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Saturday, July 13, 2013

मेरा प्रोसेस बस इतना है कि पहले कुछ सोचता हूं और जब किसी चीज के प्रति एक्साइटेड होने लगता हूं तो अपने आप एक अनुशासन आ जाता हैः रितेश बत्रा

 Q & A. .Ritesh Batra, film director (Dabba/The Lunchbox).
 
Irfan Khan, in a Still from 'Dabba' (The Lunchbox).
‘डब्बा’ या ‘द लंचबॉक्स’ के बारे में सुना है?
… झलक देखें यहां, यहां भी

इस साल कान अंतरराष्ट्रीय फ़िल्म महोत्सव-2013 में इस फ़िल्म को बड़ी सराहना मिली है। वहां इसे क्रिटिक्स वीक में दिखाया गया। रॉटरडैम अंतरराष्ट्रीय फ़िल्म महोत्सव के सिनेमार्ट-2012 में इसे ऑनरेबल जूरी मेंशन दिया गया। मुंबई और न्यू यॉर्क में रहने वाले फ़िल्म लेखक और निर्देशक रितेश बत्रा की ये पहली फीचर फ़िल्म है। उन्होंने इससे पहले तीन पुरस्कृत लघु फ़िल्में बनाईं हैं। ये हैं ‘द मॉर्निंग रिचुअल’, ‘ग़रीब नवाज की टैक्सी’ और ‘कैफे रेग्युलर, कायरो’। दो को साक्षात्कार के अंत में देख सकते हैं। 2009 में उनकी फ़िल्म पटकथा ‘द स्टोरी ऑफ राम’ को सनडांस राइटर्स एंड डायरेक्टर्स लैब में चुना गया। उन्हें सनडांस टाइम वॉर्नर स्टोरीटेलिंग फैलो और एननबर्ग फैलो बनने का गौरव हासिल हुआ।

अब तक दुनिया की 27 टैरेटरी में प्रदर्शन के लिए खरीदी जा चुकी ‘डब्बा’ का निर्माण 15 भारतीय और विदेशी निर्माणकर्ताओं ने मिलकर किया है। भारत से सिख्या एंटरटेनमेंट, डीएआर मोशन पिक्चर्स और नेशनल फ़िल्म डिवेलपमेंट कॉरपोरेशन (एनएफडीसी) और बाहर एएसएपी फिल्म्स (फ्रांस), रोहफ़िल्म (जर्मनी), ऑस्कर जीत चुके फ़िल्मकार दानिस तानोविक व फ्रांस सरकार ने इसमें वित्त लगाया है। ‘पैरानॉर्मल एक्टिविटी-2’ (2010) में सिनेमैटोग्राफर रह चुके माइकल सिमोन्स ने ‘डब्बा’ का छायांकन किया है।

कहानी बेहद सरल और महीन है। ईला (निमरत कौर) एक मध्यमवर्गीय गृहिणी है। भावहीन पति के दिल तक पेट के रस्ते पहुंचने की कोशिश में वह खास लंच बनाकर भेजती है। पर होता ये है कि वो डब्बा पहुंचता है साजन फर्नांडिस (इरफान खान) के पास। साजन विधुर है, क्लेम्स डिपार्टमेंट में काम करता है, रिटायर होने वाला है। मुंबई ने और जिंदगी ने उससे सपने और अपने छीने हैं इसलिए वह जीवन से ही ख़फा सा है। अपनी जमीन पर खेलते बच्चों को भगाता रहता है और शून्य में रहता है। जब ईला जानती है कि डब्बा पति के पास नहीं पहुंचा तो वह अगले दिन खाली डब्बे में एक पर्ची लिखकर भेजती है। जवाब आता है। यहां से ईला और साजन अपने भावों का भार लिख-लिख कर उतारते हैं। इन दोनों के अलावा कहानी में असलम शेख़ (नवाजुद्दीन सिद्दीकी) भी है। वह खुशमिजाज और ढेरों सपने देखने वाला बंदा है। रिटायर होने के बाद साजन फर्नांडिस की जगह लेने वाला है इसलिए उनसे काम सीख रहा है।

‘डब्बा’ हमारे दौर की ऐसी फ़िल्म है जिसे तमाम महाकाय फ़िल्मों के बीच पूरे महत्व के साथ खींचकर देखा जाना चाहिए। अंतरराष्ट्रीय निर्माताओं के साथ भागीदारी के लिहाज से ‘डब्बा’ नई शुरुआत है। उच्च गुणवत्ता वाली एक बेहद सरल स्क्रिप्ट होने के लिहाज से भी ये विशेष है। भारतीय फीचर फ़िल्मों के प्रति विश्व के नजरिए को बदलने में जो कोशिश बीते एक-दो साल में कुछ फ़िल्मों ने की है, उसे रितेश की ‘डब्बा’ मीलों आगे ले जाएगी। पूरे विश्व सहित फ़िल्म भारत में भी जल्द ही प्रदर्शित होगी। जब भी हो जरूर देखें, अन्यथा आज नहीं तो 15-20 साल बाद, देरी से, खोजेंगे जरूर।

रितेश बत्रा से तुरत-फुरत में बातचीत हुई। बीते दिनों में जितने भी फ़िल्म विधा के लोगों से बातचीत हुई है उनमें ये पहले ऐसे रहे जिनका पूरा का पूरा ध्यान स्क्रिप्ट पर रहता है, फ़िल्म तकनीक पर या भारतीय, गैर-भारतीय फ़िल्मकारों की शैली के उन पर असर पर आता भी है तो बहुत बाद में, अन्यथा नहीं आता। प्रस्तुत हैः

फैमिली कहां से है आपकी? आपका जन्म कहां हुआ?
बॉम्बे में ही पैदा हुआ हूं, यहीं बड़ा हुआ हूं। मेरे फादर मर्चेंट नेवी में थे, मां योग टीचर हैं। बांद्रा में रहता हूं। बंटवारे के वक्त लाहौर, मुल्तान से मेरे दादा-दादी और नाना-नानी आए थे।

