शनिवार, 25 जून 2011

जब कोई कॉमेडी चिड़चिड़ा-दुखी बनाने लगे

फिल्मः डबल धमाल
डायरेक्टरः
इंद्र कुमार
कास्टः जावेद जाफरी, रितेश देशमुख, संजय दत्त, आशीष चौधरी, अरशद वारसी, कंगना रनाउत, मल्लिका सेहरावत
स्टारः ढाई 2.5

मुझे लगता है कि अच्छी कॉमेडी के लिए आने वाली फिल्मों का इंतजार करने से अच्छा है कि खुद ही कुछ बंदोबस्त कर लूं। 'डबल धमाल' देखने के बाद ये सोच पुख्ता हो गई है। पीवीआर के ऑडी फोर में मेरे अलावा बहुत कम ऐसे लोग थे जो हंस नहीं रहे थे। इसके बावजूद मैं 'डबल धमाल' को एक बुरी फिल्म कहूंगा चूंकि ये फिल्म जहां-तहां हंसाती रहती है, एंटरटेन करती है इसलिए थियेटर जाकर इसे देखने से आपको बिल्कुल नहीं रोकूंगा। डेविड धवन और प्रियदर्शन की फिल्में अब अच्छी लगने लगी हैं और हमारे दौर की गोलमाल-धमाल चिड़चिड़ा और दुखी बनाने लगी हैं। इस एंटरटेनमेंट में कोई कहानी और आत्मा नहीं है पर आप देखने जा सकते हैं। किसी का साथ हो तो अच्छा।

बात कहानी की नहीं
'धमाल' के पांच मुख्य किरदार 'डबल धमाल' में भी हैं। आदि (अरशद वारसी), मानव(जावेद जाफरी), रॉय (रितेश देशमुख) बोमन (आशीष चौधरी) और इंस्पेक्टर कबीर (संजय दत्त). पिछली मूवी में जिस छिपे खजाने के पीछे सब दौड़ रहे थे वो चैरिटी में चला गया था। चारों दोस्त अब रोड़ पर आ गए हैं। इसका दोष वो कबीर को देते हैं। एक दिन कबीर उन्हें एक बड़ी गाड़ी में बड़े से आफिस जाता दिखता है। चारों तय करते हैं कि कबीर से सब छीन लेंगे। जाहिर है मजाकिया अंदाज में ही ये सब हो रहा है। कबीर की वाइफ है कामिनी (मल्लिका सेहरावत) और सेक्रेटरी कीया (कंगना रनाउत). असल में ये चारों कबीर के प्लैन में फंस रहे हैं। इसमें उसकी गर्लफ्रेंड कामिनी और छोटी बहन कीया भी शामिल है। खैर, ये चार बेचारे बाटा भाई (सतीश कौशिक) को चूना लगाकर ढाई सौ करोड़ रुपए कबीर को देते हैं और कबीर मकाऊ भाग जाता है। अब भाई लोग इन चारों के पीछे है और ये भी मकाऊ चले जाते हैं। यहां ये फिर कबीर को सबक सिखाने की सोचते हैं। फिल्म के आखिर तक लगता है कि इन्होंने कबीर को मूर्ख बना दिया, पर यहां भी मामला उल्टा है। होता वही है जो तीसरी फिल्म बनने के लिए जरूरी है। मॉरल ऑफ द स्टोरी इज, कोई स्टोरी नहीं है और भूल कर भी दिमाग मत लगाइएगा।

मुझे क्या दिक्कत है
दरअसल 'दबंग', 'भेजा फ्राई' (ये भी एक फ्रेंच फिल्म से प्रेरित है), 'दो दूनी चार' और 'थ्री ईडियट्स' जैसी फिल्मों में वो सब है जो 'डबल धमाल' बनाने वालों ने बस कमर्शियली बनाना चाहा, पर बना नहीं पाए। ये फिल्में मेहनत से लिखी गई थी, कुछ चीजों को छोड़ दें तो हेल्दी और फ्रैश मनोरंजन वाली थी। 'डबल धमाल' में बासीपन बहुत ज्यादा है और मौलिकता यानी ऑरिजिनेलिटी न के बराबर। हम फिल्म में बाटा भाई बने सतीश कौशिक को देखते हैं। उनके एक्सेंट, हाव-भाव, लहजे और रोल को हू-ब-हू डेविड धवन की 1997 में आई कॉमेडी 'दीवाना मस्ताना' के किरदार पप्पू पेजर से उठाया गया है। राजू श्रीवास्तव के 'भाई आया बाबागिरी के धंधे में' गैग को इसमें बिल्कुल कॉपी कर लिया गया है, जो वह टीवी के हालिया पहले स्टेंडअप कॉमेडी शो 'द ग्रेट इंडियन लाफ्टर चैलेंज' में चार-पांच साल पहले कर चुके हैं। चलिए ये भी माफ। अब साथ-साथ चल रही है वल्गर कॉमेडी, डबल मीनिंग डायलॉग्स, रिपीटेशन, शोर, सुने-सुनाए वन लाइनर और ऐसे पंच जो पांच रुपए में फुटपाथ किनारे मिलने वाली चुटकुले की किताब में पिछले बीस साल से लिखे-पढ़े जा रहे हैं। जमीन से क्रूड ऑयल निकलने वाला जो सीन है वो हंदी फिल्मों में आधा दर्जन बार तो यूज हो ही चुका है। मसलन, 1986 में आई जीनत अमान स्टारर 'बात बन जाए' जिसमें संजीव कुमार के किरदार की जमीन से क्रूड ऑयल का फव्वारा फूट पड़ता है।

