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Thursday, March 29, 2012

एजेंट 007, जेसन बॉर्न और ईथन हंट का परखनली शिशु विनोद, अपना लोकल जासूस बनने में उसे अभी वक्त लगेगा

फिल्मः एजेंट विनोद
निर्देशकः श्रीराम राघवन
कास्टः सैफ अली खान, करीना कपूर, प्रेम चोपड़ा, रवि किशन, राम कपूर, धृतिमान चैटर्जी, बी.पी.सिंह, आदिल हुसैन, आयुष्मान सिंह, जाकिर हुसैन
स्टारः ढाई, 2.5
ध्यानः फिल्म अगर नहीं देखी है, तो पहले देख लें, क्योंकि कहानी के कुछ मोड़ यहां जाहिर किए हैं

इरम परवीन बिलाल (करीना) रो रही है। उसके साथ रिसर्च एंड एनेलिसिस विंग (रॉ) का एजेंट विनोद (सैफ) है। वह पूछता है तो इरम आंसूओं के बीच कहती है, कि वह भी वो नहीं बनना चाहती थी जो नियति ने उसे बना दिया है। अब वह पाकिस्तान में अपने घर तक लौटकर नहीं जा सकती। उस पर ब्रिटेन में बॉम्ब ब्लास्ट करने और दर्जनों निर्दोष लोगों की हत्या करने का इल्जाम है जो उसने किया ही नहीं। विनोद उसके पास बैठकर सुनता है, फिर कहने लगता है, बचपन में मैं भी कुछ और बनना चाहता था। पर एक बार रस्सी वाले कैबिन में हम कहीं जा रहे थे, तभी कुछ गड़बड़ हुई और झूला बहुत मीटर ऊपर हवा में ही झूल गया। फिर थोड़ी देर में मैंने केबल पकड़ रखी थी, और हवा में लटक रहा था। उन आठ मिनटों ने मेरी जिंदगी बदल दी। प्रेसिडेंट वेंकटरमन ने मुझे मेडल दिया। मैं जिंदगी और मौत के बीच फिर से जाना चाहता हूं। मैं आज भी उस केबल हूं।

दरअसल एक बॉन्डनुमा फिल्म के बॉन्ड या कहें कि एजेंट से हमें यही उम्मीद होती भी है कि वो जिंदगी और मौत के बीच उस एडवेंचर भरे शून्य में जाए, बार-बार जाए, कुछ यूं जाए और निर्देशक भी उसे कुछ इस शैली में ले जाए कि हमें आनंद ही आनंद आए। खुशी की बात है कि निर्देशक श्रीराम राघवन को इस चीज का एहसास भी था कि जिंदगी और मौत के बीच का वो शून्य जरूरी है। पर दुख ये है कि वो शून्य और वो स्पेस फिल्म में सिद्ध तरीके से नहीं नजर आता। इसकी वजहें कई हैं। पहली तो ये कि एजेंट विनोद दिखने में भले ही सुंदर, रईसी के आलम वाले कपड़े पहनने वाला, कुछ हाजिर जवाब और हंसोड़ है, पर स्मार्ट नहीं है। यानि शतरंज की बाजी समझने वाला और यूं ही चलते-चलते उन्हें खेल जाने वाला नहीं है। उससे ज्यादा चालाक और शतरंज के खिलाड़ी सा हीरो तो 2010 में ही आई तमिल फिल्म रगड़ा का सत्या (नागार्जुन) है। सत्या गुंडों को हर पल हैरत में डालता रहता है। चकमा देने वालों को लगता है कि हमने उससे इतने करोड़ रुपये ठग लिए या किसी लड़की को लगता है कि उसने इमोशनल कहानी बनाकर सत्या के जरिए अपने भाई को खूंखार गुंडों के अड्डे से छुड़वा लिया, या किसी को लगता है कि उसकी बहन का अपहरण कर लिया है, अब उसे आना ही होगा। पर तब तक सत्या सौ मौहरे चल चुका होता है। वो करोड़ों रुपये उससे ठगे नहीं गए होते हैं, लड़की के भाई को उसने जानबूझकर अपने बड़े प्लैन के तहत छुड़वाया होता है और उसकी बहन को जिसने किडनैप करवाया होता है वो उसी के घर पहले ही बैठा होता है और उसकी कपकपी छुड़वाकर जाता है। कहानियों के पीछे इतनी कहानियां ये किरदार बनाता है कि दर्शक को उस पर फक्र होता है। सत्या चीजों को इतनी बारीकी से ऑब्जर्व करके चलता है कि अगले हजार कदमों के बाद क्या होगा उसने तय कर लिया होता है।

