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Sunday, June 16, 2013

गीतांजलि राव की ‘चाय’ : आधारभूत

 5 Short Films on Modern India 

विदेश मंत्रालय, गूगल, वायाकॉम 18 और अनुराग कश्यप की फ़िल्म निर्माण कंपनी ने मिलकर “इंडिया इज... अ विजुअल जर्नी” विषय पर पांच शॉर्ट फ़िल्में बनाई हैं। मौजूदा भारत के विभिन्न पहलुओं को दिखाती और नए विमर्शों की बयार लाती ये फ़िल्में हैं अनुभूति कश्यप की ‘मोइ मरजाणी’, श्लोक शर्मा की ‘हिडन क्रिकेट’, नीरज घैवन की ‘द एपिफनी’, वासन बाला की ‘गीक आउट’ और गीतांजलि राव की ‘चाय’। पांचों फ़िल्में यूट्यूब पर उपलब्ध हैं।

 



गीतांजलि राव की ‘चाय’ चार ऐसे लोगों की कहानी है जो अलग-अलग परिवेश और पृष्ठभूमि से आते हैं। ये अलग-अलग जगहों पर चाय बनाते हैं। इनमें एक चितौड़गढ़, राजस्थान की 18 साल की युवती है। वह किसी शहर में चाय बनाती है। दूसरा कोल्हापुर मूल का लड़का है, 10 साल का, मुंबई के गेटवे ऑफ इंडिया पर चाय बनाता और पकड़ाता है। तीसरे एक 80 साल के बुजुर्ग हैं जो केरल के किसी बस स्टैंड पर चाय की दुकान लगाते हैं। चौथा एक 19 साल का कश्मीरी लड़का है जो बरिस्ता में चाय बनाता है। फ़िल्म भारत के उन लाखों-करोड़ों लोगों को समर्पित है जो अलग रंग, ढंग और स्वाद की चाय बनाते हैं, पिलाते हैं लेकिन पीने वाले को दिखती है तो बस चाय की गिलास या कप, वह चाय बनाने वाला या वाली नहीं दिखते। शायद यही परिपेक्ष्य गीतांजलि का रहा क्योंकि पूरी फ़िल्म के दौरान चारों किरदारों की शक्ल दिखाई नहीं देती। वे बस अपनी गतिविधियों में व्यस्त रहते हैं और अपनी कहानियां सुनाते हैं।

Gitanjali Rao
पांचों फ़िल्मों में ये सबसे आधारभूत है, जाहिर है चाय से आधारभूत देश में क्या होगा। इन्हीं कहानियों में समाज की सोच और बदलाव भी छिपे मिलते हैं। मूलतः गीतांजलि एक एनिमेटर हैं। इसके अलावा वह फ़िल्मकार और रंगकर्मी भी हैं। उन्होंने मुंबई के जेजे इंस्टिट्यूट ऑफ अप्लाइड आर्ट से फाइन आट्र्स की पढ़ाई की। उनकी एनिमेटेड फ़िल्म ‘प्रिंटेड रेनबो’ को 2006 में फ्रांस के कान फ़िल्म महोत्सव के क्रिटिक्स वीक में दिखाया गया। वहीं इसे बेस्ट शॉर्ट फ़िल्म के तीन पुरस्कार भी मिले। विश्व के 100 से ज्यादा फ़िल्म महोत्सवों में जाकर आ चुकी ‘प्रिंटेड रेनबो’ को 2008 के ऑस्कर पुरस्कारों की आखिरी 10 फ़िल्मों में भी चुना गया।

इसके अलावा उन्होंने ‘ब्लू’, ‘ऑरेंज’ और ‘गिरगिट’ जैसी उम्दा एनिमेटेड शॉर्ट फ़िल्में बनाई हैं। ‘कलाइडोस्कोप’ को देखना भी अनूठा अनुभव है। गीतांजलि ने अनेकों विज्ञापनों में अपनी जादुई रचनात्मकता दिखाई है। यहां पर वे पूरी की पूरी विज्ञापन फ़िल्में उपलब्ध हैं, एक-एक करके सभी देखें, आनंद आएगा। साथ ही, अनुराग कश्यप फिल्म्स प्राइवेट लिमिटेड की हर फ़िल्म से पहले लोगो का जो विजुअल नजर आता है जिसमें चांद पर चढ़ी बिल्ली की आकृति ‘ए’ अक्षर बन जाती है, वह भी गीतांजलि ने ही बनाया है।

(बातचीत के लिए गीतांजलि राव उपलब्ध नहीं हो पाईं)

Gitanjali Rao is an animator, film maker and theatre artist. She graduated with honors as a Bachelor of Fine Arts from Sir J. J. Institute of Applied Art, Mumbai, in 1994. She has made a couple of animated shorts like ‘Printed Rainbow’ (Short listed in the last ten films for the Oscars in 2008), ‘Orange’, ‘Blue’ and ‘Girgit’. Her string of popular and award winning commercials can be seen here. Her most recent work in ‘Chai’, a short film made for ‘India Is’ campaign.
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Saturday, June 15, 2013

वासन बाला की ‘गीक आउट’ : वो सोया नहीं, जागा है

 5 Short Films on Modern India 

विदेश मंत्रालय, गूगल, वायाकॉम 18 और अनुराग कश्यप की फ़िल्म निर्माण कंपनी ने मिलकर “इंडिया इज... अ विजुअल जर्नी” विषय पर पांच शॉर्ट फ़िल्में बनाई हैं। मौजूदा भारत के विभिन्न पहलुओं को दिखाती और नए विमर्शों की बयार लाती ये फ़िल्में हैं अनुभूति कश्यप की ‘मोइ मरजाणी’, श्लोक शर्मा की ‘हिडन क्रिकेट’, नीरज घैवन की ‘द एपिफनी’, वासन बाला की ‘गीक आउट’ और गीतांजलि राव की ‘चाय’। पांचों फ़िल्में यूट्यूब पर उपलब्ध हैं।

    
वासन बाला से पिछले साल उनकी फीचर फ़िल्म ‘पैडलर्स’ के वक्त भी बात (यहां पढ़ें) हुई थी। वह बहुत सारे अंतरराष्ट्रीय फ़िल्म महोत्सवों में जाकर आई। अब अगली फीचर के लेखन पर वह गंभीरता से जुटे हैं। उनकी शॉर्ट फ़िल्म ‘गीक आउट’ सबों में जटिल है। इसे सतह देखकर नहीं समझा जा सकता। दृश्यों में विविधता और विषय-वस्तु के लिहाज से पाचों शॉर्ट फ़िल्मों में इसका दायरा सबसे व्यापक है। दस मिनट की इस फ़िल्म को देखने के बाद आपके पास बात करने को इतना कुछ होता है कि तीन घंटे की फ़िल्मों को देखने के बाद भी नहीं होता।

फ़िल्म की कहानी पारंपरिक मायनों वाली नहीं है, ये पारस्परिक सभ्याचार वाले समाजों में ठिठके-दुबके सभी गीक्स के स्वप्निल निशाचरी मन की मृगतृष्णाओं और खोयेपन में जगी चौकन्नी छलांगों के बारे में है। जिन इंटरनेट उनींदों को महज वर्चुअल बावरा समझकर आज का समाज न देखने का सायास अभिनय कर रहा है, वो धीरे-धीरे कैसे दुनिया को हमेशा के लिए बदलते जा रहे हैं, अंदाजे से बाहर है। इस्तांबुल के गेजी पार्क वाले प्रदर्शनों को जो वैश्विक वर्चुअल समर्थन मिला है और वर्चुअल होते हुए भी आंदोलन को जो सचमुच की ऊष्णा मिली है वह उस बदलाव का ठोस सबूत है। उस बड़े वैश्विक बदलाव को लेकर नासमझी के इस वक्त को वासन ने ‘गीक आउट’ में समझा-समझाया है। कुछ वर्षों बाद ये फ़िल्म उस चेंज का दस्तावेज साबित होगी। अगर उक्त संदर्भ और ‘गीक आउट’, दोनों को पूरी तरह समझना है तो वासन से हुई ये बातचीत काफी मदद करेगी। गीक्स, ये वक्त, इसमें छिपी भौतिक बदलावों की परतें और आने वाली पीढ़ियों पर उन्होंने समझदारी वाली बातें की हैं। वासन, श्लोक, अनुभूति और नीरज महत्वपूर्ण सोच वाले युवा हैं और फ़िल्म बनाने की विधि जानते हैं। खुशी है कि विधि संभवतः सही हाथों में है। कुछ वर्षों में इनकी बनाई फ़िल्में अनूठा सिनेमा प्रस्तुत कर देंगी, मुझे लगता है। पढ़ें, वासन बाला से बातचीतः

गीक आउट को वैसे तो प्रोमो में आप स्पष्ट कर चुके हैं लेकिन फिर भी अपनी परिभाषा में बताएं?
जैसे मैं ऑफिस में देखता हूं कि हम मर्दाना बात काफी कर लेते हैं, लेकिन सिर्फ बात ही करते हैं। जैसे बचपन में हम लोग आपस में पूछते थे कि हनुमान और ब्रूस ली में लड़ाई हुई तो कौन जीतेगा। ये फ़िल्म उन चीजों का एक अलग और जटिल विस्तार है। लाइफ आपको एक दायरे में बांध रही है तो आप शायद उन यादों को और समकालीन तरीके से याद करना चाहते हो। जो तब हनुमान और ब्रूस ली था, अभी वो सुपरमैन, बैटमैन से लेकर वुल्वरीन तक बहुत कुछ हो गया है। इसने ट्विटर, फेसबुक और लिंक्डइन के रूप में नया आकार ले लिया है।

जैसे, मैं हेल्पलेस आदमी हूं लेकिन अगर मुझे किसी बात का गुस्सा है या मेरा कोई ओपिनियन है तो... पहले क्या होता था, कि बुजुर्ग 50-60 साल के बाद संपादक के नाम पत्र लिखा करते थे, खासकर तमिलियन। जैसे मैं भी दक्षिण भारतीय हूं और हमारी फैमिली में भी कोई न कोई टाइम्स ऑफ इंडिया को लेटर लिखता था और इंतजार करता था कि वो छपेगा या नहीं छपेगा। और वो छपकर आता था तो बहुत खुश हो जाते थे और हम लोगों को पढ़कर सुनाते थे। दादा हुए या दादी या कोई रिश्तेदार, वे बोलते थे कि देखो आज टाइम्स ऑफ इंडिया पढ़ लो हमारा लेटर आया है, लेटर टू द एडिटर ...लेकिन आज एक ब्ल़ॉग से लेकर ट्विटर और फेसबुक पर कोई भी मत हो आपका, आप तुरंत अभिव्यक्त कर सकते हो। उस पर कोई सेंसरशिप नहीं है। कोई बैठकर आपका ओपिनियन एडिट नहीं करने वाला है। आपसे कोई नहीं कह रहा है कि कैसे लिखना चाहिए। ये जो एम्पावरमेंट है, ताकत है ये किसी सुपरहीरो से कम नहीं है, उस आदमी के लिए जो बंध चुका है अपने काम से, अपनी जियोग्राफी से या दूसरे हिसाब से। ये फ़िल्म उसी बिंदु को लेकर एक विस्तार है, बढ़ा-चढ़ा विस्तार।

Vasan Bala
जैसे, एक आदमी कंप्यूटर पर बैठा है और वो दस टैब खोले हुए है। एक में निठारी हत्याकांड के बारे में पढ़ रहा है, एक में आरूषि मर्डर केस के बारे में पढ़ रहा है, एक उसका फेसबुक पेज खुला है, एक उसका ट्विटर पेज खुला है और एक यूट्यूब पर कोई ट्रेलर देख रहा है। अगर उसके 10-15 टैब्स खुले हों और वह उन तमाम टैब्स के बीच आ-जा रहा है, तो क्या अनुभव रहा होगा उसका। ये फ़िल्म वही है। मतलब आप पहले थोड़े बुद्धिजीवी बनते हो, चलो आपने नक्सलियों के बारे में पढ़ लिया, आपको बुरा लग रहा है, आपको कुछ लिखना है, अरुंधति रॉय के आप साथ हो - विरोधी हो, आप सोच रहे हो, फिर आपको फेसबुक पर मैसेज आ जाता है, आपके फ्रेंड का ऐसी ही किसी फिलॉसफी के बारे में। या फेसबुक पर वो जो टिपिकल अपडेट होते हैं न, कि आई डोन्ट लाइक लायर्स... ठीक है वो अजीब है मजाकिया है लेकिन आप व्यक्त कर सकते हो, शायद वो नोट कर लिया और उसके बाद किसी लड़की का फोटो देख लिया फेसबुक पर तो उसका पीछा करने लगे, उसकी तस्वीरें देखने लगे। फिर बाहर आए और ट्विटर पर कुछ लिख दिया। उसके बाद यूट्यूब पर एक वीडियो देख लिया। तो फ़िल्म मूलतः वो है। फिर जब रिएलिटी में आप आते हो, तो वो जो रंग और एक सुपरहीरो क्वालिटी है, बढ़ाई-चढ़ाई, वो कम हो जाती है। वो सब चला जाता है और आप फिर से असल दुनिया में आ जाते हो। अब जो चेहरे दिखते हैं वो ही असल हैं, वो ही हालात असल हैं। ऐसे विचार दिखाने की कोशिश थी, पर एक्सपेरिमेंट ही है। लिखा भी था तब आइडिया था कि बहुत से लोगों को समझ नहीं आएगा और गाली भी पड़ने वाली है।

गीक्स की जो परिभाषा है तो क्या ये वही हैं जिनके पास कंप्यूटर और इंटरनेट की पहुंच है, जो महानगरों में रहते हैं? क्या उनके अलावा भी कोई गीक हो सकता है? कस्बाई या गांव का आदमी? या किसी और परिपेक्ष्य में...
जरूर। सुपररहीरो की जो परंपरा रही है वो ये कि सुपरहीरो अपनी पहचान छिपाकर रखता है और उसकी जो आम असहाय इंसान वाली पहचान है वो लोगों के सामने होती है। उसी प्रकार इंटरनेट आपके लिए बहुत ही बढ़िया लबादा है। ये बहुत बढ़िया परदा है जिसके पीछे आप छिप सकते हो और किसी पर भी वार कर सकते हो। उस हिसाब से इंटरनेट की पहुंच वाला कोई भी सुपरहीरो बन सकता है। जैसे, गांव में जिनके पास इसकी पहुंच नहीं होती, वो शायद इसीलिए चद्दरमार करते हैं। किसी को खेत में पकड़ लिया, चद्दर में लपेटा और मार दिया। नहीं, ये तो मजाकिया बात हो गई लेकिन गांव में भी आज एक जागरूकता तो है। जब-जब उसे प्लेटफॉर्म मिलेगा जहां वो अपनी राय दे पाए वहां-वहां वो मौका गीक बनने का सबको मिलेगा। जैसे पहले लेटर टु एडिटर हुआ करते थे या चिट्ठियां हुआ करती थीं, वैसे ही आजकल ये है कि आपको रुकना नहीं होगा कि कोई एडिटर छापे। इसमें आप छप भी जाते हैं और पूरी दुनिया भर में उसकी खबर हो जाती है।

जितने भी गीक हैं दुनिया के उनको ज्ञान बहुत है दुनिया का, सूचना की बौछार उन पर हो रही है, वो दीन-दुनिया के सारे इवेंट्स जानते हैं, उनका एक मत है लेकिन क्या इससे रियल लाइफ में वो कुछ फर्क डाल पाते हैं या कभी डाल पाएंगे?
दरअसल ये जो एम्पावरमेंट है, एक तरह से थोड़ा खोखला एम्पावरमेंट भी है। अल्पावधि में ये आपको सशक्त महसूस करवाएगा और आपको लगने लगेगा कि दुनिया तो अब बदल दोगे, लेकिन दीर्घावधि में ये सिर्फ शब्द ही रहेंगे। ये फिजिकल (भौतिक) नहीं है, वर्चुअल (छाया) है। लेकिन उसी कॉन्ट्रास्ट में अगर आप देखो तो एक आदमी के अलावा लाखों जुड़ गए तो शायद ईजिप्ट गिर जाए। जैसे विकीलीक्स हैं, वो अपने आप में एक क्रांति हैं। ये तो सच है कि अगर हमने ढंग से हमारी बातों को प्रस्तुत किया तो जैसे ईजिप्ट में है, जैसे क्यूबा में है, वैसे अगर वो लोगों को जोड़ पाए तो फर्क भी पड़ेगा। इसमें एम्पावरमेंट को बहुत कंस्ट्रक्टिव (सृजनात्मक) तरीके में हमें ढालना पड़ेगा। मतलब अभी तो हम बहुत ही इंडिविजुअलिस्टिक हैं, हम अपनी-अपनी निजी ग्लोरी में घुसे हैं कि यार मैंने बोल दिया है। जैसे, मैं शाहरुख को पसंद नहीं करता हूं तो मैं खुद ही उसके ट्विटर अकाउंट पर जाकर लिख दूंगा कि भाई मैं तुझे पसंद नहीं करता। तो इस खेल से जब हम ऊपर उठेंगे तो शायद सीरियस तरीके से ओपिनियन देने का मौका है हमारे पास, एकजुट होने का मौका है। गंभीर होंगे, साथ होंगे तो काफी कुछ हो सकता है। अभी जैसे फ्लैशमॉब या पीसमार्च होते हैं तो मेरे ख्याल से छोटे-मोटे लेवल पर हो ही रहा है, आगे भी होंगे। मतलब अभी तो लोग खेल रहे हैं, जब इस खेल से थक जाएंगे और उनका कंस्ट्रक्टिव यूज होगा तो पक्के तौर पर कुछ बदलाव होगा। मेरे ख्याल से हो भी रहा है।

जैसे दिल्ली की घटना हुई थी तो उस समय भी बहुत से ऑब्जर्वेशन थे कि जितने लोग जंतर-मंतर पर जा रहे थे उनमें ज्यादातर फेसबुक और ट्विटर से प्रेरित होकर जा रहे थे, बाकी लोग जेएनयू या दूसरी शैक्षणिक संस्थाओं की स्टूडेंट पॉलिटिक्स से जुड़े थे।
...सही, सही... ये फ़िल्म में है भी। एक असहाय गुस्से को दिखाया है। जैसे हमें लगता है कि अगर हम वहां होते तो हम कुछ करते। ये उसी तरह का है। पहुंचना आसान हो गया है। सही चीजों के लिए आप पहुंचोगे तो मेरे ख्याल से वो सुनी जाएंगी।

जितना हम लोगों के पास, जो शहरों में बैठे हैं, इंटरनेट की उपलब्धता है या जो बड़े उदार विचार रखते हैं, वैसे ही जो तमाम ऐसी ताकतें हैं जो दकियानूसी हैं, या कहें तो औरतों के अधिकारों को दबाने वाली हैं या खुली सोच को दबाने वाली हैं, उनके भी फेसबुक पेज हैं, वो भी ट्विटर पर एक्टिव हैं, वो भी गीक हैं अपने मायनों में। तो फिजिकली ही नहीं, वर्चुअली भी वो हैं और अपनी जय... फलानी संस्था खोलकर बैठे हैं। तो इसे आप कैसे देखते हैं? उनका इस स्पेस पर होना क्या यहां भी एक पुरानी वाली ही लड़ाई नहीं खोल देता है? क्योंकि एक तरीके से हमें लगता है कि जितने भी गीक्स हैं वो सही हैं या उनके पास इतना नॉलेज है कि वो सही ही करना चाहते हैं बस कर नहीं पाते हैं।
ये एक्चुअली बहुत सही बात बोली जो इस फ़िल्म में भी है। इसमें अगर आप देखोगे तो लीड कैरेक्टर बॉक्सिंग रिंग में दो दूसरे लोगों से लड़ रहा है। वह कहता है, “मेरे जैसे दूसरे लोग भी हैं लेकिन वो मुझे तरह-तरह की चीजें कहते हैं पर मैं सहमत नहीं होता”। फिर उनमें झगड़ा शुरू हो जाता है। तो वह ट्विटर पर चलने वाले वॉर से जोड़ने के लिए था। आखिर में वह कहता है, “अनफॉलो, कि ये चीज मुझे रोकती है तो मुझे उसे अनफॉलो करना है”। फिर उन दोनों को लात मार देता है रिंग के बाहर। वो अपनी जगह है लेकिन आप सही कह रहे हो कि एम्पावरमेंट दोनों जगह है, दोनों को मिल रहा है। मतलब मैं न्यूट्रल और लिबरल होकर बहस कर सकता हूं तो एक एक्सट्रीम लेफ्ट विंग और एक एक्सट्रीम राइट विंग भी आर्ग्युमेंट दे सकता है। ये प्लेटफॉर्म एक अजीब सी समानता दे रहा है। जैसे कुएं में ये पानी पिएगा और ये पानी नहीं पिएगा... जिसके साथ 25 साल पहले ऐसा हुआ वो आज एक-बराबर बनकर रह सकता है, पॉजिटिव को प्रस्तुत कर सकता है। प्रोज और कॉन्स तो रहेंगे ही। जरूरी नहीं है कि इंटरनेट लिबरल्स के लिए ही है, वो तो सभी के लिए है। वही है कि कितना मजबूती से आप अपनी बातें रख सकते हैं। आम आर्ग्युमेंट में क्या होता है कि कोई इंसान डरा हुआ हो तो उसके सामने वाला उसे चिल्लाकर ही चुप करवा देगा, इंटरनेट पर वो तो नहीं हो सकता है कम से कम। आपको अपनी पूरी बात कहने की आजादी है, दूसरा कोई आपकी बात काट नहीं सकता। मेरे ख्याल से आर्ग्युमेंट रखने के लिए बहुत बढ़िया जगह है और इसके साथ हम इवॉल्व भी होंगे और बेहतर इवॉल्व होंगे। अभी तो मजा आ रहा है। अभी तो बहुत कुछ करने को मिल रहा है। वो होता था न कि बचपन में एक चम्मच शक्कर खा ले तो बच्चा कूदता रहता है पूरे घर में पूरे दिन। अभी तो मेरे ख्याल से उस तरह का एक माहौल है। जब ये माजरा थोड़ा स्पष्ट होगा तो मेरे ख्याल से ये दौर कुछ और ही होगा।

