Wednesday, July 3, 2013

बहुत विरोध हुआ घर पर, मैं आज्ञाकारी बेटी थी, पता नहीं कहां से मुझमें हिम्मत आई, मैंने कहा कि मैं तो जा रही हूं, मैंने पहली बार बग़ावत कीः नम्रता राव

 Q & A. . Namrata Rao, film editor .

Poster of 'Shuddh Desi Romance', a soon to be released Yash Raj film, edited by Namrata Rao.

मनीष शर्मा की फ़िल्म ‘शुद्ध देसी रोमैंस’ की एडिटिंग में व्यस्त नम्रता राव इससे पहले उनके साथ ‘बैंड बाजा बारात’ और ‘लेडीज वर्सेज रिकी बहल’ कर चुकी हैं। दिल्ली की नम्रता ने आई.टी. की पढ़ाई और एन.डी.टी.वी. में नौकरी के बाद कोलकाता के सत्यजीत रे फ़िल्म एवं टेलीविज़न संस्थान का रुख़ किया। वहां से फ़िल्म संपादन सीखा। 2008 में दिबाकर बैनर्जी की फ़िल्म ‘ओए लक्की! लक्की ओए!’ से उन्होंने एडिटिंग की शुरुआत की। बाद में ‘इश्किया’, ‘लव से-क्-स और धोखा’, ‘शंघाई’ और ‘जब तक है जान’ एडिट कीं। ‘कहानी’ में सर्वश्रेष्ठ फिल्म संपादन के लिए उन्हें इस साल 60वां राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार दिया गया। फ़िल्म संपादन में रुचि रखने वाले युवाओं के लिए यह साक्षात्कार उपयोगी हो सकता है। जिन्हें रुचि नहीं भी है और फ़िल्म बनाने की कला को चाव से देखते हैं वे भी पढ़ते हुए नया परिपेक्ष्य पाएंगे। प्रस्तुत है नम्रता राव से विस्तृत बातचीतः

कहां जन्म हुआ? बचपन कैसा था? घर व आसपास का माहौल कैसा था?
त्रिवेंद्रम, कोचीन में हुआ जन्म। मैं कोंकणी हूं। केरल में ही हमारा घर है। मेरे पिता बी.एच.ई.एल. (Bharat Heavy Electricals Limited) में काम करते थे और दिल्ली में पोस्टेड थे, तो मैं दिल्ली में पली-बढ़ी। स्कूलिंग और ग्रेजुएशन वहीं से की। आई.टी. में मैंने ग्रेजुएशन किया था। उसके बाद मुझे उसमें उतना रस नहीं आ रहा था तो सोचने लगी कि आगे क्या करना है। इस तरह मैं इस माध्यम की ओर आई। मैं सत्यजीत रे फ़िल्म एंड टेलीविज़न इंस्टिट्यूट, कोलकाता गई और वहां से पोस्ट-ग्रेजुएशन इन सिनेमा किया। एडिटिंग में स्पेशलाइजेशन किया।

कैसी बच्ची थीं आप? कैसा व्यवहार था?
शांत, गुमसुम, सामान्य। मैं एक नॉर्मल और स्पोर्टी चाइल्ड थी। बहुत किताबें पढ़ती थी। बहुत खेलती थी। पूर्वी दिल्ली में पली-बढ़ी।

