5 Short Films on Modern India
मोइ मरजाणी नाम क्यों चुना फ़िल्म का?
मुझे एक पंजाबी शब्द चाहिए था इस लड़की के लिए जो उसके किरदार का वर्णन करे। तो मोइ मरजाणी शब्द उपयुक्त लगा क्योंकि इसमें शरारतीपन भी है और किसी को प्यार से बुलाया जाने वाला पुट भी। जैसे कोई दादी अपनी पोती को बुलाएगी, डांटेगी भी तो उसे मोइ मरजाणी बोलेगी। इसमें प्यार भी होता है और डांट भी होती है। जैसे, “मोइ मरजाणी तूने सब काम खराब कर दिया”।
इसका पहला विचार आपको कब आया और अंतिम ड्राफ्ट तक पहुंचने के दौरान कहानी किस दौर से गुजरी?
इस दौरान किरदारों को दिमाग में कैसे बड़ा करती रहीं? मुझे फ़िल्म बनाने के थोड़ा पहले आया इसका आइडिया। हमें संभवतः जनवरी में गूगल की तरफ से संदेश आया था कि आप अपने आइडिया फटाफट सोचें और बताएं, फिर डिसकस करके फ़िल्म बनानी है। तो जनवरी से मैं सोचने लगी कि क्या करूं। फिर मेरे दिमाग में ये कहानी आई। ये एक औरत से प्रेरित है जिनसे मैं मिली थी। मेरे दिमाग में तभी से ये इश्यू था। सोचना शुरू किया तो लगा कि ठीक है इसी पर पिक्चर बना लेते हैं। तुरंत बनानी ही थी तो ड्राफ्ट फटाफट तैयार हो गया। 10-15 दिन में। मैंने मार्च में लिखी और फिर पटियाला जाकर फटाफट शूट कर ली।
ये जो फ़िल्म का पूरा लम्बा तट है, ये जो डिसकशंस चल रहे हैं किरदारों की पृष्ठभूमि में... माने दर्शकों को 15-20 मिनट की फ़िल्म में जो दिख रहा है उसके पीछे एक 200-300 मिनट की फ़िल्म आपकी खुद की होती है जिसका सार इस छोटी सी फ़िल्म में होता है। तो वो सारे विचार क्या थे। जैसे, फ़िल्म की किरदार मोना का बेटा कहता है, “मम्मी आप दाढ़ी में ही अच्छे लगते हो” या आखिर में वो लोग डॉक्टर के पास जा रहे होते हैं। तो एक फ़िल्मकार के पास ये होता है न, कि क्या उसका किरदार कहानी के आखिर में करे। क्या दाढ़ी के साथ उसका होने वाला पति उसे स्वीकार करे या फिर समाज के हिसाब से समाज की चीजों को भी थोड़ा देखते हुए वह अपने आप को सही करे। उसका बेटा जो बिल्कुल मासूम है वो उसे उसी स्वरूप में स्वीकार कर रहा है लेकिन शायद उसका पति न कर पाए या शायद वह खुद भी न कर पाए। तो इस मनन में आप निष्कर्ष पर कैसे पहुंचीं? कि हां, उनका डॉक्टर के पास जाना बुरा नहीं है और जिनको भी ऐसी दिक्कत है उन्हें ऐसा करवाना चाहिए।
जब मैं लिख भी रही थी तो मेरे दिमाग में ऐसी कोई ब्रेव हिरोइन नहीं थी जो दुनिया से लड़कर खुद को उसी स्वरूप में स्वीकार कर ले और हमेशा जिंदगी भर ऐसे ही रहे। मैं सिंपल कैरेक्टर पसंद करती हूं। हम लोग बातें जितनी भी बड़ी-बड़ी कर लें लेकिन करेंगे वही। मैं भी शायद ऐसी परिस्थिति में होती तो ऐसा ही करती। मैं ऐसा कोई परमानेंट इलाज जरूर करवाती। मैं साधारण किरदार पसंद करती हूं और इसे मैंने ऐसे ही लिखा था। ऐसे लिखा कि अगर उसका पति उसको स्वीकार भी करता है तो पहली बात ये कि वह अपने आप से कम्फर्टेबल नहीं थी इसलिए वह डॉक्टर के पास गई। फिर वह अपने बॉयफ्रेंड से छिप भी रही थी क्योंकि जाहिर है वह अपने आप को ऐसे दिखाना नहीं चाहती थी। असुरक्षित थी इसको लेकर। वह एक नॉर्मल लड़की है जिसकी जिंदगी में असुरक्षाएं हैं। बाद में उसने शायद बहुत सोचकर और बहुत स्ट्रेस के साथ तय किया कि नहीं मैं झूठ पर ये रिश्ता शुरू नहीं कर सकती। उसके लिए ऐसा करना ही बहुत हिम्मत वाली चीज थी और बहुत बड़ा कदम था। ऐसा करने के बाद जब उनकी नॉर्मल बातें होती हैं और उसके बाद तय करते हैं कि डॉक्टर के पास जाएंगे। ये सब सोचने के लिए मैंने बस अपने आप को उस सिचुएशन में डाला। सोचा कि मैं कैसे रिएक्ट करती। मैं जानती हूं कि कहानी को बहुत ही ड्रमैटिक और विशाल बना सकती थी कि हीरोइन तय कर लेती, “मैं जिंदगी भर ऐसे ही रहूंगी और मैं शेव करती रहूंगी” लेकिन नहीं, मैं एक नेरेटिव और सिंपल कहानी लिखना चाहती थी, इसलिए हालातों को ऐसा रखा।
आप जब कुछ भी लिखती हैं तो आपको ड्राइव क्या करता है? दिमाग करता है कि दिल ड्राइव करता है?