अगर इंटरनेट पूरी आजादी दे रहा है और हमें मजा आ रहा है और ये बहुत पॉजिटिव सब कुछ लग रहा है, तो क्या इसके साथ एक खामी ये नहीं आ गई है कि जो निजी जीवन में हमारे अपने हैं उनको हम कम वक्त दे रहे हैं?
आइसोलेशन तो मैं मानता हूं, होता है। जितना लाखों अनजान लोगों से हम जुड़ रहे हैं उतना पांच अपने लोगों से दूर जा रहे हैं। मानता हूं ऐसा हो रहा है। जैसे, पति-पत्नी भी बाहर डिनर पर जाते हैं तो दोनों अपने-अपने स्मार्टफोन खोलकर वर्चुअल लोगों से इंटरैक्ट कर रहे हैं और सामने उनकी दूरी बढ़ रही है। इसका भी एक दौर है क्योंकि ये आपको अपने अंदर सोख लेती है, इतना एम्पावर करती है कि क्या कहें। तो इवॉल्यूशन होगा, अभी जितना जोश है उतना एम्पावरमेंट हैं, जाहिर है आप ज्यादा घुस चुके हैं उस चीज में तो एक बिंदु के बाद आपको दोनों चीजों का अहसास होगा कि ये इतना सा ठीक है और इतना ठीक नहीं है। ये इंट्रेस्टिंग सा है पर पता चलेगा आगे आने वाले सालों में। एक जेनरेशन जैसे मेरी जेनरेशन है जो दूरदर्शन, ब्लैक एंड वाइट और मारुति 800 से आई है। जब वो वक्त आएगा तो हम काफी बूढ़े हो चुके होंगे। तब एक ऐसी जेनरेशन होगी जो सिर्फ इसी मैं पैदा हुई होगी। बढ़िया से बढ़िया इंटरनेट स्पीड में, ग्लोबलाइज्ड दुनिया में और मॉल में पैदा हुई होगी। वो इस चीज को कैसे यूज करती है देखना बहुत इंट्रेस्टिंग होगा। कैसी फैमिली वैल्यूज और अपना कैसा समाज वो बनाना चाहेंगे, देखना होगा। उनकी बातें, शायद बहुत रोचक होगी सुननी। हम तो बीच की पीढ़ी के हैं तो रियलाइज भी करते हैं और खुद को रोक भी लें कि चलो डिनर के दौरान फोन नहीं यूज करना है या ये नहीं करना है वो नहीं करना है। पर जो युवा एब्सोल्यूट फ्रीडम में पैदा हुआ है। मेरे ख्याल से आने वाले तीस साल में महानगरों में तो कम से कम वर्ग भेद नहीं होगा क्योंकि तब का युवा कॉन्शियस होकर इन चीजों से गुजरा नहीं होगा कि यार मेरे पास तो दो रुपए की पेंसिल है और उसके पास इतनी महंगी पेंसिल है। इस तरह की छोटी-छोटी चीजों से हम गुजरे हैं, वो जो नहीं गुजरा होगा, वो कैसे रिएक्ट करेगा टेक्नोलॉजी को लेकर और उसकी एडवांसमेंट को लेकर, देखना ज्यादा रोचक होगा शायद।

फ़िल्म का पहला विचार आपको कब आया और अंतिम मसौदे तक पहुंचने में कितना वक्त लगा?
आइडिया मुझे अपने ट्विटर के दोस्तों से आया था। मैं ट्विटर पर एक्टिव नहीं रहता हूं बस फॉलो करता हूं, देखता रहता हूं। मेरे जो दोस्त हैं वो आपस में जैसे जज्बे के साथ लड़ते रहते हैं और किसी को कुछ भी बोल देते हैं। कभी-कभी ये माध्यम विस्तार, पहुंच और ताकत भी देता है। जैसे मैं कहूंगा कि “काम नहीं है” तो दोस्त पूछेगा कि “तू बोल क्या-क्या कर सकता है”, तो मैं कहूंगा कि “ये ये कर सकता हूं”। इसे वो ट्विटर पर डाल देगा कि “मेरा दोस्त है उसे काम चाहिए”, “मेरा दोस्त है उसे घर चाहिए”। ये एम्पावरमेंट है जिससे पहले आपकी पहुंच बहुत सीमित थी। दूसरी तरफ वो जो बचकानी हरकतें करते हैं। जैसे, कोई फ़िल्म रिलीज हुई और उस पर जो आर्ग्युमेंट चल रहा है वो न जाने किस लेवल पर चला जाता है। असल जिदंगी में मैं इन सबको जानता हूं। जैसे एक का ट्विटर हैंड है वो एक अलग व्यक्तित्व होगा और जो असली है वो एक अलग पर्सनैलिटी होगा और मैं दोनों को जानता हूं। उसकी ट्विटर पर दस-पंद्रह हजार की फॉलोइंग है और लोग डरते हैं उससे, वो आर्ग्यू जब करता है तो लोग चुप हो जाते हैं और सचमुच की जिदंगी में मैं उसे देखता हूं और जानता हूं कि कैसा है उसकी आवाज क्या है। तो वो जो कॉन्ट्रास्ट है, वो प्रेरणा थी इस फ़िल्म की। मतलब आदमी एक वर्चुअल स्पेस में हल्क बन सकता है और असली जिदंगी में जैसे हल्क बनने से पहले जो डरा हुआ डॉक्टर है वो हो सकता है, तो एक तरह से वो ही शुरुआत थी कहानी की।

लिखने में कितना वक्त लग गया?
उसमें कुछ व्यवस्थित नहीं था। मतलब कुछ भी लिख दिया था कि ऐसे-ऐसे-ऐसे होगा। मन में था कि देखते हैं विजुअल्स के साथ इसका बनता क्या है। हम लोग एक रैंडमनेस (भटकाव) के साथ कोशिश कर रहे थे फ़िल्म बुनने की। हम लोगों को आम स्टोरीटेलिंग की आदत है कि ‘ये ऐसे ऐसे है’, लेकिन हमारी जो वर्चुअल जिदंगी है वो मेरे ख्याल से ‘ये है ये है ये है’ नहीं है। तो वो रैंडमनेस जरूरी थी कि आप यहां से वहां कूद रहे हो अपने मन में। आप जब बैठकर दिन में सपने भी ले रहे होते हो तो अजीब से अजीब परिस्थितियों में होते हो। ऑस्कर भी कलेक्ट कर रहे होते हो, भाग भी रहे होते हो, कहीं मुड़ भी रहे होते हो, तो उसकी कोई सीमा नहीं है। ऐसा कुछ बांधा नहीं था मैंने स्टोरी के साथ, अलग-अलग सब्जेक्ट थे। ऐसा इंडिया के बारे में मैसेज भी है। जैसे, वो स्लो मोशन में एक दिशा में भाग रहा है जहां एक शहरी आदमी शायद ही जाता है। वहां बताया जाता है कि “जब आप शहर में मॉल बना रहे हो तब जंगल में युद्ध लड़ा जा रहा है, सिविल वॉर”। वहां लोगों के पास घर-बार नहीं हैं, उन्हें विस्थापित कर दिया गया तो वो लड़ रहे हैं। ये उसका एक प्रस्तुतिकरण था, पर बहुत ग्लैमरस प्रस्तुतिकरण था।

एक सुपरहीरो क्लीशे के काम भी आता है कि एक सुपरहीरो जो होता है उसे एक्सट्रीम पेन से गुजरना पड़ता है, इससे पहले कि वो तय करे कि सुपरहीरो बनेगा। ये उसी का संदर्भ था। जैसे, वो नक्सली अपनी गर्लफ्रेंड के साथ भाग रहा है और जंगल में वो इंडियन आर्मी के हाथों मारी जाती है, तब वो लड़ाई करता है तो सोचता है कि अब मैं शहर जाकर लड़ूंगा। अकसर आपने देखा हो तो सुपरहीरो कहीं का भी रहने वाला हो शहर में आकर ही अपनी जंग लड़ता है। यानी आप कहीं पर भी अपनी जंग जारी रख सकते हो। वो चाहता तो जंगल में भी लड़ाई चालू रख सकता था, पर आता तो शहर में ही है और बिल्डिंग की छत पर खड़ा होता है। ये जो अलग-अलग छवियां हैं इन्हें लिया गया है।

जैसे वो ट्रेन वाला सीक्वेंस है जहां पर वो लड़की उसे आकर थैंक यू कहती है और वो शरमा जाता है और उसके बाद एक घटनाओं की श्रंखला होती है। ये बेसिकली हमारे जो इंस्टाग्रैम अपडेट्स हैं, हमारे जो अच्छे वाले फेसबुक अपडेट्स हैं कि यार आज में इस पार्टी में गया, वो जो होता है न कि सामने कैमरा रखकर आप खुद की फोटो खींच लेते हो और अलगअलग पोज देते हो। मतलब आप भले ही मोटे हो लेकिन सिर्फ अपना पेट खींचते हो कि पूरी बॉडी न दिखे। मतलब वो कैजुअली मैनिप्युलेटेड अच्छी वाली तस्वीरें जो होती हैं, ये वो वाला हिस्सा है। और इंटरनेट पर जैसे आप देखोगे कि कोई बिल्ली का वीडियो डाल देगा तो छह लाख लोग उसे देख लेंगे लेकिन एक सीरियस इश्यू के बारे में बात करोगे तो कोई नहीं देखता। ये उस तरह की चीजें हैं। जैसे वो बिल्ली लाकर दे रहा है और बुड्ढियों के साथ सीडी देख रहा है। मतलब वो जो बहुत ही कन्वेंशनल क्यूट चीजें लोग करते हैं इंटरनेट में खोते हुए।

फिर स्टोरी का प्रोग्रैशन ये है कि वो अब इन चीजों से पक चुका है। अब उसे सुपरहीरो विजिलांते वाली चीजें आ रही हैं, वो लोगों से लड़ रहा है, लोग उसे कुछ कह रहे हैं, उसे मान ही नहीं रहे। फिर वो फेसबुक में अपने दिन बिताने लगता है और लड़कियों को स्टॉक कर रहा है। बाथ टब से लेकर वो जो आगे वाले सीन हैं, उनका मतलब यही है कि फेसबुक पर वह लड़कियों की तस्वीरें स्टॉक कर रहा है और फिर हम देखते हैं कि वो लड़की उसके सामने बैठी है और वो उससे बात नहीं कर पाता, उसकी बातचीत सिर्फ इतनी ही है कि यूट्यूब पर कमेंट छोड़ देता है उसके लिए कि मुझे तुम पर यकीन है। लड़की ने शायद इंडिया अगेंस्ट करप्शन की तरफ से अर्णब गोस्वामी के शो पर हिस्सा लिया हो और वो देख रहा है यूट्यूब पर। उसे बस वही रास्ता दिखता है कि मैं यूट्यूब पर कमेंट छोड़ दूंगा जबकि सपनों में और वर्चुअल लाइफ में वो सुपरहीरो है और उस लड़की को बचाता है और सब दुनिया को बचा रहा है। यानी जब रिएलिटी की बात आती है तो यही भाव हैं, यही हमारे ख्वाब हैं और उतने में ही सिमट जाते हैं।

आखिर में जब वो लोग अपनी डेस्क ऊपर कर रहे होते हैं, वो क्या करते हैं?
हा हा, वो एकदम गीक वॉर होते हैं कि एक मैकेनिकल डेस्क है और देखते हैं सबसे पहले ऊपर कौन करेगा। फ़िल्म में तो बहुत सीरियस दिखाया है पर असल मैं ऐसे सीरियस होता नहीं है। जैसे, दो लोग कागज की गेंद बनाते हैं और कचरे के डिब्बे में फेंकने की कोशिश करते हैं कि किसकी पहले गई। ये वैसा ही है। ये छोटी-मोटी चीजें हैं इसमें आप अपनी खुशी दिखाते हो क्योंकि आगे आप सोशियली बहुत चैलेंज्ड हो। आप एक पार्टी की जान नहीं हो। आपके लिए लोग रुकते नहीं हैं, आप उनमें से हो जिसे पूछना पड़ता है “कहां जा रहा है कहां जा रहा है, मैं आऊं मैं आऊं”। आपके जाने या न जाने से लोगों को फर्क नहीं पड़ता। हम जैसे लोग आपस में मिलते हैं तो एक अजीब सा इंटरेक्शन होने लगता है। ये उस तरह की स्थिति थी जहां मुझे दिखा कि गूगल के दफ्तर में ऐसी बैंच है जो ऊपर-नीचे होती हैं, तो मैंने सोचा कि हां रोज ये लोग शायद करते होंगे तो यूज करता हूं। जब कैमरा सेट हो रहा था, लाइट सेट हो रही थी तो मैं ऐसे किसी और के साथ खेल रहा था।

किन-किन लोगों को कास्ट किया और क्यों किया?
विकी (कौशल) को मैं तीन-चार साल से जानता हूं। उससे समर्पित और कमाल लड़का मैंने देखा नहीं है। लुक और परफॉर्मेंस में और एक इंसान के तौर पर उसने मेरे सामने ही ग्रो किया है। उसके साथ तो मैं हमेशा ही काम करना चाहता था। मुझे पता था कि बिना एक भी डायलॉग के बहुत सटल एक्सप्रेशन में एक वही है जो कर पाएगा। जहां बेहद एक्शन की डिमांड है वो भी कर लेगा और जहां अभिनय की जरूरत है वो भी कर लेगा। नेहा (चौहान) को मैंने ‘एलएसडी’ (लव सेक्स और धोखा) में देखा था। फ़िल्म में उसके काम से काफी प्रभावित था मैं। उसकी लाइफ भी अजीब रही थी, वो दोस्त की शादी में नाच रही थी, वो वीडियो दिबाकर ने देखी और उसे चुना। मुझे उसका लुक काफी रोचक लगा था, पारंपरिक नहीं था। जैसे आप हीरोइन चुनते हो तो एकदम गोरी-चिट्टी और मर्यादाओं वाली, तो नेहा उन धारणाओं को तोड़ रही थी। जब भी वो एक कमरे में चलकर आती थी तो लड़के रिएक्ट करते थे। मुझे वो अच्छा लगा कि उसका एक अजीब तरह का अट्रैक्शन है, जो कि पारंपरिक तरीकों से आप नहीं लगते हो। नेहा अच्छी एक्ट्रेस है। काफी उत्साहित है। उसके अलावा जितने भी लोग हैं, सारे मेरे दोस्त ही हैं। जैसे, कोई ट्रेन में पीछे खड़ा है तो प्रॉडक्शन वाला है।

कौन सा कैमरा इस्तेमाल किया?
कुछ-कुछ जगहों पर रेड एपिक (Red Epic) किया है जहां पर एक्शन है और जंगल के सीक्वेंस हैं। बाकी जगहों पर जहां परमिशन नहीं ले सकते थे जैसे ट्रेन हो गई वहां पर 5डी (Canon EOS 5D) यूज किया।

इस फ़िल्म में जैसे दो-तीन बिंदु हैं कि “जंगलों में युद्ध लड़े जा रहे हैं और शहरों में मॉल खड़े किए जा रहे हैं” या “दिल्ली की उस बस में मैं होता”, ऐसे बिंदु क्या अपनी बाकी फ़िल्मों में भी आप लाना चाहेंगे?
ये जिदंगी से ताल्लुक तो रखते ही हैं। आप अखबार उठाओ तो पढ़ सकते हो। मेरे ख्याल से किरदार कोई भी हो पुट तो किए ही जा सकते हैं, कितना वो रजिस्टर कर पाएंगे पता नहीं। अब जैसे इसमें मजाक के तौर पर डाल दिया है तो शायद ध्यान नहीं जा रहा लेकिन अब उस मूमेंट में कितना हो सकता है उतना ही किया जा सकता है। लेकिन बात ये है कि मैं अपने पॉइंट रखता जाऊं, बाकी लोग पहले हफ्ते में समझेंगे या दूसरे में या मिस कर देंगे। ठीक लगा तो शायद समझ जाएं।

फ़िल्में कौन सी देखीं हाल में?
ऐसी कोई मजेदार फ़िल्म देखी नहीं। एक ‘ओनली गॉड फरगिव्स’ बहुत ही चर्चित फ़िल्म रही जो कान में थी और लोगों को बिल्कुल पसंद नहीं आई। मेरे ख्याल से एक अजीब सा माहौल बन रहा है जहां लोग नहीं चाहते कि फ़िल्म में एक्सट्रीम हिंसा हो या खून-खराबा हो तो उसे वो बिल्कुल नकार रहे हैं। मेरे ख्याल से फिर से वो दौर आएगा जहां साफ फ़िल्में होंगी। इंटरनेशनली भी मैं देख रहा हूं कि माहौल रिएलिटी या हिंसा दिखाने का नहीं है। डार्क फ़िल्में लोग नकार रहे हैं।

ऐसा क्यों, क्योंकि निकोलस की पिछली फ़िल्म ‘ड्राइव’ में भी हिंसा को बहुत ही शांत-सुरम्य तरीके से दिखाया गया था और लोगों ने पसंद भी किया, ‘ओनली गॉड फरगिव्स’ भी शायद वैसी ही है फिर ऐसा क्यों? टैरेंटीनो भी पोएटिक सा वॉयलेंस दिखाते हैं लेकिन उन्हें उनके फैन्स देवता मानते हैं। ये जो हिंसा को नकारने वाले दर्शक हैं, ये नई पीढ़ी के हैं या उस पीढ़ी के जो काफी वक्त से सिनेमा देख रही है?
दोनों। दोनों ही नकार रहे हैं। टैरेंटीनो को आप फिर भी इतना सीरियस नहीं पाएंगे। मतलब टैरेंटीनो की फ़िल्म में मुझे नहीं लगता कि मैं रिएलिटी ढूंढता हूं। मैं तो एंटरटेनमेंट ही ढूंढ रहा होता हूं। लेकिन निकोलस की फ़िल्में एक बहुत ही अलग जोन में जाती हैं और वो एक घुटन सा महसूस करवाती हैं। मैं तो ऐसे सिनेमा से जुड़ना चाहूंगा जो ज्यादा रियल है, ज्यादा रेजोनेंट है। भले ही वो बहुत ही डिबेटेड फ़िल्में हों क्योंकि अच्छी बात ये है कि वो समानांतर भाषाओं में हैं ताकि सब लोग देख सकें। वो एक ऐसी चीज होगी जो कुछ लोगों को बहुत ही बेकार लगेगी और कुछ लोगों को बहुत ही पसंद आएगी। आज के वक्त में एक बहुत ही कमाल माहौल है कि हर आदमी अपना अलग नजरिया रख रहा है न कि आयातित नजरिया। इस लिहाज से निकोलस जो करने की कोशिश कर रहे हैं वो काफी हिम्मत का काम है। उनका करियर फॉलो करने में मजा आएगा।

और किसी फ़िल्म से जुड़े हैं कि अपनी पटकथा पर ही काम कर रहे हैं?
अपनी कहानी ही लिख रहा हूं। वैसे ‘बॉम्बे वेलवेट’ में राइटर था पर वो काम काफी पहले ही खत्म हो गया था।

Vasan Bala is a Mumbai based filmmaker. He has made a Short film called ‘Geek Out.' Last year, he made ‘Peddlers' which was received very well at various National - International film festivals. He has worked with Anurag Kashyap on 'Dev D', 'That Girl in Yellow Boots', 'Gulaal' and ‘Bombay Velvet’ (Script). He was an associate director to Michael Winterbottom on 'Trishna'. Now he’s writing his next movie.
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Friday, June 14, 2013

