शनिवार, 15 जून 2013

वासन बाला की ‘गीक आउट’ : वो सोया नहीं, जागा है

 5 Short Films on Modern India 

विदेश मंत्रालय, गूगल, वायाकॉम 18 और अनुराग कश्यप की फ़िल्म निर्माण कंपनी ने मिलकर “इंडिया इज... अ विजुअल जर्नी” विषय पर पांच शॉर्ट फ़िल्में बनाई हैं। मौजूदा भारत के विभिन्न पहलुओं को दिखाती और नए विमर्शों की बयार लाती ये फ़िल्में हैं अनुभूति कश्यप की ‘मोइ मरजाणी’, श्लोक शर्मा की ‘हिडन क्रिकेट’, नीरज घैवन की ‘द एपिफनी’, वासन बाला की ‘गीक आउट’ और गीतांजलि राव की ‘चाय’। पांचों फ़िल्में यूट्यूब पर उपलब्ध हैं।

    
वासन बाला से पिछले साल उनकी फीचर फ़िल्म ‘पैडलर्स’ के वक्त भी बात (यहां पढ़ें) हुई थी। वह बहुत सारे अंतरराष्ट्रीय फ़िल्म महोत्सवों में जाकर आई। अब अगली फीचर के लेखन पर वह गंभीरता से जुटे हैं। उनकी शॉर्ट फ़िल्म ‘गीक आउट’ सबों में जटिल है। इसे सतह देखकर नहीं समझा जा सकता। दृश्यों में विविधता और विषय-वस्तु के लिहाज से पाचों शॉर्ट फ़िल्मों में इसका दायरा सबसे व्यापक है। दस मिनट की इस फ़िल्म को देखने के बाद आपके पास बात करने को इतना कुछ होता है कि तीन घंटे की फ़िल्मों को देखने के बाद भी नहीं होता।

फ़िल्म की कहानी पारंपरिक मायनों वाली नहीं है, ये पारस्परिक सभ्याचार वाले समाजों में ठिठके-दुबके सभी गीक्स के स्वप्निल निशाचरी मन की मृगतृष्णाओं और खोयेपन में जगी चौकन्नी छलांगों के बारे में है। जिन इंटरनेट उनींदों को महज वर्चुअल बावरा समझकर आज का समाज न देखने का सायास अभिनय कर रहा है, वो धीरे-धीरे कैसे दुनिया को हमेशा के लिए बदलते जा रहे हैं, अंदाजे से बाहर है। इस्तांबुल के गेजी पार्क वाले प्रदर्शनों को जो वैश्विक वर्चुअल समर्थन मिला है और वर्चुअल होते हुए भी आंदोलन को जो सचमुच की ऊष्णा मिली है वह उस बदलाव का ठोस सबूत है। उस बड़े वैश्विक बदलाव को लेकर नासमझी के इस वक्त को वासन ने ‘गीक आउट’ में समझा-समझाया है। कुछ वर्षों बाद ये फ़िल्म उस चेंज का दस्तावेज साबित होगी। अगर उक्त संदर्भ और ‘गीक आउट’, दोनों को पूरी तरह समझना है तो वासन से हुई ये बातचीत काफी मदद करेगी। गीक्स, ये वक्त, इसमें छिपी भौतिक बदलावों की परतें और आने वाली पीढ़ियों पर उन्होंने समझदारी वाली बातें की हैं। वासन, श्लोक, अनुभूति और नीरज महत्वपूर्ण सोच वाले युवा हैं और फ़िल्म बनाने की विधि जानते हैं। खुशी है कि विधि संभवतः सही हाथों में है। कुछ वर्षों में इनकी बनाई फ़िल्में अनूठा सिनेमा प्रस्तुत कर देंगी, मुझे लगता है। पढ़ें, वासन बाला से बातचीतः

गीक आउट को वैसे तो प्रोमो में आप स्पष्ट कर चुके हैं लेकिन फिर भी अपनी परिभाषा में बताएं?
जैसे मैं ऑफिस में देखता हूं कि हम मर्दाना बात काफी कर लेते हैं, लेकिन सिर्फ बात ही करते हैं। जैसे बचपन में हम लोग आपस में पूछते थे कि हनुमान और ब्रूस ली में लड़ाई हुई तो कौन जीतेगा। ये फ़िल्म उन चीजों का एक अलग और जटिल विस्तार है। लाइफ आपको एक दायरे में बांध रही है तो आप शायद उन यादों को और समकालीन तरीके से याद करना चाहते हो। जो तब हनुमान और ब्रूस ली था, अभी वो सुपरमैन, बैटमैन से लेकर वुल्वरीन तक बहुत कुछ हो गया है। इसने ट्विटर, फेसबुक और लिंक्डइन के रूप में नया आकार ले लिया है।