फ़िल्मों की सबसे पहली यादें बचपन की सी हैं? कौन सी देखी? लगा था कि फ़िल्मकार बनेंगे?
फ़िल्मों में काम करने की कोई संभावना नहीं थी। फ़िल्में अच्छी लगती थीं, लिखना अच्छा लगता था। लेकिन आपको पता है कि 80 और 90 के दशक में भारत में फ़िल्मों में आगे बढ़ने और रोजगार बनाने की कोई संभावना कहां होती थी। पर जो भी आती थी देखते थे। गुरु दत्त की फ़िल्में बहुत अच्छी लगती थीं। ‘प्यासा’ हुई, ‘कागज के फूल’ हुई, उनका मजबूत प्रभाव था। वर्ल्ड सिनेमा की तो कोई जानकारी थी ही नहीं बड़े होते वक्त। हॉलीवुड फ़िल्में जो भी बॉम्बे में आती और लगती थीं, वो देखते थे। जब 19 साल का था तब भारत से बाहर पहली बार गया, इकोनॉमिक्स पढ़ने। वहां जाकर पहली बार सत्यजीत रे की फ़िल्में देखीं तो उनका बड़ा असर था। वैसे कोई इतना एक्सपोजर नहीं था यार ईमानदारी से। जो भी हिदीं फ़िल्म और इंग्लिश फ़िल्म आती वो देखते थे।

बचपन में क्या लिखने-पढ़ने का शौक था? उनके स्त्रोत क्या थे आपके पास?
बहुत ही ज्यादा पढ़ता था मैं। आप ‘लंच बॉक्स’ में भी देखेंगे तो साहित्य का असर नजर आएगा। मैं बचपन से ही बहुत आकर्षित था मैजिक रियलिज़्म से, लैटिन अमेरिकन लेखकों से, रूसी लेखकों से। मेरी साहित्य में ज्यादा रुचि थी और मूवीज में कम। अभी भी वैसा ही है, पढ़ता ज्यादा हूं और मूवीज कम ही देखता हूं।

जब छोटे थे तो घर पर क्या कोई कहानियां सुनाता था?
सुनाते तो नहीं थे पर मेरे नाना लखनऊ के एक अख़बार पायोनियर में कॉलम लिखते थे। वो बहुत पढ़ते थे और मुझे भी पढ़ने के हिसाब से कहानियां या नॉवेल सुझाते थे। पढ़ने को वो बहुत प्रोत्साहित करते थे।

स्कूल में आपके लंचबॉक्स में आमतौर पर क्या हुआ करता था?
हा हा हा। मेरे तो यार घर का खाना ही हुआ करता था। थोड़ा स्पाइसी होता था। चूंकि मेरी मदर बहुत स्पाइसी खाना बनाती हैं इसलिए मेरे लंच बॉक्स में से क्या है कि कोई खाता नहीं था। सब्जियां, परांठे और घर पर बनने वाला नॉर्मल पंजाबी खाना होता था। पर मिर्ची ज्यादा होती थी।

साहित्य और क्लासिक्स पढ़ते थे? क्या साथ में कॉमिक्स और पॉपुलर लिट्रेचर भी पढ़ते थे?
कॉमिक्स में तो कोई रुचि नहीं थी कभी भी, अभी भी नहीं है।

Ritesh Batra
घरवालों के क्या कुछ अलग सपने थे आपको लेकर? या वो भी खुश थे आपके फ़िल्ममेकर बनने के फैसले को लेकर?
उन्हें तो मैंने बहुत देर से बताया था। पहले तो मैंने तीन साल इकोनॉमिक्स पढ़ा। बिजनेस कंसल्टेंट था डिलॉयट के साथ। मैंने बाकायदा नौकरी की थी। बाद में वह नौकरी छोड़कर जब फ़िल्म स्कूल गया तब उन्हें बताया। जाहिर तौर पर उनके लिए तो बहुत बड़ा झटका था। उन्होंने सोचा नहीं था कि मैं ऐसा कुछ करूंगा।

कब तय किया कि फ़िल्में ही बनानी हैं?
मैं 25-26 का था तब तय किया कि मुझे कुछ करना पड़ेगा मूवीज में ही। तब मुझे राइटर बनना था। फ़िल्म राइटर बनना था। मुझे पता था कि जब तक पूरी तरह इनवेस्ट नहीं हो जाऊंगा, नहीं होगा। बाकी सारे दरवाजे बंद करने पड़ेंगे। उसके लिए एक ही रास्ता बचा था कि जॉब छोड़कर फ़िल्म स्कूल जॉइन कर लूं। न्यू यॉर्क यूनिवर्सिटी के टिश स्कूल ऑफ आर्ट्स फ़िल्म प्रोग्रैम में दाखिला लिया। पांच साल की पढ़ाई थी और बड़ा सघन और डूबकर पढ़ने वाला प्रोग्रैम था। उसे सिर्फ डेढ़ साल किया। सेकेंड ईयर में था तब एक स्क्रिप्ट मैंने लिखी थी जो सनडांस लैब (2009) में चुन ली गई। ये संस्थान बहुत पुराना है। स्टीवन सोडरबर्ग और क्वेंटिन टेरेंटीनों जैसे नामी फ़िल्मकारों की स्क्रिप्ट भी इस लैब से ही गई थी। तो राइटर्स लैब और डायरेक्टर्स लैब दोनों में चुन ली गई मेरी स्क्रिप्ट। इसमें टाइम लग रहा था और पढ़ाई करिकुलम बेस्ड हो रही थी तो मैंने फ़िल्म स्कूल छोड़ दिया। शॉर्ट फ़िल्में बनाने लगा।

