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Sunday, August 19, 2012

यूं तोड़ें फिल्में गढ़ने का डरावना कोडः भविष्य के सभी भारतीय पीटर जैक्सनों के लिए एक पत्र...

(कॉलम सीरियसली सिनेमा से)

कुछ जज्बेधारी, फिल्मों को एजुकेशनली देखते हैं। मरने से पहले खुद भी एक-दो फिल्म तो बनाकर ही मरना चाहते हैं। पर इनके सपनों और कहानियों का दम ये सोचते ही घुट जाता है कि बनाने के लिए बड़े कैमरे कहां से लाएंगे? सैंकड़ों लोगों की क्रू को महीनों तक कैसे देखेंगे-भालेंगे? प्रॉड्यूसर भला कौन बनेगा? फिर डिस्ट्रीब्यूटर और पब्लिसिटी के लफड़े। मतलब ऐसे प्रोसेस से कैसे पार पाएंगे? ... लेकिन बहुतों ने बहुतेरे तरीकों से फिल्में बनाकर फिल्ममेकिंग प्रोसेस के डरावने कोड को तोड़ा है।

मूलत: डॉक्युमेंट्री बनाने वाले नील माधव पांडा की फिल्म ‘आई एम कलाम’ की बात करते हैं। उन्होंने शूटिंग बीकानेर के भैंरू विलास में की। यहां एक्सीलेंट साज-ओ-सामान और लुक वाली सैंकड़ों हवेलियां हैं। औसत खर्चे में रुककर शूटिंग कर सकते हैं। लोकल आर्टिस्ट, ऊंटगाड़े और उम्दा लोकसंगीत आसानी से मिल जाते हैं। लोकेशन की बात करें तो यहां रेगिस्तानी लैंडस्केप में कैमरा किधर भी पैन करें एक अच्छा खासा शॉट बन जाता है। राजस्थान समेत देश के बाकी दूसरे राज्यों में भी ऐसी जगहें, म्यूजिक और ऑप्शन हैं। मतलब ये कि कम बजट, लोकेशन चुनने की स्मार्ट चॉयस और सिंपल स्टोरीटेलिंग से एक सार्थक और कमर्शियल फिल्म यूं बन जाती है।

अमेरिका में जितनी भी जॉम्बी (मृत दिमाग वाली चलती-फिरती खूनी लाशें) मूवीज बनी हैं उन्हें देखकर लगता है कि करोड़ों के बजट और बड़े स्टूडियोज की बैकिंग के बगैर ऐसी मूवी नहीं बना सकते। मगर मार्क प्राइस ने 2008 में बनाई। 18 महीनों में बनी 'कॉलिन' को मार्क ने स्टैंडर्ड डैफिनिशन वाले पैनासॉनिक मिनी-डीवी कैमकॉर्डर से शूट किया और एडिटिंग अपने होम पीसी पर की। इसके लिए उन्होंने एडोब प्रीमियर सॉफ्टवेयर इस्तेमाल किया। प्रमोशन के लिए उन्होंने फेसबुक और माइस्पेस का सहारा लिया। सृष्टि का न्याय देखिए, 2009 के कान फिल्म फेस्ट में 45 पाउंड की ‘कॉलिन’ की स्क्रीनिंग 750 लाख पाउंड की थ्रीडी फिल्म ‘अप’ के साथ हो रही थी।

फिल्म में दिखने वाले तकरीबन 100 जॉम्बी कैरेक्टर मार्क के दोस्त हैं और उनके हाथों में दिखते हथियार भी सब अपने-अपने घरों से लाए थे। मेकअप और एनिमेशन के लिए उन्होंने बहुत से ऐसे प्रफेशनल्स को मेल और खत भेजे। मार्क ने लिखा था कि फिल्म के लिए वह मेकअप का सामान और इंस्ट्रूमेंट भी नहीं मुहैया करा सकते। आर्टिस्टों को खुद लाना होगा। बस हर एनिमेटर और मेकअप आर्टिस्ट को अपनी मर्जी का जॉम्बी बनाने की छूट होगी। बदले में उन्हें फिल्म क्रेडिट और अपने पोर्टफोलियो में लगाने के लिए फिल्म की फुटेज मिलेगी।