सबसे शुरुआती फ़िल्में कौन सी देखी थीं जो आपको सम्मोहित छोड़ गईं?
दरअसल, हम लोग बहुत ही कम फ़िल्में देखते थे। मेरी सबसे पुरानी याद्दाश्त है ‘राम तेरी गंगा मैली’ जो मैंने तब देखी जब बहुत छोटी थी। मेरे पेरेंट्स लेकर गए थे रात के शो में, कि “ये सो जाएगी, हम फ़िल्म देखेंगे”। सिनेमा का सबसे पहला आमना-सामना यही था। फिर ‘मिस्टर इंडिया’ देखने गए। वैसे बहुत ही कम फ़िल्में देखते थे। ज्यादातर तो दूरदर्शन पर ही देखी हैं जितनी भी मैंने देखी हैं। मतलब ये सिनेमा में और थियेटर में जाने का ज्यादा कुछ नहीं था। किताबें पढ़ने का था, इसे प्रोत्साहित किया जाता था। मैं बहुत पढ़ती थी, नॉवेल और कॉमिक्स। कहानियों का शौक मुझमें वहीं से आया। फ़िल्मों से कम, किताबों से ज्यादा आया। मतलब, फ़िल्मों तक पहुंचना मेरे लिए इतना आसान नहीं था। हमारे घर में वी.सी.आर. नहीं था। तब टेलीविज़न और इंटरनेट तो होते नहीं थे। थियेटर बहुत मिन्नत करने के बाद घरवाले कभी लेकर जाते थे।

ये एडिटिंग का कहीं उन कॉमिक्स से तो नहीं आया जो आप पढ़तीं थीं? जैसे, उनमें अलग-अलग हिस्से बने होते हैं हर पन्ने पर। सिलसिलेवार डिब्बे कहानी कहते जाते हैं एक-दूसरे में जुड़े हुए। सीन और कहानी की समझ कि कैसे सेट करना है, अनजाने में कहीं वहीं से तो नहीं आया?
बिल्कुल हो सकता है, बिल्कुल हो सकता है। क्योंकि कॉमिक्स भी बहुत एडिटेड होते हैं और बहुत लीनियर नहीं होते हैं, सुपर लीनियर और आपको पता चला है.. । मतलब वो इतना पर्याप्त होते हैं कि आप कहानी समझ सकें, कहानी का असर समझ सकें और इमोशनल इम्पैक्ट जो है वो करेक्ट रहे। फ़िल्मों में भी वही है, कि ये जरूरी नहीं आप हर चीज बोलें, हर चीज लीनियरली कही जाए लेकिन इमोशनल इम्पैक्ट होना जरूरी है और वो शायद बिल्कुल उसी तरह से आता है।

बढ़ने के दिनों में कौन से नॉवेल आपने पढ़े जिनका असर रहा, जो बेहद पसंद रहे?
सारे क्लासिक्स पढ़े मैंने। मतलब, एमिली ब्रॉन्ट (Emily Brontë) और जेन ऑस्टन (Jane Austen) से लेकर चार्ल्स डिकन्स (Charles Dickens) के और बाकी क्लासिक्स ‘द काउंट ऑफ मोंटे क्रिस्टो’ (The Count of Monte Cristo)... मतलब सारे इंग्लिश क्लासिक्स पढ़े। घर में कोंकणी ही ज्यादा चलती थी। हिंदी पढ़ने की ऐसी प्रथा नहीं थी, हां हम बोलते हिंदी थे। ऐसे में इंग्लिश में ही पढ़ते थे। फिर हमारे पड़ोस में किराए की कॉमिक्स मिलती थी। राज कॉमिक्स... 50 पैसे में... सर्कुलेशन में जो चलता है न...।

फेवरेट कौन सी थी इनमें से?
आई थिंक, मुझे फैंटम बहुत पसंद थी। फैंटम (Phantom), मैंड्रेक (Mandrake) मेरे फेवरेट थे। कैरेक्टर्स के हिसाब से बताऊं तो फैंटम मेरा पसंदीदा था। मतलब उसका बहरूपिया होना, एक तरफ वह सामान्य जीवन जीता है और दूसरी तरफ उसके एकदम उलट।

Namrata with Filmfare Trophy.
हाई-स्कूल और कॉलेज कहां से किया? उस दौरान फ़िल्में कितना देखना शुरू किया और तब चाव कितना बढ़ा?