यूं नौकरी छोड़ देने से और पढ़ने लगने से पैसे की दिक्कत नहीं हुई?
मेरी सेविंग काफी थी। तीन साल काम किया हुआ था, उस दौरान काफी पैसे बचाए थे। फिर फ़िल्म स्कूल भी तो एक-डेढ़ साल में ही छोड़ने का फैसला कर लिया था, इससे आगे की फीस पर खर्च नहीं करना पड़ा। मेरी वाइफ मैक्सिकन है। वो बहुत प्रोत्साहित करती थी। पेरेंट्स भी प्रोत्साहित करते कि लिखो। कहते थे कि जॉब होनी जरूरी है, फैमिली का ख़्याल रखना जरूरी है। अवसरों के लिहाज से लगता था कि जॉब नहीं छोड़ी होती तो इतने कमा रहा होता, इतना कम्फर्टेबल होता, या ट्रैवल कर पा रहा होता। तो वो सब नहीं कर पा रहा था लेकिन खाने और रहने के पैसे थे।

फ़िल्म स्कूल से निकलने के बाद शॉर्ट फ़िल्म और डॉक्युमेंट्री से कुछ-कुछ कमाने लगे थे या अभी भी आपको वित्तीय तौर पर स्थापित होना है?
नहीं यार, ये शॉर्ट फ़िल्म वगैरह बनाने में तो कोई कमाई नहीं होती। बस सनडैंस लैब का ठप्पा लग गया था तो मुझे बहुत सी मीटिंग लोगों से साथ मिलने लगी। तो मौके थे, टीवी (न्यू यॉर्क में) के लिए लिखने के, लेकिन मैंने वो सब किया नहीं क्योंकि मुझे मूवीज में ही रुचि थी। रास्ते से भटक जाता तो वापस पैसों के पीछे या किसी और चीज के पीछे भागने लगता। इसलिए तय किया कि शॉर्ट्स बनाऊंगा और अपनी लेखनी पर ध्यान केंद्रित करूंगा। तो ऐसी कोई कमाई नहीं हो रही थी, सिर्फ तीन-चार साल पहले मैंने एक शॉर्ट फ़िल्म बनाई थी, ‘कैफै रेग्युलर कायरो’ (Café Regular, Cairo)। उस शॉर्ट से मेरी कमाई हुई, उसे फ्रैंच-जर्मन ब्रॉडकास्टर्स ने खरीद लिया। तो उससे अर्निंग हुई, वैसे इतने साल कोई कमाई नहीं हुई।

पहली बार कब कैमरा हाथ में लिया और शूट करना शुरू किया?
फ़िल्म स्कूल के लिए 2005-06 में अप्लाई किया तो एप्लिकेशन के लिए एक शॉर्ट बनाई। तब पहली बार कुछ डायरेक्ट किया था। उसके बाद मैंने पांच और शॉर्ट बनाईं। एक फ़िल्म स्कूल में रहकर बनाई और चार स्कूल छोड़ने के बाद बनाईं।

न्यू यॉर्क यूनिवर्सिटी में फ़िल्म स्कूल वाले दिन कितने रचनात्मक और कितने तृप्त करने वाले थे?
काफी फुलफिलिंग थे। गहन (इंटेंस) थे। लेकिन राइटिंग करने का टाइम मिल नहीं रहा था और मेरे लिए सबसे जरूरी था कि लिखता रहूं और बेहतर लिखता रहूं। इसलिए मुझे जमा नहीं और छोड़ दिया। दूसरा बहुत ही महंगा भी था।

सनडांस का और फ़िल्मराइटिंग का आपको अनुभव है, तो बाकी राइटर्स या आकांक्षी लेखकों को काम की बातें बताना चाहेंगे?
सबसे बड़ी टिप तो मैं यही दूंगा कि किसी की सलाह नहीं सुनने की। क्योंकि हरेक का अपना प्रोसेस होता है, हरेक की अपनी जरूरत होती है और हरेक की अपनी मजबूती होती है। बहुत से डायरेक्टर्स की विजुअल सेंस बहुत मजबूत होती है, रिच होती है, कैरेक्टर डिवेलपमेंट के लिहाज से या राइटिंग के लिहाज से वे कुछ खास नहीं कर पाते। वहीं दूसरी ओर वूडी एलन जैसे भी फ़िल्म डायरेक्टर होते हैं जो सिर्फ ग्रेट राइटर हैं इसलिए लोग उनकी फ़िल्म देखने जाते हैं। तो बंदा खुद ही जानता है कि उसकी मजबूती क्या है, वह किस बात में खास है। उसे अपनी कमजोरी और मजबूती देखनी चाहिए। किसी की सलाह नहीं लेनी चाहिए। उसे ईमानदारी से सोचना चाहिए कि मेरे में क्या कमी है और मैं क्या बेहतर कर सकता हूं।

आपकी स्टोरीराइटिंग कैसे होती है? प्रोसेस क्या होता है?
मुझे तो यार लिखने में बहुत टाइम लगता है। ऐसा कोई प्रोसेस नहीं है कि पहले कुछ आइडिया आए फिर उस पर कुछ रिसर्च करना शुरू करें, वो वर्ल्ड से या कैरेक्टर बेस्ड हो। मुझे लगता है ये सब अंदर से आना चाहिए। मेरा प्रोसेस बस इतना है कि पहले मैं कुछ सोचता हूं। जब किसी चीज के प्रति एक्साइटेड होने लगता हूं तो अपने आप एक अनुशासन आ जाता है कि सुबह उठकर 8 से 11 या 8 से 12 या 8 से 2 बजे तक बैठकर लिखना है। तो इस तरह कहानी के एक खास स्तर तक पहुंचते ही अपने आप राइटिंग का डिसिप्लिन आ जाता है। मेरा राइटिंग प्रोसेस काफी लंबा होता है, महीने या साल लग जाते हैं।