आकांक्षी फिल्ममेकर्स को राह अब भी मुश्किल लगती है तो रामगोपाल वर्मा की 1999 में आई छोटी सी हॉरर मास्टरपीस ‘कौन’ की मिसाल लेते हैं। मनोज वाजपेयी, उर्मिला और सुशांत सिंह.. मोटा-मोटी बस तीन लोगों की कास्ट थी। कोई गाना भी नहीं था। बस अनुराग कश्यप की तरह आप भी अच्छी स्क्रिप्ट लिख लें और रामगोपाल जैसी स्मार्ट निर्देशकीय समझ लेकर चलें। पिछले साल मार्च में रिलीज हुई अपनी तेलुगू फिल्म ‘डोंगाला मुथा’ में भी रामू ने ये प्रयोग किया था। सिर्फ पांच दिनों में सात लोगों की क्रू के साथ उन्होंने फिल्म बनाई और ये बड़ी हिट रही। इसमें कैनन के हैंड हैल्ड कैमरा यूज हुए थे। मतलब ये भी एक फॉर्मेट है।

चिंता अगर लंबे शेड्यूल की है तो वो भी व्यर्थ है। ऋषिकेश मुखर्जी की राजेश खन्ना, अमिताभ बच्चन को लेकर बनाई कल्ट फिल्म ‘आनंद’ महज 20 दिन में शूट हो गई थी। सनी देओल जैसे बड़े स्टार की ‘मोहल्ला 80’ भी दो महीने के सीधे शेड्यूल में शूट हुई है। कारण रहे, स्क्रिप्ट पर अनुशासित मेहनत, सीधी कहानी और चंद्रप्रकाश द्विवेदी के निर्देशन की स्पष्टता। एक बार राजकुमार हीरानी ने कहा था कि उनकी ‘मुन्नाभाई एमबीबीएस’-‘लगे रहो मुन्नाभाई’ फिल्मों में कोई एक्स्ट्रा रील खर्च नहीं हुई थी। राजू अपने सीन्स पर होमवर्क इतना अच्छे से करते हैं कि एक भी ऐसा सीन शूट नहीं करना पड़ता जिसे एडिटिंग में काटना पड़े। तो ये सबक भी है।

पिछले साल सरताज सिंह पन्नू नाम के युवा ने भी 'सोच लो' जैसी अच्छी फिल्म बनाई थी। शूटिंग जैसलमेर की पथरीली सुंदर लैंडस्केप पर की। चूंकि फिल्म बनानी थी और खुद की कोई ट्रेनिंग नहीं थी इसलिए एक चतुराई बरती। एफटीआईआई के ताजा ग्रेजुएट्स, डायरेक्टर ऑफ फोटोग्रफी और टेक्नीशियंस को हायर किया। प्रॉडक्शन के लिए खुद की कंपनी सन इंटरनेशनल बना डाली। सार्थक दास गुप्ता ने अपनी अच्छी भली लाखों की पैकेज वाली कॉरपोरेट जॉब छोड़ दी और 2009 में 'द ग्रेट इंडियन बटरफ्लाई' बनाई। फिल्म की एब्सट्रैक्ट थीम पति-पत्नी के रिश्ते के इर्द-गिर्द घूमती थी। क्रिटीकली बहुत सराही गई। उनकी भी कोई ट्रेनिंग नहीं थी। पर सपना पूरा कर लिया।

एजुकेशनली फिल्में देखने और उन्हें बनाने के सपने पूरे कर डालने में पीटर जैक्सन (बैड टेस्ट), रॉबर्ट रॉड्रिग्स (अल मारियाची) और ओरेन पेली (पैरानॉर्मल एक्टिविटी) जैसे नाम भी आप फॉलो करेंगे तो बहुत प्रोत्साहित होंगे।

Peter Jackson, seen here, did all the mind blowing gory make-up and art-direction himself in BAD TASTE. 

