फिल्मः एजेंट विनोद
निर्देशकः श्रीराम राघवन
कास्टः सैफ अली खान, करीना कपूर, प्रेम चोपड़ा, रवि किशन, राम कपूर, धृतिमान चैटर्जी, बी.पी.सिंह, आदिल हुसैन, आयुष्मान सिंह, जाकिर हुसैन
स्टारः ढाई, 2.5
ध्यानः फिल्म अगर नहीं देखी है, तो पहले देख लें, क्योंकि कहानी के कुछ मोड़ यहां जाहिर किए हैं
इरम परवीन बिलाल (करीना) रो रही है। उसके साथ रिसर्च एंड एनेलिसिस विंग (रॉ) का एजेंट विनोद (सैफ) है। वह पूछता है तो इरम आंसूओं के बीच कहती है, कि वह भी वो नहीं बनना चाहती थी जो नियति ने उसे बना दिया है। अब वह पाकिस्तान में अपने घर तक लौटकर नहीं जा सकती। उस पर ब्रिटेन में बॉम्ब ब्लास्ट करने और दर्जनों निर्दोष लोगों की हत्या करने का इल्जाम है जो उसने किया ही नहीं। विनोद उसके पास बैठकर सुनता है, फिर कहने लगता है, “बचपन में मैं भी कुछ और बनना चाहता था। पर एक बार रस्सी वाले कैबिन में हम कहीं जा रहे थे, तभी कुछ गड़बड़ हुई और झूला बहुत मीटर ऊपर हवा में ही झूल गया। फिर थोड़ी देर में मैंने केबल पकड़ रखी थी, और हवा में लटक रहा था। उन आठ मिनटों ने मेरी जिंदगी बदल दी। प्रेसिडेंट वेंकटरमन ने मुझे मेडल दिया। मैं जिंदगी और मौत के बीच फिर से जाना चाहता हूं। मैं आज भी उस केबल पर हूं।”
दरअसल एक बॉन्डनुमा फिल्म के बॉन्ड या कहें कि एजेंट से हमें यही उम्मीद होती भी है कि वो जिंदगी और मौत के बीच उस एडवेंचर भरे शून्य में जाए, बार-बार जाए, कुछ यूं जाए और निर्देशक भी उसे कुछ इस शैली में ले जाए कि हमें आनंद ही आनंद आए। खुशी की बात है कि निर्देशक श्रीराम राघवन को इस चीज का एहसास भी था कि जिंदगी और मौत के बीच का वो शून्य जरूरी है। पर दुख ये है कि वो शून्य और वो स्पेस फिल्म में सिद्ध तरीके से नहीं नजर आता। इसकी वजहें कई हैं। पहली तो ये कि एजेंट विनोद दिखने में भले ही सुंदर, रईसी के आलम वाले कपड़े पहनने वाला, कुछ हाजिर जवाब और हंसोड़ है, पर स्मार्ट नहीं है। यानि शतरंज की बाजी समझने वाला और यूं ही चलते-चलते उन्हें खेल जाने वाला नहीं है। उससे ज्यादा चालाक और शतरंज के खिलाड़ी सा हीरो तो 2010 में ही आई तमिल फिल्म ‘रगड़ा’ का सत्या (नागार्जुन) है। सत्या गुंडों को हर पल हैरत में डालता रहता है। चकमा देने वालों को लगता है कि हमने उससे इतने करोड़ रुपये ठग लिए या किसी लड़की को लगता है कि उसने इमोशनल कहानी बनाकर सत्या के जरिए अपने भाई को खूंखार गुंडों के अड्डे से छुड़वा लिया, या किसी को लगता है कि उसकी बहन का अपहरण कर लिया है, अब उसे आना ही होगा। पर तब तक सत्या सौ मौहरे चल चुका होता है। वो करोड़ों रुपये उससे ठगे नहीं गए होते हैं, लड़की के भाई को उसने जानबूझकर अपने बड़े प्लैन के तहत छुड़वाया होता है और उसकी बहन को जिसने किडनैप करवाया होता है वो उसी के घर पहले ही बैठा होता है और उसकी कपकपी छुड़वाकर जाता है। कहानियों के पीछे इतनी कहानियां ये किरदार बनाता है कि दर्शक को उस पर फक्र होता है। सत्या चीजों को इतनी बारीकी से ऑब्जर्व करके चलता है कि अगले हजार कदमों के बाद क्या होगा उसने तय कर लिया होता है।