दोनों। दोनों बहुत जरूरी हैं। दिल तो जरूर ड्राइव करता है लेकिन मुझे उसके उपरांत विश्लेषण भी करना होता है तो दिमाग भी थोड़ा लगाना पड़ता है।
मतलब अगर मैं ये कहूं कि दिमाग का इस्तेमाल कहानी बनने के बिल्कुल बेसिक स्तर पर अगर हम करने लगें तो बननी मुश्किल हो जाती है।
ठीक कहा, वहां तो आप बिल्कुल नहीं कर सकते। पहली पूरी कहानी दिल से निकलती है और फिर उसको सुधारने का काम दिमाग से किया जाता है।
आपको कौन से फ़िल्मकार सबसे ज्यादा पसंद हैं? ऐसे कौन से फ़िल्म और फ़िल्मकार हैं जिन्होंने इतना चौंकाया कि यार ये फ़िल्में और ये दुनिया भी होती है और आप एक्सप्लोर करती गईं।
बहुत बहुत बहुत सारे हैं। मुझे बहुत सारे फ़िल्ममेकर्स और बहुत सारी फ़िल्में पसंद हैं। वर्ल्ड सिनेमा में तो खैर बहुत सारे ही लोग हैं। हमारे देश में मैं दिबाकर बैनर्जी की बहुत बड़ी फैन हूं, विशाल भारद्वाज की बहुत बड़ी फैन हूं और अनुराग कश्यप मेरे भाई, उनकी फैन हूं। पुराने जमाने के फ़िल्ममेकर्स में गुरुदत्त हैं, ऋषिकेश मुखर्जी हैं। विदेशी फ़िल्मकारों में तो बहुत सारे नाम है। मैं फ़िल्में बता सकती हूं। मेरी पसंदीदा फ़िल्मों में आती है ‘मैमरीज ऑफ मर्डर’ (2003, बॉन्ग जून-हो), ‘फाइट क्लब’ (1999, डेविंड फिंचर) और भी बहुत सारी। वेस्टर्न फ़िल्में बनाने वाले निर्देशक भी पसंद आते हैं। कोएन ब्रदर्स मेरे पसंदीदा में से हैं। कुछ फ़िल्ममेकर्स हैं जिनकी सारी ही फ़िल्में मुझे हमेशा अच्छी लगती हैं। उनमें कोएन ब्रदर्स हैं, क्लिंट ईस्टवुड हैं।
क्लिंट ईस्टवुड बाकी बताए नामों की तुलना में सिंपल फ़िल्में बनाते हैं, तो क्या उनकी प्रस्तुति की सादगी पसंद आती है आपको?
हां, मुझे उनकी फ़िल्मों की सादगी, जटिलता सब कुछ पसंद आती है। अपनी फ़िल्मों में भी मुझे ये दोनों ही चीजें बेहद पसंद हैं।
बाकी चार शॉर्ट फ़िल्में ले लें या आजकल की ज्यादातर फ़िल्में, उनमें म्यूजिक को बिल्कुल अलग सा प्रस्तुत करने की कोशिश होती है। वहीं आपने बेहद साधारण सा संगीत अपनी फ़िल्म में रखा है और इस मोर्चे पर जरा भी महत्वाकांक्षी होने की कोशिश नहीं की है। इसकी क्या वजह थी?
