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Thursday, May 15, 2014

मैं बहुत घूमता हूं, घूमना आपकी दृष्टि (vision) खोल देता है, इससे आपकी सूचना को सोखने की क्षमता बढ़ जाती है, आप दूसरों से ज्यादा देख पाते होः सिद्धार्थ दीवान

 Q & A. .Siddharth Diwan, Cinematographer Titli, Haramkhor, Peddlers, Queen.

Siddharth Diwan
‘तितली’ इस साल की सबसे प्रभावपूर्ण फ़िल्मों में से है। इसका निर्देशन कनु बहल और छायांकन सिद्धार्थ दीवान ने किया है। दोनों ही सत्यजीत रे फ़िल्म एवं टेलीविजन संस्थान से पढ़े हैं। फ़िल्म का पहला ट्रेलर इनके साथ पूरी टीम की नई दृष्टि से कहानी कहने की कोशिश दर्शाता है। इस विस्तृत बातचीत में सिद्धार्थ ने बताया है कि कैमरे के लिहाज से फ़िल्म को लेकर उनके विचार क्या थे। अपनी दिल्ली को उन्होंने अभूतपूर्व तरीके से क़ैद किया है। फ़िल्म मौजूदा कान फ़िल्म महोत्सव में गई हुई है। आने वाले महीनों में रिलीज होगी। सिद्धार्थ इसके अलावा श्लोक शर्मा की पहली फीचर फ़िल्म ‘हरामख़ोर’ का छायांकन भी कर चुके हैं, जो बहुत ही संभावनाओं भरी फ़िल्म है। ये कुछ वक्त से तैयार है लेकिन दर्शकों के बीच पहुंचने में वक्त लग रहा है। 2012 में आई वासन वाला की उम्दा फ़िल्म ‘पैडलर्स’ का छायांकन सिद्धार्थ ने किया था और उनकी अगली फ़िल्म ‘साइड हीरो’ का भी संभवतः वे ही करेंगे। हाल ही में विकास बहल की ‘क्वीन’ के एक बड़े हिस्से की सिनेमैटोग्राफी सिद्धार्थ ने ही की थी। इसके अलावा वे ‘द लंचबॉक्स’, ‘कहानी’ और माइकल विंटरबॉटम की ‘तृष्णा’ जैसी फ़िल्मों के छायांकनकर्ताओं में रह चुके हैं। उन्होंने ‘द लंचबॉक्स’ फेम रितेश बत्रा की लघु फ़िल्म ‘मास्टरशेफ’ (2014) भी शूट की है।

चार बरस की उम्र से फ़िल्मों की दीवानगी पाल लेने वाले सिद्धार्थ दिल्ली से स्कूल-कॉलेज की पढ़ाई के बाद कुछ साल मुंबई में अलग-अलग स्तरों पर वीडियोग्राफी और कैमरा वर्क से जुड़े रहे। काम की अधिकता के बीच उन्होंने कोलकाता के सत्यजीत रे फ़िल्म संस्थान से पढ़ने का मन बनाया। यहां से उनका रास्ता और केंद्रित हो गया। धीरे-धीरे वे उस मुकाम पर पहुंचे जहां देश के कुशल और भावी फ़िल्मकारों के साथ वे काम कर रहे हैं। न सिर्फ वे निर्देशकों के विचारों को शक्ल दे रहे हैं, बल्कि अपने अभिनव प्रयोग और सिनेमाई समझ भी उसमें जोड़ रहे हैं। उनके आगे के प्रोजेक्ट भी उत्साहजनक होने वाले हैं। प्रस्तुत है उनसे हुई ये बातचीतः

आपके छायांकन वाली ‘क्वीन’ को काफी सराहा गया है और ‘तितली’ को लेकर भी शुरुआती प्रतिक्रियाएं काफी अच्छी हैं। आपके पास क्या फीडबैक आ रहा है?
 रिएक्शन अच्छे आ रहे हैं। अभी तो ‘तितली’ सलेक्ट (कान फ़िल्म फेस्ट-2014 की ‘अं सर्ते रिगा’ श्रेणी में) हुई ही है। जब पहला प्रदर्शन होगा, आलोचक देखेंगे, लोग देखेंगे, तब पता चलेगा कि वे कैसे रिएक्ट करते हैं। पिछले से पिछले साल जब मेरी फ़िल्म ‘पैडलर्स’ चुनी गई थी तब भी उत्साह हुआ था। होता है क्योंकि पहला कदम था। लेकिन थोड़ा वक्त गुजरने के बाद जब पहली स्क्रीनिंग का मौका आता है तो वो तय करता है कि लोगों को कैसी लग रही है। अंतत: जनता ही मायने रखती है। तो देखते हैं। पर हां, ‘तितली’ के लिए एक अच्छी शुरुआत है। एक छोटी फ़िल्म है। बहुत मुश्किलों में, कम बजट में बनाई है। कनु के लिए भी अच्छा है, उसकी पहली फ़िल्म है।

पहली स्क्रीनिंग तो मायने रखती है लेकिन आपने भी इतनी फ़िल्में देखी हैं और ‘तितली’ को बनाते वक्त इतना अंदाजा तो होगा ही कि जो फ़िल्म बना रहे हैं उसमें ये खास बात है। ‘कान’ में चुने जाने से भी एक संकेत तो मिलता ही है। जब आप शूट कर रहे थे तो ऐसे क्या तत्व आपने इसमें पाए जो इसे 2014 के सबसे अच्छे सिनेमाई अनुभवों में से एक बना सकते हैं?
वो तो मैंने शुरू में स्क्रिप्ट पढ़ी तभी पता था। फ़िल्म की ही इसलिए कि स्क्रिप्ट बहुत अच्छी थी। नहीं तो शायद करता भी नहीं। जब मुझे कनु मिला तो शुरू में जो एक नर्वसनेस होती है पहली बार कि क्या फ़िल्म होगी? क्या है? लेकिन मैंने स्क्रिप्ट पढ़ी तो मुझे कनु का विश्व दर्शन (world view) पता चला। ये फ़िल्म एक पितृसत्ता के बारे में है। समाज के दबाए गए तबके के बारे में है। ये पूरी तरह आदमी की दुनिया है। आपको बड़ी मुश्किल से फ़िल्म में औरतें नजर आएंगी। जब मैंने स्क्रिप्ट पढ़ी तभी फ़िल्म की दुनिया से काफी प्रभावित हुआ। कुछ ऐसा जो हमारे बीच विद्यमान है और बहुत अंधेरे भरा है।

In a scene from Titli; Ranvir Shorey, Shashank Arora and Amit Sial
लेंस की नजर से आपने फ़िल्म को कैसे कैप्चर किया है? उसमें क्या कुछ ऐसे प्रयोग किए हैं जो आश्चर्यचकित करेंगे?
कैमरा के लिहाज से बहुत छुपी हुई है ‘तितली’। आपको कैमरा के होने का अहसास होगा ही नहीं। कैमरा का क्राफ्ट नहीं दिखेगा। हमने बहुत अलग तरह के या अंतरंगी शॉट लेने या एंगल बनाने की कोशिश नहीं की है। पूरा विचार ही कैमरा के पीछे ये था कि पता ही न चले, काफी छुपा रहे। ठीक उसी वक्त, जो हमने फॉर्मेट चुना, कैमरा चुने, लेंस चुने, वो उस दुनिया को बड़ा करने (enhance) के लिए। क्योंकि हम ऐसे इलाकों में शूट कर रहे थे... मतलब मैं दिल्ली में पला-बढ़ा हूं और हमने जिस तरह की जगहों पर शूट किया वो मैंने खुद कभी नहीं देखी थीं। जैसे हमने बहुत सारी फ़िल्म संगम विहार में शूट की है। हमने दिल्ली की किसी भी उस जगह को नहीं लिया जो हर दिल्ली वाली फ़िल्म में दिखाई जाती है। मतलब ये दिल्ली-6 वाली दिल्ली नहीं है जहां पर किसी भी वक्त रोड पर 5000 लोग हैं, रिक्शा है, नियॉन लाइट्स हैं। ऐसा कुछ नहीं है। बहुत खाली स्पेसेज़ हैं और ये शून्य भरी जगहें विद्यमान हैं। दिल्ली की सबसे पॉश जगह के पीछे ही संगम विहार है जो अवैध कॉलोनी है। ऐसे घर हैं जो झोंपड़ियों और शहरी मकानों के बीच का संक्रमण लगते हैं। यही वो जगह है जहां से हमारे सिक्योरिटी गार्ड्स, पेट्रोल भरने वाले लोग और हाउस हेल्प आते हैं। वो यहीं पर रहते हैं। मतलब ये वो लोग हैं जो हमारे लिए दरवाजे खोलते हैं। तो ‘तितली’ में जो दुनिया दिखाई गई है वो काफी अलग है। विज़ुअली, कैमरा के लिहाज से हमने पहले न देखी गई दिल्ली दिखाने की कोशिश की है। हमारा विचार ही यही था कि वो दिल्ली दिखाएं जो सिनेमाई तौर पर एक्सप्लोर नहीं हुई है। इसलिए मैंने शूटिंग के लिए ‘सुपर 16’ (Super 16mm camera) को चुना। हमने उसके लिए बहुत सारे टेस्ट किए थे। हर ओर से बहुत दबाव है कि डिजिटल होना चाहिए, डिजिटल होना चाहिए, जबकि मैं हमेशा से बहुत मजबूती से इसके उलट सोचता रहा हूं। मैंने पहले ‘पैडलर्स’ डिजिटल पर की थी, पर ‘तितली’ के लिए ‘सुपर 16’ को चुना क्योंकि इस कहानी में हम सबसे ठोस टैक्सचर वाले लोगों को दिखा रहे हैं और मैं आश्वस्त था कि 16एमएम इस टैक्सचर को और बढ़ा देगा। इसे लेकर शुरू में हम लोग बहुत दुविधा में थे। ऐसे में मुंबई में हम ठीक वैसे इलाकों में गए जो संगम विहार जैसे थे। वहां मैंने डिजिटल और 16एमएम का तुलनात्मक टेस्ट किया। फिर इसे डायरेक्टर को दिखाया और उसके बाद हर कोई ये बात मान गया कि 16एमएम इस फ़िल्म का फॉर्मेट होगा। बाकी फ़िल्म में कैमरा दृश्यों को अति-नाटकीय बनाने की कोशिश नहीं करता बल्कि सहज रूप से कैप्चर करता है।

‘16एमएम’ के अलावा कैमरा और लेंस कौन से इस्तेमाल किए?
इसमें हमें पहले से पता था कि पूरी फ़िल्म हैंड हैल्ड होने वाली है। तो 16एमएम था। उसके भी पीछे कारण था कि छोटा कैमरा है, हल्का है। हमने ऐरी 416 (Arriflex 416) भी इस्तेमाल किया। वो कैमरा डिजाइन ही हैंड हेल्ड के लिए किया गया है। इसका आकार ही ऐसा है कि आपके कंधे पर फिट हो जाता है और शरीर का हिस्सा बन जाता है। उसके साथ हमने अल्ट्रा 16 (Ultra 16mm) लेंस इस्तेमाल किए।

श्लोक शर्मा की फ़िल्म ‘हरामख़ोर’ का भी काफी वक्त से इंतजार हो रहा है जिसमें सिनेमैटोग्राफी आपने ही की है। उसे बने हुए ही संभवत: एक साल हो चुका है। उसके निर्माण के दौरान के अनुभव क्या रहे?
उसका शूट गुजरात में किया था हमने, अहमदाबाद में। वो काफी अच्छी फ़िल्म है। मुझे पता नहीं अभी तक क्यों फ़िल्म रिलीज नहीं हो रही है, बहुत ही अच्छी फ़िल्म है। नवाज भाई (नवाजुद्दीन सिद्दीकी) इसके मुख्य कलाकारों में से हैं। मुझे लगता है कि ये ऐसी फ़िल्म है जिसका हक बनता है फ़िल्म महोत्सवों की यात्रा करना। इसे भी लोग देखेंगे तभी जान पाएंगे। ये कोई आम नाच-गाने वाली फ़िल्म नहीं है। उसमें कमर्शियल एलिमेंट्स नहीं हैं। बावजूद इसके काफी एंगेजिंग फ़िल्म है। मुझे लगता है लोग इसे जरूर देखेंगे, एंटरटेनिंग भी है। वो भी विज़ुअली हमने जैसे एक्सप्लोर की है, बहुत रोचक है।

और इसके छायांकन के साथ आप कैसे आगे बढ़े?
‘हरामख़ोर’ में थोड़ी अलग अप्रोच थी। ये पूरी तरह इम्प्रोवाइज्ड फ़िल्म थी। हम लोगों ने 15 दिन में शूट की थी। इसमें दो मुख्य किरदार, जिनके जरिए फ़िल्म चल रही है, बच्चे हैं। ज्यादा से ज्यादा 12 साल के हैं। हमारा बहुत ही इम्प्रोवाइज्ड अप्रोच था जिसमें हमने एक्टर्स को कभी कुछ बोला नहीं क्योंकि हमें पता था कि ये लोग कुछ भी स्वतः स्फूर्त कर सकते हैं। कोई रिहर्सल नहीं होती थी। कुछ ऐसा नहीं होता था कि उनको बोला जाए, तुम यहां से यहां से यहां जाना, यहां से ये करना। हम उनको सीन समझाते थे और छोड़ देते थे। फिर मैं कंधे पर कैमरा लेता, उनका पीछा करता और जो भी हो रहा होता था उसे कैप्चर करता था। ये चीजों का करने का तकरीबन-तकरीबन सेमी-ड्रॉक्युमेंट्री नुमा अंदाज था। बहुत अलग तरह का फिल्मांकन रहा ये। इसमें मेरा काम काफी स्वाभाविक (instinctive) था। मैं लाइट्स वगैरह भी ऐसे जमा रहा था कि बच्चे यहां-वहां जा सकें, उपकरणों की वजह से उनकी एनर्जी कम नहीं करना चाहता था। और श्लोक भी ऐसा है। वो भी काफी ऊर्जा भरा है और अपनी एनर्जी स्क्रीन पर लाना चाहता था। मेरी लाइटिंग और लेंस इसीलिए ऐसे होते हैं कि उस एनर्जी को कैप्चर करते हैं। ‘हरामख़ोर’ में यही हमारी अप्रोच थी।

आपने अपनी शैली का जिक्र किया तो मुझे कुछ ऐसी फ़िल्में याद आती हैं जिनमें काफी लंबे दृश्य रहे। उनमें कैमरा पुरुषों को काफी चुनौतियों का सामना करना पड़ा। जैसे, टोनी जा की फ़िल्म ‘टॉम-यम-गूंग’ (Tom-Yum-Goong, 2005) है जिसमें एक काफी लंबा दृश्य है जिसमें वो पांच-छह मंजिला ईमारत की सीढ़ियों पर घूम-घूम पर स्टंट करते हैं, शत्रुओं को पीटते हैं। उसके लिए फ़िल्म के जो पहले सिनेमैटोग्राफर थे वो टोनी के स्टैमिना की बराबरी नहीं कर पा रहे थे तो उनके स्थान पर किसी और को लाया गया और उसने ये पूरा सीन उतनी ही तत्परता किया। यानी चुनौती का ये स्तर आप लोगों को रहता है?
जी, रहता है। उस वक्त आपको बहुत ही तत्पर और जागरूक रहना होता है। जो अभी आप उदाहरण दे रहे हो, वो बहुत ही कोरियोग्राफ्ड सीन है जिसमें उन्होंने शायद दस दिन तो इसके बारे में सोचा होगा कि यहां से वहां कैरेक्टर जाएगा, कैमरा यहां होगा, वो उसे ऐसे फेंकेगा। लेकिन ‘हरामख़ोर’ में फर्क ये था कि इसमें हमने कोई कोरियोग्राफी डिजाइन नहीं की थी। हम नहीं चाहते थे कि कोई डिजाइन अतिक्रमण करे। क्योंकि हमारी हमेशा कोशिश रहती है कि कुछ भी डिजाइन किया हुआ न लगे। दर्शक को महसूस होना चाहिए कि जो बस सीधा कैप्चर किया गया है। तो हमारा भी तरीका मुश्किल भरा था ही, क्योंकि पता नहीं था वे लोग कहां जाएंगे? कब तक जाएंगे? कई बार टेक्स 10-10 मिनट तक चलते रहते थे। लेकिन ठीक उसी वक्त वो बहुत स्वाभाविक था क्योंकि आपको नहीं पता वो कब क्या करेंगे? इस तरह मेरा काम ज्यादा स्वाभाविक (instinctive) और सहज (intuitive) हो गया। लेंस भी जो मैंने चुने, उस हिसाब से कि कैरेक्टर कितना दूर खड़ा होगा? कहां से लाइट आएगी? ये सब ऐसी चीजें थीं जो मैंने अपने अनुभव और इनट्यूशन से कैलक्युलेट की।

अब तक आपने जितनी भी फ़िल्में की हैं, उनमें कौन सी ऐसी है जिसकी पूरी कोरियोग्राफी आपने की?
‘पैडलर्स’, ‘हरामख़ोर’ और ‘तितली’ मैंने पूरी शूट की। उसके बाद ‘क्वीन’ मैंने आधी शूट की। ‘द लंचबॉक्स’ के काफी हिस्से मैंने शूट किए। ‘कहानी’ में थोड़े से हिस्से किए। एक माइकल विंटरबॉटम की फ़िल्म है ‘तृष्णा’ (2011), उसके कुछ हिस्से किए।

एक सिनेमैटोग्राफर के तौर पर क्या ‘क्वीन’ आपको एक नया अनुभव देने वाली फ़िल्म रही? कि बॉबी बेदी ने काफी फ़िल्म शूट कर ली थी फिर उनका देहांत हो गया। उसके बाद अब उसे कहां से शुरू करना है? कैसे पढ़ना है? जो पहले के विजुअल्स हैं उन्हें कैसे जारी रखना है? दृश्यों का रंग क्या होगा? किसी अन्य छायांकनकार के सामने ऐसी चुनौतियां आती हैं तो उसे अपनी योजना के चरण क्या रखने चाहिए?
मुझे इतनी अलग परिस्थितियों का पता नहीं लेकिन ‘क्वीन’ के हालात मेरे लिए थोड़े आसान रहे। इतना लगा नहीं कि जटिल है टेक ओवर करना। एक चीज थी कि बॉबी ने जो पार्ट शूट किए थे, वो बिलकुल अलग थे। ‘क्वीन’ ऐसी फ़िल्म है कि जब शुरू होती है तो टोन, टैक्सचर और इमोशन के मामले में बिलकुल अलग फ़िल्म है। पर जैसे ही वो (कंगना) हनीमून के लिए निकलती है तो फ़िल्म का स्टाइल बिलुकल ही अलग हो जाता है। वो मेरे लिए एक फायदा हो गया। मैं जब फ़िल्म से जुड़ा तो मुझे बॉबी के किसी काम की नकल नहीं करनी पड़ी। मेरे को विकास ने बोला कि वो वैसे भी बॉबी को बोलने वाले थे कि इससे ठीक पहले उन्होंने एमस्टर्डम-पैरिस के हिस्से शूट किए थे, उन्हें भूल जाएं, ताकि दिल्ली वाले भाग को नई तरह से देख सके। जब मैं आया तो मैंने पहले क्या शूट हुआ है ये नहीं देखा था। मुझे विकास ने विकल्प दिया था कि “क्या तुम देखना चाहते हो बॉबी ने अब तक क्या फिल्माया है?” साथ ही उसने ये भी कहा कि “मैं राय दूंगा कि तू वो सब न देख। अंतिम मर्जी तेरी है। पर तू नहीं देखेगा तो ज्यादा बेहतर है क्योंकि मैं नहीं चाहता कि स्टाइल वैसा ही हो”। तो मैंने इसलिए वो हिस्से देखे ही नहीं। मैंने स्क्रिप्ट पढ़ी और अपना खुद का विज़न बनाया, अपना खुद का स्टाइल बनाया। जो फ़िल्म के लिए अच्छा साबित हुआ। जैसे कंगना पहले दिल्ली में रहती है और जब वो बाहर निकलती है, उसके लिए दुनिया खुलने लगती है और उसका दृष्टिकोण व्यापक हो जाता है और फिर स्टाइल भी बदलती है। तो उस लिहाज से मेरे लिए अच्छा था। शायद रचनात्मक तौर पर मेरे लिए उतना संतुष्टिदायक नहीं होता अगर मैं पहले के फिल्मांकन के तरीके को कॉपी कर लेता। यूं ‘क्वीन’ मेरे लिए बहुत फुलफिलिंग अनुभव बन गई।

आपने बाकी कैमरा के साथ एपिक रेड (EPIC Red) भी इस्तेमाल किया है जिसका पीटर जैक्सन के निर्देशन में बनी ‘द हॉबिट’ जैसी विशाल फ़िल्मों में इस्तेमाल हुआ है। पंजाबी फ़िल्मों में भी इस्तेमाल हुआ है। ये कैमरा कैसा है? इसका भविष्य कैसा है? बाकी कैमरा के मुकाबले आप इसे कैसे देखते हैं? कितना ताकतवर है?
काफी अच्छा कैमरा है। मैं ये नहीं कहूंगा कि किसी दूसरे कैमरा से बेहतर है या बुरा है। इसके खुद के अपने गुण हैं। अभी जो दो-तीन कैमरा हैं, जैसे सोनी एच65 (Sony XVM-H65) है या एलिक्सा (ALEXA) हो गया, उन सबमें ये कैमरा छोटा है आकार में, और हल्का है। इसकी ऐसी शारीरिक बनावट के बहुत सारे फायदे हो जाते हैं। जब आप छोटे स्पेस में काम कर रहे हो या हैंड हैल्ड कर रहे हो या स्टैडीकैम कर रहे हो, आपको छुपकर काम करना है, नजर में नहीं आना है, तो उन सब परिस्थितियों में आपको बहुत फायदा हो जाता है। पर कई बार मैं रेड को एलिक्सा पर तवज्जो देता हूं। रेड में ज्यादा फ़िल्म जैसा टैक्सचर और क्वालिटी है, ज्यादा फ़िल्मीपन है। उनमें नुकीली बारीकियां (edges) ज्यादा हैं, जिस तरह से वो स्किन टोन (skin tone) देता है। मुझे पहले बहुत से डिजिटल कैमरा से दिक्कत होती थी कि वो बहुत सपाट चित्र देते थे, उनमें कोई टैक्सचर नहीं होते थे। रेड ऐसा नहीं है, उसमें इमेज ज्यादा टैक्सचर्ड है और उसमें गहराई है। फ्लैट इमेज नहीं है। अब इसमें ही नया ड्रैगन (EPIC DRAGON) आ गया है जो चीजें काफी बदल देगा। बहुत स्टेप ऊपर चला गया है।

आपने एक बार जिक्र किया था कि “Man of Steel is a big disappointment!”, वो आपने किस लिहाज से कहा था? फ़िल्म की कहानी के या सिनेमैटोग्राफी के?
कहानी के लिहाज से। जब ट्रेलर देखा था मैंने तो मुझे बहुत प्रॉमिसिंग लगी थी। जो क्रिस नोलन (डायरेक्टर) ने ‘द डार्क नाइट’ (2008) के साथ किया था कि वो सिर्फ हीरो ही नहीं उसमें एक मानवीय तत्व भी था। तो ‘मैन ऑफ स्टील’ के ट्रेलर ने ये दिखाया लेकिन फ़िल्म देखी तो उसमें ऐसा कुछ न था। अमेरिकन फ़िल्में!