दरअसल हाई स्कूल तो सेम ही स्कूल में था, कुछ बदलाव नहीं आया। दिल्ली में ही था। लेकिन कॉलेज में आकर दुनिया थोड़ी खुल गई। पहली बार मेरा सामना थियेटर से हुआ। मैंने ख़ुद थियेटर करना शुरू किया। ऐसे लोगों से मिली जो काफी फ़िल्में देखते थे तो उनके साथ मैंने भी फ़िल्में देखनी शुरू कीं। एक शंकुतला थियेटर है दिल्ली में। होता था, अब तो शायद बंद हो गया। वहां पर बहुत ही सस्ते में बहुत सारी फ़िल्में हमने देखी। हर फ्राइडे वहां जाते थे क्योंकि शनिवार-रविवार तो छुट्टी होती थी कॉलेज की, तो शुक्रवार को जरूर जाकर देखते थे। तब शायद मैंने इतनी फ़िल्में देखना शुरू किया। तब तक कंप्यूटर भी आ गए थे तो सीडीज भी मिलने लगी थीं। वह भी एक विकल्प हो गया था। मतलब फिर इतना कठिन नहीं था जितना बचपन में होता था। बचपन में तो आप निर्भर होते हैं अपने अभिभावकों पर। उन्होंने मना कर दिया तो फिर तब ऐसा तरीका नहीं है कि जाकर देख सकें। कॉलेज में आकर बहुत फ़िल्में देखीं, इंग्लिश फ़िल्में देखीं। तब रुचि जागने लगी इनमें। पर तब भी ऐसे नहीं पता था कि फ़िल्मों में काम करना है। तब थिएटर में ज्यादा इंट्रेस्ट था, लगता था यही करेंगे। मैं तब आई.टी. पढ़ रही थी। कॉलेज ऑफ बिजनेस स्टडीज है दिल्ली यूनिवर्सिटी में। चार साल का कोर्स किया। जमा नहीं तो फिर ढूंढने लगी कि क्या करना है, क्या नहीं करना है।

फिर फ़िल्म स्कूल आने का किस्सा क्या रहा? घरवालों ने आपको बोला नहीं कि ये सडन चेंज ऑफ माइंड है इसे छोड़ दो, सिक्योर जॉब है और उसी में आगे बढ़ते रहो?
हां बिल्कुल, बिल्कुल बोला उन्होंने। वे बहुत नाराज थे इसके बारे में। क्योंकि उन्हें लग रहा था कि फ़िल्में कौन पढ़ता है। और वो भी तीन साल का कोर्स है जिसे करते हुए चार साल हो जाते हैं। मैं तब 23 साल की ही थी और पेरेंट्स बहुत नाराज थे कि “उमर तुम्हारी बिल्कुल भी नहीं है ऐसे तीन साल के कोर्स की। इस वक्त तुम नौकरी कर रही हो”। तब मैं एन.डी.टी.वी. में काम कर रही थी। “अच्छी-भली नौकरी छोड़कर तुम क्यों जा रही हो” और ये सब...। तो बहुत ही विरोध हुआ घर पर। पता नहीं तब कहां से मुझमें हिम्मत आई, मैंने कहा कि मैं तो जा रही हूं। क्योंकि मैं बहुत ही आज्ञाकारी बेटी थी। पहली बार मैंने बग़ावत की। वहां पर जाकर मेरी जिंदगी पूरी तरह बदल गई। मैंने कभी भी इतना फ़िल्मों को सीरियसली नहीं लिया था। मैंने इतनी सारी फ़िल्में देखीं। कैसे-कैसे लोग काम करते है, ये देखा। कितनी बड़ी दुनिया है, ये वहां जाकर पता चला। इंडिया में तो ये सिर्फ मनोरंजन है लेकिन बाकी लोगों के लिए ये ख़ुद को अभिव्यक्त करने का एक तरीका है और ख़ुद को अभिव्यक्त करने के बहुत सारे तरीके हैं।