जैसे, मैं हेल्पलेस आदमी हूं लेकिन अगर मुझे किसी बात का गुस्सा है या मेरा कोई ओपिनियन है तो... पहले क्या होता था, कि बुजुर्ग 50-60 साल के बाद संपादक के नाम पत्र लिखा करते थे, खासकर तमिलियन। जैसे मैं भी दक्षिण भारतीय हूं और हमारी फैमिली में भी कोई न कोई टाइम्स ऑफ इंडिया को लेटर लिखता था और इंतजार करता था कि वो छपेगा या नहीं छपेगा। और वो छपकर आता था तो बहुत खुश हो जाते थे और हम लोगों को पढ़कर सुनाते थे। दादा हुए या दादी या कोई रिश्तेदार, वे बोलते थे कि देखो आज टाइम्स ऑफ इंडिया पढ़ लो हमारा लेटर आया है, लेटर टू द एडिटर ...लेकिन आज एक ब्ल़ॉग से लेकर ट्विटर और फेसबुक पर कोई भी मत हो आपका, आप तुरंत अभिव्यक्त कर सकते हो। उस पर कोई सेंसरशिप नहीं है। कोई बैठकर आपका ओपिनियन एडिट नहीं करने वाला है। आपसे कोई नहीं कह रहा है कि कैसे लिखना चाहिए। ये जो एम्पावरमेंट है, ताकत है ये किसी सुपरहीरो से कम नहीं है, उस आदमी के लिए जो बंध चुका है अपने काम से, अपनी जियोग्राफी से या दूसरे हिसाब से। ये फ़िल्म उसी बिंदु को लेकर एक विस्तार है, बढ़ा-चढ़ा विस्तार।

Vasan Bala
जैसे, एक आदमी कंप्यूटर पर बैठा है और वो दस टैब खोले हुए है। एक में निठारी हत्याकांड के बारे में पढ़ रहा है, एक में आरूषि मर्डर केस के बारे में पढ़ रहा है, एक उसका फेसबुक पेज खुला है, एक उसका ट्विटर पेज खुला है और एक यूट्यूब पर कोई ट्रेलर देख रहा है। अगर उसके 10-15 टैब्स खुले हों और वह उन तमाम टैब्स के बीच आ-जा रहा है, तो क्या अनुभव रहा होगा उसका। ये फ़िल्म वही है। मतलब आप पहले थोड़े बुद्धिजीवी बनते हो, चलो आपने नक्सलियों के बारे में पढ़ लिया, आपको बुरा लग रहा है, आपको कुछ लिखना है, अरुंधति रॉय के आप साथ हो - विरोधी हो, आप सोच रहे हो, फिर आपको फेसबुक पर मैसेज आ जाता है, आपके फ्रेंड का ऐसी ही किसी फिलॉसफी के बारे में। या फेसबुक पर वो जो टिपिकल अपडेट होते हैं न, कि आई डोन्ट लाइक लायर्स... ठीक है वो अजीब है मजाकिया है लेकिन आप व्यक्त कर सकते हो, शायद वो नोट कर लिया और उसके बाद किसी लड़की का फोटो देख लिया फेसबुक पर तो उसका पीछा करने लगे, उसकी तस्वीरें देखने लगे। फिर बाहर आए और ट्विटर पर कुछ लिख दिया। उसके बाद यूट्यूब पर एक वीडियो देख लिया। तो फ़िल्म मूलतः वो है। फिर जब रिएलिटी में आप आते हो, तो वो जो रंग और एक सुपरहीरो क्वालिटी है, बढ़ाई-चढ़ाई, वो कम हो जाती है। वो सब चला जाता है और आप फिर से असल दुनिया में आ जाते हो। अब जो चेहरे दिखते हैं वो ही असल हैं, वो ही हालात असल हैं। ऐसे विचार दिखाने की कोशिश थी, पर एक्सपेरिमेंट ही है। लिखा भी था तब आइडिया था कि बहुत से लोगों को समझ नहीं आएगा और गाली भी पड़ने वाली है।