हर अड़चन अनूठेपन और मौलिकता से दूर करें
  • देश के अंदरुनी इलाकों में शानदार लोकेशंस हैं, जो बेहद सस्ती हैं।
  • स्टैंडर्ड डैफिनिशन के मिनी डीवी कैमकॉर्डर से भी शूट कर सकते हैं।
  • लिट्रेचर या लोककथाओं पर आधारित टाइट स्क्रिप्ट रच सकते हैं। स्क्रिप्ट मजबूत है तो मतलब आधी फिल्म बन गई।
  • म्यूजिक के लिए एमेच्योर बैंड्स या लोक संगीत-गायकों की मदद लें।
  • एफटीआईआई-एनएसडी जैसे संस्थानों के स्टूडेंट्स से मदद ले सकते हैं। अपने दोस्तों या आसपास के जानकार लोगों से एक्टिंग करवा सकते हैं। ईरानी फिल्मों में गैर-पैशेवर एक्टर्स बहुत सफलता से फिट होते हैं।
  • फिल्म का प्रचार करने के लिए सोशल नेटवर्किंग साइट्स का सहारा ले सकते हैं। कई वेब पोर्टल तो पूरी तरह नए युवा फिल्मकारों को प्रमोट करने के जज्बे के साथ ही निशुल्क काम कर रहे हैं, उनसे संपर्क किया जा सकता है। मुख्यधारा के हिंदी और अंग्रेजी अखबारों में भी सिनेमा की बेहतरी और युवा फिल्मकारों की सहायता को आतुर पत्रकार हैं। उनके ब्लॉग, पर्सनल साइट, मेल पर संपर्क कर सकते हैं। मदद मिलेगी ही।
  • बाहर दर्जनों नामी फिल्म फेस्ट होते हैं, वहां अपनी फिल्म की डीवीडी मेल कर सकते हैं, उनसे संपर्क कर सकते हैं, जा सकते हैं। वहां सराहा जाने पर आत्मविश्वास दस-बीस गुना बढ़ जाता है।
अगर फिल्म मनोरंजन के पैमानों पर खरी उतरती है तो वितरकों और बड़े प्रॉड्यूसर्स से संपर्क कर सकते हैं। जैसे लॉर्ड ऑफ द रिंग्स फेम डायरेक्टर पीटर जैक्सन ने अपनी पहली (दोस्तों के साथ ऐसे ही जज्बे के साथ बिना संसाधनों और ट्रेनिंग के बनाई) ही फिल्म बैड टेस्ट (1987) बनाकर किया था। शॉर्ट फिल्म से 90 मिनट की फिल्म में तब्दील होने के बाद इसे न्यूजीलैंड के फिल्म कमीशन की वित्तीय मदद भी मिली। अंततः कान फिल्म समारोह में नजरों में चढ़ी ये फिल्म 12 मुल्कों में प्रदर्शन के लिए खरीद ली गई। 
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गजेंद्र सिंह भाटी

Wednesday, April 25, 2012

"मायापुरी पढ़के अचानक ही नहीं चला आया था बॉम्बे, काम को पॉलिश करके आया था: पित्तोबाश"

पित्तोबाश त्रिपाठी ने राजकुमार हीरानी की फिल्म 'थ्री इडियट्स' में जूनियर स्टूडेंट का छोटा सा रोल किया था, याद करने के लिए शायद डीवीडी फॉरवर्ड करके देखना पड़े। मगर अगले साल उनकी दो ऐसी फिल्में आई जिन्होंने उनका करियर बदल कर रख दिया। पहली थी नील माधव पांडा की 'आई एम कलाम' और दूसरी राज निदिमोरू-कृष्णा डीके द्वारा निर्देशित 'शोर इन द सिटी'। दूसरी फिल्म में मंडूक के रोल के लिए उन्हें 'बेस्ट एक्टर इन अ कॉमिक रोल' के कई अवॉर्ड इस साल मिले। उड़ीसा के पित्तोबाश ने भुवनेश्वर से 12वीं तक की पढ़ाई की। फिर कोलकाता से इंजीनियरिंग करने के बाद पुणे के नामी संस्थान फिल्म एंड टेलीविजन इंस्टिट्यूट ऑफ इंडिया से एक्टिंग में तीन साल का कोर्स किया। मुंबई में आने के छह महीने के भीतर उन्हें 'मिर्च' फिल्म में पहला रोल ऑफर हो गया था। उनकी आने वाली फिल्मों में शिरीष कुंदर की 'जोकर' और दिबाकर बैनर्जी की 'शंघाई' जैसे बड़े नाम हैं। दो दिन पहले ही उन्होंने अपने ड्रीम एक्टर अमिताभ बच्चन के साथ एक हेयर ऑयल की ऐड फिल्म शूट की है। प्रस्तुत हैं मौजूदा वक्त के कुछ बेहद काबिल युवा अभिनेताओं में से एक पित्तोबाश से बातचीत के कुछ अंश, विस्तृत बातों का कारवां भविष्य के गर्भ में कभी आने वाली विस्तृत साक्षात्कारों की श्रंखला में:

