ये आनंद कुमार हैं। दक्षिण भारत के हैं, पर दिल्ली से हैं और अब मुंबई के हो गए हैं। उन्होंने वही फिल्म बनाई है जिसकी जब बनने की घोषणा हुई तो काफी जिज्ञासा लोगों के बीच जगी। एक वजह ये भी थी कि तब ‘पान सिंह तोमर’ और ‘गैंग्स ऑफ वासेपुर’ एक नई धारा की शुरुआत कर रही थीं। ‘जिला गाज़ियाबाद’ नाम में भी वही धूसरपन और गांवों में रात की हवाओं में सुनाई जाने वाली आधी गप्पों और आधी हकीकतों की छुअन थी। ...तो पालथी मार कर वो कहानी सुनने बैठना लाजिमी था। फिल्म 22 फरवरी को रिलीज होने जा रही है। इसमें सतबीर गुर्जर और महेंदर फौजी के बीच गैंगवॉर और पुलिसवाले प्रीतम सिंह की कहानी है। संजय दत्त, अरशद वारसी, विवेक ओबेरॉय, परेश रावल मुख्य भूमिकाओं में लगते हैं। फिल्म के सिलसिले में आनंद कुमार से बातचीत हुई। उन्होंने जवाब दिए, अपनी समझ से दिए। हालांकि बहुत सी बातें हैं जिनसे मैं सहमत नहीं हूं। खैर, वह कमर्शियल सिनेमा के एक और नए प्रतिनिधि हैं। पहले उन्होंने ‘दिल्ली हाउट्स’ बनाकर अपनी कोशिश की थी, मगर बाद में हिम्मत हार इस नए दबंग, वॉन्टेड और राउडी राठौड़नुमा सिनेमा में आ गए। ऐसा नहीं है कि इन फॉम्युर्लाबद्ध फिल्मों पर डिबेट खत्म हो गई है। वो तो जारी है, और भी तेजी से, लेकिन फिलहाल फिल्मों की आर्थिक संरचना के व्यापक प्रभाव का तोड़ नहीं निकला है। कभी निकले तो सांस आए। फिल्मकार भी अपनी कहानियां कहने में ज्यादा स्वतंत्र हों। मैंने सवाल पूछे हैं, आनंद ने जवाब दिए हैं। मायने आपको तलाशने हैं। मैं भी तलाशकर दे सकता हूं लेकिन नहीं, आप करें। पढ़ने वालों के लिए, ध्यान देकर पढ़ें तो, बहुत कुछ है। फिल्म निर्माण में आर्थिक ढांचे की तानाशाही के परिणाम, सीमित विकल्प, निर्देशकों की समझ, उनकी लाचारियां, भिड़ने की सामर्थ्य, आसपास की सामाजिक-आर्थिक बुनावटों के प्रति संवेदनशीलता, मनोरंजन शब्द में छिपे धोखे और बारंबार एकसरीखी रचनाएं।पढ़ें, ससम्मानः
अपने बारे में बताएं, कहां से हैं, फिल्मों के प्रति रुझान कब से बना?
दिल्ली की है पैदाइश और पढ़ाई दोनों। फिल्म जैसे बच्चे देखते हैं वैसे ही देखता था। मैं जरा ज्यादा इंट्रेस्ट लेकर देखता था। दृष्टिकोण अलग था। नशा सा हो गया था, सिनेमा घूमता बहुत ज्यादा था दिमाग में। फिर ऐसा बिंदु आया जब 1991 में राम गोपाल वर्मा की फिल्म ‘शिवा’ लगी। उसने मुझे प्रेरित कर दिया कि मुझे इसी लाइन में जाना है। इससे पहले ये सोचना भी कि इस लाइन में जाना है, अपने आप में अजीब सी बात हो जाती थी। कैसे चले आओगे ? आप फिल्म फैमिली से हो तो ऐसा सोचना समझ आता भी है। लेकिन आप दिल्ली में हो, आपके पिता वकील हैं जिनका कोई लेना-देना नहीं है सिनेमा से, तो मूवी बफ ही हुए न आप। ऐसे लाइफ चल रही थी। मगर मुझे याद है, ‘शिवा’ वो वक्त था जब तय कर लिया कि इसमें ही कुछ करूंगा, मगर ये बात मैंने किसी को बताई नहीं। ऐसे में मैं राइटिंग करने लगा। पांच-छह साल हो गए। पिता वकील हैं तो दो साल मैं लॉ करने चला गया। समझ नहीं आ रहा था, तो उसमें मजा आया नहीं।...
... फिर हैदराबाद में एक लोकल संस्थान था, वहां से मास कॉम का कोर्स किया। उसकी वजह से कुछ मिला नहीं, कुछ सीखा नहीं मगर उसकी वजह से मैं स्टूडियोज में बैठा रह पाता था। रामानायडू स्टूडियो, अन्नपूर्णा स्टूडियो जो नागार्जुन का है... इनमें आना-जाना संभव हो गया। 1997-98 की बात कर रहा हूं। गाने, सीन शूट हो रहे हैं और मैं वहा हूं। राइटर के तौर पर विजुअलाइजेशन तो आ रहा था, मैं मेकिंग भी समझ रहा था। ऐसे वक्त निकला और 2002 में मैंने एक डॉक्युमेंट्री शूट की। दिल्ली में। वह डीजे लोगों के ऊपर थी, जिसमें मैं ये बताना चाह रहा था कि ये एक प्रफेशन है और जरूरी प्रफेशन है और एक क्रिएटिव फील्ड है। मैं उसे कर रहा था और उसी दौरान मीडिया डॉक्युमेंट्री के बारे में लिखने लगा। उसे प्रदर्शित किया तो मीडिया ने बहुत अच्छा लिखा और तुरंत दिल्ली में मुझे एड फिल्में और वीडियो मिलने लगे। तब वीडियो और रीमिक्स का दौर था। मैं इनमें बहुत बिजी हो गया। पैसे कमाने का मेरा जरिया भी सही बैठ गया और एक निर्देशक के तौर पर भी मुझे सही जगह मिल गई। मैं बहुत संतुष्ट हुआ। उस समय जो पिक्चरें लिख रहा था, उनमें पहली थी ‘डेली हाइट्स’। 2006 में शिवाजी गणेशन प्रॉड्श्ईन के लोग मुझे मिले, साउथ में ये बहुत बड़ी फिल्म निर्माण कंपनी है। मैंने उन्हें कहानी सुनाई, उन्होंने सुनी। फिल्म मार्च, 2007 में रिलीज हुई। वहां से फिर फिल्मों में यात्रा शुरू हुई और 2007 में मैं मुंबई आ गया। तब तक मैं दिल्ली में ही था। फिर दिल्ली के एक प्रॉड्यूसर ने मुझे ‘जुगाड़’ फिल्म के लिए साइन किया। ये मेरी दूसरी फिल्म हो गई। मगर उस वक्त ‘बिल्लू’ (शाहरुख, इरफान) के बराबर में रिलीज हुई थी तो मेरी फिल्म का पता ही नहीं चला। आई और गई।
वहां से दिमाग में आया कि जब तक मैं कमर्शियल एलिमेंट की फिल्में नहीं बनाता तब तक नहीं होगा। कहीं मेरी सोच गलत है। उस वक्त ‘दिल चाहता है’ जैसी फिल्में आईं थी तो हम जैसे यंग निर्देशकों को भी मौका मिलने लग गया, कि एक नया दौर आ गया सिनेमा का जहां यंग लड़के बनाएंगे फिल्में। नहीं तो पहले क्या था कि हमें पूछते भी नहीं थे। कहते थे, ‘ये क्या पिक्चर बनाएगा लड़का’। तो तब लोग एक्सपेरिमेंट करने को तैयार थे। पर पहले जो मैं सोचता था कि रियलिस्टिक सिनेमा बनाऊंगा, मेरी उस बात में दम नहीं था। जैसे ‘लाइफ इन अ मेट्रो’, ‘डेली हाइट्स’ हैं... ऐसी फिल्मों का एक सीमित ऑडियंस है। मैट्रो कल्चर में जो लोग जिए हैं वो ही लोग देखते हैं। सिंगल थियेटर में तो वो पिक्चरें जाती भी नहीं हैं। लोगों को पता भी नहीं चलता और ऑडियंस हमारी वहीं हैं। मैंने 2009 के बाद थोड़ा सा ये तय किया, बैठकर, आराम से, कि मैं लार्जर दैन लाइफ फिल्में करूंगा। और वो फिल्में करनी हैं जो लोगों को दिखे और उन्हें मजा आए।
‘जिला गाज़ियाबाद’ का जन्म कब हुआ, कैसे हुआ?