श्लोक शर्मा की ‘हिडन क्रिकेट’ : खेल जो करप्ट नहीं हुआ

 5 Short Films on Modern India 

विदेश मंत्रालय, गूगल, वायाकॉम 18 और अनुराग कश्यप की फिल्म निर्माण कंपनी ने मिलकर “इंडिया इज... अ विजुअल जर्नी” विषय पर पांच शॉर्ट फ़िल्में बनाई हैं। मौजूदा भारत के विभिन्न पहलुओं को दिखाती और नए विमर्शों की बयार लाती ये फ़िल्में हैं अनुभूति कश्यप की ‘मोइ मरजाणी’, श्लोक शर्मा की ‘हिडन क्रिकेट’, नीरज घैवन की ‘द एपिफनी’, वासन बाला की ‘गीक आउट’ और गीतांजलि राव की ‘चाय’। पांचों फिल्में यूट्यूब पर उपलब्ध हैं।

 



श्लोक शर्मा का अब तक का काम आगे के लिए उम्मीदें जगाता है। उनकी शॉर्ट फिल्म ‘सुजाता’ को ही लें। एक ऐसी लड़की की कहानी जिसकी जिंदगी में बहुत छटपटाहट है। मजबूरी है कि रिश्तेदारों के यहां रहना पड़ता है। रिश्ते में लगता उसका एक भाई है। उसका बड़ा डर है। बचने के लिए वह पते बदलती है, पहचान बदलती है लेकिन कहीं से मदद नहीं मिलती। अंततः वह चीजें अपने हाथ में लेती है। 2011 में बनी ‘सुजाता’ में मुख्य भूमिका हुमा कुरैशी ने निभाई है। इसके अलावा श्लोक की दो शॉर्ट फिल्में दो साल पहले आ चुकी हैं। ‘द जॉय ऑफ गिविंग’ और ‘ट्यूबलाइट का चांद’। देखकर सुख मिलता है। उनकी ‘हिडन क्रिकेट’ इस साल बनाई गई पांचों शॉर्ट फिल्मों में सबसे छोटी है, कोई साढ़े तीन मिनट की। हम बहुत बार ये पंक्ति दुहराते हैं कि भारत में क्रिकेट एक धर्म है, हिडन क्रिकेट एक नास्तिक के नथुनों में उड़कर आता वो लोबान का धुँआ है जो उसी ऊपरवाले के लिए सुलगाया गया है। ये क्रिकेट स्टेडियम में खेला जाने वाला नहीं है, पार्कों में खेला जाने वाला नहीं है और ये खेला जाने वाला है ही नहीं, ये गलियों, दुकानों, झरोखों, सड़कों, मुहानों और जमानों में बिना दिखे बहने वाला है।

 मुंबई में रह रहे श्लोक ने सबसे पहले 2004 में आई विशाल भारद्वाज की फिल्म ‘द ब्लू अम्ब्रेला’ में बतौर प्रोडक्शन असिस्टेंट काम किया था। विशाल की ही फिल्म ‘ओमकारा’ और एड्स विषय पर बनी शॉर्ट फिल्म ‘ब्लड ब्रदर्स’ में वह असिस्टेंट डायरेक्टर रहे। इसके बाद उन्होंने अनुराग कश्यप के साथ ‘नो स्मोकिंग’, ‘दैट गर्ल इन यैलो बूट्स’, ‘देव डी’ और ‘गैंग्स ऑफ वासेपुर’ में निर्देशन और निर्माण के अलग-अलग स्तरों पर काम किया। सिनेमा के सौ साल पूरे होने के उपलक्ष्य में इस साल बनाई गई ‘बॉम्बे टॉकीज’ में वह सहयोगी निर्देशक रहे। नवाजुद्दीन सिद्दीकी को लेकर वह अपनी पहली फीचर फ़िल्म ‘हरामखोर’ की शूटिंग पूरी कर चुके हैं। अभी पोस्ट-प्रोडक्शन किया जा रहा है। उनसे ‘हिडन क्रिकेट’ पर यह संक्षिप्त बातचीत हुई।

कहां जन्मे, पले-बढ़े और पढ़े?
नई दिल्ली से हूं। परवरिश मध्य प्रदेश के बिलासपुर और मुंबई के सायन क्षेत्र में हुई। ज्यादातर बचपन और लड़कपन सायन में ही बीता और यहीं से अपनी पढ़ाई भी पूरी की।

Shlok Sharma
हिडन क्रिकेट नाम क्यों रखा?
क्योंकि यह क्रिकेट आपको आम क्रिकेट की तरह दिखता नहीं है। इसे खेलते वक्त एक मैदान, यूनिफॉर्म पहने खिलाड़ी, एक बल्ला और गेंद, इनमें से किसी भी चीज की जरूरत नहीं पड़ती। हिडन क्रिकेट हमारी रोजमर्रा की जिंदगी का हिस्सा है जिसे हम लोग बड़ी आसानी से नजरअंदाज कर जाते हैं।

कहानी जेहन से अस्तित्व में कैसे आई?
मेरे जेहन में 3 साल पहले ही आ गई थी लेकिन सही वक्त नहीं मिल पा रहा था। फिर ये प्रोजेक्ट आया तो गूगल और गुनीत मोंगा (निर्माता) के सौजन्य से यह विचार हकीकत में बदला।

गेंद बल्ला कहानी है... गाने के बोल पर अंतिम राय कैसे बनी और म्यूजिक कैसा चाहते थे?
इसके गीतकार वरुण ग्रोवर और संगीतकार विशाल खुराना अत्यंत प्रतिभाशाली हैं। फ़िल्म के म्यूजिक के संदर्भ में हमने सोच रखा था कि हिंदुस्तान का ध्यान फ़िल्म की ओर खींचना है। साथ ही उन लोगों का परिचय क्रिकेट के जुनून से करवाना है जिन्हें इस खेल में ज्यादा दिलचस्पी नहीं हैं। यहीं से शुरुआत हुई। आगे गाने के बोल और फ़िल्म के संगीत का पूरा श्रेय वरुण और विशाल को है।

शूटिंग कहां और किस कैमरा से की? क्रू कितना बड़ा था और कितने दिन लगे?
ज्यादातर शूटिंग पटियाला के आसपास की है। फिल्मांकन में कोई 3 दिन लगे। हमने रेड एपिक (Red Epic) पर शूट किया एक बहुत ही छोटे क्रू के साथ। जितने कम लोग, उतनी ज्यादा फुर्ती और उतनी ही कम गड़बड़ी।

शूटिंग के दौरान चुनौतियां क्या रहीं?
वही जो हर शूट पर होती हैं। गर्मी और भीड़। हमने सड़कों और बिल्डिंगों पर भाग-भाग कर शूट किया। मगर हमारी टीम ने इन सारी चुनौतियों को आधा कर दिया था। उनका तहेदिल से शुक्रगुज़ार हूं।

बाकी शॉर्ट फ़िल्मों में ‘हिडन क्रिकेट’ ही है जो सबसे छोटी 3 मिनट की है, ऐसा क्यों?
मुझे जो भी कहना था उसके लिए इतना वक्त काफी था। इससे लंबी होती तो खींची हुई महसूस होती।

छोटी फ़िल्म में भी बहुत प्रयास लगता है, उस प्रयास के लिए हिम्मत कैसे मिलती है?
किसी भी कलाकार को अपने आप को पेश करने के लिए हिम्मत नहीं, एक दृष्टी, एक जिद्द, एक जूनून और जूनून को प्रोत्साहित करने वाली टीम की जरूरत होती है। बाकी सब तो अपने आप हो जाता है।

इससे पहले क्या कर चुके हैं?
इससे पहले कुछ शॉर्ट फ़िल्में बनाईं। उनमें से कुछ ने अन्तरराष्ट्रीय फ़िल्म समारोहों में पुरस्कार भी जीते। अनुराग कश्यप की ‘गैंग्स और वासेपुर’ में सेकेंड यूनिट डायरेक्टर था। अब अपनी पहली फ़िल्म ‘हरामखोर’ के पोस्ट-प्रोडक्शन में व्यस्त हूं। साथ में अगली स्क्रिप्ट का लेखन भी चल रहा है।

आपको कैसे विषय लुभाते हैं?
मुझे सबसे ज्यादा दिलचस्प इंसान और उनकी मनोवृत्ति लगती है। इंसानों का स्वभाव अत्यंत अप्रत्याशित होता है। यह मुझे बहुत लुभाता है। मैं अपने बचपन से भी बहुत ज्यादा प्रभावित हूं और मुझे लगता है की इन दोनों का प्रभाव मेरी फ़िल्मों में झलकता है।

विश्व और भारत में सबसे पसंदीदा फ़िल्मकार कौन हैं? क्यों?
सच पूछिये तो मैंने ज्यादा फ़िल्में देखी नहीं हैं मगर इस इंडस्ट्री में आने के पहले मुझे विशाल जी (भरद्वाज) और गुलज़ार सर ने काफी प्रभावित किया है। खासकर विशाल जी की ‘मक़बूल’ और गुलज़ार साब की ‘माचिस’, ‘हु तू तू’ और ‘आंधी’ मुझे खासतौर पर याद हैं। इन सब में इंसानी प्रवृति का विस्तृत वर्णन और संवेदनशील प्रस्तुति, मुझे इतने साल बाद भी हूबहू याद है।

क्या फिलॉसफी पढ़ते हैं? किसकी ने संतुष्ट किया है?
फिलॉसफी तो नहीं पढ़ी मगर इतना मालूम है कि जिस दिन संतुष्ट हो गया, उस दिन रुक जाऊंगा और जिस दिन रुक गया, उस दिन मेरा कौतुहल और चाह खत्म हो जाएगी। और भला बिना चाह के कौन जीता है?

फ़िल्मकार मन में क्या सोच तांडव किया करती है?
वही अंर्तद्वंद जो किसी भी इंसान के मन में चलता है, बस उसे पेश करने के नज़रिए में फर्क होता है।

Shlok Sharma is an Indian filmmaker. He started working as a production assistant on Vishal Bhardwaj’s ‘The Blue Umbrella’ in 2004. He was an assistant director on ‘Omkara’ and ‘Blood Brothers’, both directed by Vishal. He has worked with Anuraag Kashyap on ‘No Smoking’, ‘Dev D’, ‘That Girl in Yellow Boots’, ‘Gangs of Wasseypur’ and ‘Bombay Talkies.’ In 2010 he made three short films ‘The Joy of Giving’, ‘Cut it’ and ‘Tubelight Ka Chaand’. Next year he made another short ‘Sujata.’ Now he has come up with ‘Hidden Cricket.’ He has finished shooting his first feature film ‘Haraamkhor’ with Nawazuddin Siddiqui. Post production of the film is on.
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Thursday, June 13, 2013

अनुभूति कश्यप की ‘मोइ मरजाणी’ : ये फैसला मेरा है

 5 Short Films on Modern India 

 

विदेश मंत्रालय, गूगल, वायाकॉम 18 और अनुराग कश्यप की फिल्म निर्माण कंपनी ने मिलकर “इंडिया इज... अ विजुअल जर्नी” विषय पर पांच शॉर्ट फ़िल्में बनाई हैं। मौजूदा भारत के विभिन्न पहलुओं को दिखाती और नए विमर्शों की बयार लाती ये फ़िल्में हैं अनुभूति कश्यप की ‘मोइ मरजाणी’, श्लोक शर्मा की ‘हिडन क्रिकेट’, नीरज घैवन की ‘द एपिफनी’, वासन बाला की ‘गीक आउट’ और गीतांजलि राव की ‘चाय’। पांचों फिल्में यूट्यूब पर उपलब्ध हैं।

   

अनुभूति कश्यप की इस फिल्म का शीर्षक पहले ‘दढ़ियल’ था। अंततः यह ‘मोइ मरजाणी’ नाम के साथ प्रस्तुत हुई। सादगी और सीदे कथ्य से सजी ये कहानी है पटियाला की मोना चड्ढा की। वह एक इंटरनेट कैफे चलाती है। एक छोटा बेटा है। मोना जिंदगी की कुछ मामूली और कुछ भारी-भरकम परिस्थिति से गुजर रही है। इसी दौरान मुंबई से पटियाला, परेश उनसे मिलने आ पहुंचते हैं जिनसे दोस्ती इंटरनेट चैटिंग के जरिए हुई। भविष्य की इनकी आपसी संभावनाएं हैं। चूंकि मोना एक परिस्थिति से गुजर रही है और मिलने की हालत में नहीं है और न मिलने पर जिंदगी का बहुत महत्वपूर्ण मोड़ छूट जाएगा। तो असमंजस और निराशा है। खैर, यहां से कहानी एक सुहावनी दिशा चलती है। अनुभूति इस वक्त दो फ़िल्मों की पटकथा पर काम कर रही हैं, लिख रही हैं। फ़िल्मकारी उन्होंने राजकुमार गुप्ता और अनुराग कश्यप के सानिध्य में सीखी है। वह ‘नो वन किल्ड जैसिका’, ‘देव डी’, ‘गैंग्स ऑफ वासेपुर’ और ‘पीटर गया काम से’ जैसी फिल्मों का हिस्सा रही हैं। ‘मोइ मरजाणी’ को लेकर अनुभूति से बातचीत हुई।

मोइ मरजाणी नाम क्यों चुना फ़िल्म का?
मुझे एक पंजाबी शब्द चाहिए था इस लड़की के लिए जो उसके किरदार का वर्णन करे। तो मोइ मरजाणी शब्द उपयुक्त लगा क्योंकि इसमें शरारतीपन भी है और किसी को प्यार से बुलाया जाने वाला पुट भी। जैसे कोई दादी अपनी पोती को बुलाएगी, डांटेगी भी तो उसे मोइ मरजाणी बोलेगी। इसमें प्यार भी होता है और डांट भी होती है। जैसे, “मोइ मरजाणी तूने सब काम खराब कर दिया”।

Anubhuti Kashyap
इसका पहला विचार आपको कब आया और अंतिम ड्राफ्ट तक पहुंचने के दौरान कहानी किस दौर से गुजरी?
इस दौरान किरदारों को दिमाग में कैसे बड़ा करती रहीं? मुझे फ़िल्म बनाने के थोड़ा पहले आया इसका आइडिया। हमें संभवतः जनवरी में गूगल की तरफ से संदेश आया था कि आप अपने आइडिया फटाफट सोचें और बताएं, फिर डिसकस करके फ़िल्म बनानी है। तो जनवरी से मैं सोचने लगी कि क्या करूं। फिर मेरे दिमाग में ये कहानी आई। ये एक औरत से प्रेरित है जिनसे मैं मिली थी। मेरे दिमाग में तभी से ये इश्यू था। सोचना शुरू किया तो लगा कि ठीक है इसी पर पिक्चर बना लेते हैं। तुरंत बनानी ही थी तो ड्राफ्ट फटाफट तैयार हो गया। 10-15 दिन में। मैंने मार्च में लिखी और फिर पटियाला जाकर फटाफट शूट कर ली।

ये जो फ़िल्म का पूरा लम्बा तट है, ये जो डिसकशंस चल रहे हैं किरदारों की पृष्ठभूमि में... माने दर्शकों को 15-20 मिनट की फ़िल्म में जो दिख रहा है उसके पीछे एक 200-300 मिनट की फ़िल्म आपकी खुद की होती है जिसका सार इस छोटी सी फ़िल्म में होता है। तो वो सारे विचार क्या थे। जैसे, फ़िल्म की किरदार मोना का बेटा कहता है, “मम्मी आप दाढ़ी में ही अच्छे लगते हो” या आखिर में वो लोग डॉक्टर के पास जा रहे होते हैं। तो एक फ़िल्मकार के पास ये होता है न, कि क्या उसका किरदार कहानी के आखिर में करे। क्या दाढ़ी के साथ उसका होने वाला पति उसे स्वीकार करे या फिर समाज के हिसाब से समाज की चीजों को भी थोड़ा देखते हुए वह अपने आप को सही करे। उसका बेटा जो बिल्कुल मासूम है वो उसे उसी स्वरूप में स्वीकार कर रहा है लेकिन शायद उसका पति न कर पाए या शायद वह खुद भी न कर पाए। तो इस मनन में आप निष्कर्ष पर कैसे पहुंचीं? कि हां, उनका डॉक्टर के पास जाना बुरा नहीं है और जिनको भी ऐसी दिक्कत है उन्हें ऐसा करवाना चाहिए।
जब मैं लिख भी रही थी तो मेरे दिमाग में ऐसी कोई ब्रेव हिरोइन नहीं थी जो दुनिया से लड़कर खुद को उसी स्वरूप में स्वीकार कर ले और हमेशा जिंदगी भर ऐसे ही रहे। मैं सिंपल कैरेक्टर पसंद करती हूं। हम लोग बातें जितनी भी बड़ी-बड़ी कर लें लेकिन करेंगे वही। मैं भी शायद ऐसी परिस्थिति में होती तो ऐसा ही करती। मैं ऐसा कोई परमानेंट इलाज जरूर करवाती। मैं साधारण किरदार पसंद करती हूं और इसे मैंने ऐसे ही लिखा था। ऐसे लिखा कि अगर उसका पति उसको स्वीकार भी करता है तो पहली बात ये कि वह अपने आप से कम्फर्टेबल नहीं थी इसलिए वह डॉक्टर के पास गई। फिर वह अपने बॉयफ्रेंड से छिप भी रही थी क्योंकि जाहिर है वह अपने आप को ऐसे दिखाना नहीं चाहती थी। असुरक्षित थी इसको लेकर। वह एक नॉर्मल लड़की है जिसकी जिंदगी में असुरक्षाएं हैं। बाद में उसने शायद बहुत सोचकर और बहुत स्ट्रेस के साथ तय किया कि नहीं मैं झूठ पर ये रिश्ता शुरू नहीं कर सकती। उसके लिए ऐसा करना ही बहुत हिम्मत वाली चीज थी और बहुत बड़ा कदम था। ऐसा करने के बाद जब उनकी नॉर्मल बातें होती हैं और उसके बाद तय करते हैं कि डॉक्टर के पास जाएंगे। ये सब सोचने के लिए मैंने बस अपने आप को उस सिचुएशन में डाला। सोचा कि मैं कैसे रिएक्ट करती। मैं जानती हूं कि कहानी को बहुत ही ड्रमैटिक और विशाल बना सकती थी कि हीरोइन तय कर लेती, “मैं जिंदगी भर ऐसे ही रहूंगी और मैं शेव करती रहूंगी” लेकिन नहीं, मैं एक नेरेटिव और सिंपल कहानी लिखना चाहती थी, इसलिए हालातों को ऐसा रखा।

आप जब कुछ भी लिखती हैं तो आपको ड्राइव क्या करता है? दिमाग करता है कि दिल ड्राइव करता है?
दोनों। दोनों बहुत जरूरी हैं। दिल तो जरूर ड्राइव करता है लेकिन मुझे उसके उपरांत विश्लेषण भी करना होता है तो दिमाग भी थोड़ा लगाना पड़ता है।

मतलब अगर मैं ये कहूं कि दिमाग का इस्तेमाल कहानी बनने के बिल्कुल बेसिक स्तर पर अगर हम करने लगें तो बननी मुश्किल हो जाती है।
ठीक कहा, वहां तो आप बिल्कुल नहीं कर सकते। पहली पूरी कहानी दिल से निकलती है और फिर उसको सुधारने का काम दिमाग से किया जाता है।

आपको कौन से फ़िल्मकार सबसे ज्यादा पसंद हैं? ऐसे कौन से फ़िल्म और फ़िल्मकार हैं जिन्होंने इतना चौंकाया कि यार ये फ़िल्में और ये दुनिया भी होती है और आप एक्सप्लोर करती गईं।
बहुत बहुत बहुत सारे हैं। मुझे बहुत सारे फ़िल्ममेकर्स और बहुत सारी फ़िल्में पसंद हैं। वर्ल्ड सिनेमा में तो खैर बहुत सारे ही लोग हैं। हमारे देश में मैं दिबाकर बैनर्जी की बहुत बड़ी फैन हूं, विशाल भारद्वाज की बहुत बड़ी फैन हूं और अनुराग कश्यप मेरे भाई, उनकी फैन हूं। पुराने जमाने के फ़िल्ममेकर्स में गुरुदत्त हैं, ऋषिकेश मुखर्जी हैं। विदेशी फ़िल्मकारों में तो बहुत सारे नाम है। मैं फ़िल्में बता सकती हूं। मेरी पसंदीदा फ़िल्मों में आती है ‘मैमरीज ऑफ मर्डर’ (2003, बॉन्ग जून-हो), ‘फाइट क्लब’ (1999, डेविंड फिंचर) और भी बहुत सारी। वेस्टर्न फ़िल्में बनाने वाले निर्देशक भी पसंद आते हैं। कोएन ब्रदर्स मेरे पसंदीदा में से हैं। कुछ फ़िल्ममेकर्स हैं जिनकी सारी ही फ़िल्में मुझे हमेशा अच्छी लगती हैं। उनमें कोएन ब्रदर्स हैं, क्लिंट ईस्टवुड हैं।