स्ट्रग्ल नहीं करना पड़ा?
इस प्रफेशन में असुरक्षाएं तो हमेशा रहेंगी, लेकिन आप आते हो। मैं मायापुरी पढ़के अचानक यूं ही नहीं आ गया था। इंजीनियरिंग पढऩे के साथ पांच साल थियेटर किया कोलकाता में। फिर तीन साल फिल्म ट्रेनिंग, पूना से। अपने काम को अच्छी तरह पॉलिश करके फिर मुंबई आया।

'आई एम कलाम' से लेकर 'शोर इन द सिटी' तक, हर किरदार अलग कैसे बना? अलग कैसे बनता है?
तीन चीज हैं, ऑब्जर्वेशन, इमैजिनेशन, कॉन्सनट्रैशन। आप चीजें ऑब्जर्व करते हो और कल्पना मिलाकर किरदार को एक रूप देते हो। फिर ध्यान केंद्रित करके परफॉर्म करते हो। यह तो मूल चीज हो गई। लेकिन घिसना तो पड़ेगा। उसी चीज को करते-करते आपकी वॉयस ट्रैनिंग होगी, इमैजिनेशन पावर तेज होगी, आप कैरेक्टराइजेशन करना भी समझेंगे।

रोल मिलने और शूटिंग शुरू होने के बीच क्या करते हैं?
मुझे किरदार का 90 फीसदी स्क्रिप्ट से मिलता है। बस पढ़ते रहिए। हर बार किरदार के बारे में नया जानेंगे। उसे जोड़ते रहिए और अपने किरदार का एक स्कैच सा बनाते रहिए। उसके पीछे की कहानी कि वह ऐसा क्यों हो गया है? फिर उसकी बॉडी लेंग्वेज, डायलेक्ट, लुक, एक्सेंट और सोच पर मेहनत होती है।

मैथड एक्टिंग करना और जैसे हो वैसे ही रिएक्ट करके एक्ट करना, इन दोनों शैलियों में फर्क है?
कई तरह की एक्टिंग स्कूल हैं। जैसे माइजनर (अमेरिकी थियेटर कलाकार) की अलग है। स्टैनिस्लावस्की (पहला एक्टिंग सिस्टम इजाद करने वाले) का मैथड भी है। मैं स्टैनिस्लावस्की मैथड फॉलो करता हूं। अभिनय की दुनिया में 90 फीसदी स्वीकार्य तरीका यही होता है। मैं हमेशा क्या करता हूं, कि मान लीजिए पुलिस का रोल मिला। तो मैं ऐसे नहीं सोचता हूं कि खुद पुलिस होता तो क्या करता। मैं सोचता हूं कि एक लाख पुलिस होती है और मैं उनमें से एक हूं तो मैं कैसे व्यवहार करूंगा।

मौजूदा अच्छे एक्टर?
कई हैं। मसलन 'शैतान' में जो लड़के थे, या जो लिक्विड था 'प्यार का पंचनामा' में।

'शोर इन द सिटी' के लिए जब बेस्ट कॉमिक रोल का अवॉर्ड आपको मिला तो शो एंकर कर रहे शाहरुख खान ने क्या कहा?
फंक्शन के बाद उन्होंने कहा कि तेरा नाम बड़ा मुश्किल है यार। पता नहीं मैंने उच्चारण सही किया था कि गलत। मैंने कहा, मुश्किल तो है पर इसीलिए तो आप शाहरुख खान हैं, क्योंकि आपने बिल्कुल सही बोला। उन्होंने बधाई दी और कहा कि तुम्हें सिल्वर स्क्रीन पर और भी ज्यादा देखना चाहता हूं।

कोई एक्टिंग में आना चाहे तो...
घास भी काटते हो तो ट्रेनिंग की जरूरत है। पहले पढ़ाई लिखाई करो, फिर अच्छी ट्रेनिंग लो, फिर आओ। ऐसे ही मुंह उठाकर चले आना गलत बात है। यहां कोई रिटायर नहीं होता। कि 200 सीटें हैं और 100 रिटायर हो गए और खाली हो गईं। मैं जिस दिन बॉम्बे इंडस्ट्री में आया तब भी अमिताभ बच्चन वहां थे, जितने लोग हैं वो सब थे, लेकिन आपको प्रूव करना पड़ेगा कि मैं भी आउंगा।

