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Saturday, July 21, 2012

जेम्स होमर की तरह आपके बच्चे भी क्या बैटमैन सीरिज के 'जोकर' और 'बेन' से प्रेरित नहीं होते होंगे!

फिल्मों के समाज पर असर से जुड़े पूर्व लेख यहां, यहां और यहां पढ़ सकते हैं,
(कॉलम सीरियसली सिनेमा से)
Bane (played by Tom Hardy) in 'The Dark Knight Rises'


James Holmer in two different pictures
डेनवर, कॉलोराडो (अमेरिका) के थियेटर में एक मास्कधारी लड़के की गोलीबारी से 12 लोगों की मौत और 50 से ज्यादा के घायल होने की घटना एक बार फिर फिल्मों में हिंसा के ग्लैमराइज्ड चित्रण के सोशल असर को सामने लाती है। इस घटना के दौरान ‘द डार्क नाइट राइजेज’ का प्रीमियर चल रहा था। अमेरिका के हर शहर में शो हाउसफुल चल रहे थे। यानी प्रमोशनल गतिविधियों के बाद फिल्म का ग्लैमर युवा दर्शकों के सिर चढ़कर बोल रहा था। क्रिस्टोफर नोलन ने बैटमैन सीरीज की अपनी तीसरी फिल्म ‘द डार्क नाइट राइजेज’ को भी इतने अद्भुत तरीके से डायरेक्ट किया है कि दुनिया का कोई भी दर्शक सम्मोहित हो जाए। हालांकि सुपरहीरो बैटमैन हथियारों का इस्तेमाल नहीं करता, मगर उनकी फिल्मों के विलेन की हिंसक इमेज हांस जिमर के म्यूजिक की तरह भव्य और विराट होती जाती है। आसपास की मुश्किलों और नैराश्य को देखते हुए एक औसत दर्शक भी वैसा ही सबको डरा देने वाला विलेन कहीं न कहीं बनना चाहता है।

Heath ledger as Joker in 'The Dark Knight'
 और दुर्योग देखिए, डेनवर का 24 साल का हमलावर लड़का जेम्स होमर फिल्म के विलेन ‘बेन’ जैसे खौफनाक अंदाज में प्रस्तुत होना चाहता था। उसके लिए कॉलोराडो और डेनवर ‘गॉथम सिटी’ बन गए थे। वहां के पुलिस कमिश्नर रेमंड कैली की मानें तो जेम्स होमर खुद को बैटमैन का दुश्मन ‘जोकर’ (नोलन की पिछली फिल्म ‘द डार्क नाइट’ में हीथ लेजर ने जोकर का किरदार निभाया था, इस उलझे-नकारात्मक किरदार को निभाते-निभाते ही कहा जाता है कि हीथ इतने मानसिक अवसाद में आ गए थे कि नशे की ओवरडोज से एक होटल में उनकी मौत हो गई, फिल्म की रिलीज से पहले। जोकर के रूप में हीथ के अभिनय को अब कल्ट माना जाता है।) कहकर संबोधित कर रहा था। कैली के मुताबिक उसने अपने बाल भी लाल रंग में रंगे हुए थे।

विश्व में जितने भी कमर्शियल फिल्में बनाने वाले निर्देशक हैं उनसे कभी भी पूछा जाए तो वो सीधे तौर पर फिल्मों के समाज पर असर को खारिज कर देते हैं। अगर वो सही हैं तो डेनवर, कॉलोराडो में हुई ये घटना क्या है? असल बात ये है कि किसी फिल्ममेकर ने कभी इस बात की परवाह नहीं की कि वह जाने कि उनकी फिल्मों का समाज के अलग आयुवर्ग और मनस्थिति वाले लोगों-बच्चों पर क्या असर होता है? अगर नहीं होता तो बड़ी फ्रैंचाइजी वाले अपनी फिल्मों की मर्चेंडाइज क्यों बाजार में उतारते? ‘कृष’ के दौरान राकेश रोशन और उनके फिल्म निर्माण सहयोगियों ने ऋतिक रोशन के पहले सुपरहीरो इंडियन कैरेक्टर की मर्चेंडाइज उतारी। ऐसा ही ‘रा.वन’ के वक्त शाहरुख खान ने किया। अनुराग कश्यप ने ‘गैंग्स ऑफ वासेपुर’ के बारे में कह तो दिया कि जो होता है वह ही दिखाते हैं, पर बात इतनी ही तो नहीं है? देखादेखी भी तो लोग स्टाइल मारते हैं। मसलन, ‘कुंवारी हो... सादी नहीं हुई’ सरदार खान का ये संवाद सुनने में हजारों दर्शकों को बड़ा ही अनूठा लगता हो, और दोस्त लोग आपस में बोलना भी शुरू कर देते हैं, पर ये एक ग्लैमराइज्ड असर तो हुआ न। अगर ये दिखता असर है तो बहुत से अनदिखते असर भी तो होंगे न? क्या ये हत्यारा किरदार इस तरह से दर्शकों की घृणा का कारण बनने की बजाय उनका प्यारा नहीं हो गया?

