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Saturday, July 13, 2013

मेरा प्रोसेस बस इतना है कि पहले कुछ सोचता हूं और जब किसी चीज के प्रति एक्साइटेड होने लगता हूं तो अपने आप एक अनुशासन आ जाता हैः रितेश बत्रा

 Q & A. .Ritesh Batra, film director (Dabba/The Lunchbox).
 
Irfan Khan, in a Still from 'Dabba' (The Lunchbox).
‘डब्बा’ या ‘द लंचबॉक्स’ के बारे में सुना है?
… झलक देखें यहां, यहां भी

इस साल कान अंतरराष्ट्रीय फ़िल्म महोत्सव-2013 में इस फ़िल्म को बड़ी सराहना मिली है। वहां इसे क्रिटिक्स वीक में दिखाया गया। रॉटरडैम अंतरराष्ट्रीय फ़िल्म महोत्सव के सिनेमार्ट-2012 में इसे ऑनरेबल जूरी मेंशन दिया गया। मुंबई और न्यू यॉर्क में रहने वाले फ़िल्म लेखक और निर्देशक रितेश बत्रा की ये पहली फीचर फ़िल्म है। उन्होंने इससे पहले तीन पुरस्कृत लघु फ़िल्में बनाईं हैं। ये हैं ‘द मॉर्निंग रिचुअल’, ‘ग़रीब नवाज की टैक्सी’ और ‘कैफे रेग्युलर, कायरो’। दो को साक्षात्कार के अंत में देख सकते हैं। 2009 में उनकी फ़िल्म पटकथा ‘द स्टोरी ऑफ राम’ को सनडांस राइटर्स एंड डायरेक्टर्स लैब में चुना गया। उन्हें सनडांस टाइम वॉर्नर स्टोरीटेलिंग फैलो और एननबर्ग फैलो बनने का गौरव हासिल हुआ।

अब तक दुनिया की 27 टैरेटरी में प्रदर्शन के लिए खरीदी जा चुकी ‘डब्बा’ का निर्माण 15 भारतीय और विदेशी निर्माणकर्ताओं ने मिलकर किया है। भारत से सिख्या एंटरटेनमेंट, डीएआर मोशन पिक्चर्स और नेशनल फ़िल्म डिवेलपमेंट कॉरपोरेशन (एनएफडीसी) और बाहर एएसएपी फिल्म्स (फ्रांस), रोहफ़िल्म (जर्मनी), ऑस्कर जीत चुके फ़िल्मकार दानिस तानोविक व फ्रांस सरकार ने इसमें वित्त लगाया है। ‘पैरानॉर्मल एक्टिविटी-2’ (2010) में सिनेमैटोग्राफर रह चुके माइकल सिमोन्स ने ‘डब्बा’ का छायांकन किया है।

कहानी बेहद सरल और महीन है। ईला (निमरत कौर) एक मध्यमवर्गीय गृहिणी है। भावहीन पति के दिल तक पेट के रस्ते पहुंचने की कोशिश में वह खास लंच बनाकर भेजती है। पर होता ये है कि वो डब्बा पहुंचता है साजन फर्नांडिस (इरफान खान) के पास। साजन विधुर है, क्लेम्स डिपार्टमेंट में काम करता है, रिटायर होने वाला है। मुंबई ने और जिंदगी ने उससे सपने और अपने छीने हैं इसलिए वह जीवन से ही ख़फा सा है। अपनी जमीन पर खेलते बच्चों को भगाता रहता है और शून्य में रहता है। जब ईला जानती है कि डब्बा पति के पास नहीं पहुंचा तो वह अगले दिन खाली डब्बे में एक पर्ची लिखकर भेजती है। जवाब आता है। यहां से ईला और साजन अपने भावों का भार लिख-लिख कर उतारते हैं। इन दोनों के अलावा कहानी में असलम शेख़ (नवाजुद्दीन सिद्दीकी) भी है। वह खुशमिजाज और ढेरों सपने देखने वाला बंदा है। रिटायर होने के बाद साजन फर्नांडिस की जगह लेने वाला है इसलिए उनसे काम सीख रहा है।

‘डब्बा’ हमारे दौर की ऐसी फ़िल्म है जिसे तमाम महाकाय फ़िल्मों के बीच पूरे महत्व के साथ खींचकर देखा जाना चाहिए। अंतरराष्ट्रीय निर्माताओं के साथ भागीदारी के लिहाज से ‘डब्बा’ नई शुरुआत है। उच्च गुणवत्ता वाली एक बेहद सरल स्क्रिप्ट होने के लिहाज से भी ये विशेष है। भारतीय फीचर फ़िल्मों के प्रति विश्व के नजरिए को बदलने में जो कोशिश बीते एक-दो साल में कुछ फ़िल्मों ने की है, उसे रितेश की ‘डब्बा’ मीलों आगे ले जाएगी। पूरे विश्व सहित फ़िल्म भारत में भी जल्द ही प्रदर्शित होगी। जब भी हो जरूर देखें, अन्यथा आज नहीं तो 15-20 साल बाद, देरी से, खोजेंगे जरूर।

रितेश बत्रा से तुरत-फुरत में बातचीत हुई। बीते दिनों में जितने भी फ़िल्म विधा के लोगों से बातचीत हुई है उनमें ये पहले ऐसे रहे जिनका पूरा का पूरा ध्यान स्क्रिप्ट पर रहता है, फ़िल्म तकनीक पर या भारतीय, गैर-भारतीय फ़िल्मकारों की शैली के उन पर असर पर आता भी है तो बहुत बाद में, अन्यथा नहीं आता। प्रस्तुत हैः

फैमिली कहां से है आपकी? आपका जन्म कहां हुआ?
बॉम्बे में ही पैदा हुआ हूं, यहीं बड़ा हुआ हूं। मेरे फादर मर्चेंट नेवी में थे, मां योग टीचर हैं। बांद्रा में रहता हूं। बंटवारे के वक्त लाहौर, मुल्तान से मेरे दादा-दादी और नाना-नानी आए थे।

फ़िल्मों की सबसे पहली यादें बचपन की सी हैं? कौन सी देखी? लगा था कि फ़िल्मकार बनेंगे?
फ़िल्मों में काम करने की कोई संभावना नहीं थी। फ़िल्में अच्छी लगती थीं, लिखना अच्छा लगता था। लेकिन आपको पता है कि 80 और 90 के दशक में भारत में फ़िल्मों में आगे बढ़ने और रोजगार बनाने की कोई संभावना कहां होती थी। पर जो भी आती थी देखते थे। गुरु दत्त की फ़िल्में बहुत अच्छी लगती थीं। ‘प्यासा’ हुई, ‘कागज के फूल’ हुई, उनका मजबूत प्रभाव था। वर्ल्ड सिनेमा की तो कोई जानकारी थी ही नहीं बड़े होते वक्त। हॉलीवुड फ़िल्में जो भी बॉम्बे में आती और लगती थीं, वो देखते थे। जब 19 साल का था तब भारत से बाहर पहली बार गया, इकोनॉमिक्स पढ़ने। वहां जाकर पहली बार सत्यजीत रे की फ़िल्में देखीं तो उनका बड़ा असर था। वैसे कोई इतना एक्सपोजर नहीं था यार ईमानदारी से। जो भी हिदीं फ़िल्म और इंग्लिश फ़िल्म आती वो देखते थे।

बचपन में क्या लिखने-पढ़ने का शौक था? उनके स्त्रोत क्या थे आपके पास?
बहुत ही ज्यादा पढ़ता था मैं। आप ‘लंच बॉक्स’ में भी देखेंगे तो साहित्य का असर नजर आएगा। मैं बचपन से ही बहुत आकर्षित था मैजिक रियलिज़्म से, लैटिन अमेरिकन लेखकों से, रूसी लेखकों से। मेरी साहित्य में ज्यादा रुचि थी और मूवीज में कम। अभी भी वैसा ही है, पढ़ता ज्यादा हूं और मूवीज कम ही देखता हूं।

जब छोटे थे तो घर पर क्या कोई कहानियां सुनाता था?
सुनाते तो नहीं थे पर मेरे नाना लखनऊ के एक अख़बार पायोनियर में कॉलम लिखते थे। वो बहुत पढ़ते थे और मुझे भी पढ़ने के हिसाब से कहानियां या नॉवेल सुझाते थे। पढ़ने को वो बहुत प्रोत्साहित करते थे।

स्कूल में आपके लंचबॉक्स में आमतौर पर क्या हुआ करता था?
हा हा हा। मेरे तो यार घर का खाना ही हुआ करता था। थोड़ा स्पाइसी होता था। चूंकि मेरी मदर बहुत स्पाइसी खाना बनाती हैं इसलिए मेरे लंच बॉक्स में से क्या है कि कोई खाता नहीं था। सब्जियां, परांठे और घर पर बनने वाला नॉर्मल पंजाबी खाना होता था। पर मिर्ची ज्यादा होती थी।

साहित्य और क्लासिक्स पढ़ते थे? क्या साथ में कॉमिक्स और पॉपुलर लिट्रेचर भी पढ़ते थे?
कॉमिक्स में तो कोई रुचि नहीं थी कभी भी, अभी भी नहीं है।

Ritesh Batra
घरवालों के क्या कुछ अलग सपने थे आपको लेकर? या वो भी खुश थे आपके फ़िल्ममेकर बनने के फैसले को लेकर?
उन्हें तो मैंने बहुत देर से बताया था। पहले तो मैंने तीन साल इकोनॉमिक्स पढ़ा। बिजनेस कंसल्टेंट था डिलॉयट के साथ। मैंने बाकायदा नौकरी की थी। बाद में वह नौकरी छोड़कर जब फ़िल्म स्कूल गया तब उन्हें बताया। जाहिर तौर पर उनके लिए तो बहुत बड़ा झटका था। उन्होंने सोचा नहीं था कि मैं ऐसा कुछ करूंगा।

कब तय किया कि फ़िल्में ही बनानी हैं?
मैं 25-26 का था तब तय किया कि मुझे कुछ करना पड़ेगा मूवीज में ही। तब मुझे राइटर बनना था। फ़िल्म राइटर बनना था। मुझे पता था कि जब तक पूरी तरह इनवेस्ट नहीं हो जाऊंगा, नहीं होगा। बाकी सारे दरवाजे बंद करने पड़ेंगे। उसके लिए एक ही रास्ता बचा था कि जॉब छोड़कर फ़िल्म स्कूल जॉइन कर लूं। न्यू यॉर्क यूनिवर्सिटी के टिश स्कूल ऑफ आर्ट्स फ़िल्म प्रोग्रैम में दाखिला लिया। पांच साल की पढ़ाई थी और बड़ा सघन और डूबकर पढ़ने वाला प्रोग्रैम था। उसे सिर्फ डेढ़ साल किया। सेकेंड ईयर में था तब एक स्क्रिप्ट मैंने लिखी थी जो सनडांस लैब (2009) में चुन ली गई। ये संस्थान बहुत पुराना है। स्टीवन सोडरबर्ग और क्वेंटिन टेरेंटीनों जैसे नामी फ़िल्मकारों की स्क्रिप्ट भी इस लैब से ही गई थी। तो राइटर्स लैब और डायरेक्टर्स लैब दोनों में चुन ली गई मेरी स्क्रिप्ट। इसमें टाइम लग रहा था और पढ़ाई करिकुलम बेस्ड हो रही थी तो मैंने फ़िल्म स्कूल छोड़ दिया। शॉर्ट फ़िल्में बनाने लगा।

यूं नौकरी छोड़ देने से और पढ़ने लगने से पैसे की दिक्कत नहीं हुई?
मेरी सेविंग काफी थी। तीन साल काम किया हुआ था, उस दौरान काफी पैसे बचाए थे। फिर फ़िल्म स्कूल भी तो एक-डेढ़ साल में ही छोड़ने का फैसला कर लिया था, इससे आगे की फीस पर खर्च नहीं करना पड़ा। मेरी वाइफ मैक्सिकन है। वो बहुत प्रोत्साहित करती थी। पेरेंट्स भी प्रोत्साहित करते कि लिखो। कहते थे कि जॉब होनी जरूरी है, फैमिली का ख़्याल रखना जरूरी है। अवसरों के लिहाज से लगता था कि जॉब नहीं छोड़ी होती तो इतने कमा रहा होता, इतना कम्फर्टेबल होता, या ट्रैवल कर पा रहा होता। तो वो सब नहीं कर पा रहा था लेकिन खाने और रहने के पैसे थे।

फ़िल्म स्कूल से निकलने के बाद शॉर्ट फ़िल्म और डॉक्युमेंट्री से कुछ-कुछ कमाने लगे थे या अभी भी आपको वित्तीय तौर पर स्थापित होना है?
नहीं यार, ये शॉर्ट फ़िल्म वगैरह बनाने में तो कोई कमाई नहीं होती। बस सनडैंस लैब का ठप्पा लग गया था तो मुझे बहुत सी मीटिंग लोगों से साथ मिलने लगी। तो मौके थे, टीवी (न्यू यॉर्क में) के लिए लिखने के, लेकिन मैंने वो सब किया नहीं क्योंकि मुझे मूवीज में ही रुचि थी। रास्ते से भटक जाता तो वापस पैसों के पीछे या किसी और चीज के पीछे भागने लगता। इसलिए तय किया कि शॉर्ट्स बनाऊंगा और अपनी लेखनी पर ध्यान केंद्रित करूंगा। तो ऐसी कोई कमाई नहीं हो रही थी, सिर्फ तीन-चार साल पहले मैंने एक शॉर्ट फ़िल्म बनाई थी, ‘कैफै रेग्युलर कायरो’ (Café Regular, Cairo)। उस शॉर्ट से मेरी कमाई हुई, उसे फ्रैंच-जर्मन ब्रॉडकास्टर्स ने खरीद लिया। तो उससे अर्निंग हुई, वैसे इतने साल कोई कमाई नहीं हुई।

पहली बार कब कैमरा हाथ में लिया और शूट करना शुरू किया?
फ़िल्म स्कूल के लिए 2005-06 में अप्लाई किया तो एप्लिकेशन के लिए एक शॉर्ट बनाई। तब पहली बार कुछ डायरेक्ट किया था। उसके बाद मैंने पांच और शॉर्ट बनाईं। एक फ़िल्म स्कूल में रहकर बनाई और चार स्कूल छोड़ने के बाद बनाईं।

न्यू यॉर्क यूनिवर्सिटी में फ़िल्म स्कूल वाले दिन कितने रचनात्मक और कितने तृप्त करने वाले थे?
काफी फुलफिलिंग थे। गहन (इंटेंस) थे। लेकिन राइटिंग करने का टाइम मिल नहीं रहा था और मेरे लिए सबसे जरूरी था कि लिखता रहूं और बेहतर लिखता रहूं। इसलिए मुझे जमा नहीं और छोड़ दिया। दूसरा बहुत ही महंगा भी था।

सनडांस का और फ़िल्मराइटिंग का आपको अनुभव है, तो बाकी राइटर्स या आकांक्षी लेखकों को काम की बातें बताना चाहेंगे?
सबसे बड़ी टिप तो मैं यही दूंगा कि किसी की सलाह नहीं सुनने की। क्योंकि हरेक का अपना प्रोसेस होता है, हरेक की अपनी जरूरत होती है और हरेक की अपनी मजबूती होती है। बहुत से डायरेक्टर्स की विजुअल सेंस बहुत मजबूत होती है, रिच होती है, कैरेक्टर डिवेलपमेंट के लिहाज से या राइटिंग के लिहाज से वे कुछ खास नहीं कर पाते। वहीं दूसरी ओर वूडी एलन जैसे भी फ़िल्म डायरेक्टर होते हैं जो सिर्फ ग्रेट राइटर हैं इसलिए लोग उनकी फ़िल्म देखने जाते हैं। तो बंदा खुद ही जानता है कि उसकी मजबूती क्या है, वह किस बात में खास है। उसे अपनी कमजोरी और मजबूती देखनी चाहिए। किसी की सलाह नहीं लेनी चाहिए। उसे ईमानदारी से सोचना चाहिए कि मेरे में क्या कमी है और मैं क्या बेहतर कर सकता हूं।