बिना इंस्टिट्यूट में ट्रेनिंग लिए नहीं आ सकते?
सीखने का मतलब सिर्फ यह नहीं कि इंस्टिट्यूट से ही आएं। कोई 15 साल थियेटर करके आते हैं कोई 10 साल। लेकिन फिल्म में आते हो तो मीडिया की ट्रेनिंग लेनी बहुत जरूरी है। करोड़ों रुपये खर्च होते हैं एक फिल्म में, अब कोई आपको सिखाने के लिए तो वहां बैठा नहीं है। एक शॉट रीटेक होता है आपकी वजह से, तो पांच लोग चिल्लाते हैं।

स्टार्स की औलादों के बारे में लोग कहते हैं कि उन्हें एक्टिंग नहीं आती। आपने तुषार के साथ 'शोर इन..' में काम किया। लगा नहीं कि यार इसे तो एक्टिंग नहीं आती?
अब फ्रेम में मेरा और तुषार दोनों का काम अच्छा था तभी तो उन्हें भी सराहा गया और फिल्म भी अच्छी गई। मैं कोशिश करता हूं कि किसी के साथ काम कर रहा हूं तो उस सीन में हम दोनों बेस्ट करें ताकि सीन अच्छा निकले।

भारत और वल्र्ड सिनेमा में ऐसी फिल्में जो आपको खूब पसंद हैं और लोगों को देखनी चाहिए?
एमेरोस पेरोस, सिटी ऑफ गॉड, बर्थ ऑफ नेशन, चिल्ड्रन ऑफ हैवन, राशोमोन, बाबेल, पल्प फिक्शन, कागज के फूल, गरम हवा, दो बीघा जमीन, मदर इंडिया, आवारा.

निर्देशकों में किसका काम पसंद है?
जॉनर के हिसाब से। थ्रिलर में श्रीराम राघवन इज द बेस्ट। कमाल। इंडियन सिनेमा में अगर आप थ्रिलर की बात करेंगे तो मैं उदाहरण दूंगा 'एक हसीना थी' का। डॉर्क जॉनर में विशाल भारद्वाज हैं। एंटरटेनमेंट और कंटेंट में राजकुमार हीरानी कमाल हैं।
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गजेंद्र सिंह भाटी

Wednesday, January 4, 2012

भला, बुरा, भटका और उल्लेखनीयः सिनेमा वर्ष 2011

वो बारह महीने जो गुजर गए। वो जो अपने पीछे कुछ बड़े परदे के विस्मयकारी अनुभव छोड़ गए। वो जो ऐसे वीडियो पल देकर गए जो हमारे होने का दावा करते हुए भी हमारे लिए न थे। वो जो नुकसान की शुरुआत थे। वो जो धीरज बंधाते थे। वो जो सिनेमैटिकली इतने खूबसूरत थे कि क्या कहें, मगर पूरी तरह सार्थक न थे। वो बारह महीने बहुत कुछ थे। हालांकि मुख्यधारा की बातों में बहुत सी ऐसी क्षेत्रीय फिल्में और ऐसी फिल्में जो फीचर फिल्मों की श्रेणी में नहीं आती है, नहीं आती हैं, यहां भी नहीं है, पर कोशिश रहेगी की आगे हो।

अभी के लिए यहां पढ़ें बीते साल का सिनेमा। कुछ भला, कुछ बुरा, कुछ भटकाव को जाता और कुछ उल्लेखनीय। और भी बहुत कुछ।
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गजेंद्र सिंह भाटी

Saturday, August 6, 2011

मूड नहीं आपकी आपात आवश्यकता है 'आई एम कलाम'

फिल्म: आई एम कलाम
निर्देशक: नील माधव पांडा
कास्ट: हर्ष मायर, गुलशन ग्रोवर, हसन साद, पितोबाश त्रिपाठी, बिएट्रिस, मीना मीर
स्टार: तीन, 3.0

चूंकि मैं खुद बीकानेर मूल का हूं इसलिए फिल्म में भाषा और किरदारों के मारवाड़ी मैनरिज्म में रही बहुत सारी गलतियों को जानता हूं। मगर उन्हें यहां भूलता हूं। डायरेक्टर नील माधव सोशल विषयों पर फिल्में और डॉक्युमेंट्री बनाते हैं। उनकी ये पहली फिल्म बच्चों के लिए काम करने वाले स्माइल फाउंडेशन के बैनर तले बनी है। खासतौर पर बच्चों और हर तबके को समझ आए इसलिए फिल्म बेहद सिंपल रखी गई है। ऐसे में बात करने को दो ही चीजें बचती हैं। एक एंटरटेनमेंट और दूसरा मैसेज। दोनों ही मामलों में फिल्म 80-100 करोड़ में बनने वाली फिल्मों से लाख अच्छी है। धोरों पर बिछे म्यूजिक और दृश्यों को बेहद खूबसूरती से दिखाया गया है। ऐसी फिल्में बनती रहनी चाहिए। एक बार सपरिवार जरूर देखें।