गीक्स की जो परिभाषा है तो क्या ये वही हैं जिनके पास कंप्यूटर और इंटरनेट की पहुंच है, जो महानगरों में रहते हैं? क्या उनके अलावा भी कोई गीक हो सकता है? कस्बाई या गांव का आदमी? या किसी और परिपेक्ष्य में...
जरूर। सुपररहीरो की जो परंपरा रही है वो ये कि सुपरहीरो अपनी पहचान छिपाकर रखता है और उसकी जो आम असहाय इंसान वाली पहचान है वो लोगों के सामने होती है। उसी प्रकार इंटरनेट आपके लिए बहुत ही बढ़िया लबादा है। ये बहुत बढ़िया परदा है जिसके पीछे आप छिप सकते हो और किसी पर भी वार कर सकते हो। उस हिसाब से इंटरनेट की पहुंच वाला कोई भी सुपरहीरो बन सकता है। जैसे, गांव में जिनके पास इसकी पहुंच नहीं होती, वो शायद इसीलिए चद्दरमार करते हैं। किसी को खेत में पकड़ लिया, चद्दर में लपेटा और मार दिया। नहीं, ये तो मजाकिया बात हो गई लेकिन गांव में भी आज एक जागरूकता तो है। जब-जब उसे प्लेटफॉर्म मिलेगा जहां वो अपनी राय दे पाए वहां-वहां वो मौका गीक बनने का सबको मिलेगा। जैसे पहले लेटर टु एडिटर हुआ करते थे या चिट्ठियां हुआ करती थीं, वैसे ही आजकल ये है कि आपको रुकना नहीं होगा कि कोई एडिटर छापे। इसमें आप छप भी जाते हैं और पूरी दुनिया भर में उसकी खबर हो जाती है।

जितने भी गीक हैं दुनिया के उनको ज्ञान बहुत है दुनिया का, सूचना की बौछार उन पर हो रही है, वो दीन-दुनिया के सारे इवेंट्स जानते हैं, उनका एक मत है लेकिन क्या इससे रियल लाइफ में वो कुछ फर्क डाल पाते हैं या कभी डाल पाएंगे?
दरअसल ये जो एम्पावरमेंट है, एक तरह से थोड़ा खोखला एम्पावरमेंट भी है। अल्पावधि में ये आपको सशक्त महसूस करवाएगा और आपको लगने लगेगा कि दुनिया तो अब बदल दोगे, लेकिन दीर्घावधि में ये सिर्फ शब्द ही रहेंगे। ये फिजिकल (भौतिक) नहीं है, वर्चुअल (छाया) है। लेकिन उसी कॉन्ट्रास्ट में अगर आप देखो तो एक आदमी के अलावा लाखों जुड़ गए तो शायद ईजिप्ट गिर जाए। जैसे विकीलीक्स हैं, वो अपने आप में एक क्रांति हैं। ये तो सच है कि अगर हमने ढंग से हमारी बातों को प्रस्तुत किया तो जैसे ईजिप्ट में है, जैसे क्यूबा में है, वैसे अगर वो लोगों को जोड़ पाए तो फर्क भी पड़ेगा। इसमें एम्पावरमेंट को बहुत कंस्ट्रक्टिव (सृजनात्मक) तरीके में हमें ढालना पड़ेगा। मतलब अभी तो हम बहुत ही इंडिविजुअलिस्टिक हैं, हम अपनी-अपनी निजी ग्लोरी में घुसे हैं कि यार मैंने बोल दिया है। जैसे, मैं शाहरुख को पसंद नहीं करता हूं तो मैं खुद ही उसके ट्विटर अकाउंट पर जाकर लिख दूंगा कि भाई मैं तुझे पसंद नहीं करता। तो इस खेल से जब हम ऊपर उठेंगे तो शायद सीरियस तरीके से ओपिनियन देने का मौका है हमारे पास, एकजुट होने का मौका है। गंभीर होंगे, साथ होंगे तो काफी कुछ हो सकता है। अभी जैसे फ्लैशमॉब या पीसमार्च होते हैं तो मेरे ख्याल से छोटे-मोटे लेवल पर हो ही रहा है, आगे भी होंगे। मतलब अभी तो लोग खेल रहे हैं, जब इस खेल से थक जाएंगे और उनका कंस्ट्रक्टिव यूज होगा तो पक्के तौर पर कुछ बदलाव होगा। मेरे ख्याल से हो भी रहा है।

जैसे दिल्ली की घटना हुई थी तो उस समय भी बहुत से ऑब्जर्वेशन थे कि जितने लोग जंतर-मंतर पर जा रहे थे उनमें ज्यादातर फेसबुक और ट्विटर से प्रेरित होकर जा रहे थे, बाकी लोग जेएनयू या दूसरी शैक्षणिक संस्थाओं की स्टूडेंट पॉलिटिक्स से जुड़े थे।
...सही, सही... ये फ़िल्म में है भी। एक असहाय गुस्से को दिखाया है। जैसे हमें लगता है कि अगर हम वहां होते तो हम कुछ करते। ये उसी तरह का है। पहुंचना आसान हो गया है। सही चीजों के लिए आप पहुंचोगे तो मेरे ख्याल से वो सुनी जाएंगी।