‘डब्बा’ बुनियादी तौर पर बेहद सीधी फ़िल्म है, लेकिन फिर भी ये इतनी बड़ी हो सकती थी, क्या आपने लिखते वक्त सोचा था?
मुझे लगा कि लोगों को अच्छी लगेगी, इतनी अच्छी लगेगी नहीं सोचा था। अवॉर्ड मिलेंगे ये नहीं सोचा था। तब तो यही लगा कि अच्छी कहानी होगी और इसकी अच्छी शेल्फ लाइफ होगी और उसके बाद मुझे दूसरी फ़िल्में मिल जाएंगी। ये नहीं सोचा था कि इतने कम वक्त में इतना कुछ हो जाएगा।

शूट कितने दिन का था और कहां किया?
29 दिन का प्रिंसिपल शूट था फिर बाकी छह दिन हमने डिब्बे वालों को फॉलो किया था डॉक्युमेंट्री स्टाइल में। पूरी स्टोरी बॉम्बे में ही स्थित है और शूटिंग वहीं हुई सारी।

इरफान का किरदार जिस दफ्तर में काम करता है वो कहां है?
चर्चगेट में है, रेलवे का दफ्तर है।

Irfan and Nawaj, in a still from the movie.
इरफान और नवाज को पहले से जानते थे या फ़िल्म के सिलसिले में ही मुलाकात हुई?
नहीं, पहले से तो मैं किसी को नहीं जानता था। प्रोड्यूसर्स के जरिए उनसे संपर्क किया। उन्हें स्क्रिप्ट दी तो अच्छी लगी। एक बार मिला, उन्होंने हां बोल दिया। शूट से पहले तो बहुत बार मिले। कैरेक्टर्स डिस्कस किया। बाकी जान-पहचान शूटिंग के दौरान ही हुई।

इन दोनों में क्या खास बात लगी आपको?
दोनों ही इतने अच्छे एक्टर्स हैं, केंद्रित हैं, किरदार को अपना हिस्सा मानने लगते हैं, पर्सनली इनवॉल्व्ड हो जाते हैं। जो मैंने लिखा उसे दोनों ने और भी गहराई दे दी। उनके साथ काम करना तो बड़ी खुशी थी। मैंने बहुत सीखा उनसे।

सेट पर उनके होने की ऊर्जा महसूस होती थी?
वैसे दोनों ही बहुत रेग्युलर और विनम्र हैं। सेट पर तो काम पर ही ध्यान देते थे हम लोग। बातें करते थे कि कैसे और बेहतर बनाएं फ़िल्म को, कैसे जो मटीरियल हमारा है उसमें और गहराई में जाएं। हम लोग नई-नई चीजें ट्राई करते थे, विचार करते थे। उनके कद का कोई प्रैशर नहीं महसूस हुआ। उन्होंने भी कभी फील नहीं करने दिया कि वे इतने सक्सेसफुल हैं। मैंने कभी सोचा ही नहीं कि वो इतने फोकस्ड होंगे। लेकिन मुझे लगता है आप सही हैं, अब फ़िल्म के बाद जब सोचता हूं तो लगता है।

आप खाना अच्छा बनाते हैं। फ़िल्म में जो डिश नजर आती हैं वो आपने पकाई थीं?
नहीं नहीं, मैंने नहीं बनाई थीं। सेट पर एक पूरी टीम थी फूड स्टाइलिस्ट्स की। क्योंकि खाना अच्छा दिखना बहुत जरूरी था। बहुत सारे लोग इन्वॉल्व्ड थे हरेक शॉट के पीछे। हमारे पास बहुत अच्छे फूड स्टाइलिस्ट थे जो खाने का ध्यान रख रहे थे।

फ़िल्म के विजुअल्स को लेकर आपके और डीओपी (Michael Simmonds) के बीच क्या डिस्कशन होते थे?
दो महीने पहले से विचार-विमर्श चल रहा था। वो तभी न्यू यॉर्क से बॉम्बे आए थे। स्क्रिप्ट को टुकड़ों में तोड़ा था, हर लोकेशन के मल्टीपल प्लैन थे और पूरा शूटिंग प्लैन बनाया था। प्री-प्रोडक्शन मूवी का छह महीने पहले शुरू कर दिया था। फ़िल्म के किरदार मीना की कहानी उसके फ्लैट के अंदर ही चलती है। वो फ्लैट हमने शूट के चार महीने पहले देखा और तय कर लिया था। हम वहां रोज बैठते थे, चीजें डिस्कस करते थे। उसकी शूटिंग पहले कर ली। हरेक डिपार्टमेंट के साथ, प्रोडक्शन डिजाइनर के साथ, डीओपी के साथ, कॉस्ट्यूम्स के साथ तैयारी बहुत ज्यादा थी।

आप दोनों का विजुअल्स को लेकर विज़न क्या था?
चूंकि मूवी कैरेक्टर ड्रिवन है और मुंबई व फूड इसके महत्वपूर्ण कैरेक्टर हैं, तो मेरा सबसे बड़ा एजेंडा था स्क्रिप्ट को ब्रेकडाउन करना और डीओपी को मेरा निर्देश था कि किरदारों के साथ ज्यादा से ज्यादा बिताना है। उससे जरूरी चीजें कुछ न थी। फूड के अलग-अलग शॉट्स लेने या बॉम्बे के मादक शॉट्स लेने से ज्यादा जरूरी ये था। हम रात के 12-12 बजे तक कैरेक्टर्स के साथ वक्त बिताते थे।