जब शॉर्ट फ़िल्म बनाते हैं तो खर्च करने के लिए इतना बड़ा बजट नहीं होता। दूसरा हमने जो भी म्यूजिक यूज किया है वो फ़िल्म की सादगी को ध्यान में रखते हुए किया है। फ़िल्म के आखिर में एक छोटा सा पीस बनाया तो हमें कुछ कमाल नहीं चाहिए था। बस वैसा चाहिए था जैसा आज छोटे-छोटे कस्बों में बनाया जाता हैं। हमें नया और तरोताजा करने वाला नहीं चाहिए था बल्कि ऐसा चाहिए था जो उस कल्चर से आ रहा हो। जब मैं फ़िल्म शूट करने पटियाला गई तो वहां टैक्सी और गाड़ियों में जिस तरह का म्यूजिक चलता है, वहां पर हर घर में एक एल्बम या गाना बनाने वाला होता है, मैं उस तरह का म्यूजिक चाहती थी। ऐसा लगे कि पटियाला के ही किसी बंदे ने बनाया है। साधारण इसलिए क्योंकि अगर म्यूजिक मूल विषय को ढकने लगे तो व्यर्थ हो जाता है।
आप हैं नॉर्थ इंडिया के एक हिस्से कीं और रहती हैं मुंबई में, फिर फ़िल्म पंजाबी पृष्ठभूमि वाली क्यों बनाई?
वो दरअसल इसलिए क्योंकि दो साल पहले मेरी शादी हो चुकी है और मेरे हस्बैंड पंजाब से हैं। इसलिए मैं दोनों कल्चर (महाराष्ट्र और पंजाब) को जोड़ने की कोशिश कर रही थी।
पटियाला में आपका शेड्यूल कितने दिन का था? और क्रू कितना बड़ा था?
हमने तीन दिन में शूट की फ़िल्म। क्रू बहुत छोटा सा था। मेरे चार एक्टर थे, मैं थी, कैमरामैन था, कैमरामैन के दो असिस्टेंट थे और मेरे साथ एक एडी था। पांच चंडीगढ़ के लड़के थे जिन्होंने हमारा प्रोडक्शन का काम किया, कास्टिंग की, सबकुछ किया, हर चीज की मदद की, हमें भाग-भागकर खाना लाकर दिया।
कैमरा कौन सा बरता?
ऐरी एलिक्सर (Arri Elixir)।
एक्टर्स कहां से हैं? और उन्हें कैसे चुना?
मुख्य अदाकारा कनिका कालरा चंडीगढ़ से ताल्लुक रखती हैं पर बॉम्बे में रहती हैं अपने परिवार के साथ। उन्हें यहीं से कास्ट किया। उनकी सहेली जो बनी हैं जीना भाटिया और बच्चा द्विज हांडा, ये दोनों दिल्ली के हैं। द्विज का काम मैंने देखा हुआ है ‘चिल्लर पार्टी’ में तो उसे यूं लिया। इन दोनों को दिल्ली से बुला लिया। श्रेयस पंडित जो लीड मेल हैं वो पूना में रहते हैं, उन्हें वहां से बुलाया।
कनिका को आपने उनके किरदार को लेकर क्या ब्रीफ किया था?
दरअसल उन्हें कास्ट करने का सुझाव कुछ दोस्तों ने दिया था, कि ये एक एक्ट्रेस हैं जिन्होंने पहले काम किया है, फिलहाल व्यस्त नहीं हैं। दोस्तों ने कहा कि वो तुम्हारी कैरेक्टर जैसी प्रतीत होती हैं। रियल लाइफ में बहुत जिंदादिल और उछलकूद मचाने वाली लड़की हैं। जब मिली और उनके साथ थोड़ा टाइम बिताया तो पाया कि वह असल किरदार के काफी करीब थीं। मेरा ब्रीफ उन्हें यही था कि आप जैसे हो वैसे ही रहो।
कैसे विषय आपको आकर्षित करते हैं जो संभवतः भविष्य में आपकी फ़िल्मों का आधार बनें?
मुझे ज्यादातर रिलेशनशिप वाली स्टोरीज पसंद आती हैं। कोई भी ऐसी कहानी जो दिल निचोड़ने वाला ड्रामा हो। मैं ऐसे विषय पर फ़िल्म बनाना चाहूंगी। कुछ भी जो थोड़ा सा असामान्य हो। आम परिस्थितियों से थोड़ा सा हटकर हो।
‘मोइ मरजानी’ को देखें तो उसमें आपकी किरदार एक किस्म का जीवन जी रही है, वह एक निर्णय लेती है और आखिर में उसकी जिदंगी में कुछ अच्छा होता है, एक संदेश भी मिलता है। लेकिन थोड़ा सा बाहर अगर उससे आपको लाऊं मैं और फिर दुनिया या भारत को देखें, आज की औरतों और उनकी समस्याओं को देखें, तो आपको कैसी दुनिया और कैसी औरतें देखनी पसंद होंगी? वो क्या कर रही हों या किस तरफ आगे बढ़ रही हों कि आपको बहुत पसंद आएगा?
