फिल्म: घोस्ट
निर्देशक: पूजा जतिंदर बेदीकास्ट: शाइनी आहूजा, सयाली भगत, जूलिया ब्लिस, दीपराज राणा, तेज सप्रू
स्टार: एक, 1.0

तो हॉरर के मामले में जितनी चीजों की जरूरत होती है वह तो इसमें थी। बावजूद इसके मैं कहूंगा कि आने वाले दस साल में नई पीढ़ी इस फिल्म के खून-मांस को देखकर डरेगी कम और हंसेगी ज्यादा। हंसने का जहां तक सवाल है तो कहना चाहूंगा कि इस शहर में रात के आखिरी शो में किसी फिल्ममेकर को कोई सीरियस फिल्म नहीं रिलीज करनी चाहिए। क्योंकि उस वक्त मुंडे पूरी तरह हंसी के मूड में होते हैं। हर खौफ के वक्त वो कमेंट करते हैं, हंसते हैं और हंसाते हैं। एक इस कोने से बोलता है तो दूसरा दूसरे कोने से। पर इसकी एक वजह फिल्म का बड़ा कमजोर डायरेक्शन और स्क्रिप्ट रही। शुरू से लेकर आखिर तक सबकुछ बेतरतीब है। कौन भूत है? वह क्या चाहता है? डरें भूत से या फिल्म में दिखाए जा रहे मांस के लोथड़ों से? डिटैक्टिव विजय सिंह बने शाइनी आहूजा और डॉ. सुहानी बनी सयाली भगत एक सीन में घोस्ट पर सीरियस बातें कर रहे होते हैं तो अगले सीन में क्रूज पर और डिस्को में घटिया कोरियाग्रफी से भरा नाच नाच रहे होते हैं। शाइनी के लिए इस फिल्म में करने को कुछ नहीं था, तो उनके होने से फिल्म में कोई फर्क नहीं पड़ता है।
फिल्म के शुरू में सयाली को नए अस्पताल के कॉरिडोर में भटकते देख सबका ध्यान उसकी छोटी सी ड्रेस पर ही जाता है। अचरज होता है कि भला अस्पताल में ऐसे कपड़े पहनकर आने का क्या तुक। खैर, तुक की तो आप बात न ही करें। क्योंकि कहीं कोई किसी बात का तुक नहीं है। डायलॉग इतने घिसे-पिटे कि म्यूट करके देखें तो ज्यादा ठीक। म्यूजिक डायरेक्टर और सिंगर तोषी साबरी के गाने सुनकर लगता है कि भट्ट कैंप की फिल्मों के गाने सुन रहे हैं। पूरे दो घंटे ऐसे हैं जैसे किसी ने एक हॉरर फिल्म बनाने के लिए कच्चा माल जमा किया था और उसे एडिट करना और दिशा देना भूल गया। जाहिर बात है फिल्म को नहीं देखेंगे तो कुछ मिस नहीं करेंगे।
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गजेंद्र सिंह भाटी