हॉलीवुड में जितनी भी विशाल और सुपरहीरो जैसी फ़िल्में आती हैं उनमें क्या डायरेक्टर से ज्यादा जिम्मेदारी सिनेमैटोग्राफर्स की हो जाती है? क्योंकि उसे अप्रत्यक्ष चीजों में से प्रत्यक्ष चीजें निकालनी पड़ती हैं। जो है नहीं उसे वैसे ही अवतरित करवाना होता है। क्या आपको लगता है कि उनमें छायांकनकार की भूमिका ज्यादा होती है और डायरेक्टर की थोड़ी सी कम होती है?
मुझे अभी ऐसा लगता नहीं। जब मैं करूंगा सुपरहीरो फ़िल्में तो हो सकता है कुछ और मानना हो जाए। लेकिन मुझे लगता नहीं कि डायरेक्टर का रोल कभी भी कम हो सकता है। अमेरिकन सिस्टम इतना मुझे पता नहीं कि वहां काम कैसे होता है लेकिन कुछेक विदेशी प्रोजेक्ट्स पर मैंने असिस्टेंट के तौर पर काम किया है, और डायरेक्टर का रोल तो हमेशा रहेगा ही। हां, सिनेमैटोग्राफर का रोल बदल जाता है, बढ़ भी जाता है, क्योंकि बहुत सारे एलीमेंट काम कर रहे होते हैं। मतलब तकनीकी तौर पर। सौंदर्य (aesthetics) और रचनात्मकता (creatively) के लिहाज से तो हमेशा ही काफी कुछ जोडऩा होता है। वो तो आप किसी भी टेक्नीशियन या किसी भी क्रिएटिव आदमी से छीन नहीं सकते। टेक्नीकली ऐसी फ़िल्मों में सिनेमैटोग्राफर का कद काफी बढ़ जाता है क्योंकि बाद में जैसा पोस्ट-प्रोडक्शन होना है उसकी पूर्व-कल्पना करते हुए शूट करना होता है। आपको ये ध्यान में रखते हुए शूट करना होता है कि बाद में क्या विज़ुअल इफेक्ट्स होंगे, क्या सीजी (कंप्यूटर जनरेटेड) वर्क होगा। ट्रिक्स, कैमरा, नई टेक्नॉलजी जो इस्तेमाल होती है, कैमरा मूवमेंट्स करने के लिए, लाइटिंग के लिए... वो सब बहुत ज्यादा जटिल, उलझाने वाला हो जाता है। इन सबको विज़ुअल इफेक्ट्स और सीजी के सामंजस्य में लेकर चलना पड़ता है। मुझे नहीं लगता डायरेक्टर का काम कम होता है, पर सिनेमैटोग्राफर का काम बढ़ जाता है। ऐसी टेक्नॉलजी भी होती है जहां आपके बेसिक्स भर से काम नहीं चलता।

कैमरा हमारे आसपास की उन आवाजों को भी सुनता है जो हमने सुननी तकरीबन बंद कर दी हैं, जो सारा कोलाहल (chaos) है उसके बीच में। और कैमरा उन चीजों को भी देखता है जो हम बेहतरीन लेंस वाली आंखें होते हुए भी नहीं देखते। एक फ्रेम में अगर हम एक चीज देख रहे हैं तो कैमरा सारी चीजें देख रहा है। ये जो परिदृश्य (phenomenon) है ये किसी फ़िल्म को बहुत ध्यान से देखते हुए नजर में आता है, आपके और उन चीजों के बीच किसी तीसरी उपस्थिति के तौर पर जो द्वितीय उपस्थिति यानी ऑब्जेक्ट्स को ज्यादा बेहतरी से स्वीकार कर रहा है। आपने इस बारे में पढ़ाई करते हुए और सिनेमैटोग्राफी करते हुए सोचा है? अब भी इसकी अनुभूति कैसे करते हैं?
मैं बहुत ट्रैवल करता हूं। मैं निजी तौर पर बहुत महसूस करता हूं कि जब हम एक ही जगह पर, उसी घर में, काम पर जाना, बाजार जाना, उस दुनिया में लंबे वक्त तक रहना, ये सब लगातार, रोज़-रोज़ करते हैं तो आपका देखना बंद हो जाता है। मतलब आप घर से निकल रहे हो, सीढ़ियों से नीचे जा रहे हो, सब कर रहे हो लेकिन चीजों को नोटिस करना बंद कर देते हो। आपके लिए सब एक ही हो गया है। आप रोज़ वो देखते हो। मैं निजी तौर पर इसलिए बहुत घूमता हूं। ये घूमना आपकी दृष्टि (vision) खोल देता है। जब नई जगहों पर जाते हो, नए कल्चर को देखते हो, नए स्थापत्य (architecture), नए चेहरे, नए लोग देखते हो, तो आपकी आंखें खुल जाती हैं और सूचना को सोखने की जो क्षमता होती है वो बढ़ जाती है। इससे आप दूसरों से ज्यादा देख पाते हो। यही वजह है कि बाहर से जब बहुत सारे लोग आते हैं और भारत को शूट करते हैं, या इंडिया से बाहर जाकर लोग शूट करते हैं तो इससे दिखता है कि दुनिया को देखने का नजरिया कितना अलग है। क्योंकि हम लोग एक बिंदु के बाद देखना बंद कर देते हैं। हम लोग फिर चल रहे हैं, कर रहे हैं, पर देख नहीं रहे, समझ नहीं रहे। इसलिए मैं हमेशा इस कोशिश में रहता हूं कि किसी न किसी बहाने बाहर चला जाऊं। ज्यादा देखने लगूं। इससे आपकी देखने और सोखने की प्रैक्टिस बढ़ जाती है।

सेट पर जाने के बाद सबसे पहले आप क्या करते हैं? आपका सबसे पहला संस्कार क्या होता है? जैसे अगर लाइटिंग की बात करूं तो बहुत से सिनेमैटोग्राफर्स का होता है कि वो एक लाइट जलाते हैं और देखते हैं फ्रेम के अंदर रोशनी का क्या हिसाब-किताब है, तो ऐसे आपने कोई अपने रिचुअल कायम किए हैं?
अभी जिस तरह की फ़िल्में मैंने की हैं उनमें मैंने लाइटिंग को चेहरों के बजाय स्पेसेज के लिए अप्रोच किया है। क्योंकि ज्यादातर फ़िल्मों में क्या होता है कि - खासतौर पर वो ग्लॉसी फ़िल्में जिनमें पूरी लाइटिंग का ध्यान चेहरों को सुंदर बनाने में होता है - मुख्य किरदार सुंदर दिखें, बाकी बस यूं ही। अभी मैं जिस तरह की फ़िल्में कर रहा था उनमें ये महत्वपूर्ण नहीं था कि कौन स्टार है, उनमें कहानी ज्यादा जरूरी थी, जिस दुनिया में, जिन स्पेसेज में हैं, वो ज्यादा जरूरी थी। तो मैं सबसे पहले ये देखता हूं कि मेरी लाइट कहां से आ रही है, स्त्रोत क्या है, वो लोगों पर कैसे पड़ेगी, परछाई कहां होगी। एक बार वो लाइट हो जाए तो फिर अगर बहुत जरूरत है तो मैं बाकी लाइट्स तय करता हूं। कुछ पतली लाइट्स बरतता हूं ताकि फ्रेम का कॉन्ट्रास्ट बदल सकूं। आपने जो सवाल किया उसके संदर्भ में एक बात ये भी है कि जितनी भी फ़िल्म मैंने की हैं उनमें दिन में हम छह-छह सात-सात और कई बार दस-दस सीन कर रहे होते हैं। बजट होते नहीं हैं। तो मैं वो रिचुअल नहीं करता हूं। तब मुझे दिमाग में ज्यादा योजनाबद्ध और सीमित होना पड़ता है। वहां जाकर आप चुन नहीं सकते कि हां भई लाओ क्या है, कैसा दिख रहा है?

आपने परछाइयों का भी जिक्र किया, कि शैडोज कहां रह रही हैं वो भी बहुत जरूरी है। तो बहुत महत्वपूर्ण कारक सिनेमैटोग्राफी में ये भी होता है। ये भी कहा जाता है कि इसमें रोशनी से ज्यादा जरूरी परछाइयां होती हैं। तो शैडोज क्या बाकी चीजों का विश्लेषण करने में जरूरी होती हैं कि उनका फ्रेम में होना भी उतना ही जरूरी होता है? या किसी और वजह से ऐसा कहा जाता है?
शैडो बहुत जरूरी है, इन द सेंस, कि फ्रेम में कितना शैडो है इससे पता चलता कि तुम फ्रेम में कितना दिखा रहे हो और कितना छुपा रहे हो। अगर लाइट तुम फेस के सामने रख रहे हो तो चेहरा पूरा दिख रहा है, सबकुछ दिख रहा है, मतलब वो कुछ कह रहा है, स्ट्राइक कर रहा है। लाइट सब्जेक्ट के दाएं या बाएं लगा दो तो चेहरे का आधा हिस्सा दिखता है और आधा नहीं दिखता, इससे नाटकीयता पैदा होती है। यही लाइट अगर ऊपर लगा दो तो आपको चेहरा तो दिख रहा है लेकिन हिस्सों में। आंखें नहीं दिखती। आपको चेहरे का आकार दिखता है, बाल वगैरह, पर आंखें नहीं दिखती। जैसे कि उन्होंने (Gordon Willis) ‘द गॉडफादर’ (1972) में किया। उससे एक नाटकीय असर पैदा होता है। तो कहां से शैडो आ रही है, क्या छुप रहा है, क्या दिख रहा है और कितना उसका घनत्व है... ये ऐसे बहुत तरह के कॉम्बिनेशन होते हैं। ऐसे एक हजार से ज्यादा कॉम्बिनेशन होते हैं जिनसे हम अलग-अलग मूड और भाव पैदा कर सकते हैं। शैडो की अहमियत बहुत मजबूत होती है।


Above - 'Dreams' artwork by Akira Kurosawa; Here - screenshot from his film 'Dreams' (1990)
दो-तीन ऐसे निर्देशक रहे हैं, ज्यादा भी होंगे, जो स्कैच और पेंटिंग्स का काफी सहारा लेते हैं। फ़िल्मों में आने से पहले वे पूरी कहानी और फ़िल्म को स्कैच के जरिए बना लेते थे। बाद में भी इसे आजमाते रहे। जैसे मार्टिन स्कॉरसेजी (Martin Scorsese) सबसे शुरुआत में अपनी फ़िल्म सीन-दर-सीन एक स्कैचबुक में हाथ से उकेर देते थे। संभवतः वे बाद में भी ऐसा करते रहे। जापान के महान फ़िल्मकार कुरोसावा (Akira Kurosawa) हैं तो वो पेंटिंग्स बहुत अच्छी बनाते थे और पेंटिंग्स में बने दृश्य को फ़िल्मों में जिंदा करते थे। मुझे ये जानने में दिलचस्पी है कि सिनेमैटोग्राफी का कोर्स करते हुए या ऐसे भी, आपने क्लासिक पेंटिंग्स का अध्ययन किया है? करने की कोशिश की है? जानने की कोशिश की है कि कैसे कोरियोग्राफ किया है उन्होंने संबंधित चित्र को? और फ़िल्मों में इन्हें पढ़ने की प्रेरणा कितनी मदद करती है? दूसरा, ये अभ्यास कितना महत्वपूर्ण है आज भी सिनेमा के छात्रों के लिए? कि देखिए एक छोटी सी पेंटिंग है जो चलायमान नहीं है, मृत है और आपके सिनेमा के चलायमान जीवित दृश्य को बनाने के लिए प्रेरित कर देती है। ये सोचते हुए ही बड़ा अचंभित करता है।
मैंने बहुत ज्यादा किया है ऐसा। इंस्टिट्यूट के टाइम पे, उससे पहले भी, अभी भी। मैं हमेशा सुनिश्चित करता हूं कि मैं ट्रैवल करूं, म्यूजियम जाऊं। और असल में मैं गया भी हूं। पिछले साल में एम्सटर्डम में वैन गॉग (Vincent van Gogh) म्यूजियम गया था। कई अन्य म्यूजियम और एक मशहूर पेंटर के घर भी गया। इसके अलावा जब हम संस्थान (Satyajit Ray Film & Television Institute: SRFTI) में थे तो इसे बहुत स्टडी करते थे। अलग-अलग पेंटर्स के वर्क को। उनसे सीखने को बहुत मिलता है। और फ़िल्मी लोगों के लिए तो अलग-अलग कारणों से। काफी ज्यादा। जैसे हमने कई आर्टिस्ट का काम देखा। मसलन, रेम्ब्रांट (Rembrandt van Rijn, 1606–1669, Dutch) और एल ग्रेको (El Greco, 1541–1614, Spanish-Greek) का, कि वे सोर्स कैसे यूज कर रहे हैं? लाइटिंग कैसे कर रहे हैं? Faces और spaces पर लाइटिंग कैसे कर रहे हैं? शैडोज कैसे हो रहे हैं? हमने डेगस (Edgar Degas, 1834–1917, French) और एडवर्ड हॉपर (Edward Hopper, 1882–1967, American) जैसे कलाकारों का काम देखा। कि कैसे वे फ्रेम में लोगों के स्थान तय कर रहे हैं? उन्हें स्थित कर रहे हैं? मुझे लगता है एडवर्ड हॉपर काफी सिनेमैटिक हैं। उनका हर फ्रेम ऐसा लगता है जैसे किसी फ़िल्म से निकाला गया दृश्य है। जो बहुत नाटकीय और सिनेमाई हैं। उसी वक्त में डेगस बैलेरीना डांसर्स को पेंट किया करते थे। कैसे वे उन डांसर्स की पोजिशनिंग करते थे? उनकी शारीरिक भाव-भंगिमा (posture) बनाते थे? उन लोगों से सीखने को बहुत कुछ है। मैं जिस संस्थान में था वहां पर तो ऐसे लोगों को बहुत ज्यादा रेफर किया जाता था। हम लोग पेंटिंग्स को देखते थे, उनके आर्टिस्टिक काम को देखते थे। काफी बार हमारा काम भी वहां से प्रेरित होता था। रंगों के लिहाज से, पोजिशन के हिसाब से, लाइटिंग के लिहाज से। कई बार हमें रेम्ब्रांट जैसे आर्टिस्टों के काम को देखने के लिए कहा जाता था। वो लोग अपने वक्त और कला के मास्टर्स थे। इन एलीमेंट्स में दिग्गज थे। साथ ही जाहिर है आपको अपना खुद का स्टाइल विकसित करना भी बहुत जरूरी होता है।

जैसे बहुत से इंडिपेंडेंट फ़िल्मकार हैं जिनके पास बजट नहीं है और बिलकुल बेसिक कैमरा हैं, वे प्रकाश के स्त्रोत के तौर पर किन-किन चीजों का इस्तेमाल कर सकते हैं? कौन से नेचुरल एलिमेंट्स, कौन सी छोटी हल्की लाइट्स, लैंप, टॉर्च... क्या-क्या?
आजकल तो कैमरा ही बहुत इवॉल्ड और बहुत आधुनिक हैं, कम रोशनी में भी बहुत संवेदनशील हैं। आप तो आइपैड की रोशनी तक बरत सकते हैं। एक पूरी फीचर फ़िल्म बनी है जिसमें उन्होंने रोशनी आइपैड से की। मैंने खुद कितनी बार टॉर्च या फोन की लाइट, या कैंडल्स या कहीं से बल्ब उठा लाए, इनकी रोशनी से काम किया है। अब तो मोटी बात इतनी ही है कि हमें बस तय करना होता है कि स्टाइल क्या है फ़िल्म की। अगर उसमें फिट बैठता है तो कोई भी ऐसी चीज यूज़ कर सकते हैं जो रोशनी का निर्माण करती है। कैमरा बहुत ही सेंसेटिव हो गए हैं। असल में मैंने एक शॉर्ट फ़िल्म की है जिसमें मैंने इस फोन की लाइट इस्तेमाल की है। जरूरी नहीं है कि बड़े एचएमआई, 1के, 2के, 5के, 18के से लाइटिंग करो। जाहिर है कुछ जगह पर जरूरी होता है। पर आज के टाइम तो बल्ब मिल जाएगा 40 वॉट का तो उससे भी लाइटिंग हो जाएगी। और हमने ‘पैडलर्स’ में वो किया है। हमने पूरी फ़िल्म में ट्यूबलाइट और बल्ब के अलावा शायद ही कुछ यूज़ किया है।

आपकी फेवरेट फॉर्म ऑफ लाइटिंग क्या है? मसलन, कुछ दिग्गज सिनेमैटोग्राफर्स को ट्यूबलाइट की रोशनी बहुत ही निर्मल लगती है और वो उन्हें अपनी फ़िल्मों के फ्रेम उतने ही निर्मल रखने पसंद होते हैं।
क्या जरूरत है, उसके हिसाब से होता है। पर मुझे प्राकृतिक रखना ही पसंद हैं। मुझे अच्छा नहीं लगता कि सोर्स ऑफ लाइट पता चले। जब दर्शकों को पता चलता कि यहां एक लाइट मार रहा है, यहां से बैकलाइट आ रही है तो मुझे निजी तौर पर ये पसंद नहीं आता। मेरे लिए रोशनी का स्त्रोत उसी हिसाब से तय होता है कि बिलुकल नेचुरल लगे। पर मैं सब यूज़ करता हूं। ट्यूबलाइट, मोमबत्ती की रोशनी, आग... कुछ भी। सत्यजीत रे की फ़िल्मों की बात करें तो उनकी फ़िल्मों के व्याकरण में रोशनी के लिए सबसे ज्यादा किन तत्वों का इस्तेमाल हुआ है? धूप का? जैसे ‘पाथेर पांचाली’ (1955) में दोनों बहन-भाई खेत में से रेलगाड़ी देखने जा रहे हैं और सामने से चिलचिलाती धूप की रोशनी खेत में खड़ी फसल के बीच से छन-छन कर आ रही है। इसका जिक्र संभवत: मार्टिन स्कॉरसेजी ने एक बार किया है कि उन्हें ये दृश्य बेहद पसंद है और रोशनी के ऐसे इस्तेमाल की वजह से ही। - शुभ्रतो मित्रो जो सत्यजीत रे के डीओपी (director of photography) थे उन्होंने तो सॉफ्टबॉक्स और बाउंसलाइटिंग का पूरा परिदृश्य - जो आज इतना फेमस है, हर कोई उसे यूज़ करता है - शुरू किया था। इसी ने उन फ़िल्मों को बेहतर बनाया। ब्लैक एंड वाइट एरा में कठोर लाइट्स, कठोर परछाइयों और कठोर बैकलाइट्स का बोलबाला था। ये शुभ्रतो मित्रो और सत्यजीत रे ही थे जिन्होंने रोशनी के इस प्राकृतिक (naturalistic) तरीके का भारतीय फ़िल्मों से परिचय करवाया था। क्योंकि प्रकृति में कई सारी नर्म रोशनियां (soft lights) होती हैं। जैसे सूरज की रोशनी बहुत कठोर होती है लेकिन वो बहुत सी सतहों पर पड़ती है और जमीन, कपड़ों व अनेक चीजों से टकराकर उछलती है जो कई नर्म रोशनियों का निर्माण करती है। तो ये फिनोमेनन ही इन दो लोगों ने शुरू किया था। वो लाइट को बाउंस करते थे। जैसे घर के अंदर बैठे हैं, शाम है, तो सूरज सीधे अंदर नहीं आएगा। उसकी किरण जमीन से टकराएंगी और वहां से उछलकर अंदर आएगी। नहीं तो अगर आप पुरानी ब्लैक एंड वाइट फ़िल्में देखें तो हर वक्त चाहे रात हो या दिन हो, एक्टर के चेहरे पर मोटी लाइट रहती थी या बैकलाइट होती थी। ऐसा लगता था सूरज सीधा अंदर आ रहा है, चाहे दिन का कोई भी वक्त हो। लेकिन मित्रो ने इसे बदला। उन्होंने नेचुरलिस्टिक अंदाज अपनाया। शाम का वक्त है तो सूरज की साफ्ट लाइट अंदर आएगी। पश्चिम की तरफ मुंह किया है तो अंदर आएगा। दोपहर में सूरज अंदर नहीं आएगा, सिर्फ बाऊंस लाइट आएगी।