कहीं भी दिखता है कि परंपरा से हटके कोई भी औरत कुछ करती है तो मुझे आकर्षित करता है। अगर परंपरा में रहकर ही कुछ अलग करे तो वो मुझे बहुत मनमोहक लगता है। जैसे, गुलाब गैंग थी। ...अनपढ़ औरत गांव में लेकिन पूरी सरकार और व्यवस्था को चुनौती दे रही है। ऐसा ही छोटे स्तर पर हो तो बहुत आकर्षित करता है। हालांकि मैं कोई फैमिनिस्ट नहीं हूं पर किसी भी फील्ड में औरतों को आगे बढ़ते देखना चाहूंगी और मर्दों से भी आगे। मुंह बंद करके कोई अत्याचार सहता रहे वो मुझे नहीं पसंद है। इसे तोड़ने के लिए जो भी किया जाए वो मुझे अच्छा लगता है।
ऑडियंस को पूरी फ़िल्म के बीच दो जंप देने हैं या इंटरवल से पहले ऐसा होना ही है, ऐसे जितने भी कमर्शियल फंडे हैं, उनकी अभी आप कितनी परवाह कर रही हैं? डर रही हैं? या कितना समाधान ढूंढकर रख लिया है?
अभी तक तो बिल्कुल सोच नहीं रही हूं उस बारे में। न ही डर रही हूं। न कॉन्फिडेंट हूं। अभी तो वो ख्याल ही नहीं है। अभी तो उस स्टेज पर हूं कि कहानी लिख रही हूं, बिना ये सोचे कि क्या वर्क करेगा क्या नहीं। मुझे लगता है एक बार जब अपनी स्क्रिप्ट मैं पूरी कर लूंगी और प्रोड्यूसर के पास लेकर जा रही होउंगी, तब इन सब बातों के बारे में सोचूंगी।
राजकुमार गुप्ता और अनुराग कश्यप के साथ किन-किन फ़िल्मों में आपने काम किया है?
‘आमिर’ में मैंने असिस्टेंट डायरेक्टर के तौर पर काम किया था। फिर ‘देव डी’। राजकुमार गुप्ता की ‘नो वन किल्ड जैसिका’ में मैंने वैसे कोई हिस्सा नहीं लिया था पर उसका रिसर्च मैंने किया था। उसके बाद ‘गैंग्स ऑफ वासेपुर’ में मैं असिस्टेंट डायरेक्टर थी। बीच में एक और फ़िल्म में काम किया था ‘पीटर गया काम से’ जो अभी नहीं आई है। जॉन ओवेन एक म्यूजिक डायरेक्टर हैं उन्होंने बनाई है। उसमें डायलॉग्स और परफॉर्मेंस में मैंने मदद की थी।
Anubhuti Kashyap is a young Indian filmmaker. She has made a beautiful short film called 'Moi Marjani.' At present, she's writing two of her future films. She has been part movies like ‘Dev D’, ‘No One Killed Jessica’, ‘Gangs Of Wasseypur’ and ‘Peter Gaya Kaam Se’.