जितना हम लोगों के पास, जो शहरों में बैठे हैं, इंटरनेट की उपलब्धता है या जो बड़े उदार विचार रखते हैं, वैसे ही जो तमाम ऐसी ताकतें हैं जो दकियानूसी हैं, या कहें तो औरतों के अधिकारों को दबाने वाली हैं या खुली सोच को दबाने वाली हैं, उनके भी फेसबुक पेज हैं, वो भी ट्विटर पर एक्टिव हैं, वो भी गीक हैं अपने मायनों में। तो फिजिकली ही नहीं, वर्चुअली भी वो हैं और अपनी जय... फलानी संस्था खोलकर बैठे हैं। तो इसे आप कैसे देखते हैं? उनका इस स्पेस पर होना क्या यहां भी एक पुरानी वाली ही लड़ाई नहीं खोल देता है? क्योंकि एक तरीके से हमें लगता है कि जितने भी गीक्स हैं वो सही हैं या उनके पास इतना नॉलेज है कि वो सही ही करना चाहते हैं बस कर नहीं पाते हैं।
ये एक्चुअली बहुत सही बात बोली जो इस फ़िल्म में भी है। इसमें अगर आप देखोगे तो लीड कैरेक्टर बॉक्सिंग रिंग में दो दूसरे लोगों से लड़ रहा है। वह कहता है, “मेरे जैसे दूसरे लोग भी हैं लेकिन वो मुझे तरह-तरह की चीजें कहते हैं पर मैं सहमत नहीं होता”। फिर उनमें झगड़ा शुरू हो जाता है। तो वह ट्विटर पर चलने वाले वॉर से जोड़ने के लिए था। आखिर में वह कहता है, “अनफॉलो, कि ये चीज मुझे रोकती है तो मुझे उसे अनफॉलो करना है”। फिर उन दोनों को लात मार देता है रिंग के बाहर। वो अपनी जगह है लेकिन आप सही कह रहे हो कि एम्पावरमेंट दोनों जगह है, दोनों को मिल रहा है। मतलब मैं न्यूट्रल और लिबरल होकर बहस कर सकता हूं तो एक एक्सट्रीम लेफ्ट विंग और एक एक्सट्रीम राइट विंग भी आर्ग्युमेंट दे सकता है। ये प्लेटफॉर्म एक अजीब सी समानता दे रहा है। जैसे कुएं में ये पानी पिएगा और ये पानी नहीं पिएगा... जिसके साथ 25 साल पहले ऐसा हुआ वो आज एक-बराबर बनकर रह सकता है, पॉजिटिव को प्रस्तुत कर सकता है। प्रोज और कॉन्स तो रहेंगे ही। जरूरी नहीं है कि इंटरनेट लिबरल्स के लिए ही है, वो तो सभी के लिए है। वही है कि कितना मजबूती से आप अपनी बातें रख सकते हैं। आम आर्ग्युमेंट में क्या होता है कि कोई इंसान डरा हुआ हो तो उसके सामने वाला उसे चिल्लाकर ही चुप करवा देगा, इंटरनेट पर वो तो नहीं हो सकता है कम से कम। आपको अपनी पूरी बात कहने की आजादी है, दूसरा कोई आपकी बात काट नहीं सकता। मेरे ख्याल से आर्ग्युमेंट रखने के लिए बहुत बढ़िया जगह है और इसके साथ हम इवॉल्व भी होंगे और बेहतर इवॉल्व होंगे। अभी तो मजा आ रहा है। अभी तो बहुत कुछ करने को मिल रहा है। वो होता था न कि बचपन में एक चम्मच शक्कर खा ले तो बच्चा कूदता रहता है पूरे घर में पूरे दिन। अभी तो मेरे ख्याल से उस तरह का एक माहौल है। जब ये माजरा थोड़ा स्पष्ट होगा तो मेरे ख्याल से ये दौर कुछ और ही होगा।