इन दिनों ये बहस भी जारी है कि ‘2के’ (2K - resolution) पर्याप्त है और ‘4के’ (4K - resolution) जरूरी नहीं है। वो इंडि फ़िल्मकारों के लिए सुविधाजनक होने के बजाय चुनौतियां रच देता है। अनचाहे ढंग से जगह ज्यादा घेरता है। जबकि ‘2के’ और ‘4के’ के लुक में ज्यादा फर्क भी नहीं है। एक तो इस बारे में आपका क्या मानना है? दूसरा, फ़िल्म स्टॉक की गहनता और सघनता का मुकाबला डिजिटल का ‘2के’ या ‘4के’ कर सकता है क्या?
मुझे नहीं लगता कि अभी तक फ़िल्म स्टॉक वाली गुणवत्ता हासिल हो पाई है डिजिटल में। लेकिन उसी वक्त मैं ये भी नहीं कहूंगा कि वो उससे कम है। डिजिटल की अपनी खुद की एक क्वालिटी है और टैक्सचर है। तो 35 एमएम से उसकी तुलना करने का कोई कारण और बिंदु नहीं है। और मुझे नहीं लगता कि डिजिटल को कभी भी फ़िल्म स्टॉक का विकल्प माना जाना चाहिए। हमें ये कतई नहीं कहना चाहिए कि अब हमें फ़िल्म की जरूरत नहीं है। डिजिटल का अपना लुक है, फ़िल्म का अपना लुक है। ये तो वही बात हो गई कि पोस्टर कलर से कर रहे हो या वॉटर कलर से कर रहे हो या किससे कर रहे हो? अलग-अलग टैक्सचर है। यहां तक कि डिजिटल में भी सब कैमरों के अलग भाव हैं। एलिक्सा का अलग है, रेड का अलग है, सोनी का अलग है, 35एमएम का अलग है, 16एमएम का अलग है। हकीकत यह है कि ये पूरी तुलना केवल उन्हीं लोगों द्वारा की जाती है जो पैसे में लीन हैं। जो इस तकनीक के अर्थशास्त्र में शामिल हैं। मुझे लगता है हमारे लिए कोई तुलना नहीं है। डिजिटल भी अच्छा है और फ़िल्म भी। अगर आप सुपर16 को सैद्धांतिक रूप से देखें तो संभवत: ये कमतर माध्यम माना जाएगा। इसका नेगेटिव छोटा है, इसके साथ कई मसले हैं। इन लिहाज से ये 35एमएम और कुछ हद तक रेड से कमतर है। पर मैंने इसका उपयोग किया इसके टैक्सचर के लिए, इसके सौंदर्य के लिए, इसकी भाषा के लिए। तुलना ठीक नहीं है। सब कैमरा अच्छे हैं और सबके अपने-अपने गुण हैं।

पोस्ट-प्रोडक्शन प्रक्रिया में आप कितनी भागीदारी करते हैं, या करना चाहते हैं, या करना चाहिए? क्योंकि जब शूट करते हैं तो आपने एक अलग नजरिया रखा है और ऐसा न हो कि एडिटिंग जो कर रहा है और आप संदर्भ समझाने के लिए मौजूद न हों तो आपके पूरे काम को खराब कर दे?
इसके लिए डायरेक्टर होता है। ये एक ऐसा भरोसा होता है जो आपको डायरेक्टर में होता है। असल में पोस्ट-प्रोडक्शन में एडिटर और डायरेक्टर ही रहते हैं। ये डायरेक्टर का काम है, फ़िल्म उसका विज़न है। मैं लकी रहा हूं कि ऐसे निर्देशकों संग काम किया है जो ये सब बहुत पकड़ के साथ समझते हैं। साथ-साथ मुझे बुलाते भी हैं। ऐसा नहीं है कि पोस्ट-प्रोडक्शन का मुझे पता ही नहीं होता। मैं जाता हूं, देखता हूं एडिट्स, पर हम लोग सिर्फ संकल्पना के स्तर (conceptual) पर चर्चा करते हैं। कि काम किरदारों के विकास और कहानी के विकास के लिहाज से कैसा चल रहा है? ज्यादातर तो ये फीडबैक लेवल पर होता है। वो सब मैं करता हूं, पर एडिटिंग में यूं शामिल नहीं होता। मैं एडिटर को कभी नहीं कह सकता है क्योंकि वो उसके दायरे में दख़ल देना होगा। अगर मुझे भी शूट पर डायरेक्टर के अलावा दस लोग आकर बोलेंगे, इसका ऐसा करो, वैसा करो तुम, तो मुझे भी अच्छा नहीं लगता। तो मैं वो स्पेस देता हूं। हां, मैं फीडबैक दे सकता हूं क्योंकि मैं भी फ़िल्म का हिस्सा हूं। जितने भी लोगों के साथ मैंने काम किया है वो यही समझते हैं कि ये मिल-जुल कर करने की प्रक्रिया है। हम सब एक-दूसरे को प्रतिक्रिया देते है।

मुझे आप ये बताइए कि अगर कोई फ़िल्म स्कूल न जाए तो अच्छा सिनेमैटोग्राफर बन सकता है क्या? और फ़िल्म स्कूल के छात्रों की भी क्या सीमाएं होती हैं? आमतौर पर ये समझा जाता है कि एफटीआईआई (Film and Television Institute of India) से कोई आया है या ऐसे अन्य प्रतिष्ठित फ़िल्म संस्थानों से आया है तो उसकी सीमाएं अपार हैं, कि उनको सब समझ है। और जो बाहर से अन्य रास्तों से होता हुआ पहुंचा है उसके लिए बड़ा मुश्किल है। वो कितना भी संघर्ष कर ले, कभी उन छात्रों के स्तर तक पहुंच ही नहीं सकता क्योंकि उनके संदर्भ ही बड़े आसमानी हैं। आपको क्या लगता है फ़िल्म स्कूल बहुत जरूरी है? जिसके पास फीस नहीं है देने के लिए और जो प्रवेश परीक्षा में उत्तीर्ण नहीं हुआ वो अपने सपने लेकर कहां जाए? उसके लिए आगे का रास्ता क्या है? वो कुछ भी कर सकता है?
अब वक्त बहुत अलग हो गया है। शायद आज से 15 साल पहले बोल सकता था कि फ़िल्म स्कूल वालों को जो मिलता था वो बाहर किसी को नहीं मिल सकता था। आज समय बदल गया है। पहले क्या होता था कि किसी को कुछ पढ़ना है तो किताबें ढूंढ़ने में ही महीनों लग जाते थे, या ऐसे लोग ढूंढ़ने में बड़ी मुश्किल होती थी जिनसे कुछ सीखना हो। आज इतने सारे लोग हैं अपने आस-पास जिनको इतना कुछ आता है। इंटरनेट है, किताबें है, लोग हैं, अब तो हर इक चीज पहुंच के दायरे में है। एक फ़िल्म स्कूल में आप क्या पाते हैं? बड़ी लाइब्रेरी? वो आप यहां पा सकते हो। फ़िल्मों तक पहुंच? अब आप किसी भी फ़िल्म को किसी भी कोने में हासिल कर सकते हो। ऐसे लोग जो उस फील्ड के जानकार होते हैं, उन तक पहुंचने के मामले में फ़िल्म स्कूल आगे रहते हैं। लेकिन आज के टाइम में आप जाकर उन्हें असिस्ट कर सकते हैं। आप उनके साथ काम करके अपने मुकाम तक पहुंच सकते हो। ऐसे बहुत सारे लोग हैं जिन्हें मैं जानता हूं जो कभी फ़िल्म स्कूल नहीं गए हैं और सिनेमैटोग्राफी सीखने में तो किसी फ़िल्म स्कूल जाने से ज्यादा जरूरी है ‘आपके सोचने का तरीका’, ‘आपके जीने का तरीका’। ऐसे खूब सारे लोग हैं जो किसी फ़िल्म स्कूल से नहीं हैं और जिन्होंने किसी को असिस्ट तक नहीं किया है, फिर भी वो बहुत बड़े नाम हैं। इसके अलावा आप हमेशा असिस्ट कर सकते हो, घर पर पढ़ सकते हो। आप फ़िल्में देख सकते हो और सीख सकते हो, आपको फ़िल्म स्कूल की जरूरत नहीं है। लेकिन अगर फ़िल्म स्कूल जा सकें तो जाएं। क्योंकि मैं गया था। क्योंकि मुझे एक स्पेस चाहिए था। मैं मुंबई में था और बस काम ही काम किए जा रहा था। क्योंकि इस शहर में रहने, सीखने और पढ़ने की लागत बहुत ऊंची है। ऐसे में आपको लगातार काम करना होता है। तो मुझे वो वक्त नहीं मिल रहा था, वो स्पेस नहीं मिल रहा था। पढ़ने का, फ़िल्में देखने का, लोगों से बात करने का। इसलिए मैं फ़िल्म स्कूल गया। नहीं तो आप बिना जाए भी सब सीख सकते हैं। लेकिन अगर फ़िल्म स्कूल जा सकें और अच्छा करें तो तकनीकी तौर पर आप वो सब कर सकते हो जो कोई और नहीं कर सकता। मैं नहीं कह रहा कि गैर-फ़िल्म स्कूलों वाले लोग नहीं कर सकते, वो कर सकते हैं पर संस्थानों के लोग कुछ अतिरिक्त ला सकते हैं। उन्हें लाना भी चाहिए क्योंकि जो 3-4 साल की पढ़ाई वो करते हैं उसके बाद उन्हें वो अतिरिक्त लाना ही चाहिए। ताकि लोग उन्हें बाकियों के मामले तवज्जो दें।

अपने सर्वकालिक पसंदीदा फ़िल्म निर्देशकों के नाम बताएं?
मेरे सबसे पसंदीदा डायरेक्टर्स में से एक हैं हू साओ-सें (Hou Hsiao-Hsien)। वे ताइवान मूल के हैं। उन्होंने एक फ़िल्म बनाई थी ‘द वॉयेज ऑफ द रेड बलून’ (Flight of the Red Balloon, 2008)। एक और फ़िल्म बनाई थी ‘थ्री टाइम्स’ (Three Times, 2005)। ऐसी कई फ़िल्में हैं। ये आपको मैं समकालीनों में से बता रहा हूं। एक नूरी बिल्जी (Nuri Bilge Ceylan) हैं, तुर्की के हैं। विज़ुअली मैंने तारकोवस्की (Andrei Tarkovsky) का काम हमेशा पसंद किया है। बहुत। और डेविड लिंच (David Lynch)। कई सारे नाम हैं। बहुत-बहुत काबिल लोग रहे हैं ये। इनारितु (Alejandro González Iñárritu) हैं।

स्टैनली कुबरिक (Stanley Kubrick) और किश्लोवस्की (Krzysztof Kieślowski) के काम में भी आप कुछ प्रेरणादायक पाते हैं?
कुछ नहीं बहुत कुछ। अरे, कुबरिक तो मेरे सबसे पुराने ऑलटाइम फेवरेट्स में से हैं! और मैंने उनके बॉडी ऑफ वर्क को वाकई में पसंद किया है। निजी तौर पर भी मैं खुद कुछ उन जैसा ही करना चाहता हूं। उन्होंने अपनी हर फ़िल्म कुछ अलग एक्सप्लोर की है। उनकी एक फ़िल्म साइंस फिक्शन है, दूसरी फ़िल्म ब्लैक कॉमेडी है, तीसरी फ़िल्म हॉरर है, चौथी फ़िल्म थ्रिलर है। कभी भी ऐसा नहीं हुआ कि उन्होंने एक ही जॉनर की फ़िल्म दोबारा की हो। उन्होंने हर जॉनर एक्सप्लोर किया है। तो मैं उन जैसा होना चाहता हूं, ये आकांक्षा रखता हूं। हमारे यहां क्या होता है कि बहुत बार लोग कहते हैं, “कॉमेडी फ़िल्म है तो फलाने डीओपी को बुलाते हैं”। “हॉरर फ़िल्म है तो उस वाले को बुलाते हैं”। “एक्शन है तो किसी और को...”। मैं वो नहीं करना चाहता कि एक तरह का काम हो। अलग-अलग तरह का काम करना चाहता हूं।

आपकी पसंदीदा फ़िल्में कौन सी हैं? ऐसी जिन्हें बार-बार देखा जाए तो सिनेमैटोग्राफी के लिहाज से भी बहुत कुछ सीखा जा सकता है?
एक तो ‘वॉयेज ऑफ द रेड बलून’ है, हू साओ-सें की। एक फ़िल्म मुझे बहुत पसंद है, ‘गुड बाय लेनिन’ (Good Bye, Lenin!, 2003)। फिर कुबरिक की ही फ़िल्म है... ‘अ क्लॉकवर्क ऑरेंज’ (A Clockwork Orange, 1971), मुझे बहुत पसंद है। बहुत। फिर लिंच की फ़िल्म ‘ब्लू वेलवेट’ (Blue Velvet, 1986) है। गोदार (Jean-Luc Godard) की ‘ब्रेथलेस’ (Breathless, 1960) मेरी सबसे पसंदीदा में से है।

सिनेमैटोग्राफी में कौन आपको सबसे गज़ब लगते हैं, पूरी दुनिया में? बड़े खेद की बात है कि बेहद विनम्रता और जज्बे से पूरी जिंदगी लेंस के पीछे गुजार देने वाले ऐसे कुशल लोगों को बहुत कम याद रखा जाता है। वो डायरेक्टर्स के बराबर और बहुत बार ज्यादा जानते हैं।
जी। ऐसे लोग जिनके काम को मैंने बहुत देखा है, लगातार, बहुत पसंद किया है, उनमें एक हैं मार्क ली पिंग बिन (Mark Lee Ping Bin)। भारत में शुब्रतो मित्रो। फिर गॉर्डन विलिस मेरे सबसे पसंदीदा में से एक हैं। फिर डॉरियस खोंडजी (Darius Khondji) हैं। इन्होंने ‘सेवन’ (Seven, 1995) और ‘अमूर’ (Amour, 2012) शूट कीं। बहुत सी वूडी एलन की फ़िल्में शूट की हैं।

आप डॉक्युमेंट्री फ़िल्में भी देखते हैं? बहुत ऐसी होती हैं जिनके विज़ुअल बेहद शानदार होते हैं।
हां मैं देखता हूं। जब भी मौका मिलता है या सुनने में आता है कि कोई अच्छी डॉक्युमेंट्री फ़िल्म आई है। ऐसा नहीं है कि मैं सिर्फ फिक्शन फ़िल्म देखता हूं। हर तरह की फ़िल्म देखता हूं।

अगर कोई 8 मेगापिक्सल या 12 मेगापिक्सल वाले मोबाइल कैमरा से फीचर फ़िल्म बनाना चाहे तो क्या संभावनाएं हैं? क्या उसकी प्रोसेसिंग या पोस्ट-प्रोडक्शन में दिक्कत आती है?
नहीं, आप कर सकते हैं। लोगों ने किया भी है। बनाई है आईफोन से। उसे बड़े परदे पर दिखाया भी जा सकता है। पर वही है कि पहले उसे टेस्ट करना पड़ेगा। कि कैसा दिख रहा है, कितना ब्राइट रखने या नॉइज रखने से बड़े परदे पर विज़ुअल होल्ड कर पा रहा है? ये सब टेस्ट करना पड़ेगा। इसमें इतना आसान नहीं है कि शूट करके वहां चले गए। अपनी सेटिंग्स पर टेस्ट करने के बाद ही आपको इसमें शूट करना होगा।

क्या पूरी फ़िल्म, कैमरा की एक ही सेटिंग पर शूट होनी जरूरी है? या रैंडम सेटिंग्स पर शूट करके उसे बाद में आसानी से एडिट किया जा सकता है? तकनीकी तौर पर यह संभव है?
अगर उस फ़िल्म को एक ही सेटिंग की जरूरत है, एक ही लुक चाहिए फिर तो रैंडम करने का अर्थ ही नहीं है। उसे तो फिर एक ही सेटिंग पर करना चाहिए। अगर फ़िल्म की जरूरत है कि उसे अलग-अलग दिखना चाहिए ही तो फिर ठीक है। अन्यथा न करें। रैंडम सेटिंग का मतलब होता है कि गलती हो गई उसे मालूम नहीं कि क्या कैसे करना था। सेटिंग और रीसेटिंग होती है, कभी भी रैंडम नहीं करते।

आप अपने परिवार के बारे में बताएं। माता-पिता के बारे में। उनका योगदान क्या रहा? अपने मन का काम करने के लिए उन्होंने आपको कितनी छूट दी? या छोडऩे के लिए दबाव डाला?
मेरे माता-पिता का या परिवार में दूर-दूर तक किसी का फ़िल्मों से कोई लेना-देना नहीं है। मेरे डैड का बिजनेस है। मेरी मदर टीचर हैं। भाई सॉफ्टवेयर प्रोग्रामर है। उन्हें तो कभी अंदाजा ही नहीं था कि मैं इस लाइन में घुसूंगा। यहां तक कि मुझे भी आइडिया नहीं था कि इस क्षेत्र में आऊंगा। जब घुसा और करने लगा तब हुआ। मुझे आज तक एक भी पल या दिन याद नहीं जब मेरे पेरेंट्स ने इस चीज को लेकर कभी सवाल किए या संदेह किया या बोला कि ये क्या कर रहे हो? या क्या करोगे? कैसे करोगे? कभी कुछ नहीं पूछा। उन्हें मुझमें एक किस्म का भरोसा भी था। क्योंकि मैं कभी भी कुछ भी करता था तो बहुत घुसकर करता था। गंभीरता से करता था। उन्हें यकीन था कि मैं अपना रस्ता खुद बना लूंगा, पा लूंगा। इस लिहाज से उनका सबसे बड़ा सपोर्ट यही था कि कभी जज नहीं किया मुझे, सवाल नहीं किए।

बचपन में फ़िल्में देखने जाते थे? साहित्य पढ़ते थे? कोई न कोई ऐसी चीज जरूर बचपन में होती है जो अंतत: जवानी में जाकर जुड़ती है।
हां मैं फ़िल्में बहुत देखता था। घर के पास वीडियो लाइब्रेरी होती थी। मुझे याद है वहां पर हर गुरुवार को नई वीएचएस आती थी। वो फिक्स होता था। जैसे ही लाइब्रेरी में आती थी सीधे मेरे घर आती थी। मैं हमेशा बहुत बेचैन और जिज्ञासु होता था। ऐसा नहीं होता था कि मैं एक-एक दिन में देखता था, मैं सारी उसी दिन एक साथ देख लेता था। मेरा ये रुटीन होता था। सब रैंडम चलता था। पता नहीं होता था कि कब क्या आएगी? कभी कोई कॉमेडी फ़िल्म आती थी, कभी क्लासिक आती थी, कभी हॉरर आती थी। दिल्ली में आपका घर कहां है? लाजपत नगर में।

अब तक जितनी फ़िल्में बनाई हैं उनमें सबसे ज्यादा किएटिव संतुष्टि किसे बनाकर मिली है? जो भी फ़िल्म स्कूल में सीखा था उसकी कसर किस फ़िल्म में निकाली?
फ़िल्म स्कूल में जो सीखा उसे तो सब भुलाकर ही शुरू किया। जो वहां सीखा वो कभी किया ही नहीं। मैंने अपनी हर फ़िल्म में अपने हिसाब से ही शूट किया है। बहुत ज्यादा स्ट्रगल किया। ‘पैडलर्स’ से लेकर ‘हरामख़ोर’ तक। बहुत संघर्ष था, बहुत सी रुकावटें थीं। बावजूद इसके मैंने हमेशा अपने और डायरेक्टर के हिसाब से शूट कया। ऐसा कभी नहीं हुआ कि प्रोड्यूसर लोगों ने कभी टोका हो, बोला हो कि ऐसे नहीं वैसे करो। हम जिस हिसाब से काम करना चाहते हैं, करते हैं। पर हां बहुत बार उपकरण नहीं होते, पैसा नहीं होता... ऐसी वित्तीय रुकावटें रही हैं।

वासन की अगली फ़िल्म (Side Hero) भी आप ही शूट करेंगे?
अभी कुछ तय नहीं है लेकिन हम लोगों को तो काम साथ में ही करना है। उसको भी मेरे साथ करना है और मेरे को भी उसके साथ करना है। क्योंकि हम लोगों की बहुत अच्छी बनती है। पर अभी पता नहीं है। मेरी और भी फ़िल्मों की बात चल रही है। अब अगर डेट्स टकराने लगीं तो पता नहीं मैं अपनी तारीखें छोड़ पाऊंगा कि नहीं। या वो अपनी फ़िल्म आगे-पीछे कर पाएगा कि नहीं। पर आशा है कि मैं उसकी फ़िल्म कर पाऊंगा।

Siddharth Diwan is a cinematographer. Director Vikas Bahl’s ‘Queen’ has been his latest release which’s garnered money and much acclaim. His upcoming ‘Titli’ is slated for its world premiere in the 'Un Certain Regard' category at the 67th Cannes Film Festival, happening right now. It has been directed by Kanu Behl. Siddharth has done cinematography for Shlok Sharma’s much awaited ‘Haraamkhor’ which is still to release. Other projects he has worked on in the past are Vasan Bala’s ‘Peddlers’, Sujoy Ghosh’s Kahaani, Michael Winterbottom’s ‘Trishna’ and Ritesh Batra’s ‘The Lunchbox.’ He hails from Delhi and lives in Mumbai.
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Saturday, June 15, 2013