क्लिंट ईस्टवुड बाकी बताए नामों की तुलना में सिंपल फ़िल्में बनाते हैं, तो क्या उनकी प्रस्तुति की सादगी पसंद आती है आपको?
हां, मुझे उनकी फ़िल्मों की सादगी, जटिलता सब कुछ पसंद आती है। अपनी फ़िल्मों में भी मुझे ये दोनों ही चीजें बेहद पसंद हैं।

बाकी चार शॉर्ट फ़िल्में ले लें या आजकल की ज्यादातर फ़िल्में, उनमें म्यूजिक को बिल्कुल अलग सा प्रस्तुत करने की कोशिश होती है। वहीं आपने बेहद साधारण सा संगीत अपनी फ़िल्म में रखा है और इस मोर्चे पर जरा भी महत्वाकांक्षी होने की कोशिश नहीं की है। इसकी क्या वजह थी?
जब शॉर्ट फ़िल्म बनाते हैं तो खर्च करने के लिए इतना बड़ा बजट नहीं होता। दूसरा हमने जो भी म्यूजिक यूज किया है वो फ़िल्म की सादगी को ध्यान में रखते हुए किया है। फ़िल्म के आखिर में एक छोटा सा पीस बनाया तो हमें कुछ कमाल नहीं चाहिए था। बस वैसा चाहिए था जैसा आज छोटे-छोटे कस्बों में बनाया जाता हैं। हमें नया और तरोताजा करने वाला नहीं चाहिए था बल्कि ऐसा चाहिए था जो उस कल्चर से आ रहा हो। जब मैं फ़िल्म शूट करने पटियाला गई तो वहां टैक्सी और गाड़ियों में जिस तरह का म्यूजिक चलता है, वहां पर हर घर में एक एल्बम या गाना बनाने वाला होता है, मैं उस तरह का म्यूजिक चाहती थी। ऐसा लगे कि पटियाला के ही किसी बंदे ने बनाया है। साधारण इसलिए क्योंकि अगर म्यूजिक मूल विषय को ढकने लगे तो व्यर्थ हो जाता है।

आप हैं नॉर्थ इंडिया के एक हिस्से कीं और रहती हैं मुंबई में, फिर फ़िल्म पंजाबी पृष्ठभूमि वाली क्यों बनाई?
वो दरअसल इसलिए क्योंकि दो साल पहले मेरी शादी हो चुकी है और मेरे हस्बैंड पंजाब से हैं। इसलिए मैं दोनों कल्चर (महाराष्ट्र और पंजाब) को जोड़ने की कोशिश कर रही थी।

पटियाला में आपका शेड्यूल कितने दिन का था? और क्रू कितना बड़ा था?
हमने तीन दिन में शूट की फ़िल्म। क्रू बहुत छोटा सा था। मेरे चार एक्टर थे, मैं थी, कैमरामैन था, कैमरामैन के दो असिस्टेंट थे और मेरे साथ एक एडी था। पांच चंडीगढ़ के लड़के थे जिन्होंने हमारा प्रोडक्शन का काम किया, कास्टिंग की, सबकुछ किया, हर चीज की मदद की, हमें भाग-भागकर खाना लाकर दिया।

कैमरा कौन सा बरता?
ऐरी एलिक्सर (Arri Elixir)।

एक्टर्स कहां से हैं? और उन्हें कैसे चुना?
मुख्य अदाकारा कनिका कालरा चंडीगढ़ से ताल्लुक रखती हैं पर बॉम्बे में रहती हैं अपने परिवार के साथ। उन्हें यहीं से कास्ट किया। उनकी सहेली जो बनी हैं जीना भाटिया और बच्चा द्विज हांडा, ये दोनों दिल्ली के हैं। द्विज का काम मैंने देखा हुआ है ‘चिल्लर पार्टी’ में तो उसे यूं लिया। इन दोनों को दिल्ली से बुला लिया। श्रेयस पंडित जो लीड मेल हैं वो पूना में रहते हैं, उन्हें वहां से बुलाया।

कनिका को आपने उनके किरदार को लेकर क्या ब्रीफ किया था?
दरअसल उन्हें कास्ट करने का सुझाव कुछ दोस्तों ने दिया था, कि ये एक एक्ट्रेस हैं जिन्होंने पहले काम किया है, फिलहाल व्यस्त नहीं हैं। दोस्तों ने कहा कि वो तुम्हारी कैरेक्टर जैसी प्रतीत होती हैं। रियल लाइफ में बहुत जिंदादिल और उछलकूद मचाने वाली लड़की हैं। जब मिली और उनके साथ थोड़ा टाइम बिताया तो पाया कि वह असल किरदार के काफी करीब थीं। मेरा ब्रीफ उन्हें यही था कि आप जैसे हो वैसे ही रहो।

कैसे विषय आपको आकर्षित करते हैं जो संभवतः भविष्य में आपकी फ़िल्मों का आधार बनें?
मुझे ज्यादातर रिलेशनशिप वाली स्टोरीज पसंद आती हैं। कोई भी ऐसी कहानी जो दिल निचोड़ने वाला ड्रामा हो। मैं ऐसे विषय पर फ़िल्म बनाना चाहूंगी। कुछ भी जो थोड़ा सा असामान्य हो। आम परिस्थितियों से थोड़ा सा हटकर हो।

‘मोइ मरजानी’ को देखें तो उसमें आपकी किरदार एक किस्म का जीवन जी रही है, वह एक निर्णय लेती है और आखिर में उसकी जिदंगी में कुछ अच्छा होता है, एक संदेश भी मिलता है। लेकिन थोड़ा सा बाहर अगर उससे आपको लाऊं मैं और फिर दुनिया या भारत को देखें, आज की औरतों और उनकी समस्याओं को देखें, तो आपको कैसी दुनिया और कैसी औरतें देखनी पसंद होंगी? वो क्या कर रही हों या किस तरफ आगे बढ़ रही हों कि आपको बहुत पसंद आएगा?
कहीं भी दिखता है कि परंपरा से हटके कोई भी औरत कुछ करती है तो मुझे आकर्षित करता है। अगर परंपरा में रहकर ही कुछ अलग करे तो वो मुझे बहुत मनमोहक लगता है। जैसे, गुलाब गैंग थी। ...अनपढ़ औरत गांव में लेकिन पूरी सरकार और व्यवस्था को चुनौती दे रही है। ऐसा ही छोटे स्तर पर हो तो बहुत आकर्षित करता है। हालांकि मैं कोई फैमिनिस्ट नहीं हूं पर किसी भी फील्ड में औरतों को आगे बढ़ते देखना चाहूंगी और मर्दों से भी आगे। मुंह बंद करके कोई अत्याचार सहता रहे वो मुझे नहीं पसंद है। इसे तोड़ने के लिए जो भी किया जाए वो मुझे अच्छा लगता है।

ऑडियंस को पूरी फ़िल्म के बीच दो जंप देने हैं या इंटरवल से पहले ऐसा होना ही है, ऐसे जितने भी कमर्शियल फंडे हैं, उनकी अभी आप कितनी परवाह कर रही हैं? डर रही हैं? या कितना समाधान ढूंढकर रख लिया है?
अभी तक तो बिल्कुल सोच नहीं रही हूं उस बारे में। न ही डर रही हूं। न कॉन्फिडेंट हूं। अभी तो वो ख्याल ही नहीं है। अभी तो उस स्टेज पर हूं कि कहानी लिख रही हूं, बिना ये सोचे कि क्या वर्क करेगा क्या नहीं। मुझे लगता है एक बार जब अपनी स्क्रिप्ट मैं पूरी कर लूंगी और प्रोड्यूसर के पास लेकर जा रही होउंगी, तब इन सब बातों के बारे में सोचूंगी।

राजकुमार गुप्ता और अनुराग कश्यप के साथ किन-किन फ़िल्मों में आपने काम किया है?
‘आमिर’ में मैंने असिस्टेंट डायरेक्टर के तौर पर काम किया था। फिर ‘देव डी’। राजकुमार गुप्ता की ‘नो वन किल्ड जैसिका’ में मैंने वैसे कोई हिस्सा नहीं लिया था पर उसका रिसर्च मैंने किया था। उसके बाद ‘गैंग्स ऑफ वासेपुर’ में मैं असिस्टेंट डायरेक्टर थी। बीच में एक और फ़िल्म में काम किया था ‘पीटर गया काम से’ जो अभी नहीं आई है। जॉन ओवेन एक म्यूजिक डायरेक्टर हैं उन्होंने बनाई है। उसमें डायलॉग्स और परफॉर्मेंस में मैंने मदद की थी।

Anubhuti Kashyap is a young Indian filmmaker. She has made a beautiful short film called 'Moi Marjani.' At present, she's writing two of her future films. She has been part movies like ‘Dev D’, ‘No One Killed Jessica’, ‘Gangs Of Wasseypur’ and ‘Peter Gaya Kaam Se’.
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नीरज घैवन की ‘द एपिफनी’ : रिश्तों की रसायनशाला

 5 Short Films on Modern India 

 

विदेश मंत्रालय, गूगल, वायाकॉम 18 और अनुराग कश्यप की फिल्म निर्माण कंपनी ने मिलकर “इंडिया इज... अ विजुअल जर्नी” विषय पर पांच शॉर्ट फ़िल्में बनाई हैं। मौजूदा भारत के विभिन्न पहलुओं को दिखाती और नए विमर्शों की बयार लाती ये फ़िल्में हैं अनुभूति कश्यप की ‘मोइ मरजाणी’, श्लोक शर्मा की ‘हिडन क्रिकेट’, नीरज घैवन की ‘द एपिफनी’, वासन बाला की ‘गीक आउट’ और गीतांजलि राव की ‘चाय’। पांचों फिल्में यूट्यूब पर उपलब्ध हैं।

 

 
नीरज घैवन हैदराबाद में पले-बढ़े। इंजीनियरिंग की, एक कंसल्टिंग फर्म में एक साल काम किया और मार्केटिंग में एमबीए की डिग्री ली। फ़िल्में बनाने के लिए उन्होंने मार्केटिंग में भविष्य छोड़ दिया। बाद में अनुराग कश्यप से जुड़े। उनको कुछ फिल्मों की स्क्रिप्ट और डायरेक्शन में असिस्ट किया। पिछले साल आई ‘गैंग्स ऑफ वासेपुर’ में वह असिस्टेंट डायरेक्टर और स्क्रिप्ट सुपरवाइजर रहे। अनुराग की ही आने वाली फिल्म ‘अग्ली’ में वह सेकेंड यूनिट डायरेक्टर हैं। नीरज 2011 में अपनी पहली शॉर्ट फिल्म ‘शोर’ बना चुके हैं। फिल्म का प्रीमियर अबु धाबी फ़िल्म फेस्टिवल में हुआ। फिर साउथ एशियन इंटरनेशनल फ़िल्म फेस्टिवल, न्यू यॉर्क में इसने पुरस्कार जीता। अब उनकी दूसरी शॉर्ट फिल्म ‘द एपिफनी’ आई है। यह एक तलाकशुदा जोड़े की कहानी है। पुणे में अपने कॉलेज रीयूनियन में हिस्सा लेकर दोनों न चाहते हुए भी एक ही गाड़ी में मुंबई लौट रहे हैं। रास्ते में मदद के लिए पुकार रही एक बूढ़ी औरत और उसके पोते को ये कार में लिफ्ट देते हैं। ये छोटा और अगंभीर लगने वाला कदम उनकी जिंदगी में नए मायने लेकर आता है। आगे फ़िल्म वर्ग, संस्कृति, नैतिकता, पुराने घावों और असल जिंदगी की हकीकतों को पिरोती चलती है। अपनी अगली फिल्म की पटकथा पर काम कर रहे नीरज ने ‘द एपिफनी’ पर बात की।

एपिफनी शब्द के क्या मायने हैं?
एक अजीब सा वाकया जो हमारी आम सोच में नहीं होता लेकिन फिर कहीं से आ जाता है और उस सोच को बदल देता है। यही एपिफनी है। जैसे, इस जोड़े की जिंदगी में वह बूढ़ी औरत एपिफनी बनकर आती है।

इस कहानी के पीछे के हजारों विचार क्या रहे?
मैंने पहले ‘शोर’ नाम की एक फ़िल्म बनाई थी। वह भी एक शादीशुदा जोड़े के बारे में थी लेकिन वह एक अलग जोन में रची-बसी कहानी थी। मुझे यह विषय बहुत लुभाता है। एपिफनी के सिलसिले में मुझे कहा गया था कि इंडिया इंक के बारे में फ़िल्म बनाएं। मैंने कहा कि मैं इनक्रेडेबल इंडिया के बाकी विज्ञापनों की तरह इसे नहीं बनाना चाहता कि जहां सिर्फ जयपुर के बाग, रंग, महल और बनारस के घाट जैसी चीजें दिखाकर छोड़ दी जाएं। मेरे लिए यह इंडिया मेरा वाला था। यहीं पर मैंने यह कहानी चुनी। एक तलाकशुदा कपल की कहानी होने के अलावा यह इंडिया के बारे में बात करने के लिए रूपक (मेटाफर) है। जैसे, हम लोग कहते हैं कि हम एक सेक्युलर देश हैं, समदर्शी देश हैं, लेकिन क्या सच में हैं ? शायद शहरों में हम आगे हो गए हैं तो ऐसा मानते हैं लेकिन छोटे शहरों और गांवों में तो आज भी वही भारत है। अभी भी भेदभाव तो है। इन सबके बीच देश में अच्छा यह है कि किसी को छोटी सी दिक्कत हो जाए तो सारे जमा हो जाते हैं। जैसे, एक मोहल्ले में बहुत से लोग रहते हैं। सब अलग-अलग तरह से रहते और जीते हैं। पानी के घड़े तक को लेकर बात हो जाती है कि “तुम तो मच्छी बनाते हो”, “इसमें से बास आती है”। लेकिन मान लीजिए मुंबई में हमला हो गया तो ये बातें भूल सब फोन करके हाल-समाचार लेते हैं कि “यार तुम घर पहुंच गए क्या ठीक-ठाक”। तो यह एक मानवीय चेहरा है। भारतीय होने का यह श्रेय बड़ा है। हम में इतनी भाषाएं और इतने प्रांत है, इतनी विभिन्नता है फिर भी हम किसी न किसी चीज से जुड़े हैं। मेरे लिए इन चीजों को किसी न किसी रूप में फ़िल्म में दिखाना जरूरी था। मसलन, इस कपल ने मान लिया है कि हम साथ नहीं रह सकते। फिर अकस्मात उन्हें एक गाड़ी में साथ जाना पड़ता है, उनके एक दोस्त को आना होता है लेकिन वह आ नहीं पाता। अब कोई चारा नहीं है। मुंबई भी एक ऐसी ही गाड़ी है जिसमें हर तरह के लोग साथ में हैं। इतनी विविधता के बावजूद। हम सब रह रहे हैं लेकिन जब भी कुछ होता है तो साथ आ जाते हैं। जैसे, ये दोनों कार में जा रहे हैं और इनकी अनबन शुरू हो जाती है। बाद में बातचीत बंद हो जाती है। यहां वह बूढ़ी औरत आती है और वह इंडिया का सिंबल होती है।

Neeraj Ghaywan
फ़िल्म में जो भारत है वो रुढ़िवादी समाज वाला भारत नहीं है। पहले ऐसा होता था कि मर्द कहते थे कि “औरत तुम घर पर बैठो” या “तुम दहेज लेकर नहीं आई हो”, अब डिबेट एक-दूसरे की विचारधारा पर है, आइडियोलॉजी के झगड़े हैं। वो जमाना गया जब प्रथाएं थीं और हम उन पर झगड़ रहे थे। ‘द एपिफनी’ में आप देखेंगे कि वह औरत सबसे सफल है, वह गाड़ी चला रही है। उसका पति आदर्शवादिता की वजह से अटका हुआ है। पीछे जो बूढ़ी महिला बैठी हैं वह गांवों में बसा भारत है। ये कल्चरल डिवाइड है। फिर देखिए कि वह आदमी बुढ़िया की मदद करना चाहता है जबकि उसकी भाषा भी नहीं जानता। वहीं उसकी पूर्व-पत्नी जो उस बूढ़ी औरत की भाषा (मराठी) जानती है फिर भी उसके प्रति उत्साहकारी एटिट्यूड नहीं रखती। न चाहते हुए भी उसे बूढ़िया और उसके पोते की मदद करनी पड़ती है। आगे जाकर जब दोनों को पता चलता है कि बच्चे की हालत सही नहीं है, वह बेहोश हो गया है तो सकपका जाते हैं और अपना झगड़ा भूल जाते हैं। कि हम लोगों ने इतनी बड़ी-बड़ी बातें कर दी, इतना अटपटा हो गया है। अब वो चाहते हैं कि बुढ़िया को हेल्प करें और जुट जाते हैं मदद करने में। कहानी में इन सब विचारों के कई स्तर हैं। जैसे, वह औरत अगर शुरू में बुढ़िया और बच्चे को अपने गाड़ी में नहीं बैठाना चाहती तो इसलिए क्योंकि उसे ऑफिस के काम से जल्दी पहुंचना है। हम ऑफिस के प्रैशर की वजह से कभी-कभी अपनी नैतिकता खो देते हैं। हालांकि बाद में वह हेल्प करना चाहती है।

तलाकशुदा पति-पत्नी का परदे पर निर्माण...
मैं कोई बहुत ग्रेट राइटर नहीं हूं इसलिए मैं अपने विषय के संबंध में बहुत सारे लोगों से बात करता हूं। मैं मानता हूं कि सच कल्पना से बहुत आगे होता है और बहुत सुंदर होता है। सिनेमा में भी वही दिखाना चाहता हूं। चूंकि ये कहानी मूलतः एक तलाकशुदा जोड़े की थी इसलिए असल जिदंगी में तलाक ले चुके जोड़ों से मैंने बातें की। उन्होंने बताया कि तलाक के बाद के झगड़े बेहद अलग तरीके से होते हैं। उनमें बहुत ज्यादा बातें नहीं होती हैं, व्यंग्य या ताने ज्यादा होते हैं। इस वजह से मेरे मन में था कि मुख्य भूमिकाओं के लिए असली पति-पत्नी को लेना चाहिए। यहीं पर रत्नाबली और सुहास को लिया। रत्नाबली सच में बंगाली हैं और सुहास पंजाबी। दोनों पति-पत्नी हैं। जब तलाकशुदा जोड़े की असल जिदंगी बतानी थी तो नाटकीयता से समझौता किया। एक बहुत जरूरी चीज थी जो मैं बताना चाहता था कि ऐसा नहीं होता कि अंत में सब कुछ बदल जाता है। सब कुछ नहीं बदलता है। आप देखेंगे कि इन दोनों किरदारों के रिश्ते में भी ज्यादा कुछ बदलाव हुआ नहीं। जैसे, आखिर में वह कहती है कि “तुम बेटी से मिलने आ सकते हो”, तो ये हल्का सा चेंज है। असल जिंदगी में बड़ा चेंज नहीं आता है। यहां तक भी हो कि ये दोनों शायद मुंबई पहुंचने के बाद कभी भी नहीं मिलेंगे।

फिर फ़िल्म बनाने में कितना वक्त लग गया? क्या पड़ाव रहे?
उस वक्त मैं एक फ़िल्म में जुटा हुआ था और जद्दोजहद में था। मन मेरा आधा-अधूरा था। बहुत सारी चीजें कर रहा था। ‘अग्ली’ में सेकेंड यूनिट डायरेक्टर था। माइंड सेट नहीं था तो ‘द एपिफनी’ को लिखा और विचार और विकसित होने लगा, कोई 10-15 दिन गए होंगे। क्योंकि वो आइडिया दिमाग में पलता रहता है, फिर ‘कुछ ऐसा करें वैसा करें’ दिमाग में घुटता रहता है। लिखने बैठा तो 10 दिन में शायद लिख दिया था। शूटिंग में बहुत दिक्कत हुई। पूना-बॉम्बे हाइवे दूर था, बहुत से लोगों ने कहा कि पास के ही हाइवे पर शूट कर लो लेकिन मुझे लगता है कि हर कहानी का एक शोर होता है और हमें उसी में जाना चाहिए। मेरा सिद्धांत है कि जिन लोगों की बात कर रहा हूं उनकी दुनिया में जाकर ही बात करूं। इसलिए पूना-बॉम्बे हाइवे पर ही जाकर शूट किया।