हमारा विनोद ऐसा नहीं है। आखिर में परमाणु बम को निष्क्रिय कर पाना उसके लिए इतना कठिन हो जाता है कि वह तुरंत हैलीकॉप्टर ले अपनी जान देने के दिल्ली के बाहर एक सूनसान फैक्ट्री की और उड़ चलता है। उसे कामयाबी मिलती है तो तब, जब जान देने से पहले इरम उसे कोड बताती है। सत्या सब अपने बूते करता है, कुछ भी दूसरे के बूते नहीं। एजेंट विनोद में वैसे तो सब कुछ है। अफगानिस्तान, मोरक्को, रूस, लंदन, केपटाउन, कराची, लंदन और नई दिल्ली की सुंदर लोकेशंस में घूमती ट्विस्ट भरी कहानी। क्रेडिट्स में आता सैफ के फनी डांस वाला फनी गाना 'प्यार की पुंगी बजा कर और कराची में एक दुल्हन सी सजी शानदार इमारत में करीना का मीठे लबों वाला मुजरा, 'यूं तो प्रेमी पचहत्तर हमारे, ले जा तू कर सतहत्तर इशारे, दिल मेरा मुफ्त का। ' फिल्म को श्रीराम राघवन जैसा निर्देशक भी मिला, जो पश्चिमी टोन वाली एक बॉन्ड फिल्म को अपनी तौर-तरीकों से इंडियन आत्मा देने की असफल कोशिश करता है। उनका एजेंट मुश्किल मौकों में महेंद्र संधू (1977 में आई फिल्म एजेंट विनोद में एजेंट विनोद बने थे एक्टर महेंद्र संधू, उसी फिल्म पर नई एजेंट विनोद का नाम रखा गया है) और विनोद खन्ना नाम के इंसानों की कहानियां गढ़कर उलझाता है। कुछ सीन में पृष्ठभूमि में हिंदी फिल्मों के क्लासिक गाने चलते हैं, स्थिति को अलबेली बनाते हैं। और भी कई चीजें हैं, पर फिल्म आनंद नहीं देती। खत्म होने के बाद आप खाली-खाली महसूस करते हैं। इसकी दूसरी वजह है स्क्रिप्ट में जरूरत से ज्यादा विदेशी लोकेशंस और पिछली एजेंट मूवीज की अच्छी चीजें डालने के कोशिश से उपजी टूटन।

फिल्म के पहले ही सीन में आप किसी मौत की घाटी में प्रवेश करते हैं। सूनसान रेगिस्तान में अफगानिस्तान में कहीं चिलचिलाती मूक धूप में चिल्लाती चीलों सा परिदृश्य है। गैर-आबादी वाले इस बियाबान में तीन-चार बगदादी फटेहाल सी दुकानें हैं। उनसे गुजरकर आता है एक लोहे का दरवाजा, जहां पत्थर चुनी दीवारों पर ओसामा बिन लादेन से दिखने वाले किसी शख्स का चित्र बनाया गया है। लगता है, अंदर कोई लश्कर-ए-तैयबा या दूसरे आतंकी गुट का कैंप है। पर भीतर तो जनरल लोखा (शाहबाज खान) है, जिसने विनोद को यहां कैद कर रखा। यहां मुझे 2002 में आई डाय अनादर डे के एजेंट 007 (पीयर्स ब्रॉसनन) की याद आ गई। उन्हें भी कुछ यूं ही (या फिर हमारे एजेंट विनोद को इनकी तरह) उत्तर कोरियाई जनरल मून बंधक बना लेता है। और, 14 महीने बाद एक दूसरे कैदी के बदले छोड़ा जाता है। यहां एजेंट विनोद में भी विनोद को छुड़ाने मेजर राजन (रवि किशन) भेजा गया है। ठीक जैसे हालिया मिशन इम्पॉसिबल घोस्ट प्रोटोकॉल में ईथन हंट को मॉस्को की जेल से छुड़ाने के लिए दूसरे एजेंट भेजे जाते हैं। खैर, ये समानताएं तो भारी मात्रा में आती रहेंगी। ये बॉन्ड, एजेंट और बॉर्न वाली तमाम कहानियां एजेंट विनोद में यूं ही समानांतर चलती है। इसमें कोई नई बात भी नहीं क्योंकि फिल्म से पहले प्रोड्यूसर सैफ अली खान और निर्देशक श्रीराम राघवन दोनों स्वीकार भी कर चुके हैं कि सारे जाने पहचाने संदर्भ मिलेंगे। हां, बस ढूंढने वाला चाहिए।

तो विनोद और राजन दोनों यहां से भाग छूटते हैं। राजन मोरक्को में अबु नाजर (राम कपूर) के पीछे किसी दूसरे मिशन में लग जाता है और विनोद अपने काम में। जब राजन मारा जाता है तो रॉ चीफ हसन नवाज (बी.पी.सिंह) विनोद को बुलाता है। ठीक वैसे ही जैसे ब्रिटिश सीक्रेट इंटेलिजेंस सर्विस की प्रमुख एम (हमारे रेफरेंस में जूडी डेंच वाली फिल्में) 007 को बुलाती रहती हैं। किसी दूसरे मिशन के बारे में बताने के लिए। तो अब एजेंट विनोद को राजन की हत्या के कारणों और उसके केस में जुटाए गए राज पता करने का मिशन सौंपा जाता है। हल्के फुल्के बिना किसी टेंशन देने वाले अंदाज में विनोद मोरक्को जाता है। जहां वह पहले अबु नाजर को पकड़ता है। वहां से किसी कोड 242 का पता चलता है। जो उसे मोरक्कन ड्रग डीलर डेविड कजान (प्रेम चोपड़ा उन पुराने अदाकारों में से हैं जिन्हें आप कोई भी रोल देंगे तो वो पूरी आश्वस्ति के साथ निभाएंगे। जैसे, कि रॉकेट सिंह सेल्समैन ऑफ ईयर में उनका हरप्रीत बने रणबीर के दादा पी.एस.बेदी का किरदार निभाना। यहां भी वो अपने ऊंट को गोली मारकर रोते हैं। इस उम्र में भी इतनी सारी फिल्में कर चुकने के बाद किसी महात्वाकांक्षी एक्टर की तरह अच्छे से रोते हैं।) और उसकी पर्सनल डॉक्टर रूबी (करीना) तक ले जाता है। खैर, तो हम स्टोरी में ज्यादा भीतर तक नहीं जाएंगे। ये सब कुछ पटकथा में मनोरंजन के लिहाज से चलता रहता है। सैफ का गनफायर करना और हाथ-पांव चलाना तो ठीक है, और वैसे भी ये स्टायलाइज्ड सीन इतने आम हो चुके हैं कि साउथ की फिल्मों में, हिंदी फिल्मों में (ताजा-ताजा देखें तो डॉन-2 और रा. वन) और अमेरिकी फिल्मों में कि देखकर कुछ समझ नहीं आता, बस सिनेमाघर में हम जितनी देर होते हैं, बस उतनी ही देर फालूदे की तरह हमारा दिमाग घुलता रहता है। कहां, क्या, सोचें, करें, चखे या समझे... कुछ पल्ले नहीं पड़ता। हम हिंदी फिल्मों को किसी जॉन कार्टर जैसी अमेरिकी थ्रीडी फिल्म की ओर पहुंचाने वाली कच्ची पगडंडी पर चलते देख रहे हैं। वहां पहुंच भी जाएंगे, तो किसी सालों पीछे पगडंडी पर खड़ी एजेंट विनोद को देखने जितना मजा ही आएगा।