सत्यजीत रे फ़िल्म संस्थान में किन फ़िल्मों ने आपको एकदम हिलाकर रख दिया?
ऐसे तो याद नहीं लेकिन किश्लोवस्की (Krzysztof Kieślowski) एक पॉलिश फ़िल्ममेकर थे जिनकी फ़िल्म से मैं बहुत ज्यादा प्रभावित हुई थी। अकीरा कुरोसावा (Akira Kurosawa ) हैं, उनकी ‘सानशीरो सुगाता’ (Sanshiro Sugata, 1943)। बहुत फ़िल्में थीं। इंडियन फ़िल्में भी थीं जिनके बारे में पहले मैंने सोचा भी नहीं था। फिर एक बहुत बड़ा प्रभाव था डॉक्युमेंट्री फ़िल्मों का, जिनका पहले मुझे कोई एक्सपोजर नहीं था और मुझे अहसास हुआ कि वो कितनी ज्यादा... मतलब एक टाइम को कैप्चर करती हैं। आपकी जेनरेशन को कैप्चर करती हैं। समाज के एक विशेष पहलू को कैप्चर करती हैं। ये इतिहास का सच्चा दस्तावेज होती हैं। तो मैं इन्हें यहां देख पा रही थी और बहुत खुश थी।

संस्थान में रोजाना तीन-चार फ़िल्म दिखाई जाती होंगी और यूं आपने सैंकड़ों फ़िल्में देखी होंगी?
हां...।

तब आपने और आपके दोस्तों ने फ़िल्में बनाने का सपना साथ देखा होगा। आज आप लोग बना पा रहे हैं तो एक-दूसरे की सफलता देखकर कैसा लगता है? कौन दोस्त फ़िल्मों में आज सफल हो पाए हैं?
ये तो बहुत अन्यायपूर्ण बात होगी सफलता को ऐसे आंकना। सक्सेस और फेलियर तो बहुत सब्जेक्टिव हैं। तो मैं सफलता को यूं नहीं मापती हूं। अगर वे अपना काम करते हुए खुश हैं तो मेरे लिए वही सक्सेस है। पर जो करना चाह रहे थे और कर रहे हैं, उनमें बहुत हैं। जो डायरेक्टर होता है उसे वक्त लगता है, इसलिए जो डायरेक्टर्स हैं वो धीरे-धीरे कर रहे हैं, जो टेक्नीशियंस हैं उनके लिए थोड़ा सा आसान होता है क्योंकि उनके ऊपर लोगों को इतना पैसा नहीं लगाना पड़ता है जितना डायरेक्टर के ऊपर लगाना होता है। बहुत सारे लोग कर रहे हैं। बहुत सारे साउंड डिजाइनर्स हैं। बहुत सारे सिनेमैटोग्राफर्स हैं, राइटर्स हैं जो मेरे साथ वहां थे और अब यहां हैं। मतलब हम उतना बात अब नहीं कर पाते हैं, मिल नहीं पाते हैं, बहुत बिजी हैं, पर...। बहुत सारे डॉक्युमेंट्री मेकर्स हैं जो वही करना चाहते थे जो कर रहे हैं और बहुत खुश हैं। कमर्शियली सफल नहीं हैं लेकिन बहुत खुश हैं।

आप भी साउंड डिजाइनिंग करना चाह रही थीं?
हां, साउंड डिजाइनिंग में करना चाहती थी पर वो हो नहीं पाया लेकिन एडिटिंग में साउंड डिजाइनिंग बहुत बड़ी भूमिका निभाता है।

थियेटर आपने पहले किया, अभी एडिटिंग कर रही हैं, बीच में साउंड की रुचि कहां से आई?
मुझे लगता है ये सब चीजें बहुत अलग-अलग या स्वतंत्र नहीं हैं। एडिटिंग कहानी कहना होता है और साउंड डिजाइनिंग उस कहानी को या में जोड़ना होता है। मतलब बिना साउंड के ज्ञान के आप एडिट नहीं कर सकते और बिना एडिटिंग के ज्ञान के आप साउंड डिजाइनिंग नहीं कर सकते। तो ऐसा नहीं है कि ये सब बहुत अलग हैं। ये सब एक-दूसरे से जुड़ी हुई हैं।