अगर आपको याद हो तो पिछले साल इसी तरह नॉर्वे नरसंहार करने वाला आंद्रे बेरविंग भी घटना को अंजाम देने से पहले समाज से कटकर अलग ही जहनियत वाला हो चुका था गया था, जाहिर है उसपर भी कई असर रहे होंगे। ‘फॉलिंग डाउन’, ‘टैक्सी ड्राइवर’ और ‘होबो विद शॉटगन’ जैसी फिल्मों के मुख्य किरदार भी ऐसे ही हैं। ये फिल्में ऐसे अपराधियों के बनने की वजहों पर रोशनी डालती हैं।

आज ऐसे वक्त में जब दुनिया भर का समाज धीरे-धीरे एक-दूसरे से कट रहा है, जब बच्चे और युवा आसानी से फिल्मों की कहानियों को असल मानकर जीना चाहते हैं, ‘डेनवर थियेटर’ जैसी घटनाएं होती हैं। अमेरिका में ज्यादातर सुपरमार्केट में एक चॉकलेट खरीदने वाला युवा बंदूक खरीद सकता है। भारत भी उसी व्यवस्था की तरफ बढ़ रहा है। युवा मल्टीप्लेक्स में जाते हैं, 200 से 1000 रुपये आसानी से एक मूवी शो और पॉपकॉर्न-कोल्डड्रिंक पर खर्च कर देते हैं, जबकि उसी शहर में उनके हमउम्र युवा शिक्षाहीन और बिना किसी रुपये के हैं। उनमें निराशा और दिशाहीनता है। टीवी पर कॉमेडी करने वाले एक-दूसरे को थप्पड़ मारते हैं, गे लोगों या बार गल्र्स का मजाक उड़ाते हैं, एडल्ट बातें करते हैं, डबल मीनिंग डायलॉग बोलते जाते हैं और घोर लापरवाही बरतते हैं। ये सब जो हो रहा है, युवा और बालमन में कुछ सहनशील और सकारात्मक तो डालने से रहा।

आप आज के दौर की हिंदी फिल्में और फिल्ममेकर देखिए। प्रभुदेवा ‘राउडी राठौड़’ को साउथ की फिल्मों के सफल हिंसक-मनोरंजक फॉर्मेट पर बनाते हैं सिर्फ कारोबारी फायदे के लिए। इस ग्लैमराइज्ड एक्शन के बच्चों पर होने वाले बुरे असर के बारे में एक बार उनसे पूछा तो वह बोले, ‘आपके पूछने से पहले सोचा नहीं, आगे ध्यान रखने की कोशिश करूंगा’। जाहिर है वो ध्यान क्या ही रखेंगे? फिर आते हैं कारोबारी लिहाज से सफल डायरेक्टर रोहित शेट्टी पर। अपनी मूवीज (गोलमाल, सिंघम, बोल बच्चन) में ग्लैमराइज्ड एक्शन पर वह बार-बार पूरी दिशाहीनता के साथ कहते हैं, ‘मैं फिल्में समाज के भले के लिए नहीं बनाता, बस एंटरटेन करने के लिए बनाता हूं’। यानी वह भी जिम्मेदारी नहीं कुबूलते। ऐसा ही हाल तकरीबन समाज की बजाय बस सिनेमा को ही देखने और तवज्जो देने वाले तमाम फिल्मकारों के साथ है।