तो इस फिल्म में सबकुछ रखने की कोशिश की गई है पर वो सिलसिलेवार या एक-दूसरे से जुड़ा नहीं लगता। यहां याद आती है किसी भावुक पड़ाव की। करीना के किरदार की जिदंगी में जितने भी भावुक पड़ाव हैं, वो बड़े गैरप्रभावी हैं। उन्हें शुरू में ब्रिटेन में धमाकों का आरोपी बनाकर दिखाना, फिर पाकिस्तानी एजेंट और फिर न जाने क्या क्या। ये सब हमें कुछ ऐसा बना देता है कि बाद में उनके किरदार इरम परवीन बिलाल के रोने का हम पर कोई असर नहीं पड़ता। करीना के संदर्भ में पूरी फिल्म में महज एक जगह पर दिल कहानी में रुचि दिखाने को राजी होता है। जब वह विनोद के साथ कराची एयरपोर्ट पर पाकिस्तानी सलवार कमीज में उतरती हैं, साथ में काले ही पठानी सूट में विनोद। पासपोर्ट ऑफिसर पूछता है यहां आने का कारण, तो विनोद जवाब देता है, जनाजे में शरीक होना है, जरा जल्दी कर देंगे तो मेहरबानी होगी। पीछे से गीली लाल आंखों के साथ करीना आगे आती हैं और आंसू छलकाती हैं। बाद में वह रिक्शे में कराची (फिल्म में) की गलियों से गुजरती हैं और अपने परिवारवालों को मिस करती है। फिल्म में यहां श्रीराम ने एक बड़ी कमी ये छोड़ी की करीना के किरदार के कोई भी रिश्तेदार नहीं दिखाए। दर्शकों से न तो इरम जुड़ पाई और न ही रूबी। भावुक होने के मोर्चे पर सैफ के पास भी कुछ नहीं है। उनकी तो कहीं आंखें भी नम नहीं होती। फिल्म में सर जग्दीश्वर मेल्टा बने धृतिमान चैटर्जी, कर्नल बने आदिल हुसैन और अंशुमान सिंह जैसे नए (धृतिमान नहीं) चेहरे हैं, जो फिल्म को रहस्यमयी रखने वाले किरदार बनते हैं, पर मैं किसी भी एक सीन को अपने साथ थियेटर से बाहर नहीं ला पाया।

हो सकता है कि टीवी पर इस फिल्म को बहुत वक्त बात नाउम्मीदी के माहौल में देखूं या बेहद लापरवाही भरे अंदाज में लेटे-चरते देखूं तो कुछ बेहतर लगेगी। पर वो तो बाकी बॉन्ड फिल्में भी लगेंगी, फिर एक हिंदी एजेंट मूवी के तौर पर इसने भला मेरा क्या फायदा किया होगा?
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गजेंद्र सिंह भाटी

Friday, March 23, 2012

दर्शकों को लुभाना है तो मेहनत तो करनी ही पड़ेगीः सैफ अली खान (ओले ओले से एजेंट विनोद तक)

सैफ अली खान होने से पहले वह मेरे लिए कुछ मजबूत छवियां हैं। पहली में वह स्किन टाइट जींस, नुकीले जूतों, लंबे बालों और ढेर सारे छोकरेपन के साथ हीरोइन को प्रभावित करते नाच रहे हैं। गाना है...
जब
भी कोई लड़की देखूं मेरा दिल दीवाना बोले
ओले, ओले, ओले, ओले, ओले, ओले
गाओ तराना यारा झूम-झूम के हौले-हौले
ओले, ओले, ओले, ओले, ओले, ओले
मुझको लुभाती है जवानियां, मस्ती लुटाती जिंदगानियां
माने ना कहना पागल, मस्त पवन सा दिल ये बोले...