क्या एडिटर बनने के बाद आप लाइफ की बाकी चीजों या बातचीतों को भी एक सेंस में एडिट करने लगती हैं? मतलब, क्या आपकी एडिटिंग क्षमताएं फ़िल्मों के बाहर की दुनिया को भी वैसे ही देखती या समझती है? आपकी पर्सनैलिटी में वो कहीं न कहीं आ गया है?
हां, बिल्कुल होता है। पहले तो बहुत ही ज्यादा होता था, अभी काफी कंट्रोल में है। अब मैं सोच-समझकर ही करती हूं। पहले तो बहुत ज्यादा होता था, मतलब बहुत ही ज्यादा होता था। अब शायद मैं टेक्स्ट मैसेज मैं बहुत बार एडिट करके भेजती हूं। बातें एडिट करना तो मैंने बंद कर दिया है लेकिन पहले बहुत होता था। कभी क्या होता है कि आप फ़िल्म देखने चले जाओ तो आपको सिर्फ शॉट्स नजर आते हैं। वैसे कोशिश करती हूं कि मेरी वो पर्सनैलिटी बिल्कुल अलग रहे। अब फ़िल्मों को आम दर्शकों की तरह देखने की कोशिश करती हूं। लोगों की बातें सुनूं तो मैं ऑब्जर्व करने की कोशिश करती हूं क्योंकि कभी पर भी कहीं भी यूज हो सकती है ये चीज।

जर्नलिज़्म में अगर कोई एडिटर है तो उसे सिनिकल या दोषदर्शी होना जरूरी है रिपोर्टर के प्रति भी, उसकी खबर के प्रति भी और जो कंटेंट सामने पड़ा है उसके प्रति भी। फ़िल्म एडिटर के लिए भी सिनिकल होना जरूरी है या कोई दूसरा ऐसा इमोशन उसमें होना चाहिए ताकि फ़िल्म आखिरकार बहुत बेहतर होकर निकले?
एक अच्छा ऑब्जर्वर होना तो बहुत जरूरी है। कौन डायरेक्टर किस तरह से बिहेव करेगा... क्योंकि कई बार ऐसा होता है फ़िल्मों में, सीन्स में, कि जो एक्टर्स करते हैं उनको कई बार आइडिया भी नहीं होता है सीन्स में कि उन्होंने क्या-क्या एक्सप्रेशन दिए हैं, एग्जैक्टली किस बात में क्या किया था। तो आप उस भाव को एडिट करके लाते हो। आप उस वक्त उसे सही करते हैं। मान लीजिए आप किसी की डेट एडिट कर रहे हैं। दो लोग पहली बार मिल रहे हैं कहीं पर। तो किस तरह का अजनबीपन रहेगा? किस तरह बात करेंगे? कितना बात करेंगे? कैसे करेंगे? जाहिर है कैरेक्टर की अपनी एक समझ होती है लेकिन उसमें अनुकूल हाव-भाव आप शामिल करने की कोशिश करते हैं। तो मेरे हिसाब से एक एडिटर के तौर पर आपकी सबसे बड़ी जरूरत है कि आप जिंदगी के बहुत बेहतरीन ऑब्जर्वर हों। आपको लाइफ को लाइक करना आता हो।