स्क्रिप्ट लिखने वालों की सीमा
फिल्म में सबसे बुरी और कमजोर कड़ी है स्क्रिप्ट राइटर तुषार हीरानंदानी और डायलॉग राइटर राशिद साजिद। 'धमाल' में कम से कम असरानी, विजय राज, टीकू तलसानिया और संजय मिश्रा थे और कहानी में मिस्टर बीननुमा ह्यूमन कॉमेडी वाला पहलू था। इस सीक्वल में तो ले-देकर सात-आठ बेरंग किरदार हैं। रीतेश, अरशद, आशीष और जावेद जाफरी अपने एक्सप्रेशन और एक्टिंग में बेइंतहा कोशिशें झोंकते नजर आते हैं, पर हर बार हंसी मुंह से निकलकर हवा में ही राख बनकर खत्म हो जाती है। आप किसी सीन को रिवाइंड करके कभी हंसना चाहें तो भूल ही जाइए। इसका मतलब ये है कि कॉमेडी फिल्म के साथ ये सबसे बड़ी ट्रेजेडी है। स्क्रिप्ट में मौजूदा वक्त की फिल्मों के रेफरेंस कूट-कूटकर डाले गए हैं।
ज्यादातर तो इनका मखौल उड़ाया गया है। इनमें दबंग, डेल्ही बेली, थ्री ईडियट्स,रंग दे बसंती, पीपली लाइव, कौन बनेगा करोड़पति, बच्चन साहब, प्रोमो, फिल्म डिवीजन, मकाऊ, वंस अपऑन अ टाइम इन मुंबई, बारबरा मोरी, तारे जमीं पर और गुजारिश के रेफरेंस देखे जा सकते हैं। इसके अलावा फिरोज खान, अमिताभ बच्चन, शाहरुख, धर्मेंद्र, शत्रुघ्न सिन्हा और गुजरे जमाने के विलेन जीवन की मिमिक्री पूरी मूवी के दौरान चलती रहती है।

ऐसा लगता है
- चल कुडि़ए नी चल चल मेरे नाल... गाने की कोरियोग्रफी बड़ी ढीली है। इसमें कुछ और ढिलाई जोड़ देते हैं संजय दत्त, जिनका अकड़ा-फूला हुआ शरीर और धंसा हुआ गला देखने में बोझिल सा लगता है।
- बाटा भाई बने सतीश कौशिक बहुत दिन बाद ऐसी कॉमेडी में दिखे, पर उनकी तेज हरकतों और करंट मारती एक्टिंग में अब धीमापन आ गया है। शायद, उसे सही से एंजॉय करने के लिए फिर से 'दीवाना मस्ताना' की डीवीडी की ओर लौटना पड़ेगा।
- निर्देशक इंद्र कुमार 'दिल', 'बेटा', 'इश्क' और 'मन' बनाकर जितना ऊपर उठे उतना ही नीचे गिरते गए 'डैडी कूल', 'प्यारे मोहन' और 'डबल धमाल' जैसी फिल्मों से।
- वक्त आ गया है कि चश्म-ए-बद्दूर, प्रतिज्ञा (1975), जाने भी दो यारों, गोपी (1970), राम और श्याम, चुपके-चुपके, राजा बाबू, साजन चले ससुराल और चलती का नाम गाड़ी (1958) जैसी ढेर सारी दूसरी फिल्मों को जमा कर लें, क्योंकि आगामी कॉमेडीज पर से विश्वास कुछ उठता जा रहा है। ये हंसाती जरूर है, पर तीन घंटे बाद हम खुद को भूखा और टेंशन से भरा हुआ पाते हैं।

आखिर में
अगर इस कॉमेडी में कोई एक बात है जो ध्यान जुटाती है और खुश करती है तो वो है एक्टर के और कैरेक्टर के तौर पर जावेद जाफरी की ईमानदारी। फिल्म में सबसे ज्यादा हंसी आती है उन्हीं की बातों पर। अपनी कॉमिक टाइमिंग और डांस स्टेप्स में वो पूरे नंबर ले जाते हैं। बहुत बार वह एक्टिंग में अपने पिता जगदीप की याद दिलाते हैं। वेरिएशन के मामले में नंबर ले जाते हैं रितेश देशमुख।
गजेंद्र सिंह भाटी