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Friday, February 10, 2012

राहुल मर्जी की टाई पहनने और बगैर चॉपस्टिक खाना खाने के दिन चाहता है, वो दिन लाने में मदद करती है चुलबुली रियाना

फिल्म: एक मैं और एक तू
निर्देशक: शकुन बत्रा
कास्ट: इमरान खान, करीना कपूर, बोमन ईरानी, रत्ना पाठक शाह, निखिल कपूर, जेनोबिया श्रॉफ
स्टार: तीन, 3.0शकुन बत्रा 'रॉक ऑन' और 'जाने तू या जाने ना' इन दों फिल्मों में असिस्टेंट डायरेक्टर रहे थे। फरहान अख्तर की 'डॉन' में जो
खइके पान बनारस वाला... गाना था, संभवत: वह उसमें पानवाला भी बने थे। खैर, इन दोनों फिल्मों से कई बातें शकुन के निर्देशन में बनी पहली फिल्म 'एक मैं और एक तू' में भी तैरती महसूस होती है। जैसे, स्क्रिप्ट तसल्ली से आगे बढ़ती है। इसमें पैसेवाले घर का, लेकिन इमोशनली उलझा युवक है। अपनी ही हाई सोसायटी से कुछ बागी होकर परफैक्टली एवरेज बन जाना चाहता है। उसके ह्यूमर में ठहाके नहीं गुदगुदी है। वो मारपीट नहीं करता, बद्तमीजी नहीं करता। और आखिर में अपनी आजादी को पा लेता है। ऐसा 'रॉक ऑन' में भी था, ऐसा किसी और रूप में 'जाने तू या जाने ना' में भी था।

'एक मैं और एक तू' ऐसा शानदार सिनेमैटिक अनुभव नहीं बन पाती है, जिससे गुजरने के लिए हम थियेटर के बाहर लंबी लाइनों में खड़े होते हैं। ये एक औसत फिल्म है, पर जो चीजें इसे खास बनाती हैं, वो है इसका टेक्नीकली अच्छा होना। करीना-इमरान के काम और उनके एक-दूजे से उलट किरदारों में तरोताजगी है। पैसेवाले यंगस्टर्स की फिल्म होते हुए भी ये मुझे इस लिहाज से अच्छी लगी कि आखिर में हीरो राहुल सीख जाता है कि परफैक्टली एवरेज यानी एकदम आम होने में कोई बुराई नहीं है। वह अपने पेरंट्स को कह देता है कि अब अपनी मर्जी की टाई पहनेगा। मर्जी होगी तो डिनर, चॉपस्टिक से करेगा, नहीं तो हाथ से।

फिल्म का प्रस्तुतिकरण हालांकि यहां ज्यादा महत्वपूर्ण है पर बात करते हैं कहानी की। राहुल कपूर (इमरान खान) 26 साल का है और वेगास में आर्किटेक्ट है। पैदा हुआ है तब से मॉम-डैड (रत्ना
पाठक शाह - बोमन ईरानी) ने हाई सोसायटी के तौर-तरीके और हमेशा फर्स्ट आने की उम्मीदें उस पर लाद दी है। मॉम से वह कुछ कहना चाहता है, पर उनका इंट्रेस्ट 'बेटा, हैव अ हेयरकट' कह देने भर में है। डैड की जबान पर बस यही होता है कि 'बेटा तुमने सिल्वर नहीं जीता है, तुमने गोल्ड हारा है।' वह जिंदगी को घसीट रहा है। उसने पेरंट्स को डर के मारे ये भी नहीं बताया है कि उसकी नौकरी चली गई है। अब वह दूसरी नौकरी तलाश रहा होता है कि रियाना ब्रिगैंजा (करीना कपूर) नाम की चुलबुली, अल्हड और अप्रत्याशित हेयरस्टाइलिस्ट से टकरा जाता है। राहुल जितना निर्जीव है, रियाना उतनी ही सजीव है। यहां से राहुल की लाइफ 360 डिग्री मुड़ जाती है। उसे तय करना है कि पेरंट्स की इज्जत करते हुए उनका कहा मानता जाए कि खुद क्या चाहता है, वो करे। उसे रियाना के साथ अपने रिश्ते को भी कोई आयाम देना है, जो कि जितना आसान दिखता है, उतना है
नहीं।