दिक्कत क्या आई शूटिंग में?
दिक्कत ये थी कि आमतौर पर सेट्स पर एक मॉनिटर होता है जिसमें डायरेक्टर देखता रहता है कि शॉट में क्या हो रहा है। मेरे साथ दिक्कत ये थी कि गाड़ी के बोनट पर कैमरा रखा हुआ था तो मैं अंदर बाजू में नहीं बैठ करता था। ऊपर से कैमरा छोटा था तो उसमें भी नहीं दिख रहा था कि क्या हो रहा है। मॉनिटर नहीं था तो कलाकारों के परफॉर्मेंस के बारे में कुछ पता नहीं चल रहा था, ये चीज सबसे ज्यादा दिक्कत कर देती है। चूंकि मुझे अंदेशा पहले से था इसलिए मैंने दोनों के साथ बहुत वर्कशॉप कीं। एक चुनौती ये थी कि फ़िल्म में वास्तविकता की प्रस्तुति कैसे हो क्योंकि फ़िल्म बनाते वक्त आपकी ऑब्जेक्टिविटी चली जाती है। इसलिए कुछ तलाकशुदा लोगों को मैंने दिखाई। दो-तीन लोग रो दिए। मैं आश्वस्त नहीं हुआ। उन्होंने कहा कि लगता है एकदम से जिंदगी हमारे सामने आ गई है। बाद में और लोगों को भी दिखाया। उनके फीडबैक को भी मैंने अंतिम नहीं माना था। मगर अब जब फ़िल्म उपलब्ध है और इतने सारे लोग बोल रहे हैं कि फ़िल्म ने बहुत टच किया है तो राहत होती है। लोगों ने इतने मैसेज किए हैं कि इनबॉक्स भर गया है। मैं बहुत खुश हूं। जो देख रहे हैं, कनेक्ट कर रहे हैं। मुझे ये भूख नहीं है कि दस लाख या पचास लाख लोग इसे देखें। जितने लोग भी देखे उन्हें पसंद आए और वे आकर ये भी बताएं कि क्या अच्छा नहीं लगा। इतनी तारीफ के बाद लगता है कि कोई तो बोले ये खामी थी। जैसे, एक ने लिखा कि “आप शायद ड्रामा और दिखाते”। इस पर मैंने लिखा कि “मैंने तीन-चार कपल से पूछा था और उन्होंने कहा कि तलाकशुदा कपल का माजरा अलग होता है, उसमें ड्रामा नहीं जंचता”।

तकनीक वाला या मूल सिनेमा...
‘शोर’ बनाई तो लोगों को बहुत पसंद आई। मैंने सोचा नहीं था कि इतनी पसंद आएगी। मगर ‘द एपिफनी’ के वक्त मैं चाहता था कि सिर्फ क्राफ्ट पर ध्यान दूं। जैसे, आपको सिर्फ एक सीमित स्पेस दे दिया जाए और कहा जाए कि बस एक कैमरा है और कुछ नहीं है माध्यम, तो आप कैसे करेंगे? मैं ऐसी ही मुश्किल परिस्थिति से भिड़ना चाहता था। आखिरकार ये चीजें न भी हों तो फ़िल्ममेकिंग का सबसे प्योर फॉर्म तो नेरेटिव ही होता है। वो तो आपके साथ हमेशा ही होता है। मुझे वो दिख जाता है तो मैं सब भूल जाता हूं। साधन जरूरी होते हैं लेकिन उनके बगैर जो सिनेमा बने वो पवित्रतम रूप होता है सिनेमा का।

ऐसे पवित्रतम रूप वाले सिनेमाकारों में आपको कौन पसंद आते हैं?
बेला तार (हंगरी) हैं। मैंने उनकी तकरीबन सारी फ़िल्में देखी हैं। उनका बहुत बड़ा प्रशंसक हूं। अफसोस कि उन्होंने फ़िल्में बनाना छोड़ दिया है। डारिएन ब्रदर्स (जाँ पियेर और लूक डारिएन, बेल्जियम) मेरे फेवरेट्स में से एक हैं। उनकी फ़िल्मों में कुछ भी टेक्नीकली करप्ट करने वाला नहीं होता है। इनारित्तू (आलेहांद्रो गोंजालेज इनारित्तू, मेक्सिको) की फ़िल्में बहुत ही इंटरपर्सनल होती हैं। असगर फरहादी (ईरान) की सारी फ़िल्में मैंने देखी हैं। इनके अलावा माइकल हेनिके (ऑस्ट्रिया) हैं, फैलिनी (फेडरीको फैलिनी, इटली) हैं। इन सबकी फ़िल्मों पर बड़ा हुआ हूं।

संगीत को लेकर आपकी सोच क्या रही?
म्यूजिक नरेन चंदावरकर ने दिया है। वह पहले ‘दैट गर्ल इन यैलो बूट्स’ में म्यूजिक दे चुके हैं, हाल ही में उन्होंने ‘शिप ऑफ थीसियस’ में भी म्यूजिक दिया है। इस फ़िल्म के दौरान हुआ क्या कि हमें जल्दी में बनानी थी। तीन दिन में शूट किया, दो दिन में एडिट किया और दो दिन में पोस्ट प्रोडक्शन किया। म्यूजिक डायरेक्टर ने बोला कि “मुझे टाइम दो मैं खुश नहीं हूं, मैं अपने आप से ही करता हूं”। डेडलाइन का प्रैशर था पर मैं अच्छा महसूस कर रहा था कि वो इतनी मेहनत कर रहे थे। तो मैंने कहा, ठीक है करिए। उन्होंने पूरी रात जागकर क्लैरिनेट के साथ प्रयोग किए। इस तरह अलग रहा। मैं रॉ इंस्ट्रूमेंट्स में जाता हूं। वाइडर स्पेस में जो इंस्ट्रूमेंट काम करते हैं वो बाकी में नहीं करते। जैसे, एंड क्रेडिट्स में बहुत अच्छा क्लैरिनेट आता है। फ़िल्म के शुरू में बहुत रॉ म्यूजिक आता है, बीच में डिस्टर्ब करने वाला साउंड आता है और आखिर में क्लैरिनेट आता है।

एंड क्रेडिट्स में दोस्तों को शुक्रिया कहा...
दरअसल मैं बहुत लोगों की राय लेता हूं। वरुण ग्रोवर और मैं बहुत अच्छे दोस्त हैं। उसके साथ मिलकर मैंने अगली फ़िल्म लिखी है जिसे डायरेक्ट करूंगा। द्विजोत्तम भट्टाचार्य ने बहुत मेहनत की। उन्होंने बहुत अच्छे तरीके से सब हैंडल किया। अनुभूति भी मेरी बहुत अच्छी दोस्त हैं, उन्होंने भी बहुत मदद की। अपनी जिंदगी से उन्होंने फ़िल्म को बहुत कुछ दिया। कुणाल शर्मा भी, इन सबको शुक्रिया कहा।

मुख्य भूमिकाओं के लिए रत्नाबली, सुहास और ज्योति सुभाष का चुनाव कैसे किया?
‘शोर’ एक बनारसी कपल की कहानी थी जो बनारस छोड़कर आते हैं बंबई में गुजारा करने। आदमी की नौकरी चली गई है। काम मिल नहीं रहा है, वह ऑटोरिक्शा ढूंढ रहा है और घर में गरीबी है। तो औरत सिलाई का काम शुरू करती है। उसमें उनकी लड़ाई शुरू हो जाती है। बाद में पता चलता है कि ऑटो का परमिट महंगा है और वो सिलाई उसके लिए कर रही है। उन किरदारों के सिलसिले में मेरे दोस्त वासन बाला ने मुझे रत्नाबली के बारे में बताया कि वो कल्कि कोचलिन के साथ अंग्रेजी थिएटर करती हैं। उन्हें हिंदी भी ठीक से नहीं आती है। तो विनीत सिंह जो ‘गैंग्स ऑफ वासेपुर’ में हैं, ‘शोर’ में हैं, उन्होंने रत्नाबली को बनारसी डिक्शन सिखाया। रत्नाबली ने फ़िल्म के लिए अपना पूरा कायपलट किया। साड़ी पहनी, चोटी बांधी, तेल लगाया, बनारसी हिंदी बोली... तो मैं उनसे बहुत प्रभावित हुआ। मैंने कहा कि आपके साथ ही अगली फ़िल्म बनाऊंगा। उनके हस्बैंड सुहास भी एक्टर हैं। उन्होंने ‘तलाश’ में छोटा रोल किया है। उन्होंने बहुत बार साथ काम किया। सुहास ने ‘शोर’ में म्यूजिक किया। तो दोनों एक्टर थे और मुझे सेमी-डॉक्युमेंट्री स्टाइल में शूट करना अच्छा लगाता है इसलिए सोचा कि इस रियल कपल को लिया जाना चाहिए। अम्मा (ज्योति सुभाष) को तो मराठी फ़िल्मों में देखा था। बहुत अच्छी-अच्छी फ़िल्मों में वह काम कर चुकी हैं। उनका काम मुझे बहुत पसंद है। उनका चेहरा ही इतना अच्छा है।

एक ही फ्रेम में देहाती भाषा, परिवेश और कच्चापन लिए अम्मा हैं और वो दोनों शहरी पति-पत्नी। इससे एक अलग ही दृष्टिगत विरोधाभास पैदा होता है, उनकी सोच में भी वो फर्क है?
अम्मा का नजरिया भी वैसा ही है जैसा गांव के लोगों का होता है। जैसे, गांव के लोगों को लगता है कि शहर के लोग बहुत सुखी हैं, उन्हें कोई तकलीफ नहीं है। अब फ़िल्म में उन्हें नहीं पता कि ये दोनों औरत-मर्द तलाकशुदा हैं। एक मौके पर वह कहती भी हैं कि तुम्हारे पास तो सब कुछ है फिर क्यों झगड़ा करते हो। कुछ लोगों का नजरिया होता है कि पैसा ही सब कुछ है। लेकिन वो बूढ़ी अम्मा अपने नजरिए में ज्यादा खुश है। जैसे, फ़िल्म में एक जगह उसे समझ नहीं आता कि दोनों का शुक्रिया अदा कैसे करें तो वह टिफिन में पोहा लाती है और उन्हें खिलाती है।

जो वैचारिक बहस इन पति-पत्नी के बीच चलती रहती है कि एक आदर्शवादी है और दूसरी प्रगतिवादी, उसके रेशे कैसे बुने?
फ़िल्म में इनके बीच दो तरह की बहस होती हैं। पहली हल्कीफुल्की होती है, जैसे “तुम फिश खाती हो”, “सरसों का तेल लगाती हो” या “तुम बटर पनीर मसाला...”। यानी तूतू-मैंमैं वाली फाइट। लेकिन दूसरी गंभीर होती है। जैसे, सुहास उसे यहां तक कह देता है कि “तुम बहुत ही घटिया (घृणित) इंसान हो, तुमने मुझे अपनी बेटी से तीन साल दूर रखा”। अगर आपने पढ़ी हो तो अयान रैंड की एक किताब है ‘फाउंटेनहैड’। उसमें दो आर्किटेक्ट होते हैं। एक हावर्ड रोर्क है जो बहुत आदर्शवादी है। वहीं उसका दोस्त पीटर कीटिंग है जो कहता है कि मैं बिल्डिंग बनाऊंगा क्योंकि पैसे आएंगे और मुझे आगे बढ़ना है। फिलॉसफी के बारे में इन दोस्तों के बीच बहुत बातें होती हैं। इसी तरह मैंने दर्शकों को फ़िल्म के किरदार भी समझाए हैं कि सुहास आदर्शवादी है और रत्नाबली प्रैक्टिकल। वह कहती है कि “मुझे पैसे कमाने हैं क्योंकि अपनी बच्ची की उतनी अच्छी परवरिश करनी है, जितनी मैं चाहती हूं”। इसीलिए सुहास की आदर्शवादी सोच पर चोट करते हुए वह कहती है कि, “वैन इट कम्स टु फैमिली, यू हैव टु वॉक अवे टु बिकम दिस बिग वाइज मैन, मिस्टर हावर्ड रोर्क आहूजा”।

आपने कौन सा कैमरा यूज किया ? और क्रू कितना बड़ा था?
बाकी की फ़िल्में बड़े कैमरे पर शूट हुईं पर मेरी फिल्म का स्पेस छोटा था और डबल कैमरा सेट अप था इसलिए 5डी पर शूट किया। डीओपी (डायरेक्टर ऑफ फोटोग्राफी) संतोष वसंदी का आइडिया था कि हम लोग लैंस से बढ़िया लुक ला सकते हैं। रत्नाबली हालांकि गाड़ी चलाना जानती हैं पर एक नई गाड़ी, ट्रकों से भरे हाइवे पर चलाना मुश्किल था और जब दो कैमरा आपके आगे हों तब और भी। तो क्रू को जरा बड़ा रखा।

Neeraj Ghaywan is a young and an emerging Indian filmmaker. He has an engineering and marketing background which he left behind to persue filmmaking. Since then he has assisted filmmaker Anurag Kashyap on few of his recent projects. He was the script supervisor and assistant director for ‘Gangs of Wasseypur’ and second unit director for the upcoming ‘Ugly’. Before ‘The Epiphany,’ Neeraj had made a wonderful short film called ‘Shor’ (Noise), in 2011. At present he is working on the script of his first full length feature film.
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Thursday, January 3, 2013

अमीर कुस्तरिका के साथ मैं लिफ्ट में था, जिंदगी में वो 40 सैकेंड कभी नहीं भूलूंगाः वासन बाला (पैडलर्स)

बातचीत 2012 की बेहतरीन स्वतंत्र फिल्मों में से एक ‘पैडलर्स’ के निर्देशक वासन बाला से

 

जाते 2012 के दौरान साल के बेहतरीन फिल्म लेखकों के साथ किए अपने कार्यक्रम में टीवी फिल्म पत्रकार राजीव मसंद ने एक सवाल पूछा। “वो कौन सी हिंदी फिल्म थी जो इस साल आपने देखी और मन ही मन सोचा कि काश मैंने ये लिखी होती” ...इसके जवाब में ‘इशकजादे’ के निर्देशक और लेखक हबीब फैजल कहते हैं, “एक फिल्म है जो अभी तक रिलीज नहीं हुई है। पैडलर्स। बहुत ही प्रासंगिक फिल्म”। हिंदी सिनेमा के सौंवे वर्ष में स्वतंत्र फिल्मों का भी जैसे नया जन्म हुआ है। इस साल बहुत ही शानदार स्वतंत्र फिल्में बनीं हैं और उन्हीं में से एक है पहली दफा के निर्देशक वासन बाला की फिल्म, ‘पैडलर्स’। कान फिल्म फेस्टिवल-2012 के साथ चलने वाले इंटरनेशनल क्रिटिक्स वीक में फिल्म को दिखाया गया। वासन की फिल्म अब तक टोरंटो, कान, लंदन बीएफआई और स्टॉकहोम फिल्म फेस्टिवल में जाकर आ चुकी है और बहुत तारीफ पा चुकी है। मुंबई में ही रहने वाले वी बालाचंद्रन और वी राजेश्वरी के 34 वर्षीय पुत्र वासन पहले बैंकर रहे, फिर फिल्मों का जज्बा इस दुनिया में ले आया। वह अनुराग कश्यप की ‘देव डी’ और ‘दैट गर्ल इन यैलो बूट्स’ के निर्माण वाली टीम में रहे। बेहद नामी ब्रिटिश फिल्मकार माइकल विंटरबॉटम की फिल्म ‘तृष्णा’ की भारत में हुई शूटिंग के दौरान वासन ने हाथ बंटाया। उन सबके बाद अब उनकी खुद की फिल्म आई है। अगर सबकुछ सही रहा तो जल्द ही सिनेमाघरों में ‘पैडलर्स’ नजर आएगी।

Vasan Bala
‘पैडलर्स’ कब बनकर तैयार हुई? उसके बाद जितने भी फिल्म फेस्ट में गई उसका अनुभव कैसा रहा?
फिल्म जैसे बनी थी मैं उससे ही काफी हैरान था। क्योंकि इसके मुख्य विषयों पर जाएं तो एलियनेशन, पेसिमिज्म और इनकनक्लूसिव टाइप की लाइफ की बात है। जैसे, शहर में हमारी जिंदगियों में एलियनेशन है, भीतर नैराश्य उपज रहा है और सब-कुछ अनिर्णायक सा है। अगर फिल्मी फॉरमेट को देखें तो उसमें सब उल्टा होता है और मैं चाहता था कि मेरी फिल्म में ऐसा न हो। इसलिए हैरान था कि ऐसी फिल्म बन कैसे गई। बनी भी और फिल्म फेस्टिवल्स में भी गई। वहां भी पहली बार के फिल्मकारों मिलना हुआ, जाना कि उन्होंने अपनी पहली फिल्म कैसे बनाई और वो क्या सोचते हैं। उनमें एक किस्म की विनम्रता थी जो मुझे बहुत पसंद आई कि बस जमीन से जुड़े रहो और स्टोरी आइडिया की तलाश में रहो। तो बहुत अच्छा रहा लोगों से बात करके और जानकर।

कहानी आपके दिमाग में किस वक्त आई?
फिल्म एक तरह से प्रतिबिंब ही है कि आप किस मानसिक स्थिति में हो। मैं भी काफी अलग-थलग महसूस कर रहा था जब कहानी लिखी। काफी निराश था जिंदगी और करियर को लेकर। बहुत ही अनिर्णायक स्थिति थी जो अभी भी है मेरे ख्याल से.. समाधान तो निकलना भी नहीं चाहिए...। तो ये सब चीजें और रोजाना के ऑब्जर्वेशन फिल्म में आए। किसी कहानी या बाकी चीजों से ज्यादा मैं एक फिल्म में वही देखता हूं। जो भी डेली ऑब्जर्वेशन होते हैं मेरे, या लोगों के, चीजों के, उसको जैसे है वैसे डॉक्युमेंट्री की तरह दर्शाते जाओ। कैरेक्टर्स को फॉलो करके देखो कि वो जाते कहां हैं, फिर एक तरह से कैरेक्टर्स अपनी कहानी खुद बना लेते हैं और जो भी समाधान है वो अपने लिए ढूंढ लेते हैं। उस तरह की एक कोशिश थी फिल्म बनाने की। मोटा-मोटी फिल्म में तीन किरदार हैं। एक नारकोटिक्स ब्यूरो में पुलिस इंस्पेक्टर है जो कि खूबसूरत है, सफल है, पर वह इर्रेक्टाइल डिस्फंशन से ग्रसित है। इसकी वजह से उसकी खुद की एलियनेशन है। उसने अपने आप को एक तरह से बांध रखा है। निराशा अपने आप में पाल रखी है। इसी वजह से उससे कुछ चीजें हो जाती हैं। दूसरी एक बांग्लादेशी इमिग्रेंट है जो कि टर्मिनली बीमार है। इस बीमारी की वजह से वह खुद को अलग कर लेती है, नैराश्य पाल लेती है और वैसा ही काम करती जाती है। मतलब उसमें आशा और निराशा का एक विचित्र सा मिश्रण है। वह खुद जिंदा रहने और अपने बच्चों को जिंदा रखने के लिए कुछ भी करने को तैयार है। तो ये एक ‘स्ट्रेंजली कोल्ड ऑप्टिमिज्म’ है। ‘स्ट्रेंजली कोल्ड परपजफुल एग्जिस्टेंस’ है जो आस-पास के लोगों के लिए खतरनाक हो सकता है। अब जो तीसरा किरदार है वो एक मासूम लड़का है। मुंबई में है और किशोरवय में भीतर हर जगह स्वीकृति पाने का जो उबाल खुद के लिए होता है, वह उसमें है। तो वह अपने आपको उस परिस्थिति में अलग-थलग पाता है। ये तीनों लोग मुंबई जैसे शहर में किसी न किसी कारण से अकस्मात मिलते हैं, फिर उसके क्या परिणाम होते हैं, यही फिल्म है। मुंबई को हमने फिल्म में एक घोस्ट टाउन दिखाया है। मतलब ऐसा शहर जहां लाखों-करोड़ों लोग रहते हैं पर दिखता कोई नहीं है। हमने रात में काफी शूटिंग की और महानगर के अंदर की एलियनेशन दिखाने की कोशिश की, जहां आप भीड़ में भी अकेले घूमते हो। शायद इसीलिए आपको सिर्फ लोगों की आवाज सुनाई देती है। फिल्म में वातावरण में एक भीड़ बनाई गई है, पर विजुअली जब देखोगे तो आप सबको अकेला पाओगे। फिल्म का ट्रीटमेंट और फील ऐसा है। फिल्म का शीर्षक है ‘पैडलर्स’ जिसका मतलब ही होता है वह जो चलते-फिरते चीजें बेचता रहता है। ये गतिमान रहते हुए रोजमर्रा की चीजें बेचने के कॉन्सेप्ट जैसा है। जैसे हम ईमानदारी बेचते हैं, भरोसा बेचते हैं, प्यार बेचते हैं... एक तरह से ये उसी का विस्तार है।