फ़िल्म के म्यूजिक के बारे में बताएं।
ज्यादा है नहीं म्यूजिक तो। गाने हैं नहीं, बैकग्राउंड स्कोर भी बहुत सीमित है। साउंड डिजाइन का अहम रोल है। वो कैरेक्टर की यात्रा दिखाता है। इसके लिए मुख्यतः सिटी का साउंड और एनवायर्नमेंट का साउंड रखा गया है। मेरी बाकी मूवीज में भी ऐसे ही सोचा और किया है। डब्बा में 14 क्यू (cues – different part/pieces of soundtrack ) हैं और म्यूजिक बहुत ही अच्छा है। इसे जर्मन कंपोजर हैं मैक्स रिक्टर ने रचा है।

‘द स्टोरी ऑफ राम’ के बारे में बताएं।
एक स्क्रिप्ट है जिस पर मैं काम कर रहा हूं और ‘डब्बा’ के बाद उसी पर लौटना चाहूंगा। ये बहुत पहले से (2009) दिमाग में है, चूंकि मेरा राइटिंग प्रोसेस बहुत स्लो और थकाऊ है तो वक्त लगता है। इस पर अभी क्या बताऊं। जब हो जाएगी तब बताता हूं।

‘कैफे रेग्युलर कायरो’...
ये एक शॉर्ट फ़िल्म है जो मैंने कायरो में बनाई थी। उसके लिए मैंने कायरो में बहुत सारा वक्त बिताया। ‘लंचबॉक्स’ भी मैंने कायरो में ही लिखी थी।

“The Morning Ritual” – Watch here:

“Café Regular, Cairo” – Watch here:


Ritesh Batra was born and raised in Mumbai, and is now based in Mumbai and New York with his wife Claudia and baby girl Aisha. His feature script 'The Story of Ram' was part of the Sundance Screenwriters and Directors labs in 2009. His short films have been exhibited at many international film festivals and fine arts venues. His Arab language short 'Café Regular, Cairo', screened at over 40 international film festivals and won 12 awards. Café Regular was acquired by Franco-German broadcaster, Arte. His debut feature 'The Lunchbox' (English, Hindi) starring Irrfan Khan, Nawazuddin Siddique, and Nimrat Kaur, was shot on location in Mumbai in2012. 'The Lunchbox' premiered at the Semaine De La Critique (International Critics Week) at the 2013 Cannes International Film Festival to rave reviews. It won the Grand Rail d'Or Award and was acquired by Sony Pictures Classics.
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Wednesday, June 27, 2012

अनुराग के पास लेखकों की लाइन लंबी थी मुझमें धैर्य नहीं था, गाना लिखने वालों की लाइन छोटी थी, उसमें आ गया

गैंग्स ऑफ वासेपुर के गाने लिखने वाले कुशल गीतकार वरुण ग्रोवर से बातचीत
 गर्मियों की छुट्टियां हैं और एक साल बाद वरुण के माता-पिता उनसे मिलने मुंबई आए हैं। इस बार उनका बेटा स्टैंड अप कॉमेडी वाले टीवी शोज में सटायर लिखने वाला राइटर भर नहीं है, अब वह 'गैंग्स ऑफ वासेपुर’ जैसी बड़ी हिंदी मूवी के दिनों-दिन हिट हो रहे गानों को लिखने वाला गीतकार हो चुका है। ‘भूस के ढेर में राई का दाना’, ‘ओ वुमनिया’, ‘जिया हो बिहार के लाला’ और ‘आई एम अ हंटर’ उन्होंने ही लिखे हैं। जब उनसे बात होती है तो वह बताते हैं कि उनकी आने वाली फिल्मों में वासन बाला की ‘पेडलर्स’ और आशीष शुक्ला की ‘प्राग’ है, जिनके गाने भी उन्होंने लिखे हैं। कामगारी जिदंगी के इस सफल शुरुआती पड़ाव में उनसे ये बातचीत, इस उम्मीद के साथ की आगे भी बहुत बार बातचीत होगी।

लालन-पालन से लेकर मुंबई आने तक, कैसे?
देहरादून में पांचवीं क्लास तक पढ़ा। फिर लखनऊ 12वीं तक। वहीं पर एक साल कोचिंग की। उसके बाद बनारस हिंदू यूनिवर्सिटी में इंजीनियरिंग की पढ़ाई की। फिर पूना (पुणे) में जॉब लग गई। 2004 में बॉम्बे (मुंबई) आ गया। यहां रहते हुए लिखने का काम कर रहा हूं तब से। यहां राइटर बनने ही आया था। संक्षेप में तो यही यात्रा रही।

कब ये लगा कि जोखिम लेकर मुंबई जा सकता हूं, ये या वो कर सकता हूं?
बचपन से ही पढ़ने-लिखने का शौक था। बीएचयू में थियेटर का अच्छा माहौल था। फैकल्टी भी थी। कैंपस में, हॉस्टल में रहने से तरह-तरह की परफॉर्मिंग आट्र्स को देखने का मौका मिला। वहां इंटर यूनिवर्सिटी फेस्ट भी होता है, देश भर का टेलेंट थियेटर से आता है, तो वो किस्मत से मिला। उसी से विश्वास आया। 2002 में मेरा नाटक युनिवर्सिटी लेवल पर और उसके बाद यूथ फेस्ट में चुना गया, ईस्ट जोन में गोल्ड जीता, उससे लगा कि इसे थोड़ा आगे ले जाया जा सकता है। लगा, चल सकते हैं बॉम्बे।

मुंबई आने के बाद?
2004 में कुछ खास था नहीं मुंबई में। 2005 में अच्छा टीवी शो मिल गया था, ‘ग्रेट इंड़ियन कॉमेडी शो’। बड़े और अच्छे लोगों की टीम मिली। रणवीर शौरी और विनय पाठक जैसे कई अच्छे एक्टर उसमें थे। सटायर लिखने का मुझे शौक था ही। इसमें स्टैंड अप कॉमेडी लिखने को मिलती थी। अच्छा शो था। एक्सपोजर मिला। तब से गाड़ी पटरी पर आई।