हिंदी फिल्मों के अंत में हीरो-हिरोइन को प्यार हो ही जाता है। पर यहां कई स्टीरियोटाइप तोड़े गए हैं। यहां राहुल तो रियाना से प्यार करता है, पर वह उसे सिर्फ एक बेस्ट फ्रेंड ही मानती है, और अंत में दोनों इसी स्थिति पर अपने रिश्ते को रोकते हैं। हालांकि राहुल की कोशिशें जारी रहती हैं। ये अनोखी बात है। फिल्म पर अमेरिकी असर भी है। मसलन, वेगास में ड्रिंक्स के नशे में राहुल-रियाना का कोर्ट मैरेज कर लेना। ये सीन इससे पहले 'हैंगओवर' में भी नजर आया था। या फिर मूवी में इक्के-दुक्के अडल्ट जोक। करण जौहर के बैनर की फिल्मों में वेस्ट का असर तो होता ही है, क्योंकि ये भारत से पहले भारत से बाहर बसे एनआरआईज की फिल्में होती हैं। इन पर पहला हक उनका होता है। पर ये बात भुला दी जाती है कि जैसी जीवनशैली एनआरआईज अपना चुके हैं, जिस कंज्यूमरिज्म और सोच में वो ढल चुके हैं, उससे हमारा अंदरूनी मुल्क अभी अछूता है। पर फिल्में भीतरी भारत में भी लगती हैं, और वहां के कोरे कागज दिमाग प्रभावित होते हैं।

विशुद्ध मनोरंजन के पहलू से कहूं तो कहीं कुछ धीमी होती है पर फिल्म में आप कहीं पकते नहीं हैं। करीना कपूर के पेरंट्स बने निखिल कपूर और जेनोबिया श्रॉफ बहुत अच्छी कास्टिंग हैं। शकुन का निर्देशन और आसिफ अली शेख की एडिटिंग साफ-सुथरी है। अमित त्रिवेदी का म्यूजिक फिल्म की प्रस्तुति के हिसाब से ठीक-ठाक है। 'एक मैं और एक तू' की टीवी या डीवीडी रिलीज का भी इंतजार कर सकते हैं, पर थियेटर में देखने का भी कोई अफसोस नहीं होगा।
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गजेंद्र सिंह भाटी

Saturday, September 10, 2011

फिल्मी फिल्म है, एन्जॉय करें और भूल जाएं

फिल्म: मेरे ब्रदर की दुल्हन
निर्देशक: अली अब्बास जफर
कास्ट: इमरान खान, कटरीना कैफ, अली जफर, मोहम्मद जीशान अयूब, तारा डिसूजा, बृजेंद्र काला
स्टार: तीन, 3.0