हमारा विनोद ऐसा नहीं है। आखिर में परमाणु बम को निष्क्रिय कर पाना उसके लिए इतना कठिन हो जाता है कि वह तुरंत हैलीकॉप्टर ले अपनी जान देने के दिल्ली के बाहर एक सूनसान फैक्ट्री की और उड़ चलता है। उसे कामयाबी मिलती है तो तब, जब जान देने से पहले इरम उसे कोड बताती है। सत्या सब अपने बूते करता है, कुछ भी दूसरे के बूते नहीं। एजेंट विनोद में वैसे तो सब कुछ है। अफगानिस्तान, मोरक्को, रूस, लंदन, केपटाउन, कराची, लंदन और नई दिल्ली की सुंदर लोकेशंस में घूमती ट्विस्ट भरी कहानी। क्रेडिट्स में आता सैफ के फनी डांस वाला फनी गाना 'प्यार की पुंगी बजा कर’ और कराची में एक दुल्हन सी सजी शानदार इमारत में करीना का मीठे लबों वाला मुजरा, 'यूं तो प्रेमी पचहत्तर हमारे, ले जा तू कर सतहत्तर इशारे, दिल मेरा मुफ्त का। ' फिल्म को श्रीराम राघवन जैसा निर्देशक भी मिला, जो पश्चिमी टोन वाली एक बॉन्ड फिल्म को अपनी तौर-तरीकों से इंडियन आत्मा देने की असफल कोशिश करता है। उनका एजेंट मुश्किल मौकों में महेंद्र संधू (1977 में आई फिल्म एजेंट विनोद में एजेंट विनोद बने थे एक्टर महेंद्र संधू, उसी फिल्म पर नई एजेंट विनोद का नाम रखा गया है) और विनोद खन्ना नाम के इंसानों की कहानियां गढ़कर उलझाता है। कुछ सीन में पृष्ठभूमि में हिंदी फिल्मों के क्लासिक गाने चलते हैं, स्थिति को अलबेली बनाते हैं। और भी कई चीजें हैं, पर फिल्म आनंद नहीं देती। खत्म होने के बाद आप खाली-खाली महसूस करते हैं। इसकी दूसरी वजह है स्क्रिप्ट में जरूरत से ज्यादा विदेशी लोकेशंस और पिछली एजेंट मूवीज की अच्छी चीजें डालने के कोशिश से उपजी टूटन।
फिल्म के पहले ही सीन में आप किसी मौत की घाटी में प्रवेश करते हैं। सूनसान रेगिस्तान में अफगानिस्तान में कहीं चिलचिलाती मूक धूप में चिल्लाती चीलों सा परिदृश्य है। गैर-आबादी वाले इस बियाबान में तीन-चार बगदादी फटेहाल सी दुकानें हैं। उनसे गुजरकर आता है एक लोहे का दरवाजा, जहां पत्थर चुनी दीवारों पर ओसामा बिन लादेन से दिखने वाले किसी शख्स का चित्र बनाया गया है। लगता है, अंदर कोई लश्कर-ए-तैयबा या दूसरे आतंकी गुट का कैंप है। पर भीतर तो जनरल लोखा (शाहबाज खान) है, जिसने विनोद को यहां कैद कर रखा। यहां मुझे 2002 में आई ‘डाय अनादर डे’ के एजेंट 007 (पीयर्स ब्रॉसनन) की याद आ गई। उन्हें भी कुछ यूं ही (या फिर हमारे एजेंट विनोद को इनकी तरह) उत्तर कोरियाई जनरल मून बंधक बना लेता है। और, 14 महीने बाद एक दूसरे कैदी के बदले छोड़ा जाता है। यहां एजेंट विनोद में भी विनोद को छुड़ाने मेजर राजन (रवि किशन) भेजा गया है। ठीक जैसे हालिया ‘मिशन इम्पॉसिबल घोस्ट प्रोटोकॉल’ में ईथन हंट को मॉस्को की जेल से छुड़ाने के लिए दूसरे एजेंट भेजे जाते हैं। खैर, ये समानताएं तो भारी मात्रा में आती रहेंगी। ये बॉन्ड, एजेंट और बॉर्न वाली तमाम कहानियां एजेंट विनोद में यूं ही समानांतर चलती है। इसमें कोई नई बात भी नहीं क्योंकि फिल्म से पहले प्रोड्यूसर सैफ अली खान और निर्देशक श्रीराम राघवन दोनों स्वीकार भी कर चुके हैं कि सारे जाने पहचाने संदर्भ मिलेंगे। हां, बस ढूंढने वाला चाहिए।
तो विनोद और राजन दोनों यहां से भाग छूटते हैं। राजन मोरक्को में अबु नाजर (राम कपूर) के पीछे किसी दूसरे मिशन में लग जाता है और विनोद अपने काम में। जब राजन मारा जाता है तो रॉ चीफ हसन नवाज (बी.पी.सिंह) विनोद को बुलाता है। ठीक वैसे ही जैसे ब्रिटिश सीक्रेट इंटेलिजेंस सर्विस की प्रमुख एम (हमारे रेफरेंस में जूडी डेंच वाली फिल्में) 007 को बुलाती रहती हैं। किसी दूसरे मिशन के बारे में बताने के लिए। तो अब एजेंट विनोद को राजन की हत्या के कारणों और उसके केस में जुटाए गए राज पता करने का मिशन सौंपा जाता है। हल्के फुल्के बिना किसी टेंशन देने वाले अंदाज में विनोद मोरक्को जाता है। जहां वह पहले अबु नाजर को पकड़ता है। वहां से किसी कोड 242 का पता चलता है। जो उसे मोरक्कन ड्रग डीलर डेविड कजान (प्रेम चोपड़ा उन पुराने अदाकारों में से हैं जिन्हें आप कोई भी रोल देंगे तो वो पूरी आश्वस्ति के साथ निभाएंगे। जैसे, कि रॉकेट सिंह सेल्समैन ऑफ द ईयर में उनका हरप्रीत बने रणबीर के दादा पी.