विदेश मंत्रालय, गूगल, वायाकॉम 18 और अनुराग कश्यप की फिल्म निर्माण कंपनी ने मिलकर “इंडिया इज... अ विजुअल जर्नी” विषय पर पांच शॉर्ट फ़िल्में बनाई हैं। मौजूदा भारत के विभिन्न पहलुओं को दिखाती और नए विमर्शों की बयार लाती ये फ़िल्में हैं अनुभूति कश्यप की ‘मोइ मरजाणी’, श्लोक शर्मा की ‘हिडन क्रिकेट’, नीरज घैवन की ‘द एपिफनी’, वासन बाला की ‘गीक आउट’ और गीतांजलि राव की ‘चाय’। पांचों फिल्में यूट्यूब पर उपलब्ध हैं।
अनुभूति कश्यप की इस फिल्म का शीर्षक पहले ‘दढ़ियल’ था। अंततः यह ‘मोइ मरजाणी’ नाम के साथ प्रस्तुत हुई। सादगी और सीदे कथ्य से सजी ये कहानी है पटियाला की मोना चड्ढा की। वह एक इंटरनेट कैफे चलाती है। एक छोटा बेटा है। मोना जिंदगी की कुछ मामूली और कुछ भारी-भरकम परिस्थिति से गुजर रही है। इसी दौरान मुंबई से पटियाला, परेश उनसे मिलने आ पहुंचते हैं जिनसे दोस्ती इंटरनेट चैटिंग के जरिए हुई। भविष्य की इनकी आपसी संभावनाएं हैं। चूंकि मोना एक परिस्थिति से गुजर रही है और मिलने की हालत में नहीं है और न मिलने पर जिंदगी का बहुत महत्वपूर्ण मोड़ छूट जाएगा। तो असमंजस और निराशा है। खैर, यहां से कहानी एक सुहावनी दिशा चलती है। अनुभूति इस वक्त दो फ़िल्मों की पटकथा पर काम कर रही हैं, लिख रही हैं। फ़िल्मकारी उन्होंने राजकुमार गुप्ता और अनुराग कश्यप के सानिध्य में सीखी है। वह ‘नो वन किल्ड जैसिका’, ‘देव डी’, ‘गैंग्स ऑफ वासेपुर’ और ‘पीटर गया काम से’ जैसी फिल्मों का हिस्सा रही हैं। ‘मोइ मरजाणी’ को लेकर अनुभूति से बातचीत हुई।
मोइ मरजाणी नाम क्यों चुना फ़िल्म का?
मुझे एक पंजाबी शब्द चाहिए था इस लड़की के लिए जो उसके किरदार का वर्णन करे। तो मोइ मरजाणी शब्द उपयुक्त लगा क्योंकि इसमें शरारतीपन भी है और किसी को प्यार से बुलाया जाने वाला पुट भी। जैसे कोई दादी अपनी पोती को बुलाएगी, डांटेगी भी तो उसे मोइ मरजाणी बोलेगी। इसमें प्यार भी होता है और डांट भी होती है। जैसे, “मोइ मरजाणी तूने सब काम खराब कर दिया”।
Anubhuti Kashyap |
इस दौरान किरदारों को दिमाग में कैसे बड़ा करती रहीं? मुझे फ़िल्म बनाने के थोड़ा पहले आया इसका आइडिया। हमें संभवतः जनवरी में गूगल की तरफ से संदेश आया था कि आप अपने आइडिया फटाफट सोचें और बताएं, फिर डिसकस करके फ़िल्म बनानी है। तो जनवरी से मैं सोचने लगी कि क्या करूं। फिर मेरे दिमाग में ये कहानी आई। ये एक औरत से प्रेरित है जिनसे मैं मिली थी। मेरे दिमाग में तभी से ये इश्यू था। सोचना शुरू किया तो लगा कि ठीक है इसी पर पिक्चर बना लेते हैं। तुरंत बनानी ही थी तो ड्राफ्ट फटाफट तैयार हो गया। 10-15 दिन में। मैंने मार्च में लिखी और फिर पटियाला जाकर फटाफट शूट कर ली।
ये जो फ़िल्म का पूरा लम्बा तट है, ये जो डिसकशंस चल रहे हैं किरदारों की पृष्ठभूमि में... माने दर्शकों को 15-20 मिनट की फ़िल्म में जो दिख रहा है उसके पीछे एक 200-300 मिनट की फ़िल्म आपकी खुद की होती है जिसका सार इस छोटी सी फ़िल्म में होता है। तो वो सारे विचार क्या थे। जैसे, फ़िल्म की किरदार मोना का बेटा कहता है, “मम्मी आप दाढ़ी में ही अच्छे लगते हो” या आखिर में वो लोग डॉक्टर के पास जा रहे होते हैं। तो एक फ़िल्मकार के पास ये होता है न, कि क्या उसका किरदार कहानी के आखिर में करे। क्या दाढ़ी के साथ उसका होने वाला पति उसे स्वीकार करे या फिर समाज के हिसाब से समाज की चीजों को भी थोड़ा देखते हुए वह अपने आप को सही करे। उसका बेटा जो बिल्कुल मासूम है वो उसे उसी स्वरूप में स्वीकार कर रहा है लेकिन शायद उसका पति न कर पाए या शायद वह खुद भी न कर पाए। तो इस मनन में आप निष्कर्ष पर कैसे पहुंचीं? कि हां, उनका डॉक्टर के पास जाना बुरा नहीं है और जिनको भी ऐसी दिक्कत है उन्हें ऐसा करवाना चाहिए।