फिल्म देखते हुए मुझे कुछ झुंझलाहट हुई। क्यों? जानने से पहले 'हम आपके हैं कौन' के अंताक्षरी सॉन्ग पर चलते हैं। जिसके पास तकिया आता है वह कोई न कोई फिल्मी गाना गाता है या डायलॉग बोलता है। अनुपम खेर अपनी बारी आने पर प्लास्टिक की कुर्सी पर खड़े हो, हाथ में मिनरल वॉटर की बोतल ले, रीमा लागू को बसंती और आलोकनाथ को मौसी बनाकर 'शोले' का मशहूर डायलॉग सुसाइड... बोलते हैं। ये सीक्वेंस शानदार बन पड़ता है, मगर जीप के बोनट पर खड़ी होकर जब कटरीना सुसाइड... वाला डायलॉग इस फिल्म में बोलती हैं तो छाती चौड़ी नहीं होती कि मैं ये फिल्म देखने आया। 'ओम शांति ओम' और 'बुड्ढा होगा तेरा बा' जैसी फिल्मों में इतना बॉलीवुड डाल दिया जाता है कि ये फिल्में खुद कुछ नहीं रह पातीं। ऐसा ही 'मेरे ब्रदर की दुल्हन' के साथ है। चूंकि इस फिल्म का नाम और स्टोरी इतने अनुमानित हैं कि ढाई घंटे दिखाने को कुछ बचता नहीं। इस कसर को ढकने के लिए डायरेक्टर अली अब्बास जफर हिट फिल्मों के गानों की कोरियोग्रफी, पोस्टर और डायलॉग फिल्म में ठूसते जाते हैं और हम फ्रैश कंटेंट को तरसते जाते हैं। उन्हें समझना होगा कि कटरीना और तारा डिसूजा के किरदारों को बीड़ी, सिगरेट या दारू पिला देने से वह कुछ नया नहीं करते। नयापन स्क्रिप्ट और अदाकारी में चाहिए जो मिसिंग है। हालांकि फैमिली और फ्रैंड्स के साथ जाएंगे तो फिल्म आपको ठीक-ठाक एंटरटेनमेंट देगी, बावजूद इसके मुझे ये टोटके थोथे और इरीटेट करने वाले लगे।

बात कुछ यूं है
लंदन में रहने वाला लव अग्निहोत्री (अली जफर) अपनी पांच साल से गर्लफ्रेंड रही गुजराती लंदन बोर्न लड़की पियाली (तारा डिसूजा) से ब्रेकअप कर लेता है। अब शादी करके सेटल होना चाहता है। दिल्ली में छोटे भाई कुश (इमरान खान) को फोन करके अपने लिए लड़की ढूंढने को कहता है। कुश देहरादून अपने पेरंट्स के पास जाता है। जुबां पर गाना लिए 'दिल से हो दिल्ली, हो धड़कन से लंदन... मेरे ब्रदर की दुल्हन'। उसकी तलाश डिंपल दीक्षित (कटरीना कैफ) पर आकर रुकती है, जिसे वह पहले भी मिल चुका है। बात आगे बढ़ती है और फिर कुछ ऐसा होता है कि कुश को डिंपल से प्यार हो जाता है। चूंकि फिल्म बिल्कुल भी गंभीर नहीं है इसलिए बिना किसी बड़ी टेंशन के हम क्लाइमैक्स में पहुंचकर थियेटर से बाहर निकल आते हैं।

अभिनय के मामले में औसत
फिल्म के लीड एक्टर अपने कैरेक्टर को अपने प्रयासों से कोई आइडेंटिटी नहीं दे पाते हैं। कटरीना का बिंदास अंदाज हो या अली जफर की कुछ-कुछ पाकिस्तानी एक्सेंट में डायलॉग डिलीवरी या फिर इमरान का ब्लैंक फेस, सब इनकी पिछली फिल्मों में हमने देखा है। बृजेंद्र काला (शादी अरेंजर) और मोहम्मद जीशान अयूब (शोभित, कुश का दोस्त) के किरदार कुछ क्षण ही सही अपने परफॉर्मेंस में ताजगी लाते हैं। कैसा ये इस्क है... और मेरे ब्रदर की दुल्हन... गानों के बोल इरशाद कामिल ने मेहनत से लिखे हैं पर जबान पर नहीं चढ़ते, न ही याद हो पाते हैं।

