॉय जैसे लोग और उनकी क्राइम ब्रांच की रिजल्ट देने वाली टीम यूं मिलती है तो आने वाले वक्त में ऐसे फिल्मी रोल हमें ज्यादा असल लगेंगे और असल लोगों में फिल्मी हीरो वाला अंश दिखाई देने लगेगा।
गजेंद्र सिंह भाटी

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एक हिंदी दैनिक के साप्ताहिक कॉलम सीरियसली सिनेमा में प्रकाशित पहली कड़ी