एस.बेदी का किरदार निभाना। यहां भी वो अपने ऊंट को गोली मारकर रोते हैं। इस उम्र में भी इतनी सारी फिल्में कर चुकने के बाद किसी महात्वाकांक्षी एक्टर की तरह अच्छे से रोते हैं।) और उसकी पर्सनल डॉक्टर रूबी (करीना) तक ले जाता है। खैर, तो हम स्टोरी में ज्यादा भीतर तक नहीं जाएंगे। ये सब कुछ पटकथा में मनोरंजन के लिहाज से चलता रहता है। सैफ का गनफायर करना और हाथ-पांव चलाना तो ठीक है, और वैसे भी ये स्टायलाइज्ड सीन इतने आम हो चुके हैं कि साउथ की फिल्मों में, हिंदी फिल्मों में (ताजा-ताजा देखें तो डॉन-2 और रा. वन) और अमेरिकी फिल्मों में कि देखकर कुछ समझ नहीं आता, बस सिनेमाघर में हम जितनी देर होते हैं, बस उतनी ही देर फालूदे की तरह हमारा दिमाग घुलता रहता है। कहां, क्या, सोचें, करें, चखे या समझे... कुछ पल्ले नहीं पड़ता। हम हिंदी फिल्मों को किसी ‘जॉन कार्टर’ जैसी अमेरिकी थ्रीडी फिल्म की ओर पहुंचाने वाली कच्ची पगडंडी पर चलते देख रहे हैं। वहां पहुंच भी जाएंगे, तो किसी सालों पीछे पगडंडी पर खड़ी एजेंट विनोद को देखने जितना मजा ही आएगा।
तो इस फिल्म में सबकुछ रखने की कोशिश की गई है पर वो सिलसिलेवार या एक-दूसरे से जुड़ा नहीं लगता। यहां याद आती है किसी भावुक पड़ाव की। करीना के किरदार की जिदंगी में जितने भी भावुक पड़ाव हैं, वो बड़े गैरप्रभावी हैं। उन्हें शुरू में ब्रिटेन में धमाकों का आरोपी बनाकर दिखाना, फिर पाकिस्तानी एजेंट और फिर न जाने क्या क्या। ये सब हमें कुछ ऐसा बना देता है कि बाद में उनके किरदार इरम परवीन बिलाल के रोने का हम पर कोई असर नहीं पड़ता। करीना के संदर्भ में पूरी फिल्म में महज एक जगह पर दिल कहानी में रुचि दिखाने को राजी होता है। जब वह विनोद के साथ कराची एयरपोर्ट पर पाकिस्तानी सलवार कमीज में उतरती हैं, साथ में काले ही पठानी सूट में विनोद। पासपोर्ट ऑफिसर पूछता है यहां आने का कारण, तो विनोद जवाब देता है, जनाजे में शरीक होना है, जरा जल्दी कर देंगे तो मेहरबानी होगी। पीछे से गीली लाल आंखों के साथ करीना आगे आती हैं और आंसू छलकाती हैं। बाद में वह रिक्शे में कराची (फिल्म में) की गलियों से गुजरती हैं और अपने परिवारवालों को मिस करती है। फिल्म में यहां श्रीराम ने एक बड़ी कमी ये छोड़ी की करीना के किरदार के कोई भी रिश्तेदार नहीं दिखाए। दर्शकों से न तो इरम जुड़ पाई और न ही रूबी। भावुक होने के मोर्चे पर सैफ के पास भी कुछ नहीं है। उनकी तो कहीं आंखें भी नम नहीं होती। फिल्म में सर जग्दीश्वर मेल्टा बने धृतिमान चैटर्जी, कर्नल बने आदिल हुसैन और अंशुमान सिंह जैसे नए (धृतिमान नहीं) चेहरे हैं, जो फिल्म को रहस्यमयी रखने वाले किरदार बनते हैं, पर मैं किसी भी एक सीन को अपने साथ थियेटर से बाहर नहीं ला पाया।
हो सकता है कि टीवी पर इस फिल्म को बहुत वक्त बात नाउम्मीदी के माहौल में देखूं या बेहद लापरवाही भरे अंदाज में लेटे-चरते देखूं तो कुछ बेहतर लगेगी। पर वो तो बाकी बॉन्ड फिल्में भी लगेंगी, फिर एक हिंदी एजेंट मूवी के तौर पर इसने भला मेरा क्या फायदा किया होगा?
*** *** *** *** ***
गजेंद्र सिंह भाटी