वासन बाला की ‘गीक आउट’ : वो सोया नहीं, जागा है

 5 Short Films on Modern India 

विदेश मंत्रालय, गूगल, वायाकॉम 18 और अनुराग कश्यप की फ़िल्म निर्माण कंपनी ने मिलकर “इंडिया इज... अ विजुअल जर्नी” विषय पर पांच शॉर्ट फ़िल्में बनाई हैं। मौजूदा भारत के विभिन्न पहलुओं को दिखाती और नए विमर्शों की बयार लाती ये फ़िल्में हैं अनुभूति कश्यप की ‘मोइ मरजाणी’, श्लोक शर्मा की ‘हिडन क्रिकेट’, नीरज घैवन की ‘द एपिफनी’, वासन बाला की ‘गीक आउट’ और गीतांजलि राव की ‘चाय’। पांचों फ़िल्में यूट्यूब पर उपलब्ध हैं।

    
वासन बाला से पिछले साल उनकी फीचर फ़िल्म ‘पैडलर्स’ के वक्त भी बात (यहां पढ़ें) हुई थी। वह बहुत सारे अंतरराष्ट्रीय फ़िल्म महोत्सवों में जाकर आई। अब अगली फीचर के लेखन पर वह गंभीरता से जुटे हैं। उनकी शॉर्ट फ़िल्म ‘गीक आउट’ सबों में जटिल है। इसे सतह देखकर नहीं समझा जा सकता। दृश्यों में विविधता और विषय-वस्तु के लिहाज से पाचों शॉर्ट फ़िल्मों में इसका दायरा सबसे व्यापक है। दस मिनट की इस फ़िल्म को देखने के बाद आपके पास बात करने को इतना कुछ होता है कि तीन घंटे की फ़िल्मों को देखने के बाद भी नहीं होता।

फ़िल्म की कहानी पारंपरिक मायनों वाली नहीं है, ये पारस्परिक सभ्याचार वाले समाजों में ठिठके-दुबके सभी गीक्स के स्वप्निल निशाचरी मन की मृगतृष्णाओं और खोयेपन में जगी चौकन्नी छलांगों के बारे में है। जिन इंटरनेट उनींदों को महज वर्चुअल बावरा समझकर आज का समाज न देखने का सायास अभिनय कर रहा है, वो धीरे-धीरे कैसे दुनिया को हमेशा के लिए बदलते जा रहे हैं, अंदाजे से बाहर है। इस्तांबुल के गेजी पार्क वाले प्रदर्शनों को जो वैश्विक वर्चुअल समर्थन मिला है और वर्चुअल होते हुए भी आंदोलन को जो सचमुच की ऊष्णा मिली है वह उस बदलाव का ठोस सबूत है। उस बड़े वैश्विक बदलाव को लेकर नासमझी के इस वक्त को वासन ने ‘गीक आउट’ में समझा-समझाया है। कुछ वर्षों बाद ये फ़िल्म उस चेंज का दस्तावेज साबित होगी। अगर उक्त संदर्भ और ‘गीक आउट’, दोनों को पूरी तरह समझना है तो वासन से हुई ये बातचीत काफी मदद करेगी। गीक्स, ये वक्त, इसमें छिपी भौतिक बदलावों की परतें और आने वाली पीढ़ियों पर उन्होंने समझदारी वाली बातें की हैं। वासन, श्लोक, अनुभूति और नीरज महत्वपूर्ण सोच वाले युवा हैं और फ़िल्म बनाने की विधि जानते हैं। खुशी है कि विधि संभवतः सही हाथों में है। कुछ वर्षों में इनकी बनाई फ़िल्में अनूठा सिनेमा प्रस्तुत कर देंगी, मुझे लगता है। पढ़ें, वासन बाला से बातचीतः

गीक आउट को वैसे तो प्रोमो में आप स्पष्ट कर चुके हैं लेकिन फिर भी अपनी परिभाषा में बताएं?
जैसे मैं ऑफिस में देखता हूं कि हम मर्दाना बात काफी कर लेते हैं, लेकिन सिर्फ बात ही करते हैं। जैसे बचपन में हम लोग आपस में पूछते थे कि हनुमान और ब्रूस ली में लड़ाई हुई तो कौन जीतेगा। ये फ़िल्म उन चीजों का एक अलग और जटिल विस्तार है। लाइफ आपको एक दायरे में बांध रही है तो आप शायद उन यादों को और समकालीन तरीके से याद करना चाहते हो। जो तब हनुमान और ब्रूस ली था, अभी वो सुपरमैन, बैटमैन से लेकर वुल्वरीन तक बहुत कुछ हो गया है। इसने ट्विटर, फेसबुक और लिंक्डइन के रूप में नया आकार ले लिया है।

जैसे, मैं हेल्पलेस आदमी हूं लेकिन अगर मुझे किसी बात का गुस्सा है या मेरा कोई ओपिनियन है तो... पहले क्या होता था, कि बुजुर्ग 50-60 साल के बाद संपादक के नाम पत्र लिखा करते थे, खासकर तमिलियन। जैसे मैं भी दक्षिण भारतीय हूं और हमारी फैमिली में भी कोई न कोई टाइम्स ऑफ इंडिया को लेटर लिखता था और इंतजार करता था कि वो छपेगा या नहीं छपेगा। और वो छपकर आता था तो बहुत खुश हो जाते थे और हम लोगों को पढ़कर सुनाते थे। दादा हुए या दादी या कोई रिश्तेदार, वे बोलते थे कि देखो आज टाइम्स ऑफ इंडिया पढ़ लो हमारा लेटर आया है, लेटर टू द एडिटर ...लेकिन आज एक ब्ल़ॉग से लेकर ट्विटर और फेसबुक पर कोई भी मत हो आपका, आप तुरंत अभिव्यक्त कर सकते हो। उस पर कोई सेंसरशिप नहीं है। कोई बैठकर आपका ओपिनियन एडिट नहीं करने वाला है। आपसे कोई नहीं कह रहा है कि कैसे लिखना चाहिए। ये जो एम्पावरमेंट है, ताकत है ये किसी सुपरहीरो से कम नहीं है, उस आदमी के लिए जो बंध चुका है अपने काम से, अपनी जियोग्राफी से या दूसरे हिसाब से। ये फ़िल्म उसी बिंदु को लेकर एक विस्तार है, बढ़ा-चढ़ा विस्तार।

Vasan Bala
जैसे, एक आदमी कंप्यूटर पर बैठा है और वो दस टैब खोले हुए है। एक में निठारी हत्याकांड के बारे में पढ़ रहा है, एक में आरूषि मर्डर केस के बारे में पढ़ रहा है, एक उसका फेसबुक पेज खुला है, एक उसका ट्विटर पेज खुला है और एक यूट्यूब पर कोई ट्रेलर देख रहा है। अगर उसके 10-15 टैब्स खुले हों और वह उन तमाम टैब्स के बीच आ-जा रहा है, तो क्या अनुभव रहा होगा उसका। ये फ़िल्म वही है। मतलब आप पहले थोड़े बुद्धिजीवी बनते हो, चलो आपने नक्सलियों के बारे में पढ़ लिया, आपको बुरा लग रहा है, आपको कुछ लिखना है, अरुंधति रॉय के आप साथ हो - विरोधी हो, आप सोच रहे हो, फिर आपको फेसबुक पर मैसेज आ जाता है, आपके फ्रेंड का ऐसी ही किसी फिलॉसफी के बारे में। या फेसबुक पर वो जो टिपिकल अपडेट होते हैं न, कि आई डोन्ट लाइक लायर्स... ठीक है वो अजीब है मजाकिया है लेकिन आप व्यक्त कर सकते हो, शायद वो नोट कर लिया और उसके बाद किसी लड़की का फोटो देख लिया फेसबुक पर तो उसका पीछा करने लगे, उसकी तस्वीरें देखने लगे। फिर बाहर आए और ट्विटर पर कुछ लिख दिया। उसके बाद यूट्यूब पर एक वीडियो देख लिया। तो फ़िल्म मूलतः वो है। फिर जब रिएलिटी में आप आते हो, तो वो जो रंग और एक सुपरहीरो क्वालिटी है, बढ़ाई-चढ़ाई, वो कम हो जाती है। वो सब चला जाता है और आप फिर से असल दुनिया में आ जाते हो। अब जो चेहरे दिखते हैं वो ही असल हैं, वो ही हालात असल हैं। ऐसे विचार दिखाने की कोशिश थी, पर एक्सपेरिमेंट ही है। लिखा भी था तब आइडिया था कि बहुत से लोगों को समझ नहीं आएगा और गाली भी पड़ने वाली है।

गीक्स की जो परिभाषा है तो क्या ये वही हैं जिनके पास कंप्यूटर और इंटरनेट की पहुंच है, जो महानगरों में रहते हैं? क्या उनके अलावा भी कोई गीक हो सकता है? कस्बाई या गांव का आदमी? या किसी और परिपेक्ष्य में...
जरूर। सुपररहीरो की जो परंपरा रही है वो ये कि सुपरहीरो अपनी पहचान छिपाकर रखता है और उसकी जो आम असहाय इंसान वाली पहचान है वो लोगों के सामने होती है। उसी प्रकार इंटरनेट आपके लिए बहुत ही बढ़िया लबादा है। ये बहुत बढ़िया परदा है जिसके पीछे आप छिप सकते हो और किसी पर भी वार कर सकते हो। उस हिसाब से इंटरनेट की पहुंच वाला कोई भी सुपरहीरो बन सकता है। जैसे, गांव में जिनके पास इसकी पहुंच नहीं होती, वो शायद इसीलिए चद्दरमार करते हैं। किसी को खेत में पकड़ लिया, चद्दर में लपेटा और मार दिया। नहीं, ये तो मजाकिया बात हो गई लेकिन गांव में भी आज एक जागरूकता तो है। जब-जब उसे प्लेटफॉर्म मिलेगा जहां वो अपनी राय दे पाए वहां-वहां वो मौका गीक बनने का सबको मिलेगा। जैसे पहले लेटर टु एडिटर हुआ करते थे या चिट्ठियां हुआ करती थीं, वैसे ही आजकल ये है कि आपको रुकना नहीं होगा कि कोई एडिटर छापे। इसमें आप छप भी जाते हैं और पूरी दुनिया भर में उसकी खबर हो जाती है।

जितने भी गीक हैं दुनिया के उनको ज्ञान बहुत है दुनिया का, सूचना की बौछार उन पर हो रही है, वो दीन-दुनिया के सारे इवेंट्स जानते हैं, उनका एक मत है लेकिन क्या इससे रियल लाइफ में वो कुछ फर्क डाल पाते हैं या कभी डाल पाएंगे?
दरअसल ये जो एम्पावरमेंट है, एक तरह से थोड़ा खोखला एम्पावरमेंट भी है। अल्पावधि में ये आपको सशक्त महसूस करवाएगा और आपको लगने लगेगा कि दुनिया तो अब बदल दोगे, लेकिन दीर्घावधि में ये सिर्फ शब्द ही रहेंगे। ये फिजिकल (भौतिक) नहीं है, वर्चुअल (छाया) है। लेकिन उसी कॉन्ट्रास्ट में अगर आप देखो तो एक आदमी के अलावा लाखों जुड़ गए तो शायद ईजिप्ट गिर जाए। जैसे विकीलीक्स हैं, वो अपने आप में एक क्रांति हैं। ये तो सच है कि अगर हमने ढंग से हमारी बातों को प्रस्तुत किया तो जैसे ईजिप्ट में है, जैसे क्यूबा में है, वैसे अगर वो लोगों को जोड़ पाए तो फर्क भी पड़ेगा। इसमें एम्पावरमेंट को बहुत कंस्ट्रक्टिव (सृजनात्मक) तरीके में हमें ढालना पड़ेगा। मतलब अभी तो हम बहुत ही इंडिविजुअलिस्टिक हैं, हम अपनी-अपनी निजी ग्लोरी में घुसे हैं कि यार मैंने बोल दिया है। जैसे, मैं शाहरुख को पसंद नहीं करता हूं तो मैं खुद ही उसके ट्विटर अकाउंट पर जाकर लिख दूंगा कि भाई मैं तुझे पसंद नहीं करता। तो इस खेल से जब हम ऊपर उठेंगे तो शायद सीरियस तरीके से ओपिनियन देने का मौका है हमारे पास, एकजुट होने का मौका है। गंभीर होंगे, साथ होंगे तो काफी कुछ हो सकता है। अभी जैसे फ्लैशमॉब या पीसमार्च होते हैं तो मेरे ख्याल से छोटे-मोटे लेवल पर हो ही रहा है, आगे भी होंगे। मतलब अभी तो लोग खेल रहे हैं, जब इस खेल से थक जाएंगे और उनका कंस्ट्रक्टिव यूज होगा तो पक्के तौर पर कुछ बदलाव होगा। मेरे ख्याल से हो भी रहा है।

जैसे दिल्ली की घटना हुई थी तो उस समय भी बहुत से ऑब्जर्वेशन थे कि जितने लोग जंतर-मंतर पर जा रहे थे उनमें ज्यादातर फेसबुक और ट्विटर से प्रेरित होकर जा रहे थे, बाकी लोग जेएनयू या दूसरी शैक्षणिक संस्थाओं की स्टूडेंट पॉलिटिक्स से जुड़े थे।
...सही, सही... ये फ़िल्म में है भी। एक असहाय गुस्से को दिखाया है। जैसे हमें लगता है कि अगर हम वहां होते तो हम कुछ करते। ये उसी तरह का है। पहुंचना आसान हो गया है। सही चीजों के लिए आप पहुंचोगे तो मेरे ख्याल से वो सुनी जाएंगी।

जितना हम लोगों के पास, जो शहरों में बैठे हैं, इंटरनेट की उपलब्धता है या जो बड़े उदार विचार रखते हैं, वैसे ही जो तमाम ऐसी ताकतें हैं जो दकियानूसी हैं, या कहें तो औरतों के अधिकारों को दबाने वाली हैं या खुली सोच को दबाने वाली हैं, उनके भी फेसबुक पेज हैं, वो भी ट्विटर पर एक्टिव हैं, वो भी गीक हैं अपने मायनों में। तो फिजिकली ही नहीं, वर्चुअली भी वो हैं और अपनी जय... फलानी संस्था खोलकर बैठे हैं। तो इसे आप कैसे देखते हैं? उनका इस स्पेस पर होना क्या यहां भी एक पुरानी वाली ही लड़ाई नहीं खोल देता है? क्योंकि एक तरीके से हमें लगता है कि जितने भी गीक्स हैं वो सही हैं या उनके पास इतना नॉलेज है कि वो सही ही करना चाहते हैं बस कर नहीं पाते हैं।
ये एक्चुअली बहुत सही बात बोली जो इस फ़िल्म में भी है। इसमें अगर आप देखोगे तो लीड कैरेक्टर बॉक्सिंग रिंग में दो दूसरे लोगों से लड़ रहा है। वह कहता है, “मेरे जैसे दूसरे लोग भी हैं लेकिन वो मुझे तरह-तरह की चीजें कहते हैं पर मैं सहमत नहीं होता”। फिर उनमें झगड़ा शुरू हो जाता है। तो वह ट्विटर पर चलने वाले वॉर से जोड़ने के लिए था। आखिर में वह कहता है, “अनफॉलो, कि ये चीज मुझे रोकती है तो मुझे उसे अनफॉलो करना है”। फिर उन दोनों को लात मार देता है रिंग के बाहर। वो अपनी जगह है लेकिन आप सही कह रहे हो कि एम्पावरमेंट दोनों जगह है, दोनों को मिल रहा है। मतलब मैं न्यूट्रल और लिबरल होकर बहस कर सकता हूं तो एक एक्सट्रीम लेफ्ट विंग और एक एक्सट्रीम राइट विंग भी आर्ग्युमेंट दे सकता है। ये प्लेटफॉर्म एक अजीब सी समानता दे रहा है। जैसे कुएं में ये पानी पिएगा और ये पानी नहीं पिएगा... जिसके साथ 25 साल पहले ऐसा हुआ वो आज एक-बराबर बनकर रह सकता है, पॉजिटिव को प्रस्तुत कर सकता है। प्रोज और कॉन्स तो रहेंगे ही। जरूरी नहीं है कि इंटरनेट लिबरल्स के लिए ही है, वो तो सभी के लिए है। वही है कि कितना मजबूती से आप अपनी बातें रख सकते हैं। आम आर्ग्युमेंट में क्या होता है कि कोई इंसान डरा हुआ हो तो उसके सामने वाला उसे चिल्लाकर ही चुप करवा देगा, इंटरनेट पर वो तो नहीं हो सकता है कम से कम। आपको अपनी पूरी बात कहने की आजादी है, दूसरा कोई आपकी बात काट नहीं सकता। मेरे ख्याल से आर्ग्युमेंट रखने के लिए बहुत बढ़िया जगह है और इसके साथ हम इवॉल्व भी होंगे और बेहतर इवॉल्व होंगे। अभी तो मजा आ रहा है। अभी तो बहुत कुछ करने को मिल रहा है। वो होता था न कि बचपन में एक चम्मच शक्कर खा ले तो बच्चा कूदता रहता है पूरे घर में पूरे दिन। अभी तो मेरे ख्याल से उस तरह का एक माहौल है। जब ये माजरा थोड़ा स्पष्ट होगा तो मेरे ख्याल से ये दौर कुछ और ही होगा।

अगर इंटरनेट पूरी आजादी दे रहा है और हमें मजा आ रहा है और ये बहुत पॉजिटिव सब कुछ लग रहा है, तो क्या इसके साथ एक खामी ये नहीं आ गई है कि जो निजी जीवन में हमारे अपने हैं उनको हम कम वक्त दे रहे हैं?
आइसोलेशन तो मैं मानता हूं, होता है। जितना लाखों अनजान लोगों से हम जुड़ रहे हैं उतना पांच अपने लोगों से दूर जा रहे हैं। मानता हूं ऐसा हो रहा है। जैसे, पति-पत्नी भी बाहर डिनर पर जाते हैं तो दोनों अपने-अपने स्मार्टफोन खोलकर वर्चुअल लोगों से इंटरैक्ट कर रहे हैं और सामने उनकी दूरी बढ़ रही है। इसका भी एक दौर है क्योंकि ये आपको अपने अंदर सोख लेती है, इतना एम्पावर करती है कि क्या कहें। तो इवॉल्यूशन होगा, अभी जितना जोश है उतना एम्पावरमेंट हैं, जाहिर है आप ज्यादा घुस चुके हैं उस चीज में तो एक बिंदु के बाद आपको दोनों चीजों का अहसास होगा कि ये इतना सा ठीक है और इतना ठीक नहीं है। ये इंट्रेस्टिंग सा है पर पता चलेगा आगे आने वाले सालों में। एक जेनरेशन जैसे मेरी जेनरेशन है जो दूरदर्शन, ब्लैक एंड वाइट और मारुति 800 से आई है। जब वो वक्त आएगा तो हम काफी बूढ़े हो चुके होंगे। तब एक ऐसी जेनरेशन होगी जो सिर्फ इसी मैं पैदा हुई होगी। बढ़िया से बढ़िया इंटरनेट स्पीड में, ग्लोबलाइज्ड दुनिया में और मॉल में पैदा हुई होगी। वो इस चीज को कैसे यूज करती है देखना बहुत इंट्रेस्टिंग होगा। कैसी फैमिली वैल्यूज और अपना कैसा समाज वो बनाना चाहेंगे, देखना होगा। उनकी बातें, शायद बहुत रोचक होगी सुननी। हम तो बीच की पीढ़ी के हैं तो रियलाइज भी करते हैं और खुद को रोक भी लें कि चलो डिनर के दौरान फोन नहीं यूज करना है या ये नहीं करना है वो नहीं करना है। पर जो युवा एब्सोल्यूट फ्रीडम में पैदा हुआ है। मेरे ख्याल से आने वाले तीस साल में महानगरों में तो कम से कम वर्ग भेद नहीं होगा क्योंकि तब का युवा कॉन्शियस होकर इन चीजों से गुजरा नहीं होगा कि यार मेरे पास तो दो रुपए की पेंसिल है और उसके पास इतनी महंगी पेंसिल है। इस तरह की छोटी-छोटी चीजों से हम गुजरे हैं, वो जो नहीं गुजरा होगा, वो कैसे रिएक्ट करेगा टेक्नोलॉजी को लेकर और उसकी एडवांसमेंट को लेकर, देखना ज्यादा रोचक होगा शायद।