आपकी स्टोरीराइटिंग कैसे होती है? प्रोसेस क्या होता है?
मुझे तो यार लिखने में बहुत टाइम लगता है। ऐसा कोई प्रोसेस नहीं है कि पहले कुछ आइडिया आए फिर उस पर कुछ रिसर्च करना शुरू करें, वो वर्ल्ड से या कैरेक्टर बेस्ड हो। मुझे लगता है ये सब अंदर से आना चाहिए। मेरा प्रोसेस बस इतना है कि पहले मैं कुछ सोचता हूं। जब किसी चीज के प्रति एक्साइटेड होने लगता हूं तो अपने आप एक अनुशासन आ जाता है कि सुबह उठकर 8 से 11 या 8 से 12 या 8 से 2 बजे तक बैठकर लिखना है। तो इस तरह कहानी के एक खास स्तर तक पहुंचते ही अपने आप राइटिंग का डिसिप्लिन आ जाता है। मेरा राइटिंग प्रोसेस काफी लंबा होता है, महीने या साल लग जाते हैं।

‘डब्बा’ बुनियादी तौर पर बेहद सीधी फ़िल्म है, लेकिन फिर भी ये इतनी बड़ी हो सकती थी, क्या आपने लिखते वक्त सोचा था?
मुझे लगा कि लोगों को अच्छी लगेगी, इतनी अच्छी लगेगी नहीं सोचा था। अवॉर्ड मिलेंगे ये नहीं सोचा था। तब तो यही लगा कि अच्छी कहानी होगी और इसकी अच्छी शेल्फ लाइफ होगी और उसके बाद मुझे दूसरी फ़िल्में मिल जाएंगी। ये नहीं सोचा था कि इतने कम वक्त में इतना कुछ हो जाएगा।

शूट कितने दिन का था और कहां किया?
29 दिन का प्रिंसिपल शूट था फिर बाकी छह दिन हमने डिब्बे वालों को फॉलो किया था डॉक्युमेंट्री स्टाइल में। पूरी स्टोरी बॉम्बे में ही स्थित है और शूटिंग वहीं हुई सारी।

इरफान का किरदार जिस दफ्तर में काम करता है वो कहां है?
चर्चगेट में है, रेलवे का दफ्तर है।

Irfan and Nawaj, in a still from the movie.
इरफान और नवाज को पहले से जानते थे या फ़िल्म के सिलसिले में ही मुलाकात हुई?
नहीं, पहले से तो मैं किसी को नहीं जानता था। प्रोड्यूसर्स के जरिए उनसे संपर्क किया। उन्हें स्क्रिप्ट दी तो अच्छी लगी। एक बार मिला, उन्होंने हां बोल दिया। शूट से पहले तो बहुत बार मिले। कैरेक्टर्स डिस्कस किया। बाकी जान-पहचान शूटिंग के दौरान ही हुई।

इन दोनों में क्या खास बात लगी आपको?
दोनों ही इतने अच्छे एक्टर्स हैं, केंद्रित हैं, किरदार को अपना हिस्सा मानने लगते हैं, पर्सनली इनवॉल्व्ड हो जाते हैं। जो मैंने लिखा उसे दोनों ने और भी गहराई दे दी। उनके साथ काम करना तो बड़ी खुशी थी। मैंने बहुत सीखा उनसे।

सेट पर उनके होने की ऊर्जा महसूस होती थी?
वैसे दोनों ही बहुत रेग्युलर और विनम्र हैं। सेट पर तो काम पर ही ध्यान देते थे हम लोग। बातें करते थे कि कैसे और बेहतर बनाएं फ़िल्म को, कैसे जो मटीरियल हमारा है उसमें और गहराई में जाएं। हम लोग नई-नई चीजें ट्राई करते थे, विचार करते थे। उनके कद का कोई प्रैशर नहीं महसूस हुआ। उन्होंने भी कभी फील नहीं करने दिया कि वे इतने सक्सेसफुल हैं। मैंने कभी सोचा ही नहीं कि वो इतने फोकस्ड होंगे। लेकिन मुझे लगता है आप सही हैं, अब फ़िल्म के बाद जब सोचता हूं तो लगता है।

आप खाना अच्छा बनाते हैं। फ़िल्म में जो डिश नजर आती हैं वो आपने पकाई थीं?
नहीं नहीं, मैंने नहीं बनाई थीं। सेट पर एक पूरी टीम थी फूड स्टाइलिस्ट्स की। क्योंकि खाना अच्छा दिखना बहुत जरूरी था। बहुत सारे लोग इन्वॉल्व्ड थे हरेक शॉट के पीछे। हमारे पास बहुत अच्छे फूड स्टाइलिस्ट थे जो खाने का ध्यान रख रहे थे।

फ़िल्म के विजुअल्स को लेकर आपके और डीओपी (Michael Simmonds) के बीच क्या डिस्कशन होते थे?
दो महीने पहले से विचार-विमर्श चल रहा था। वो तभी न्यू यॉर्क से बॉम्बे आए थे। स्क्रिप्ट को टुकड़ों में तोड़ा था, हर लोकेशन के मल्टीपल प्लैन थे और पूरा शूटिंग प्लैन बनाया था। प्री-प्रोडक्शन मूवी का छह महीने पहले शुरू कर दिया था। फ़िल्म के किरदार मीना की कहानी उसके फ्लैट के अंदर ही चलती है। वो फ्लैट हमने शूट के चार महीने पहले देखा और तय कर लिया था। हम वहां रोज बैठते थे, चीजें डिस्कस करते थे। उसकी शूटिंग पहले कर ली। हरेक डिपार्टमेंट के साथ, प्रोडक्शन डिजाइनर के साथ, डीओपी के साथ, कॉस्ट्यूम्स के साथ तैयारी बहुत ज्यादा थी।

आप दोनों का विजुअल्स को लेकर विज़न क्या था?
चूंकि मूवी कैरेक्टर ड्रिवन है और मुंबई व फूड इसके महत्वपूर्ण कैरेक्टर हैं, तो मेरा सबसे बड़ा एजेंडा था स्क्रिप्ट को ब्रेकडाउन करना और डीओपी को मेरा निर्देश था कि किरदारों के साथ ज्यादा से ज्यादा बिताना है। उससे जरूरी चीजें कुछ न थी। फूड के अलग-अलग शॉट्स लेने या बॉम्बे के मादक शॉट्स लेने से ज्यादा जरूरी ये था। हम रात के 12-12 बजे तक कैरेक्टर्स के साथ वक्त बिताते थे।

फ़िल्म के म्यूजिक के बारे में बताएं।
ज्यादा है नहीं म्यूजिक तो। गाने हैं नहीं, बैकग्राउंड स्कोर भी बहुत सीमित है। साउंड डिजाइन का अहम रोल है। वो कैरेक्टर की यात्रा दिखाता है। इसके लिए मुख्यतः सिटी का साउंड और एनवायर्नमेंट का साउंड रखा गया है। मेरी बाकी मूवीज में भी ऐसे ही सोचा और किया है। डब्बा में 14 क्यू (cues – different part/pieces of soundtrack ) हैं और म्यूजिक बहुत ही अच्छा है। इसे जर्मन कंपोजर हैं मैक्स रिक्टर ने रचा है।

‘द स्टोरी ऑफ राम’ के बारे में बताएं।
एक स्क्रिप्ट है जिस पर मैं काम कर रहा हूं और ‘डब्बा’ के बाद उसी पर लौटना चाहूंगा। ये बहुत पहले से (2009) दिमाग में है, चूंकि मेरा राइटिंग प्रोसेस बहुत स्लो और थकाऊ है तो वक्त लगता है। इस पर अभी क्या बताऊं। जब हो जाएगी तब बताता हूं।

‘कैफे रेग्युलर कायरो’...
ये एक शॉर्ट फ़िल्म है जो मैंने कायरो में बनाई थी। उसके लिए मैंने कायरो में बहुत सारा वक्त बिताया। ‘लंचबॉक्स’ भी मैंने कायरो में ही लिखी थी।

“The Morning Ritual” – Watch here:

“Café Regular, Cairo” – Watch here:


Ritesh Batra was born and raised in Mumbai, and is now based in Mumbai and New York with his wife Claudia and baby girl Aisha. His feature script 'The Story of Ram' was part of the Sundance Screenwriters and Directors labs in 2009. His short films have been exhibited at many international film festivals and fine arts venues. His Arab language short 'Café Regular, Cairo', screened at over 40 international film festivals and won 12 awards. Café Regular was acquired by Franco-German broadcaster, Arte. His debut feature 'The Lunchbox' (English, Hindi) starring Irrfan Khan, Nawazuddin Siddique, and Nimrat Kaur, was shot on location in Mumbai in2012. 'The Lunchbox' premiered at the Semaine De La Critique (International Critics Week) at the 2013 Cannes International Film Festival to rave reviews. It won the Grand Rail d'Or Award and was acquired by Sony Pictures Classics.
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Sunday, June 16, 2013

गीतांजलि राव की ‘चाय’ : आधारभूत

 5 Short Films on Modern India 

विदेश मंत्रालय, गूगल, वायाकॉम 18 और अनुराग कश्यप की फ़िल्म निर्माण कंपनी ने मिलकर “इंडिया इज... अ विजुअल जर्नी” विषय पर पांच शॉर्ट फ़िल्में बनाई हैं। मौजूदा भारत के विभिन्न पहलुओं को दिखाती और नए विमर्शों की बयार लाती ये फ़िल्में हैं अनुभूति कश्यप की ‘मोइ मरजाणी’, श्लोक शर्मा की ‘हिडन क्रिकेट’, नीरज घैवन की ‘द एपिफनी’, वासन बाला की ‘गीक आउट’ और गीतांजलि राव की ‘चाय’। पांचों फ़िल्में यूट्यूब पर उपलब्ध हैं।

 



गीतांजलि राव की ‘चाय’ चार ऐसे लोगों की कहानी है जो अलग-अलग परिवेश और पृष्ठभूमि से आते हैं। ये अलग-अलग जगहों पर चाय बनाते हैं। इनमें एक चितौड़गढ़, राजस्थान की 18 साल की युवती है। वह किसी शहर में चाय बनाती है। दूसरा कोल्हापुर मूल का लड़का है, 10 साल का, मुंबई के गेटवे ऑफ इंडिया पर चाय बनाता और पकड़ाता है। तीसरे एक 80 साल के बुजुर्ग हैं जो केरल के किसी बस स्टैंड पर चाय की दुकान लगाते हैं। चौथा एक 19 साल का कश्मीरी लड़का है जो बरिस्ता में चाय बनाता है। फ़िल्म भारत के उन लाखों-करोड़ों लोगों को समर्पित है जो अलग रंग, ढंग और स्वाद की चाय बनाते हैं, पिलाते हैं लेकिन पीने वाले को दिखती है तो बस चाय की गिलास या कप, वह चाय बनाने वाला या वाली नहीं दिखते। शायद यही परिपेक्ष्य गीतांजलि का रहा क्योंकि पूरी फ़िल्म के दौरान चारों किरदारों की शक्ल दिखाई नहीं देती। वे बस अपनी गतिविधियों में व्यस्त रहते हैं और अपनी कहानियां सुनाते हैं।

Gitanjali Rao
पांचों फ़िल्मों में ये सबसे आधारभूत है, जाहिर है चाय से आधारभूत देश में क्या होगा। इन्हीं कहानियों में समाज की सोच और बदलाव भी छिपे मिलते हैं। मूलतः गीतांजलि एक एनिमेटर हैं। इसके अलावा वह फ़िल्मकार और रंगकर्मी भी हैं। उन्होंने मुंबई के जेजे इंस्टिट्यूट ऑफ अप्लाइड आर्ट से फाइन आट्र्स की पढ़ाई की। उनकी एनिमेटेड फ़िल्म ‘प्रिंटेड रेनबो’ को 2006 में फ्रांस के कान फ़िल्म महोत्सव के क्रिटिक्स वीक में दिखाया गया। वहीं इसे बेस्ट शॉर्ट फ़िल्म के तीन पुरस्कार भी मिले। विश्व के 100 से ज्यादा फ़िल्म महोत्सवों में जाकर आ चुकी ‘प्रिंटेड रेनबो’ को 2008 के ऑस्कर पुरस्कारों की आखिरी 10 फ़िल्मों में भी चुना गया।

इसके अलावा उन्होंने ‘ब्लू’, ‘ऑरेंज’ और ‘गिरगिट’ जैसी उम्दा एनिमेटेड शॉर्ट फ़िल्में बनाई हैं। ‘कलाइडोस्कोप’ को देखना भी अनूठा अनुभव है। गीतांजलि ने अनेकों विज्ञापनों में अपनी जादुई रचनात्मकता दिखाई है। यहां पर वे पूरी की पूरी विज्ञापन फ़िल्में उपलब्ध हैं, एक-एक करके सभी देखें, आनंद आएगा। साथ ही, अनुराग कश्यप फिल्म्स प्राइवेट लिमिटेड की हर फ़िल्म से पहले लोगो का जो विजुअल नजर आता है जिसमें चांद पर चढ़ी बिल्ली की आकृति ‘ए’ अक्षर बन जाती है, वह भी गीतांजलि ने ही बनाया है।

(बातचीत के लिए गीतांजलि राव उपलब्ध नहीं हो पाईं)

Gitanjali Rao is an animator, film maker and theatre artist. She graduated with honors as a Bachelor of Fine Arts from Sir J. J. Institute of Applied Art, Mumbai, in 1994. She has made a couple of animated shorts like ‘Printed Rainbow’ (Short listed in the last ten films for the Oscars in 2008), ‘Orange’, ‘Blue’ and ‘Girgit’. Her string of popular and award winning commercials can be seen here. Her most recent work in ‘Chai’, a short film made for ‘India Is’ campaign.
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Saturday, June 15, 2013

वासन बाला की ‘गीक आउट’ : वो सोया नहीं, जागा है

 5 Short Films on Modern India 

विदेश मंत्रालय, गूगल, वायाकॉम 18 और अनुराग कश्यप की फ़िल्म निर्माण कंपनी ने मिलकर “इंडिया इज... अ विजुअल जर्नी” विषय पर पांच शॉर्ट फ़िल्में बनाई हैं। मौजूदा भारत के विभिन्न पहलुओं को दिखाती और नए विमर्शों की बयार लाती ये फ़िल्में हैं अनुभूति कश्यप की ‘मोइ मरजाणी’, श्लोक शर्मा की ‘हिडन क्रिकेट’, नीरज घैवन की ‘द एपिफनी’, वासन बाला की ‘गीक आउट’ और गीतांजलि राव की ‘चाय’। पांचों फ़िल्में यूट्यूब पर उपलब्ध हैं।

    
वासन बाला से पिछले साल उनकी फीचर फ़िल्म ‘पैडलर्स’ के वक्त भी बात (यहां पढ़ें) हुई थी। वह बहुत सारे अंतरराष्ट्रीय फ़िल्म महोत्सवों में जाकर आई। अब अगली फीचर के लेखन पर वह गंभीरता से जुटे हैं। उनकी शॉर्ट फ़िल्म ‘गीक आउट’ सबों में जटिल है। इसे सतह देखकर नहीं समझा जा सकता। दृश्यों में विविधता और विषय-वस्तु के लिहाज से पाचों शॉर्ट फ़िल्मों में इसका दायरा सबसे व्यापक है। दस मिनट की इस फ़िल्म को देखने के बाद आपके पास बात करने को इतना कुछ होता है कि तीन घंटे की फ़िल्मों को देखने के बाद भी नहीं होता।

फ़िल्म की कहानी पारंपरिक मायनों वाली नहीं है, ये पारस्परिक सभ्याचार वाले समाजों में ठिठके-दुबके सभी गीक्स के स्वप्निल निशाचरी मन की मृगतृष्णाओं और खोयेपन में जगी चौकन्नी छलांगों के बारे में है। जिन इंटरनेट उनींदों को महज वर्चुअल बावरा समझकर आज का समाज न देखने का सायास अभिनय कर रहा है, वो धीरे-धीरे कैसे दुनिया को हमेशा के लिए बदलते जा रहे हैं, अंदाजे से बाहर है। इस्तांबुल के गेजी पार्क वाले प्रदर्शनों को जो वैश्विक वर्चुअल समर्थन मिला है और वर्चुअल होते हुए भी आंदोलन को जो सचमुच की ऊष्णा मिली है वह उस बदलाव का ठोस सबूत है। उस बड़े वैश्विक बदलाव को लेकर नासमझी के इस वक्त को वासन ने ‘गीक आउट’ में समझा-समझाया है। कुछ वर्षों बाद ये फ़िल्म उस चेंज का दस्तावेज साबित होगी। अगर उक्त संदर्भ और ‘गीक आउट’, दोनों को पूरी तरह समझना है तो वासन से हुई ये बातचीत काफी मदद करेगी। गीक्स, ये वक्त, इसमें छिपी भौतिक बदलावों की परतें और आने वाली पीढ़ियों पर उन्होंने समझदारी वाली बातें की हैं। वासन, श्लोक, अनुभूति और नीरज महत्वपूर्ण सोच वाले युवा हैं और फ़िल्म बनाने की विधि जानते हैं। खुशी है कि विधि संभवतः सही हाथों में है। कुछ वर्षों में इनकी बनाई फ़िल्में अनूठा सिनेमा प्रस्तुत कर देंगी, मुझे लगता है। पढ़ें, वासन बाला से बातचीतः