अगर इंटरनेट पूरी आजादी दे रहा है और हमें मजा आ रहा है और ये बहुत पॉजिटिव सब कुछ लग रहा है, तो क्या इसके साथ एक खामी ये नहीं आ गई है कि जो निजी जीवन में हमारे अपने हैं उनको हम कम वक्त दे रहे हैं?
आइसोलेशन तो मैं मानता हूं, होता है। जितना लाखों अनजान लोगों से हम जुड़ रहे हैं उतना पांच अपने लोगों से दूर जा रहे हैं। मानता हूं ऐसा हो रहा है। जैसे, पति-पत्नी भी बाहर डिनर पर जाते हैं तो दोनों अपने-अपने स्मार्टफोन खोलकर वर्चुअल लोगों से इंटरैक्ट कर रहे हैं और सामने उनकी दूरी बढ़ रही है। इसका भी एक दौर है क्योंकि ये आपको अपने अंदर सोख लेती है, इतना एम्पावर करती है कि क्या कहें। तो इवॉल्यूशन होगा, अभी जितना जोश है उतना एम्पावरमेंट हैं, जाहिर है आप ज्यादा घुस चुके हैं उस चीज में तो एक बिंदु के बाद आपको दोनों चीजों का अहसास होगा कि ये इतना सा ठीक है और इतना ठीक नहीं है। ये इंट्रेस्टिंग सा है पर पता चलेगा आगे आने वाले सालों में। एक जेनरेशन जैसे मेरी जेनरेशन है जो दूरदर्शन, ब्लैक एंड वाइट और मारुति 800 से आई है। जब वो वक्त आएगा तो हम काफी बूढ़े हो चुके होंगे। तब एक ऐसी जेनरेशन होगी जो सिर्फ इसी मैं पैदा हुई होगी। बढ़िया से बढ़िया इंटरनेट स्पीड में, ग्लोबलाइज्ड दुनिया में और मॉल में पैदा हुई होगी। वो इस चीज को कैसे यूज करती है देखना बहुत इंट्रेस्टिंग होगा। कैसी फैमिली वैल्यूज और अपना कैसा समाज वो बनाना चाहेंगे, देखना होगा। उनकी बातें, शायद बहुत रोचक होगी सुननी। हम तो बीच की पीढ़ी के हैं तो रियलाइज भी करते हैं और खुद को रोक भी लें कि चलो डिनर के दौरान फोन नहीं यूज करना है या ये नहीं करना है वो नहीं करना है। पर जो युवा एब्सोल्यूट फ्रीडम में पैदा हुआ है। मेरे ख्याल से आने वाले तीस साल में महानगरों में तो कम से कम वर्ग भेद नहीं होगा क्योंकि तब का युवा कॉन्शियस होकर इन चीजों से गुजरा नहीं होगा कि यार मेरे पास तो दो रुपए की पेंसिल है और उसके पास इतनी महंगी पेंसिल है। इस तरह की छोटी-छोटी चीजों से हम गुजरे हैं, वो जो नहीं गुजरा होगा, वो कैसे रिएक्ट करेगा टेक्नोलॉजी को लेकर और उसकी एडवांसमेंट को लेकर, देखना ज्यादा रोचक होगा शायद।

फ़िल्म का पहला विचार आपको कब आया और अंतिम मसौदे तक पहुंचने में कितना वक्त लगा?
आइडिया मुझे अपने ट्विटर के दोस्तों से आया था। मैं ट्विटर पर एक्टिव नहीं रहता हूं बस फॉलो करता हूं, देखता रहता हूं। मेरे जो दोस्त हैं वो आपस में जैसे जज्बे के साथ लड़ते रहते हैं और किसी को कुछ भी बोल देते हैं। कभी-कभी ये माध्यम विस्तार, पहुंच और ताकत भी देता है। जैसे मैं कहूंगा कि “काम नहीं है” तो दोस्त पूछेगा कि “तू बोल क्या-क्या कर सकता है”, तो मैं कहूंगा कि “ये ये कर सकता हूं”। इसे वो ट्विटर पर डाल देगा कि “मेरा दोस्त है उसे काम चाहिए”, “मेरा दोस्त है उसे घर चाहिए”। ये एम्पावरमेंट है जिससे पहले आपकी पहुंच बहुत सीमित थी। दूसरी तरफ वो जो बचकानी हरकतें करते हैं। जैसे, कोई फ़िल्म रिलीज हुई और उस पर जो आर्ग्युमेंट चल रहा है वो न जाने किस लेवल पर चला जाता है। असल जिदंगी में मैं इन सबको जानता हूं। जैसे एक का ट्विटर हैंड है वो एक अलग व्यक्तित्व होगा और जो असली है वो एक अलग पर्सनैलिटी होगा और मैं दोनों को जानता हूं। उसकी ट्विटर पर दस-पंद्रह हजार की फॉलोइंग है और लोग डरते हैं उससे, वो आर्ग्यू जब करता है तो लोग चुप हो जाते हैं और सचमुच की जिदंगी में मैं उसे देखता हूं और जानता हूं कि कैसा है उसकी आवाज क्या है। तो वो जो कॉन्ट्रास्ट है, वो प्रेरणा थी इस फ़िल्म की। मतलब आदमी एक वर्चुअल स्पेस में हल्क बन सकता है और असली जिदंगी में जैसे हल्क बनने से पहले जो डरा हुआ डॉक्टर है वो हो सकता है, तो एक तरह से वो ही शुरुआत थी कहानी की।