मान लीजिए आपके सामने बहुत धूसर या कच्चेपन वाली फ़िल्में आती हैं। जैसे ‘गैंग्स ऑफ वासेपुर’ है या ‘शंघाई’ है। उनमें जो लोग हैं वो एक अलग ही भारत से नाता रखते हैं और उनको आपको एडिट करना होता है, तो क्या आपको लगता है आप पर्याप्त घूमी हुई हैं या आपने वैसे लोग पर्याप्त तौर पर देखे हुए हैं? या अगर प्रोजेक्ट ऐसा अलग आ जाए तो कैसे सामना करती हैं? आप जाकर देखती हैं या कैसे संदर्भ लेती हैं?
मैं इसी देश में पली-बढ़ी हूं। पूर्वी दिल्ली में पली-बढ़ी हूं। मुझे पर्याप्त आइडिया है। मैंने बहुत ट्रैवल किया है। आज भी करती हूं। मुझे लगता है कि मुझे अपने लोगों का एक निश्चित आइडिया है। और अगर कोई बहुत ही विशेष या तय विषय है जो मैंने कभी देखा नहीं है, जैसे मैंने कभी मर्डर होते हुए तो देखा नहीं और ना मेरी इच्छा है देखने की। अब अगर मुझे मर्डर का सीन एडिट करना है और मर्डरर का माइंडस्पेस दिखाना है तो उसके लिए मुझे एक निश्चित मात्रा में कल्पना की जरूरत होगी। आपके डायरेक्टर का भी यही रोल होता है कि आपको ठीक-ठीक बताए और आप सोचें। जैसे, हर तरह के दंगे अलग होते हैं। मैं जब दिल्ली में थी तो सिख दंगे देखे थे, उसके बाद मंडल कमीशन के दौरान देखे थे। लेकिन अब जो ‘शंघाई’ के दंगे थे वो बहुत ही अलग थे। मतलब वो बिल्कुल ही पॉलिटिकल दंगे थे। मैंने ऐसे कभी नहीं देखे थे। तो आप डील करते हैं। डायरेक्टर भी बताता है, ब्रीफ करता है। और डायरेक्टर ने भी दंगे देखें हों ये जरूरी नहीं। तो ऐसी चीजों को डॉक्युमेंट करने के लिए उनको अनुभव करना जरूरी नहीं है, उनके बारे में आपकी दूरदर्शिता या विज़न होना जरूरी है कि क्या सोचकर करें जो भी करें।

किस फ़िल्म के लिए अब तक सबसे ज्यादा रॉ मटीरियल आपको मिला है और कितनी दिक्कत आई? जैसे 20 घंटे का माल हो और उसे काटकर दो घंटे का करना हो। ऐसी फ़िल्में कौन सी रही हैं और ऐसा होता है तब क्या करती हैं?
ऐसा मेरे साथ कई बार हुआ है। काफी सारी फ़िल्मों में हुआ है। ज्यादा घंटे की शॉट फ़िल्म है और फ़िल्म दो घंटे की ही बनानी होती है। ये तो हर बार होता है। मेरा एक प्रोसेस है। मुझे जो चीजें अपील करती हैं उन्हें मैं रख लेती हूं और बाद में यूज़ करती हूं। जैसे, ‘बैंड बाजा बारात’ में मुझे पता था कि ये दो मुख्य किरदार हैं और इन्हें इस तरह प्रेजेंट करना है कि लोग इन दोनों से कनेक्ट करें और दिल्ली में शादी और वेडिंग प्लैनिंग का माहौल बने। मतलब सबकुछ रियल हो और आपको लगे कि ये हमारे पड़ोस में रहते हैं। मैंने एडिट पर यही कोशिश की। हमारे पास काफी सारा फुटेज था। धीरे-धीरे-धीरे-धीरे ... मतलब मेरा सामना जब भी अत्यधिक फुटेज से होता है तो पूरी मुश्किल को मैं छोटे-छोटे टुकड़ों में बांट देती हूं। मैं जितने छोटे-छोटे-छोटे-छोटे टुकड़ों में फुटेज को बांट सकूं, बांट देती हूं। फिर इन छोटे-छोटे-छोटे-छोटे टुकड़ों को हल करती चलती हूं। मतलब जब मैं छोटी चीज के बारे में सोच रही हूं तो मैं बड़ी चीज टालती हूं।