गीक आउट को वैसे तो प्रोमो में आप स्पष्ट कर चुके हैं लेकिन फिर भी अपनी परिभाषा में बताएं?
जैसे मैं ऑफिस में देखता हूं कि हम मर्दाना बात काफी कर लेते हैं, लेकिन सिर्फ बात ही करते हैं। जैसे बचपन में हम लोग आपस में पूछते थे कि हनुमान और ब्रूस ली में लड़ाई हुई तो कौन जीतेगा। ये फ़िल्म उन चीजों का एक अलग और जटिल विस्तार है। लाइफ आपको एक दायरे में बांध रही है तो आप शायद उन यादों को और समकालीन तरीके से याद करना चाहते हो। जो तब हनुमान और ब्रूस ली था, अभी वो सुपरमैन, बैटमैन से लेकर वुल्वरीन तक बहुत कुछ हो गया है। इसने ट्विटर, फेसबुक और लिंक्डइन के रूप में नया आकार ले लिया है।

जैसे, मैं हेल्पलेस आदमी हूं लेकिन अगर मुझे किसी बात का गुस्सा है या मेरा कोई ओपिनियन है तो... पहले क्या होता था, कि बुजुर्ग 50-60 साल के बाद संपादक के नाम पत्र लिखा करते थे, खासकर तमिलियन। जैसे मैं भी दक्षिण भारतीय हूं और हमारी फैमिली में भी कोई न कोई टाइम्स ऑफ इंडिया को लेटर लिखता था और इंतजार करता था कि वो छपेगा या नहीं छपेगा। और वो छपकर आता था तो बहुत खुश हो जाते थे और हम लोगों को पढ़कर सुनाते थे। दादा हुए या दादी या कोई रिश्तेदार, वे बोलते थे कि देखो आज टाइम्स ऑफ इंडिया पढ़ लो हमारा लेटर आया है, लेटर टू द एडिटर ...लेकिन आज एक ब्ल़ॉग से लेकर ट्विटर और फेसबुक पर कोई भी मत हो आपका, आप तुरंत अभिव्यक्त कर सकते हो। उस पर कोई सेंसरशिप नहीं है। कोई बैठकर आपका ओपिनियन एडिट नहीं करने वाला है। आपसे कोई नहीं कह रहा है कि कैसे लिखना चाहिए। ये जो एम्पावरमेंट है, ताकत है ये किसी सुपरहीरो से कम नहीं है, उस आदमी के लिए जो बंध चुका है अपने काम से, अपनी जियोग्राफी से या दूसरे हिसाब से। ये फ़िल्म उसी बिंदु को लेकर एक विस्तार है, बढ़ा-चढ़ा विस्तार।

Vasan Bala
जैसे, एक आदमी कंप्यूटर पर बैठा है और वो दस टैब खोले हुए है। एक में निठारी हत्याकांड के बारे में पढ़ रहा है, एक में आरूषि मर्डर केस के बारे में पढ़ रहा है, एक उसका फेसबुक पेज खुला है, एक उसका ट्विटर पेज खुला है और एक यूट्यूब पर कोई ट्रेलर देख रहा है। अगर उसके 10-15 टैब्स खुले हों और वह उन तमाम टैब्स के बीच आ-जा रहा है, तो क्या अनुभव रहा होगा उसका। ये फ़िल्म वही है। मतलब आप पहले थोड़े बुद्धिजीवी बनते हो, चलो आपने नक्सलियों के बारे में पढ़ लिया, आपको बुरा लग रहा है, आपको कुछ लिखना है, अरुंधति रॉय के आप साथ हो - विरोधी हो, आप सोच रहे हो, फिर आपको फेसबुक पर मैसेज आ जाता है, आपके फ्रेंड का ऐसी ही किसी फिलॉसफी के बारे में। या फेसबुक पर वो जो टिपिकल अपडेट होते हैं न, कि आई डोन्ट लाइक लायर्स... ठीक है वो अजीब है मजाकिया है लेकिन आप व्यक्त कर सकते हो, शायद वो नोट कर लिया और उसके बाद किसी लड़की का फोटो देख लिया फेसबुक पर तो उसका पीछा करने लगे, उसकी तस्वीरें देखने लगे। फिर बाहर आए और ट्विटर पर कुछ लिख दिया। उसके बाद यूट्यूब पर एक वीडियो देख लिया। तो फ़िल्म मूलतः वो है। फिर जब रिएलिटी में आप आते हो, तो वो जो रंग और एक सुपरहीरो क्वालिटी है, बढ़ाई-चढ़ाई, वो कम हो जाती है। वो सब चला जाता है और आप फिर से असल दुनिया में आ जाते हो। अब जो चेहरे दिखते हैं वो ही असल हैं, वो ही हालात असल हैं। ऐसे विचार दिखाने की कोशिश थी, पर एक्सपेरिमेंट ही है। लिखा भी था तब आइडिया था कि बहुत से लोगों को समझ नहीं आएगा और गाली भी पड़ने वाली है।

गीक्स की जो परिभाषा है तो क्या ये वही हैं जिनके पास कंप्यूटर और इंटरनेट की पहुंच है, जो महानगरों में रहते हैं? क्या उनके अलावा भी कोई गीक हो सकता है? कस्बाई या गांव का आदमी? या किसी और परिपेक्ष्य में...
जरूर। सुपररहीरो की जो परंपरा रही है वो ये कि सुपरहीरो अपनी पहचान छिपाकर रखता है और उसकी जो आम असहाय इंसान वाली पहचान है वो लोगों के सामने होती है। उसी प्रकार इंटरनेट आपके लिए बहुत ही बढ़िया लबादा है। ये बहुत बढ़िया परदा है जिसके पीछे आप छिप सकते हो और किसी पर भी वार कर सकते हो। उस हिसाब से इंटरनेट की पहुंच वाला कोई भी सुपरहीरो बन सकता है। जैसे, गांव में जिनके पास इसकी पहुंच नहीं होती, वो शायद इसीलिए चद्दरमार करते हैं। किसी को खेत में पकड़ लिया, चद्दर में लपेटा और मार दिया। नहीं, ये तो मजाकिया बात हो गई लेकिन गांव में भी आज एक जागरूकता तो है। जब-जब उसे प्लेटफॉर्म मिलेगा जहां वो अपनी राय दे पाए वहां-वहां वो मौका गीक बनने का सबको मिलेगा। जैसे पहले लेटर टु एडिटर हुआ करते थे या चिट्ठियां हुआ करती थीं, वैसे ही आजकल ये है कि आपको रुकना नहीं होगा कि कोई एडिटर छापे। इसमें आप छप भी जाते हैं और पूरी दुनिया भर में उसकी खबर हो जाती है।

जितने भी गीक हैं दुनिया के उनको ज्ञान बहुत है दुनिया का, सूचना की बौछार उन पर हो रही है, वो दीन-दुनिया के सारे इवेंट्स जानते हैं, उनका एक मत है लेकिन क्या इससे रियल लाइफ में वो कुछ फर्क डाल पाते हैं या कभी डाल पाएंगे?
दरअसल ये जो एम्पावरमेंट है, एक तरह से थोड़ा खोखला एम्पावरमेंट भी है। अल्पावधि में ये आपको सशक्त महसूस करवाएगा और आपको लगने लगेगा कि दुनिया तो अब बदल दोगे, लेकिन दीर्घावधि में ये सिर्फ शब्द ही रहेंगे। ये फिजिकल (भौतिक) नहीं है, वर्चुअल (छाया) है। लेकिन उसी कॉन्ट्रास्ट में अगर आप देखो तो एक आदमी के अलावा लाखों जुड़ गए तो शायद ईजिप्ट गिर जाए। जैसे विकीलीक्स हैं, वो अपने आप में एक क्रांति हैं। ये तो सच है कि अगर हमने ढंग से हमारी बातों को प्रस्तुत किया तो जैसे ईजिप्ट में है, जैसे क्यूबा में है, वैसे अगर वो लोगों को जोड़ पाए तो फर्क भी पड़ेगा। इसमें एम्पावरमेंट को बहुत कंस्ट्रक्टिव (सृजनात्मक) तरीके में हमें ढालना पड़ेगा। मतलब अभी तो हम बहुत ही इंडिविजुअलिस्टिक हैं, हम अपनी-अपनी निजी ग्लोरी में घुसे हैं कि यार मैंने बोल दिया है। जैसे, मैं शाहरुख को पसंद नहीं करता हूं तो मैं खुद ही उसके ट्विटर अकाउंट पर जाकर लिख दूंगा कि भाई मैं तुझे पसंद नहीं करता। तो इस खेल से जब हम ऊपर उठेंगे तो शायद सीरियस तरीके से ओपिनियन देने का मौका है हमारे पास, एकजुट होने का मौका है। गंभीर होंगे, साथ होंगे तो काफी कुछ हो सकता है। अभी जैसे फ्लैशमॉब या पीसमार्च होते हैं तो मेरे ख्याल से छोटे-मोटे लेवल पर हो ही रहा है, आगे भी होंगे। मतलब अभी तो लोग खेल रहे हैं, जब इस खेल से थक जाएंगे और उनका कंस्ट्रक्टिव यूज होगा तो पक्के तौर पर कुछ बदलाव होगा। मेरे ख्याल से हो भी रहा है।

जैसे दिल्ली की घटना हुई थी तो उस समय भी बहुत से ऑब्जर्वेशन थे कि जितने लोग जंतर-मंतर पर जा रहे थे उनमें ज्यादातर फेसबुक और ट्विटर से प्रेरित होकर जा रहे थे, बाकी लोग जेएनयू या दूसरी शैक्षणिक संस्थाओं की स्टूडेंट पॉलिटिक्स से जुड़े थे।
...सही, सही... ये फ़िल्म में है भी। एक असहाय गुस्से को दिखाया है। जैसे हमें लगता है कि अगर हम वहां होते तो हम कुछ करते। ये उसी तरह का है। पहुंचना आसान हो गया है। सही चीजों के लिए आप पहुंचोगे तो मेरे ख्याल से वो सुनी जाएंगी।

जितना हम लोगों के पास, जो शहरों में बैठे हैं, इंटरनेट की उपलब्धता है या जो बड़े उदार विचार रखते हैं, वैसे ही जो तमाम ऐसी ताकतें हैं जो दकियानूसी हैं, या कहें तो औरतों के अधिकारों को दबाने वाली हैं या खुली सोच को दबाने वाली हैं, उनके भी फेसबुक पेज हैं, वो भी ट्विटर पर एक्टिव हैं, वो भी गीक हैं अपने मायनों में। तो फिजिकली ही नहीं, वर्चुअली भी वो हैं और अपनी जय... फलानी संस्था खोलकर बैठे हैं। तो इसे आप कैसे देखते हैं? उनका इस स्पेस पर होना क्या यहां भी एक पुरानी वाली ही लड़ाई नहीं खोल देता है? क्योंकि एक तरीके से हमें लगता है कि जितने भी गीक्स हैं वो सही हैं या उनके पास इतना नॉलेज है कि वो सही ही करना चाहते हैं बस कर नहीं पाते हैं।
ये एक्चुअली बहुत सही बात बोली जो इस फ़िल्म में भी है। इसमें अगर आप देखोगे तो लीड कैरेक्टर बॉक्सिंग रिंग में दो दूसरे लोगों से लड़ रहा है। वह कहता है, “मेरे जैसे दूसरे लोग भी हैं लेकिन वो मुझे तरह-तरह की चीजें कहते हैं पर मैं सहमत नहीं होता”। फिर उनमें झगड़ा शुरू हो जाता है। तो वह ट्विटर पर चलने वाले वॉर से जोड़ने के लिए था। आखिर में वह कहता है, “अनफॉलो, कि ये चीज मुझे रोकती है तो मुझे उसे अनफॉलो करना है”। फिर उन दोनों को लात मार देता है रिंग के बाहर। वो अपनी जगह है लेकिन आप सही कह रहे हो कि एम्पावरमेंट दोनों जगह है, दोनों को मिल रहा है। मतलब मैं न्यूट्रल और लिबरल होकर बहस कर सकता हूं तो एक एक्सट्रीम लेफ्ट विंग और एक एक्सट्रीम राइट विंग भी आर्ग्युमेंट दे सकता है। ये प्लेटफॉर्म एक अजीब सी समानता दे रहा है। जैसे कुएं में ये पानी पिएगा और ये पानी नहीं पिएगा... जिसके साथ 25 साल पहले ऐसा हुआ वो आज एक-बराबर बनकर रह सकता है, पॉजिटिव को प्रस्तुत कर सकता है। प्रोज और कॉन्स तो रहेंगे ही। जरूरी नहीं है कि इंटरनेट लिबरल्स के लिए ही है, वो तो सभी के लिए है। वही है कि कितना मजबूती से आप अपनी बातें रख सकते हैं। आम आर्ग्युमेंट में क्या होता है कि कोई इंसान डरा हुआ हो तो उसके सामने वाला उसे चिल्लाकर ही चुप करवा देगा, इंटरनेट पर वो तो नहीं हो सकता है कम से कम। आपको अपनी पूरी बात कहने की आजादी है, दूसरा कोई आपकी बात काट नहीं सकता। मेरे ख्याल से आर्ग्युमेंट रखने के लिए बहुत बढ़िया जगह है और इसके साथ हम इवॉल्व भी होंगे और बेहतर इवॉल्व होंगे। अभी तो मजा आ रहा है। अभी तो बहुत कुछ करने को मिल रहा है। वो होता था न कि बचपन में एक चम्मच शक्कर खा ले तो बच्चा कूदता रहता है पूरे घर में पूरे दिन। अभी तो मेरे ख्याल से उस तरह का एक माहौल है। जब ये माजरा थोड़ा स्पष्ट होगा तो मेरे ख्याल से ये दौर कुछ और ही होगा।

अगर इंटरनेट पूरी आजादी दे रहा है और हमें मजा आ रहा है और ये बहुत पॉजिटिव सब कुछ लग रहा है, तो क्या इसके साथ एक खामी ये नहीं आ गई है कि जो निजी जीवन में हमारे अपने हैं उनको हम कम वक्त दे रहे हैं?
आइसोलेशन तो मैं मानता हूं, होता है। जितना लाखों अनजान लोगों से हम जुड़ रहे हैं उतना पांच अपने लोगों से दूर जा रहे हैं। मानता हूं ऐसा हो रहा है। जैसे, पति-पत्नी भी बाहर डिनर पर जाते हैं तो दोनों अपने-अपने स्मार्टफोन खोलकर वर्चुअल लोगों से इंटरैक्ट कर रहे हैं और सामने उनकी दूरी बढ़ रही है। इसका भी एक दौर है क्योंकि ये आपको अपने अंदर सोख लेती है, इतना एम्पावर करती है कि क्या कहें। तो इवॉल्यूशन होगा, अभी जितना जोश है उतना एम्पावरमेंट हैं, जाहिर है आप ज्यादा घुस चुके हैं उस चीज में तो एक बिंदु के बाद आपको दोनों चीजों का अहसास होगा कि ये इतना सा ठीक है और इतना ठीक नहीं है। ये इंट्रेस्टिंग सा है पर पता चलेगा आगे आने वाले सालों में। एक जेनरेशन जैसे मेरी जेनरेशन है जो दूरदर्शन, ब्लैक एंड वाइट और मारुति 800 से आई है। जब वो वक्त आएगा तो हम काफी बूढ़े हो चुके होंगे। तब एक ऐसी जेनरेशन होगी जो सिर्फ इसी मैं पैदा हुई होगी। बढ़िया से बढ़िया इंटरनेट स्पीड में, ग्लोबलाइज्ड दुनिया में और मॉल में पैदा हुई होगी। वो इस चीज को कैसे यूज करती है देखना बहुत इंट्रेस्टिंग होगा। कैसी फैमिली वैल्यूज और अपना कैसा समाज वो बनाना चाहेंगे, देखना होगा। उनकी बातें, शायद बहुत रोचक होगी सुननी। हम तो बीच की पीढ़ी के हैं तो रियलाइज भी करते हैं और खुद को रोक भी लें कि चलो डिनर के दौरान फोन नहीं यूज करना है या ये नहीं करना है वो नहीं करना है। पर जो युवा एब्सोल्यूट फ्रीडम में पैदा हुआ है। मेरे ख्याल से आने वाले तीस साल में महानगरों में तो कम से कम वर्ग भेद नहीं होगा क्योंकि तब का युवा कॉन्शियस होकर इन चीजों से गुजरा नहीं होगा कि यार मेरे पास तो दो रुपए की पेंसिल है और उसके पास इतनी महंगी पेंसिल है। इस तरह की छोटी-छोटी चीजों से हम गुजरे हैं, वो जो नहीं गुजरा होगा, वो कैसे रिएक्ट करेगा टेक्नोलॉजी को लेकर और उसकी एडवांसमेंट को लेकर, देखना ज्यादा रोचक होगा शायद।