लिखने में कितना वक्त लग गया?
उसमें कुछ व्यवस्थित नहीं था। मतलब कुछ भी लिख दिया था कि ऐसे-ऐसे-ऐसे होगा। मन में था कि देखते हैं विजुअल्स के साथ इसका बनता क्या है। हम लोग एक रैंडमनेस (भटकाव) के साथ कोशिश कर रहे थे फ़िल्म बुनने की। हम लोगों को आम स्टोरीटेलिंग की आदत है कि ‘ये ऐसे ऐसे है’, लेकिन हमारी जो वर्चुअल जिदंगी है वो मेरे ख्याल से ‘ये है ये है ये है’ नहीं है। तो वो रैंडमनेस जरूरी थी कि आप यहां से वहां कूद रहे हो अपने मन में। आप जब बैठकर दिन में सपने भी ले रहे होते हो तो अजीब से अजीब परिस्थितियों में होते हो। ऑस्कर भी कलेक्ट कर रहे होते हो, भाग भी रहे होते हो, कहीं मुड़ भी रहे होते हो, तो उसकी कोई सीमा नहीं है। ऐसा कुछ बांधा नहीं था मैंने स्टोरी के साथ, अलग-अलग सब्जेक्ट थे। ऐसा इंडिया के बारे में मैसेज भी है। जैसे, वो स्लो मोशन में एक दिशा में भाग रहा है जहां एक शहरी आदमी शायद ही जाता है। वहां बताया जाता है कि “जब आप शहर में मॉल बना रहे हो तब जंगल में युद्ध लड़ा जा रहा है, सिविल वॉर”। वहां लोगों के पास घर-बार नहीं हैं, उन्हें विस्थापित कर दिया गया तो वो लड़ रहे हैं। ये उसका एक प्रस्तुतिकरण था, पर बहुत ग्लैमरस प्रस्तुतिकरण था।

एक सुपरहीरो क्लीशे के काम भी आता है कि एक सुपरहीरो जो होता है उसे एक्सट्रीम पेन से गुजरना पड़ता है, इससे पहले कि वो तय करे कि सुपरहीरो बनेगा। ये उसी का संदर्भ था। जैसे, वो नक्सली अपनी गर्लफ्रेंड के साथ भाग रहा है और जंगल में वो इंडियन आर्मी के हाथों मारी जाती है, तब वो लड़ाई करता है तो सोचता है कि अब मैं शहर जाकर लड़ूंगा। अकसर आपने देखा हो तो सुपरहीरो कहीं का भी रहने वाला हो शहर में आकर ही अपनी जंग लड़ता है। यानी आप कहीं पर भी अपनी जंग जारी रख सकते हो। वो चाहता तो जंगल में भी लड़ाई चालू रख सकता था, पर आता तो शहर में ही है और बिल्डिंग की छत पर खड़ा होता है। ये जो अलग-अलग छवियां हैं इन्हें लिया गया है।

जैसे वो ट्रेन वाला सीक्वेंस है जहां पर वो लड़की उसे आकर थैंक यू कहती है और वो शरमा जाता है और उसके बाद एक घटनाओं की श्रंखला होती है। ये बेसिकली हमारे जो इंस्टाग्रैम अपडेट्स हैं, हमारे जो अच्छे वाले फेसबुक अपडेट्स हैं कि यार आज में इस पार्टी में गया, वो जो होता है न कि सामने कैमरा रखकर आप खुद की फोटो खींच लेते हो और अलगअलग पोज देते हो। मतलब आप भले ही मोटे हो लेकिन सिर्फ अपना पेट खींचते हो कि पूरी बॉडी न दिखे। मतलब वो कैजुअली मैनिप्युलेटेड अच्छी वाली तस्वीरें जो होती हैं, ये वो वाला हिस्सा है। और इंटरनेट पर जैसे आप देखोगे कि कोई बिल्ली का वीडियो डाल देगा तो छह लाख लोग उसे देख लेंगे लेकिन एक सीरियस इश्यू के बारे में बात करोगे तो कोई नहीं देखता। ये उस तरह की चीजें हैं। जैसे वो बिल्ली लाकर दे रहा है और बुड्ढियों के साथ सीडी देख रहा है। मतलब वो जो बहुत ही कन्वेंशनल क्यूट चीजें लोग करते हैं इंटरनेट में खोते हुए।