1994 में फिल्म ‘ये दिल्लगी’ में गायक अभिजीत की आवाज और विकी सहगल का किरदार सैफ को कितना लोकप्रिय कर गया, ये ओले ओले के बोल और उनके लड़कपन भरे चेहरे को जेहन से लगाए बैठी एक पूरी पीढ़ी बताएगी आपको। जो ‘एजेंट विनो’ देखने जाते वक्त 40 के हो चुके सैफ की उम्र की ओर बढ़ रही होगी। इसी दौर में शामिल हैं परंपरा भी,आशिक आवारा भी,मैं खिलाड़ी तू अनाड़ी भी, बंबई का बाबूभी औरतू चोर मैं सिपाही भी।

दूसरी छवि में हम तुम का करन कपूर भी है और दिल चाहता हैका समीर भी। दोनों ही में वह भले ही पश्चिमी अंदाज में भारतीय आम लड़कों वाले हाव-भाव अपनाकर हास्य सृजित करना चाह रहे थे, पर वक्त बीतने के साथ हमारे लिए समीक्षा से परे बस एक स्मृति बन गए है। एक जरूरी स्मृति। सैफ इन दो फिल्मी किरदारों के ऐसे स्मृति सेतू हैं जो लाखों नए-नवेले पापाओं को उनके कॉलेज और हाई स्कूल के दिनों की यादों से पवित्रता से जोड़ते हैं। दिल अठखेलियां करने लगता है।

तीसरी छवि में एक मल्लखंभ सा गड़ा किरदार है। जैसा फिर कभी न हुआ। लंगड़ा त्यागी। ओमकाराका ईश्वर लंगड़ा त्यागी। खैनी चबाने वाला, अंग्रेजी ओथैलो से निकला और पूर्वांचल के बीहड़ जैसे ओमकारा में घुसा धूसर किरदार। शायद सैफ की जिदंगी का अकेला इतना धूसर पात्र। सिहरन पैदा करता और सर्वस्वीकृत सा। सैफ अली खान एक एक्टर हैं इसकी सबसे बड़ी धमक यहीं सुनाई दी। लंगड़ा ने ही सुनाई। हालांकि एलओसी के कैप्टन अनुज नायर भी थे, बींग सायरस के सायरस मिस्त्री भी और एक हसीना थी के करन सिंह राठौड़ भी। उतने की कठोर। पर कठोरतम लंगड़ा।

ऐसा जरा-जरा सा लग रहा है कि एजेंट विनोद भी जरा-जरा सा भा जाएगा। हो सकता है मेरे जेहन में सैफ की चौथी छवि बनाए। गुंजाइश पक्की नहीं है, पर उम्मीद के बीज बोए हैं। क्योंकि प्रमोशन की इस भागमभाग में उन्हें ऐसे पहले नहीं देखा है। शायद ये जो पिछले एक साल में फिल्म रिलीज होने से पहले नागौर के पशु मेले जैसी प्रचार-प्रसार रैलियां अभिनेता और फिल्मकार मजबूरन निकाल रहे हैं, वो ढाई साल में बनी ‘एजेंट विनोद’ की वजह से सैफ पहली बार महसूस कर रहे थे। उनसे बहुत से साथियों के बीच सामूहिक बातचीत होनी थी। सामूहिक सवाल और उनके जवाब होने थे। सिलसिला शुरू हुआ। कुछ-कुछ वही हुआ। ये प्रचार की थकान थी कि बहुरंगी सवालों से उपजा सतहीपन कि उनके जवाब गहरे नहीं हो पाए। खुद को 'आशिक आवारादिनों से बतौर अभिनेता कैसे विकसित किया है? मेरे इस प्रश्न का उत्तर उन्होंने कितना घुमाकर दिया मैं जानता हूं। मैं उसे जवाब में गिनता ही नहीं हूं। उन्होंने अभिनय को शरीर, उम्र और सुंदरता से जोड़ कर छोड़ दिया। पर कोई शिकवा नहीं। व्यक्तिगत तौर पर वह ठीक हैं। ठीक व्यक्तित्व हैं। हाल ही में मुंबई के एक होटल में एक एनआरआई व्यवसायी से हुई उनकी लड़ाई और गिरफ्तारी वाली छवि के उलट। बातों का छोर लगातार श्रीराम राघवन के निर्देशन में बनी उनकी स्टाइलिश-हाई प्रोफाइल फिल्म 'एजेंट विनोद’ पर ही टिका रहा, जो आज शुक्रवार को सिनेमाघरों में लग गई है। इसलिए सवालों में ज्यादा कोई दूसरी किस्म नहीं है। पढ़िए बातचीत के संक्षिप्त अंशः

(शुरू करने से पहले कुछ बेहद जरूरीः हमने भी 1977 में एक इंडियन बॉन्ड वाली फिल्म बना ली थी। धार्मिक और संस्कारों से भरी फिल्में बनाने वाले श्री ताराचंद बड़जात्या के निर्माणघर राजश्री प्रॉडक्शंस से निकली थी ये पुरानी ‘एजेंट विनोद’। इस पहली इंडियन 'एजेंट विनोद’ में भारत के नामी वैज्ञानिक अजय सक्सेना का अपहरण हो जाता है। हमारी सीक्रेट सर्विस के चीफ इस केस को एक डैशिंग एजेंट के हवाले करते हैं। फिल्म में एजेंट विनोद बने थे पंजाबी फिल्मों के जाने-पहचाने चेहरे महेंद्र संधू। फिल्म में जगदीप भी चंदू जेम्स बॉन्ड के मजाकिया रोल में दिखे थे। महेंद्र संधू ने 1977 यानी इसी साल फिल्म 'विदेश’ में भी सीबीआई एजेंट विनोद का ही छोटा सा रोल किया था। तो आधिकारिक तौर पर वही एजेंट हुए। अब दूसरे विनोद हैं सैफ।)