मैं डेनवर में हुई इस दुखद घटना को किसी एक इंसान की दिमागी खराबी नहीं मानता। हम जैसा समाज बनाते हैं, हमें वैसे ही समाज का सामना करना पड़ता है। अब देखिए न, ‘द डार्क नाइट राइजेज’ जैसी हिंसक फिल्म में भी उस थियेटर में एक कपल अपने तीन महीने के बच्चे को साथ लेकर गया था। अब समझिए कि भला उस बच्चे को कौन से मनोरंजन की जरूरत रही होगी? वो इस फिल्म से क्या सीखने वाला होगा? इस गोलीबारी में वह नवजात भी घायल हुआ और फिलहाल अस्पताल में है।
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गजेंद्र सिंह भाटी

Tuesday, May 22, 2012

संजय लीला भंसाली तो मुझसे भी ज्यादा कमर्शियल हैं, राउडी राठौड़ का टाइटल भी उन्होंने ही दिया थाः प्रभुदेवा

बातचीत  1 जून को रिलीज होने जा रही फिल्म के निर्देशक और मशहूर डांसर प्रभुदेवा से

 ‘सांवरिया’ और ‘गुजारिश’ के फ्लॉप होने के बाद संजय लीला भंसाली ने अपने असिस्टेंट राघव धर की कहानी ‘माई फ्रेंड पिंटो’ के निर्माण में पैसे लगाए। इस उम्मीद पर कि प्रतीक बब्बर और कल्कि कोचलिन को लेकर बनाई गोवन लिंगो वाली ये चैपलिनछाप कॉमेडी लोगों को पसंद आएगी और उनकी डूबत उबर जाएगी। पर फिल्म नहीं चली। इस दौरान प्रभुदेवा की बतौर निर्देशक हिंदी फिल्मों में या मुंबई के सिनेमा में ‘वॉन्टेड’ वाली करारी पहचान बन चुकी थी। कि... भई ये ऐसा निर्देशक है जो दक्षिण की ग्लैमराइज्ड-स्टायलाइज्ड मारधाड़ को भावनात्मक तार्किकता का जामा पहनाकर लोगों को थियेटर तक लाना जानता है। जो मुहावरा गढ़ने का अंदाज भारतीय सिनेमा में शुरू से रहा है, वह प्रभुदेवा कर पाते हैं। ‘दबंग’ बनाने वाले अभिनव की माफिक।

तो ‘खामोशी’, ‘ब्लैक’, ‘हम दिल दे चुके सनम’, ‘सांवरिया’ और ‘गुजारिश’ जैसी फिल्मों से कुछ-कुछ ऑटर थ्योरी में घुसते फिल्मकार संजय लीला भंसाली ने तब छुआ मारक वित्तअस्त्र ‘विक्रमारकुडू’। तेलुगू की इस सुपरहिट फिल्म को हिंदी में बनाने का जिम्मा उन्होंने दिया प्रभुदेवा को। नतीजा हाजिर है। ‘राउडी राठौड़’। कहानी वही है विक्रम राठौड़ वाली। जाहिर है।

अंदरूनी भारत में जो लोग 1993 के बाद एटीएन, डीडीवन और जी के म्यूजिक चैनल देखते हुए और ऑल इंडिया रेडियो सुनते हुए बड़े हुए हैं, उनके लिए प्रभुदेवा एक डायरेक्टर नहीं हैं। उनके लिए वह एक ऐसी छवि है जो ‘हम से है मुकाबला’ के एक गाने में ‘मुक्काला मुकाबला ओ हो होगा... ओ हो लैला...’ गा रहा होता है और गाने के आखिर में काऊबॉय अंदाज में पिस्टल की गोलियां चलती हैं और उस नृतक का सिर, कलाइयां और टखने गायब हो जाते हैं। उसके बाद भी वह पुतला नाचता रहता है। हमारे लिए प्रभुदेवा नाम का वह नृत्य निर्देशक और नृतक ‘उर्वशी-उर्वशी’ और ‘पट्टी रैप’ के अपरिमेय नृत्य के बाद इंडिया का माइकल जैक्सन हो गया था। ये मौका उन्हीं अपरिमेय से बात करने का था।