मैं एक बार गाज़ियाबाद गया हुआ था। वहां रेलवे स्टेशन का बोर्ड देखा ‘जिला गाज़ियाबाद’। वो जैसे मेरे सामने कौंधा, उसे देख मैं बड़ा उत्साहित हुआ और मैंने वो टाइटल रजिस्टर करवा लिया। तब मेरे पास कहानी नहीं थी, महज शीर्षक था। मुझे वहां गाज़ियाबाद के नेता हैं मनोज शर्मा, उन्होंने विनय शर्मा (जिला गाज़ियाबाद के राइटर) से मिलवाया। उन्होंने कहा कि ये टाइटल इतना भारी और भरकम है आनंद कि इसमें एक गैंगवॉर की अच्छी कहानी बैठती है। आपको मजा आएगा आप सुनो। ऐसे मैं विनय से मिला 2010, सितंबर में। वहां से ‘जिला गाज़ियाबाद’ की यात्रा शुरू होती है। बैठकर हम लोग काम करने लगे, विनय ने बहुत बढ़िया कहानी लिखी। जनवरी, 2011 में विनोद बच्चन ने सौंदर्या प्रॉडक्शन में मुझे इस फिल्म के लिए साइन किया। वहां से औपचारिक नींव रखी गई। एक्टर साइन हुए। अरशद से पहले ही बात हो चुकी थी। उन्होंने ही मुझे प्रॉड्यूसर से मिलवाया था। फिल्म लिखते वक्त हमें इतना पता था कि अरशद को विलेन लेना है। ये मेरी एक खास ख़्वाहिश थी। आपने अगर प्रोमो देखा होगा तो उसमें पता चला होगा कि अरशद बुरे किरदार को निभा रहे हैं। ऐसे अरशद आए और उन्होंने ही हमें सारे एक्टर्स से मिलवाया। मैं इतना बड़ा नाम नहीं था तो मेरे को अरशद भाई ने बहुत मदद की। उन्होंने संजय दत्त साहब के पास भेजा, विवेक ओबेरॉय के पास भेजा, रवि किशन को जानता था, परेश रावल से मिलवाया। धीरे-धीरे मेरी एक ड्रीम कास्ट बनती चली गई। 14 जुलाई, 2011 से हमने शूटिंग शुरू की।
अब जब बन चुकी है फिल्म तो क्या जैसे कल्पना की थी वैसे ही बनी है, कितना खुश हैं?
मैं इतना संतुष्ट हूं कि क्या कहूं। इतने सारे एक्टर्स ने बिना बाधाओं के फिल्म पूरी करवा दी। फिल्म की पहली झलकियां देख आप जान गए होंगे कि विजुअली कितनी लार्जर दैन लाइफ हो गई है। जो कि मेरी फिल्में नहीं थीं। ये संतुष्टि है और दूसरा ये कि मैं मुख्यधारा के सिनेमा में भी आ पाया हूं।
स्क्रिप्ट आपने और विनय ने साथ लिखी?
नहीं, ये पूरी तरह से विनय की ही लिखी गई है। हम दोनों साथ तो बैठते थे पर ये पूरी तरह उसका विजन है। क्योंकि वो गाज़ियाबाद से ही है और वहां की रौनक लाना चाहता था तो पूरी आजादी दी मैंने। स्टोरी, स्क्रीनप्ले, डायलॉग तीनों उसके हैं।
ट्रेलर में जैसे नजर आता है कि लार्जर दैन लाइफ है, स्टंट ओवरपावररिंग हैं, लेकिन क्या फिल्म में गाज़ियाबाद के सामाजिक और राजनीतिक पहलू भी हैं? क्या बतौर निर्देशक कहानी में आपने असल इमोशन और दूसरा जीवन डाला है? क्योंकि हमें ट्रेलर में तो सिर्फ स्टंट और एक्शन ही दिखता है। फिल्म में बस यही तो यही नहीं है न?