श्रीराम राघवन के साथ आप पहले 'एक हसीना थीकर चुके हैं। उस फिल्म और 'एजेंट विनोददोनों में से आपको तृप्त करने वाली फिल्म कौन सी थी? तृप्त करने वाली तो 'एजेंट विनोद’ ही है। क्योंकि 'एक हसीना थी’ तो मेरे और श्रीराम के लिए एक तरह से ट्रैनिंग थी एजेंट विनोद को बनाने की। तब मैं और श्रीराम दोनों ही कुछ नया करने की कोशिशों में लगे थे।

आप फिल्म में एक जासूस बने हैं, एक दर्शक के तौर पर आपका पसंदीदा फिल्मी जासूस या बॉन्ड कौन हा है?
' बॉर्न आइडेंटिटी का एजेंट जेसन बॉर्न मेरा फेवरेट है। फिल्म का नहीं नॉवेल का जो रॉबर्ट लुडलम ने लिखा था। हालांकि बॉर्न आइडेंटिटी फिल्म सीरीज में मैट डेमन और उनसे पहले जेसन बॉर्न का किरदार निभाने वाले रिची चैंबरलेन भी अच्छे थे। मैं दोनों की एक्टिंग की कद्र करता हूं, पर मेरा फेवरेट बुक वाला जेसन बॉर्न है।

फिल्म में करीना क्या देसी बॉन्ड गर्ल बनी हैं?
मूवी में वह पाकिस्तानी बॉन्ड गर्ल बनी हैं। रशियन माफिया और एलटीटीई से जुड़ी लगती हैं। विनोद उसका बिल्कुल भरोसा नहीं करता। यहां उनमें रेट्रो एलीमेंट भी लगता है। वो प्रेम चोपड़ा की पर्सनल डॉक्टर हैं। साइड भी बदलती रहती है। उलझाती रहती हैं। बतौर एक्ट्रेस वह रोमैंटिक और बबली रोल में ज्यादा जमती हैं, उन्हें उस खांचे से निकाल ऐसे कठिन रोल में डालना लगने में आसान नहीं, पर उनकी योग्यता वाली अभिनेत्री के लिए ये कोई मुश्किल भी नहीं थी।

शीर्षक एजेंट विनोद ही क्यों रखा?
इस नाम पर पहले भी एक फिल्म बन चुकी है। वह काफी फनी थी। कुछ साइंटिस्ट किडनैप हो जाते हैं और एक जासूस एजेंट विनोद को मिशन मिलता है। इस फिल्म में पल्प फिक्शन मीट्स रेट्रो, डिटैक्टिव मूवीज वाली बात थी। एक ऐसी फिल्म जिसे देख आप किसी कॉमिक या कार्टून स्ट्रिप की कल्पना कर सकें। हमने राजश्री प्रॉड्क्शंस से बात की जिन्होंने 1977 वाली एजेंट विनोद बनाई थी। हमने पूछा कि क्या टाइटल यूज कर लें? हमारी एजेंट विनोद पर काम शुरू हुआ। एक वक्त स्क्रीनप्ले बदलने का सोचा। श्रीराम तमाम बॉन्ड फिल्मों वाले लुक के बावजूद स्क्रीनप्ले बिल्कुल ऑरिजिनल चाहते थे। खैर, फिल्म तैयार है। ये आपको इस जॉनर की पुरानी फिल्मों की याद दिलाती है। ये याद दिलाती है कि हम ऐसी फिल्में भी बनाते थे। ये पल्प फिक्शन भरी भी लगती है, रेट्रो फीलिंग भी देती है और कमर्शियल भी है। शीर्षक तो ऐसे ही अच्छे होते हैं। मिशन इम्पॉसिबल सीरिज की फिल्में तो बाद में बननी शुरू हुईं, पहले इसकी टीवी सीरिज आती थी। टीवी सीरिज से जब फिल्म बनाई गई तो शीर्षक मिशन इम्पॉसिबल ही रखा और उसका पल्पी एलीमेंट कुछ कम कर दिया गया।

विनोद बनना फिजीकली कितना रिस्की और चुनौती भरा था?
बहुत था। एक सीन में मुझे चोट लगी। हैंड स्विंग फट गया था। मैंने ऋतिक को कॉल किया। उसे बुलाया। उसने सलाह दी। कहा कि ऐसे दौड़ो, ऐसे रीटेक कर लो, यहां ध्यान रखो। ये सब चैलेंजिंग था। फन भी था। मैंने योग और डाइटिंग से खुद को फिट रखना चाहा। एक्चुअली ये सब इतना फनी भी नहीं था, सॉरी। काफी अनुशासित होकर सब करना पड़ा। ये जरूरत भी तो थी। एक जासूस को अंडरवेट और छरहरा होना चाहिए। जो कि यूं ही मैंटेन करना कठिन होता है। हां, फिल्म कोई लव स्टोरी हो तो सब आसानी से हो जाता है। हालांकि उसमें भी सुंदर दिखना पड़ता है। फिजीकली एजेंट विनोद जैसे रोल करना आसान नहीं होता। एक्शन करना और वो भी बिना ड्यूप्लीकेट के मुश्किल होता है। और, इसी वजह से मैं एक्शन हीरोज की बड़ी इज्जत करता हूं। अब ऑडियंस को इम्प्रेस करना है तो मेहनत तो करनी ही पड़ेगी। कोई बात नहीं।