फ़िल्म का पहला विचार आपको कब आया और अंतिम मसौदे तक पहुंचने में कितना वक्त लगा?
आइडिया मुझे अपने ट्विटर के दोस्तों से आया था। मैं ट्विटर पर एक्टिव नहीं रहता हूं बस फॉलो करता हूं, देखता रहता हूं। मेरे जो दोस्त हैं वो आपस में जैसे जज्बे के साथ लड़ते रहते हैं और किसी को कुछ भी बोल देते हैं। कभी-कभी ये माध्यम विस्तार, पहुंच और ताकत भी देता है। जैसे मैं कहूंगा कि “काम नहीं है” तो दोस्त पूछेगा कि “तू बोल क्या-क्या कर सकता है”, तो मैं कहूंगा कि “ये ये कर सकता हूं”। इसे वो ट्विटर पर डाल देगा कि “मेरा दोस्त है उसे काम चाहिए”, “मेरा दोस्त है उसे घर चाहिए”। ये एम्पावरमेंट है जिससे पहले आपकी पहुंच बहुत सीमित थी। दूसरी तरफ वो जो बचकानी हरकतें करते हैं। जैसे, कोई फ़िल्म रिलीज हुई और उस पर जो आर्ग्युमेंट चल रहा है वो न जाने किस लेवल पर चला जाता है। असल जिदंगी में मैं इन सबको जानता हूं। जैसे एक का ट्विटर हैंड है वो एक अलग व्यक्तित्व होगा और जो असली है वो एक अलग पर्सनैलिटी होगा और मैं दोनों को जानता हूं। उसकी ट्विटर पर दस-पंद्रह हजार की फॉलोइंग है और लोग डरते हैं उससे, वो आर्ग्यू जब करता है तो लोग चुप हो जाते हैं और सचमुच की जिदंगी में मैं उसे देखता हूं और जानता हूं कि कैसा है उसकी आवाज क्या है। तो वो जो कॉन्ट्रास्ट है, वो प्रेरणा थी इस फ़िल्म की। मतलब आदमी एक वर्चुअल स्पेस में हल्क बन सकता है और असली जिदंगी में जैसे हल्क बनने से पहले जो डरा हुआ डॉक्टर है वो हो सकता है, तो एक तरह से वो ही शुरुआत थी कहानी की।

लिखने में कितना वक्त लग गया?
उसमें कुछ व्यवस्थित नहीं था। मतलब कुछ भी लिख दिया था कि ऐसे-ऐसे-ऐसे होगा। मन में था कि देखते हैं विजुअल्स के साथ इसका बनता क्या है। हम लोग एक रैंडमनेस (भटकाव) के साथ कोशिश कर रहे थे फ़िल्म बुनने की। हम लोगों को आम स्टोरीटेलिंग की आदत है कि ‘ये ऐसे ऐसे है’, लेकिन हमारी जो वर्चुअल जिदंगी है वो मेरे ख्याल से ‘ये है ये है ये है’ नहीं है। तो वो रैंडमनेस जरूरी थी कि आप यहां से वहां कूद रहे हो अपने मन में। आप जब बैठकर दिन में सपने भी ले रहे होते हो तो अजीब से अजीब परिस्थितियों में होते हो। ऑस्कर भी कलेक्ट कर रहे होते हो, भाग भी रहे होते हो, कहीं मुड़ भी रहे होते हो, तो उसकी कोई सीमा नहीं है। ऐसा कुछ बांधा नहीं था मैंने स्टोरी के साथ, अलग-अलग सब्जेक्ट थे। ऐसा इंडिया के बारे में मैसेज भी है। जैसे, वो स्लो मोशन में एक दिशा में भाग रहा है जहां एक शहरी आदमी शायद ही जाता है। वहां बताया जाता है कि “जब आप शहर में मॉल बना रहे हो तब जंगल में युद्ध लड़ा जा रहा है, सिविल वॉर”। वहां लोगों के पास घर-बार नहीं हैं, उन्हें विस्थापित कर दिया गया तो वो लड़ रहे हैं। ये उसका एक प्रस्तुतिकरण था, पर बहुत ग्लैमरस प्रस्तुतिकरण था।

एक सुपरहीरो क्लीशे के काम भी आता है कि एक सुपरहीरो जो होता है उसे एक्सट्रीम पेन से गुजरना पड़ता है, इससे पहले कि वो तय करे कि सुपरहीरो बनेगा। ये उसी का संदर्भ था। जैसे, वो नक्सली अपनी गर्लफ्रेंड के साथ भाग रहा है और जंगल में वो इंडियन आर्मी के हाथों मारी जाती है, तब वो लड़ाई करता है तो सोचता है कि अब मैं शहर जाकर लड़ूंगा। अकसर आपने देखा हो तो सुपरहीरो कहीं का भी रहने वाला हो शहर में आकर ही अपनी जंग लड़ता है। यानी आप कहीं पर भी अपनी जंग जारी रख सकते हो। वो चाहता तो जंगल में भी लड़ाई चालू रख सकता था, पर आता तो शहर में ही है और बिल्डिंग की छत पर खड़ा होता है। ये जो अलग-अलग छवियां हैं इन्हें लिया गया है।

जैसे वो ट्रेन वाला सीक्वेंस है जहां पर वो लड़की उसे आकर थैंक यू कहती है और वो शरमा जाता है और उसके बाद एक घटनाओं की श्रंखला होती है। ये बेसिकली हमारे जो इंस्टाग्रैम अपडेट्स हैं, हमारे जो अच्छे वाले फेसबुक अपडेट्स हैं कि यार आज में इस पार्टी में गया, वो जो होता है न कि सामने कैमरा रखकर आप खुद की फोटो खींच लेते हो और अलगअलग पोज देते हो। मतलब आप भले ही मोटे हो लेकिन सिर्फ अपना पेट खींचते हो कि पूरी बॉडी न दिखे। मतलब वो कैजुअली मैनिप्युलेटेड अच्छी वाली तस्वीरें जो होती हैं, ये वो वाला हिस्सा है। और इंटरनेट पर जैसे आप देखोगे कि कोई बिल्ली का वीडियो डाल देगा तो छह लाख लोग उसे देख लेंगे लेकिन एक सीरियस इश्यू के बारे में बात करोगे तो कोई नहीं देखता। ये उस तरह की चीजें हैं। जैसे वो बिल्ली लाकर दे रहा है और बुड्ढियों के साथ सीडी देख रहा है। मतलब वो जो बहुत ही कन्वेंशनल क्यूट चीजें लोग करते हैं इंटरनेट में खोते हुए।

फिर स्टोरी का प्रोग्रैशन ये है कि वो अब इन चीजों से पक चुका है। अब उसे सुपरहीरो विजिलांते वाली चीजें आ रही हैं, वो लोगों से लड़ रहा है, लोग उसे कुछ कह रहे हैं, उसे मान ही नहीं रहे। फिर वो फेसबुक में अपने दिन बिताने लगता है और लड़कियों को स्टॉक कर रहा है। बाथ टब से लेकर वो जो आगे वाले सीन हैं, उनका मतलब यही है कि फेसबुक पर वह लड़कियों की तस्वीरें स्टॉक कर रहा है और फिर हम देखते हैं कि वो लड़की उसके सामने बैठी है और वो उससे बात नहीं कर पाता, उसकी बातचीत सिर्फ इतनी ही है कि यूट्यूब पर कमेंट छोड़ देता है उसके लिए कि मुझे तुम पर यकीन है। लड़की ने शायद इंडिया अगेंस्ट करप्शन की तरफ से अर्णब गोस्वामी के शो पर हिस्सा लिया हो और वो देख रहा है यूट्यूब पर। उसे बस वही रास्ता दिखता है कि मैं यूट्यूब पर कमेंट छोड़ दूंगा जबकि सपनों में और वर्चुअल लाइफ में वो सुपरहीरो है और उस लड़की को बचाता है और सब दुनिया को बचा रहा है। यानी जब रिएलिटी की बात आती है तो यही भाव हैं, यही हमारे ख्वाब हैं और उतने में ही सिमट जाते हैं।

आखिर में जब वो लोग अपनी डेस्क ऊपर कर रहे होते हैं, वो क्या करते हैं?
हा हा, वो एकदम गीक वॉर होते हैं कि एक मैकेनिकल डेस्क है और देखते हैं सबसे पहले ऊपर कौन करेगा। फ़िल्म में तो बहुत सीरियस दिखाया है पर असल मैं ऐसे सीरियस होता नहीं है। जैसे, दो लोग कागज की गेंद बनाते हैं और कचरे के डिब्बे में फेंकने की कोशिश करते हैं कि किसकी पहले गई। ये वैसा ही है। ये छोटी-मोटी चीजें हैं इसमें आप अपनी खुशी दिखाते हो क्योंकि आगे आप सोशियली बहुत चैलेंज्ड हो। आप एक पार्टी की जान नहीं हो। आपके लिए लोग रुकते नहीं हैं, आप उनमें से हो जिसे पूछना पड़ता है “कहां जा रहा है कहां जा रहा है, मैं आऊं मैं आऊं”। आपके जाने या न जाने से लोगों को फर्क नहीं पड़ता। हम जैसे लोग आपस में मिलते हैं तो एक अजीब सा इंटरेक्शन होने लगता है। ये उस तरह की स्थिति थी जहां मुझे दिखा कि गूगल के दफ्तर में ऐसी बैंच है जो ऊपर-नीचे होती हैं, तो मैंने सोचा कि हां रोज ये लोग शायद करते होंगे तो यूज करता हूं। जब कैमरा सेट हो रहा था, लाइट सेट हो रही थी तो मैं ऐसे किसी और के साथ खेल रहा था।

किन-किन लोगों को कास्ट किया और क्यों किया?
विकी (कौशल) को मैं तीन-चार साल से जानता हूं। उससे समर्पित और कमाल लड़का मैंने देखा नहीं है। लुक और परफॉर्मेंस में और एक इंसान के तौर पर उसने मेरे सामने ही ग्रो किया है। उसके साथ तो मैं हमेशा ही काम करना चाहता था। मुझे पता था कि बिना एक भी डायलॉग के बहुत सटल एक्सप्रेशन में एक वही है जो कर पाएगा। जहां बेहद एक्शन की डिमांड है वो भी कर लेगा और जहां अभिनय की जरूरत है वो भी कर लेगा। नेहा (चौहान) को मैंने ‘एलएसडी’ (लव सेक्स और धोखा) में देखा था। फ़िल्म में उसके काम से काफी प्रभावित था मैं। उसकी लाइफ भी अजीब रही थी, वो दोस्त की शादी में नाच रही थी, वो वीडियो दिबाकर ने देखी और उसे चुना। मुझे उसका लुक काफी रोचक लगा था, पारंपरिक नहीं था। जैसे आप हीरोइन चुनते हो तो एकदम गोरी-चिट्टी और मर्यादाओं वाली, तो नेहा उन धारणाओं को तोड़ रही थी। जब भी वो एक कमरे में चलकर आती थी तो लड़के रिएक्ट करते थे। मुझे वो अच्छा लगा कि उसका एक अजीब तरह का अट्रैक्शन है, जो कि पारंपरिक तरीकों से आप नहीं लगते हो। नेहा अच्छी एक्ट्रेस है। काफी उत्साहित है। उसके अलावा जितने भी लोग हैं, सारे मेरे दोस्त ही हैं। जैसे, कोई ट्रेन में पीछे खड़ा है तो प्रॉडक्शन वाला है।

कौन सा कैमरा इस्तेमाल किया?
कुछ-कुछ जगहों पर रेड एपिक (Red Epic) किया है जहां पर एक्शन है और जंगल के सीक्वेंस हैं। बाकी जगहों पर जहां परमिशन नहीं ले सकते थे जैसे ट्रेन हो गई वहां पर 5डी (Canon EOS 5D) यूज किया।

इस फ़िल्म में जैसे दो-तीन बिंदु हैं कि “जंगलों में युद्ध लड़े जा रहे हैं और शहरों में मॉल खड़े किए जा रहे हैं” या “दिल्ली की उस बस में मैं होता”, ऐसे बिंदु क्या अपनी बाकी फ़िल्मों में भी आप लाना चाहेंगे?
ये जिदंगी से ताल्लुक तो रखते ही हैं। आप अखबार उठाओ तो पढ़ सकते हो। मेरे ख्याल से किरदार कोई भी हो पुट तो किए ही जा सकते हैं, कितना वो रजिस्टर कर पाएंगे पता नहीं। अब जैसे इसमें मजाक के तौर पर डाल दिया है तो शायद ध्यान नहीं जा रहा लेकिन अब उस मूमेंट में कितना हो सकता है उतना ही किया जा सकता है। लेकिन बात ये है कि मैं अपने पॉइंट रखता जाऊं, बाकी लोग पहले हफ्ते में समझेंगे या दूसरे में या मिस कर देंगे। ठीक लगा तो शायद समझ जाएं।

फ़िल्में कौन सी देखीं हाल में?
ऐसी कोई मजेदार फ़िल्म देखी नहीं। एक ‘ओनली गॉड फरगिव्स’ बहुत ही चर्चित फ़िल्म रही जो कान में थी और लोगों को बिल्कुल पसंद नहीं आई। मेरे ख्याल से एक अजीब सा माहौल बन रहा है जहां लोग नहीं चाहते कि फ़िल्म में एक्सट्रीम हिंसा हो या खून-खराबा हो तो उसे वो बिल्कुल नकार रहे हैं। मेरे ख्याल से फिर से वो दौर आएगा जहां साफ फ़िल्में होंगी। इंटरनेशनली भी मैं देख रहा हूं कि माहौल रिएलिटी या हिंसा दिखाने का नहीं है। डार्क फ़िल्में लोग नकार रहे हैं।

ऐसा क्यों, क्योंकि निकोलस की पिछली फ़िल्म ‘ड्राइव’ में भी हिंसा को बहुत ही शांत-सुरम्य तरीके से दिखाया गया था और लोगों ने पसंद भी किया, ‘ओनली गॉड फरगिव्स’ भी शायद वैसी ही है फिर ऐसा क्यों? टैरेंटीनो भी पोएटिक सा वॉयलेंस दिखाते हैं लेकिन उन्हें उनके फैन्स देवता मानते हैं। ये जो हिंसा को नकारने वाले दर्शक हैं, ये नई पीढ़ी के हैं या उस पीढ़ी के जो काफी वक्त से सिनेमा देख रही है?
दोनों। दोनों ही नकार रहे हैं। टैरेंटीनो को आप फिर भी इतना सीरियस नहीं पाएंगे। मतलब टैरेंटीनो की फ़िल्म में मुझे नहीं लगता कि मैं रिएलिटी ढूंढता हूं। मैं तो एंटरटेनमेंट ही ढूंढ रहा होता हूं। लेकिन निकोलस की फ़िल्में एक बहुत ही अलग जोन में जाती हैं और वो एक घुटन सा महसूस करवाती हैं। मैं तो ऐसे सिनेमा से जुड़ना चाहूंगा जो ज्यादा रियल है, ज्यादा रेजोनेंट है। भले ही वो बहुत ही डिबेटेड फ़िल्में हों क्योंकि अच्छी बात ये है कि वो समानांतर भाषाओं में हैं ताकि सब लोग देख सकें। वो एक ऐसी चीज होगी जो कुछ लोगों को बहुत ही बेकार लगेगी और कुछ लोगों को बहुत ही पसंद आएगी। आज के वक्त में एक बहुत ही कमाल माहौल है कि हर आदमी अपना अलग नजरिया रख रहा है न कि आयातित नजरिया। इस लिहाज से निकोलस जो करने की कोशिश कर रहे हैं वो काफी हिम्मत का काम है। उनका करियर फॉलो करने में मजा आएगा।