देखिए, ट्रेलर को यूं लाना तो एक तरह से... पिक्चर गर्म करने के लिए ये सब करना पड़ता है। दूसरा ट्रेलर में हमने ये झलकाने की कोशिश की है कि पिक्चर हमने इस स्केल पर शूट की है। इसमें हमने स्टोरी नरेशन नहीं दिखाया है। हां, नरेशन का थोड़ा बहुत आइडिया लग रहा है। कहानी पता चल रही है कि अरशद और विवेक ओबेरॉय के किरदार गैंगस्टर हैं। संजय दत्त पुलिस ऑफिसर हैं, अलग से पुलिसवाले लग रहे हैं। फिल्म बनाते वक्त मेरी कोशिश ये थी कि ‘ओमकारा’ और ‘दबंग’ के बीच का रास्ता निकालना है। जो कि बहुत रियलिस्टिक भी है और कमर्शियल एलिमेंट भी है। वो आपको मिलेगा बिल्कुल, ये नहीं है कि फिल्म यूं ही चल रही है, कहीं भी, कुछ भी आ गया। अगर इसमें आइटम सॉन्ग भी आता है तो उसके शब्द ऐसे हैं कि कहानी को आगे लेकर जाते हैं। मैंने बिना मुद्दे के इसमें कुछ भी नहीं डाला है।
इन दिनों गैंगस्टर्स की कहानियां या दूसरी बायोपिक काफी बन रही हैं। जैसे, ‘पान सिंह तोमर’ है जो बहुत रियलिस्टिक होकर एक छोर पर खड़ी है। कहा भी गया कि वो फिल्म सिंगल स्क्रीन तक नहीं पहुंच पाई। आपने कहा कि आप ‘दबंग’ व ‘ओमकारा’ के बीच का रास्ता निकालना चाहते थे, तो सवाल ये है कि क्या प्रस्तुतिकरण में ध्यान रखा कि आपको ‘पान सिंह...’ जितना रियलिस्टिक नहीं होना है?
मुझे ये दिखाना था कि... कि जब मुंबई-दिल्ली में दर्शक 300 रुपये एक टिकट पर खर्चता है तो वह ये देखना चाहता है कि जो मैं नहीं कर सकता न, वो मेरा हीरो करे। मैं वो करना चाहता हूं। रियलिस्टिक अप्रोच का जहां तक सवाल है तो आज मेरी जिदंगी में ब्रेकअप चल रहा है, बॉस से झगड़ा हो रखा है, अफेयर में दिक्कत चल रही है... मेरी लाइफ में जो पंगे चल रहे हैं मुझे वो ही वापस नहीं देखने हैं। मेरे को वो देखना है कि सच्चाई की जीत हो, मेरे को वो देखना है कि बीच रास्ते कोई आ रहा है, छेड़ रहा है, परेशान कर रहा है, तो भईय्या वो आदमी रुकेगा नहीं, वो तो मारेगा। और वो कहीं मेरा अपना जज़्बा है। ये सोचा जाता है कि जनता वो देखना चाहती है जो उनकी लाइफ में घट रहा है मगर मैंने पाया है कि जनता वो नहीं देखना चाहती है। सब उड़कर एक्शन कर रहे हैं, वो तो रियलिस्टिक हैं ही नहीं, मगर उससे पहले जो डायलॉगबाज़ी है, उसे मैंने असल रखने की कोशिश की है। एक्शन देखकर लोगों को मजा आता है, लोगों को लगना चाहिए कि क्या सॉलिड है, मार इसको इसने मेरे साथ गलत किया है, रौंगटे खड़े होंने चाहिए।
इसके अतिरिक्त एंटरटेनमेंट की आपकी परिभाषा क्या है?
गाने हो सकते हैं। वो भी एंटरटेनमेंट ही हैं न। वो कमर्शियल एलिमेंट इतना बढ़िया रखते हैं न कि इस फिल्म का एल्बम आप सुनिए। एक से एक गाने आपको मिलेंगे। एक भी आपको बिना मतलब का नहीं लगेगा। दो बहुत ब्यूटिफुल रोमैंटिक नंबर हैं। अच्छा आइटम सॉन्ग हैं, बिना मतलब के नहीं आकर जाता हैं। टाइटल सॉन्ग ‘ये है जिला गाज़ियाबाद’ वैसे ही हिट हो गया है।
अपराध कथाओं पर इन दिनों काफी फिल्में बन रही हैं, आखिर इनके प्रति इतना इंसानी आकर्षण क्यों होता है, कभी आपने सोचा है?
मुझे लगता है कि ये सिर्फ क्राइम दिखाने की बात नहीं है। क्राइम दिखाते इसलिए हैं क्योंकि मुझे ये बताना है कि राम की ही जीत होगी, रावण की नहीं होगी। मैं क्राइम को फिल्म में इसलिए लेकर आया हूं क्योंकि मैं एक राम की कहानी बना रहा हूं और राम जीतेगा ये बताने के लिए रावण होना चाहिए। और किसी ने भी कभी अपराध वाली फिल्मों की बात की तो उन्हें अपराध देखने में कभी मजा नहीं आया, इसमें आया है कि अपराध का अंत कैसे होता है। आदमी थियेटर से बाहर निकलता है तो वह चौड़े में निकलना चाहता है, यही एक मर्दानगी वाली बात होती है। इस फिल्म के भी आखिर में आप कहेंगे कि यार मजा आ गया, हमारा राम जीता। सच्चाई की जीत के लिए हमें पहले गड़बड़ी तो दिखानी ही होगी।
ये गाज़ियाबाद में हुए गैंगवॉर पर आधारित सच्ची कहानी है?
नहीं, उनकी कहानी नहीं है। मैं जरूरी बात बता रहा हूं इसमें एक रुपये का भी वो तत्व नहीं है। ये मीडिया ने ही कर दिया। ये दरअसल अब एक बायोपिक नहीं रह गई है। इसमें किसी का नाम नहीं यूज किया गया है, कमर्शियल-नॉर्मल फिल्म है जैसे ‘दबंग’ थी। कोई 25 साल पहले गैंगवॉर हुई, तो उस वक्त प्रीतम सिंह बुलंदशहर में था, और यहां पे किसने किसको मारा, सब अलग-अलग थे, यानी कोई कहानी ही नहीं बनती है। मैं कोई दावा नहीं करता कि ये किसी गुर्जर की कहानी है। न ये प्रेरित है, न उनकी जिदंगी का कोई भी अध्याय मैंने उठाया है। आज के जमाने की, आज की कहानी है जिसमें मोबाइल भी है, लैपटॉप भी है, गाड़ी भी है... आज से 20 साल पहले उन्होंने क्या किया, क्या नहीं किया उसे थोड़ा सा भी भुनाने की कोशिश नहीं की है।
अरशद वारसी इसमें एक गुर्जर किरदार को निभा रहे हैं, क्या वो मूलतः उस किरदार के भाव और उच्चारण को पकड़ पाए हैं?