जब मैं लिख भी रही थी तो मेरे दिमाग में ऐसी कोई ब्रेव हिरोइन नहीं थी जो दुनिया से लड़कर खुद को उसी स्वरूप में स्वीकार कर ले और हमेशा जिंदगी भर ऐसे ही रहे। मैं सिंपल कैरेक्टर पसंद करती हूं। हम लोग बातें जितनी भी बड़ी-बड़ी कर लें लेकिन करेंगे वही। मैं भी शायद ऐसी परिस्थिति में होती तो ऐसा ही करती। मैं ऐसा कोई परमानेंट इलाज जरूर करवाती। मैं साधारण किरदार पसंद करती हूं और इसे मैंने ऐसे ही लिखा था। ऐसे लिखा कि अगर उसका पति उसको स्वीकार भी करता है तो पहली बात ये कि वह अपने आप से कम्फर्टेबल नहीं थी इसलिए वह डॉक्टर के पास गई। फिर वह अपने बॉयफ्रेंड से छिप भी रही थी क्योंकि जाहिर है वह अपने आप को ऐसे दिखाना नहीं चाहती थी। असुरक्षित थी इसको लेकर। वह एक नॉर्मल लड़की है जिसकी जिंदगी में असुरक्षाएं हैं। बाद में उसने शायद बहुत सोचकर और बहुत स्ट्रेस के साथ तय किया कि नहीं मैं झूठ पर ये रिश्ता शुरू नहीं कर सकती। उसके लिए ऐसा करना ही बहुत हिम्मत वाली चीज थी और बहुत बड़ा कदम था। ऐसा करने के बाद जब उनकी नॉर्मल बातें होती हैं और उसके बाद तय करते हैं कि डॉक्टर के पास जाएंगे। ये सब सोचने के लिए मैंने बस अपने आप को उस सिचुएशन में डाला। सोचा कि मैं कैसे रिएक्ट करती। मैं जानती हूं कि कहानी को बहुत ही ड्रमैटिक और विशाल बना सकती थी कि हीरोइन तय कर लेती, “मैं जिंदगी भर ऐसे ही रहूंगी और मैं शेव करती रहूंगी” लेकिन नहीं, मैं एक नेरेटिव और सिंपल कहानी लिखना चाहती थी, इसलिए हालातों को ऐसा रखा।
आप जब कुछ भी लिखती हैं तो आपको ड्राइव क्या करता है? दिमाग करता है कि दिल ड्राइव करता है?
दोनों। दोनों बहुत जरूरी हैं। दिल तो जरूर ड्राइव करता है लेकिन मुझे उसके उपरांत विश्लेषण भी करना होता है तो दिमाग भी थोड़ा लगाना पड़ता है।
मतलब अगर मैं ये कहूं कि दिमाग का इस्तेमाल कहानी बनने के बिल्कुल बेसिक स्तर पर अगर हम करने लगें तो बननी मुश्किल हो जाती है।
ठीक कहा, वहां तो आप बिल्कुल नहीं कर सकते। पहली पूरी कहानी दिल से निकलती है और फिर उसको सुधारने का काम दिमाग से किया जाता है।
आपको कौन से फ़िल्मकार सबसे ज्यादा पसंद हैं? ऐसे कौन से फ़िल्म और फ़िल्मकार हैं जिन्होंने इतना चौंकाया कि यार ये फ़िल्में और ये दुनिया भी होती है और आप एक्सप्लोर करती गईं।
बहुत बहुत बहुत सारे हैं। मुझे बहुत सारे फ़िल्ममेकर्स और बहुत सारी फ़िल्में पसंद हैं। वर्ल्ड सिनेमा में तो खैर बहुत सारे ही लोग हैं। हमारे देश में मैं दिबाकर बैनर्जी की बहुत बड़ी फैन हूं, विशाल भारद्वाज की बहुत बड़ी फैन हूं और अनुराग कश्यप मेरे भाई, उनकी फैन हूं। पुराने जमाने के फ़िल्ममेकर्स में गुरुदत्त हैं, ऋषिकेश मुखर्जी हैं। विदेशी फ़िल्मकारों में तो बहुत सारे नाम है। मैं फ़िल्में बता सकती हूं। मेरी पसंदीदा फ़िल्मों में आती है ‘मैमरीज ऑफ मर्डर’ (2003, बॉन्ग जून-हो), ‘फाइट क्लब’ (1999, डेविंड फिंचर) और भी बहुत सारी। वेस्टर्न फ़िल्में बनाने वाले निर्देशक भी पसंद आते हैं। कोएन ब्रदर्स मेरे पसंदीदा में से हैं। कुछ फ़िल्ममेकर्स हैं जिनकी सारी ही फ़िल्में मुझे हमेशा अच्छी लगती हैं। उनमें कोएन ब्रदर्स हैं, क्लिंट ईस्टवुड हैं।
क्लिंट ईस्टवुड बाकी बताए नामों की तुलना में सिंपल फ़िल्में बनाते हैं, तो क्या उनकी प्रस्तुति की सादगी पसंद आती है आपको?