फ़िल्म का पहला विचार आपको कब आया और अंतिम मसौदे तक पहुंचने में कितना वक्त लगा?
आइडिया मुझे अपने ट्विटर के दोस्तों से आया था। मैं ट्विटर पर एक्टिव नहीं रहता हूं बस फॉलो करता हूं, देखता रहता हूं। मेरे जो दोस्त हैं वो आपस में जैसे जज्बे के साथ लड़ते रहते हैं और किसी को कुछ भी बोल देते हैं। कभी-कभी ये माध्यम विस्तार, पहुंच और ताकत भी देता है। जैसे मैं कहूंगा कि “काम नहीं है” तो दोस्त पूछेगा कि “तू बोल क्या-क्या कर सकता है”, तो मैं कहूंगा कि “ये ये कर सकता हूं”। इसे वो ट्विटर पर डाल देगा कि “मेरा दोस्त है उसे काम चाहिए”, “मेरा दोस्त है उसे घर चाहिए”। ये एम्पावरमेंट है जिससे पहले आपकी पहुंच बहुत सीमित थी। दूसरी तरफ वो जो बचकानी हरकतें करते हैं। जैसे, कोई फ़िल्म रिलीज हुई और उस पर जो आर्ग्युमेंट चल रहा है वो न जाने किस लेवल पर चला जाता है। असल जिदंगी में मैं इन सबको जानता हूं। जैसे एक का ट्विटर हैंड है वो एक अलग व्यक्तित्व होगा और जो असली है वो एक अलग पर्सनैलिटी होगा और मैं दोनों को जानता हूं। उसकी ट्विटर पर दस-पंद्रह हजार की फॉलोइंग है और लोग डरते हैं उससे, वो आर्ग्यू जब करता है तो लोग चुप हो जाते हैं और सचमुच की जिदंगी में मैं उसे देखता हूं और जानता हूं कि कैसा है उसकी आवाज क्या है। तो वो जो कॉन्ट्रास्ट है, वो प्रेरणा थी इस फ़िल्म की। मतलब आदमी एक वर्चुअल स्पेस में हल्क बन सकता है और असली जिदंगी में जैसे हल्क बनने से पहले जो डरा हुआ डॉक्टर है वो हो सकता है, तो एक तरह से वो ही शुरुआत थी कहानी की।

लिखने में कितना वक्त लग गया?
उसमें कुछ व्यवस्थित नहीं था। मतलब कुछ भी लिख दिया था कि ऐसे-ऐसे-ऐसे होगा। मन में था कि देखते हैं विजुअल्स के साथ इसका बनता क्या है। हम लोग एक रैंडमनेस (भटकाव) के साथ कोशिश कर रहे थे फ़िल्म बुनने की। हम लोगों को आम स्टोरीटेलिंग की आदत है कि ‘ये ऐसे ऐसे है’, लेकिन हमारी जो वर्चुअल जिदंगी है वो मेरे ख्याल से ‘ये है ये है ये है’ नहीं है। तो वो रैंडमनेस जरूरी थी कि आप यहां से वहां कूद रहे हो अपने मन में। आप जब बैठकर दिन में सपने भी ले रहे होते हो तो अजीब से अजीब परिस्थितियों में होते हो। ऑस्कर भी कलेक्ट कर रहे होते हो, भाग भी रहे होते हो, कहीं मुड़ भी रहे होते हो, तो उसकी कोई सीमा नहीं है। ऐसा कुछ बांधा नहीं था मैंने स्टोरी के साथ, अलग-अलग सब्जेक्ट थे। ऐसा इंडिया के बारे में मैसेज भी है। जैसे, वो स्लो मोशन में एक दिशा में भाग रहा है जहां एक शहरी आदमी शायद ही जाता है। वहां बताया जाता है कि “जब आप शहर में मॉल बना रहे हो तब जंगल में युद्ध लड़ा जा रहा है, सिविल वॉर”। वहां लोगों के पास घर-बार नहीं हैं, उन्हें विस्थापित कर दिया गया तो वो लड़ रहे हैं। ये उसका एक प्रस्तुतिकरण था, पर बहुत ग्लैमरस प्रस्तुतिकरण था।

एक सुपरहीरो क्लीशे के काम भी आता है कि एक सुपरहीरो जो होता है उसे एक्सट्रीम पेन से गुजरना पड़ता है, इससे पहले कि वो तय करे कि सुपरहीरो बनेगा। ये उसी का संदर्भ था। जैसे, वो नक्सली अपनी गर्लफ्रेंड के साथ भाग रहा है और जंगल में वो इंडियन आर्मी के हाथों मारी जाती है, तब वो लड़ाई करता है तो सोचता है कि अब मैं शहर जाकर लड़ूंगा। अकसर आपने देखा हो तो सुपरहीरो कहीं का भी रहने वाला हो शहर में आकर ही अपनी जंग लड़ता है। यानी आप कहीं पर भी अपनी जंग जारी रख सकते हो। वो चाहता तो जंगल में भी लड़ाई चालू रख सकता था, पर आता तो शहर में ही है और बिल्डिंग की छत पर खड़ा होता है। ये जो अलग-अलग छवियां हैं इन्हें लिया गया है।

जैसे वो ट्रेन वाला सीक्वेंस है जहां पर वो लड़की उसे आकर थैंक यू कहती है और वो शरमा जाता है और उसके बाद एक घटनाओं की श्रंखला होती है। ये बेसिकली हमारे जो इंस्टाग्रैम अपडेट्स हैं, हमारे जो अच्छे वाले फेसबुक अपडेट्स हैं कि यार आज में इस पार्टी में गया, वो जो होता है न कि सामने कैमरा रखकर आप खुद की फोटो खींच लेते हो और अलगअलग पोज देते हो। मतलब आप भले ही मोटे हो लेकिन सिर्फ अपना पेट खींचते हो कि पूरी बॉडी न दिखे। मतलब वो कैजुअली मैनिप्युलेटेड अच्छी वाली तस्वीरें जो होती हैं, ये वो वाला हिस्सा है। और इंटरनेट पर जैसे आप देखोगे कि कोई बिल्ली का वीडियो डाल देगा तो छह लाख लोग उसे देख लेंगे लेकिन एक सीरियस इश्यू के बारे में बात करोगे तो कोई नहीं देखता। ये उस तरह की चीजें हैं। जैसे वो बिल्ली लाकर दे रहा है और बुड्ढियों के साथ सीडी देख रहा है। मतलब वो जो बहुत ही कन्वेंशनल क्यूट चीजें लोग करते हैं इंटरनेट में खोते हुए।

फिर स्टोरी का प्रोग्रैशन ये है कि वो अब इन चीजों से पक चुका है। अब उसे सुपरहीरो विजिलांते वाली चीजें आ रही हैं, वो लोगों से लड़ रहा है, लोग उसे कुछ कह रहे हैं, उसे मान ही नहीं रहे। फिर वो फेसबुक में अपने दिन बिताने लगता है और लड़कियों को स्टॉक कर रहा है। बाथ टब से लेकर वो जो आगे वाले सीन हैं, उनका मतलब यही है कि फेसबुक पर वह लड़कियों की तस्वीरें स्टॉक कर रहा है और फिर हम देखते हैं कि वो लड़की उसके सामने बैठी है और वो उससे बात नहीं कर पाता, उसकी बातचीत सिर्फ इतनी ही है कि यूट्यूब पर कमेंट छोड़ देता है उसके लिए कि मुझे तुम पर यकीन है। लड़की ने शायद इंडिया अगेंस्ट करप्शन की तरफ से अर्णब गोस्वामी के शो पर हिस्सा लिया हो और वो देख रहा है यूट्यूब पर। उसे बस वही रास्ता दिखता है कि मैं यूट्यूब पर कमेंट छोड़ दूंगा जबकि सपनों में और वर्चुअल लाइफ में वो सुपरहीरो है और उस लड़की को बचाता है और सब दुनिया को बचा रहा है। यानी जब रिएलिटी की बात आती है तो यही भाव हैं, यही हमारे ख्वाब हैं और उतने में ही सिमट जाते हैं।

आखिर में जब वो लोग अपनी डेस्क ऊपर कर रहे होते हैं, वो क्या करते हैं?
हा हा, वो एकदम गीक वॉर होते हैं कि एक मैकेनिकल डेस्क है और देखते हैं सबसे पहले ऊपर कौन करेगा। फ़िल्म में तो बहुत सीरियस दिखाया है पर असल मैं ऐसे सीरियस होता नहीं है। जैसे, दो लोग कागज की गेंद बनाते हैं और कचरे के डिब्बे में फेंकने की कोशिश करते हैं कि किसकी पहले गई। ये वैसा ही है। ये छोटी-मोटी चीजें हैं इसमें आप अपनी खुशी दिखाते हो क्योंकि आगे आप सोशियली बहुत चैलेंज्ड हो। आप एक पार्टी की जान नहीं हो। आपके लिए लोग रुकते नहीं हैं, आप उनमें से हो जिसे पूछना पड़ता है “कहां जा रहा है कहां जा रहा है, मैं आऊं मैं आऊं”। आपके जाने या न जाने से लोगों को फर्क नहीं पड़ता। हम जैसे लोग आपस में मिलते हैं तो एक अजीब सा इंटरेक्शन होने लगता है। ये उस तरह की स्थिति थी जहां मुझे दिखा कि गूगल के दफ्तर में ऐसी बैंच है जो ऊपर-नीचे होती हैं, तो मैंने सोचा कि हां रोज ये लोग शायद करते होंगे तो यूज करता हूं। जब कैमरा सेट हो रहा था, लाइट सेट हो रही थी तो मैं ऐसे किसी और के साथ खेल रहा था।

किन-किन लोगों को कास्ट किया और क्यों किया?
विकी (कौशल) को मैं तीन-चार साल से जानता हूं। उससे समर्पित और कमाल लड़का मैंने देखा नहीं है। लुक और परफॉर्मेंस में और एक इंसान के तौर पर उसने मेरे सामने ही ग्रो किया है। उसके साथ तो मैं हमेशा ही काम करना चाहता था। मुझे पता था कि बिना एक भी डायलॉग के बहुत सटल एक्सप्रेशन में एक वही है जो कर पाएगा। जहां बेहद एक्शन की डिमांड है वो भी कर लेगा और जहां अभिनय की जरूरत है वो भी कर लेगा। नेहा (चौहान) को मैंने ‘एलएसडी’ (लव सेक्स और धोखा) में देखा था। फ़िल्म में उसके काम से काफी प्रभावित था मैं। उसकी लाइफ भी अजीब रही थी, वो दोस्त की शादी में नाच रही थी, वो वीडियो दिबाकर ने देखी और उसे चुना। मुझे उसका लुक काफी रोचक लगा था, पारंपरिक नहीं था। जैसे आप हीरोइन चुनते हो तो एकदम गोरी-चिट्टी और मर्यादाओं वाली, तो नेहा उन धारणाओं को तोड़ रही थी। जब भी वो एक कमरे में चलकर आती थी तो लड़के रिएक्ट करते थे। मुझे वो अच्छा लगा कि उसका एक अजीब तरह का अट्रैक्शन है, जो कि पारंपरिक तरीकों से आप नहीं लगते हो। नेहा अच्छी एक्ट्रेस है। काफी उत्साहित है। उसके अलावा जितने भी लोग हैं, सारे मेरे दोस्त ही हैं। जैसे, कोई ट्रेन में पीछे खड़ा है तो प्रॉडक्शन वाला है।

कौन सा कैमरा इस्तेमाल किया?
कुछ-कुछ जगहों पर रेड एपिक (Red Epic) किया है जहां पर एक्शन है और जंगल के सीक्वेंस हैं। बाकी जगहों पर जहां परमिशन नहीं ले सकते थे जैसे ट्रेन हो गई वहां पर 5डी (Canon EOS 5D) यूज किया।

इस फ़िल्म में जैसे दो-तीन बिंदु हैं कि “जंगलों में युद्ध लड़े जा रहे हैं और शहरों में मॉल खड़े किए जा रहे हैं” या “दिल्ली की उस बस में मैं होता”, ऐसे बिंदु क्या अपनी बाकी फ़िल्मों में भी आप लाना चाहेंगे?
ये जिदंगी से ताल्लुक तो रखते ही हैं। आप अखबार उठाओ तो पढ़ सकते हो। मेरे ख्याल से किरदार कोई भी हो पुट तो किए ही जा सकते हैं, कितना वो रजिस्टर कर पाएंगे पता नहीं। अब जैसे इसमें मजाक के तौर पर डाल दिया है तो शायद ध्यान नहीं जा रहा लेकिन अब उस मूमेंट में कितना हो सकता है उतना ही किया जा सकता है। लेकिन बात ये है कि मैं अपने पॉइंट रखता जाऊं, बाकी लोग पहले हफ्ते में समझेंगे या दूसरे में या मिस कर देंगे। ठीक लगा तो शायद समझ जाएं।

फ़िल्में कौन सी देखीं हाल में?
ऐसी कोई मजेदार फ़िल्म देखी नहीं। एक ‘ओनली गॉड फरगिव्स’ बहुत ही चर्चित फ़िल्म रही जो कान में थी और लोगों को बिल्कुल पसंद नहीं आई। मेरे ख्याल से एक अजीब सा माहौल बन रहा है जहां लोग नहीं चाहते कि फ़िल्म में एक्सट्रीम हिंसा हो या खून-खराबा हो तो उसे वो बिल्कुल नकार रहे हैं। मेरे ख्याल से फिर से वो दौर आएगा जहां साफ फ़िल्में होंगी। इंटरनेशनली भी मैं देख रहा हूं कि माहौल रिएलिटी या हिंसा दिखाने का नहीं है। डार्क फ़िल्में लोग नकार रहे हैं।

ऐसा क्यों, क्योंकि निकोलस की पिछली फ़िल्म ‘ड्राइव’ में भी हिंसा को बहुत ही शांत-सुरम्य तरीके से दिखाया गया था और लोगों ने पसंद भी किया, ‘ओनली गॉड फरगिव्स’ भी शायद वैसी ही है फिर ऐसा क्यों? टैरेंटीनो भी पोएटिक सा वॉयलेंस दिखाते हैं लेकिन उन्हें उनके फैन्स देवता मानते हैं। ये जो हिंसा को नकारने वाले दर्शक हैं, ये नई पीढ़ी के हैं या उस पीढ़ी के जो काफी वक्त से सिनेमा देख रही है?
दोनों। दोनों ही नकार रहे हैं। टैरेंटीनो को आप फिर भी इतना सीरियस नहीं पाएंगे। मतलब टैरेंटीनो की फ़िल्म में मुझे नहीं लगता कि मैं रिएलिटी ढूंढता हूं। मैं तो एंटरटेनमेंट ही ढूंढ रहा होता हूं। लेकिन निकोलस की फ़िल्में एक बहुत ही अलग जोन में जाती हैं और वो एक घुटन सा महसूस करवाती हैं। मैं तो ऐसे सिनेमा से जुड़ना चाहूंगा जो ज्यादा रियल है, ज्यादा रेजोनेंट है। भले ही वो बहुत ही डिबेटेड फ़िल्में हों क्योंकि अच्छी बात ये है कि वो समानांतर भाषाओं में हैं ताकि सब लोग देख सकें। वो एक ऐसी चीज होगी जो कुछ लोगों को बहुत ही बेकार लगेगी और कुछ लोगों को बहुत ही पसंद आएगी। आज के वक्त में एक बहुत ही कमाल माहौल है कि हर आदमी अपना अलग नजरिया रख रहा है न कि आयातित नजरिया। इस लिहाज से निकोलस जो करने की कोशिश कर रहे हैं वो काफी हिम्मत का काम है। उनका करियर फॉलो करने में मजा आएगा।

और किसी फ़िल्म से जुड़े हैं कि अपनी पटकथा पर ही काम कर रहे हैं?
अपनी कहानी ही लिख रहा हूं। वैसे ‘बॉम्बे वेलवेट’ में राइटर था पर वो काम काफी पहले ही खत्म हो गया था।

Vasan Bala is a Mumbai based filmmaker. He has made a Short film called ‘Geek Out.' Last year, he made ‘Peddlers' which was received very well at various National - International film festivals. He has worked with Anurag Kashyap on 'Dev D', 'That Girl in Yellow Boots', 'Gulaal' and ‘Bombay Velvet’ (Script). He was an associate director to Michael Winterbottom on 'Trishna'. Now he’s writing his next movie.
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Thursday, January 3, 2013

अमीर कुस्तरिका के साथ मैं लिफ्ट में था, जिंदगी में वो 40 सैकेंड कभी नहीं भूलूंगाः वासन बाला (पैडलर्स)

बातचीत 2012 की बेहतरीन स्वतंत्र फिल्मों में से एक ‘पैडलर्स’ के निर्देशक वासन बाला से

 

जाते 2012 के दौरान साल के बेहतरीन फिल्म लेखकों के साथ किए अपने कार्यक्रम में टीवी फिल्म पत्रकार राजीव मसंद ने एक सवाल पूछा। “वो कौन सी हिंदी फिल्म थी जो इस साल आपने देखी और मन ही मन सोचा कि काश मैंने ये लिखी होती” ...इसके जवाब में ‘इशकजादे’ के निर्देशक और लेखक हबीब फैजल कहते हैं, “एक फिल्म है जो अभी तक रिलीज नहीं हुई है। पैडलर्स। बहुत ही प्रासंगिक फिल्म”। हिंदी सिनेमा के सौंवे वर्ष में स्वतंत्र फिल्मों का भी जैसे नया जन्म हुआ है। इस साल बहुत ही शानदार स्वतंत्र फिल्में बनीं हैं और उन्हीं में से एक है पहली दफा के निर्देशक वासन बाला की फिल्म, ‘पैडलर्स’। कान फिल्म फेस्टिवल-2012 के साथ चलने वाले इंटरनेशनल क्रिटिक्स वीक में फिल्म को दिखाया गया। वासन की फिल्म अब तक टोरंटो, कान, लंदन बीएफआई और स्टॉकहोम फिल्म फेस्टिवल में जाकर आ चुकी है और बहुत तारीफ पा चुकी है। मुंबई में ही रहने वाले वी बालाचंद्रन और वी राजेश्वरी के 34 वर्षीय पुत्र वासन पहले बैंकर रहे, फिर फिल्मों का जज्बा इस दुनिया में ले आया। वह अनुराग कश्यप की ‘देव डी’ और ‘दैट गर्ल इन यैलो बूट्स’ के निर्माण वाली टीम में रहे। बेहद नामी ब्रिटिश फिल्मकार माइकल विंटरबॉटम की फिल्म ‘तृष्णा’ की भारत में हुई शूटिंग के दौरान वासन ने हाथ बंटाया। उन सबके बाद अब उनकी खुद की फिल्म आई है। अगर सबकुछ सही रहा तो जल्द ही सिनेमाघरों में ‘पैडलर्स’ नजर आएगी।

Vasan Bala
‘पैडलर्स’ कब बनकर तैयार हुई? उसके बाद जितने भी फिल्म फेस्ट में गई उसका अनुभव कैसा रहा?
फिल्म जैसे बनी थी मैं उससे ही काफी हैरान था। क्योंकि इसके मुख्य विषयों पर जाएं तो एलियनेशन, पेसिमिज्म और इनकनक्लूसिव टाइप की लाइफ की बात है। जैसे, शहर में हमारी जिंदगियों में एलियनेशन है, भीतर नैराश्य उपज रहा है और सब-कुछ अनिर्णायक सा है। अगर फिल्मी फॉरमेट को देखें तो उसमें सब उल्टा होता है और मैं चाहता था कि मेरी फिल्म में ऐसा न हो। इसलिए हैरान था कि ऐसी फिल्म बन कैसे गई। बनी भी और फिल्म फेस्टिवल्स में भी गई। वहां भी पहली बार के फिल्मकारों मिलना हुआ, जाना कि उन्होंने अपनी पहली फिल्म कैसे बनाई और वो क्या सोचते हैं। उनमें एक किस्म की विनम्रता थी जो मुझे बहुत पसंद आई कि बस जमीन से जुड़े रहो और स्टोरी आइडिया की तलाश में रहो। तो बहुत अच्छा रहा लोगों से बात करके और जानकर।

कहानी आपके दिमाग में किस वक्त आई?
फिल्म एक तरह से प्रतिबिंब ही है कि आप किस मानसिक स्थिति में हो। मैं भी काफी अलग-थलग महसूस कर रहा था जब कहानी लिखी। काफी निराश था जिंदगी और करियर को लेकर। बहुत ही अनिर्णायक स्थिति थी जो अभी भी है मेरे ख्याल से.. समाधान तो निकलना भी नहीं चाहिए...। तो ये सब चीजें और रोजाना के ऑब्जर्वेशन फिल्म में आए। किसी कहानी या बाकी चीजों से ज्यादा मैं एक फिल्म में वही देखता हूं। जो भी डेली ऑब्जर्वेशन होते हैं मेरे, या लोगों के, चीजों के, उसको जैसे है वैसे डॉक्युमेंट्री की तरह दर्शाते जाओ। कैरेक्टर्स को फॉलो करके देखो कि वो जाते कहां हैं, फिर एक तरह से कैरेक्टर्स अपनी कहानी खुद बना लेते हैं और जो भी समाधान है वो अपने लिए ढूंढ लेते हैं। उस तरह की एक कोशिश थी फिल्म बनाने की। मोटा-मोटी फिल्म में तीन किरदार हैं। एक नारकोटिक्स ब्यूरो में पुलिस इंस्पेक्टर है जो कि खूबसूरत है, सफल है, पर वह इर्रेक्टाइल डिस्फंशन से ग्रसित है। इसकी वजह से उसकी खुद की एलियनेशन है। उसने अपने आप को एक तरह से बांध रखा है। निराशा अपने आप में पाल रखी है। इसी वजह से उससे कुछ चीजें हो जाती हैं। दूसरी एक बांग्लादेशी इमिग्रेंट है जो कि टर्मिनली बीमार है। इस बीमारी की वजह से वह खुद को अलग कर लेती है, नैराश्य पाल लेती है और वैसा ही काम करती जाती है। मतलब उसमें आशा और निराशा का एक विचित्र सा मिश्रण है। वह खुद जिंदा रहने और अपने बच्चों को जिंदा रखने के लिए कुछ भी करने को तैयार है। तो ये एक ‘स्ट्रेंजली कोल्ड ऑप्टिमिज्म’ है। ‘स्ट्रेंजली कोल्ड परपजफुल एग्जिस्टेंस’ है जो आस-पास के लोगों के लिए खतरनाक हो सकता है। अब जो तीसरा किरदार है वो एक मासूम लड़का है। मुंबई में है और किशोरवय में भीतर हर जगह स्वीकृति पाने का जो उबाल खुद के लिए होता है, वह उसमें है। तो वह अपने आपको उस परिस्थिति में अलग-थलग पाता है। ये तीनों लोग मुंबई जैसे शहर में किसी न किसी कारण से अकस्मात मिलते हैं, फिर उसके क्या परिणाम होते हैं, यही फिल्म है। मुंबई को हमने फिल्म में एक घोस्ट टाउन दिखाया है। मतलब ऐसा शहर जहां लाखों-करोड़ों लोग रहते हैं पर दिखता कोई नहीं है। हमने रात में काफी शूटिंग की और महानगर के अंदर की एलियनेशन दिखाने की कोशिश की, जहां आप भीड़ में भी अकेले घूमते हो। शायद इसीलिए आपको सिर्फ लोगों की आवाज सुनाई देती है। फिल्म में वातावरण में एक भीड़ बनाई गई है, पर विजुअली जब देखोगे तो आप सबको अकेला पाओगे। फिल्म का ट्रीटमेंट और फील ऐसा है। फिल्म का शीर्षक है ‘पैडलर्स’ जिसका मतलब ही होता है वह जो चलते-फिरते चीजें बेचता रहता है। ये गतिमान रहते हुए रोजमर्रा की चीजें बेचने के कॉन्सेप्ट जैसा है। जैसे हम ईमानदारी बेचते हैं, भरोसा बेचते हैं, प्यार बेचते हैं... एक तरह से ये उसी का विस्तार है।