अरशद वारसी एक्टर इतना जबरदस्त है कि आप ये पिक्चर देखने के बाद सर्किट को भूल जाओगे। वो आदमी 14 साल से इंडस्ट्री में है और किसी ने यहां ये नहीं सोचा कि वह विलेन करेगा। मैं उन्हें ऐसे लेकर आया हूं। ट्रेलर आऩे के बाद मुझे कोई चार सौ के करीब मेल आए जिसमें लोगों ने लिखा कि इसमें अरशद वारसी क्या लग रहा है। क्योंकि वो एक्टर हैं और एक्टर से आप जो भी चाहे करवा लो। उन्होंने किरदार ऐसे निभाया है कि डरा के रख देगा।
इतनी लोकप्रियता साउथ के स्टंट डायरेक्टर्स की बॉलीवुड में हो रही है, उसकी वजह क्या है? जैसे कनल कन्नन ने इस फिल्म के स्टंट किए हैं। वो ‘गजिनी’, ‘विजय आईपीएस’ और ‘पोक्किरी राजा’ जैसी बहुत सी फिल्मों के स्टंट कर चुके हैं।
साउथ के एक्शन डायरेक्टर्स हीरोइज़्म बहुत सही तरीके से निकालकर लाते हैं। उनकी फ्रेमिंग लार्जर दैन लाइफ है। वो कैमरा टेक्नीक को जैसे इस्तेमाल करते हैं, हिट करती है। मैंने समझने की कोशिश की है, जैसे वो कैमरा के एंगल यूज करते हैं, कैमरा को घुमाते हैं, उसके साथ ट्रिक्स करते हैं और उनकी टाइमिंग है... सब बड़ा मजेदार है। जैसे, पहले साउथ के एक्शन डायरेक्टर रजनीकांत के साथ जो करते थे वो आज संजय दत्त के साथ किया जाए तो बहुत ही अच्छा लगेगा। अब ताली मारी और ट्रेन रुक गई वैसे तो नहीं करवाएंगे पर सीटी तो मार ही सकते हैं न। वहां के एक्शन मास्टर्स का जो सोचने का तरीका है वो बहुत लार्जर दैन लाइफ है। बॉलीवुड दरअसल बहुत लॉजिकल एक्शन में रहा है। जैसे ‘धूम’ में रहा है। ‘धूम’ में लार्जर दैन लाइफ लगता है, पर वो अंतरंगी नहीं लगता। जैसे इस फिल्म के लिए लोग मुझे कह रहे हैं कि ‘यार सब एक्शन तुम्हारे वायर पर ही किए हैं’। मैं कहता हूं वायर पर ही किए हैं मगर अच्छा तो लग रहा है ना। तो ऐसा ही बहुत बड़ा दिखाने की कोशिश वो करते हैं। एक्टर को भी अच्छा लगता है कि भइय्या उड़-उड़ कर मारें। अब कनल कन्नन का काम देखकर संजय दत्त ने तुरंत पांच फिल्में दे दी हैं। वो ‘शेर’ और ‘पुलिसगिरी’ दोनों में स्टंट संभालेंगे।
आनंद कुमार आगे कैसी कहानियां कहना चाहते हैं, कैसी फिल्में बनाना चाहते हैं?
सात-आठ महीने पहले मैंने एक पिक्चर साइन की थी, उसका शीर्षक ही बड़ा रोचक है, ‘मेरठ जंक्शन’। एक आम लड़के की कहानी है, एक चोर की कहानी है कि कैसे वो बाद में अंडरकवर कॉप बन जाता है। क्लासिक कहानी है। मेरठ की काहनी है। एक और स्क्रिप्ट पर काम कर रहा हूं, ‘देसी कट्टे’। फिलहाल में मिट्टी से जुड़ी और रस्टिक फिल्में करना चाहता हूं। अभी एक दौर भी चल रहा है और मैं दिल्ली से हूं तो इन जगहों पर घूमा हूं, इनसे जुड़ा हुआ हूं।
किस किस्म का साहित्य पढ़ते हैं? कौन सी मैगजीन या उपन्यास पढ़ते हैं?
दरअसल, उतना वक्त मुझे मिलता नहीं है। मैं विज्ञापन फिल्में बीच में करता रहता हूं। पढ़ने के लिए नेट (वेब) पर बहुत वक्त देता हूं। ट्विटर पर बहुत एक्टिव हूं। मेरे दिमाग में इतनी चीजें चलती रहती हैं और ट्विटर पर अपडेट करते करते करते बहुत टाइम बीत जाता है। फिर घर पर जाकर नेट पर अपडेट लेता रहता हूं। नॉवेल में मेरी कोई रुचि नहीं है। अभी दो स्क्रिप्ट पर इतना काम करना पड़ता है मुझे कि वो ही अभी जरूरी है। क्योंकि हर फिल्म के बाद एक फिल्ममेकर को तौर पर आप वहीं खड़े हैं। इतना आसान नहीं कि आपको यूं ही 40 करोड़ रुपये का बजट मिल जाएगा। 200 लोगों का दिमाग एक फिल्म में लगता है, डायरेक्टर भी उन्हीं में से एक है, हालांकि वो कैप्टन जरूर है। लोगों को मनाना, उन्हें लेकर आना, काम शुरू करना... ये अपने आप में बड़ी जद्दोजहद है। मुंबई में रहना, मुंबई की अपनी एक संघर्ष की कहानी है। अब वो टाइम जा चुका है जब मैं आराम से किताब लेकर बैठूं और पढ़ूं। इतनी भागा-दौड़ी और स्ट्रगल है। यहां पता ही नहीं चलता न बॉम्बे में कि कौन कब आता है और उड़ जाता है। कितने नए फिल्ममेकर जा चुके हैं।
व्यस्तता के दौर से पहले जरूर कुछ पढ़ा होगा?
उस दौर में मैंने छह-सात फिल्में लिखीं थी, उसमें सबसे अच्छा टाइम बीता था। नॉवेल तो तब भी नहीं पढ़ पाता था क्योंकि डैड लॉयर थे तो मेरा सारा वक्त धाराएं पढ़ने और याद करने में ही बीत जाता था। बीते साल की फिल्में जो अब भी जेहन में बची हैं? ‘कहानी’ बहुत अच्छी लगी। ‘विकी डोनर’ ने मुझे बहुत प्रेरित किया। इतने छोटे बजट में इतनी बेहतर बनी। ‘राउडी...’ वगैरह तो ‘कालीचरण’ ही थी। इतनी बड़ी फिल्म तो मुझे नहीं लगी थी। ‘तलाश’ बहुत पसंद आई।
हमेशा से पसंद रहे एक्टर?
वैसे चार-पांच एक्टर तो सबके ही फेवरेट होते हैं, मैं भी शाहरुख, आमिर की फिल्मों को मिस नहीं करता था। सलमान भी हैं। उनसे मिलता हूं। सेट पर जाता हूं। मजा आता है। कितना एफर्टलेसली काम करते हैं। संजय दत्त के साथ काम करने का बड़ा ड्रीम था। संजय की हर पिक्चर देखता था। बाबा का स्टाइल ही अलग है। काम किया है विवेक (ओबेरॉय) के साथ, तो लगता है, क्या एक्टर है बंदा। पहले फैन-वैन नहीं था, पर एक्टर के तौर पर शानदार रहे।
क्या लक्ष्य है लाइफ का?