और किसी फ़िल्म से जुड़े हैं कि अपनी पटकथा पर ही काम कर रहे हैं?
अपनी कहानी ही लिख रहा हूं। वैसे ‘बॉम्बे वेलवेट’ में राइटर था पर वो काम काफी पहले ही खत्म हो गया था।

Vasan Bala is a Mumbai based filmmaker. He has made a Short film called ‘Geek Out.' Last year, he made ‘Peddlers' which was received very well at various National - International film festivals. He has worked with Anurag Kashyap on 'Dev D', 'That Girl in Yellow Boots', 'Gulaal' and ‘Bombay Velvet’ (Script). He was an associate director to Michael Winterbottom on 'Trishna'. Now he’s writing his next movie.
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Friday, June 14, 2013

श्लोक शर्मा की ‘हिडन क्रिकेट’ : खेल जो करप्ट नहीं हुआ

 5 Short Films on Modern India 

विदेश मंत्रालय, गूगल, वायाकॉम 18 और अनुराग कश्यप की फिल्म निर्माण कंपनी ने मिलकर “इंडिया इज... अ विजुअल जर्नी” विषय पर पांच शॉर्ट फ़िल्में बनाई हैं। मौजूदा भारत के विभिन्न पहलुओं को दिखाती और नए विमर्शों की बयार लाती ये फ़िल्में हैं अनुभूति कश्यप की ‘मोइ मरजाणी’, श्लोक शर्मा की ‘हिडन क्रिकेट’, नीरज घैवन की ‘द एपिफनी’, वासन बाला की ‘गीक आउट’ और गीतांजलि राव की ‘चाय’। पांचों फिल्में यूट्यूब पर उपलब्ध हैं।

 



श्लोक शर्मा का अब तक का काम आगे के लिए उम्मीदें जगाता है। उनकी शॉर्ट फिल्म ‘सुजाता’ को ही लें। एक ऐसी लड़की की कहानी जिसकी जिंदगी में बहुत छटपटाहट है। मजबूरी है कि रिश्तेदारों के यहां रहना पड़ता है। रिश्ते में लगता उसका एक भाई है। उसका बड़ा डर है। बचने के लिए वह पते बदलती है, पहचान बदलती है लेकिन कहीं से मदद नहीं मिलती। अंततः वह चीजें अपने हाथ में लेती है। 2011 में बनी ‘सुजाता’ में मुख्य भूमिका हुमा कुरैशी ने निभाई है। इसके अलावा श्लोक की दो शॉर्ट फिल्में दो साल पहले आ चुकी हैं। ‘द जॉय ऑफ गिविंग’ और ‘ट्यूबलाइट का चांद’। देखकर सुख मिलता है। उनकी ‘हिडन क्रिकेट’ इस साल बनाई गई पांचों शॉर्ट फिल्मों में सबसे छोटी है, कोई साढ़े तीन मिनट की। हम बहुत बार ये पंक्ति दुहराते हैं कि भारत में क्रिकेट एक धर्म है, हिडन क्रिकेट एक नास्तिक के नथुनों में उड़कर आता वो लोबान का धुँआ है जो उसी ऊपरवाले के लिए सुलगाया गया है। ये क्रिकेट स्टेडियम में खेला जाने वाला नहीं है, पार्कों में खेला जाने वाला नहीं है और ये खेला जाने वाला है ही नहीं, ये गलियों, दुकानों, झरोखों, सड़कों, मुहानों और जमानों में बिना दिखे बहने वाला है।

 मुंबई में रह रहे श्लोक ने सबसे पहले 2004 में आई विशाल भारद्वाज की फिल्म ‘द ब्लू अम्ब्रेला’ में बतौर प्रोडक्शन असिस्टेंट काम किया था। विशाल की ही फिल्म ‘ओमकारा’ और एड्स विषय पर बनी शॉर्ट फिल्म ‘ब्लड ब्रदर्स’ में वह असिस्टेंट डायरेक्टर रहे। इसके बाद उन्होंने अनुराग कश्यप के साथ ‘नो स्मोकिंग’, ‘दैट गर्ल इन यैलो बूट्स’, ‘देव डी’ और ‘गैंग्स ऑफ वासेपुर’ में निर्देशन और निर्माण के अलग-अलग स्तरों पर काम किया। सिनेमा के सौ साल पूरे होने के उपलक्ष्य में इस साल बनाई गई ‘बॉम्बे टॉकीज’ में वह सहयोगी निर्देशक रहे। नवाजुद्दीन सिद्दीकी को लेकर वह अपनी पहली फीचर फ़िल्म ‘हरामखोर’ की शूटिंग पूरी कर चुके हैं। अभी पोस्ट-प्रोडक्शन किया जा रहा है। उनसे ‘हिडन क्रिकेट’ पर यह संक्षिप्त बातचीत हुई।

कहां जन्मे, पले-बढ़े और पढ़े?
नई दिल्ली से हूं। परवरिश मध्य प्रदेश के बिलासपुर और मुंबई के सायन क्षेत्र में हुई। ज्यादातर बचपन और लड़कपन सायन में ही बीता और यहीं से अपनी पढ़ाई भी पूरी की।

Shlok Sharma
हिडन क्रिकेट नाम क्यों रखा?
क्योंकि यह क्रिकेट आपको आम क्रिकेट की तरह दिखता नहीं है। इसे खेलते वक्त एक मैदान, यूनिफॉर्म पहने खिलाड़ी, एक बल्ला और गेंद, इनमें से किसी भी चीज की जरूरत नहीं पड़ती। हिडन क्रिकेट हमारी रोजमर्रा की जिंदगी का हिस्सा है जिसे हम लोग बड़ी आसानी से नजरअंदाज कर जाते हैं।

कहानी जेहन से अस्तित्व में कैसे आई?
मेरे जेहन में 3 साल पहले ही आ गई थी लेकिन सही वक्त नहीं मिल पा रहा था। फिर ये प्रोजेक्ट आया तो गूगल और गुनीत मोंगा (निर्माता) के सौजन्य से यह विचार हकीकत में बदला।

गेंद बल्ला कहानी है... गाने के बोल पर अंतिम राय कैसे बनी और म्यूजिक कैसा चाहते थे?
इसके गीतकार वरुण ग्रोवर और संगीतकार विशाल खुराना अत्यंत प्रतिभाशाली हैं। फ़िल्म के म्यूजिक के संदर्भ में हमने सोच रखा था कि हिंदुस्तान का ध्यान फ़िल्म की ओर खींचना है। साथ ही उन लोगों का परिचय क्रिकेट के जुनून से करवाना है जिन्हें इस खेल में ज्यादा दिलचस्पी नहीं हैं। यहीं से शुरुआत हुई। आगे गाने के बोल और फ़िल्म के संगीत का पूरा श्रेय वरुण और विशाल को है।

शूटिंग कहां और किस कैमरा से की? क्रू कितना बड़ा था और कितने दिन लगे?
ज्यादातर शूटिंग पटियाला के आसपास की है। फिल्मांकन में कोई 3 दिन लगे। हमने रेड एपिक (Red Epic) पर शूट किया एक बहुत ही छोटे क्रू के साथ। जितने कम लोग, उतनी ज्यादा फुर्ती और उतनी ही कम गड़बड़ी।

शूटिंग के दौरान चुनौतियां क्या रहीं?
वही जो हर शूट पर होती हैं। गर्मी और भीड़। हमने सड़कों और बिल्डिंगों पर भाग-भाग कर शूट किया। मगर हमारी टीम ने इन सारी चुनौतियों को आधा कर दिया था। उनका तहेदिल से शुक्रगुज़ार हूं।

बाकी शॉर्ट फ़िल्मों में ‘हिडन क्रिकेट’ ही है जो सबसे छोटी 3 मिनट की है, ऐसा क्यों?
मुझे जो भी कहना था उसके लिए इतना वक्त काफी था। इससे लंबी होती तो खींची हुई महसूस होती।

छोटी फ़िल्म में भी बहुत प्रयास लगता है, उस प्रयास के लिए हिम्मत कैसे मिलती है?
किसी भी कलाकार को अपने आप को पेश करने के लिए हिम्मत नहीं, एक दृष्टी, एक जिद्द, एक जूनून और जूनून को प्रोत्साहित करने वाली टीम की जरूरत होती है। बाकी सब तो अपने आप हो जाता है।

इससे पहले क्या कर चुके हैं?
इससे पहले कुछ शॉर्ट फ़िल्में बनाईं। उनमें से कुछ ने अन्तरराष्ट्रीय फ़िल्म समारोहों में पुरस्कार भी जीते। अनुराग कश्यप की ‘गैंग्स और वासेपुर’ में सेकेंड यूनिट डायरेक्टर था। अब अपनी पहली फ़िल्म ‘हरामखोर’ के पोस्ट-प्रोडक्शन में व्यस्त हूं। साथ में अगली स्क्रिप्ट का लेखन भी चल रहा है।

आपको कैसे विषय लुभाते हैं?
मुझे सबसे ज्यादा दिलचस्प इंसान और उनकी मनोवृत्ति लगती है। इंसानों का स्वभाव अत्यंत अप्रत्याशित होता है। यह मुझे बहुत लुभाता है। मैं अपने बचपन से भी बहुत ज्यादा प्रभावित हूं और मुझे लगता है की इन दोनों का प्रभाव मेरी फ़िल्मों में झलकता है।

विश्व और भारत में सबसे पसंदीदा फ़िल्मकार कौन हैं? क्यों?
सच पूछिये तो मैंने ज्यादा फ़िल्में देखी नहीं हैं मगर इस इंडस्ट्री में आने के पहले मुझे विशाल जी (भरद्वाज) और गुलज़ार सर ने काफी प्रभावित किया है। खासकर विशाल जी की ‘मक़बूल’ और गुलज़ार साब की ‘माचिस’, ‘हु तू तू’ और ‘आंधी’ मुझे खासतौर पर याद हैं। इन सब में इंसानी प्रवृति का विस्तृत वर्णन और संवेदनशील प्रस्तुति, मुझे इतने साल बाद भी हूबहू याद है।

क्या फिलॉसफी पढ़ते हैं? किसकी ने संतुष्ट किया है?
फिलॉसफी तो नहीं पढ़ी मगर इतना मालूम है कि जिस दिन संतुष्ट हो गया, उस दिन रुक जाऊंगा और जिस दिन रुक गया, उस दिन मेरा कौतुहल और चाह खत्म हो जाएगी। और भला बिना चाह के कौन जीता है?

फ़िल्मकार मन में क्या सोच तांडव किया करती है?
वही अंर्तद्वंद जो किसी भी इंसान के मन में चलता है, बस उसे पेश करने के नज़रिए में फर्क होता है।

Shlok Sharma is an Indian filmmaker. He started working as a production assistant on Vishal Bhardwaj’s ‘The Blue Umbrella’ in 2004. He was an assistant director on ‘Omkara’ and ‘Blood Brothers’, both directed by Vishal. He has worked with Anuraag Kashyap on ‘No Smoking’, ‘Dev D’, ‘That Girl in Yellow Boots’, ‘Gangs of Wasseypur’ and ‘Bombay Talkies.’ In 2010 he made three short films ‘The Joy of Giving’, ‘Cut it’ and ‘Tubelight Ka Chaand’. Next year he made another short ‘Sujata.’ Now he has come up with ‘Hidden Cricket.’ He has finished shooting his first feature film ‘Haraamkhor’ with Nawazuddin Siddiqui. Post production of the film is on.
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Thursday, June 13, 2013

अनुभूति कश्यप की ‘मोइ मरजाणी’ : ये फैसला मेरा है

 5 Short Films on Modern India 

 

विदेश मंत्रालय, गूगल, वायाकॉम 18 और अनुराग कश्यप की फिल्म निर्माण कंपनी ने मिलकर “इंडिया इज... अ विजुअल जर्नी” विषय पर पांच शॉर्ट फ़िल्में बनाई हैं। मौजूदा भारत के विभिन्न पहलुओं को दिखाती और नए विमर्शों की बयार लाती ये फ़िल्में हैं अनुभूति कश्यप की ‘मोइ मरजाणी’, श्लोक शर्मा की ‘हिडन क्रिकेट’, नीरज घैवन की ‘द एपिफनी’, वासन बाला की ‘गीक आउट’ और गीतांजलि राव की ‘चाय’। पांचों फिल्में यूट्यूब पर उपलब्ध हैं।

   

अनुभूति कश्यप की इस फिल्म का शीर्षक पहले ‘दढ़ियल’ था। अंततः यह ‘मोइ मरजाणी’ नाम के साथ प्रस्तुत हुई। सादगी और सीदे कथ्य से सजी ये कहानी है पटियाला की मोना चड्ढा की। वह एक इंटरनेट कैफे चलाती है। एक छोटा बेटा है। मोना जिंदगी की कुछ मामूली और कुछ भारी-भरकम परिस्थिति से गुजर रही है। इसी दौरान मुंबई से पटियाला, परेश उनसे मिलने आ पहुंचते हैं जिनसे दोस्ती इंटरनेट चैटिंग के जरिए हुई। भविष्य की इनकी आपसी संभावनाएं हैं। चूंकि मोना एक परिस्थिति से गुजर रही है और मिलने की हालत में नहीं है और न मिलने पर जिंदगी का बहुत महत्वपूर्ण मोड़ छूट जाएगा। तो असमंजस और निराशा है। खैर, यहां से कहानी एक सुहावनी दिशा चलती है। अनुभूति इस वक्त दो फ़िल्मों की पटकथा पर काम कर रही हैं, लिख रही हैं। फ़िल्मकारी उन्होंने राजकुमार गुप्ता और अनुराग कश्यप के सानिध्य में सीखी है। वह ‘नो वन किल्ड जैसिका’, ‘देव डी’, ‘गैंग्स ऑफ वासेपुर’ और ‘पीटर गया काम से’ जैसी फिल्मों का हिस्सा रही हैं। ‘मोइ मरजाणी’ को लेकर अनुभूति से बातचीत हुई।

मोइ मरजाणी नाम क्यों चुना फ़िल्म का?
मुझे एक पंजाबी शब्द चाहिए था इस लड़की के लिए जो उसके किरदार का वर्णन करे। तो मोइ मरजाणी शब्द उपयुक्त लगा क्योंकि इसमें शरारतीपन भी है और किसी को प्यार से बुलाया जाने वाला पुट भी। जैसे कोई दादी अपनी पोती को बुलाएगी, डांटेगी भी तो उसे मोइ मरजाणी बोलेगी। इसमें प्यार भी होता है और डांट भी होती है। जैसे, “मोइ मरजाणी तूने सब काम खराब कर दिया”।

Anubhuti Kashyap
इसका पहला विचार आपको कब आया और अंतिम ड्राफ्ट तक पहुंचने के दौरान कहानी किस दौर से गुजरी?
इस दौरान किरदारों को दिमाग में कैसे बड़ा करती रहीं? मुझे फ़िल्म बनाने के थोड़ा पहले आया इसका आइडिया। हमें संभवतः जनवरी में गूगल की तरफ से संदेश आया था कि आप अपने आइडिया फटाफट सोचें और बताएं, फिर डिसकस करके फ़िल्म बनानी है। तो जनवरी से मैं सोचने लगी कि क्या करूं। फिर मेरे दिमाग में ये कहानी आई। ये एक औरत से प्रेरित है जिनसे मैं मिली थी। मेरे दिमाग में तभी से ये इश्यू था। सोचना शुरू किया तो लगा कि ठीक है इसी पर पिक्चर बना लेते हैं। तुरंत बनानी ही थी तो ड्राफ्ट फटाफट तैयार हो गया। 10-15 दिन में। मैंने मार्च में लिखी और फिर पटियाला जाकर फटाफट शूट कर ली।