उनके नृत्य की तरह उनकी विनम्रता भी अपरिमेय सी है। ये इसी का एक और सबूत था कि सफल अभिनेता, निर्देशक और नृत्य निर्देशक होने के बावजूद अक्षय कुमार से जुड़ी हर बात में वह उन्हें अक्षय सर कहकर संबोधित करते हैं, जबकि उनका सफल करियर अक्षय से पहले ही शुरू हो गया था। पूछने पर तुरंत कहते हैं, “उनकी जगह कोई इंडस्ट्री में पांच साल पुराना भी होता तो उसे भी मैं सर ही कहता”। पूरी बातचीत में उनके जवाब यूं ही छोटे-छोटे रहते हैं। कुर्सी पर बैठते ही उन्होंने तुरंत एक के बाद एक, दो-तीन सैंडविच जल्दी-जल्दी खा लिए। किसी आम भूखे इंसान की तरह। उनके कपड़े भी वैसे ही होते हैं। तभी उनकी फिल्में भी आम इंसानों को सबसे ज्यादा लुभाती हैं। ये सब देखकर बहुत खुशी होती है।

आमतौर पर जो अभिनेता फिल्म निर्देशन (मसलन, अनुपम खेर और नसीरुद्दीन शाह) में उतरते हैं वो उससे तौबा कर लेते हैं, लेकिन प्रभु अलग मिट्टी के बने हैं। “मुझे डायरेक्शन पसंद है। इसमें टेंशन और क्रिेएटिविटी बहुत होती है, जो मुझे बहुत पसंद है”, वह कहते हैं। फिल्म के हिट होने की लालसा पर भी उनका जवाब बड़ा सीधा-सादा होता है। कहते हैं, “मैं भी नॉर्मल इंसान हूं। बाकी डायरेक्टर्स की तरह चाहता हूं कि मेरी फिल्म भी हिट हो। बस”। वह हम जैसे ही सीधे बंदे हैं और संजय लीला भंसाली सौंदर्य और सनक को लेकर अलग ही सेंस रखने वाले। संजय अपनी फिल्म को लेकर बेहद अधिकारात्मक हो जाते हैं। मगर प्रभु इस बात को झुठलाते हैं। वह कहते हैं, “पता नहीं लोगों ने उनके बारे में अलग धारणा बना रखी है, मुझे भी कहा कि वह अलग टाइप के इंसान हैं। पर ऐसा मुझे तो नहीं लगा। हकीकत में तो निर्माता होते हुए भी वह राउडी राठौड़ के सेट्स पर सिर्फ एक बार आए थे और वह भी बस आधे घंटे के लिए”। अब बात आती है, उनके घोर कमर्शियल और संजय के नॉन-कमर्शियल और ज्यादा ही आर्टिस्टिक मिजाज वाला होने के बीच। ऐसे में एक फिल्म क्या खिंचती नहीं रहती? इसके जवाब में वह कहते हैं, “संजय सर तो मुझसे भी ज्यादा कमर्शियल हैं। फिल्म को राउडी राठौड़ जैसा टाइटल भी उन्होंने ही दिया था”।

उन्हें देखते हुए लगता नहीं पर वह मानते हैं और मुझे आश्चर्य होता है कि तेलुगू और तमिल में बन रहे एक्सपेरिमेंटल सिनेमा पर भी वह नजर रखते हैं। चाहे वह नए फिल्मकार थियागराजन कुमारराजा की बनाई कमाल तमिल एक्शन फिल्म ‘अरण्य कांडम’ हो या फिर रामगोपाल वर्मा की कैनन के 5डी कैमरा से महज पांच दिन में बनी तेलुगू फिल्म ‘डोंगाला मुथा’ (वैसे डोंगाला मुथा का जिक्र आया है तो बता दूं कि इस फिल्म के मुख्य अभिनेता भी रवि तेजा ही हैं, वही रवि तेजा जिन्होंने ‘राउडी राठौड़’ की मूल फिल्म ‘विक्रमारकुडू’ में एसीपी विक्रम राठौड़ की भूमिका बेहतरीन तरीके से निभाई थी)। तो इस जिक्र पर प्रभु संक्षेप में कहते हैं कि हां, मैं ये सब देखता हूं। बड़ी अच्छी बात है कि नया काम हो रहा है, जो सिनेमा में नई चीजें लेकर आएगा।