फिर?
टीवी पर पिछले आठ साल में जितने भी सटायर वाले शो आए, उसका हिस्सा रहा। ‘रणवीर विनय और कौन’ था। आज तक पर आने वाला ‘ऐसी की तैसी’ था, जो आठ महीने चला। इसमें रोजाना की न्यूज पर जोक होते थे। फिर ‘कॉमेडी का मुकाबला’, शुरू में उसमें स्टैंड अप का कंटेंट ज्यादा था, उसमें राजू श्रीवास्तव और राजीव निगम थे, अब तो बिगड़ गया है। फिर ‘जय हिंद’ ऑनलाइन है। कलर्स पर लेट ऩाइट शो आता है। जीटीवी और सब टीवी पर भी थे, जो चले भी नहीं और किसी को याद भी नहीं होंगे। फिर ‘जॉनी आला रे’ आया, जॉनी लीवर का, वो चला नहीं। फिर ‘ओए इट्स फ्राइडे’ फरहान अख्तर के साथ, उसमें लिखता था। फिर एक बच्चों की फिल्म थी ‘जोर लगाके हय्या’ वो लिखी। कोई स्टार भी नहीं था और सीरियस इश्यू पर थी तो चली नहीं। साथ में फिल्मों की स्क्रिप्ट भी लिखता रहा। पता नहीं था कि यहां हो पाएगा कि नहीं, यहां तो कई साल वैसे भी बीत जाते हैं।

अनुराग कश्यप से कैसे जुड़े? ‘दैट गर्ल इन यैलो बूट्स’ में एक गाना आपने लिखा था।
‘...यैलो बूट्स’ में एक कबीर का भजन म्यूजिक डायरेक्टर ने यूज किया वो तो मैंने नहीं लिखा। एक गाना था ‘लड़खड़ाया’ 20-25 सैकेंड का, वो मैंने लिखा था। अनुराग एक छोटी फिल्म बना रहे थे 12 दिन में शूट करके, 20-25 लाख में बनने वाली थी। मैं पहले भी मिलता रहा था कि गाने लिखने वाला चाहिए हो तो... क्योंकि लेखक के तौर पर लंबी लाइन उनके पास है, दूसरा वो खुद भी लिखते हैं तो यहां मौका मिलने में एक लंबा इंतजार था, मुझमें शायद इतना पेशेंस नहीं था, लिरिक्स राइटर की लाइन उनके पास छोटी थी तो मैं पहुंच गया। उन्होंने कहा, ठीक है लिखो, गाने तो हैं नहीं, एक छोटा सा गाना है। उसी दौरान ‘गैंग्स ऑफ वासेपुर’ की तैयारी शुरू हो गई। ऑफिस में बात चल रही थी। मैंने कहा, उसमें भी मौका दो। उन्होंने कहा कि म्यूजिक डायरेक्शन स्नेहा कर रही है तो उससे मिल लो, कुछ बनाकर दिखाओ। अच्छा लगा तो लेंगे। तो मैंने ‘भूस के ढेर में राई का दाना’ लिखा। उन्हें पसंद आया और ले लिया।

क्या माहौल था इस गाने के लिए?
सटायर है, पॉलिटिकल मीनिंग वाला गाना है, ऐसे वक्त में आता है जब इमरजेंसी खत्म हुई है। कैदी लोगों ने जेल में बैठ मंडली बनाई है और गा रहे हैं। एक दिमाग में था कि ‘तीसरी कसम’ वाले सॉन्ग ‘पिंजरे वाली मुनिया’ की तरह कुछ बनाएं। कुछ टेढ़ा हो। जेल का था तो थोड़ा पॉलिटिकल हालत देश की बताने की कोशिश थी कि देश में हर आदमी हताश हो गया है, कि नेहरु जी ने वादा किया था जो 1947 में देश की जनता के साथ, वो बेकार हो गया। तभी गाने में हर लाइन के बाद कहा जाता है ‘ना मिलिहे...’। उसमें आसानी से स्पेल आउट नहीं किया गया है, पर फिल्म देखें तो ऊपर लिखकर आता है। इंस्पिरेशन ‘तीसरी कसम’ था, इसलिए मॉडर्न साउंड वगैरह भी नहीं हैं।

वुमनिया कैसे लिखा गया और बना?
ये शब्द स्नेहा ने दिया। हम कोई शादी का गाना बनाना चाह रहे थे। तीन जेनरेशन है फिल्म में तो शादियों के दो गाने बनाने थे, एक पार्ट वन में एक पार्ट टू में। रिसर्च किया कि शादियों में वहां गाने कैसे होते हैं? किस लेवल का मजाक और बदतमीजी होती है? उसी दौरान स्नेहा के जेहन में ‘वुमनिया’ शब्द आया क्योंकि छेड़छाड़ वाला गाना है। शुरू में मुझे लगा कि सही नहीं है, पर लिखना शुरू किया तो इस शब्द में से ही बहुत सी इंस्पिरेशन निकलकर आई। वुमनिया है तो उसे डिस्क्राइब करने के लिए मॉडर्न शब्द भी जोड़े और देहाती भी। जब लिखना पूरा हुआ... म्यूजिक के बिना लिखा था, फ्री फ्लो में, फिर उसे कंपोज किया गया। उस वजह से तीन अलग फेज में गाना बना। कंपोज करने के बाद मीटर के हिसाब से लाइनें कम लगीं तो मैंने जोड़ा। फिर वो पूरा हुआ। पूरा बनने के बाद लगा कि ऑड नहीं है। क्योंकि मुझे कुछ लोग मिले हैं जो कहते हैं कि सही नहीं है गाना, बिहार के लिंगो के हिसाब से सही प्रयोग नहीं है। पर मुझे लगता है कि ऐसे ही भाषा में नए शब्द आते हैं। अगर भाषा में नहीं तो कम से कम गाने में तो आ ही सकते हैं।