जैसे आप छोटे-छोटे टुकड़ों में बांटती चलती हैं तो उस दौरान पूरा का पूरा मटीरियल अपने जेहन में याद रखती हैं? क्या एक खास सेक्शन को छोटे टुकड़ों में बांटती हैं, फिर उसे निपटाती हैं? फिर दूसरे पोर्शन को टुकड़ों में बांटती हैं और उसको निपटाती हैं? या पूरी फ़िल्म का फुटेज आपने छोटे-छोटे टुकड़ों में बांट दिया और फिर उसे हैंडल करती हैं?
ऐसा कोई तरीका नहीं होता है। हर फ़िल्म को हल करने या एडिट करने का एक सिस्टम होता है। पहले मैं सीन को टारगेट करती हूं। फिर उस सीन में भी बहुत सारी फुटेज है तो वन टू थ्री, अलग-अलग ब्लॉक में विभाजित करती हूं। मतलब जितना आप उसे छोटी-छोटी इकाइयों में बांट देते हैं न, तो समझना और सुलझाना आसान रहता है। जब फील्ड वर्क पूरा हो जाता है तो सबको पिरोकर एक पूरी फ़िल्म बनती है तो उसको भी छोटे-छोटे हिस्सों में बांटती हूं और स्टोरी फ्लो और दूसरे पहलुओं के हिसाब से तह करती हूं। कि फर्स्ट हाफ हो गया, सेकेंड हाफ हो गया, फर्स्ट हाफ में फर्स्ट रील हो गई, सेकेंड रील हो गई, थर्ड रील हो गई। फर्स्ड रील में भी पहले दस मिनट हो गए, फिर अगले दस मिनट हो गए। उसमें भी अगर यूं, कि अच्छा, कैरेक्टर का इंट्रोडक्शन ऐसे नहीं बैठ रहा है, या बैठ रहा है तो ... मतलब जितने भी छोटे हिस्सों में उसे विभाजित करें, आसान हो जाता है। सबकुछ एक साथ तो कर नहीं सकते।

ये तरीका आपका पहली फ़िल्म से रहा है या पहली-दूसरी फ़िल्मों के बाद अनुभव से सोचा कि मुझे इस तरह से अपने काम को अनुशासित और व्यवस्थित करना चाहिए?
नहीं, शुरू से तो नहीं था। ऑन द जॉब हुआ है धीरे-धीरे। लगा कि ये तरीका हो सकता है चीजों को डील करने का। शुरू-शुरू में बहुत घबरा जाती थी इतना मटीरियल होता था। अब मैं उसे अच्छे तौर पर या लाभ मानकर लेती हूं। क्योंकि मेरे पास इतना मटीरियल है तो उतना ही लचीलापन और उतनी ही स्वतंत्रता है, अपनी कहानी कहने के लिए। पहले मैं थोड़ा घबरा जाती थी कि भगवान! कैसे होगा, मुझसे तो नहीं होगा! लेकिन अब ऐसा नहीं। अब तो लगता है, नहीं, जितना मेरे पास मटीरियल है उतनी ही मेरे पास पावर है। ये तो कर कर के ही सीखा है। ... और हर डायरेक्टर से आप कोई नई चीज सीखते हैं। हरेक के साथ काम करते हुए उनके स्टाइल को देखती रही और सीखकर चीजों को अपने में जोड़ती रही। उससे भी बहुत फर्क पड़ता है क्योंकि वे सभी बेहद विशिष्ट लोग हैं जिनका अपना-अपना नजरिया है, अपनी सोच है।