फिल्में बनाता रहूं, आती रहें। प्रॉडक्शन हाउस डालूं। दरअसल मेरे माता-पिता साउथ इंडिया से हैं, मैं दिल्ली में पैदा हुआ व रहा तो वहां की बहुत चीजें आ गईं, मगर अंदर से रहूंगा तो मैं साउथ का ही। साउथ का बहुत प्रभाव है मुझ पर। मैंने एक कंपनी बनाई थी आनंद कुमार प्रॉडक्शंस तो उसके तहत मैं हर साल छह-सात फिल्में बनाना चाहता हूं। बॉम्बे में बैठकर साउथ के लिए फिल्मों में पैसे लगाऊंगा। सब साउथ से फिल्में लाकर रीमेक करते हैं, मैं यहीं बैठकर वहां के लिए फिल्में बनाऊंगा। फिल्में जो न्यू ऐज होगी।
(Anand Kumar is the director of upcoming Hindi movie 'Zilla Ghaziabad', which stars Sanjay Dutt, Arshad Warshi, Vivek Oberoi, Paresh Rawal and many more. He hails from South India but was born and brought up in New Delhi. He made two films earlier, 'Delhi Heights' and 'Jugaad.' His latest offering is releasing on Feb, 22 this year.)
अपने बारे में बताएं, कहां से हैं, फिल्मों के प्रति रुझान कब से बना?
दिल्ली की है पैदाइश और पढ़ाई दोनों। फिल्म जैसे बच्चे देखते हैं वैसे ही देखता था। मैं जरा ज्यादा इंट्रेस्ट लेकर देखता था। दृष्टिकोण अलग था। नशा सा हो गया था, सिनेमा घूमता बहुत ज्यादा था दिमाग में। फिर ऐसा बिंदु आया जब 1991 में राम गोपाल वर्मा की फिल्म ‘शिवा’ लगी। उसने मुझे प्रेरित कर दिया कि मुझे इसी लाइन में जाना है। इससे पहले ये सोचना भी कि इस लाइन में जाना है, अपने आप में अजीब सी बात हो जाती थी। कैसे चले आओगे ? आप फिल्म फैमिली से हो तो ऐसा सोचना समझ आता भी है। लेकिन आप दिल्ली में हो, आपके पिता वकील हैं जिनका कोई लेना-देना नहीं है सिनेमा से, तो मूवी बफ ही हुए न आप। ऐसे लाइफ चल रही थी। मगर मुझे याद है, ‘शिवा’ वो वक्त था जब तय कर लिया कि इसमें ही कुछ करूंगा, मगर ये बात मैंने किसी को बताई नहीं। ऐसे में मैं राइटिंग करने लगा। पांच-छह साल हो गए। पिता वकील हैं तो दो साल मैं लॉ करने चला गया। समझ नहीं आ रहा था, तो उसमें मजा आया नहीं।...
Vivek Oberoi and Anand Kumar, during the shooting of Zilla Ghaziabad. |
... फिर हैदराबाद में एक लोकल संस्थान था, वहां से मास कॉम का कोर्स किया। उसकी वजह से कुछ मिला नहीं, कुछ सीखा नहीं मगर उसकी वजह से मैं स्टूडियोज में बैठा रह पाता था। रामानायडू स्टूडियो, अन्नपूर्णा स्टूडियो जो नागार्जुन का है... इनमें आना-जाना संभव हो गया। 1997-98 की बात कर रहा हूं। गाने, सीन शूट हो रहे हैं और मैं वहा हूं। राइटर के तौर पर विजुअलाइजेशन तो आ रहा था, मैं मेकिंग भी समझ रहा था। ऐसे वक्त निकला और 2002 में मैंने एक डॉक्युमेंट्री शूट की। दिल्ली में। वह डीजे लोगों के ऊपर थी, जिसमें मैं ये बताना चाह रहा था कि ये एक प्रफेशन है और जरूरी प्रफेशन है और एक क्रिएटिव फील्ड है। मैं उसे कर रहा था और उसी दौरान मीडिया डॉक्युमेंट्री के बारे में लिखने लगा। उसे प्रदर्शित किया तो मीडिया ने बहुत अच्छा लिखा और तुरंत दिल्ली में मुझे एड फिल्में और वीडियो मिलने लगे। तब वीडियो और रीमिक्स का दौर था। मैं इनमें बहुत बिजी हो गया। पैसे कमाने का मेरा जरिया भी सही बैठ गया और एक निर्देशक के तौर पर भी मुझे सही जगह मिल गई। मैं बहुत संतुष्ट हुआ। उस समय जो पिक्चरें लिख रहा था, उनमें पहली थी ‘डेली हाइट्स’। 2006 में शिवाजी गणेशन प्रॉड्श्ईन के लोग मुझे मिले, साउथ में ये बहुत बड़ी फिल्म निर्माण कंपनी है। मैंने उन्हें कहानी सुनाई, उन्होंने सुनी। फिल्म मार्च, 2007 में रिलीज हुई। वहां से फिर फिल्मों में यात्रा शुरू हुई और 2007 में मैं मुंबई आ गया। तब तक मैं दिल्ली में ही था। फिर दिल्ली के एक प्रॉड्यूसर ने मुझे ‘जुगाड़’ फिल्म के लिए साइन किया। ये मेरी दूसरी फिल्म हो गई। मगर उस वक्त ‘बिल्लू’ (शाहरुख, इरफान) के बराबर में रिलीज हुई थी तो मेरी फिल्म का पता ही नहीं चला। आई और गई।
वहां से दिमाग में आया कि जब तक मैं कमर्शियल एलिमेंट की फिल्में नहीं बनाता तब तक नहीं होगा। कहीं मेरी सोच गलत है। उस वक्त ‘दिल चाहता है’ जैसी फिल्में आईं थी तो हम जैसे यंग निर्देशकों को भी मौका मिलने लग गया, कि एक नया दौर आ गया सिनेमा का जहां यंग लड़के बनाएंगे फिल्में। नहीं तो पहले क्या था कि हमें पूछते भी नहीं थे। कहते थे, ‘ये क्या पिक्चर बनाएगा लड़का’। तो तब लोग एक्सपेरिमेंट करने को तैयार थे। पर पहले जो मैं सोचता था कि रियलिस्टिक सिनेमा बनाऊंगा, मेरी उस बात में दम नहीं था। जैसे ‘लाइफ इन अ मेट्रो’, ‘डेली हाइट्स’ हैं... ऐसी फिल्मों का एक सीमित ऑडियंस है। मैट्रो कल्चर में जो लोग जिए हैं वो ही लोग देखते हैं। सिंगल थियेटर में तो वो पिक्चरें जाती भी नहीं हैं। लोगों को पता भी नहीं चलता और ऑडियंस हमारी वहीं हैं। मैंने 2009 के बाद थोड़ा सा ये तय किया, बैठकर, आराम से, कि मैं लार्जर दैन लाइफ फिल्में करूंगा। और वो फिल्में करनी हैं जो लोगों को दिखे और उन्हें मजा आए।
‘जिला गाज़ियाबाद’ का जन्म कब हुआ, कैसे हुआ?