ये जो फ़िल्म का पूरा लम्बा तट है, ये जो डिसकशंस चल रहे हैं किरदारों की पृष्ठभूमि में... माने दर्शकों को 15-20 मिनट की फ़िल्म में जो दिख रहा है उसके पीछे एक 200-300 मिनट की फ़िल्म आपकी खुद की होती है जिसका सार इस छोटी सी फ़िल्म में होता है। तो वो सारे विचार क्या थे। जैसे, फ़िल्म की किरदार मोना का बेटा कहता है, “मम्मी आप दाढ़ी में ही अच्छे लगते हो” या आखिर में वो लोग डॉक्टर के पास जा रहे होते हैं। तो एक फ़िल्मकार के पास ये होता है न, कि क्या उसका किरदार कहानी के आखिर में करे। क्या दाढ़ी के साथ उसका होने वाला पति उसे स्वीकार करे या फिर समाज के हिसाब से समाज की चीजों को भी थोड़ा देखते हुए वह अपने आप को सही करे। उसका बेटा जो बिल्कुल मासूम है वो उसे उसी स्वरूप में स्वीकार कर रहा है लेकिन शायद उसका पति न कर पाए या शायद वह खुद भी न कर पाए। तो इस मनन में आप निष्कर्ष पर कैसे पहुंचीं? कि हां, उनका डॉक्टर के पास जाना बुरा नहीं है और जिनको भी ऐसी दिक्कत है उन्हें ऐसा करवाना चाहिए।
जब मैं लिख भी रही थी तो मेरे दिमाग में ऐसी कोई ब्रेव हिरोइन नहीं थी जो दुनिया से लड़कर खुद को उसी स्वरूप में स्वीकार कर ले और हमेशा जिंदगी भर ऐसे ही रहे। मैं सिंपल कैरेक्टर पसंद करती हूं। हम लोग बातें जितनी भी बड़ी-बड़ी कर लें लेकिन करेंगे वही। मैं भी शायद ऐसी परिस्थिति में होती तो ऐसा ही करती। मैं ऐसा कोई परमानेंट इलाज जरूर करवाती। मैं साधारण किरदार पसंद करती हूं और इसे मैंने ऐसे ही लिखा था। ऐसे लिखा कि अगर उसका पति उसको स्वीकार भी करता है तो पहली बात ये कि वह अपने आप से कम्फर्टेबल नहीं थी इसलिए वह डॉक्टर के पास गई। फिर वह अपने बॉयफ्रेंड से छिप भी रही थी क्योंकि जाहिर है वह अपने आप को ऐसे दिखाना नहीं चाहती थी। असुरक्षित थी इसको लेकर। वह एक नॉर्मल लड़की है जिसकी जिंदगी में असुरक्षाएं हैं। बाद में उसने शायद बहुत सोचकर और बहुत स्ट्रेस के साथ तय किया कि नहीं मैं झूठ पर ये रिश्ता शुरू नहीं कर सकती। उसके लिए ऐसा करना ही बहुत हिम्मत वाली चीज थी और बहुत बड़ा कदम था। ऐसा करने के बाद जब उनकी नॉर्मल बातें होती हैं और उसके बाद तय करते हैं कि डॉक्टर के पास जाएंगे। ये सब सोचने के लिए मैंने बस अपने आप को उस सिचुएशन में डाला। सोचा कि मैं कैसे रिएक्ट करती। मैं जानती हूं कि कहानी को बहुत ही ड्रमैटिक और विशाल बना सकती थी कि हीरोइन तय कर लेती, “मैं जिंदगी भर ऐसे ही रहूंगी और मैं शेव करती रहूंगी” लेकिन नहीं, मैं एक नेरेटिव और सिंपल कहानी लिखना चाहती थी, इसलिए हालातों को ऐसा रखा।

आप जब कुछ भी लिखती हैं तो आपको ड्राइव क्या करता है? दिमाग करता है कि दिल ड्राइव करता है?
दोनों। दोनों बहुत जरूरी हैं। दिल तो जरूर ड्राइव करता है लेकिन मुझे उसके उपरांत विश्लेषण भी करना होता है तो दिमाग भी थोड़ा लगाना पड़ता है।

मतलब अगर मैं ये कहूं कि दिमाग का इस्तेमाल कहानी बनने के बिल्कुल बेसिक स्तर पर अगर हम करने लगें तो बननी मुश्किल हो जाती है।
ठीक कहा, वहां तो आप बिल्कुल नहीं कर सकते। पहली पूरी कहानी दिल से निकलती है और फिर उसको सुधारने का काम दिमाग से किया जाता है।

आपको कौन से फ़िल्मकार सबसे ज्यादा पसंद हैं? ऐसे कौन से फ़िल्म और फ़िल्मकार हैं जिन्होंने इतना चौंकाया कि यार ये फ़िल्में और ये दुनिया भी होती है और आप एक्सप्लोर करती गईं।
बहुत बहुत बहुत सारे हैं। मुझे बहुत सारे फ़िल्ममेकर्स और बहुत सारी फ़िल्में पसंद हैं। वर्ल्ड सिनेमा में तो खैर बहुत सारे ही लोग हैं। हमारे देश में मैं दिबाकर बैनर्जी की बहुत बड़ी फैन हूं, विशाल भारद्वाज की बहुत बड़ी फैन हूं और अनुराग कश्यप मेरे भाई, उनकी फैन हूं। पुराने जमाने के फ़िल्ममेकर्स में गुरुदत्त हैं, ऋषिकेश मुखर्जी हैं। विदेशी फ़िल्मकारों में तो बहुत सारे नाम है। मैं फ़िल्में बता सकती हूं। मेरी पसंदीदा फ़िल्मों में आती है ‘मैमरीज ऑफ मर्डर’ (2003, बॉन्ग जून-हो), ‘फाइट क्लब’ (1999, डेविंड फिंचर) और भी बहुत सारी। वेस्टर्न फ़िल्में बनाने वाले निर्देशक भी पसंद आते हैं। कोएन ब्रदर्स मेरे पसंदीदा में से हैं। कुछ फ़िल्ममेकर्स हैं जिनकी सारी ही फ़िल्में मुझे हमेशा अच्छी लगती हैं। उनमें कोएन ब्रदर्स हैं, क्लिंट ईस्टवुड हैं।

क्लिंट ईस्टवुड बाकी बताए नामों की तुलना में सिंपल फ़िल्में बनाते हैं, तो क्या उनकी प्रस्तुति की सादगी पसंद आती है आपको?
हां, मुझे उनकी फ़िल्मों की सादगी, जटिलता सब कुछ पसंद आती है। अपनी फ़िल्मों में भी मुझे ये दोनों ही चीजें बेहद पसंद हैं।

बाकी चार शॉर्ट फ़िल्में ले लें या आजकल की ज्यादातर फ़िल्में, उनमें म्यूजिक को बिल्कुल अलग सा प्रस्तुत करने की कोशिश होती है। वहीं आपने बेहद साधारण सा संगीत अपनी फ़िल्म में रखा है और इस मोर्चे पर जरा भी महत्वाकांक्षी होने की कोशिश नहीं की है। इसकी क्या वजह थी?
जब शॉर्ट फ़िल्म बनाते हैं तो खर्च करने के लिए इतना बड़ा बजट नहीं होता। दूसरा हमने जो भी म्यूजिक यूज किया है वो फ़िल्म की सादगी को ध्यान में रखते हुए किया है। फ़िल्म के आखिर में एक छोटा सा पीस बनाया तो हमें कुछ कमाल नहीं चाहिए था। बस वैसा चाहिए था जैसा आज छोटे-छोटे कस्बों में बनाया जाता हैं। हमें नया और तरोताजा करने वाला नहीं चाहिए था बल्कि ऐसा चाहिए था जो उस कल्चर से आ रहा हो। जब मैं फ़िल्म शूट करने पटियाला गई तो वहां टैक्सी और गाड़ियों में जिस तरह का म्यूजिक चलता है, वहां पर हर घर में एक एल्बम या गाना बनाने वाला होता है, मैं उस तरह का म्यूजिक चाहती थी। ऐसा लगे कि पटियाला के ही किसी बंदे ने बनाया है। साधारण इसलिए क्योंकि अगर म्यूजिक मूल विषय को ढकने लगे तो व्यर्थ हो जाता है।

आप हैं नॉर्थ इंडिया के एक हिस्से कीं और रहती हैं मुंबई में, फिर फ़िल्म पंजाबी पृष्ठभूमि वाली क्यों बनाई?
वो दरअसल इसलिए क्योंकि दो साल पहले मेरी शादी हो चुकी है और मेरे हस्बैंड पंजाब से हैं। इसलिए मैं दोनों कल्चर (महाराष्ट्र और पंजाब) को जोड़ने की कोशिश कर रही थी।

पटियाला में आपका शेड्यूल कितने दिन का था? और क्रू कितना बड़ा था?
हमने तीन दिन में शूट की फ़िल्म। क्रू बहुत छोटा सा था। मेरे चार एक्टर थे, मैं थी, कैमरामैन था, कैमरामैन के दो असिस्टेंट थे और मेरे साथ एक एडी था। पांच चंडीगढ़ के लड़के थे जिन्होंने हमारा प्रोडक्शन का काम किया, कास्टिंग की, सबकुछ किया, हर चीज की मदद की, हमें भाग-भागकर खाना लाकर दिया।

कैमरा कौन सा बरता?
ऐरी एलिक्सर (Arri Elixir)।

एक्टर्स कहां से हैं? और उन्हें कैसे चुना?
मुख्य अदाकारा कनिका कालरा चंडीगढ़ से ताल्लुक रखती हैं पर बॉम्बे में रहती हैं अपने परिवार के साथ। उन्हें यहीं से कास्ट किया। उनकी सहेली जो बनी हैं जीना भाटिया और बच्चा द्विज हांडा, ये दोनों दिल्ली के हैं। द्विज का काम मैंने देखा हुआ है ‘चिल्लर पार्टी’ में तो उसे यूं लिया। इन दोनों को दिल्ली से बुला लिया। श्रेयस पंडित जो लीड मेल हैं वो पूना में रहते हैं, उन्हें वहां से बुलाया।

कनिका को आपने उनके किरदार को लेकर क्या ब्रीफ किया था?
दरअसल उन्हें कास्ट करने का सुझाव कुछ दोस्तों ने दिया था, कि ये एक एक्ट्रेस हैं जिन्होंने पहले काम किया है, फिलहाल व्यस्त नहीं हैं। दोस्तों ने कहा कि वो तुम्हारी कैरेक्टर जैसी प्रतीत होती हैं। रियल लाइफ में बहुत जिंदादिल और उछलकूद मचाने वाली लड़की हैं। जब मिली और उनके साथ थोड़ा टाइम बिताया तो पाया कि वह असल किरदार के काफी करीब थीं। मेरा ब्रीफ उन्हें यही था कि आप जैसे हो वैसे ही रहो।

कैसे विषय आपको आकर्षित करते हैं जो संभवतः भविष्य में आपकी फ़िल्मों का आधार बनें?
मुझे ज्यादातर रिलेशनशिप वाली स्टोरीज पसंद आती हैं। कोई भी ऐसी कहानी जो दिल निचोड़ने वाला ड्रामा हो। मैं ऐसे विषय पर फ़िल्म बनाना चाहूंगी। कुछ भी जो थोड़ा सा असामान्य हो। आम परिस्थितियों से थोड़ा सा हटकर हो।

‘मोइ मरजानी’ को देखें तो उसमें आपकी किरदार एक किस्म का जीवन जी रही है, वह एक निर्णय लेती है और आखिर में उसकी जिदंगी में कुछ अच्छा होता है, एक संदेश भी मिलता है। लेकिन थोड़ा सा बाहर अगर उससे आपको लाऊं मैं और फिर दुनिया या भारत को देखें, आज की औरतों और उनकी समस्याओं को देखें, तो आपको कैसी दुनिया और कैसी औरतें देखनी पसंद होंगी? वो क्या कर रही हों या किस तरफ आगे बढ़ रही हों कि आपको बहुत पसंद आएगा?
कहीं भी दिखता है कि परंपरा से हटके कोई भी औरत कुछ करती है तो मुझे आकर्षित करता है। अगर परंपरा में रहकर ही कुछ अलग करे तो वो मुझे बहुत मनमोहक लगता है। जैसे, गुलाब गैंग थी। ...अनपढ़ औरत गांव में लेकिन पूरी सरकार और व्यवस्था को चुनौती दे रही है। ऐसा ही छोटे स्तर पर हो तो बहुत आकर्षित करता है। हालांकि मैं कोई फैमिनिस्ट नहीं हूं पर किसी भी फील्ड में औरतों को आगे बढ़ते देखना चाहूंगी और मर्दों से भी आगे। मुंह बंद करके कोई अत्याचार सहता रहे वो मुझे नहीं पसंद है। इसे तोड़ने के लिए जो भी किया जाए वो मुझे अच्छा लगता है।

ऑडियंस को पूरी फ़िल्म के बीच दो जंप देने हैं या इंटरवल से पहले ऐसा होना ही है, ऐसे जितने भी कमर्शियल फंडे हैं, उनकी अभी आप कितनी परवाह कर रही हैं? डर रही हैं? या कितना समाधान ढूंढकर रख लिया है?
अभी तक तो बिल्कुल सोच नहीं रही हूं उस बारे में। न ही डर रही हूं। न कॉन्फिडेंट हूं। अभी तो वो ख्याल ही नहीं है। अभी तो उस स्टेज पर हूं कि कहानी लिख रही हूं, बिना ये सोचे कि क्या वर्क करेगा क्या नहीं। मुझे लगता है एक बार जब अपनी स्क्रिप्ट मैं पूरी कर लूंगी और प्रोड्यूसर के पास लेकर जा रही होउंगी, तब इन सब बातों के बारे में सोचूंगी।

राजकुमार गुप्ता और अनुराग कश्यप के साथ किन-किन फ़िल्मों में आपने काम किया है?
‘आमिर’ में मैंने असिस्टेंट डायरेक्टर के तौर पर काम किया था। फिर ‘देव डी’। राजकुमार गुप्ता की ‘नो वन किल्ड जैसिका’ में मैंने वैसे कोई हिस्सा नहीं लिया था पर उसका रिसर्च मैंने किया था। उसके बाद ‘गैंग्स ऑफ वासेपुर’ में मैं असिस्टेंट डायरेक्टर थी। बीच में एक और फ़िल्म में काम किया था ‘पीटर गया काम से’ जो अभी नहीं आई है। जॉन ओवेन एक म्यूजिक डायरेक्टर हैं उन्होंने बनाई है। उसमें डायलॉग्स और परफॉर्मेंस में मैंने मदद की थी।

Anubhuti Kashyap is a young Indian filmmaker. She has made a beautiful short film called 'Moi Marjani.' At present, she's writing two of her future films. She has been part movies like ‘Dev D’, ‘No One Killed Jessica’, ‘Gangs Of Wasseypur’ and ‘Peter Gaya Kaam Se’.
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नीरज घैवन की ‘द एपिफनी’ : रिश्तों की रसायनशाला

 5 Short Films on Modern India 

 

विदेश मंत्रालय, गूगल, वायाकॉम 18 और अनुराग कश्यप की फिल्म निर्माण कंपनी ने मिलकर “इंडिया इज... अ विजुअल जर्नी” विषय पर पांच शॉर्ट फ़िल्में बनाई हैं। मौजूदा भारत के विभिन्न पहलुओं को दिखाती और नए विमर्शों की बयार लाती ये फ़िल्में हैं अनुभूति कश्यप की ‘मोइ मरजाणी’, श्लोक शर्मा की ‘हिडन क्रिकेट’, नीरज घैवन की ‘द एपिफनी’, वासन बाला की ‘गीक आउट’ और गीतांजलि राव की ‘चाय’। पांचों फिल्में यूट्यूब पर उपलब्ध हैं।

 