कहानी के लिए ‘पैडलर्स’ को ही क्यों चुना? दूसरा, इसमें किरदार सिर्फ तीन हैं तो क्या इसकी एक वजह ये है कि जो भी नए फिल्मकार होते हैं उन्हें आर्थिक मदद नहीं होती.. तो कम किरदारों में वो एब्सट्रैक्ट बात ज्यादा कह पाते हैं और इकोनॉमिकली भी ज्यादा बेहतर रहता है?
ये कहानी मेरे उस वक्त के माइंडसेट के हिसाब से है। इसकी स्क्रिप्ट अगर मुझे पांच साल बाद दी जाए तो मैं इतनी ईमानदारी और सहज तरीके से शायद तब न कह पाऊं। क्योंकि पांच साल बाद शायद एक अलग लाइफ हो, इतना गुस्सा न हो अपने अंदर और ये सब चीजें अलग असर डालें। ये समाज की अस्वीकृति, अलगाव-थलगाव और निराशा खूब सारे पैसों और सुविधाओं से नहीं आ सकती। तो उस वक्त और माहौल से ‘पैडलर्स’ बनी। अब जो अगली फिल्म होगी वो शायद ‘पैडलर्स’ जैसी न हो। मतलब एक फिल्मकार की दृष्टि से स्टाइल औऱ ट्रीटमेंट एक हो सकता है पर फील वैसा नहीं। आप लाइफ में आगे बढ़ जाते हो, पीछे रह जाते हो या बीच में रह जाते हो... आपकी फिल्मों में अहसास उसी मुताबिक आते-जाते हैं।

शूटिंग का अनुभव कैसा रहा? दर्दनाक, मजेदार, आसान, मुश्किल?
कभी शूटिंग की कहीं इजाजत नहीं मिल पाती थी, किसी दिन शूट नहीं हो पाता था, किसी दिन कुछ चाहिए होता था वो मिलता नहीं था। ऐसी कठिनाइयां थीं तो भी मजेदार होती गईं, क्योंकि हम सभी बिना उम्मीदों के आगे बढ़ रहे थे और नतीजे का कोई अंदाजा नहीं था। कुछ पाने की चाह न थी, तो सब कुछ मिलता गया। फिल्म को बनाया तो पता चला कि अच्छा एक फिल्म फेस्टिवल भी चीज होती है, अच्छा एक रिलीज भी चीज होती है, रिव्यूज भी होते हैं, डायरेक्शन भी चीज होती है... सब पता चला। तो स्ट्रगल, स्ट्रगल लगा नहीं। एक जिद में बनाते गए। मेरे पास बहुत शानदार टीम भी थी। एक जैसी सोच वाले बंदे थे, सब हो गया। अगर कुछ स्ट्रगल रहा भी होगा तो उन लोगों ने मुझ तक आने नहीं दिया, जो बहुत भावभरा था। ये लौटकर कभी नहीं आने वाला है लाइफ में। अब पीछे पलटकर देखता हूं तो लगता है कि यार, ये कैसे बन गई।

टीम के बारे में बताएं?
छोटी ही थी। सेट पर हम पंद्रह-बीस लोग होते थे। इनमें मेरी एडिटर हैं प्रेरणा सहगल, मेरे डीओपी (डायरेक्टर ऑफ फोटोग्रफी) हैं सिद्धार्थ दीवान, मेरे साउंड डिजाइनर हैं एंथनी रूबन, मेरे म्यूजिक डायरेक्टर करण कुलकर्णी... उनका म्यूजिक बहुत कमाल है काफी यूनीक है, मेरी प्रोड्यूसर गुनीत हैं, मेरे एग्जिक्यूटिव प्रोड्यूसर अचिन जैन हैं जिन्होंने सेट पर कमाल कर दिया... इतने कम बजट में इतनी सारी लोकेशंस जो उन्होंने मैनेज करके दी। सब ने बहुत ही कमाल योगदान दिया है।

पहले क्या-क्या किया?
अनुराग कश्यप को असिस्ट करता था। उनके लिए बीच में थोड़ी-बहुत कास्टिंग भी कर लेता था। फिर उसके बाद माइकल विंटरबॉटम को असिस्ट किया उनकी फिल्म ‘तृष्णा’ में। उसके बाद कुछ एक-दो शॉर्ट फिल्म बनाईं, जो कुछ मजाकिया सी थीं, जो उस वक्त के माइंडसेट से निकली थी, बन गईं। फिर अहम मोड़ तब आया जब लगा कि यार फीचर फिल्में बनानी हैं। उसके पहले मैंने एक-दो स्क्रिप्ट लिखीं थीं जो बननी बाकी हैं, उसी दौरान लिखी गई थी ‘पैडलर्स’ जो अब बन भी गई। अब लॉजिक बिठाना चाह रहा हूं तो समझ नहीं आ रहा कि कैसे बनी। उसके पहले आठ साल बैंकिंग में था। पहले आइडिया ही नहीं था, फिर फिल्मलाइन में आना था मगर घरवालों को बोलने की हिम्मत नहीं हुई। उस दौर में तब जो-जो होता गया करता गया।

कौन से बैंक में काम किया और जॉब क्या-क्या कीं? क्या सोचते थे?
मुंबई में आईसीआईसीआई बैंक में था। उसके बाद एक सॉफ्टवेयर सेल्स कंपनी में था जो डॉक्युमेंट मैनेजमेंट सॉफ्टवेयर बनाती थी आईएसओ सर्टिफाइड कंपनियों के लिए। तो वहां पर मैं काफी इंडस्ट्रियल बेल्ट घूमा। फैक्ट्रियों में जाकर डॉक्युमेंट मैनेजमेंट सॉफ्टवेयर बेचता था। बीच में कुछ वक्त विज्ञापन कंपनी ‘मुद्रा’ में रहा। ऐसे ही कुछ न कुछ करता रहा। कोई निर्धारित लक्ष्य नहीं था कि करना क्या है करियर में। बस जो काम मिलता गया, करता गया। हर तीन-चार महीने में काम छोड़ भी देता था, पसंद नहीं आता था। यूं ही बस भटकने वाला लक्ष्यहीन अस्तित्व था। फिर खुशकिस्मती रही कि अनुराग कश्यप मिल गए। उसके बाद एक तरह से निश्चय हो गया कि यही होना है अब, भले ही इसमें सफल हों या न हों पर फिल्ममेकिंग को ही शायद अपना वक्त दूंगा।

जयदीप साहनी के बारे में ये था कि अपनी नौकरी से संतुष्ट न थे तो बॉस को इस्तीफे में लिखा कि ‘तेरी दो टकेयां दी नौकरी में मेरा लाखों का सावन जाए...’। कहीं ऐसा तो नहीं था जब आप बार-बार जॉब छोड़ रहे थे या बाद में ही महसूस हुआ जब अनुराग मिल गए कि फिल्में बनानी हैं?
फिल्में बनाने का शौक हमेशा था। यही था कि एक दिन चेन्नई जाऊंगा और मणिरत्नम के साथ काम करूंगा। लेकिन कभी हिम्मत ही नहीं हुई कि घरवालों को बताऊं। या शायद ये कि जिस दिन बताऊंगा तो वो सोचेंगे कि मैं एक पलायन का रास्ता ढूंढ रहा हूं... कि ऐसे ही जबर्दस्ती का कुछ बोल रहा हूं। और सबको पता ही था कि फिल्ममेकिंग मुश्किल चीज होती है घुसने में ही। किसी को विश्वास नहीं था कि अगर मैंने एक चीज बोली है तो करूंगा या उस चीज पर रुका रहूंगा। जब जॉइन किया अनुराग कश्यप को और उन्होंने देखा कि ऐसा नहीं है ये किसी दोपहर को आ नहीं रहा है या ये नहीं कह रहा है कि मैंने नौकरी छोड़ दी... उन्होंने देखा, एक साल, दो साल, तीन साल, चार साल, मैं जुड़ा रहा लगातार तो उनको भी भरोसा हो गया कि हां, ये शायद यही करना चाहता है। क्योंकि इतने लंबे वक्त तक उन्होंने किसी भी दूसरी चीज में मेरा इतना समर्पण देखा ही नहीं था। वो जब थोड़े संतुष्ट और आश्वस्त हो गए तो मुझे भी अच्छा लगा कि हां, शायद में भी कुछ ठीक ही कर रहा हूं।

अब माता-पिता क्या कहते हैं, छोड़ दो ये काम या करते रहो?
वो कह रहे हैं कि करता जा। वो अभी ये नहीं कह रहे कि पैसे कमाओ, ये करो, वो करो... वो कह रहे हैं शायद तुम्हें कुछ कहना है तुम कह दो वो। और कुछ नहीं हो पाया तो आ जाओ, घर ही आ जाओ। अभी वो करियर और उन चीजों को लेकर टेंशन में नहीं हैं। उन्हें पता है कि ये जो भी है अपने पैशन में कर रहा है। उस चीज को लेकर वो आश्वस्त हैं कि अभी मैं छोड़कर नहीं आऊंगा।

आपका बचपन कहां बीता और बच्चे थे तब कैसे थे?
बॉम्बे (मुंबई) के अंदर एक छोटा शहर है माटूंगा। वहां जितने भी लोग हैं वो एक-दूसरे के दादा-परदादा सबको जानते हैं। वह बॉम्बे की एक अजीब सी सुखद जगह है। बॉम्बे अप्रवासियों से बना हुआ है.. तो इमिग्रेंट हिस्ट्री दस-पंद्रह साल होती है या ज्यादा से ज्यादा बीस साल, लेकिन मेरे दादा तक बॉम्बे से हैं और मेरे मां-पिताजी की पढ़ाई तक यहीं हुई है, उनका बचपन भी यहीं बीता है। तो बहुत दिनों तक ये अहसास ही नहीं था कि बहुत बड़े शहर में रह रहा हूं। जब गांव जाता था तब अहसास होता था... लोग बोलते थे कि अरे बॉम्बे से आया है। नहीं तो मुझे अपनी लाइफ और उनकी लाइफ में कुछ खास फर्क नहीं लगा। वही किराने की दुकान में जाते थे, वही सब लोग मिलते थे, सबकुछ वही होता था। इस तरह बहुत ही मासूम और भोली परवरिश थी। फिर कॉलेज गया और बाहर दुनिया देखी। तब तक मैं 20 साल का था तो कोई सवाल ही निरर्थक था और किसी को पूछता भी नहीं था कि आप कहां से हो... जब समझने लगा तो लगा कि मैं ही अल्पसंख्या में हूं। तब वो कल्पना और अपना घर छोड़कर जाना बहुत आकर्षक लगा। क्योंकि जितने भी लोगों को मिला वो दो-तीन बार अपना घर बदल चुके थे, स्कूल बदल चुके थे, मेरा कोई ऐसा अनुभव था ही नहीं। एक ही स्कूल था, एक ही कॉलेज था, एक ही घर था और सब-कुछ बहुत सैटल्ड सा था। मैं अपने आप में अनसैटल्ड होता था कि मैं इतना सैटल्ड क्यों हूं। और पता नहीं कुछ सवाल हैं जो अपने आप के लिए आप खड़े कर लेते हो, जो इश्यू हैं ही नहीं, मैं भी कुछ ऐसे ही इश्यू से जूझता था अपने आप में। फिल्म बनानी है? नहीं बनानी है? मेरे आसपास ऐसा कोई नहीं था जो इस कला में या फिल्मों में रुचि रखता हो। मैं फिल्में देखता था और कहता था तो सब कहते कि अच्छा फिल्में बनानी है तो पहले कन्फर्म कर ले कुछ। मुझे उसमें से निकलने में ही काफी वक्त लग गया। ये मासूमियत वाला दौर था। एक बार जब इंडस्ट्री आया और देखा सब, तो मालूम पड़ा कि क्या स्ट्रगल है। पर पता नहीं क्यों तब तक एक निश्चय हो गया था कि बस यही करना है, मतलब मैं खुद अपने अनिर्णय की स्थिति से थक चुका था। अंत में जब यहां आया तो तय कर लिया कि अब यही करना है, जो भी हो। आर या पार।

लेकिन वासन, माटूंगा की अपनी जिस अपब्रिंगिंग का आप जिक्र करते हैं, वो एक तरह से वही सामाजिक  परवरिश रही कि वहां एक-दूसरे की केयर बहुत थी, एक-दूसरे के दादा-परदादा का नाम जानते थे। मैं राजस्थान से हूं तो 60-60 गांव दूर लोग एक-दूसरे को जानते हैं, वो बता देंगे कि 60 गांव दूर वो रहते हैं आप इस रास्ते से चले जाइए। तो माटूंगा की ऐसी परवरिश के संदर्भ में क्या आप मानते हैं कि खुशनसीब रहे क्योंकि आने वाली पीढ़ी को वैसा लालन-पालन नसीब नहीं होगा। संभवतः एक फिल्मकार के तौर पर भी आपको अपनी उस परवरिश का बहुत फायदा मिलेगा।
...और एक तरह से मैं भी जब देखता हूं तो हमारी जेनरेशन थी, जैसे आपकी और मेरी भी शायद, वो लास्ट ऑफ द वीएचएस जेनरेशन है.. वो जो दो-दो रुपये कॉन्ट्रीब्यूट करके वीएचएस में फिल्म देखते थे, मतलब पहुंच थी भी और नहीं भी थी, पर उन सीमित विकल्पों में ही इतना खुश रहते थे कि यादें बहुत मजबूत हैं। मेरे ख्याल से उस तरह का सिनेमा जो बनेगा अब आगे जाकर, अभी उसका आखिरी चरण चल रहा है। उस तरह की यादों का भी। उसमें भी मैं अपने साथियों में देखता हूं और ढूंढता हूं तो लगता है और हम बात भी करते हैं कि हां, ये लास्ट फेज है नॉस्टेलजिया का। और मैं उत्साहित भी हूं कि आने वाली पीढ़ी एक नई सोच लेकर आएगी, उसके लिए हम कितने खुले दिमाग के होते हैं और उसे स्वीकार करते हैं। मेरे लिए भी चैलेंज होगा क्योंकि मुझे लगता है कि हम बाऊंड्री पुश करते हैं, पर आने वाली पीढ़ी जो अपना ही माइंडसेट और अपनी ही चॉयस लेकर पली-बढ़ी है, वो जब पुश करेगी तो हम स्वीकार करेंगे क्या? और जो 19-20 साल के युवा अनुराग कश्यप को असिस्ट करने आते हैं उनमें एक बहुत ही अजीब सी आग है, तो उनके काम को देखने के लिए मैं बहुत उत्साहित हूं।

इस उत्सुकता में जरा डर भी है कि यार कुछ ऊट-पटांग तो नहीं कर देंगे?
मुझे तो लगता है कि अपने स्पेस में सुरक्षित महसूस करना चाहिए। अगर कुछ काम कर पाए तो शायद, और नहीं भी कर पाएं तो शायद, उतना ही था आपका उद्देश्य। इसलिए उस बात को लेकर कोई चिंता नहीं है कि आगे आकर कोई कमाल कर जाए... क्योंकि अंततः मैं एक कमाल फिल्म देखना चाहता हूं और अपना कमाल काम दिखाना चाहता हूं। काम जितनी ईमानदारी और मेहनत से कर पाऊं वो तो करूंगा ही पर मजा तो वही है कि आप थियेटर में जाकर फिल्म देखते हो, वो किसी की भी हो और अच्छी हो तो क्या बात है। अपने दायरे में सुरक्षित हूं। बेहतर लोग तो रहेंगे ही और हमसे लोग बेहतर हों तो उनसे सीखने को मिलेगा। छोटा हो बड़ा हो, उससे कोई फर्क नहीं पड़ना चाहिए।

फिल्म बनानी है, अगर आपके लहजे में कहूं तो ये कचरा आपके दिमाग में डालनी वाली फिल्में कौन सी रहीं?
मेरे माता-पिता चूंकि काम करते थे तो बचपन में मेरी एक केयर टेकर होती थी, वनीता। वो अमिताभ बच्चन की बहुत बड़ी फैन थी। और गणपति में हमारे यहां भी, जैसे ‘स्वदेश’ आपने देखी होगी वो जैसे परदे लगाकर फिल्म दिखाते थे, वैसे फिल्म दिखाई जाती थी और वो मेरी मां को झूठ बोलती थी कि वासन तंग कर रहा है कि उसे अमिताभ बच्चन की फिल्म देखनी है, जबकि देखनी उसे होती थी और वो मुझे लेकर चली जाती थी। उस वक्त मैं महज तीन या चार साल का था पर वो कभी भूल नहीं पाता। मेरे ख्याल से वहीं से शुरू हो गया था। अगर ऐसा फिल्मी कीड़ा या कचरा मेरे अंदर भरा है तो उसका श्रेय वनीता को जाता है। मैं उसकी गोद में सिमटा रहता था और वो मुझे लेकर घूमती रहती थी फिल्म दिखाने। उसके बाद जब वीएचएस घर पर आया तो पिताजी ने मुझे ‘जैंगो’ और ‘वेस्टर्न्स’, ‘ब्रूस ली’ और ‘स्टीव मेक्वीन’ की फिल्म और बहुत सारी ‘एक्शनर्स’ से दिखाईं। उस तरह पिताजी ने असर डाला। उसके बाद जाहिर है जब एक उम्र में आप आ जाते हो तो खुद ही ढूंढने—जानने लगते हो। तो मेरी शुरुआत तो पिताजी ने और वनीता ने की।

बचपन की पांच-छह ऐसी फिल्में बताइए जिनका सम्मोहन आज फिल्म निर्माण के तमाम तकनीकी पहलू जानने के बावजूद आपके लिए कम नहीं हुआ है?
बिलाशक एक तो ‘मिस्टर इंडिया’ (शेखर कपूर) है। जब भी देखता हूं, मुंह खुला का खुला रह जाता है। दूसरी, ‘शक्ति’। उसे जब मैंने देखा तो उस उम्र में भी मैं थोड़ा हिल गया था, पता नहीं उसके अंदर का गुस्सा था, दुख था या तीक्ष्णता थी। उस फिल्म को मैं आज भी देखता हूं तो यादों में लेकर चली जाती है। उसके अलावा ‘द नेवर एंडिंग स्टोरी’ (1984, वॉल्फगॉन्ग पीटरसन) थी जिसे जब देखा तो बहुत प्रभावित हुआ लेकिन हाल ही में फिर देखी तो पता चला कि बहुत खराब बनी थी। फिर एक जापानी फिल्म देखी थी जिसका नाम भी मुझे याद नहीं है। तब मैं शायद छह या सात साल का था। वो कहानी थी एक स्कूल टीचर की और एक अनाथ बच्चे की। वो कहानी अब भी याद करता हूं तो अटक जाता हूं, दूरदर्शन दिखाता था ये सब। शुरुआती प्रभाव तो ये ही थे। गुरुदत्त की कुछ फिल्म तब भी स्ट्राइकिंग लगीं थीं। ‘प्यासा’ जब देखी, मतलब कुछ समझ में तो नहीं आया था पर कुछ था उन विजुअल्स में जो उनकी ओर खिंचता चला गया।

‘दैट गर्ल इन यैलो बूट्स’ और ‘देव डी’ की कास्टिंग के वक्त क्या सीखा?
क्योंकि कास्टिंग डायरेक्शन भी जरूरी रोल होता है। जैसे गौतम (किशनचंदानी) ने अनुराग की फिल्मों की, ‘नो वन किल्ड जेसिका’ की और तिग्मांशु धूलिया ने ‘बैंडिट क्वीन’ की कास्टिंग की थी। जैसे गौतम ने ‘ब्लैक फ्राइडे’ में की थी और ‘देव डी’ में भी वही कास्टिंग डायरेक्टर थे, मैं उनका सहयोगी था। उन्होंने बहुत आजादी मुझे दी और उनसे बहुत सीखा। अनुराग से भी सीखा और राजकुमार गुप्ता से बहुत कुछ सीखा। राजकुमार गुप्ता से एक तरह से अनुशासन सीखा। वो जितने अनुशासन और ध्यान केंद्रित करके काम करते हैं, मैं आज भी अगर आलस महसूस करता हूं तो उन्हें याद कर लेता हूं और ठीक-ठाक काम करने लगता हूं। अनुराग की टीम में तो हरेक से ही सीखने को मिलता है। वो एक कमाल मैदान है सीखने का।