कहानी के लिए ‘पैडलर्स’ को ही क्यों चुना? दूसरा, इसमें किरदार सिर्फ तीन हैं तो क्या इसकी एक वजह ये है कि जो भी नए फिल्मकार होते हैं उन्हें आर्थिक मदद नहीं होती.. तो कम किरदारों में वो एब्सट्रैक्ट बात ज्यादा कह पाते हैं और इकोनॉमिकली भी ज्यादा बेहतर रहता है?
ये कहानी मेरे उस वक्त के माइंडसेट के हिसाब से है। इसकी स्क्रिप्ट अगर मुझे पांच साल बाद दी जाए तो मैं इतनी ईमानदारी और सहज तरीके से शायद तब न कह पाऊं। क्योंकि पांच साल बाद शायद एक अलग लाइफ हो, इतना गुस्सा न हो अपने अंदर और ये सब चीजें अलग असर डालें। ये समाज की अस्वीकृति, अलगाव-थलगाव और निराशा खूब सारे पैसों और सुविधाओं से नहीं आ सकती। तो उस वक्त और माहौल से ‘पैडलर्स’ बनी। अब जो अगली फिल्म होगी वो शायद ‘पैडलर्स’ जैसी न हो। मतलब एक फिल्मकार की दृष्टि से स्टाइल औऱ ट्रीटमेंट एक हो सकता है पर फील वैसा नहीं। आप लाइफ में आगे बढ़ जाते हो, पीछे रह जाते हो या बीच में रह जाते हो... आपकी फिल्मों में अहसास उसी मुताबिक आते-जाते हैं।

शूटिंग का अनुभव कैसा रहा? दर्दनाक, मजेदार, आसान, मुश्किल?
कभी शूटिंग की कहीं इजाजत नहीं मिल पाती थी, किसी दिन शूट नहीं हो पाता था, किसी दिन कुछ चाहिए होता था वो मिलता नहीं था। ऐसी कठिनाइयां थीं तो भी मजेदार होती गईं, क्योंकि हम सभी बिना उम्मीदों के आगे बढ़ रहे थे और नतीजे का कोई अंदाजा नहीं था। कुछ पाने की चाह न थी, तो सब कुछ मिलता गया। फिल्म को बनाया तो पता चला कि अच्छा एक फिल्म फेस्टिवल भी चीज होती है, अच्छा एक रिलीज भी चीज होती है, रिव्यूज भी होते हैं, डायरेक्शन भी चीज होती है... सब पता चला। तो स्ट्रगल, स्ट्रगल लगा नहीं। एक जिद में बनाते गए। मेरे पास बहुत शानदार टीम भी थी। एक जैसी सोच वाले बंदे थे, सब हो गया। अगर कुछ स्ट्रगल रहा भी होगा तो उन लोगों ने मुझ तक आने नहीं दिया, जो बहुत भावभरा था। ये लौटकर कभी नहीं आने वाला है लाइफ में। अब पीछे पलटकर देखता हूं तो लगता है कि यार, ये कैसे बन गई।

टीम के बारे में बताएं?
छोटी ही थी। सेट पर हम पंद्रह-बीस लोग होते थे। इनमें मेरी एडिटर हैं प्रेरणा सहगल, मेरे डीओपी (डायरेक्टर ऑफ फोटोग्रफी) हैं सिद्धार्थ दीवान, मेरे साउंड डिजाइनर हैं एंथनी रूबन, मेरे म्यूजिक डायरेक्टर करण कुलकर्णी... उनका म्यूजिक बहुत कमाल है काफी यूनीक है, मेरी प्रोड्यूसर गुनीत हैं, मेरे एग्जिक्यूटिव प्रोड्यूसर अचिन जैन हैं जिन्होंने सेट पर कमाल कर दिया... इतने कम बजट में इतनी सारी लोकेशंस जो उन्होंने मैनेज करके दी। सब ने बहुत ही कमाल योगदान दिया है।

पहले क्या-क्या किया?
अनुराग कश्यप को असिस्ट करता था। उनके लिए बीच में थोड़ी-बहुत कास्टिंग भी कर लेता था। फिर उसके बाद माइकल विंटरबॉटम को असिस्ट किया उनकी फिल्म ‘तृष्णा’ में। उसके बाद कुछ एक-दो शॉर्ट फिल्म बनाईं, जो कुछ मजाकिया सी थीं, जो उस वक्त के माइंडसेट से निकली थी, बन गईं। फिर अहम मोड़ तब आया जब लगा कि यार फीचर फिल्में बनानी हैं। उसके पहले मैंने एक-दो स्क्रिप्ट लिखीं थीं जो बननी बाकी हैं, उसी दौरान लिखी गई थी ‘पैडलर्स’ जो अब बन भी गई। अब लॉजिक बिठाना चाह रहा हूं तो समझ नहीं आ रहा कि कैसे बनी। उसके पहले आठ साल बैंकिंग में था। पहले आइडिया ही नहीं था, फिर फिल्मलाइन में आना था मगर घरवालों को बोलने की हिम्मत नहीं हुई। उस दौर में तब जो-जो होता गया करता गया।

कौन से बैंक में काम किया और जॉब क्या-क्या कीं? क्या सोचते थे?
मुंबई में आईसीआईसीआई बैंक में था। उसके बाद एक सॉफ्टवेयर सेल्स कंपनी में था जो डॉक्युमेंट मैनेजमेंट सॉफ्टवेयर बनाती थी आईएसओ सर्टिफाइड कंपनियों के लिए। तो वहां पर मैं काफी इंडस्ट्रियल बेल्ट घूमा। फैक्ट्रियों में जाकर डॉक्युमेंट मैनेजमेंट सॉफ्टवेयर बेचता था। बीच में कुछ वक्त विज्ञापन कंपनी ‘मुद्रा’ में रहा। ऐसे ही कुछ न कुछ करता रहा। कोई निर्धारित लक्ष्य नहीं था कि करना क्या है करियर में। बस जो काम मिलता गया, करता गया। हर तीन-चार महीने में काम छोड़ भी देता था, पसंद नहीं आता था। यूं ही बस भटकने वाला लक्ष्यहीन अस्तित्व था। फिर खुशकिस्मती रही कि अनुराग कश्यप मिल गए। उसके बाद एक तरह से निश्चय हो गया कि यही होना है अब, भले ही इसमें सफल हों या न हों पर फिल्ममेकिंग को ही शायद अपना वक्त दूंगा।

जयदीप साहनी के बारे में ये था कि अपनी नौकरी से संतुष्ट न थे तो बॉस को इस्तीफे में लिखा कि ‘तेरी दो टकेयां दी नौकरी में मेरा लाखों का सावन जाए...’। कहीं ऐसा तो नहीं था जब आप बार-बार जॉब छोड़ रहे थे या बाद में ही महसूस हुआ जब अनुराग मिल गए कि फिल्में बनानी हैं?
फिल्में बनाने का शौक हमेशा था। यही था कि एक दिन चेन्नई जाऊंगा और मणिरत्नम के साथ काम करूंगा। लेकिन कभी हिम्मत ही नहीं हुई कि घरवालों को बताऊं। या शायद ये कि जिस दिन बताऊंगा तो वो सोचेंगे कि मैं एक पलायन का रास्ता ढूंढ रहा हूं... कि ऐसे ही जबर्दस्ती का कुछ बोल रहा हूं। और सबको पता ही था कि फिल्ममेकिंग मुश्किल चीज होती है घुसने में ही। किसी को विश्वास नहीं था कि अगर मैंने एक चीज बोली है तो करूंगा या उस चीज पर रुका रहूंगा। जब जॉइन किया अनुराग कश्यप को और उन्होंने देखा कि ऐसा नहीं है ये किसी दोपहर को आ नहीं रहा है या ये नहीं कह रहा है कि मैंने नौकरी छोड़ दी... उन्होंने देखा, एक साल, दो साल, तीन साल, चार साल, मैं जुड़ा रहा लगातार तो उनको भी भरोसा हो गया कि हां, ये शायद यही करना चाहता है। क्योंकि इतने लंबे वक्त तक उन्होंने किसी भी दूसरी चीज में मेरा इतना समर्पण देखा ही नहीं था। वो जब थोड़े संतुष्ट और आश्वस्त हो गए तो मुझे भी अच्छा लगा कि हां, शायद में भी कुछ ठीक ही कर रहा हूं।

अब माता-पिता क्या कहते हैं, छोड़ दो ये काम या करते रहो?
वो कह रहे हैं कि करता जा। वो अभी ये नहीं कह रहे कि पैसे कमाओ, ये करो, वो करो... वो कह रहे हैं शायद तुम्हें कुछ कहना है तुम कह दो वो। और कुछ नहीं हो पाया तो आ जाओ, घर ही आ जाओ। अभी वो करियर और उन चीजों को लेकर टेंशन में नहीं हैं। उन्हें पता है कि ये जो भी है अपने पैशन में कर रहा है। उस चीज को लेकर वो आश्वस्त हैं कि अभी मैं छोड़कर नहीं आऊंगा।

आपका बचपन कहां बीता और बच्चे थे तब कैसे थे?
बॉम्बे (मुंबई) के अंदर एक छोटा शहर है माटूंगा। वहां जितने भी लोग हैं वो एक-दूसरे के दादा-परदादा सबको जानते हैं। वह बॉम्बे की एक अजीब सी सुखद जगह है। बॉम्बे अप्रवासियों से बना हुआ है.. तो इमिग्रेंट हिस्ट्री दस-पंद्रह साल होती है या ज्यादा से ज्यादा बीस साल, लेकिन मेरे दादा तक बॉम्बे से हैं और मेरे मां-पिताजी की पढ़ाई तक यहीं हुई है, उनका बचपन भी यहीं बीता है। तो बहुत दिनों तक ये अहसास ही नहीं था कि बहुत बड़े शहर में रह रहा हूं। जब गांव जाता था तब अहसास होता था... लोग बोलते थे कि अरे बॉम्बे से आया है। नहीं तो मुझे अपनी लाइफ और उनकी लाइफ में कुछ खास फर्क नहीं लगा। वही किराने की दुकान में जाते थे, वही सब लोग मिलते थे, सबकुछ वही होता था। इस तरह बहुत ही मासूम और भोली परवरिश थी। फिर कॉलेज गया और बाहर दुनिया देखी। तब तक मैं 20 साल का था तो कोई सवाल ही निरर्थक था और किसी को पूछता भी नहीं था कि आप कहां से हो... जब समझने लगा तो लगा कि मैं ही अल्पसंख्या में हूं। तब वो कल्पना और अपना घर छोड़कर जाना बहुत आकर्षक लगा। क्योंकि जितने भी लोगों को मिला वो दो-तीन बार अपना घर बदल चुके थे, स्कूल बदल चुके थे, मेरा कोई ऐसा अनुभव था ही नहीं। एक ही स्कूल था, एक ही कॉलेज था, एक ही घर था और सब-कुछ बहुत सैटल्ड सा था। मैं अपने आप में अनसैटल्ड होता था कि मैं इतना सैटल्ड क्यों हूं। और पता नहीं कुछ सवाल हैं जो अपने आप के लिए आप खड़े कर लेते हो, जो इश्यू हैं ही नहीं, मैं भी कुछ ऐसे ही इश्यू से जूझता था अपने आप में। फिल्म बनानी है? नहीं बनानी है? मेरे आसपास ऐसा कोई नहीं था जो इस कला में या फिल्मों में रुचि रखता हो। मैं फिल्में देखता था और कहता था तो सब कहते कि अच्छा फिल्में बनानी है तो पहले कन्फर्म कर ले कुछ। मुझे उसमें से निकलने में ही काफी वक्त लग गया। ये मासूमियत वाला दौर था। एक बार जब इंडस्ट्री आया और देखा सब, तो मालूम पड़ा कि क्या स्ट्रगल है। पर पता नहीं क्यों तब तक एक निश्चय हो गया था कि बस यही करना है, मतलब मैं खुद अपने अनिर्णय की स्थिति से थक चुका था। अंत में जब यहां आया तो तय कर लिया कि अब यही करना है, जो भी हो। आर या पार।

लेकिन वासन, माटूंगा की अपनी जिस अपब्रिंगिंग का आप जिक्र करते हैं, वो एक तरह से वही सामाजिक  परवरिश रही कि वहां एक-दूसरे की केयर बहुत थी, एक-दूसरे के दादा-परदादा का नाम जानते थे। मैं राजस्थान से हूं तो 60-60 गांव दूर लोग एक-दूसरे को जानते हैं, वो बता देंगे कि 60 गांव दूर वो रहते हैं आप इस रास्ते से चले जाइए। तो माटूंगा की ऐसी परवरिश के संदर्भ में क्या आप मानते हैं कि खुशनसीब रहे क्योंकि आने वाली पीढ़ी को वैसा लालन-पालन नसीब नहीं होगा। संभवतः एक फिल्मकार के तौर पर भी आपको अपनी उस परवरिश का बहुत फायदा मिलेगा।
...और एक तरह से मैं भी जब देखता हूं तो हमारी जेनरेशन थी, जैसे आपकी और मेरी भी शायद, वो लास्ट ऑफ द वीएचएस जेनरेशन है.. वो जो दो-दो रुपये कॉन्ट्रीब्यूट करके वीएचएस में फिल्म देखते थे, मतलब पहुंच थी भी और नहीं भी थी, पर उन सीमित विकल्पों में ही इतना खुश रहते थे कि यादें बहुत मजबूत हैं। मेरे ख्याल से उस तरह का सिनेमा जो बनेगा अब आगे जाकर, अभी उसका आखिरी चरण चल रहा है। उस तरह की यादों का भी। उसमें भी मैं अपने साथियों में देखता हूं और ढूंढता हूं तो लगता है और हम बात भी करते हैं कि हां, ये लास्ट फेज है नॉस्टेलजिया का। और मैं उत्साहित भी हूं कि आने वाली पीढ़ी एक नई सोच लेकर आएगी, उसके लिए हम कितने खुले दिमाग के होते हैं और उसे स्वीकार करते हैं। मेरे लिए भी चैलेंज होगा क्योंकि मुझे लगता है कि हम बाऊंड्री पुश करते हैं, पर आने वाली पीढ़ी जो अपना ही माइंडसेट और अपनी ही चॉयस लेकर पली-बढ़ी है, वो जब पुश करेगी तो हम स्वीकार करेंगे क्या? और जो 19-20 साल के युवा अनुराग कश्यप को असिस्ट करने आते हैं उनमें एक बहुत ही अजीब सी आग है, तो उनके काम को देखने के लिए मैं बहुत उत्साहित हूं।

इस उत्सुकता में जरा डर भी है कि यार कुछ ऊट-पटांग तो नहीं कर देंगे?
मुझे तो लगता है कि अपने स्पेस में सुरक्षित महसूस करना चाहिए। अगर कुछ काम कर पाए तो शायद, और नहीं भी कर पाएं तो शायद, उतना ही था आपका उद्देश्य। इसलिए उस बात को लेकर कोई चिंता नहीं है कि आगे आकर कोई कमाल कर जाए... क्योंकि अंततः मैं एक कमाल फिल्म देखना चाहता हूं और अपना कमाल काम दिखाना चाहता हूं। काम जितनी ईमानदारी और मेहनत से कर पाऊं वो तो करूंगा ही पर मजा तो वही है कि आप थियेटर में जाकर फिल्म देखते हो, वो किसी की भी हो और अच्छी हो तो क्या बात है। अपने दायरे में सुरक्षित हूं। बेहतर लोग तो रहेंगे ही और हमसे लोग बेहतर हों तो उनसे सीखने को मिलेगा। छोटा हो बड़ा हो, उससे कोई फर्क नहीं पड़ना चाहिए।

फिल्म बनानी है, अगर आपके लहजे में कहूं तो ये कचरा आपके दिमाग में डालनी वाली फिल्में कौन सी रहीं?
मेरे माता-पिता चूंकि काम करते थे तो बचपन में मेरी एक केयर टेकर होती थी, वनीता। वो अमिताभ बच्चन की बहुत बड़ी फैन थी। और गणपति में हमारे यहां भी, जैसे ‘स्वदेश’ आपने देखी होगी वो जैसे परदे लगाकर फिल्म दिखाते थे, वैसे फिल्म दिखाई जाती थी और वो मेरी मां को झूठ बोलती थी कि वासन तंग कर रहा है कि उसे अमिताभ बच्चन की फिल्म देखनी है, जबकि देखनी उसे होती थी और वो मुझे लेकर चली जाती थी। उस वक्त मैं महज तीन या चार साल का था पर वो कभी भूल नहीं पाता। मेरे ख्याल से वहीं से शुरू हो गया था। अगर ऐसा फिल्मी कीड़ा या कचरा मेरे अंदर भरा है तो उसका श्रेय वनीता को जाता है। मैं उसकी गोद में सिमटा रहता था और वो मुझे लेकर घूमती रहती थी फिल्म दिखाने। उसके बाद जब वीएचएस घर पर आया तो पिताजी ने मुझे ‘जैंगो’ और ‘वेस्टर्न्स’, ‘ब्रूस ली’ और ‘स्टीव मेक्वीन’ की फिल्म और बहुत सारी ‘एक्शनर्स’ से दिखाईं। उस तरह पिताजी ने असर डाला। उसके बाद जाहिर है जब एक उम्र में आप आ जाते हो तो खुद ही ढूंढने—जानने लगते हो। तो मेरी शुरुआत तो पिताजी ने और वनीता ने की।

बचपन की पांच-छह ऐसी फिल्में बताइए जिनका सम्मोहन आज फिल्म निर्माण के तमाम तकनीकी पहलू जानने के बावजूद आपके लिए कम नहीं हुआ है?
बिलाशक एक तो ‘मिस्टर इंडिया’ (शेखर कपूर) है। जब भी देखता हूं, मुंह खुला का खुला रह जाता है। दूसरी, ‘शक्ति’। उसे जब मैंने देखा तो उस उम्र में भी मैं थोड़ा हिल गया था, पता नहीं उसके अंदर का गुस्सा था, दुख था या तीक्ष्णता थी। उस फिल्म को मैं आज भी देखता हूं तो यादों में लेकर चली जाती है। उसके अलावा ‘द नेवर एंडिंग स्टोरी’ (1984, वॉल्फगॉन्ग पीटरसन) थी जिसे जब देखा तो बहुत प्रभावित हुआ लेकिन हाल ही में फिर देखी तो पता चला कि बहुत खराब बनी थी। फिर एक जापानी फिल्म देखी थी जिसका नाम भी मुझे याद नहीं है। तब मैं शायद छह या सात साल का था। वो कहानी थी एक स्कूल टीचर की और एक अनाथ बच्चे की। वो कहानी अब भी याद करता हूं तो अटक जाता हूं, दूरदर्शन दिखाता था ये सब। शुरुआती प्रभाव तो ये ही थे। गुरुदत्त की कुछ फिल्म तब भी स्ट्राइकिंग लगीं थीं। ‘प्यासा’ जब देखी, मतलब कुछ समझ में तो नहीं आया था पर कुछ था उन विजुअल्स में जो उनकी ओर खिंचता चला गया।

‘दैट गर्ल इन यैलो बूट्स’ और ‘देव डी’ की कास्टिंग के वक्त क्या सीखा?
क्योंकि कास्टिंग डायरेक्शन भी जरूरी रोल होता है। जैसे गौतम (किशनचंदानी) ने अनुराग की फिल्मों की, ‘नो वन किल्ड जेसिका’ की और तिग्मांशु धूलिया ने ‘बैंडिट क्वीन’ की कास्टिंग की थी। जैसे गौतम ने ‘ब्लैक फ्राइडे’ में की थी और ‘देव डी’ में भी वही कास्टिंग डायरेक्टर थे, मैं उनका सहयोगी था। उन्होंने बहुत आजादी मुझे दी और उनसे बहुत सीखा। अनुराग से भी सीखा और राजकुमार गुप्ता से बहुत कुछ सीखा। राजकुमार गुप्ता से एक तरह से अनुशासन सीखा। वो जितने अनुशासन और ध्यान केंद्रित करके काम करते हैं, मैं आज भी अगर आलस महसूस करता हूं तो उन्हें याद कर लेता हूं और ठीक-ठाक काम करने लगता हूं। अनुराग की टीम में तो हरेक से ही सीखने को मिलता है। वो एक कमाल मैदान है सीखने का।

लेकिन कास्टिंग करने के दौरान सबसे बड़ी सीख क्या रही?
वो ये कि आप किसी भी चीज को काबू में करने की कोशिश न करो। अनुराग कश्यप जैसे अपने एक्टर्स से पेश आते हैं। वो कंट्रोल में किए बिना कंट्रोल करते हैं उनपर। कभी एहसास नहीं होने देते कि मैं डायरेक्टर हूं, मैं बताता हूं। ये उनका तरीका बिल्कुल ही नहीं है। वो भ्रम होता है न कि डायरेक्टर ही सबको सबकुछ बताता है, वो टूट गया उनके साथ काम करके क्योंकि वो बहुत ज्यादा आजादी देते हैं सबको और उस आजादी में भी अपना एक कंट्रोल रखते हैं। वहां आपके काम को इज्जत मिलती है, न कि आप डिक्टेशन लेते रहते हो। ये कमाल सीखें रहीं जो जिंदगी भर साथ रहेंगी। मैं भी लोगों को आजादी देना चाहूंगा और उनपर विश्वास रखना चाहूंगा और कभी असुरक्षित नहीं होउंगा।