कलाम से मिलिए
अपने धर्ममामा भाटी (गुलशन ग्रोवर) के फाइव स्टार नाम वाले ढाबे पर काम करने लगा है छोटू (हर्ष मायर)। जयपुर रोड़ पर बसे रेतीले डूंगरगढ़ और बीकानेर की लोकेशन है। ढाबे पर बच्चन का बड़ा फैन लिप्टन (पितोबाश त्रिपाठी) भी काम करता है। वह छोटू से जलता है क्योंकि तेजी से फ्रेंच व अंग्रेजी बोलना और भाटी मामा जैसी चाय बनाना सीखकर बाद में आया छोटू सबकी आंखों का तारा बन रहा है। ऊपर से वह पढ़-लिखकर बड़ा आदमी भी बनना चाहता है। पास ही में एक हैरिटेज हवेली है जहां रॉयल फैमिली रहती है और सैलानी भी आकर रुकते हैं। सुबह-सुबह अपनी ऊंटनी पर बैठकर चाय पहुंचाने जाते छोटू (खुद को वह कलाम कहलवाना ज्यादा पसंद करता है) की दोस्ती हवेली के राजकुमार कुंवर रणविजय (हसन साद) से हो जाती है। मगर दोनों की मासूम दोस्ती के बीच ऊंचे-नीचे की खाई है। मगर छोटू के सपने अडिग हैं, उसकी आंखों में भयंकर पॉजिटिविटी है और चेहरे पर हजार वॉट की स्माइल है। बच्चों की शिक्षा और उन्हें सपने देखने देने की सीख के साथ फिल्म खत्म होती है। एक नैतिक शिक्षा की अच्छी कहानी की तरह क्लाइमैक्स करवट बदलता है।

सुंदर निर्मल कोशिश
अपने-अपने बच्चों को हर कोई ये फिल्म आपातकालीन तेजी से दिखाना चाहेगा। इसमें आज के प्रदूषित माहौल का एक भी कार्बन कण नहीं है। अच्छी भाषा और स्वस्थ मोटिवेशन के साथ सिनेमा के आविष्कार को सार्थक करते हुए हम हमारे वक्त की सख्त जरूरत वाली कहानी परदे पर देखते हैं। ओवरऑल आडियंस के साथ खासतौर पर बच्चों के लिए 'चिल्लर पार्टी' के बाद आई दूसरी अच्छी फिल्म है 'आई एम कलाम'।

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इस फिल्म की टेक्नीक और शुद्धता-अशुद्धता पर मुट्ठी भर बातें और हो सकती है। कहां इसकी शूटिंग हुई। वो जगह कैसी है। बीकानेर के जिस भैंरू विलास में फिल्म के बहुत बड़े हिस्से को फिल्माया गया, उसका इतिहास क्या रहा है। कैसे उस हैरिटेज हवेली की अपनी एक शेक्सपीयर के नाटकों सी तबीयत वाली कहानी है। वो ढाबा असल में कैसे डूंगरगढ़ रोड़ पर बना है। उस ऊंटनी के मालिक का क्या नाम है। उस ऊंटगाड़ी में बैठे ढोली का नाम क्या है। कैसे फिल्म की स्टारकास्ट के कपड़ों पर बहुत कुछ कहा जा सकता है। कैसे एक उड़ीसा मूल का फिल्म डायरेक्टर मारवाड़ की पृष्ठभूमि, उसकी रेत, उसके भाषाई रंगों, वहां के कल्चर में छिपी सत्कार की शैली और लोगों को अपने तरीके से एक दो घंटे की फिल्म में दिखाता है। कैसे उसके इस परसेप्शन को दुनिया भर के लोग 'आई एम कलाम' देखने के बाद अपना सच बना लेते हैं। चूंकि फिल्म का संदेश पवित्र है इसलिए ये सब बातें और तकनीकियां बाद में भी देखी-भाली जा सकती हैं।

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गजेंद्र सिंह भाटी