बॉलीवुड की पैरोडी सी है यहां
# ओपनिंग गाने में चल छैंया छैंया (शाहरुख), हुण हुण दबंग दबंग - जवानी फिर ना आए (सलमान), मस्ती की पाठशाला (आमिर).. इन गानों के सिग्नेचर डांस स्टेप हैं।
# ऐसा ही कैसा ये इस्क है... गाने में है। मसलन, इसमें 'जोधा अकबर' के ख्वाजा जी.. गाने के स्टेप हैं।
# 'हम भाग नहीं सकते। मैं 'कयामत से कयामत तक' का आमिर खान और तुम जूही चावला नहीं हो। कि भागकर हम अपनी छोटी सी झोंपड़ी बनाएंगे। मैं फैक्ट्री में काम करूंगा और तुम कपड़े में प्याज-रोटी बांधकर मेरे लिए लाओगी। हम लोग मिडिल क्लास फैमिली से हैं, फिल्म के कैरेक्टर नहीं।'... इमरान के इस डायलॉग में भी फिल्मी संदर्भ है।
# शादी की तैयारियां करवा रहे बृजेंद्र काला कुछ कॉमिक रिलीफ लेकर आते हैं। जब उनसे पूछा जाता है, 'सब कंट्रोल में है... तो वह कहते हैं, 'कंट्रोल से भी कंट्रोल है। आई एम अ कॉम्पलैन बॉय।' पढऩे में खास नहीं लगता, पर परदे पर देखकर हंसी आती है। एक डायलॉग में पूछा जाता है, 'भाई साहब हो गए रेडी?' तो वह कहते हैं, 'ऐसा वैसा रेडी?.. एवर रेडी।'
# 'यूपी आए और भांग नहीं पी तो क्या खाक यूपी आए।' इस सीक्वेंस के दौरान ढाबे पर बैकग्राउंड में 'दबंग' और 'मुगल-ए-आजम' के एकदम नए बड़े पोस्टर खासतौर पर लगाए नजर आते हैं।
# पुराने जमाने का फिलिप्स का रेडियो एक-दो गानों के शुरू होने का लॉजिक बनता है। गैजेट्स के इस बेहद आधुनिक वक्त में चार बड़े निप्पो सेल वाला वो एंटीक रेडियो अलग अनुभव देता है।

आखिर में
...
चूंकि अली अब्बास जफर पहली बार के निर्देशक-लेखक हैं इसलिए फिल्म की थीम और एक और प्रेडिक्टेबल लव स्टोरी के लिए ही उनकी आलोचना करने से बचना चाहिए। बावजूद मेरी झुंझलाहट के मैंने ध्यान इस बात का रखा है कि बड़ी लगन और पागलपन से फिल्म में बॉलीवुड को रखा गया। पहली फिल्म हर किसी का बड़ा सपना होती है और उसके साथ संभवत: कोई भी बेइमानी नहीं करता है। ऐसे में तीन स्टार फिल्म में इन सब चीजों को डालने के जज्बे के लिए है और उस लिहाज से फिल्म ठीक है। थियेटर में बैठे दर्शक भी कहीं बोर होते या नाखुश नहीं होते दिखते। पर जब संदर्भ और तुलना में पिछले पचास साठ साल की फिल्में हर बार होती हैं तो ये फिल्म मुझे झुंझलाहट और दोहराव भरी लगती है।

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गजेंद्र सिंह भाटी

Saturday, July 2, 2011

'ए' को याद रखिए और हंसिए

फिल्मः डेल्ही बैली
डायरेक्टरः अभिनय देव
कास्टः विजय राज, इमरान खान, वीर दास, कुणाल रॉय कपूर, पूर्णा जगन्नाथन, शैनाज ट्रैजरीवाला
स्टारः तीन, 3.0

जो डर था वही हुआ। कुछ साल पहले जब 'अमेरिकन पाई' देखी थी, तो लगा था कि इसके अंश उड़कर हमारी फिल्मों में भी आएंगे ही। यकीन मानिए, ये सोचकर बहुत अच्छा नहीं लगा था। फिर हाल ही में 'हैंगओवर' आई। अब 'डेल्ही बैली' आई है। अब हम भी 'ऐसी' फिल्में बनाने लगे हैं। सोचना पड़ेगा। एंटरटेनमेंट के मामले में ये फिल्म बहुत अच्छी है। उम्मीदों से दोगुना देती है। सीट से हिलने नहीं देती है और हंसा-हंसाकर (मुझे नहीं) दोहरा कर देती है। सिर्फ एंटरटेनमेंट (ए सर्टिफिकेट वाला) के लिए मैं इसे तीन स्टार दे रहा हूं। मुश्किल है परिवार के साथ जाने में। इसे आप परिवार के साथ नहीं देख सकते हैं, न ही बच्चों और टीनएजर्स को ये फिल्म देखनी चाहिए। एडल्ट हैं तो दोस्तों के साथ जाएं, चाहें तो अकेले जाएं।