फिर स्टोरी का प्रोग्रैशन ये है कि वो अब इन चीजों से पक चुका है। अब उसे सुपरहीरो विजिलांते वाली चीजें आ रही हैं, वो लोगों से लड़ रहा है, लोग उसे कुछ कह रहे हैं, उसे मान ही नहीं रहे। फिर वो फेसबुक में अपने दिन बिताने लगता है और लड़कियों को स्टॉक कर रहा है। बाथ टब से लेकर वो जो आगे वाले सीन हैं, उनका मतलब यही है कि फेसबुक पर वह लड़कियों की तस्वीरें स्टॉक कर रहा है और फिर हम देखते हैं कि वो लड़की उसके सामने बैठी है और वो उससे बात नहीं कर पाता, उसकी बातचीत सिर्फ इतनी ही है कि यूट्यूब पर कमेंट छोड़ देता है उसके लिए कि मुझे तुम पर यकीन है। लड़की ने शायद इंडिया अगेंस्ट करप्शन की तरफ से अर्णब गोस्वामी के शो पर हिस्सा लिया हो और वो देख रहा है यूट्यूब पर। उसे बस वही रास्ता दिखता है कि मैं यूट्यूब पर कमेंट छोड़ दूंगा जबकि सपनों में और वर्चुअल लाइफ में वो सुपरहीरो है और उस लड़की को बचाता है और सब दुनिया को बचा रहा है। यानी जब रिएलिटी की बात आती है तो यही भाव हैं, यही हमारे ख्वाब हैं और उतने में ही सिमट जाते हैं।

आखिर में जब वो लोग अपनी डेस्क ऊपर कर रहे होते हैं, वो क्या करते हैं?
हा हा, वो एकदम गीक वॉर होते हैं कि एक मैकेनिकल डेस्क है और देखते हैं सबसे पहले ऊपर कौन करेगा। फ़िल्म में तो बहुत सीरियस दिखाया है पर असल मैं ऐसे सीरियस होता नहीं है। जैसे, दो लोग कागज की गेंद बनाते हैं और कचरे के डिब्बे में फेंकने की कोशिश करते हैं कि किसकी पहले गई। ये वैसा ही है। ये छोटी-मोटी चीजें हैं इसमें आप अपनी खुशी दिखाते हो क्योंकि आगे आप सोशियली बहुत चैलेंज्ड हो। आप एक पार्टी की जान नहीं हो। आपके लिए लोग रुकते नहीं हैं, आप उनमें से हो जिसे पूछना पड़ता है “कहां जा रहा है कहां जा रहा है, मैं आऊं मैं आऊं”। आपके जाने या न जाने से लोगों को फर्क नहीं पड़ता। हम जैसे लोग आपस में मिलते हैं तो एक अजीब सा इंटरेक्शन होने लगता है। ये उस तरह की स्थिति थी जहां मुझे दिखा कि गूगल के दफ्तर में ऐसी बैंच है जो ऊपर-नीचे होती हैं, तो मैंने सोचा कि हां रोज ये लोग शायद करते होंगे तो यूज करता हूं। जब कैमरा सेट हो रहा था, लाइट सेट हो रही थी तो मैं ऐसे किसी और के साथ खेल रहा था।

किन-किन लोगों को कास्ट किया और क्यों किया?
विकी (कौशल) को मैं तीन-चार साल से जानता हूं। उससे समर्पित और कमाल लड़का मैंने देखा नहीं है। लुक और परफॉर्मेंस में और एक इंसान के तौर पर उसने मेरे सामने ही ग्रो किया है। उसके साथ तो मैं हमेशा ही काम करना चाहता था। मुझे पता था कि बिना एक भी डायलॉग के बहुत सटल एक्सप्रेशन में एक वही है जो कर पाएगा। जहां बेहद एक्शन की डिमांड है वो भी कर लेगा और जहां अभिनय की जरूरत है वो भी कर लेगा। नेहा (चौहान) को मैंने ‘एलएसडी’ (लव सेक्स और धोखा) में देखा था। फ़िल्म में उसके काम से काफी प्रभावित था मैं। उसकी लाइफ भी अजीब रही थी, वो दोस्त की शादी में नाच रही थी, वो वीडियो दिबाकर ने देखी और उसे चुना। मुझे उसका लुक काफी रोचक लगा था, पारंपरिक नहीं था। जैसे आप हीरोइन चुनते हो तो एकदम गोरी-चिट्टी और मर्यादाओं वाली, तो नेहा उन धारणाओं को तोड़ रही थी। जब भी वो एक कमरे में चलकर आती थी तो लड़के रिएक्ट करते थे। मुझे वो अच्छा लगा कि उसका एक अजीब तरह का अट्रैक्शन है, जो कि पारंपरिक तरीकों से आप नहीं लगते हो। नेहा अच्छी एक्ट्रेस है। काफी उत्साहित है। उसके अलावा जितने भी लोग हैं, सारे मेरे दोस्त ही हैं। जैसे, कोई ट्रेन में पीछे खड़ा है तो प्रॉडक्शन वाला है।

कौन सा कैमरा इस्तेमाल किया?
कुछ-कुछ जगहों पर रेड एपिक (Red Epic) किया है जहां पर एक्शन है और जंगल के सीक्वेंस हैं। बाकी जगहों पर जहां परमिशन नहीं ले सकते थे जैसे ट्रेन हो गई वहां पर 5डी (Canon EOS 5D) यूज किया।