हां, मुझे उनकी फ़िल्मों की सादगी, जटिलता सब कुछ पसंद आती है। अपनी फ़िल्मों में भी मुझे ये दोनों ही चीजें बेहद पसंद हैं।
बाकी चार शॉर्ट फ़िल्में ले लें या आजकल की ज्यादातर फ़िल्में, उनमें म्यूजिक को बिल्कुल अलग सा प्रस्तुत करने की कोशिश होती है। वहीं आपने बेहद साधारण सा संगीत अपनी फ़िल्म में रखा है और इस मोर्चे पर जरा भी महत्वाकांक्षी होने की कोशिश नहीं की है। इसकी क्या वजह थी?
जब शॉर्ट फ़िल्म बनाते हैं तो खर्च करने के लिए इतना बड़ा बजट नहीं होता। दूसरा हमने जो भी म्यूजिक यूज किया है वो फ़िल्म की सादगी को ध्यान में रखते हुए किया है। फ़िल्म के आखिर में एक छोटा सा पीस बनाया तो हमें कुछ कमाल नहीं चाहिए था। बस वैसा चाहिए था जैसा आज छोटे-छोटे कस्बों में बनाया जाता हैं। हमें नया और तरोताजा करने वाला नहीं चाहिए था बल्कि ऐसा चाहिए था जो उस कल्चर से आ रहा हो। जब मैं फ़िल्म शूट करने पटियाला गई तो वहां टैक्सी और गाड़ियों में जिस तरह का म्यूजिक चलता है, वहां पर हर घर में एक एल्बम या गाना बनाने वाला होता है, मैं उस तरह का म्यूजिक चाहती थी। ऐसा लगे कि पटियाला के ही किसी बंदे ने बनाया है। साधारण इसलिए क्योंकि अगर म्यूजिक मूल विषय को ढकने लगे तो व्यर्थ हो जाता है।
आप हैं नॉर्थ इंडिया के एक हिस्से कीं और रहती हैं मुंबई में, फिर फ़िल्म पंजाबी पृष्ठभूमि वाली क्यों बनाई?
वो दरअसल इसलिए क्योंकि दो साल पहले मेरी शादी हो चुकी है और मेरे हस्बैंड पंजाब से हैं। इसलिए मैं दोनों कल्चर (महाराष्ट्र और पंजाब) को जोड़ने की कोशिश कर रही थी।
पटियाला में आपका शेड्यूल कितने दिन का था? और क्रू कितना बड़ा था?
हमने तीन दिन में शूट की फ़िल्म। क्रू बहुत छोटा सा था। मेरे चार एक्टर थे, मैं थी, कैमरामैन था, कैमरामैन के दो असिस्टेंट थे और मेरे साथ एक एडी था। पांच चंडीगढ़ के लड़के थे जिन्होंने हमारा प्रोडक्शन का काम किया, कास्टिंग की, सबकुछ किया, हर चीज की मदद की, हमें भाग-भागकर खाना लाकर दिया।
कैमरा कौन सा बरता?
ऐरी एलिक्सर (Arri Elixir)।
एक्टर्स कहां से हैं? और उन्हें कैसे चुना?
मुख्य अदाकारा कनिका कालरा चंडीगढ़ से ताल्लुक रखती हैं पर बॉम्बे में रहती हैं अपने परिवार के साथ। उन्हें यहीं से कास्ट किया। उनकी सहेली जो बनी हैं जीना भाटिया और बच्चा द्विज हांडा, ये दोनों दिल्ली के हैं। द्विज का काम मैंने देखा हुआ है ‘चिल्लर पार्टी’ में तो उसे यूं लिया। इन दोनों को दिल्ली से बुला लिया। श्रेयस पंडित जो लीड मेल हैं वो पूना में रहते हैं, उन्हें वहां से बुलाया।
कनिका को आपने उनके किरदार को लेकर क्या ब्रीफ किया था?