लेकिन कास्टिंग करने के दौरान सबसे बड़ी सीख क्या रही?
वो ये कि आप किसी भी चीज को काबू में करने की कोशिश न करो। अनुराग कश्यप जैसे अपने एक्टर्स से पेश आते हैं। वो कंट्रोल में किए बिना कंट्रोल करते हैं उनपर। कभी एहसास नहीं होने देते कि मैं डायरेक्टर हूं, मैं बताता हूं। ये उनका तरीका बिल्कुल ही नहीं है। वो भ्रम होता है न कि डायरेक्टर ही सबको सबकुछ बताता है, वो टूट गया उनके साथ काम करके क्योंकि वो बहुत ज्यादा आजादी देते हैं सबको और उस आजादी में भी अपना एक कंट्रोल रखते हैं। वहां आपके काम को इज्जत मिलती है, न कि आप डिक्टेशन लेते रहते हो। ये कमाल सीखें रहीं जो जिंदगी भर साथ रहेंगी। मैं भी लोगों को आजादी देना चाहूंगा और उनपर विश्वास रखना चाहूंगा और कभी असुरक्षित नहीं होउंगा।

माइकल विंटरबॉटम के साथ आपने ‘तृष्णा’ में सहयोग किया राजस्थान में शूटिंग में...
उनका बहुत ही अनइमोशनल (अभावुक) अप्रोच है। मैथोडिकल नहीं कहूंगा, ऑर्गेनिक ही है पर वह इमोशन में नहीं बहते, वह पल की सच्चाई को ढूंढते हैं। ये बड़ा अनोखा गुण है जो उनमें मुझे बहुत अच्छा लगा। बहुत ही स्पष्ट और तकरीबन मिलिट्री अनुशासन के साथ काम करते हैं माइकल। वो मैंने भी आजमाया, जाहिर है उन जितना तो नहीं कर पाया.. जो कि एक रेजिमेंटेड स्टाइल ऑफ फिल्ममेकिंग है जो किसी भी इमोशनल बहकावे में नहीं आती और ऑब्जेक्टिव रहती है। ये एक ऐसी चीज है जो जिदंगी में कभी न कभी हासिल करने की कोशिश करूंगा। चाहे पांच-दस परसेंट ही हो।

डायरेक्टर के काम में अनइमोशनल अप्रोच को थोड़ा और समझाइए…
वह अपने काम में इमोशनल हैं, पर जो सतह पर भावुक होना होता है वो उन्होंने खुद में से पूरी तरह से निकाल बाहर किया है। उनकी कहानी में, उनके काम में इमोशन हैं, पर सतही तौर पर नहीं है बल्कि बहुत गहराई में हैं। उस स्थिति को हासिल करना बहुत मुश्किल है। क्योंकि हम सतही तौर पर तो काफी भाव अपने में दिखाते हैं पर उसे गहराई में ले जाकर सतह पर से मिटा देना, सतह की बिल्कुल ही परवाह न करना, वो मैंने उनमें देखा। ये बहुत ही प्रेरणादायक लगा। ऐसा वर्क अप्रोच मैंने नहीं देखा है। ये एक तरह से धोखा देने वाला, छलने वाला भी है क्योंकि आप बाहर से नहीं देख पाते हो वो इमोशन। पर अंदर से वो उतने ही भावुक हैं, शायद ज्यादा भी हों। सतह के इमोशंस का रुख मोड़ने या मिटाने से एक अलग लेवल की वस्तुपरकता (ऑब्जेक्टिविटी) आती है आपकी फिल्मों में। आप जबर्दस्ती के इमोशन थोपते नहीं हो लोगों पर। आप अपना नजरिया देते हो पर दर्शकों की आजादी का भी ख्याल रखते हो। कि अगर दर्शक चुनना चाहें किसी पल को महसूस करने के लिए तो वह खुद महसूस करें न कि फिल्म का म्यूजिक और एक्सप्रेशन उस पर लादें। क्योंकि जैसे हिंदी फिल्मों में एक प्रथा रही है कि अलग दुख है तो सारी परतें दुखी होंगी। म्यूजिक भी दुखभरा होगा, एक्सप्रेशन भी दुखभरे होंगे और आसपास के लोग भी दुखी हो जाएंगे। इस तरह हमें किसी और इमोशन को महसूस करने की आजादी ही नहीं है। माइकल की फिल्मों में मुझे वो ऑब्जेक्टिविटी अच्छी लगी कि किरदार का दुख दर्शक तय करेगा महसूस करना है कि नहीं करना है न कि हर सिनेमैटिक टूल यूज करके उस पर लादा जाएगा।

‘तृष्णा’ की शूटिंग राजस्थान में कहां हुई और उस दौरान का क्या याद आता है आपको?
ओसियां (जोधुपर) में और सामोद बाग में हुई शूटिंग। मुझे ओसियां का सबसे अच्छा लगा। हमें फिल्म में फ्रेडा पिंटो (‘स्लमडॉग मिलियनेयर’ फेम) के लिए एक परिवार ढूंढना था। माइकल ने एक असल परिवार ढूंढा और उनके साथ फ्रेडा को ढलने को कहा। उसके एक हफ्ते बाद हमने उस फैमिली के साथ शूटिंग शुरू कर दी, डॉक्युमेंट्री के अंदाज में, जैसे वो जब सोकर उठते थे तभी हम शूट करते थे। वो जब चाय बनाते थे तभी हम भी शूट करते थे। खाना बनाते थे, हम तब शूट करते थे। उनके बच्चे जब स्कूल जाते थे तो उन्हें स्कूल जाते हुए शूट करते थे। किसी भी तरह की कोई मिलावट या छेड़छाड़ नहीं थी, कोई कंट्रोल लादा नहीं गया। मेरा काम वहां ये था कि हिंदी में उन लोगों से बातचीत कर पाना और उन्हें ये बताना कि अपने रोजमर्रा के काम के अलावा कुछ न करें। मेरी जिम्मेदारी बस उन्हें समझाना था कि आप जो करते हो करते रहो। लोगों या कैमरा से सतर्क होने की जरूरत नहीं है। उस दौरान की गई बातचीत और सबक काफी काम आए जब अपनी फिल्म बनाई। कि प्राकृतिक माहौल में कैसे शूट करते हैं और कैसे लोगों की सतर्कता कैमरे के लिए खत्म कर देते हैं।

माइकल की कौनसी फिल्में बहुत अच्छी लगती हैं?
‘इन दिस वर्ल्ड’ (2002) और ‘द किलर इनसाइड मी’ (2010) को देखकर मैं बहुत ज्यादा प्रभावित हुआ था।
Poster of Peddlers.

‘पैडलर्स’ जैसी जो गैर-वित्तीय तरीके की फिल्में हैं, न बनने में ज्यादा पैसे लेती हैं, न ज्यादा पैसे उगाहती हैं... तो आने वाले वक्त में पेट के लिए क्या करेंगे? क्या बॉलीवुड का रुख करेंगे या अपनी तरह की फिल्मों में ही कुछ बदलाव करेंगे? आपका यकीन मणिरत्नम की बनाई फिल्मों में है जो कलात्मक रूप से बहुत अच्छी हैं और लोगों का उतना ही ज्यादा मनोरंजन करती हैं?
मेरे ख्याल से आगे जिंदगी में जब, जो भी ईमानदारी से महसूस होगा, जो भी उन पलों की सच्चाई होगी... बिना कुछ डिजाइन किए कि ये कमर्शियल होंगी या ये नॉन-कमर्शियल होंगी। मैं किन्हीं पहले की सोची-समझी धारणाओं के हिसाब से नहीं बनाऊंगा। उस वक्त जिंदगी के उस पल में, उस पीरियड में वो आ जाएंगी अपने आप। वो आर्ट भी हो सकती हैं वो कमर्शियल भी हो सकती हैं। अभी अगर ‘पैडलर्स’ से दस लोग जुड़ा हुआ महसूस करते पाते हों, तो हो सकता है मेरी अगली स्टेट ऑफ माइंड से कोई और दस लोग कनेक्ट करें। तो फर्क ये होगा न कि फिल्म कैसी होगी ये। फिल्ममेकिंग अप्रोच और इंटेंशन वही रहनी चाहिए, बस स्टेट ऑफ माइंड के हिसाब से फिल्म और ऑडियंस बदल जाएगी।

आप जैसे नए फिल्मकारों के साथ ये है कि बहुत पैसा आप नहीं कमा रहे फिर भी पैशन जिंदा है, इसकी वजह क्या है, ये कब तक रहेगा या आपके हिसाब से कब तक रहना चाहिए?
अब पैशन जिंदा तो.. कह नहीं सकते.. कल ही मेरी शादी हो गई और कल ही मैं सोच लूं कि नहीं भाई ये जो मैं कर रहा हूं गलत कर रहा हूं.. मेरे ख्याल से ये उस मूमेंट की ऑनेस्टी है और ये जब तक रहे सही दिशा में रहे। मतलब ये जो पैशन और बातें हैं ये कोई और फॉर्म में न रहे। तो बताना मुश्किल रहेगा कि कब तक रहेगा। क्यों है, ये भी नहीं बता पा रहा हूं।

‘मूमेंट की ऑनेस्टी’ की जो बात आप करते हैं, ये कहां आपने अंततः एक बड़े सच के तौर पर स्वीकार किया अपने जीवन में? कि जो पल है बस उसी में जीना... ये किससे सीखा? किसी किताब से, माता-पिता से या फिल्में बनाते हुए महसूस किया या खुद ही खोजा?
ये अनुराग और माइकल विंटरबॉटम के साथ काम करते हुए ही महसूस किया और सीखा। हां, कहीं न कहीं ये बात अंदर रही होगी पर अनुराग और माइकल के साथ काम करते हुए उसका एक आर्टिक्युलेशन (स्पष्ट समझ और समझाइश) मिल गया मुझे। उसकी एक स्पष्ट तस्वीर मिल गई। ये काम के दौरान ही हुआ और संभवतः और भी स्त्रोत रहे होंगे, जो सबकॉन्शियसली और भी गाढ़ा बनाते रहे होंगे इस विचार को।

आपने एक बार कहीं कहा कि जब पहली फिल्म बनाई तो दिमाग में जो बहुत सारा कचरा होता है वो निकल गया। किस संदर्भ में कहा और वो क्या ये था कि फिल्म बनाने से पहले जो पचास तरह के असमंजस होते हैं या पचास तरह की हेकड़ी होती है कि ये ऐसे हो जाता होगा या ये वैसे हो जाता होगा, या मान लें ये चीज ऐसे करें तो बेहतर है, या उसे बहुत ज्यादा हाइपोथैटिकली ले लेते हैं या इग्जैजरेट (बढ़ा-चढ़ा लेना) कर लेते हैं पहले ही। ये किस सेंस में था?
आपने बहुत सही बात बताई है, आखिर में जो दो-तीन चीजें कहीं। एक तरह से ये इन्हीं बातों का मिश्रण था। कचरा जो है उसे मैं बहुत नेगेटिव तरीके से नहीं लेता हूं। क्योंकि वो निकालना जरूरी है सिस्टम से। कभी न कभी वो कचरा सेहत के लिए खुराक बना होगा जो अब निकालना जरूरी था। उससे आगे बढ़ना जरूरी था। जो ये भाव मेरे भीतर थे एलियनेशन, निराशा और दिशाहीन होकर जीने के... मेरे ख्याल से इनका एक हिस्सा ऑफलोड हो गया, बाहर निकल गया, इस फिल्म के साथ। तो मैं आगे और शायद सकारात्मक रहूं, अपने आपको बांधकर न रहूं। जैसा कि मेरे कैरेक्टर खुद को बांधकर रखते हैं, मैंने भी बांध रखा था खुद को, अपनी ही रजामंदी से, वो कचरा बाहर निकल गया। अपनी कैद से रिहा होना भी एक बड़ी बात थी जो ‘पैडलर्स’ बनाकर हुई।

आप ‘पैशन फॉर सिनेमा’ (फिल्म वेबसाइट) से जुड़े हुए थे लंबे वक्त तक, फिर आप लोगों ने ये पहल बंद क्यों कर दी?
मैं भी हैरान हूं दरअसल, कि एक-तरह से सब जुड़े थे, अपना काम कर रहे थे, पर पता नहीं वो कायम नहीं रह पाया। कोशिश रहेगी कि शायद आगे फिर से वो वक्त आए, फिर से वो प्लेटफॉर्म हो। हालांकि अब तो ट्विटर है, फेसबुक है। पैशन फॉर सिनेमा तब थी जब दोनों सोशल मीडिया वाले माध्यम नहीं थे। अपने विचार जाहिर करने के लिए, बातचीत करने के लिए सम्मिलित मैदान नहीं था। अब ट्विटर और फेसबुक आ गए हैं तो कहीं न कहीं पैशन... के न होने की भरपाई हो जाती है। वही लोग हैं जो लिखते थे या लिखना चाहते थे और अब उन्हें नया मंच मिल गया है, साथ हैं। जो बातें वो लोग कहना चाह रहे हैं कह ही रहे हैं। यादें आती हैं पर कमी महसूस नहीं होती।

लेकिन उसी मंच पर आप लोगों ने अपनी कल्पनाएं और विचार बांटें होंगे, क्योंकि आज कई स्वतंत्र फिल्मकार हैं जो उसी मंच से निकले हैं...
सौ फीसदी। जैसे मंजीत सिंह हैं, हंसल मेहता सर हैं। हम लोग सभी किसी न किसी बिंदु वहां रह ही चुके हैं और आने वाले कुछ फिल्ममेकर भी हैं जो वहां रह चुके हैं। आप सही कह रहे हैं वो एक तरह से जेनेसिस बन गया था।

‘51वें कान फिल्म फेस्टिवल’ में खुद की फिल्म लेकर जाना, उसे वहां शो करना, लोगों के सवालों के जवाब देना और दूसरी बहुत सी फिल्में देखना भी... ये कैसा रहा?
बेशक जानता था और इसके बारे में सुना भी था पर गया पहली बार था। बहुत ही जिंदा अनुभव था, उम्मीदें तो थीं ही नहीं कि आप वहां तक पहुंच जाओगे। लिहाजा बड़ी बात थी। पर सबसे अच्छा ये लगा कि अपने जैसे पहली बार के फिल्ममेकर्स को देखा। उनसे बात की, उनकी स्ट्रगल जानी तो एक चीज जानी कि दुनिया भर में स्वतंत्र सिनेमा (इंडिपेंडेंट सिनेमा) का जो परिदृश्य है वो एक जैसा ही है। और उतना ही मुश्किल है हरेक के लिए अपने मौलिक विचारों और जिद वाली फिल्म बनाना। उनसे बात करके यूं अच्छा लगा। और कान में माइकल हैनिके की फिल्म, जो वो जीते थे, उसे वहां बैठकर देखना अपने आप में अनुभव था। वहां मैं ‘ऑन द रोड़’ (वॉल्टर सालेस) देखने के लिए जा रहा था और जब लिफ्ट में चढ़ा तो अमीर कुस्तरिका अंदर खड़े थे। कुस्तरिका की जो फिल्में हैं ‘ब्लैक कैट, वाइट कैट’ (1998) और ‘अंडरग्राउंड’ (1995) वो देखकर मैं हैरान रह गया था। वो 40 सैकेंड कभी नहीं भूलूंगा कान के, शायद जिंदगी भर याद रहेंगे। कोई बात नहीं हुई मेरी उनसे पर वो 40 सैकेंड मेरे लिए बहुत मायने रखते हैं कि लिफ्ट में मैं उनके साथ था। पूरे फिल्म फेस्ट में हैरतअंगेज पल बस वही थे।

2012 की हिला देने वाली फिल्में कौन सी रहीं आपके हिसाब से?
वो तो एक ही है आनंद गांधी की ‘शिप और थीसियस’। आनंद बहुत ही स्पेशल फिल्ममेकर हैं। बहुत ही कमाल फिल्म बनाई है उन्होंने। तमिल में एक फिल्म बनी है ‘कुमकी’ जो एक महावत और उसके हाथी की कहानी है। म्यूजिक से लेकर उसे जैसे शूट किया गया है, जिस महत्वाकांक्षा के साथ बनाई गई है तो वो मुझे इस साल तमाम इंडियन फिल्मों में अच्छी लगी। एक और फिल्म है जिसे अपनी जिद और आइडिया के लिए मैं सलाम करता हूं वो है ‘मक्खी’। ऐसा विचार दिमाग में लाना इस देश में और उसे कमर्शियल लैवल पर सफल बनाना मुझे नहीं लगा कि कभी संभव था। इस फिल्म से भी मैं काफी हैरान रहा। कि हर आइडिया में आपका जो यकीन है... जिसे हर बिंदु पर आप खारिज कर सकते हो स्टूपिड और सिली कहकर, ऐसा हर पड़ाव उन्होंने (मक्खी के निर्देशक राजामौली) ने पार किया।

कुमकी किस बारे में है?
एक महावत और एक उसका दोस्त होता है। उनका एक हाथी होता है जिसका नाम कुमकी है। वो घूमते-घामते एक गांव में आते हैं जहां कुम्मन नाम का एक और हाथी है जो खेतों को उजाड़ देता है। तो गांव में एक ऐसे हाथी की तलाश है जो कुम्मन का मुकाबला करे और उसे खेतों से बाहर रखे। लेकिन कुमकी जो है वो थोड़ी डरपोक सी है। महावत को वहां गांव की एक लड़की से प्यार हो जाता है और वो वहीं रुक जाते हैं। वहां वो ये झूठा दावा कर देते हैं कि कुमकी ये कर देगी। आगे की कहानी वह लव स्टोरी है और महावत का हाथी के साथ बदलता रिश्ता है। प्यार और बलिदान की कहानी है। ये वैसे ही है जैसे ‘मक्खी’ में था कि जानवरों में जो इंसानी जज्बा होता है उसे भुनाया गया, वैसा ही कुमकी में किया गया। बहुत ही भव्य और सम्मोहित कर देने वाले दृश्यों के रूप में।

क्या आपने पंजाबी फिल्म ‘अन्ने घोड़े दा दान’ देखी? कैसी लगी?
मैंने देखी है और मुझे काफी अच्छी भी लगी। ऐसा कहा जाता है कि वो (गुरविंदर सिंह, निर्देशक) मणि कौल जी की धारा पर फिल्में बनाते हैं। वो विजुअली बहुत स्टनिंग थी और बिना कुछ कहे काफी कुछ कह गई। एक तरह से वो बोलते हैं न अंदरूनी चोट, वो देकर जाने वाली फिल्म बनाई उन्होंने, जो बिना कुछ कहे, बिना कुछ बढ़ाए-चढ़ाए, यहां तक कि उस फिल्म में तो डायलॉग भी कुछ नहीं थे। उन चेहरों, उस वातावरण और उस मौसम को लेकर ही उन्होंने कुछ कमाल कर दिया।

हमेशा ‘तीसमारखां’ जैसी फिल्में भी आती रही हैं जो 80-100 करोड़ में बनती हैं जो 8 रुपये का नतीजा भी नहीं दे पातीं... क्या ऐसी फिल्मों का समाधान ‘पैडलर्स’ और ‘शिप ऑफ थीसियस’ है?
नहीं, उसका समाधान तो ये फिल्में नहीं हैं, पर एक तरह से अगर आप आर्थिकी (इकोनॉमिक्स) देखें तो अगर आज 5,000 थियेटर हैं भारत में, तो वो सभी एक ‘तीसमारखां’ और एक ‘दबंग-2’ के लिए बने हैं। और उस बीच हम अपनी फिल्म उन थियेटरों में घुसा सकते हैं। बाकी बातें करने की बजाय हमें ये देखना चाहिए कि उनमें हम अपनी फिल्में घुसा कैसे सकते हैं। क्योंकि वहां जो पॉपकॉर्न है और प्रति सीट रख-रखाव का जो खर्च है उसकी भरपाई इन फिल्मों से होती है। अगर वास्तविक होकर देखें तो हमारी फिल्मों से वो भरपाई नहीं होती। और न ही हमारे यहां ऐसे कोई सरकारी थियेटर हैं कि पहल करके सिर्फ स्वतंत्र फिल्में (इंडि) ही वहां दिखाईं जाए। क्योंकि कमर्शियल हो या आर्ट, बीच में मीडियम तो वही है। हमें देखना चाहिए कि उनका इस्तेमाल कैसे करें। क्योंकि रख-रखाव का खर्च तो उन्हीं से आता है। उनसे लड़ने की बजाय हमें हमारे सह-अस्तित्व की कोई जमीन तलाशनी चाहिए। क्योंकि अगर इतनी फिल्में बन रही हैं और इतनी तादाद में लोग देख रहे हैं तो शायद कोई वजह है। कम से कम हम लकी हैं कि 5000 थियेटर हैं, उनमें से शायद 100 थियेटर हमें मिल जाएं या 200 मिल जाएं 300 मिल जाएं। लड़ाई तो जारी रहेगी जहां वितरक बोलेगा कि भई आपकी फिल्म तो चलती नहीं है। दर्शक भी भिन्न-भिन्न रुचियों के और पढ़े-लिखे हो चुके हैं। उदारवाद (पोस्ट लिबरलाइजेशन) के बाद से इतना सुधार आया है, हालांकि पॉकेट्स में ही, ये नहीं कहूंगा कि पूरा देश बदल गया है। तो धीरे-धीरे वहां से फायदा उठाना शुरू कर सकते हैं। और अगर हमारी पीढ़ी को ये फायदा न हो तो आने वाली एक, दो, तीन और चौथी पीढ़ी को तो सौ फीसदी होगा। जैसे श्याम बेनेगल, शेखर कपूर और गोविंद निहलानी ने अपने वक्त में मुकाम बनाया जिसकी वजह से एक राम गोपाल वर्मा और एक अनुराग कश्यप आए तो उनसे शायद हम आए होंगे और हम से शायद कोई और आएंगे। ये और बेहतर ही होता जाएगा।