मैं एक बार गाज़ियाबाद गया हुआ था। वहां रेलवे स्टेशन का बोर्ड देखा ‘जिला गाज़ियाबाद’। वो जैसे मेरे सामने कौंधा, उसे देख मैं बड़ा उत्साहित हुआ और मैंने वो टाइटल रजिस्टर करवा लिया। तब मेरे पास कहानी नहीं थी, महज शीर्षक था। मुझे वहां गाज़ियाबाद के नेता हैं मनोज शर्मा, उन्होंने विनय शर्मा (जिला गाज़ियाबाद के राइटर) से मिलवाया। उन्होंने कहा कि ये टाइटल इतना भारी और भरकम है आनंद कि इसमें एक गैंगवॉर की अच्छी कहानी बैठती है। आपको मजा आएगा आप सुनो। ऐसे मैं विनय से मिला 2010, सितंबर में। वहां से ‘जिला गाज़ियाबाद’ की यात्रा शुरू होती है। बैठकर हम लोग काम करने लगे, विनय ने बहुत बढ़िया कहानी लिखी। जनवरी, 2011 में विनोद बच्चन ने सौंदर्या प्रॉडक्शन में मुझे इस फिल्म के लिए साइन किया। वहां से औपचारिक नींव रखी गई। एक्टर साइन हुए। अरशद से पहले ही बात हो चुकी थी। उन्होंने ही मुझे प्रॉड्यूसर से मिलवाया था। फिल्म लिखते वक्त हमें इतना पता था कि अरशद को विलेन लेना है। ये मेरी एक खास ख़्वाहिश थी। आपने अगर प्रोमो देखा होगा तो उसमें पता चला होगा कि अरशद बुरे किरदार को निभा रहे हैं। ऐसे अरशद आए और उन्होंने ही हमें सारे एक्टर्स से मिलवाया। मैं इतना बड़ा नाम नहीं था तो मेरे को अरशद भाई ने बहुत मदद की। उन्होंने संजय दत्त साहब के पास भेजा, विवेक ओबेरॉय के पास भेजा, रवि किशन को जानता था, परेश रावल से मिलवाया। धीरे-धीरे मेरी एक ड्रीम कास्ट बनती चली गई। 14 जुलाई, 2011 से हमने शूटिंग शुरू की।
अब जब बन चुकी है फिल्म तो क्या जैसे कल्पना की थी वैसे ही बनी है, कितना खुश हैं?
मैं इतना संतुष्ट हूं कि क्या कहूं। इतने सारे एक्टर्स ने बिना बाधाओं के फिल्म पूरी करवा दी। फिल्म की पहली झलकियां देख आप जान गए होंगे कि विजुअली कितनी लार्जर दैन लाइफ हो गई है। जो कि मेरी फिल्में नहीं थीं। ये संतुष्टि है और दूसरा ये कि मैं मुख्यधारा के सिनेमा में भी आ पाया हूं।
स्क्रिप्ट आपने और विनय ने साथ लिखी?
नहीं, ये पूरी तरह से विनय की ही लिखी गई है। हम दोनों साथ तो बैठते थे पर ये पूरी तरह उसका विजन है। क्योंकि वो गाज़ियाबाद से ही है और वहां की रौनक लाना चाहता था तो पूरी आजादी दी मैंने। स्टोरी, स्क्रीनप्ले, डायलॉग तीनों उसके हैं।
ट्रेलर में जैसे नजर आता है कि लार्जर दैन लाइफ है, स्टंट ओवरपावररिंग हैं, लेकिन क्या फिल्म में गाज़ियाबाद के सामाजिक और राजनीतिक पहलू भी हैं? क्या बतौर निर्देशक कहानी में आपने असल इमोशन और दूसरा जीवन डाला है? क्योंकि हमें ट्रेलर में तो सिर्फ स्टंट और एक्शन ही दिखता है। फिल्म में बस यही तो यही नहीं है न?
देखिए, ट्रेलर को यूं लाना तो एक तरह से... पिक्चर गर्म करने के लिए ये सब करना पड़ता है। दूसरा ट्रेलर में हमने ये झलकाने की कोशिश की है कि पिक्चर हमने इस स्केल पर शूट की है। इसमें हमने स्टोरी नरेशन नहीं दिखाया है। हां, नरेशन का थोड़ा बहुत आइडिया लग रहा है। कहानी पता चल रही है कि अरशद और विवेक ओबेरॉय के किरदार गैंगस्टर हैं। संजय दत्त पुलिस ऑफिसर हैं, अलग से पुलिसवाले लग रहे हैं। फिल्म बनाते वक्त मेरी कोशिश ये थी कि ‘ओमकारा’ और ‘दबंग’ के बीच का रास्ता निकालना है। जो कि बहुत रियलिस्टिक भी है और कमर्शियल एलिमेंट भी है। वो आपको मिलेगा बिल्कुल, ये नहीं है कि फिल्म यूं ही चल रही है, कहीं भी, कुछ भी आ गया। अगर इसमें आइटम सॉन्ग भी आता है तो उसके शब्द ऐसे हैं कि कहानी को आगे लेकर जाते हैं। मैंने बिना मुद्दे के इसमें कुछ भी नहीं डाला है।
इन दिनों गैंगस्टर्स की कहानियां या दूसरी बायोपिक काफी बन रही हैं। जैसे, ‘पान सिंह तोमर’ है जो बहुत रियलिस्टिक होकर एक छोर पर खड़ी है। कहा भी गया कि वो फिल्म सिंगल स्क्रीन तक नहीं पहुंच पाई। आपने कहा कि आप ‘दबंग’ व ‘ओमकारा’ के बीच का रास्ता निकालना चाहते थे, तो सवाल ये है कि क्या प्रस्तुतिकरण में ध्यान रखा कि आपको ‘पान सिंह...’ जितना रियलिस्टिक नहीं होना है?