आपने हाल ही कहा कि पांच साल इस फिल्म के सीक्वल बनाएंगे?
10-15 दिन से इतनी बकवास कर रहा हूं तो कुछ भी कहता हूं सुबह शाम। जैसे एक बार ये भी कह दिया था। अब कह तो दिया पर सीक्वल पब्लिक डिमांड से बनेगा, हमारे कहने से नहीं। एक बार मैंने एक डायरेक्टर से एक फिल्म के बारे में पूछा कि सीक्वल क्यों नहीं बनाते तो उन्होंने कहा, पागल हो, इंडिया में सीक्वल नहीं बनाया करते। पर अब तो फिल्म के नाम के आगे दो-तीन लगाकर हम बनाने लगे हैं।

करीना की जोड़ी किन एक्टर्स के साथ अच्छी लगती है?
सबके साथ। वह बहुत खूबसूरत है और सब एक्टर भी बड़े हैंडसम हैं तो सबके साथ। शाहरुख के साथ, इमरान, सलमान सबके साथ। किसके साथ उनकी जोड़ी सुंदर नहीं लगती।

श्रीराम राघवन का फिल्ममेकिंग वाला जायका कैसा है?
क्या बताऊं। पहले सीन में ही सोडियम पेंटोथॉल इंजेक्ट करके मुझसे पूछताछ कर रहे हैं। ऐसे हैं श्रीराम राघवन।

अगर विनोद बॉन्ड जैसा ही है तो इसमें इंडियन क्या है?
नहीं, ये बॉन्ड नहीं है, ये पूरा इंडियन कैरेक्टर है। पर जब आप ऐसी एजेंट्स वाली फिल्में बनाते हैं तो कुछ पहले बनी बॉन्ड मूवीज के जरूरी तत्व तो आ ही जाते हैं। जैसे इसमें मोरक्कन ड्रग डीलर्स हैं, रशियन माफिया है, साइबेरिया के सीन हैं। अब कोई जासूस होगा तो वो भला क्या करेगा। आतंकवाद, ड्रग्स, इंटरनेशनल मिशन और ढेर सारा एक्शन। यही सब तो करेगा न। हां, हमारे एजेंट तो रॉ वाले हैं, उनके बारे में खूब पढ़ा भी है पर उन्हें एजेंट के तौर पर कैसे पेश करें।

लेकिन नया करने की कोशिश भी तो की होगी?
थोड़ा नया है तो थोड़ी पुरानी चीजें हैं। एक्शन, अच्छा म्यूजिक, स्टायलिश लोकेशन, से-क-सी वीमन, ये सब होता है ऐसी फिल्मों में और हमारी फिल्म में भी है। श्रीराम ने बड़ी मेहनत की है इंडियन वर्जन बनाने की। जरा सी नकल भी आपको लगेगी तो निराश नहीं होंगे।

फिल्म के संगीत पर विवाद हुआ, धुन चुराने का आरोप लगा?
क्या आपने उस बैंड (ईरानी बैंड बैरोबेक्स कॉर्प ने फिल्म के म्यूजिक डायरेक्टर प्रीतम को लीगल नोटिस भेजा था कि उन्होंने उनकी धुन चुराकर पुंगी बजा कर... गाने में इस्तेमाल की) का मूल गाना सुना या देखा है। बस इंट्रो के बेसलाइन में दो नोट कॉमन हैं ईरानी गाने में, पर वो तो अमिताभ बच्चन की फिल्म लावारिस के गाने जिसकी बीवी मोटी गाने जैसे लगते हैं। मैं ईरानी म्यूजिक इंडस्ट्री की पूरी इज्जत करता हूं, पर उन बैंडवालों को क्या जरूरत थी कि मेरी फिल्म रिलीज होने से इतना पहले ही हल्ला करें। अगर उनका कारण जेनुइन था तो उन्होंने ये वक्त ही क्यों चुना। और फिर जरा सा असर तो म्यूजिक मेकिंग में चलता है न यार।
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गजेंद्र सिंह भाटी

Friday, February 10, 2012

राहुल मर्जी की टाई पहनने और बगैर चॉपस्टिक खाना खाने के दिन चाहता है, वो दिन लाने में मदद करती है चुलबुली रियाना

फिल्म: एक मैं और एक तू
निर्देशक: शकुन बत्रा
कास्ट: इमरान खान, करीना कपूर, बोमन ईरानी, रत्ना पाठक शाह, निखिल कपूर, जेनोबिया श्रॉफ
स्टार: तीन, 3.0शकुन बत्रा 'रॉक ऑन' और 'जाने तू या जाने ना' इन दों फिल्मों में असिस्टेंट डायरेक्टर रहे थे। फरहान अख्तर की 'डॉन' में जो
खइके पान बनारस वाला... गाना था, संभवत: वह उसमें पानवाला भी बने थे। खैर, इन दोनों फिल्मों से कई बातें शकुन के निर्देशन में बनी पहली फिल्म 'एक मैं और एक तू' में भी तैरती महसूस होती है। जैसे, स्क्रिप्ट तसल्ली से आगे बढ़ती है। इसमें पैसेवाले घर का, लेकिन इमोशनली उलझा युवक है। अपनी ही हाई सोसायटी से कुछ बागी होकर परफैक्टली एवरेज बन जाना चाहता है। उसके ह्यूमर में ठहाके नहीं गुदगुदी है। वो मारपीट नहीं करता, बद्तमीजी नहीं करता। और आखिर में अपनी आजादी को पा लेता है। ऐसा 'रॉक ऑन' में भी था, ऐसा किसी और रूप में 'जाने तू या जाने ना' में भी था।