आई एम अ हंटर...
करेबियन गई थी स्नेहा, वेस्टइंडीज। रिसर्च के लिए। उसे पता था कि माइग्रेंट हैं जो 1850 के आसपास यूपी और बिहार से गए थे। उसने वो म्यूजिक सुना हुआ था चटनी म्यूजिक, भोजपुरी और करेबियन इंस्ट्रूमेंट और शब्दों से बना हुआ। वह गई कि क्या पता वहां कोई बुजुर्ग सिंगर मिल जाए, ऐसा गाने वाला। गई तो वहां उन्हें वेदेश सुकू मिले। बिहारी ऑरिजन के हैं, पर हैं वेस्टइंडियन। हिंदी बोलते भी हैं तो अपने एक्सेंट में। वो कुछ अश्लील से गाया करते थे। स्नेहा ने उनके पुराने गाने भी सुने, कुछ एक-दो सॉन्ग थे। फिल्म में बंदूकें बहुत हैं इसलिए एक बंदूक का गाना भी चाहिए था। तो बना। पर लोगों को लगा कि कुछ हिंदी भी हो जाए तो ठीक है। हिंदी मैंने लिखा और अंग्रेजी वेदेश सुकू ने। मुझे तो आज तक भी कुछ वर्ड समझ नहीं आते अंग्रेजी के, क्योंकि एक्सेंट भी वैसा है। मुझे लिखने से पहले लगा कि अश्लील नहीं लगना चाहिए। तो 'हम हैं शिकारी, पॉकेट में लंबी गन, ढांय से जो छूटे, तन-मन होवे मगन’ लिखा। मेरे लिए सबसे आसान गाना था।

जिया हो बिहार के लाला...
स्नेहा हर बड़े जिले में घूमी। वहां का फोक म्यूजिक सुनकर आई। मैथिली, अंगिका, मगही, बजिका... चारों भाषाओं में रिकॉर्ड करके लाई, बहुत सारा सामान था हमने घंटों बैठकर सुना। फ्रेज, शब्द, सेंस सब निकाले। उसी में से ‘जिया हो बिहार के लाला, जिया तू हजार साला, तनी नाची के तनी गाई के, तनी नाची गाई सबका मन बहलावा रे भईया...’ ये इतना हमें मिल गया था। नौटंकी मुकाबलों में सिंगर आते हैं स्टेज पर और गाते रहते हैं रियाज के तौर पर 20-20 मिनट, तो हमें लगा कि इसे ही लेना चाहिए। इस गाने को हमने आगे बढ़ाया।

कितनी खुशी है, जिस तरह के संतोष भरे काम का बरसों इंतजार रहता है, आप उसका हिस्सा हैं?
बहुत ज्यादा खुशी है, इतना ज्यादा अच्छा प्रोजेक्ट मिलना क्योंकि ‘...यैलो बूट्स’ में एक ही गाना था। ‘गैंग्स...’ एक फोक प्रोजेक्ट था। इसमें सब के सब गाने इतने अलग हैं। फिर स्नेहा जैसी म्यूजिक डायरेक्टर का होना, जो एसी स्टूडियो में बैठकर काम करना पसंद नहीं करती है। पूरी फिल्म में पीयूष मिश्रा, अमित त्रिवेदी, स्नेहा और मनोज तिवारी के अलावा कोई ऐसा सिंगर नहीं था जिसने पहले कभी स्टूडियो भी देखा हो। सब नए सिंगर थे, फोक थे, जमीन से जुड़े थे। रिजल्ट भी नजर आ रहा है। अनुराग कश्यप खुद इतना ज्यादा फ्रीडम देते हैं, नहीं तो उनके लिए श्रेया घोषाल या सोनू निगम से गाने गवाकर बेच पाना बड़ा आसान होता, म्यूजिक कंपनियां भी राजी होतीं। यहां वो डर रही थीं, कि क्या गाने हैं, मनोज तिवारी को भी उस अंचल में ही लोग जानते हैं, लेकिन अनुराग अपने फैसले पर अड़े रहे। बस एक गाने में हम अटके थे। अनुराग ने कहा था कि बड़ा सिंगर ले लो, पर स्नेहा ने कहा कि नहीं। ‘भूस के ढेर में के लिए...’ जैसे आठ बार गवाया गया अलग-अलग लोगों से, ढूंढते-ढूंढते कि कोई थोड़ा गा दे फिर देखें। फिर आखिर में दिल्ली में मिले टीपू।

घरवालों को घबराहट नहीं हुई कि मुंबई में राइटर बनने जा रह है?
घर से बड़ा सपोर्ट मिला। पापा-मम्मी ने एक बार भी नहीं कहा कि जॉब क्यों छोड़ी। पापा को भी बचपन से शौक है फिल्मों का। उन्होंने जिदंगी भर सरकारी काम किया है तो जानते हैं कि बोर होता है सरकारी काम। खुशी-खुशी सपोर्ट किया।

बाहर बैठकर फिल्मों पर लिखना, उनकी आलोचना करना और बाद में फिल्म के भीतर होने पर उनपर कोई भी बात आलोचनात्मक ढंग से कह पाना कितना आसान रह जाता है?
आसान नहीं रहता। पर कोशिश रहती है कि कुछ तो कहूं। जैसे ‘...यैलो बूट्स’ आई। हमने घंटा अवॉर्ड्स में फिल्म को नॉमिनेट भी किया था। अनुराग पर मैंने ही जोक भी किए थे। तो इतनी फ्रीडम तो होनी ही चाहिए। मेरे पास अलग-अलग मंच भी हैं जहां से मैं बोल सकूं। कोशिश है कि सटायर करता रहूं।