मुझे ये दिखाना था कि... कि जब मुंबई-दिल्ली में दर्शक 300 रुपये एक टिकट पर खर्चता है तो वह ये देखना चाहता है कि जो मैं नहीं कर सकता न, वो मेरा हीरो करे। मैं वो करना चाहता हूं। रियलिस्टिक अप्रोच का जहां तक सवाल है तो आज मेरी जिदंगी में ब्रेकअप चल रहा है, बॉस से झगड़ा हो रखा है, अफेयर में दिक्कत चल रही है... मेरी लाइफ में जो पंगे चल रहे हैं मुझे वो ही वापस नहीं देखने हैं। मेरे को वो देखना है कि सच्चाई की जीत हो, मेरे को वो देखना है कि बीच रास्ते कोई आ रहा है, छेड़ रहा है, परेशान कर रहा है, तो भईय्या वो आदमी रुकेगा नहीं, वो तो मारेगा। और वो कहीं मेरा अपना जज़्बा है। ये सोचा जाता है कि जनता वो देखना चाहती है जो उनकी लाइफ में घट रहा है मगर मैंने पाया है कि जनता वो नहीं देखना चाहती है। सब उड़कर एक्शन कर रहे हैं, वो तो रियलिस्टिक हैं ही नहीं, मगर उससे पहले जो डायलॉगबाज़ी है, उसे मैंने असल रखने की कोशिश की है। एक्शन देखकर लोगों को मजा आता है, लोगों को लगना चाहिए कि क्या सॉलिड है, मार इसको इसने मेरे साथ गलत किया है, रौंगटे खड़े होंने चाहिए।
इसके अतिरिक्त एंटरटेनमेंट की आपकी परिभाषा क्या है?
गाने हो सकते हैं। वो भी एंटरटेनमेंट ही हैं न। वो कमर्शियल एलिमेंट इतना बढ़िया रखते हैं न कि इस फिल्म का एल्बम आप सुनिए। एक से एक गाने आपको मिलेंगे। एक भी आपको बिना मतलब का नहीं लगेगा। दो बहुत ब्यूटिफुल रोमैंटिक नंबर हैं। अच्छा आइटम सॉन्ग हैं, बिना मतलब के नहीं आकर जाता हैं। टाइटल सॉन्ग ‘ये है जिला गाज़ियाबाद’ वैसे ही हिट हो गया है।
अपराध कथाओं पर इन दिनों काफी फिल्में बन रही हैं, आखिर इनके प्रति इतना इंसानी आकर्षण क्यों होता है, कभी आपने सोचा है?
मुझे लगता है कि ये सिर्फ क्राइम दिखाने की बात नहीं है। क्राइम दिखाते इसलिए हैं क्योंकि मुझे ये बताना है कि राम की ही जीत होगी, रावण की नहीं होगी। मैं क्राइम को फिल्म में इसलिए लेकर आया हूं क्योंकि मैं एक राम की कहानी बना रहा हूं और राम जीतेगा ये बताने के लिए रावण होना चाहिए। और किसी ने भी कभी अपराध वाली फिल्मों की बात की तो उन्हें अपराध देखने में कभी मजा नहीं आया, इसमें आया है कि अपराध का अंत कैसे होता है। आदमी थियेटर से बाहर निकलता है तो वह चौड़े में निकलना चाहता है, यही एक मर्दानगी वाली बात होती है। इस फिल्म के भी आखिर में आप कहेंगे कि यार मजा आ गया, हमारा राम जीता। सच्चाई की जीत के लिए हमें पहले गड़बड़ी तो दिखानी ही होगी।
ये गाज़ियाबाद में हुए गैंगवॉर पर आधारित सच्ची कहानी है?
नहीं, उनकी कहानी नहीं है। मैं जरूरी बात बता रहा हूं इसमें एक रुपये का भी वो तत्व नहीं है। ये मीडिया ने ही कर दिया। ये दरअसल अब एक बायोपिक नहीं रह गई है। इसमें किसी का नाम नहीं यूज किया गया है, कमर्शियल-नॉर्मल फिल्म है जैसे ‘दबंग’ थी। कोई 25 साल पहले गैंगवॉर हुई, तो उस वक्त प्रीतम सिंह बुलंदशहर में था, और यहां पे किसने किसको मारा, सब अलग-अलग थे, यानी कोई कहानी ही नहीं बनती है। मैं कोई दावा नहीं करता कि ये किसी गुर्जर की कहानी है। न ये प्रेरित है, न उनकी जिदंगी का कोई भी अध्याय मैंने उठाया है। आज के जमाने की, आज की कहानी है जिसमें मोबाइल भी है, लैपटॉप भी है, गाड़ी भी है... आज से 20 साल पहले उन्होंने क्या किया, क्या नहीं किया उसे थोड़ा सा भी भुनाने की कोशिश नहीं की है।
अरशद वारसी इसमें एक गुर्जर किरदार को निभा रहे हैं, क्या वो मूलतः उस किरदार के भाव और उच्चारण को पकड़ पाए हैं?
अरशद वारसी एक्टर इतना जबरदस्त है कि आप ये पिक्चर देखने के बाद सर्किट को भूल जाओगे। वो आदमी 14 साल से इंडस्ट्री में है और किसी ने यहां ये नहीं सोचा कि वह विलेन करेगा। मैं उन्हें ऐसे लेकर आया हूं। ट्रेलर आऩे के बाद मुझे कोई चार सौ के करीब मेल आए जिसमें लोगों ने लिखा कि इसमें अरशद वारसी क्या लग रहा है। क्योंकि वो एक्टर हैं और एक्टर से आप जो भी चाहे करवा लो। उन्होंने किरदार ऐसे निभाया है कि डरा के रख देगा।
इतनी लोकप्रियता साउथ के स्टंट डायरेक्टर्स की बॉलीवुड में हो रही है, उसकी वजह क्या है? जैसे कनल कन्नन ने इस फिल्म के स्टंट किए हैं। वो ‘गजिनी’, ‘विजय आईपीएस’ और ‘पोक्किरी राजा’ जैसी बहुत सी फिल्मों के स्टंट कर चुके हैं।
साउथ के एक्शन डायरेक्टर्स हीरोइज़्म बहुत सही तरीके से निकालकर लाते हैं। उनकी फ्रेमिंग लार्जर दैन लाइफ है। वो कैमरा टेक्नीक को जैसे इस्तेमाल करते हैं, हिट करती है। मैंने समझने की कोशिश की है, जैसे वो कैमरा के एंगल यूज करते हैं, कैमरा को घुमाते हैं, उसके साथ ट्रिक्स करते हैं और उनकी टाइमिंग है... सब बड़ा मजेदार है। जैसे, पहले साउथ के एक्शन डायरेक्टर रजनीकांत के साथ जो करते थे वो आज संजय दत्त के साथ किया जाए तो बहुत ही अच्छा लगेगा। अब ताली मारी और ट्रेन रुक गई वैसे तो नहीं करवाएंगे पर सीटी तो मार ही सकते हैं न। वहां के एक्शन मास्टर्स का जो सोचने का तरीका है वो बहुत लार्जर दैन लाइफ है। बॉलीवुड दरअसल बहुत लॉजिकल एक्शन में रहा है। जैसे ‘धूम’ में रहा है। ‘धूम’ में लार्जर दैन लाइफ लगता है, पर वो अंतरंगी नहीं लगता। जैसे इस फिल्म के लिए लोग मुझे कह रहे हैं कि ‘यार सब एक्शन तुम्हारे वायर पर ही किए हैं’। मैं कहता हूं वायर पर ही किए हैं मगर अच्छा तो लग रहा है ना। तो ऐसा ही बहुत बड़ा दिखाने की कोशिश वो करते हैं। एक्टर को भी अच्छा लगता है कि भइय्या उड़-उड़ कर मारें। अब कनल कन्नन का काम देखकर संजय दत्त ने तुरंत पांच फिल्में दे दी हैं। वो ‘शेर’ और ‘पुलिसगिरी’ दोनों में स्टंट संभालेंगे।
Sanjay Dutt, in a still from the movie. |
आनंद कुमार आगे कैसी कहानियां कहना चाहते हैं, कैसी फिल्में बनाना चाहते हैं?