'एक मैं और एक तू' ऐसा शानदार सिनेमैटिक अनुभव नहीं बन पाती है, जिससे गुजरने के लिए हम थियेटर के बाहर लंबी लाइनों में खड़े होते हैं। ये एक औसत फिल्म है, पर जो चीजें इसे खास बनाती हैं, वो है इसका टेक्नीकली अच्छा होना। करीना-इमरान के काम और उनके एक-दूजे से उलट किरदारों में तरोताजगी है। पैसेवाले यंगस्टर्स की फिल्म होते हुए भी ये मुझे इस लिहाज से अच्छी लगी कि आखिर में हीरो राहुल सीख जाता है कि परफैक्टली एवरेज यानी एकदम आम होने में कोई बुराई नहीं है। वह अपने पेरंट्स को कह देता है कि अब अपनी मर्जी की टाई पहनेगा। मर्जी होगी तो डिनर, चॉपस्टिक से करेगा, नहीं तो हाथ से।

फिल्म का प्रस्तुतिकरण हालांकि यहां ज्यादा महत्वपूर्ण है पर बात करते हैं कहानी की। राहुल कपूर (इमरान खान) 26 साल का है और वेगास में आर्किटेक्ट है। पैदा हुआ है तब से मॉम-डैड (रत्ना
पाठक शाह - बोमन ईरानी) ने हाई सोसायटी के तौर-तरीके और हमेशा फर्स्ट आने की उम्मीदें उस पर लाद दी है। मॉम से वह कुछ कहना चाहता है, पर उनका इंट्रेस्ट 'बेटा, हैव अ हेयरकट' कह देने भर में है। डैड की जबान पर बस यही होता है कि 'बेटा तुमने सिल्वर नहीं जीता है, तुमने गोल्ड हारा है।' वह जिंदगी को घसीट रहा है। उसने पेरंट्स को डर के मारे ये भी नहीं बताया है कि उसकी नौकरी चली गई है। अब वह दूसरी नौकरी तलाश रहा होता है कि रियाना ब्रिगैंजा (करीना कपूर) नाम की चुलबुली, अल्हड और अप्रत्याशित हेयरस्टाइलिस्ट से टकरा जाता है। राहुल जितना निर्जीव है, रियाना उतनी ही सजीव है। यहां से राहुल की लाइफ 360 डिग्री मुड़ जाती है। उसे तय करना है कि पेरंट्स की इज्जत करते हुए उनका कहा मानता जाए कि खुद क्या चाहता है, वो करे। उसे रियाना के साथ अपने रिश्ते को भी कोई आयाम देना है, जो कि जितना आसान दिखता है, उतना है
नहीं।

हिंदी फिल्मों के अंत में हीरो-हिरोइन को प्यार हो ही जाता है। पर यहां कई स्टीरियोटाइप तोड़े गए हैं। यहां राहुल तो रियाना से प्यार करता है, पर वह उसे सिर्फ एक बेस्ट फ्रेंड ही मानती है, और अंत में दोनों इसी स्थिति पर अपने रिश्ते को रोकते हैं। हालांकि राहुल की कोशिशें जारी रहती हैं। ये अनोखी बात है। फिल्म पर अमेरिकी असर भी है। मसलन, वेगास में ड्रिंक्स के नशे में राहुल-रियाना का कोर्ट मैरेज कर लेना। ये सीन इससे पहले 'हैंगओवर' में भी नजर आया था। या फिर मूवी में इक्के-दुक्के अडल्ट जोक। करण जौहर के बैनर की फिल्मों में वेस्ट का असर तो होता ही है, क्योंकि ये भारत से पहले भारत से बाहर बसे एनआरआईज की फिल्में होती हैं। इन पर पहला हक उनका होता है। पर ये बात भुला दी जाती है कि जैसी जीवनशैली एनआरआईज अपना चुके हैं, जिस कंज्यूमरिज्म और सोच में वो ढल चुके हैं, उससे हमारा अंदरूनी मुल्क अभी अछूता है। पर फिल्में भीतरी भारत में भी लगती हैं, और वहां के कोरे कागज दिमाग प्रभावित होते हैं।

विशुद्ध मनोरंजन के पहलू से कहूं तो कहीं कुछ धीमी होती है पर फिल्म में आप कहीं पकते नहीं हैं। करीना कपूर के पेरंट्स बने निखिल कपूर और जेनोबिया श्रॉफ बहुत अच्छी कास्टिंग हैं। शकुन का निर्देशन और आसिफ अली शेख की एडिटिंग साफ-सुथरी है। अमित त्रिवेदी का म्यूजिक फिल्म की प्रस्तुति के हिसाब से ठीक-ठाक है। 'एक मैं और एक तू' की टीवी या डीवीडी रिलीज का भी इंतजार कर सकते हैं, पर थियेटर में देखने का भी कोई अफसोस नहीं होगा।
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गजेंद्र सिंह भाटी

Saturday, October 29, 2011

जी.वन सुपरहीरो के एग्जाम में फेल

फिल्मः रा.वन
निर्देशकः अनुभव सिन्हा
कास्टः शाहरुख खान, करीना कपूर, अरमान वर्मा, अर्जुन रामपाल, शहाना गोस्वामी, दिलीप ताहिल, टॉम वू
स्टारः ढाई, 2.5