जब आप फिल्मों की दुनिया में नहीं थे तो बहुत से फिल्मकारों के बारे में सोच अवाक रह जाते होंगे, कि ये बंदा है इसने ये बनाई है, वो बनाई है, जब आप उनसे मिलते गए और सिनेमा बनाना सीखते गए तो क्या उसके बाद भी अवाक होते हैं या वो विस्मयबोध अब चला गया है कि ये तो ऐसे ही बनती है, उसने बना ली होगी वैसे ही?
अनुराग कश्यप से एक बड़ी सीख थी कि प्रभावित होते रहना। मतलब उनमें अब भी वो विस्मयबोध है कि किसी फिल्म को देख कर अपना जबड़ा तोड़ लेते हैं कि ये क्या पिक्चर बना दी। मैंने देखा है कि बहुत से लोग जो इतनी फिल्में देख चुके हैं वो एक तरह से प्रभावित होना बंद कर चुके हैं। उनको कुछ भी इम्प्रेस नहीं करता। सबकुछ एक तरह से खारिज कर देते हैं कि हां, ये तो ठीक है, ठीक है। तो मुझे अनुराग सर में वो अच्छा लगा और आज भी अगर रमेश सिप्पी सामने आ जाएं तो जरूर अवाक रह जाऊंगा कि उन्होंने ‘शोले’ बनाई थी। आज भी राम गोपाल वर्मा सामने आएं तो उनकी मौजूदा फिल्में चाहे जो भी हों, उनकी ‘सत्या’ ने मुझे बहुत ज्यादा प्रभावित किया था, मैं अभी भी उनकी ऑ में रहूंगा। हां, जब आपका व्यक्तिगत रिश्ता होता है तो ये बदल जाता है जैसे अनुराग कश्यप दोस्त हैं पर एक फिल्ममेकर के तौर पर तो अभी भी मैं उनकी ऑ में हूं। दोस्त के रूप में मैं उन्हें चार चीजें कह दूं या वो मुझे चार चीजें कह दें पर फिल्मकार के तौर पर मैं अभी भी उनको बहुत मानता हूं और सीखना चाहता हूं।

‘पैडलर्स’ में गुलशन देवय्या हैं, उन्होंने बड़ी खास भूमिका निभाई है। उन्हें ‘यैलो बूट्स...’ और ‘हेट स्टोरी’ जैसी फिल्मों में मैं नोटिस कर रहा हूं... उनमें ऐसा क्या है कि स्वतंत्र और छोटी फिल्मों को एक हीरो के रूप में वह संपूर्ण बना देते हैं। फिल्म में वह खड़े हो जाते हैं तो उसमें शाहरुख खान की कमी नहीं लगती?
उनमें आक्रामकता, विनम्रता और शर्मीलेपन का विचित्र मेल है। वह बहुत बड़े दिल के भी हैं। अपने दायरे में बहुत ही सुरक्षित महसूस करते हैं। चाहे कोई भी चीज हो, उनका अपने काम से ध्यान नहीं हटता। उनकी जो दयालुता है वो परदे के बाहर आकर भी छूती है, जैसे आपको लगता है कि यार इसको देख लूं तो मुझे बड़े हीरो की कमी महसूस नहीं होती। क्योंकि उनके अंदर ही वो विशालता है किसी भी रोल को करने में। वो रोल में रुचि लेते हैं, न कि किसी और चीज में। जिंदगी को लेकर उनके कोई डिजाइन या योजनाएं नहीं हैं। उस पल उन्हें जो अच्छा लगता है वह करते हैं। उसमें उनकी ईमानदारी भी झलकती है और वह बहुत मजेदार इंसान भी हैं। आपको बहुत सहज महसूस करवाते हैं और एक भाईचारा रहता है। ऊपर से वह प्रतिभासंपन्न भी हैं। तो सारी चीजों के साथ अगर टेलेंट भी आ जाए तो किसी भी डायरेक्टर के लिए कम्पलीट पैकेज हो जाता है। वो अपनी एक छाप तो छोड़ ही रहे हैं, लोगों की नजरों में हैं, पर आने वाले दिनों में दमदार काम दिखाएंगे। उनका जो सिक्योर नेचर है उसकी वजह से वो बहुत लंबा चलने वाले हैं। उनका करियर शायद हिट और फ्लॉप पर निर्भर नहीं होगा।

इंडिया में इस साल बहुत कुछ हो गया और जो ये घटनाएं हैं इनसे शायद फिल्मकारों को प्रेरणा मिलती होंगी। चाहे अन्ना का आमरण अनशन हो, केजरीवाल ने जो घोटालों के खुलासे किए थे या उनका जो उभार हुआ है राजनीति में या दिल्ली वाली जो अभी घटना हुई है, या बहुत सी फिल्मी हस्तियां गुजर गईं एकदम से, या अमेरिका में गोलीबारी हुई, या सिलेंडर की रेट बढ़ गई, महंगाई बढ़ गई... तो इतनी सारी चीजें जब होती हैं तो क्या कहानियां निकलती हैं? या ऐसा होता है कि ये घटनाएं साइड से चली जाती हैं और आप कुछ और ही सोचते रह जाते हैं?
ये घटनाएं कहीं न कहीं जेहन में छप जाती हैं। और मुझे ऐसा लगता है कि जैसे ही घटना घटी वैसे ही आप फिल्म बनाने के बारे में सोचो तो वो उस घटना का फायदा उठाना हुआ। अगर उस सोच को सबकॉन्शियसली पकने देते हो अंदर तो एक वक्त के बाद उस गुस्से और निराशा के पार चले जाते हो और हर चीज को बहुत वस्तुपरक (ऑब्जेक्टिवली) ढंग से देख पाते हो। जो भी घटना होती है वो सबके जेहन में जरूर रह जाती है पर तुरंत कोई रचनात्मक प्रतिक्रिया इसलिए नहीं देता क्योंकि वो उसका मार्केटिंग टूल हो जाता है। दिल दहलाने वाले मामलों और समाज को बदल देने वाले मामलों में तो ऐसी चीजों की सलाह बिल्कुल नहीं दी जा सकती। उस बात को समझकर सही तरीके से दर्शाने के लिए एक वक्त चाहिए होता है ताकि सबकॉन्शियसली आप उसके साथ रहो और फिर एक टाइम आए जब सही नजरिए से आप उसे बता पाओ। नहीं तो अगर दिल्ली के इस अपराध पर कोई फिल्म बना दे तो वो बहुत असंवेदनशील होगा। लेकिन अगर इस घटना के साथ आप रहते हो, समाज पर उसके असर को देखते हो तब एक नतीजे पर आप पहुंच सकते हो कि हां अब एक फिल्म बनाई जा सकती है, इसका ये नजरिया है जो असंवेदनशील नहीं है। यानी ये एक सच्ची नीयत वाला बिंदु हो जो उसका फायदा न उठाए। उसे सनसनीखेज न करे, तभी वो लोगों तक पहुंचेगा भी। तो हां, मेरे ख्याल से जो भी लिख रहा होता है उस पर इन चीजों का असर जरूर पड़ता है और वो सबकॉन्शियस में कहीं न कहीं रह जाता है। और वो कहीं न कहीं, किसी न किसी माध्यम से, किसी न किसी वक्त पर निकलेगा ही।

अभी राम गोपाल वर्मा ने जो ‘द अटैक्ट ऑफ 26/11’ बनाई है तो इसके बारे में आप क्या कहेंगे? ये भी वही चीज कर गई कि देशमुख का इस्तीफा वगैरह हुआ?
जैसे ‘ब्लैक फ्राइडे’ बनी थी, वो धमाकों के दस साल बाद बनी थी। वो इतनी ऑब्जेक्टिव है और इतनी स्पष्ट है कि फिल्ममेकर ने कोई पक्ष नहीं लिया और अपनी राय नहीं थोपी। बल्कि उसने सच्चाई बताई और लोगों ने उस पर राय दी। तो उतनी मैच्योरिटी जरूरी है। जैसे माइकल विंटरबॉटम ने भी ‘सराजेवो’ और ‘गुवेंतानामो’ जैसे बहुत सारे उफनते मुद्दों पर फिल्में बनाईं हैं पर उन्होंने उन चीजों को पकने दिया है, एक तरह से उनका वस्तुपरक रूपांतरण पेश किया है न कि उन्हें सनसनीख़ेज करके दिखाया। मैं आशा कर रहा हूं कि ‘द अटैक्स ऑफ 26/11’ वैसी ही ऑब्जेक्टिव फिल्म हो।

कैसी फिल्मों से नफरत है?
नफरत तो नहीं है पर एक वक्त पर बहुत खास राय वाला हुआ करता था। घिसी-पिटी प्रतिक्रिया होती थी कि अरे ये बकवास है वो बकवास है। अब जैसे कोई फिल्म आएगी तो देखने का मन नहीं करेगा बस, पर किसी के काम से नफरत नहीं है।

जैसे-जैसे स्वतंत्र या मुख्यधारा वाले नए फिल्मकार आ रहे हैं और अपने विचारों की प्रधानता वाली कहानियों पर फिल्में बना रहे हैं, तो उनकी आवक बढ़ने से नग्नता और गाली-गलौच (न्यूडिटी और अब्यूजिव लैंग्वेज) का विषय भी मुखरता से उठेगा। कुछ लोग नग्नता और गालियों को स्वीकार करते हैं, कहते हैं होती है इसलिए दिखाते हैं, अनुराग (कश्यप) भी बहुत बार कहते रहे हैं कि हम बोलते हैं तो क्यों न इस्तेमाल करें फिल्मों में। आपका क्या मानना है और अपनी फिल्मों में कितना उसका इस्तेमाल करना या न करना चाहते हैं?
जैसे ही सवाल आता है कि क्या करना चाहिए वैसे ही अपने आप उसके नियम बनते हैं और ये जो फिल्मकार हैं शायद उन्हीं नियमों को तोड़ना चाहते हैं। कभी-कभी कुछ चीजें बढ़ा-चढ़ाकर पेश की जा सकती हैं, क्योंकि आप दरवाजा तोड़ने के लिए जोर लगाते हो तो पता नहीं कितना जोर लगाते हो। कभी-कभी जरूरत से ज्यादा जोर शायद लग जाता है। तो मेरे ख्याल से जब तक ये कहा जाता रहेगा कि आप इतना ही कर सकते हो और इतना नहीं कर सकते, तब तक वो जोर लगता रहेगा और कभी ज्यादा लगेगा, कभी कम लगेगा। जब तक इसको लेकर स्वीकृति नहीं आएगी तब तक ये होते रहेंगे, कभी शॉकिंग होंगे और कभी सही मात्रा में। ये मेरे ख्याल से बंद नहीं होगा।

या अपनी फिल्मों में आप कभी नग्नता और गालियों का इस्तेमाल करेंगे तो इसी संदर्भ में कि कोई रचनात्मक रोक लगाएगा या तानाशाही करेगा तो करेंगे... या फिर कहानी में कहने की जरूरत है तो करेंगे नहीं तो नहीं करेंगे?
हां, बिल्कुल वही। अब जैसे किसिंग एक वक्त में मार्केटिंग टूल हुआ करता था तो अब वह मार्केटिंग टूल नहीं रहा क्योंकि स्वीकार हो चुका है और कोई उससे हैरान नहीं होता है। जैसे ही ये हैरानी बंद हो जाएगी वैसे ही उसका अति इस्तेमाल बंद हो जाएगा। न्यूडिटी को ही लें, तो मान लीजिए आपके थियेटर में एक्स रेटेड फिल्में दिखाए जाने को मंजूरी मिल गई तो लोग इतनी नग्नता देख चुके होंगे कि फिल्मों में उसको आप मार्केटिंग टूल की तरह इस्तेमाल ही नहीं कर पाएंगे। क्योंकि वो कहेंगे कि यार इससे ज्यादा तो मैंने उसमें देखी है। तो जैसे ही सेंसरशिप बंद हो जाती है वैसे ही जितनी जरूरत है इसका इस्तेमाल उतना ही होता है। अभी तो हम इतना छिपाकर रखते हैं चीजों को कि कोई चुपके से पोर्न देखता है या इंटरनेट पर देखता है, तो मेरे ख्याल से जितनी स्वीकार्यता है वो सिनेमा में भी जैसे आएगी तो नग्नता और गालियों का असर उतना नहीं होगा जितना दस साल पहले या बीस साल पहले होता होगा। एक बिंदु के बाद ये फिल्म के हित में ही इस्तेमाल होगा न कि बाजारू हथकंडे के तौर पर यूज होगा।

फिल्म आलोचना कैसी होनी चाहिए? क्या ऐसी होनी चाहिए कि फिल्म बनाने वाले को पढ़कर मदद मिले? वो फिल्म आलोचना ‘थ्री ईडियट्स’ जैसी होनी चाहिए कि ‘पैडलर्स’ जैसी?
जैसे-जैसे नई फिल्में बन रही हैं, वैसे ही आलोचक भी नए आ रहे हैं। उनकी भी पढ़ाई और फिल्मी साहित्य तक पहुंच समान, फिल्मकार की भी समान है। ये दोनों ही कहीं न कहीं आकर एक बिंदु पर मिलेंगे। आप जल्दीबाजी में ये भी नहीं कह सकते कि फिल्म आलोचना हमारे मुल्क में खराब है, क्योंकि फिर तो आप ये भी कहेंगे कि यहां फिल्ममेकिंग भी फालतू है। इस खींचतान का कोई अंत नहीं होगा फिर। अब आप अपना खुद का ब्लॉग खोलकर उसके दर्शक और पाठक बना सकते है, अब आपको सिर्फ मैगजीन या अखबार में ही लिखना जरूरी नहीं है... तो फिल्मकार और आलोचक की समझ और ज्ञान का एक बिंदु पर मेल होगा। अब ये हो सकता है कि जैसे कोई फिल्ममेकर न्यूडिटी दिखाना चाहे तो वो दिखाएगा और कोई आलोचक अपना ज्ञान दिखाना चाहेगा तो वो दिखाएगा... इन दोनों का सह-अस्तित्व तो होना ही है। होगा यही कि चार फिल्मों में से आपको एक बहुत पसंद आएगी तो चार आलोचना वाले मंचों में से भी एक पसंद आएगा। इनमें जो निरंतर है और औसत राय रखेगा वो कायम रहता जाएगा। मेरे ख्याल से इस पीढ़ी की फिल्ममेकिंग को वो परिभाषित करते जाएंगे। एक संतुलित नजरिया होना चाहिए, हमें ये भी नहीं कहना चाहिए कि वो फिल्ममेकर बेकार है और ये भी नहीं कि वो आलोचक बेकार है।

नए लड़कों में ऐसे कितने हैं जो बहुत अच्छा काम कर रहे हैं और आपके हिसाब से अच्छी फिल्में देंगे?
श्लोक शर्मा, नीरज घेवन, सुमित पुरोहित और सुमित भटीजा (जिन्होंने ‘लव शव ते चिकन खुराना’ लिखी थी)... ये चार ऐसे हैं जिन्हें मैं व्यक्तिगत रूप से जानता हूं और ये लोग कुछ कमाल करने वाले हैं।

आपकी फिल्म का बाहरी फिल्म महोत्सवों में जाना या भारत में ही ज्यादा से ज्यादा लोगों द्वारा देखा जाना, क्या ज्यादा जरूरी है?
सबसे ज्यादा जरूरी है एक फिल्म को किसी भी तरह का दर्शक मिलना। मेरे ख्याल से निजी संतुष्टि तो तब मिलती है जब दर्शक देश में मिलें, आप बाहर जब जाते हैं जब लगता है कि शायद देश में न मिलें। अपनी फिल्म के लिए तो मैं यही चाहूंगा कि ज्यादा से ज्यादा अपने देश के ही मिलें, बाहर के तो बोनस में होने चाहिए।

फूड फॉर थॉट के लिए क्या करते हैं। किताबें, अख़बार या फिल्में या गलियां... क्या पकड़ते हैं?
उस पल में जो भी चीज मदद करे वो करता हूं। जिस दिन घूमने का मन किया, स्टेशन पर बैठने का मन किया... कुछ भी ऐसा जो मन में हलचल मचाए। कभी-कभी कमरे में बैठे-बैठे कुछ हो जाता है... जैसे कहते हैं कि बड़े-बड़े विचार तो टॉयलेट में बैठे हुए आ जाते हैं। पर किताबें पढ़ने या फिल्में देखने से ज्यादा लोगों के बीच बैठने से मदद मिलती है।

अगर, तो किताबें कैसी पढ़ते हैं?
मुख्यतः फिक्शन नहीं पढ़ता हूं। जिस फिल्म या विचार के लिए जरूरत है उसके ईर्द-गिर्द जो भी लिखा है वो जुटाकर पढ़ने की कोशिश करता हूं। कभी-कभी ‘100 राइफल्स’ जैसे ग्राफिक नॉवेल पढ़ लेता हूं। उसके अलावा तो ख़बरें और नॉन-फिक्शन किस्म की चीजें पढ़ता हूं।

जैसे आपने कहा कि लोगों के बीच बैठे-बैठे विचार आ जाते हैं, तो कभी जब परिवार या दोस्तों के बीच बैठे होते हैं तो ऐसा होता होगा कि एक रचनात्मक व्यक्ति बैठा कहीं भी है एक समंदर उसके अंदर पल रहा है। दूसरा, वहां जो दोस्त-रिश्तेदार बैठे होते हैं क्या वो कभी बुरा नहीं मानते कि यार ये क्या इंसान है, अलग ही अपने सोचे जा रहा है, बात में ध्यान ही नहीं दे रहा?
हमेशा होता है, नाराज ही रहते हैं लोग। पर एक विनम्रता भी आ जाती है उनके साथ बैठकर क्योंकि वो आपको जमीन पर ले आते हैं। अच्छा भी लगता है और कभी-कभी आप भागना भी चाहते हो। पर ठीक है वो आपको भला-बुरा भी कहते हैं तो आप चाहो तो उसमें से व्यंग्य ढूंढ लेते हो, आलोचना ढूंढ लेते हो ...तो ये रुचिकर होता है। और भी खास इसलिए क्योंकि वो नजरिया और राय बिना किसी एजेंडा के आती है।

‘उड़ जाएगा हंस अकेला...’ पैडलर्स के ट्रेलर में सुनाई देता है। क्या आप कुमार गंधर्व को सुनते रहे हैं या संगीतकार ने सुझाया?
कुमार गंधर्व का गाया ये गीत मैं तीन साल से अपने फोन में लेकर घूम रहा हूं। ये जब फिल्म बन रही थी तो मैंने करण (म्यूजिक डायरेक्टर) को निवेदन किया कि इसकी बस एक पंक्ति इस्तेमाल कर लो। एक पूरे गीत की तरह तो मैं इसे रीक्रिएट नहीं करना चाहता था क्योंकि जैसे लिखा और गाया गया है वो किसी भी परिपेक्ष्य से फिर रचा नहीं जा सकता है। बस मेरा स्वार्थी मन था जो चाहता था कि एक ये लाइन फिल्म में रहनी ही चाहिए। मैंने करण से कहा कि किसी भी ऐसे फकीर या सिंगर से गवा दो जिसकी पूरे गाने से अपना करियर शुरू करने की महत्वाकांक्षा न हो, कोई मिला नहीं तो उसने खुद गा लिया।

अमेरिकी फिल्मकार क्विंटिन टैरेंटीनो की नवीनतम फिल्म ‘जांगो अनचैन्ड’ की रिलीज से पहले वहां के बेहद गंभीर और अहम अश्वेत फिल्म निर्देशक स्पाइक ली ने कहा था कि इसमें उनके पुरखों को (अश्वेतों) सही से नहीं दर्शाया गया है, ये उनका अपमान करती है, इसलिए वह टैरेंटीनों की फिल्म नहीं देखेंगे..। जानना चाहता था कि इसे कैसे देखा जाए क्योंकि टैरेंटीनो का एक अलग ही हास्य वाला अंदाज होता है जो कुछ खास को ही समझ आता है बाकियों को अपमानजनक लगता है।
एक तरह से टैरेंटीनो तो मजे लेना चाहते हैं और मौजूदा वक्त में वह अकेले ऐसे फिल्मकार हैं जिन्होंने अपना खुद का टैरेंटीनों जॉनर बनाया है। जो कि जॉनर के ऊपर जॉनर, जॉनर के ऊपर जॉनर और फिर उनका जॉनर है। मेरे ख्याल से वो एक यूनीक केस है और वैसा कोई होना चाहिए। ये एंटरटेनिंग है और ऐसा कभी नहीं हुआ है कि उनकी कोई भी फिल्म देखकर मैं निराश निकला हूं। तो जितना भी शरारती, गलत और पॉलिटिकली इनकरेक्ट हो उनका दिमाग, मैं देखना चाहूंगा उनकी फिल्म। क्योंकि ये मजेदार होती हैं, उकसाती भी हैं, हंसाती भी हैं और कभी-कभी किसी की खिल्ली भी उड़ाती हैं पर मैं बुरा नहीं मानता। मुझे बहुत पसंद हैं। 

(Vasan Bala lives in Mumbai. He made his first movie 'Peddlers' last year and since then it has been taken very well in various International film festivals. He previously worked with Anurag Kashyap on films like 'Dev D', 'That Girl in Yellow Boots' and 'Gulaal'. Vasan was also an associate director to Michael Winterbottom on film 'Trishna'. He is working on his next script.) 
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