सात-आठ महीने पहले मैंने एक पिक्चर साइन की थी, उसका शीर्षक ही बड़ा रोचक है, ‘मेरठ जंक्शन’। एक आम लड़के की कहानी है, एक चोर की कहानी है कि कैसे वो बाद में अंडरकवर कॉप बन जाता है। क्लासिक कहानी है। मेरठ की काहनी है। एक और स्क्रिप्ट पर काम कर रहा हूं, ‘देसी कट्टे’। फिलहाल में मिट्टी से जुड़ी और रस्टिक फिल्में करना चाहता हूं। अभी एक दौर भी चल रहा है और मैं दिल्ली से हूं तो इन जगहों पर घूमा हूं, इनसे जुड़ा हुआ हूं।
किस किस्म का साहित्य पढ़ते हैं? कौन सी मैगजीन या उपन्यास पढ़ते हैं?
दरअसल, उतना वक्त मुझे मिलता नहीं है। मैं विज्ञापन फिल्में बीच में करता रहता हूं। पढ़ने के लिए नेट (वेब) पर बहुत वक्त देता हूं। ट्विटर पर बहुत एक्टिव हूं। मेरे दिमाग में इतनी चीजें चलती रहती हैं और ट्विटर पर अपडेट करते करते करते बहुत टाइम बीत जाता है। फिर घर पर जाकर नेट पर अपडेट लेता रहता हूं। नॉवेल में मेरी कोई रुचि नहीं है। अभी दो स्क्रिप्ट पर इतना काम करना पड़ता है मुझे कि वो ही अभी जरूरी है। क्योंकि हर फिल्म के बाद एक फिल्ममेकर को तौर पर आप वहीं खड़े हैं। इतना आसान नहीं कि आपको यूं ही 40 करोड़ रुपये का बजट मिल जाएगा। 200 लोगों का दिमाग एक फिल्म में लगता है, डायरेक्टर भी उन्हीं में से एक है, हालांकि वो कैप्टन जरूर है। लोगों को मनाना, उन्हें लेकर आना, काम शुरू करना... ये अपने आप में बड़ी जद्दोजहद है। मुंबई में रहना, मुंबई की अपनी एक संघर्ष की कहानी है। अब वो टाइम जा चुका है जब मैं आराम से किताब लेकर बैठूं और पढ़ूं। इतनी भागा-दौड़ी और स्ट्रगल है। यहां पता ही नहीं चलता न बॉम्बे में कि कौन कब आता है और उड़ जाता है। कितने नए फिल्ममेकर जा चुके हैं।
व्यस्तता के दौर से पहले जरूर कुछ पढ़ा होगा?
उस दौर में मैंने छह-सात फिल्में लिखीं थी, उसमें सबसे अच्छा टाइम बीता था। नॉवेल तो तब भी नहीं पढ़ पाता था क्योंकि डैड लॉयर थे तो मेरा सारा वक्त धाराएं पढ़ने और याद करने में ही बीत जाता था। बीते साल की फिल्में जो अब भी जेहन में बची हैं? ‘कहानी’ बहुत अच्छी लगी। ‘विकी डोनर’ ने मुझे बहुत प्रेरित किया। इतने छोटे बजट में इतनी बेहतर बनी। ‘राउडी...’ वगैरह तो ‘कालीचरण’ ही थी। इतनी बड़ी फिल्म तो मुझे नहीं लगी थी। ‘तलाश’ बहुत पसंद आई।
हमेशा से पसंद रहे एक्टर?
वैसे चार-पांच एक्टर तो सबके ही फेवरेट होते हैं, मैं भी शाहरुख, आमिर की फिल्मों को मिस नहीं करता था। सलमान भी हैं। उनसे मिलता हूं। सेट पर जाता हूं। मजा आता है। कितना एफर्टलेसली काम करते हैं। संजय दत्त के साथ काम करने का बड़ा ड्रीम था। संजय की हर पिक्चर देखता था। बाबा का स्टाइल ही अलग है। काम किया है विवेक (ओबेरॉय) के साथ, तो लगता है, क्या एक्टर है बंदा। पहले फैन-वैन नहीं था, पर एक्टर के तौर पर शानदार रहे।
क्या लक्ष्य है लाइफ का?
फिल्में बनाता रहूं, आती रहें। प्रॉडक्शन हाउस डालूं। दरअसल मेरे माता-पिता साउथ इंडिया से हैं, मैं दिल्ली में पैदा हुआ व रहा तो वहां की बहुत चीजें आ गईं, मगर अंदर से रहूंगा तो मैं साउथ का ही। साउथ का बहुत प्रभाव है मुझ पर। मैंने एक कंपनी बनाई थी आनंद कुमार प्रॉडक्शंस तो उसके तहत मैं हर साल छह-सात फिल्में बनाना चाहता हूं। बॉम्बे में बैठकर साउथ के लिए फिल्मों में पैसे लगाऊंगा। सब साउथ से फिल्में लाकर रीमेक करते हैं, मैं यहीं बैठकर वहां के लिए फिल्में बनाऊंगा। फिल्में जो न्यू ऐज होगी।
(Anand Kumar is the director of upcoming Hindi movie 'Zilla Ghaziabad', which stars Sanjay Dutt, Arshad Warshi, Vivek Oberoi, Paresh Rawal and many more. He hails from South India but was born and brought up in New Delhi. He made two films earlier, 'Delhi Heights' and 'Jugaad.' His latest offering is releasing on Feb, 22 this year.)
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