रा.वन को देख पाना आसान नहीं है। एक ऐसे दौर पर जब आपके पास दर्जनों बेहतरीन सुपरहीरो मूवीज हैं, आप एक रा.वन को सिर्फ इसलिए नहीं झेल सकते कि उसे मेहनत से बनाया गया है और वह बड़ी महंगी है। फिल्म में विजुअल इफेक्ट्स (वीएफएक्स) को छोड़कर कुछ भी न तो मौलिक लगता है और न ही मनमोहक। प्रतीक और सोनिया का शेखर या जी.वन से रिश्ता ऊपर-ऊपर से निकल जाता है। जी.वन के दिल की जगह लगा हार्ट (एच.ए.आर.टी) धड़कने लगता है पर इस फिल्म से न हमारा हार्ट धड़कता है न आंखों में नरमी आती है। क्यों बोले मौसे मोहन... गाना जब आता है तो शायद पहली और आखिर बार हम इमोशनली मूव होने को होते हैं। बस, उसके अलावा कुछ नहीं। फिल्म को देख पाना मुश्किल इसलिए है क्योंकि साउथ इंडियन के किरदार में शाहरुख पकाते हैं, करीना गालियां बकते हुए रा.वन की सोनिया तो नहीं लग पाती। हां, जब वी मेट की गीत जरूर लगती हैं। क्लाइमैक्स तक ऐसा लगता है जैसे बच्चे प्रतीक का दिल पत्थर का है। पिता के मरने के सदमे से वह चुटकियों में उबर जाता है। कहानी में कहानी जैसा कुछ भी नहीं है। कहां, क्या हो रहा है उसमें पर्याप्त लॉजिक नहीं है। गेमिंग की दुनिया से एक विलेन अपना गेम पूरा करने आया है और जी.वन उससे सामना करता है... ये बड़ा ही फनी है। सुपरहीरो वो नहीं होता जो ऐसी बचकानी वजह से अस्तित्व में आता है, बल्कि वो जो किसी कॉज या बड़े इश्यू के लिए लड़ता है। अगर आपके पास कोई दूसरा ऑप्शन है तो बिलाशक उसे ही ट्राई करिए, रा.वन नहीं। बेवजह परेशान हो जाएंगे।

रा.वन की कथा
कहानी शुरू होती है लंदन में बैरन इंडस्ट्रीज की ईमारत से। यहां जेनी (शहाना गोस्वामी) कंपनी की नई गेमिंग खोज के बारे में बता रही है जिसके बाद इंटरनेट की वर्चुअल दुनिया की चीजों को भी देखा और छुआ जा सकेगा। यहां से जंप करके हम आते हैं वीडियो गेम डिवेलपर शेखर सुब्रमण्यम (शाहरुख खान) और उसकी फैमिली पर। वाइफ सोनिया (करीना कपूर) इंडियन गालियों पर थीसिस लिख रही है और बेटा प्रतीक (अरमान वर्मा) वीडियोगेम एक्सपर्ट है। अपने पिता की कम कूल और अग्रेसिव पर्सनैलिटी उसे पसंद नहीं। उसे हीरो की बजाय विलेन ज्यादा पसंद आते हैं। अपने बेटे की चाहत पर शेखर रा.वन नाम से ऐसा वीडियोगेम बनाता है जिसमें विलेन हारे नहीं। लॉन्च पार्टी पर जब सब नाच रहे होते हैं, प्रतीक रा.वन के साथ गेम के दूसरे लेवल पर पहुंच जाता है, पर अधूरा छोड़ चला जाता है। उस गेम को पूरा करने रा.वन वर्चुअल से असली दुनिया में जिंदा होकर आता है।


क्यों मौलिक नहीं जी.वन
# जी.वन स्पाइडरमैन की तरह खास सूट पहनता है।
# अमेरिकी फिल्म आयरन मैन में जो पैलेडियम कोर आयरन मैन और उसके कवच को जिंदा रखता है, वैसा ही दिखने वाला हार्ट जी.वन और रा.वन पहनते हैं।
# फिल्म में जी.वन का एक प्रमुख एक्शन सीक्वेंस ट्रेन पर है, वैसा ही जैसा रजनीकांत की मूवी रोबॉट में था।
# हर मूवी की तरह अंत में जी.वन फिर जिंदा हो जाता है।

इसकी क्या जरूरत थी
# अगर कहानी में दम होता तो दर्शकों का ध्यान बटाने के लिए चिट्टी बने रजनीकांत, खलनायक बने संजय दत्त, मुसीबत में फंसी रानी प्रियंका और एक वीडियोगेम में अमिताभ बच्चन का वॉयसओवर नहीं लाना पड़ता।
#अपने इंट्रोडक्टरी सीन में शेखर बने शाहरुख अपनी छोटी सी पीली कार लेकर ऑफिस के पार्किंग में पहुंचते हैं तो मैं समझ जाता हूं कि गाड़ी पार्क करते वक्त ये ऑलरेडी पार्क्ड गाड़ी को अनजाने में धकेल खुद की गाड़ी पार्क कर देगा। ये सीन मिस्टर बीन सीरिज के ट्रेडमार्क कॉमेडी सीन्स में से है।
# सी यू लेटर एलिगेटर और आई विल बी बैक... जैसे वन लाइनर अमेरिकी फिल्मों से उसी संदर्भ में लिए गए हैं पर ये फिल्म को इनोवेटिव नहीं रहने देते।

आखिर में
रा
.वन बने अर्जुन रामपाल रावण दहन को तैयार पुतले को देखकर कहते हैं, जो एक बार मरता हैसे बार बार मारना नहीं पड़ता। मुझे ये फिल्म का सबसे इम्प्रेसिव और मौलिक डायलॉग लगा। काश ऐसे डायलॉग और होते।

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गजेंद्र सिंह भाटी