दिल्ली का उदर
तीन दोस्त हैं। दिल्ली में न जाने किस कॉलोनी में एक घर के फर्स्ट फ्लोर में किराए पर रहते हैं। कमरे में अंधेरा है, टॉयलेट में पानी नहीं है, सोने-रहने की जगह बिखरी पड़ी है और बिखरी पड़ी है इनकी लाइफ। ताशी (इमरान खान) एक अंग्रेजी अखबार में जर्नलिस्ट है। नितिन (कुणाल रॉय कपूर) उसका फोटोजर्नलिस्ट दोस्त है और 'काम' करना बड़ा पसंद करता है। तीसरा दोस्त अरूप (वीर दास) अखबार में ही कार्टूनिस्ट है। पानी सुबह दो घंटे ही आता है, पर इन तीनों को उठने में आलस आता है और पानी चला जाता है, फिर संडास में मुश्किल होती है। मेनका (पूर्णा जगन्नाथन) ताशी के साथ दफ्तर में काम करती है और सोनिया (शेनाज ट्रैजरीवाला) उसकी होने वाली वाइफ है। ये लो परिचय पूरा। कहानी सिंपल है। इन तीनों की जिंदगी फिल्म के दो घंटों के दौरान नरक बन गई है, कारण कई है। ये पहले भी भाग रहे थे और अब भी भाग रहे हैं।

सिर्फ ये ही अच्छा है
फिल्म में हुफैजा लोखंडवाला की एडिटिंग (अगर उन्होंने अकेले की है तो) पहली अच्छी चीज है। कैरेक्टर्स और कहानी कैसे डिवेलप होंगे, इसको दिमाग में सोचना और उन्हें पेश करना दूसरी बेहतर चीज है। हर बार हालात और कैरेक्टर के चेहरे के पिटे हुए भाव हंसाते हैं। कार्टूनी पहलू भी है। मसलन, वह सीन जिसमें विजय राज इमरान के कैरेक्टर ताशी को गोली मारने वाला है, अरूप टाई के सहारे छत से लटका हुआ है। उसके भार से और ऊपरी फ्लोर में चल रही कथक क्लास से छत क्रैक हो जाती है और कथक कर रही लड़की का पांव छेद में से नीचे निकल आता है। कुछ अच्छे पल भी हैं, जैसे बुरके में बैठे वीर दास का पानी पीना। वह बुरका उठाए बगैर ही पानी की गिलास मुंह को लगाता है और पानी बाहर गिर जाता है। फनी। फिल्म में एक्टिंग को लेकर किसी से शिकायत नहीं है। विजय राज सारे थ्रिल की डोरी अकेले खींचे रहते हैं। उनके मुंह से निकली हिंदुस्तानी गालियां थोपी हुई नहीं लगती। पर गाली तो गाली है, नहीं होती तो बेहतर होता।