 
नीरज घैवन हैदराबाद में पले-बढ़े। इंजीनियरिंग की, एक कंसल्टिंग फर्म में एक साल काम किया और मार्केटिंग में एमबीए की डिग्री ली। फ़िल्में बनाने के लिए उन्होंने मार्केटिंग में भविष्य छोड़ दिया। बाद में अनुराग कश्यप से जुड़े। उनको कुछ फिल्मों की स्क्रिप्ट और डायरेक्शन में असिस्ट किया। पिछले साल आई ‘गैंग्स ऑफ वासेपुर’ में वह असिस्टेंट डायरेक्टर और स्क्रिप्ट सुपरवाइजर रहे। अनुराग की ही आने वाली फिल्म ‘अग्ली’ में वह सेकेंड यूनिट डायरेक्टर हैं। नीरज 2011 में अपनी पहली शॉर्ट फिल्म ‘शोर’ बना चुके हैं। फिल्म का प्रीमियर अबु धाबी फ़िल्म फेस्टिवल में हुआ। फिर साउथ एशियन इंटरनेशनल फ़िल्म फेस्टिवल, न्यू यॉर्क में इसने पुरस्कार जीता। अब उनकी दूसरी शॉर्ट फिल्म ‘द एपिफनी’ आई है। यह एक तलाकशुदा जोड़े की कहानी है। पुणे में अपने कॉलेज रीयूनियन में हिस्सा लेकर दोनों न चाहते हुए भी एक ही गाड़ी में मुंबई लौट रहे हैं। रास्ते में मदद के लिए पुकार रही एक बूढ़ी औरत और उसके पोते को ये कार में लिफ्ट देते हैं। ये छोटा और अगंभीर लगने वाला कदम उनकी जिंदगी में नए मायने लेकर आता है। आगे फ़िल्म वर्ग, संस्कृति, नैतिकता, पुराने घावों और असल जिंदगी की हकीकतों को पिरोती चलती है। अपनी अगली फिल्म की पटकथा पर काम कर रहे नीरज ने ‘द एपिफनी’ पर बात की।

एपिफनी शब्द के क्या मायने हैं?
एक अजीब सा वाकया जो हमारी आम सोच में नहीं होता लेकिन फिर कहीं से आ जाता है और उस सोच को बदल देता है। यही एपिफनी है। जैसे, इस जोड़े की जिंदगी में वह बूढ़ी औरत एपिफनी बनकर आती है।

इस कहानी के पीछे के हजारों विचार क्या रहे?
मैंने पहले ‘शोर’ नाम की एक फ़िल्म बनाई थी। वह भी एक शादीशुदा जोड़े के बारे में थी लेकिन वह एक अलग जोन में रची-बसी कहानी थी। मुझे यह विषय बहुत लुभाता है। एपिफनी के सिलसिले में मुझे कहा गया था कि इंडिया इंक के बारे में फ़िल्म बनाएं। मैंने कहा कि मैं इनक्रेडेबल इंडिया के बाकी विज्ञापनों की तरह इसे नहीं बनाना चाहता कि जहां सिर्फ जयपुर के बाग, रंग, महल और बनारस के घाट जैसी चीजें दिखाकर छोड़ दी जाएं। मेरे लिए यह इंडिया मेरा वाला था। यहीं पर मैंने यह कहानी चुनी। एक तलाकशुदा कपल की कहानी होने के अलावा यह इंडिया के बारे में बात करने के लिए रूपक (मेटाफर) है। जैसे, हम लोग कहते हैं कि हम एक सेक्युलर देश हैं, समदर्शी देश हैं, लेकिन क्या सच में हैं ? शायद शहरों में हम आगे हो गए हैं तो ऐसा मानते हैं लेकिन छोटे शहरों और गांवों में तो आज भी वही भारत है। अभी भी भेदभाव तो है। इन सबके बीच देश में अच्छा यह है कि किसी को छोटी सी दिक्कत हो जाए तो सारे जमा हो जाते हैं। जैसे, एक मोहल्ले में बहुत से लोग रहते हैं। सब अलग-अलग तरह से रहते और जीते हैं। पानी के घड़े तक को लेकर बात हो जाती है कि “तुम तो मच्छी बनाते हो”, “इसमें से बास आती है”। लेकिन मान लीजिए मुंबई में हमला हो गया तो ये बातें भूल सब फोन करके हाल-समाचार लेते हैं कि “यार तुम घर पहुंच गए क्या ठीक-ठाक”। तो यह एक मानवीय चेहरा है। भारतीय होने का यह श्रेय बड़ा है। हम में इतनी भाषाएं और इतने प्रांत है, इतनी विभिन्नता है फिर भी हम किसी न किसी चीज से जुड़े हैं। मेरे लिए इन चीजों को किसी न किसी रूप में फ़िल्म में दिखाना जरूरी था। मसलन, इस कपल ने मान लिया है कि हम साथ नहीं रह सकते। फिर अकस्मात उन्हें एक गाड़ी में साथ जाना पड़ता है, उनके एक दोस्त को आना होता है लेकिन वह आ नहीं पाता। अब कोई चारा नहीं है। मुंबई भी एक ऐसी ही गाड़ी है जिसमें हर तरह के लोग साथ में हैं। इतनी विविधता के बावजूद। हम सब रह रहे हैं लेकिन जब भी कुछ होता है तो साथ आ जाते हैं। जैसे, ये दोनों कार में जा रहे हैं और इनकी अनबन शुरू हो जाती है। बाद में बातचीत बंद हो जाती है। यहां वह बूढ़ी औरत आती है और वह इंडिया का सिंबल होती है।

Neeraj Ghaywan
फ़िल्म में जो भारत है वो रुढ़िवादी समाज वाला भारत नहीं है। पहले ऐसा होता था कि मर्द कहते थे कि “औरत तुम घर पर बैठो” या “तुम दहेज लेकर नहीं आई हो”, अब डिबेट एक-दूसरे की विचारधारा पर है, आइडियोलॉजी के झगड़े हैं। वो जमाना गया जब प्रथाएं थीं और हम उन पर झगड़ रहे थे। ‘द एपिफनी’ में आप देखेंगे कि वह औरत सबसे सफल है, वह गाड़ी चला रही है। उसका पति आदर्शवादिता की वजह से अटका हुआ है। पीछे जो बूढ़ी महिला बैठी हैं वह गांवों में बसा भारत है। ये कल्चरल डिवाइड है। फिर देखिए कि वह आदमी बुढ़िया की मदद करना चाहता है जबकि उसकी भाषा भी नहीं जानता। वहीं उसकी पूर्व-पत्नी जो उस बूढ़ी औरत की भाषा (मराठी) जानती है फिर भी उसके प्रति उत्साहकारी एटिट्यूड नहीं रखती। न चाहते हुए भी उसे बूढ़िया और उसके पोते की मदद करनी पड़ती है। आगे जाकर जब दोनों को पता चलता है कि बच्चे की हालत सही नहीं है, वह बेहोश हो गया है तो सकपका जाते हैं और अपना झगड़ा भूल जाते हैं। कि हम लोगों ने इतनी बड़ी-बड़ी बातें कर दी, इतना अटपटा हो गया है। अब वो चाहते हैं कि बुढ़िया को हेल्प करें और जुट जाते हैं मदद करने में। कहानी में इन सब विचारों के कई स्तर हैं। जैसे, वह औरत अगर शुरू में बुढ़िया और बच्चे को अपने गाड़ी में नहीं बैठाना चाहती तो इसलिए क्योंकि उसे ऑफिस के काम से जल्दी पहुंचना है। हम ऑफिस के प्रैशर की वजह से कभी-कभी अपनी नैतिकता खो देते हैं। हालांकि बाद में वह हेल्प करना चाहती है।

तलाकशुदा पति-पत्नी का परदे पर निर्माण...
मैं कोई बहुत ग्रेट राइटर नहीं हूं इसलिए मैं अपने विषय के संबंध में बहुत सारे लोगों से बात करता हूं। मैं मानता हूं कि सच कल्पना से बहुत आगे होता है और बहुत सुंदर होता है। सिनेमा में भी वही दिखाना चाहता हूं। चूंकि ये कहानी मूलतः एक तलाकशुदा जोड़े की थी इसलिए असल जिदंगी में तलाक ले चुके जोड़ों से मैंने बातें की। उन्होंने बताया कि तलाक के बाद के झगड़े बेहद अलग तरीके से होते हैं। उनमें बहुत ज्यादा बातें नहीं होती हैं, व्यंग्य या ताने ज्यादा होते हैं। इस वजह से मेरे मन में था कि मुख्य भूमिकाओं के लिए असली पति-पत्नी को लेना चाहिए। यहीं पर रत्नाबली और सुहास को लिया। रत्नाबली सच में बंगाली हैं और सुहास पंजाबी। दोनों पति-पत्नी हैं। जब तलाकशुदा जोड़े की असल जिदंगी बतानी थी तो नाटकीयता से समझौता किया। एक बहुत जरूरी चीज थी जो मैं बताना चाहता था कि ऐसा नहीं होता कि अंत में सब कुछ बदल जाता है। सब कुछ नहीं बदलता है। आप देखेंगे कि इन दोनों किरदारों के रिश्ते में भी ज्यादा कुछ बदलाव हुआ नहीं। जैसे, आखिर में वह कहती है कि “तुम बेटी से मिलने आ सकते हो”, तो ये हल्का सा चेंज है। असल जिंदगी में बड़ा चेंज नहीं आता है। यहां तक भी हो कि ये दोनों शायद मुंबई पहुंचने के बाद कभी भी नहीं मिलेंगे।

फिर फ़िल्म बनाने में कितना वक्त लग गया? क्या पड़ाव रहे?
उस वक्त मैं एक फ़िल्म में जुटा हुआ था और जद्दोजहद में था। मन मेरा आधा-अधूरा था। बहुत सारी चीजें कर रहा था। ‘अग्ली’ में सेकेंड यूनिट डायरेक्टर था। माइंड सेट नहीं था तो ‘द एपिफनी’ को लिखा और विचार और विकसित होने लगा, कोई 10-15 दिन गए होंगे। क्योंकि वो आइडिया दिमाग में पलता रहता है, फिर ‘कुछ ऐसा करें वैसा करें’ दिमाग में घुटता रहता है। लिखने बैठा तो 10 दिन में शायद लिख दिया था। शूटिंग में बहुत दिक्कत हुई। पूना-बॉम्बे हाइवे दूर था, बहुत से लोगों ने कहा कि पास के ही हाइवे पर शूट कर लो लेकिन मुझे लगता है कि हर कहानी का एक शोर होता है और हमें उसी में जाना चाहिए। मेरा सिद्धांत है कि जिन लोगों की बात कर रहा हूं उनकी दुनिया में जाकर ही बात करूं। इसलिए पूना-बॉम्बे हाइवे पर ही जाकर शूट किया।

दिक्कत क्या आई शूटिंग में?
दिक्कत ये थी कि आमतौर पर सेट्स पर एक मॉनिटर होता है जिसमें डायरेक्टर देखता रहता है कि शॉट में क्या हो रहा है। मेरे साथ दिक्कत ये थी कि गाड़ी के बोनट पर कैमरा रखा हुआ था तो मैं अंदर बाजू में नहीं बैठ करता था। ऊपर से कैमरा छोटा था तो उसमें भी नहीं दिख रहा था कि क्या हो रहा है। मॉनिटर नहीं था तो कलाकारों के परफॉर्मेंस के बारे में कुछ पता नहीं चल रहा था, ये चीज सबसे ज्यादा दिक्कत कर देती है। चूंकि मुझे अंदेशा पहले से था इसलिए मैंने दोनों के साथ बहुत वर्कशॉप कीं। एक चुनौती ये थी कि फ़िल्म में वास्तविकता की प्रस्तुति कैसे हो क्योंकि फ़िल्म बनाते वक्त आपकी ऑब्जेक्टिविटी चली जाती है। इसलिए कुछ तलाकशुदा लोगों को मैंने दिखाई। दो-तीन लोग रो दिए। मैं आश्वस्त नहीं हुआ। उन्होंने कहा कि लगता है एकदम से जिंदगी हमारे सामने आ गई है। बाद में और लोगों को भी दिखाया। उनके फीडबैक को भी मैंने अंतिम नहीं माना था। मगर अब जब फ़िल्म उपलब्ध है और इतने सारे लोग बोल रहे हैं कि फ़िल्म ने बहुत टच किया है तो राहत होती है। लोगों ने इतने मैसेज किए हैं कि इनबॉक्स भर गया है। मैं बहुत खुश हूं। जो देख रहे हैं, कनेक्ट कर रहे हैं। मुझे ये भूख नहीं है कि दस लाख या पचास लाख लोग इसे देखें। जितने लोग भी देखे उन्हें पसंद आए और वे आकर ये भी बताएं कि क्या अच्छा नहीं लगा। इतनी तारीफ के बाद लगता है कि कोई तो बोले ये खामी थी। जैसे, एक ने लिखा कि “आप शायद ड्रामा और दिखाते”। इस पर मैंने लिखा कि “मैंने तीन-चार कपल से पूछा था और उन्होंने कहा कि तलाकशुदा कपल का माजरा अलग होता है, उसमें ड्रामा नहीं जंचता”।

तकनीक वाला या मूल सिनेमा...
‘शोर’ बनाई तो लोगों को बहुत पसंद आई। मैंने सोचा नहीं था कि इतनी पसंद आएगी। मगर ‘द एपिफनी’ के वक्त मैं चाहता था कि सिर्फ क्राफ्ट पर ध्यान दूं। जैसे, आपको सिर्फ एक सीमित स्पेस दे दिया जाए और कहा जाए कि बस एक कैमरा है और कुछ नहीं है माध्यम, तो आप कैसे करेंगे? मैं ऐसी ही मुश्किल परिस्थिति से भिड़ना चाहता था। आखिरकार ये चीजें न भी हों तो फ़िल्ममेकिंग का सबसे प्योर फॉर्म तो नेरेटिव ही होता है। वो तो आपके साथ हमेशा ही होता है। मुझे वो दिख जाता है तो मैं सब भूल जाता हूं। साधन जरूरी होते हैं लेकिन उनके बगैर जो सिनेमा बने वो पवित्रतम रूप होता है सिनेमा का।

ऐसे पवित्रतम रूप वाले सिनेमाकारों में आपको कौन पसंद आते हैं?
बेला तार (हंगरी) हैं। मैंने उनकी तकरीबन सारी फ़िल्में देखी हैं। उनका बहुत बड़ा प्रशंसक हूं। अफसोस कि उन्होंने फ़िल्में बनाना छोड़ दिया है। डारिएन ब्रदर्स (जाँ पियेर और लूक डारिएन, बेल्जियम) मेरे फेवरेट्स में से एक हैं। उनकी फ़िल्मों में कुछ भी टेक्नीकली करप्ट करने वाला नहीं होता है। इनारित्तू (आलेहांद्रो गोंजालेज इनारित्तू, मेक्सिको) की फ़िल्में बहुत ही इंटरपर्सनल होती हैं। असगर फरहादी (ईरान) की सारी फ़िल्में मैंने देखी हैं। इनके अलावा माइकल हेनिके (ऑस्ट्रिया) हैं, फैलिनी (फेडरीको फैलिनी, इटली) हैं। इन सबकी फ़िल्मों पर बड़ा हुआ हूं।

संगीत को लेकर आपकी सोच क्या रही?
म्यूजिक नरेन चंदावरकर ने दिया है। वह पहले ‘दैट गर्ल इन यैलो बूट्स’ में म्यूजिक दे चुके हैं, हाल ही में उन्होंने ‘शिप ऑफ थीसियस’ में भी म्यूजिक दिया है। इस फ़िल्म के दौरान हुआ क्या कि हमें जल्दी में बनानी थी। तीन दिन में शूट किया, दो दिन में एडिट किया और दो दिन में पोस्ट प्रोडक्शन किया। म्यूजिक डायरेक्टर ने बोला कि “मुझे टाइम दो मैं खुश नहीं हूं, मैं अपने आप से ही करता हूं”। डेडलाइन का प्रैशर था पर मैं अच्छा महसूस कर रहा था कि वो इतनी मेहनत कर रहे थे। तो मैंने कहा, ठीक है करिए। उन्होंने पूरी रात जागकर क्लैरिनेट के साथ प्रयोग किए। इस तरह अलग रहा। मैं रॉ इंस्ट्रूमेंट्स में जाता हूं। वाइडर स्पेस में जो इंस्ट्रूमेंट काम करते हैं वो बाकी में नहीं करते। जैसे, एंड क्रेडिट्स में बहुत अच्छा क्लैरिनेट आता है। फ़िल्म के शुरू में बहुत रॉ म्यूजिक आता है, बीच में डिस्टर्ब करने वाला साउंड आता है और आखिर में क्लैरिनेट आता है।