टीवी पर, ट्रेलर्स में, दोस्तों के बीच... जब अपने लिखने गाने आने लगते हैं, तो कुछ आभास होता है सेलेब्रिटी राइटर होने का?
इंडस्ट्री में मुझे नहीं लगता कि राइटर्स की जिदंगी कभी सुधरती है। वो सेलेब्रिटी नहीं होते। पचास साल में सिर्फ जावेद अख्तर और गुलजार ही हुए हैं, अब प्रसून जोशी हैं। वो ही स्टार हो पाए हैं। बाकी राइटर्स को कोई स्टार नहीं मानता। मैंने बहुत कम मीडिया में देखा है, सिर्फ प्रॉड्यूसर्स के ही इंटरव्यू आ रहे होते हैं। ये राइटर्स के लिए सुकून वाली बात है। हां स्कूल के दोस्तों के फोन आऩे लगे हैं। कि ये तू ही है क्या।

कान और दूसरे फिल्म फेस्ट में दर्शकों ने ‘गैंग्स...’ जैसी फिल्म को कैसे लिया होगा? क्यों चुना होगा? जिसके गाने हिंदी अंचल के हैं, जिनका कोई आइडिया उन दर्शकों को नहीं है, जिसमें ह्यूमर और हाव-भाव समझना विदेशी दर्शकों के लिए इतना आसान भी नहीं।
लोग बाहर के कल्चर को जानने को उत्सुक रहते हैं, इंटरनेट का युग आने के बाद से। वो जानना चाहते हैं और आसानी से स्वीकार भी करते हैं। उनमें जो ‘वासेपुर...’ देखने आए तो जानबूझकर आए। कान जैसे फिल्म फेस्ट में एक-एक घंटा कीमती होता है। हमें भी वहां बुकलेट मिलती है तो प्रेफरेंस ऑफ ऑर्डर में टिक करते हैं कि पूरे दिन क्या देखना है। गूगल करके देख लेते हैं कि कौन है, उसने पहले क्या फिल्म बनाई है। तो जो लोग ‘...वासेपुर’ देखने आए तो वो अनुराग को जानते होंगे, या गैंगस्टर ड्रामा देखने आए होंगे। आपको उनको चौंकाना है तो लिमिट तक ही, यानी कि उम्मीद से जरा ज्यादा। उस वजह से अच्छा रहा। मैंने ये केलकुलेशन पहले नहीं की थी तो सरप्राइज हुआ कि विदेशी लोग हिंदुस्तानी फिल्म के लिए तालियां बजा रहे हैं। मुंबई में पले-बढ़े लड़के को बोलें ‘...वासेपुर’, तो वो नहीं देखेगा पर इंडिया से बाहर के आदमी के लिए भोजपुर और इंडिया का भेद नहीं होता। वो एक ही मुल्क की फिल्म मानते हैं। ओपन माइंड से देखते हैं। यहां के लोग नुक्स बहुत निकालेंगे कि बिहारी ऐसा होता है, नहीं होता है। लोग जजमेंटल होते हैं। बाहर नॉन-जजमेंटल व्यू मिला। अनुराग की फिल्मों को वैसा व्यू मिलता रहता है। वो कुछ कहती हैं।

पर ‘जिया हो बिहार के लाला’ जैसे गानों को कोई विदेशी उनकी पूरी देशज समझ में कैसे देख पाया होगा?
इस फिल्म में बहुत ही वेस्टर्न सेंसेबिलिटी के हिसाब से गाने बने हैं। वो फिल्म के एटमॉसफेयर का हिस्सा हैं, माहौल बनाते हैं, पंद्रह-बीस सेकेंड तक लाउड होते हैं, फिर चले जाते हैं पीछे बजते रहते हैं, वैसे ही जैसे बाहरी फिल्मों में होता है कि गाना और म्यूजिक मूड बनाता है। यहां भी गाने बहुत हद तक वैसे ही यूज हुए हैं। दूसरा, नीचे सबटाइटल होते हैं, जैसे हमने इनारितू की देखी थी ‘एमेरोस पेरोस’ जिसमें नीचे सबटाइटल में पोएट्री आती है, तो उसे मैं बड़े चाव से देखता हूं। मैं फिल्म बार-बार लगाकर देखता ही उस पोएट्री की वजह से हूं, बाद में बंद कर देता हूं। और गाने की पोएट्री की भाषा ज्यादा यूनिवर्सल होती है। इस फिल्म में ऐसा है तो ये नई चीज है और लोगों को पसंद आए। लास्ट में ‘जिया तू बिहार के लाला’ आया तो कान में लोग काफी देर तक खड़े होकर, नीचे लिखकर आ रही पोएट्री भी पढ़ते रहे, ढूंढते रहे।

अनुराग के नाम, या गैंग्स जैसे टाइटल, या ऑफबीट इंडियन फिल्म, या इंडियन टैरेंटीनो... ऐसी अटकियों की वजह से क्या ऐसा तो नहीं हुआ होगा कि वहां दर्शकों ने फिल्म देखने से पहले ही उसे इतनी दिव्यता अपने मन में दे दी कि देखना शुरू करने के बाद हर सेकेंड को आलोचनात्मक नजर से नहीं भक्त की नजर से देखा होगा। मसलन, इनारितू को या कोरियाई किम की डूक को ले लें। उन्हें उनके मुल्क के दर्शकों ने उतना सम्मान नहीं दिया जितना कल्ट रुतबा बाहर के दर्शकों ने दिया?
इस पर मैंने ज्यादा नहीं सोचा है पर हां, हो सकता है इस फिल्म के साथ हुआ होगा। एक ये भी वजह है कि फिल्म की हर लेयर को हम नहीं जानते हैं, तो उसे ज्यादा भक्ति या रेवरेंस के साथ देखते हैं। जैसे हम इनारितू की फिल्म को देखते हैं तो वो हमारी फिल्म को देखते हैं। ये जायज भी है।
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गजेंद्र सिंह भाटी