कहीं तो लिमिट रखो
इसे यूथ की फिल्म कहा जा रहा है, पर मैं नहीं मानता। हां, मैट्रोपॉलिटन सिटीज के अंग्रेजी बोलने वाले यंगस्टर इसे देखकर तुरंत आकर्षित हो जाएंगे, फिर भी ये फिल्म भारत के आधे युवाओं को भी रेप्रजेंट नहीं करती है। मैं गारंटी के साथ कह सकता हूं कि फिल्म में जितनी बार 'एफ' शब्द का इस्तेमाल हुआ है, उतनी बार उसके हिंदी वर्जन वाले शब्द को बोला जाता तो थियेटर में बैठे लोग कानों में अंगुलियां डाल लेते और इसे सी ग्रेड माना जाता। आखिर 'अमेरिकन पाई' और अब 'डेल्ही बैली' के अलावा कितनी ऐसी फिल्में हैं जिनमें 'विष्ठा' (स्टूल) दिखाई गई है। कितनी ऐसी हिंदी फिल्में हैं (हॉलीवुड में तो हर दूसरी फिल्म में) जहां एक बॉयफ्रेंड अपनी गर्लफ्रेंड की शादी रोकने आता है और एक ऐसी यौन क्रिया का नाम लेता है जो शारीरिक संबंध बनाने के दौरान की जाती है। आखिर ये कैसा मनोरंजन है जिसमें लड़की को 'जा चुड़ैल' कहा जाता है, ताकि हम सब हंसें। इन सबमें लॉजिक ये दिया जाता है कि फिल्म को 'ए' सर्टिफिकेट मिला है। पर कितने ऐसे मल्टीप्लेक्स हैं जहां इटेबल्स के साथ-साथ अठारह से कम उम्र के टीनएजर्स को भी अंदर नहीं जाने दिया जाता है, बाहर ही रोक दिया जाता है।

क्या ये हमारी फिल्म है?
'डेल्ही बैली' दिखने में हिंदुस्तानी फिल्म लगती है। एक्टर्स यहां के हैं, उनके कैरेक्टर और जबान हॉलीवुड के। खासतौर पर वीर दास और इमरान खान के कैरेक्टर्स और उनके मैनरिज्म। देखते वक्त ध्यान रखें कि आपकी रगों में अलग किस्म का सेंस ऑफ ह्यूमर स्थापित किया जा रहा होगा। बरास्ते फिल्म के राइटर अक्षत वर्मा, ये ह्यूमर लॉस एंजेल्स से आया है। वहीं पर उन्होंने फिल्ममेकिंग कोर्स सीखा और वहां की इंडस्ट्री की मनोरंजन की परिभाषा को यहां ले आए। ये जो फिल्मों में गंदा बोलकर और दिखाकर दर्शकों के मन में शॉक वैल्यू पैदा करने की आदत है, वह हमारी फिल्मों में कभी नहीं थी। हॉलीवुड से आई है। फिल्म राइटिंग और मेकिंग की एक आचार संहिता होती है, कि एंटरटेनमेंट के बहाने हम इस सीमा को पार नहीं करेंगे। अब इस फिल्म के आने के बाद ये आचार संहिता टूटेगी और बुरे नतीजे सामने आएंगे। धन्यवाद, उन दो दर्जन हिंदी फिल्ममेकर्स का जिन्होंने अपने स्वयं के तय किए नैतिक नियमों में रहते हुए ही अब तक की सर्वश्रेष्ठ फिल्में बनाईं। ऐसी फिल्में जो अगले सौ-हजार साल तक हमें स्वस्थ मनोरंजन देती रहेंगी।

आखिर में...
फिल्म के शुरुआती सीन किरण राव की 'धोबीघाट' जैसे ट्रीटमेंट वाले हैं। 'भेजा फ्राई' में भारत भूषण नाम को सुनकर अंग्रेजीदां यूथ हंस पड़ता है। 'धोबीघाट' में मुन्ना (प्रतीक बब्बर) के बिहारी मूल को सुनकर ये यूथ हंसता है। 'थ्री ईडियट्स' में राजू रस्तोगी (शरमन जोशी) की सांवली-मोटी बहन को देखकर ये यूथ हंसता है। इस फिल्म में इस यूथ को हंसाने के लिए के.एल.सहगल जैसी आवाज में 'दुनिया में प्यार जब बरसे, ना जाने दिल ये क्यों तरसे, इस दिल को कैसे समझाऊं, पागल को कैसे मैं मनाऊं' गाना बजता है। आमिर खान आइटम नंबर में अपनी छाती पर उगे नकली घने बालों को अनिल कपूर के बालों से जोड़ते हैं। आखिर हम कब, कहां, किसपर, क्यों हंस रहे हैं, ये सोचना क्या अब गैर-जरूरी हो गया है।
गजेंद्र सिंह भाटी