एंड क्रेडिट्स में दोस्तों को शुक्रिया कहा...
दरअसल मैं बहुत लोगों की राय लेता हूं। वरुण ग्रोवर और मैं बहुत अच्छे दोस्त हैं। उसके साथ मिलकर मैंने अगली फ़िल्म लिखी है जिसे डायरेक्ट करूंगा। द्विजोत्तम भट्टाचार्य ने बहुत मेहनत की। उन्होंने बहुत अच्छे तरीके से सब हैंडल किया। अनुभूति भी मेरी बहुत अच्छी दोस्त हैं, उन्होंने भी बहुत मदद की। अपनी जिंदगी से उन्होंने फ़िल्म को बहुत कुछ दिया। कुणाल शर्मा भी, इन सबको शुक्रिया कहा।

मुख्य भूमिकाओं के लिए रत्नाबली, सुहास और ज्योति सुभाष का चुनाव कैसे किया?
‘शोर’ एक बनारसी कपल की कहानी थी जो बनारस छोड़कर आते हैं बंबई में गुजारा करने। आदमी की नौकरी चली गई है। काम मिल नहीं रहा है, वह ऑटोरिक्शा ढूंढ रहा है और घर में गरीबी है। तो औरत सिलाई का काम शुरू करती है। उसमें उनकी लड़ाई शुरू हो जाती है। बाद में पता चलता है कि ऑटो का परमिट महंगा है और वो सिलाई उसके लिए कर रही है। उन किरदारों के सिलसिले में मेरे दोस्त वासन बाला ने मुझे रत्नाबली के बारे में बताया कि वो कल्कि कोचलिन के साथ अंग्रेजी थिएटर करती हैं। उन्हें हिंदी भी ठीक से नहीं आती है। तो विनीत सिंह जो ‘गैंग्स ऑफ वासेपुर’ में हैं, ‘शोर’ में हैं, उन्होंने रत्नाबली को बनारसी डिक्शन सिखाया। रत्नाबली ने फ़िल्म के लिए अपना पूरा कायपलट किया। साड़ी पहनी, चोटी बांधी, तेल लगाया, बनारसी हिंदी बोली... तो मैं उनसे बहुत प्रभावित हुआ। मैंने कहा कि आपके साथ ही अगली फ़िल्म बनाऊंगा। उनके हस्बैंड सुहास भी एक्टर हैं। उन्होंने ‘तलाश’ में छोटा रोल किया है। उन्होंने बहुत बार साथ काम किया। सुहास ने ‘शोर’ में म्यूजिक किया। तो दोनों एक्टर थे और मुझे सेमी-डॉक्युमेंट्री स्टाइल में शूट करना अच्छा लगाता है इसलिए सोचा कि इस रियल कपल को लिया जाना चाहिए। अम्मा (ज्योति सुभाष) को तो मराठी फ़िल्मों में देखा था। बहुत अच्छी-अच्छी फ़िल्मों में वह काम कर चुकी हैं। उनका काम मुझे बहुत पसंद है। उनका चेहरा ही इतना अच्छा है।

एक ही फ्रेम में देहाती भाषा, परिवेश और कच्चापन लिए अम्मा हैं और वो दोनों शहरी पति-पत्नी। इससे एक अलग ही दृष्टिगत विरोधाभास पैदा होता है, उनकी सोच में भी वो फर्क है?
अम्मा का नजरिया भी वैसा ही है जैसा गांव के लोगों का होता है। जैसे, गांव के लोगों को लगता है कि शहर के लोग बहुत सुखी हैं, उन्हें कोई तकलीफ नहीं है। अब फ़िल्म में उन्हें नहीं पता कि ये दोनों औरत-मर्द तलाकशुदा हैं। एक मौके पर वह कहती भी हैं कि तुम्हारे पास तो सब कुछ है फिर क्यों झगड़ा करते हो। कुछ लोगों का नजरिया होता है कि पैसा ही सब कुछ है। लेकिन वो बूढ़ी अम्मा अपने नजरिए में ज्यादा खुश है। जैसे, फ़िल्म में एक जगह उसे समझ नहीं आता कि दोनों का शुक्रिया अदा कैसे करें तो वह टिफिन में पोहा लाती है और उन्हें खिलाती है।

जो वैचारिक बहस इन पति-पत्नी के बीच चलती रहती है कि एक आदर्शवादी है और दूसरी प्रगतिवादी, उसके रेशे कैसे बुने?
फ़िल्म में इनके बीच दो तरह की बहस होती हैं। पहली हल्कीफुल्की होती है, जैसे “तुम फिश खाती हो”, “सरसों का तेल लगाती हो” या “तुम बटर पनीर मसाला...”। यानी तूतू-मैंमैं वाली फाइट। लेकिन दूसरी गंभीर होती है। जैसे, सुहास उसे यहां तक कह देता है कि “तुम बहुत ही घटिया (घृणित) इंसान हो, तुमने मुझे अपनी बेटी से तीन साल दूर रखा”। अगर आपने पढ़ी हो तो अयान रैंड की एक किताब है ‘फाउंटेनहैड’। उसमें दो आर्किटेक्ट होते हैं। एक हावर्ड रोर्क है जो बहुत आदर्शवादी है। वहीं उसका दोस्त पीटर कीटिंग है जो कहता है कि मैं बिल्डिंग बनाऊंगा क्योंकि पैसे आएंगे और मुझे आगे बढ़ना है। फिलॉसफी के बारे में इन दोस्तों के बीच बहुत बातें होती हैं। इसी तरह मैंने दर्शकों को फ़िल्म के किरदार भी समझाए हैं कि सुहास आदर्शवादी है और रत्नाबली प्रैक्टिकल। वह कहती है कि “मुझे पैसे कमाने हैं क्योंकि अपनी बच्ची की उतनी अच्छी परवरिश करनी है, जितनी मैं चाहती हूं”। इसीलिए सुहास की आदर्शवादी सोच पर चोट करते हुए वह कहती है कि, “वैन इट कम्स टु फैमिली, यू हैव टु वॉक अवे टु बिकम दिस बिग वाइज मैन, मिस्टर हावर्ड रोर्क आहूजा”।

आपने कौन सा कैमरा यूज किया ? और क्रू कितना बड़ा था?
बाकी की फ़िल्में बड़े कैमरे पर शूट हुईं पर मेरी फिल्म का स्पेस छोटा था और डबल कैमरा सेट अप था इसलिए 5डी पर शूट किया। डीओपी (डायरेक्टर ऑफ फोटोग्राफी) संतोष वसंदी का आइडिया था कि हम लोग लैंस से बढ़िया लुक ला सकते हैं। रत्नाबली हालांकि गाड़ी चलाना जानती हैं पर एक नई गाड़ी, ट्रकों से भरे हाइवे पर चलाना मुश्किल था और जब दो कैमरा आपके आगे हों तब और भी। तो क्रू को जरा बड़ा रखा।

Neeraj Ghaywan is a young and an emerging Indian filmmaker. He has an engineering and marketing background which he left behind to persue filmmaking. Since then he has assisted filmmaker Anurag Kashyap on few of his recent projects. He was the script supervisor and assistant director for ‘Gangs of Wasseypur’ and second unit director for the upcoming ‘Ugly’. Before ‘The Epiphany,’ Neeraj had made a wonderful short film called ‘Shor’ (Noise), in 2011. At present he is working on the script of his first full length feature film.
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Saturday, March 23, 2013

60वें राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कारः अनदेखी झांकी

बहुत ही उत्कृष्ट फिल्में बीते साल में हमारे बीच के ही लोगों ने बनाई हैं। अफसोस ये है कि कोई ऐसा ढांचा अभी भी नहीं बना है जो हमें राष्ट्रीय पुरस्कार जीतने वाली "द भारत स्टोर्स" या "थानिचल्लांजन" या "वाजाकुएनन 18/9" या ऐसी अनेकों दूसरी महत्वपूर्ण फिल्में दिखा सके। कैसा सिनेमा बनना चाहिए और कैसा नहीं बन रहा की बहस के बीच हर साल ऐसी फिल्में बन रही हैं जिन्हें कोई देख ही नहीं पा रहा है। राष्ट्रीय पुरस्कारों के जरिए ही सही जिन फिल्मों का जिक्र हुआ है, आइए देखें उनकी प्रतिनिधि छवियां...


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Wednesday, April 25, 2012

"मायापुरी पढ़के अचानक ही नहीं चला आया था बॉम्बे, काम को पॉलिश करके आया था: पित्तोबाश"

पित्तोबाश त्रिपाठी ने राजकुमार हीरानी की फिल्म 'थ्री इडियट्स' में जूनियर स्टूडेंट का छोटा सा रोल किया था, याद करने के लिए शायद डीवीडी फॉरवर्ड करके देखना पड़े। मगर अगले साल उनकी दो ऐसी फिल्में आई जिन्होंने उनका करियर बदल कर रख दिया। पहली थी नील माधव पांडा की 'आई एम कलाम' और दूसरी राज निदिमोरू-कृष्णा डीके द्वारा निर्देशित 'शोर इन द सिटी'। दूसरी फिल्म में मंडूक के रोल के लिए उन्हें 'बेस्ट एक्टर इन अ कॉमिक रोल' के कई अवॉर्ड इस साल मिले। उड़ीसा के पित्तोबाश ने भुवनेश्वर से 12वीं तक की पढ़ाई की। फिर कोलकाता से इंजीनियरिंग करने के बाद पुणे के नामी संस्थान फिल्म एंड टेलीविजन इंस्टिट्यूट ऑफ इंडिया से एक्टिंग में तीन साल का कोर्स किया। मुंबई में आने के छह महीने के भीतर उन्हें 'मिर्च' फिल्म में पहला रोल ऑफर हो गया था। उनकी आने वाली फिल्मों में शिरीष कुंदर की 'जोकर' और दिबाकर बैनर्जी की 'शंघाई' जैसे बड़े नाम हैं। दो दिन पहले ही उन्होंने अपने ड्रीम एक्टर अमिताभ बच्चन के साथ एक हेयर ऑयल की ऐड फिल्म शूट की है। प्रस्तुत हैं मौजूदा वक्त के कुछ बेहद काबिल युवा अभिनेताओं में से एक पित्तोबाश से बातचीत के कुछ अंश, विस्तृत बातों का कारवां भविष्य के गर्भ में कभी आने वाली विस्तृत साक्षात्कारों की श्रंखला में:

स्ट्रग्ल नहीं करना पड़ा?
इस प्रफेशन में असुरक्षाएं तो हमेशा रहेंगी, लेकिन आप आते हो। मैं मायापुरी पढ़के अचानक यूं ही नहीं आ गया था। इंजीनियरिंग पढऩे के साथ पांच साल थियेटर किया कोलकाता में। फिर तीन साल फिल्म ट्रेनिंग, पूना से। अपने काम को अच्छी तरह पॉलिश करके फिर मुंबई आया।

'आई एम कलाम' से लेकर 'शोर इन द सिटी' तक, हर किरदार अलग कैसे बना? अलग कैसे बनता है?
तीन चीज हैं, ऑब्जर्वेशन, इमैजिनेशन, कॉन्सनट्रैशन। आप चीजें ऑब्जर्व करते हो और कल्पना मिलाकर किरदार को एक रूप देते हो। फिर ध्यान केंद्रित करके परफॉर्म करते हो। यह तो मूल चीज हो गई। लेकिन घिसना तो पड़ेगा। उसी चीज को करते-करते आपकी वॉयस ट्रैनिंग होगी, इमैजिनेशन पावर तेज होगी, आप कैरेक्टराइजेशन करना भी समझेंगे।

रोल मिलने और शूटिंग शुरू होने के बीच क्या करते हैं?
मुझे किरदार का 90 फीसदी स्क्रिप्ट से मिलता है। बस पढ़ते रहिए। हर बार किरदार के बारे में नया जानेंगे। उसे जोड़ते रहिए और अपने किरदार का एक स्कैच सा बनाते रहिए। उसके पीछे की कहानी कि वह ऐसा क्यों हो गया है? फिर उसकी बॉडी लेंग्वेज, डायलेक्ट, लुक, एक्सेंट और सोच पर मेहनत होती है।

मैथड एक्टिंग करना और जैसे हो वैसे ही रिएक्ट करके एक्ट करना, इन दोनों शैलियों में फर्क है?
कई तरह की एक्टिंग स्कूल हैं। जैसे माइजनर (अमेरिकी थियेटर कलाकार) की अलग है। स्टैनिस्लावस्की (पहला एक्टिंग सिस्टम इजाद करने वाले) का मैथड भी है। मैं स्टैनिस्लावस्की मैथड फॉलो करता हूं। अभिनय की दुनिया में 90 फीसदी स्वीकार्य तरीका यही होता है। मैं हमेशा क्या करता हूं, कि मान लीजिए पुलिस का रोल मिला। तो मैं ऐसे नहीं सोचता हूं कि खुद पुलिस होता तो क्या करता। मैं सोचता हूं कि एक लाख पुलिस होती है और मैं उनमें से एक हूं तो मैं कैसे व्यवहार करूंगा।

मौजूदा अच्छे एक्टर?
कई हैं। मसलन 'शैतान' में जो लड़के थे, या जो लिक्विड था 'प्यार का पंचनामा' में।

'शोर इन द सिटी' के लिए जब बेस्ट कॉमिक रोल का अवॉर्ड आपको मिला तो शो एंकर कर रहे शाहरुख खान ने क्या कहा?
फंक्शन के बाद उन्होंने कहा कि तेरा नाम बड़ा मुश्किल है यार। पता नहीं मैंने उच्चारण सही किया था कि गलत। मैंने कहा, मुश्किल तो है पर इसीलिए तो आप शाहरुख खान हैं, क्योंकि आपने बिल्कुल सही बोला। उन्होंने बधाई दी और कहा कि तुम्हें सिल्वर स्क्रीन पर और भी ज्यादा देखना चाहता हूं।

कोई एक्टिंग में आना चाहे तो...
घास भी काटते हो तो ट्रेनिंग की जरूरत है। पहले पढ़ाई लिखाई करो, फिर अच्छी ट्रेनिंग लो, फिर आओ। ऐसे ही मुंह उठाकर चले आना गलत बात है। यहां कोई रिटायर नहीं होता। कि 200 सीटें हैं और 100 रिटायर हो गए और खाली हो गईं। मैं जिस दिन बॉम्बे इंडस्ट्री में आया तब भी अमिताभ बच्चन वहां थे, जितने लोग हैं वो सब थे, लेकिन आपको प्रूव करना पड़ेगा कि मैं भी आउंगा।

बिना इंस्टिट्यूट में ट्रेनिंग लिए नहीं आ सकते?
सीखने का मतलब सिर्फ यह नहीं कि इंस्टिट्यूट से ही आएं। कोई 15 साल थियेटर करके आते हैं कोई 10 साल। लेकिन फिल्म में आते हो तो मीडिया की ट्रेनिंग लेनी बहुत जरूरी है। करोड़ों रुपये खर्च होते हैं एक फिल्म में, अब कोई आपको सिखाने के लिए तो वहां बैठा नहीं है। एक शॉट रीटेक होता है आपकी वजह से, तो पांच लोग चिल्लाते हैं।

स्टार्स की औलादों के बारे में लोग कहते हैं कि उन्हें एक्टिंग नहीं आती। आपने तुषार के साथ 'शोर इन..' में काम किया। लगा नहीं कि यार इसे तो एक्टिंग नहीं आती?
अब फ्रेम में मेरा और तुषार दोनों का काम अच्छा था तभी तो उन्हें भी सराहा गया और फिल्म भी अच्छी गई। मैं कोशिश करता हूं कि किसी के साथ काम कर रहा हूं तो उस सीन में हम दोनों बेस्ट करें ताकि सीन अच्छा निकले।

भारत और वल्र्ड सिनेमा में ऐसी फिल्में जो आपको खूब पसंद हैं और लोगों को देखनी चाहिए?
एमेरोस पेरोस, सिटी ऑफ गॉड, बर्थ ऑफ नेशन, चिल्ड्रन ऑफ हैवन, राशोमोन, बाबेल, पल्प फिक्शन, कागज के फूल, गरम हवा, दो बीघा जमीन, मदर इंडिया, आवारा.

निर्देशकों में किसका काम पसंद है?
जॉनर के हिसाब से। थ्रिलर में श्रीराम राघवन इज द बेस्ट। कमाल। इंडियन सिनेमा में अगर आप थ्रिलर की बात करेंगे तो मैं उदाहरण दूंगा 'एक हसीना थी' का। डॉर्क जॉनर में विशाल भारद्वाज हैं। एंटरटेनमेंट और कंटेंट में राजकुमार हीरानी कमाल हैं।
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गजेंद्र सिंह भाटी