माइकल विंटरबॉटम के साथ आपने ‘तृष्णा’ में सहयोग किया राजस्थान में शूटिंग में...
उनका बहुत ही अनइमोशनल (अभावुक) अप्रोच है। मैथोडिकल नहीं कहूंगा, ऑर्गेनिक ही है पर वह इमोशन में नहीं बहते, वह पल की सच्चाई को ढूंढते हैं। ये बड़ा अनोखा गुण है जो उनमें मुझे बहुत अच्छा लगा। बहुत ही स्पष्ट और तकरीबन मिलिट्री अनुशासन के साथ काम करते हैं माइकल। वो मैंने भी आजमाया, जाहिर है उन जितना तो नहीं कर पाया.. जो कि एक रेजिमेंटेड स्टाइल ऑफ फिल्ममेकिंग है जो किसी भी इमोशनल बहकावे में नहीं आती और ऑब्जेक्टिव रहती है। ये एक ऐसी चीज है जो जिदंगी में कभी न कभी हासिल करने की कोशिश करूंगा। चाहे पांच-दस परसेंट ही हो।

डायरेक्टर के काम में अनइमोशनल अप्रोच को थोड़ा और समझाइए…
वह अपने काम में इमोशनल हैं, पर जो सतह पर भावुक होना होता है वो उन्होंने खुद में से पूरी तरह से निकाल बाहर किया है। उनकी कहानी में, उनके काम में इमोशन हैं, पर सतही तौर पर नहीं है बल्कि बहुत गहराई में हैं। उस स्थिति को हासिल करना बहुत मुश्किल है। क्योंकि हम सतही तौर पर तो काफी भाव अपने में दिखाते हैं पर उसे गहराई में ले जाकर सतह पर से मिटा देना, सतह की बिल्कुल ही परवाह न करना, वो मैंने उनमें देखा। ये बहुत ही प्रेरणादायक लगा। ऐसा वर्क अप्रोच मैंने नहीं देखा है। ये एक तरह से धोखा देने वाला, छलने वाला भी है क्योंकि आप बाहर से नहीं देख पाते हो वो इमोशन। पर अंदर से वो उतने ही भावुक हैं, शायद ज्यादा भी हों। सतह के इमोशंस का रुख मोड़ने या मिटाने से एक अलग लेवल की वस्तुपरकता (ऑब्जेक्टिविटी) आती है आपकी फिल्मों में। आप जबर्दस्ती के इमोशन थोपते नहीं हो लोगों पर। आप अपना नजरिया देते हो पर दर्शकों की आजादी का भी ख्याल रखते हो। कि अगर दर्शक चुनना चाहें किसी पल को महसूस करने के लिए तो वह खुद महसूस करें न कि फिल्म का म्यूजिक और एक्सप्रेशन उस पर लादें। क्योंकि जैसे हिंदी फिल्मों में एक प्रथा रही है कि अलग दुख है तो सारी परतें दुखी होंगी। म्यूजिक भी दुखभरा होगा, एक्सप्रेशन भी दुखभरे होंगे और आसपास के लोग भी दुखी हो जाएंगे। इस तरह हमें किसी और इमोशन को महसूस करने की आजादी ही नहीं है। माइकल की फिल्मों में मुझे वो ऑब्जेक्टिविटी अच्छी लगी कि किरदार का दुख दर्शक तय करेगा महसूस करना है कि नहीं करना है न कि हर सिनेमैटिक टूल यूज करके उस पर लादा जाएगा।

‘तृष्णा’ की शूटिंग राजस्थान में कहां हुई और उस दौरान का क्या याद आता है आपको?
ओसियां (जोधुपर) में और सामोद बाग में हुई शूटिंग। मुझे ओसियां का सबसे अच्छा लगा। हमें फिल्म में फ्रेडा पिंटो (‘स्लमडॉग मिलियनेयर’ फेम) के लिए एक परिवार ढूंढना था। माइकल ने एक असल परिवार ढूंढा और उनके साथ फ्रेडा को ढलने को कहा। उसके एक हफ्ते बाद हमने उस फैमिली के साथ शूटिंग शुरू कर दी, डॉक्युमेंट्री के अंदाज में, जैसे वो जब सोकर उठते थे तभी हम शूट करते थे। वो जब चाय बनाते थे तभी हम भी शूट करते थे। खाना बनाते थे, हम तब शूट करते थे। उनके बच्चे जब स्कूल जाते थे तो उन्हें स्कूल जाते हुए शूट करते थे। किसी भी तरह की कोई मिलावट या छेड़छाड़ नहीं थी, कोई कंट्रोल लादा नहीं गया। मेरा काम वहां ये था कि हिंदी में उन लोगों से बातचीत कर पाना और उन्हें ये बताना कि अपने रोजमर्रा के काम के अलावा कुछ न करें। मेरी जिम्मेदारी बस उन्हें समझाना था कि आप जो करते हो करते रहो। लोगों या कैमरा से सतर्क होने की जरूरत नहीं है। उस दौरान की गई बातचीत और सबक काफी काम आए जब अपनी फिल्म बनाई। कि प्राकृतिक माहौल में कैसे शूट करते हैं और कैसे लोगों की सतर्कता कैमरे के लिए खत्म कर देते हैं।

माइकल की कौनसी फिल्में बहुत अच्छी लगती हैं?
‘इन दिस वर्ल्ड’ (2002) और ‘द किलर इनसाइड मी’ (2010) को देखकर मैं बहुत ज्यादा प्रभावित हुआ था।
Poster of Peddlers.

‘पैडलर्स’ जैसी जो गैर-वित्तीय तरीके की फिल्में हैं, न बनने में ज्यादा पैसे लेती हैं, न ज्यादा पैसे उगाहती हैं... तो आने वाले वक्त में पेट के लिए क्या करेंगे? क्या बॉलीवुड का रुख करेंगे या अपनी तरह की फिल्मों में ही कुछ बदलाव करेंगे? आपका यकीन मणिरत्नम की बनाई फिल्मों में है जो कलात्मक रूप से बहुत अच्छी हैं और लोगों का उतना ही ज्यादा मनोरंजन करती हैं?
मेरे ख्याल से आगे जिंदगी में जब, जो भी ईमानदारी से महसूस होगा, जो भी उन पलों की सच्चाई होगी... बिना कुछ डिजाइन किए कि ये कमर्शियल होंगी या ये नॉन-कमर्शियल होंगी। मैं किन्हीं पहले की सोची-समझी धारणाओं के हिसाब से नहीं बनाऊंगा। उस वक्त जिंदगी के उस पल में, उस पीरियड में वो आ जाएंगी अपने आप। वो आर्ट भी हो सकती हैं वो कमर्शियल भी हो सकती हैं। अभी अगर ‘पैडलर्स’ से दस लोग जुड़ा हुआ महसूस करते पाते हों, तो हो सकता है मेरी अगली स्टेट ऑफ माइंड से कोई और दस लोग कनेक्ट करें। तो फर्क ये होगा न कि फिल्म कैसी होगी ये। फिल्ममेकिंग अप्रोच और इंटेंशन वही रहनी चाहिए, बस स्टेट ऑफ माइंड के हिसाब से फिल्म और ऑडियंस बदल जाएगी।

आप जैसे नए फिल्मकारों के साथ ये है कि बहुत पैसा आप नहीं कमा रहे फिर भी पैशन जिंदा है, इसकी वजह क्या है, ये कब तक रहेगा या आपके हिसाब से कब तक रहना चाहिए?
अब पैशन जिंदा तो.. कह नहीं सकते.. कल ही मेरी शादी हो गई और कल ही मैं सोच लूं कि नहीं भाई ये जो मैं कर रहा हूं गलत कर रहा हूं.. मेरे ख्याल से ये उस मूमेंट की ऑनेस्टी है और ये जब तक रहे सही दिशा में रहे। मतलब ये जो पैशन और बातें हैं ये कोई और फॉर्म में न रहे। तो बताना मुश्किल रहेगा कि कब तक रहेगा। क्यों है, ये भी नहीं बता पा रहा हूं।

‘मूमेंट की ऑनेस्टी’ की जो बात आप करते हैं, ये कहां आपने अंततः एक बड़े सच के तौर पर स्वीकार किया अपने जीवन में? कि जो पल है बस उसी में जीना... ये किससे सीखा? किसी किताब से, माता-पिता से या फिल्में बनाते हुए महसूस किया या खुद ही खोजा?
ये अनुराग और माइकल विंटरबॉटम के साथ काम करते हुए ही महसूस किया और सीखा। हां, कहीं न कहीं ये बात अंदर रही होगी पर अनुराग और माइकल के साथ काम करते हुए उसका एक आर्टिक्युलेशन (स्पष्ट समझ और समझाइश) मिल गया मुझे। उसकी एक स्पष्ट तस्वीर मिल गई। ये काम के दौरान ही हुआ और संभवतः और भी स्त्रोत रहे होंगे, जो सबकॉन्शियसली और भी गाढ़ा बनाते रहे होंगे इस विचार को।

आपने एक बार कहीं कहा कि जब पहली फिल्म बनाई तो दिमाग में जो बहुत सारा कचरा होता है वो निकल गया। किस संदर्भ में कहा और वो क्या ये था कि फिल्म बनाने से पहले जो पचास तरह के असमंजस होते हैं या पचास तरह की हेकड़ी होती है कि ये ऐसे हो जाता होगा या ये वैसे हो जाता होगा, या मान लें ये चीज ऐसे करें तो बेहतर है, या उसे बहुत ज्यादा हाइपोथैटिकली ले लेते हैं या इग्जैजरेट (बढ़ा-चढ़ा लेना) कर लेते हैं पहले ही। ये किस सेंस में था?
आपने बहुत सही बात बताई है, आखिर में जो दो-तीन चीजें कहीं। एक तरह से ये इन्हीं बातों का मिश्रण था। कचरा जो है उसे मैं बहुत नेगेटिव तरीके से नहीं लेता हूं। क्योंकि वो निकालना जरूरी है सिस्टम से। कभी न कभी वो कचरा सेहत के लिए खुराक बना होगा जो अब निकालना जरूरी था। उससे आगे बढ़ना जरूरी था। जो ये भाव मेरे भीतर थे एलियनेशन, निराशा और दिशाहीन होकर जीने के... मेरे ख्याल से इनका एक हिस्सा ऑफलोड हो गया, बाहर निकल गया, इस फिल्म के साथ। तो मैं आगे और शायद सकारात्मक रहूं, अपने आपको बांधकर न रहूं। जैसा कि मेरे कैरेक्टर खुद को बांधकर रखते हैं, मैंने भी बांध रखा था खुद को, अपनी ही रजामंदी से, वो कचरा बाहर निकल गया। अपनी कैद से रिहा होना भी एक बड़ी बात थी जो ‘पैडलर्स’ बनाकर हुई।

आप ‘पैशन फॉर सिनेमा’ (फिल्म वेबसाइट) से जुड़े हुए थे लंबे वक्त तक, फिर आप लोगों ने ये पहल बंद क्यों कर दी?
मैं भी हैरान हूं दरअसल, कि एक-तरह से सब जुड़े थे, अपना काम कर रहे थे, पर पता नहीं वो कायम नहीं रह पाया। कोशिश रहेगी कि शायद आगे फिर से वो वक्त आए, फिर से वो प्लेटफॉर्म हो। हालांकि अब तो ट्विटर है, फेसबुक है। पैशन फॉर सिनेमा तब थी जब दोनों सोशल मीडिया वाले माध्यम नहीं थे। अपने विचार जाहिर करने के लिए, बातचीत करने के लिए सम्मिलित मैदान नहीं था। अब ट्विटर और फेसबुक आ गए हैं तो कहीं न कहीं पैशन... के न होने की भरपाई हो जाती है। वही लोग हैं जो लिखते थे या लिखना चाहते थे और अब उन्हें नया मंच मिल गया है, साथ हैं। जो बातें वो लोग कहना चाह रहे हैं कह ही रहे हैं। यादें आती हैं पर कमी महसूस नहीं होती।

लेकिन उसी मंच पर आप लोगों ने अपनी कल्पनाएं और विचार बांटें होंगे, क्योंकि आज कई स्वतंत्र फिल्मकार हैं जो उसी मंच से निकले हैं...
सौ फीसदी। जैसे मंजीत सिंह हैं, हंसल मेहता सर हैं। हम लोग सभी किसी न किसी बिंदु वहां रह ही चुके हैं और आने वाले कुछ फिल्ममेकर भी हैं जो वहां रह चुके हैं। आप सही कह रहे हैं वो एक तरह से जेनेसिस बन गया था।

‘51वें कान फिल्म फेस्टिवल’ में खुद की फिल्म लेकर जाना, उसे वहां शो करना, लोगों के सवालों के जवाब देना और दूसरी बहुत सी फिल्में देखना भी... ये कैसा रहा?
बेशक जानता था और इसके बारे में सुना भी था पर गया पहली बार था। बहुत ही जिंदा अनुभव था, उम्मीदें तो थीं ही नहीं कि आप वहां तक पहुंच जाओगे। लिहाजा बड़ी बात थी। पर सबसे अच्छा ये लगा कि अपने जैसे पहली बार के फिल्ममेकर्स को देखा। उनसे बात की, उनकी स्ट्रगल जानी तो एक चीज जानी कि दुनिया भर में स्वतंत्र सिनेमा (इंडिपेंडेंट सिनेमा) का जो परिदृश्य है वो एक जैसा ही है। और उतना ही मुश्किल है हरेक के लिए अपने मौलिक विचारों और जिद वाली फिल्म बनाना। उनसे बात करके यूं अच्छा लगा। और कान में माइकल हैनिके की फिल्म, जो वो जीते थे, उसे वहां बैठकर देखना अपने आप में अनुभव था। वहां मैं ‘ऑन द रोड़’ (वॉल्टर सालेस) देखने के लिए जा रहा था और जब लिफ्ट में चढ़ा तो अमीर कुस्तरिका अंदर खड़े थे। कुस्तरिका की जो फिल्में हैं ‘ब्लैक कैट, वाइट कैट’ (1998) और ‘अंडरग्राउंड’ (1995) वो देखकर मैं हैरान रह गया था। वो 40 सैकेंड कभी नहीं भूलूंगा कान के, शायद जिंदगी भर याद रहेंगे। कोई बात नहीं हुई मेरी उनसे पर वो 40 सैकेंड मेरे लिए बहुत मायने रखते हैं कि लिफ्ट में मैं उनके साथ था। पूरे फिल्म फेस्ट में हैरतअंगेज पल बस वही थे।

2012 की हिला देने वाली फिल्में कौन सी रहीं आपके हिसाब से?
वो तो एक ही है आनंद गांधी की ‘शिप और थीसियस’। आनंद बहुत ही स्पेशल फिल्ममेकर हैं। बहुत ही कमाल फिल्म बनाई है उन्होंने। तमिल में एक फिल्म बनी है ‘कुमकी’ जो एक महावत और उसके हाथी की कहानी है। म्यूजिक से लेकर उसे जैसे शूट किया गया है, जिस महत्वाकांक्षा के साथ बनाई गई है तो वो मुझे इस साल तमाम इंडियन फिल्मों में अच्छी लगी। एक और फिल्म है जिसे अपनी जिद और आइडिया के लिए मैं सलाम करता हूं वो है ‘मक्खी’। ऐसा विचार दिमाग में लाना इस देश में और उसे कमर्शियल लैवल पर सफल बनाना मुझे नहीं लगा कि कभी संभव था। इस फिल्म से भी मैं काफी हैरान रहा। कि हर आइडिया में आपका जो यकीन है... जिसे हर बिंदु पर आप खारिज कर सकते हो स्टूपिड और सिली कहकर, ऐसा हर पड़ाव उन्होंने (मक्खी के निर्देशक राजामौली) ने पार किया।

कुमकी किस बारे में है?
एक महावत और एक उसका दोस्त होता है। उनका एक हाथी होता है जिसका नाम कुमकी है। वो घूमते-घामते एक गांव में आते हैं जहां कुम्मन नाम का एक और हाथी है जो खेतों को उजाड़ देता है। तो गांव में एक ऐसे हाथी की तलाश है जो कुम्मन का मुकाबला करे और उसे खेतों से बाहर रखे। लेकिन कुमकी जो है वो थोड़ी डरपोक सी है। महावत को वहां गांव की एक लड़की से प्यार हो जाता है और वो वहीं रुक जाते हैं। वहां वो ये झूठा दावा कर देते हैं कि कुमकी ये कर देगी। आगे की कहानी वह लव स्टोरी है और महावत का हाथी के साथ बदलता रिश्ता है। प्यार और बलिदान की कहानी है। ये वैसे ही है जैसे ‘मक्खी’ में था कि जानवरों में जो इंसानी जज्बा होता है उसे भुनाया गया, वैसा ही कुमकी में किया गया। बहुत ही भव्य और सम्मोहित कर देने वाले दृश्यों के रूप में।

क्या आपने पंजाबी फिल्म ‘अन्ने घोड़े दा दान’ देखी? कैसी लगी?
मैंने देखी है और मुझे काफी अच्छी भी लगी। ऐसा कहा जाता है कि वो (गुरविंदर सिंह, निर्देशक) मणि कौल जी की धारा पर फिल्में बनाते हैं। वो विजुअली बहुत स्टनिंग थी और बिना कुछ कहे काफी कुछ कह गई। एक तरह से वो बोलते हैं न अंदरूनी चोट, वो देकर जाने वाली फिल्म बनाई उन्होंने, जो बिना कुछ कहे, बिना कुछ बढ़ाए-चढ़ाए, यहां तक कि उस फिल्म में तो डायलॉग भी कुछ नहीं थे। उन चेहरों, उस वातावरण और उस मौसम को लेकर ही उन्होंने कुछ कमाल कर दिया।

हमेशा ‘तीसमारखां’ जैसी फिल्में भी आती रही हैं जो 80-100 करोड़ में बनती हैं जो 8 रुपये का नतीजा भी नहीं दे पातीं... क्या ऐसी फिल्मों का समाधान ‘पैडलर्स’ और ‘शिप ऑफ थीसियस’ है?
नहीं, उसका समाधान तो ये फिल्में नहीं हैं, पर एक तरह से अगर आप आर्थिकी (इकोनॉमिक्स) देखें तो अगर आज 5,000 थियेटर हैं भारत में, तो वो सभी एक ‘तीसमारखां’ और एक ‘दबंग-2’ के लिए बने हैं। और उस बीच हम अपनी फिल्म उन थियेटरों में घुसा सकते हैं। बाकी बातें करने की बजाय हमें ये देखना चाहिए कि उनमें हम अपनी फिल्में घुसा कैसे सकते हैं। क्योंकि वहां जो पॉपकॉर्न है और प्रति सीट रख-रखाव का जो खर्च है उसकी भरपाई इन फिल्मों से होती है। अगर वास्तविक होकर देखें तो हमारी फिल्मों से वो भरपाई नहीं होती। और न ही हमारे यहां ऐसे कोई सरकारी थियेटर हैं कि पहल करके सिर्फ स्वतंत्र फिल्में (इंडि) ही वहां दिखाईं जाए। क्योंकि कमर्शियल हो या आर्ट, बीच में मीडियम तो वही है। हमें देखना चाहिए कि उनका इस्तेमाल कैसे करें। क्योंकि रख-रखाव का खर्च तो उन्हीं से आता है। उनसे लड़ने की बजाय हमें हमारे सह-अस्तित्व की कोई जमीन तलाशनी चाहिए। क्योंकि अगर इतनी फिल्में बन रही हैं और इतनी तादाद में लोग देख रहे हैं तो शायद कोई वजह है। कम से कम हम लकी हैं कि 5000 थियेटर हैं, उनमें से शायद 100 थियेटर हमें मिल जाएं या 200 मिल जाएं 300 मिल जाएं। लड़ाई तो जारी रहेगी जहां वितरक बोलेगा कि भई आपकी फिल्म तो चलती नहीं है। दर्शक भी भिन्न-भिन्न रुचियों के और पढ़े-लिखे हो चुके हैं। उदारवाद (पोस्ट लिबरलाइजेशन) के बाद से इतना सुधार आया है, हालांकि पॉकेट्स में ही, ये नहीं कहूंगा कि पूरा देश बदल गया है। तो धीरे-धीरे वहां से फायदा उठाना शुरू कर सकते हैं। और अगर हमारी पीढ़ी को ये फायदा न हो तो आने वाली एक, दो, तीन और चौथी पीढ़ी को तो सौ फीसदी होगा। जैसे श्याम बेनेगल, शेखर कपूर और गोविंद निहलानी ने अपने वक्त में मुकाम बनाया जिसकी वजह से एक राम गोपाल वर्मा और एक अनुराग कश्यप आए तो उनसे शायद हम आए होंगे और हम से शायद कोई और आएंगे। ये और बेहतर ही होता जाएगा।