दरअसल उन्हें कास्ट करने का सुझाव कुछ दोस्तों ने दिया था, कि ये एक एक्ट्रेस हैं जिन्होंने पहले काम किया है, फिलहाल व्यस्त नहीं हैं। दोस्तों ने कहा कि वो तुम्हारी कैरेक्टर जैसी प्रतीत होती हैं। रियल लाइफ में बहुत जिंदादिल और उछलकूद मचाने वाली लड़की हैं। जब मिली और उनके साथ थोड़ा टाइम बिताया तो पाया कि वह असल किरदार के काफी करीब थीं। मेरा ब्रीफ उन्हें यही था कि आप जैसे हो वैसे ही रहो।
कैसे विषय आपको आकर्षित करते हैं जो संभवतः भविष्य में आपकी फ़िल्मों का आधार बनें?
मुझे ज्यादातर रिलेशनशिप वाली स्टोरीज पसंद आती हैं। कोई भी ऐसी कहानी जो दिल निचोड़ने वाला ड्रामा हो। मैं ऐसे विषय पर फ़िल्म बनाना चाहूंगी। कुछ भी जो थोड़ा सा असामान्य हो। आम परिस्थितियों से थोड़ा सा हटकर हो।
‘मोइ मरजानी’ को देखें तो उसमें आपकी किरदार एक किस्म का जीवन जी रही है, वह एक निर्णय लेती है और आखिर में उसकी जिदंगी में कुछ अच्छा होता है, एक संदेश भी मिलता है। लेकिन थोड़ा सा बाहर अगर उससे आपको लाऊं मैं और फिर दुनिया या भारत को देखें, आज की औरतों और उनकी समस्याओं को देखें, तो आपको कैसी दुनिया और कैसी औरतें देखनी पसंद होंगी? वो क्या कर रही हों या किस तरफ आगे बढ़ रही हों कि आपको बहुत पसंद आएगा?
कहीं भी दिखता है कि परंपरा से हटके कोई भी औरत कुछ करती है तो मुझे आकर्षित करता है। अगर परंपरा में रहकर ही कुछ अलग करे तो वो मुझे बहुत मनमोहक लगता है। जैसे, गुलाब गैंग थी। ...अनपढ़ औरत गांव में लेकिन पूरी सरकार और व्यवस्था को चुनौती दे रही है। ऐसा ही छोटे स्तर पर हो तो बहुत आकर्षित करता है। हालांकि मैं कोई फैमिनिस्ट नहीं हूं पर किसी भी फील्ड में औरतों को आगे बढ़ते देखना चाहूंगी और मर्दों से भी आगे। मुंह बंद करके कोई अत्याचार सहता रहे वो मुझे नहीं पसंद है। इसे तोड़ने के लिए जो भी किया जाए वो मुझे अच्छा लगता है।
ऑडियंस को पूरी फ़िल्म के बीच दो जंप देने हैं या इंटरवल से पहले ऐसा होना ही है, ऐसे जितने भी कमर्शियल फंडे हैं, उनकी अभी आप कितनी परवाह कर रही हैं? डर रही हैं? या कितना समाधान ढूंढकर रख लिया है?
अभी तक तो बिल्कुल सोच नहीं रही हूं उस बारे में। न ही डर रही हूं। न कॉन्फिडेंट हूं। अभी तो वो ख्याल ही नहीं है। अभी तो उस स्टेज पर हूं कि कहानी लिख रही हूं, बिना ये सोचे कि क्या वर्क करेगा क्या नहीं। मुझे लगता है एक बार जब अपनी स्क्रिप्ट मैं पूरी कर लूंगी और प्रोड्यूसर के पास लेकर जा रही होउंगी, तब इन सब बातों के बारे में सोचूंगी।
राजकुमार गुप्ता और अनुराग कश्यप के साथ किन-किन फ़िल्मों में आपने काम किया है?
‘आमिर’ में मैंने असिस्टेंट डायरेक्टर के तौर पर काम किया था। फिर ‘देव डी’। राजकुमार गुप्ता की ‘नो वन किल्ड जैसिका’ में मैंने वैसे कोई हिस्सा नहीं लिया था पर उसका रिसर्च मैंने किया था। उसके बाद ‘गैंग्स ऑफ वासेपुर’ में मैं असिस्टेंट डायरेक्टर थी। बीच में एक और फ़िल्म में काम किया था ‘पीटर गया काम से’ जो अभी नहीं आई है। जॉन ओवेन एक म्यूजिक डायरेक्टर हैं उन्होंने बनाई है। उसमें डायलॉग्स और परफॉर्मेंस में मैंने मदद की थी।
Anubhuti Kashyap is a young Indian filmmaker. She has made a beautiful short film called 'Moi Marjani.' At present, she's writing two of her future films. She has been part movies like ‘Dev D’, ‘No One Killed Jessica’, ‘Gangs Of Wasseypur’ and ‘Peter Gaya Kaam Se’.
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