इस फ़िल्म में जैसे दो-तीन बिंदु हैं कि “जंगलों में युद्ध लड़े जा रहे हैं और शहरों में मॉल खड़े किए जा रहे हैं” या “दिल्ली की उस बस में मैं होता”, ऐसे बिंदु क्या अपनी बाकी फ़िल्मों में भी आप लाना चाहेंगे?
ये जिदंगी से ताल्लुक तो रखते ही हैं। आप अखबार उठाओ तो पढ़ सकते हो। मेरे ख्याल से किरदार कोई भी हो पुट तो किए ही जा सकते हैं, कितना वो रजिस्टर कर पाएंगे पता नहीं। अब जैसे इसमें मजाक के तौर पर डाल दिया है तो शायद ध्यान नहीं जा रहा लेकिन अब उस मूमेंट में कितना हो सकता है उतना ही किया जा सकता है। लेकिन बात ये है कि मैं अपने पॉइंट रखता जाऊं, बाकी लोग पहले हफ्ते में समझेंगे या दूसरे में या मिस कर देंगे। ठीक लगा तो शायद समझ जाएं।

फ़िल्में कौन सी देखीं हाल में?
ऐसी कोई मजेदार फ़िल्म देखी नहीं। एक ‘ओनली गॉड फरगिव्स’ बहुत ही चर्चित फ़िल्म रही जो कान में थी और लोगों को बिल्कुल पसंद नहीं आई। मेरे ख्याल से एक अजीब सा माहौल बन रहा है जहां लोग नहीं चाहते कि फ़िल्म में एक्सट्रीम हिंसा हो या खून-खराबा हो तो उसे वो बिल्कुल नकार रहे हैं। मेरे ख्याल से फिर से वो दौर आएगा जहां साफ फ़िल्में होंगी। इंटरनेशनली भी मैं देख रहा हूं कि माहौल रिएलिटी या हिंसा दिखाने का नहीं है। डार्क फ़िल्में लोग नकार रहे हैं।

ऐसा क्यों, क्योंकि निकोलस की पिछली फ़िल्म ‘ड्राइव’ में भी हिंसा को बहुत ही शांत-सुरम्य तरीके से दिखाया गया था और लोगों ने पसंद भी किया, ‘ओनली गॉड फरगिव्स’ भी शायद वैसी ही है फिर ऐसा क्यों? टैरेंटीनो भी पोएटिक सा वॉयलेंस दिखाते हैं लेकिन उन्हें उनके फैन्स देवता मानते हैं। ये जो हिंसा को नकारने वाले दर्शक हैं, ये नई पीढ़ी के हैं या उस पीढ़ी के जो काफी वक्त से सिनेमा देख रही है?
दोनों। दोनों ही नकार रहे हैं। टैरेंटीनो को आप फिर भी इतना सीरियस नहीं पाएंगे। मतलब टैरेंटीनो की फ़िल्म में मुझे नहीं लगता कि मैं रिएलिटी ढूंढता हूं। मैं तो एंटरटेनमेंट ही ढूंढ रहा होता हूं। लेकिन निकोलस की फ़िल्में एक बहुत ही अलग जोन में जाती हैं और वो एक घुटन सा महसूस करवाती हैं। मैं तो ऐसे सिनेमा से जुड़ना चाहूंगा जो ज्यादा रियल है, ज्यादा रेजोनेंट है। भले ही वो बहुत ही डिबेटेड फ़िल्में हों क्योंकि अच्छी बात ये है कि वो समानांतर भाषाओं में हैं ताकि सब लोग देख सकें। वो एक ऐसी चीज होगी जो कुछ लोगों को बहुत ही बेकार लगेगी और कुछ लोगों को बहुत ही पसंद आएगी। आज के वक्त में एक बहुत ही कमाल माहौल है कि हर आदमी अपना अलग नजरिया रख रहा है न कि आयातित नजरिया। इस लिहाज से निकोलस जो करने की कोशिश कर रहे हैं वो काफी हिम्मत का काम है। उनका करियर फॉलो करने में मजा आएगा।

और किसी फ़िल्म से जुड़े हैं कि अपनी पटकथा पर ही काम कर रहे हैं?
अपनी कहानी ही लिख रहा हूं। वैसे ‘बॉम्बे वेलवेट’ में राइटर था पर वो काम काफी पहले ही खत्म हो गया था।

Vasan Bala is a Mumbai based filmmaker. He has made a Short film called ‘Geek Out.' Last year, he made ‘Peddlers' which was received very well at various National - International film festivals. He has worked with Anurag Kashyap on 'Dev D', 'That Girl in Yellow Boots', 'Gulaal' and ‘Bombay Velvet’ (Script). He was an associate director to Michael Winterbottom on 'Trishna'. Now he’s writing his next movie.
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