मेरी रुचि प्रभुदेवा के बचपन और डांस की तरह झुकाव को जानने की होती है और वह बताते हैं, “पढ़ाई में अच्छा नहीं था। करियर का कुछ और ऑप्शन भी नहीं था। चूंकि मैं डांस को लेकर पागल था तो पिताजी से बोला। वो इंडस्ट्री में थे। उन्होंने पूछा क्या करना है तो मैंने बताया और मूवीज में आ गया”। प्रभु के पिता मुगुर सुंदर भी साउथ इंडियन फिल्मों के नामी कोरियोग्राफर रहे हैं। उनके भाई भी कोरियोग्राफर हैं।

‘राउडी राठौड़’ का निर्देशन करने के अलावा प्रभु, रैमो डिसूजा की फिल्म ‘एबीसीडी (एनी बडी कैन डांस)’ में भी अभिनय और डांस करते नजर आएंगे। रैमो की पिछली फिल्म ‘फालतू’ थी। ‘एबीसीडी’ में इंडिया के नामी नृतकों के साथ अमेरिका के डांस रिएलिटी शो की एक प्रतिस्पर्धी भी होंगी। प्रभुदेवा की बतौर डांसर वापसी कराने वाली ये फिल्म संभवत ‘स्टेप अप’ और ‘टेक द लीड’ की तर्ज पर होगी। खैर, बातों का यहीं अंत होता है। फिर कभी उनके अंतर्मुखी से बहुर्मुखी हो जाने और खूब लंबी गहरी बातें करने की उम्मीदों के साथ।

प्रभु से कुछौर प्रश्नोत्तर...
  • सर्वोत्तम नृत्य निर्देशन वाले गाने?
(गाना याद नहीं आता तो ट्यून गुनगुनाकर पूछते हैं कि ये कौन से गाने हैं, हिंट देता हूं और...) ‘डोला रे डोला रे’ (देवदास) और 'आज फिर जीने की तमन्ना है’ (गाइड)।

  • बॉलीवुड और टॉलीवुड को कैसे देखते हैं?
पहली काम करने के लिए मजेदार जगह है और दूसरी मेरा घर, जिसने मुझे बनाया।

  • कोई अगर पूछे कि आपकी फिल्म क्यों देखे तो?
क्योंकि इसमें अक्षय सर की एनर्जी है, गन्स है और फाइटिंग है। क्योंकि यह 'दबंग' के बाद सोनाक्षी सिन्हा की दूसरी फिल्म है। क्योंकि इसमें उन दोनों की कैमिस्ट्री बहुत कमाल की है। क्योंकि 'राउडी राठौड़' में मैं हूं।

  • कोरियाग्राफी अपने पिता से सीखी या खुद ही सीखे?
मैंने पिताजी के साथ काम किया। कुछ इसका भी फर्क पड़ा। दूसरा मैं उस इंडस्ट्री को अच्छे से जानता था। पर बाद में अच्छे से कोरियोग्राफी सीखी भी थी।

  • हिंदी फिल्मों के तीन सबसे बढ़िया डांसर, आपकी नजर में?
ऋतिक रौशन, माधुरी दीक्षित और श्रीदेवी मैम।

  • ‘वॉन्टेड’ के बाद सलमान खान के साथ काम नहीं किया?
मौका नहीं बना। वह बेहतरीन इंसान हैं। मुझे जब भी बुलाएंगे मैं हाजिर हो जाऊंगा।

  • क्या ‘राउडी राठौड़’ में अक्षय कुमार का डबल रोल 'डॉन’ के अमिताभ जैसा है?
(चौंकते हुए) पहले तो ये बताइए, आपको कहां से पता चल गया कि इसमें डबल रोल है। ....पर हां, डॉन से बिल्कुल अलग है।

  • अक्षय कुमार ने बहुत वक्त से एक्शन नहीं किया था?
पर ये शूटिंग में लगा ही नहीं। फाइट करते हुए तो वह 23-24 साल के लड़के जैसे बन जाते थे।

  • आपकी फिल्मों में एक्शन स्टायलाइज्ड और ग्लैमराइज्ड होता है, क्या बच्चों पर बुरा असर नहीं पड़ेगा?
पहले कभी इस तरह सोचा नहीं इस बारे में। मगर अब आपने कहा है तो आगे से जरूर ध्यान रखूंगा।

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गजेंद्र सिंह भाटी