जब आप फिल्मों की दुनिया में नहीं थे तो बहुत से फिल्मकारों के बारे में सोच अवाक रह जाते होंगे, कि ये बंदा है इसने ये बनाई है, वो बनाई है, जब आप उनसे मिलते गए और सिनेमा बनाना सीखते गए तो क्या उसके बाद भी अवाक होते हैं या वो विस्मयबोध अब चला गया है कि ये तो ऐसे ही बनती है, उसने बना ली होगी वैसे ही?
अनुराग कश्यप से एक बड़ी सीख थी कि प्रभावित होते रहना। मतलब उनमें अब भी वो विस्मयबोध है कि किसी फिल्म को देख कर अपना जबड़ा तोड़ लेते हैं कि ये क्या पिक्चर बना दी। मैंने देखा है कि बहुत से लोग जो इतनी फिल्में देख चुके हैं वो एक तरह से प्रभावित होना बंद कर चुके हैं। उनको कुछ भी इम्प्रेस नहीं करता। सबकुछ एक तरह से खारिज कर देते हैं कि हां, ये तो ठीक है, ठीक है। तो मुझे अनुराग सर में वो अच्छा लगा और आज भी अगर रमेश सिप्पी सामने आ जाएं तो जरूर अवाक रह जाऊंगा कि उन्होंने ‘शोले’ बनाई थी। आज भी राम गोपाल वर्मा सामने आएं तो उनकी मौजूदा फिल्में चाहे जो भी हों, उनकी ‘सत्या’ ने मुझे बहुत ज्यादा प्रभावित किया था, मैं अभी भी उनकी ऑ में रहूंगा। हां, जब आपका व्यक्तिगत रिश्ता होता है तो ये बदल जाता है जैसे अनुराग कश्यप दोस्त हैं पर एक फिल्ममेकर के तौर पर तो अभी भी मैं उनकी ऑ में हूं। दोस्त के रूप में मैं उन्हें चार चीजें कह दूं या वो मुझे चार चीजें कह दें पर फिल्मकार के तौर पर मैं अभी भी उनको बहुत मानता हूं और सीखना चाहता हूं।

‘पैडलर्स’ में गुलशन देवय्या हैं, उन्होंने बड़ी खास भूमिका निभाई है। उन्हें ‘यैलो बूट्स...’ और ‘हेट स्टोरी’ जैसी फिल्मों में मैं नोटिस कर रहा हूं... उनमें ऐसा क्या है कि स्वतंत्र और छोटी फिल्मों को एक हीरो के रूप में वह संपूर्ण बना देते हैं। फिल्म में वह खड़े हो जाते हैं तो उसमें शाहरुख खान की कमी नहीं लगती?
उनमें आक्रामकता, विनम्रता और शर्मीलेपन का विचित्र मेल है। वह बहुत बड़े दिल के भी हैं। अपने दायरे में बहुत ही सुरक्षित महसूस करते हैं। चाहे कोई भी चीज हो, उनका अपने काम से ध्यान नहीं हटता। उनकी जो दयालुता है वो परदे के बाहर आकर भी छूती है, जैसे आपको लगता है कि यार इसको देख लूं तो मुझे बड़े हीरो की कमी महसूस नहीं होती। क्योंकि उनके अंदर ही वो विशालता है किसी भी रोल को करने में। वो रोल में रुचि लेते हैं, न कि किसी और चीज में। जिंदगी को लेकर उनके कोई डिजाइन या योजनाएं नहीं हैं। उस पल उन्हें जो अच्छा लगता है वह करते हैं। उसमें उनकी ईमानदारी भी झलकती है और वह बहुत मजेदार इंसान भी हैं। आपको बहुत सहज महसूस करवाते हैं और एक भाईचारा रहता है। ऊपर से वह प्रतिभासंपन्न भी हैं। तो सारी चीजों के साथ अगर टेलेंट भी आ जाए तो किसी भी डायरेक्टर के लिए कम्पलीट पैकेज हो जाता है। वो अपनी एक छाप तो छोड़ ही रहे हैं, लोगों की नजरों में हैं, पर आने वाले दिनों में दमदार काम दिखाएंगे। उनका जो सिक्योर नेचर है उसकी वजह से वो बहुत लंबा चलने वाले हैं। उनका करियर शायद हिट और फ्लॉप पर निर्भर नहीं होगा।

इंडिया में इस साल बहुत कुछ हो गया और जो ये घटनाएं हैं इनसे शायद फिल्मकारों को प्रेरणा मिलती होंगी। चाहे अन्ना का आमरण अनशन हो, केजरीवाल ने जो घोटालों के खुलासे किए थे या उनका जो उभार हुआ है राजनीति में या दिल्ली वाली जो अभी घटना हुई है, या बहुत सी फिल्मी हस्तियां गुजर गईं एकदम से, या अमेरिका में गोलीबारी हुई, या सिलेंडर की रेट बढ़ गई, महंगाई बढ़ गई... तो इतनी सारी चीजें जब होती हैं तो क्या कहानियां निकलती हैं? या ऐसा होता है कि ये घटनाएं साइड से चली जाती हैं और आप कुछ और ही सोचते रह जाते हैं?
ये घटनाएं कहीं न कहीं जेहन में छप जाती हैं। और मुझे ऐसा लगता है कि जैसे ही घटना घटी वैसे ही आप फिल्म बनाने के बारे में सोचो तो वो उस घटना का फायदा उठाना हुआ। अगर उस सोच को सबकॉन्शियसली पकने देते हो अंदर तो एक वक्त के बाद उस गुस्से और निराशा के पार चले जाते हो और हर चीज को बहुत वस्तुपरक (ऑब्जेक्टिवली) ढंग से देख पाते हो। जो भी घटना होती है वो सबके जेहन में जरूर रह जाती है पर तुरंत कोई रचनात्मक प्रतिक्रिया इसलिए नहीं देता क्योंकि वो उसका मार्केटिंग टूल हो जाता है। दिल दहलाने वाले मामलों और समाज को बदल देने वाले मामलों में तो ऐसी चीजों की सलाह बिल्कुल नहीं दी जा सकती। उस बात को समझकर सही तरीके से दर्शाने के लिए एक वक्त चाहिए होता है ताकि सबकॉन्शियसली आप उसके साथ रहो और फिर एक टाइम आए जब सही नजरिए से आप उसे बता पाओ। नहीं तो अगर दिल्ली के इस अपराध पर कोई फिल्म बना दे तो वो बहुत असंवेदनशील होगा। लेकिन अगर इस घटना के साथ आप रहते हो, समाज पर उसके असर को देखते हो तब एक नतीजे पर आप पहुंच सकते हो कि हां अब एक फिल्म बनाई जा सकती है, इसका ये नजरिया है जो असंवेदनशील नहीं है। यानी ये एक सच्ची नीयत वाला बिंदु हो जो उसका फायदा न उठाए। उसे सनसनीखेज न करे, तभी वो लोगों तक पहुंचेगा भी। तो हां, मेरे ख्याल से जो भी लिख रहा होता है उस पर इन चीजों का असर जरूर पड़ता है और वो सबकॉन्शियस में कहीं न कहीं रह जाता है। और वो कहीं न कहीं, किसी न किसी माध्यम से, किसी न किसी वक्त पर निकलेगा ही।

अभी राम गोपाल वर्मा ने जो ‘द अटैक्ट ऑफ 26/11’ बनाई है तो इसके बारे में आप क्या कहेंगे? ये भी वही चीज कर गई कि देशमुख का इस्तीफा वगैरह हुआ?
जैसे ‘ब्लैक फ्राइडे’ बनी थी, वो धमाकों के दस साल बाद बनी थी। वो इतनी ऑब्जेक्टिव है और इतनी स्पष्ट है कि फिल्ममेकर ने कोई पक्ष नहीं लिया और अपनी राय नहीं थोपी। बल्कि उसने सच्चाई बताई और लोगों ने उस पर राय दी। तो उतनी मैच्योरिटी जरूरी है। जैसे माइकल विंटरबॉटम ने भी ‘सराजेवो’ और ‘गुवेंतानामो’ जैसे बहुत सारे उफनते मुद्दों पर फिल्में बनाईं हैं पर उन्होंने उन चीजों को पकने दिया है, एक तरह से उनका वस्तुपरक रूपांतरण पेश किया है न कि उन्हें सनसनीख़ेज करके दिखाया। मैं आशा कर रहा हूं कि ‘द अटैक्स ऑफ 26/11’ वैसी ही ऑब्जेक्टिव फिल्म हो।

कैसी फिल्मों से नफरत है?
नफरत तो नहीं है पर एक वक्त पर बहुत खास राय वाला हुआ करता था। घिसी-पिटी प्रतिक्रिया होती थी कि अरे ये बकवास है वो बकवास है। अब जैसे कोई फिल्म आएगी तो देखने का मन नहीं करेगा बस, पर किसी के काम से नफरत नहीं है।

जैसे-जैसे स्वतंत्र या मुख्यधारा वाले नए फिल्मकार आ रहे हैं और अपने विचारों की प्रधानता वाली कहानियों पर फिल्में बना रहे हैं, तो उनकी आवक बढ़ने से नग्नता और गाली-गलौच (न्यूडिटी और अब्यूजिव लैंग्वेज) का विषय भी मुखरता से उठेगा। कुछ लोग नग्नता और गालियों को स्वीकार करते हैं, कहते हैं होती है इसलिए दिखाते हैं, अनुराग (कश्यप) भी बहुत बार कहते रहे हैं कि हम बोलते हैं तो क्यों न इस्तेमाल करें फिल्मों में। आपका क्या मानना है और अपनी फिल्मों में कितना उसका इस्तेमाल करना या न करना चाहते हैं?
जैसे ही सवाल आता है कि क्या करना चाहिए वैसे ही अपने आप उसके नियम बनते हैं और ये जो फिल्मकार हैं शायद उन्हीं नियमों को तोड़ना चाहते हैं। कभी-कभी कुछ चीजें बढ़ा-चढ़ाकर पेश की जा सकती हैं, क्योंकि आप दरवाजा तोड़ने के लिए जोर लगाते हो तो पता नहीं कितना जोर लगाते हो। कभी-कभी जरूरत से ज्यादा जोर शायद लग जाता है। तो मेरे ख्याल से जब तक ये कहा जाता रहेगा कि आप इतना ही कर सकते हो और इतना नहीं कर सकते, तब तक वो जोर लगता रहेगा और कभी ज्यादा लगेगा, कभी कम लगेगा। जब तक इसको लेकर स्वीकृति नहीं आएगी तब तक ये होते रहेंगे, कभी शॉकिंग होंगे और कभी सही मात्रा में। ये मेरे ख्याल से बंद नहीं होगा।

या अपनी फिल्मों में आप कभी नग्नता और गालियों का इस्तेमाल करेंगे तो इसी संदर्भ में कि कोई रचनात्मक रोक लगाएगा या तानाशाही करेगा तो करेंगे... या फिर कहानी में कहने की जरूरत है तो करेंगे नहीं तो नहीं करेंगे?
हां, बिल्कुल वही। अब जैसे किसिंग एक वक्त में मार्केटिंग टूल हुआ करता था तो अब वह मार्केटिंग टूल नहीं रहा क्योंकि स्वीकार हो चुका है और कोई उससे हैरान नहीं होता है। जैसे ही ये हैरानी बंद हो जाएगी वैसे ही उसका अति इस्तेमाल बंद हो जाएगा। न्यूडिटी को ही लें, तो मान लीजिए आपके थियेटर में एक्स रेटेड फिल्में दिखाए जाने को मंजूरी मिल गई तो लोग इतनी नग्नता देख चुके होंगे कि फिल्मों में उसको आप मार्केटिंग टूल की तरह इस्तेमाल ही नहीं कर पाएंगे। क्योंकि वो कहेंगे कि यार इससे ज्यादा तो मैंने उसमें देखी है। तो जैसे ही सेंसरशिप बंद हो जाती है वैसे ही जितनी जरूरत है इसका इस्तेमाल उतना ही होता है। अभी तो हम इतना छिपाकर रखते हैं चीजों को कि कोई चुपके से पोर्न देखता है या इंटरनेट पर देखता है, तो मेरे ख्याल से जितनी स्वीकार्यता है वो सिनेमा में भी जैसे आएगी तो नग्नता और गालियों का असर उतना नहीं होगा जितना दस साल पहले या बीस साल पहले होता होगा। एक बिंदु के बाद ये फिल्म के हित में ही इस्तेमाल होगा न कि बाजारू हथकंडे के तौर पर यूज होगा।

फिल्म आलोचना कैसी होनी चाहिए? क्या ऐसी होनी चाहिए कि फिल्म बनाने वाले को पढ़कर मदद मिले? वो फिल्म आलोचना ‘थ्री ईडियट्स’ जैसी होनी चाहिए कि ‘पैडलर्स’ जैसी?
जैसे-जैसे नई फिल्में बन रही हैं, वैसे ही आलोचक भी नए आ रहे हैं। उनकी भी पढ़ाई और फिल्मी साहित्य तक पहुंच समान, फिल्मकार की भी समान है। ये दोनों ही कहीं न कहीं आकर एक बिंदु पर मिलेंगे। आप जल्दीबाजी में ये भी नहीं कह सकते कि फिल्म आलोचना हमारे मुल्क में खराब है, क्योंकि फिर तो आप ये भी कहेंगे कि यहां फिल्ममेकिंग भी फालतू है। इस खींचतान का कोई अंत नहीं होगा फिर। अब आप अपना खुद का ब्लॉग खोलकर उसके दर्शक और पाठक बना सकते है, अब आपको सिर्फ मैगजीन या अखबार में ही लिखना जरूरी नहीं है... तो फिल्मकार और आलोचक की समझ और ज्ञान का एक बिंदु पर मेल होगा। अब ये हो सकता है कि जैसे कोई फिल्ममेकर न्यूडिटी दिखाना चाहे तो वो दिखाएगा और कोई आलोचक अपना ज्ञान दिखाना चाहेगा तो वो दिखाएगा... इन दोनों का सह-अस्तित्व तो होना ही है। होगा यही कि चार फिल्मों में से आपको एक बहुत पसंद आएगी तो चार आलोचना वाले मंचों में से भी एक पसंद आएगा। इनमें जो निरंतर है और औसत राय रखेगा वो कायम रहता जाएगा। मेरे ख्याल से इस पीढ़ी की फिल्ममेकिंग को वो परिभाषित करते जाएंगे। एक संतुलित नजरिया होना चाहिए, हमें ये भी नहीं कहना चाहिए कि वो फिल्ममेकर बेकार है और ये भी नहीं कि वो आलोचक बेकार है।

नए लड़कों में ऐसे कितने हैं जो बहुत अच्छा काम कर रहे हैं और आपके हिसाब से अच्छी फिल्में देंगे?
श्लोक शर्मा, नीरज घेवन, सुमित पुरोहित और सुमित भटीजा (जिन्होंने ‘लव शव ते चिकन खुराना’ लिखी थी)... ये चार ऐसे हैं जिन्हें मैं व्यक्तिगत रूप से जानता हूं और ये लोग कुछ कमाल करने वाले हैं।

आपकी फिल्म का बाहरी फिल्म महोत्सवों में जाना या भारत में ही ज्यादा से ज्यादा लोगों द्वारा देखा जाना, क्या ज्यादा जरूरी है?
सबसे ज्यादा जरूरी है एक फिल्म को किसी भी तरह का दर्शक मिलना। मेरे ख्याल से निजी संतुष्टि तो तब मिलती है जब दर्शक देश में मिलें, आप बाहर जब जाते हैं जब लगता है कि शायद देश में न मिलें। अपनी फिल्म के लिए तो मैं यही चाहूंगा कि ज्यादा से ज्यादा अपने देश के ही मिलें, बाहर के तो बोनस में होने चाहिए।

फूड फॉर थॉट के लिए क्या करते हैं। किताबें, अख़बार या फिल्में या गलियां... क्या पकड़ते हैं?
उस पल में जो भी चीज मदद करे वो करता हूं। जिस दिन घूमने का मन किया, स्टेशन पर बैठने का मन किया... कुछ भी ऐसा जो मन में हलचल मचाए। कभी-कभी कमरे में बैठे-बैठे कुछ हो जाता है... जैसे कहते हैं कि बड़े-बड़े विचार तो टॉयलेट में बैठे हुए आ जाते हैं। पर किताबें पढ़ने या फिल्में देखने से ज्यादा लोगों के बीच बैठने से मदद मिलती है।

अगर, तो किताबें कैसी पढ़ते हैं?
मुख्यतः फिक्शन नहीं पढ़ता हूं। जिस फिल्म या विचार के लिए जरूरत है उसके ईर्द-गिर्द जो भी लिखा है वो जुटाकर पढ़ने की कोशिश करता हूं। कभी-कभी ‘100 राइफल्स’ जैसे ग्राफिक नॉवेल पढ़ लेता हूं। उसके अलावा तो ख़बरें और नॉन-फिक्शन किस्म की चीजें पढ़ता हूं।

जैसे आपने कहा कि लोगों के बीच बैठे-बैठे विचार आ जाते हैं, तो कभी जब परिवार या दोस्तों के बीच बैठे होते हैं तो ऐसा होता होगा कि एक रचनात्मक व्यक्ति बैठा कहीं भी है एक समंदर उसके अंदर पल रहा है। दूसरा, वहां जो दोस्त-रिश्तेदार बैठे होते हैं क्या वो कभी बुरा नहीं मानते कि यार ये क्या इंसान है, अलग ही अपने सोचे जा रहा है, बात में ध्यान ही नहीं दे रहा?
हमेशा होता है, नाराज ही रहते हैं लोग। पर एक विनम्रता भी आ जाती है उनके साथ बैठकर क्योंकि वो आपको जमीन पर ले आते हैं। अच्छा भी लगता है और कभी-कभी आप भागना भी चाहते हो। पर ठीक है वो आपको भला-बुरा भी कहते हैं तो आप चाहो तो उसमें से व्यंग्य ढूंढ लेते हो, आलोचना ढूंढ लेते हो ...तो ये रुचिकर होता है। और भी खास इसलिए क्योंकि वो नजरिया और राय बिना किसी एजेंडा के आती है।

‘उड़ जाएगा हंस अकेला...’ पैडलर्स के ट्रेलर में सुनाई देता है। क्या आप कुमार गंधर्व को सुनते रहे हैं या संगीतकार ने सुझाया?
कुमार गंधर्व का गाया ये गीत मैं तीन साल से अपने फोन में लेकर घूम रहा हूं। ये जब फिल्म बन रही थी तो मैंने करण (म्यूजिक डायरेक्टर) को निवेदन किया कि इसकी बस एक पंक्ति इस्तेमाल कर लो। एक पूरे गीत की तरह तो मैं इसे रीक्रिएट नहीं करना चाहता था क्योंकि जैसे लिखा और गाया गया है वो किसी भी परिपेक्ष्य से फिर रचा नहीं जा सकता है। बस मेरा स्वार्थी मन था जो चाहता था कि एक ये लाइन फिल्म में रहनी ही चाहिए। मैंने करण से कहा कि किसी भी ऐसे फकीर या सिंगर से गवा दो जिसकी पूरे गाने से अपना करियर शुरू करने की महत्वाकांक्षा न हो, कोई मिला नहीं तो उसने खुद गा लिया।

अमेरिकी फिल्मकार क्विंटिन टैरेंटीनो की नवीनतम फिल्म ‘जांगो अनचैन्ड’ की रिलीज से पहले वहां के बेहद गंभीर और अहम अश्वेत फिल्म निर्देशक स्पाइक ली ने कहा था कि इसमें उनके पुरखों को (अश्वेतों) सही से नहीं दर्शाया गया है, ये उनका अपमान करती है, इसलिए वह टैरेंटीनों की फिल्म नहीं देखेंगे..। जानना चाहता था कि इसे कैसे देखा जाए क्योंकि टैरेंटीनो का एक अलग ही हास्य वाला अंदाज होता है जो कुछ खास को ही समझ आता है बाकियों को अपमानजनक लगता है।
एक तरह से टैरेंटीनो तो मजे लेना चाहते हैं और मौजूदा वक्त में वह अकेले ऐसे फिल्मकार हैं जिन्होंने अपना खुद का टैरेंटीनों जॉनर बनाया है। जो कि जॉनर के ऊपर जॉनर, जॉनर के ऊपर जॉनर और फिर उनका जॉनर है। मेरे ख्याल से वो एक यूनीक केस है और वैसा कोई होना चाहिए। ये एंटरटेनिंग है और ऐसा कभी नहीं हुआ है कि उनकी कोई भी फिल्म देखकर मैं निराश निकला हूं। तो जितना भी शरारती, गलत और पॉलिटिकली इनकरेक्ट हो उनका दिमाग, मैं देखना चाहूंगा उनकी फिल्म। क्योंकि ये मजेदार होती हैं, उकसाती भी हैं, हंसाती भी हैं और कभी-कभी किसी की खिल्ली भी उड़ाती हैं पर मैं बुरा नहीं मानता। मुझे बहुत पसंद हैं। 

(Vasan Bala lives in Mumbai. He made his first movie 'Peddlers' last year and since then it has been taken very well in various International film festivals. He previously worked with Anurag Kashyap on films like 'Dev D', 'That Girl in Yellow Boots' and 'Gulaal'. Vasan was also an associate director to Michael Winterbottom on film 'Trishna'. He is working on his next script.) 
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