डायरेक्टर लोग भी तो आपसे सीखते होंगे? जैसे आप नई थीं तो अनुभवी लोगों से सीखा होगा लेकिन आज आपको बहुत सी फ़िल्मों का और सफल फ़िल्मों का अनुभव है तो कोई नया डायरेक्टर आता है वो भी आपसे काफी सीखता होगा?
मैंने दरअसल बहुत सारे फर्स्ट टाइमर्स के साथ काम किया है। ‘इश्किया’ अभिषेक (चौबे) की पहली फ़िल्म थी, ‘बैंड बाजा बारात’ मनीष (शर्मा) की पहली फ़िल्म थी। उसके बाद और भी दो-तीन छोटी फ़िल्में मैंने की हैं। अब भी कर रही हूं। मुझे लगता है कि एडिटिंग स्टोरीटेलिंग होती है और जो एक मूल स्टोरीटेलिंग होती है वो प्राकृतिक रूप से आप में होती है। कि या तो आप एक नेचुरल स्टोरीटेलर हैं। और जो दूसरी चीज होती है स्टोरीटेलिंग मं वो करत विद्या है, कि कर-कर के आपको समाधान आने लगते हैं। मतलब जब आपको समझ आने लगता है कि अच्छा अब ये समस्या आ रही है, कैरेक्टर का अब ये समझ में नहीं आ रहा है, इसका कैसे करूं। बोर हो रहा है, इसका मैं क्या करूं। तो ये चीजें आपको समझ में जल्दी आने लगती हैं। वो एक दूसरा पहलू है। जो दूसरी बेसिक स्टोरीटेलिंग वाला पहलू है, उसका और अनुभव का ज्यादा कनेक्शन नहीं है, सॉल्युशंस का कनेक्शन है। कि अगर स्टोरी काम नहीं कर रही है और आप अनुभवी हैं तो समाधान ज्यादा आने लगते हैं। चाहे पहली बार के निर्देशक ही क्यों न हो, मैं तो जितना ज्यादा सीख सकती हूं सीखती हूं। सब में कुछ न कुछ खास बात होती है। कुछ लोग बहुत अच्छा एक्टर्स के साथ व्यवहार करते है। यानी उन्हें इतनी बेहतरी से डायरेक्ट करते हैं। इतने आर्टिक्युलेट (स्पष्ट) होते हैं कि बहुत ही ग्रे इमोशन एक्टर्स को समझा पाते हैं। कि ये मुझे चाहिए और तुम इस तरह से निभाओ। कुछ ऐसे होते हैं जो बहुत सारा शूट करते हैं लेकिन अच्छे से जानते हैं कि मुझे ये पीस चाहिए या मुझे ये सब चाहिए और ये सब नहीं चाहिए। तीसरी तरह के निर्देशक वे होते हैं जो कभी हार नहीं मानते हैं। चाहे उन्हें बहुत सारी आलोचना मिल रही है। जैसे फ़िल्म रिलीज होने से पहले काफी सारे लोगों को दिखाई जाती है तो कई लोग आलोचना करते हैं, कई लोग अच्छा कहते हैं। कुछ डायरेक्टर होते हैं जो कभी हार नहीं मानते, वो लगे रहते हैं। उन्हें आलोचना भी मिलती है तो बहुत शांति से स्वीकार करते हैं। ये सब चीजें मैंने बहुत से निर्देशकों से सीखी। वे कभी हार नहीं मानते, सुझावों को लेकर बेहद खुले मन के होते हैं।

फ़िल्म स्टॉक और डिजिटल पर एडिट करने में मूलतः क्या फर्क है?
डिजिटल में आपको पैसों के बारे में इतना ज्यादा नहीं सोचना पड़ता। आप थोड़ा अतिरिक्त शूट कर लेते हैं। क्वालिटी के लिहाज से भी डिजिटल वाले स्टॉक की बराबरी करने की कोशिश कर रहे हैं तो गुणवत्ता में भी बहुत फर्क नहीं है। जाहिर तौर पर टेक्नीकली तो है, पर आम गणित करें तो इतना फर्क नहीं है जब मिलाना है या विलय करना है। एडिटर के लिए डिजिटल में अनुशासन कम होता है। वो अनुशासन कम होने से शूटिंग ज्यादा होती है। सेटअप टाइम कम होता है। तो मुख्यतः अनुशासन का फर्क है।

दोनों के लुक में तो कोई फर्क रहा नहीं, क्योंकि जितने भी सॉफ्टवेयर हैं, उनसे डिजिटल भी फ़िल्म स्टॉक की तरह ही लगने लगता है।
जी, बिल्कुल।

अगर आम दर्शक को समझाना हो कि एडिटिंग की प्रक्रिया मोटा-मोटी क्या होती है?
फ़िल्में शॉट्स में शूट की जाती हैं। मतलब छोटे-छोटे टुकड़ों में शूट की जाती हैं। एडिटिंग करते वक्त आप उन छोटे-छोटे हिस्सों को मिलाकर एक कहानी कहते हैं। कहानी ऐसी जो आपको समझ में आ रही है, आपको रोक कर रख रही है, आपको कहीं बोर नहीं कर रही है, क्रम में चल रही है और आपको वो छोटे-छोटे हिस्से अलग से नजर नहीं आ रहे हैं। तो एडिटर का काम ये होता है। ये मोज़ेक जैसा है, कि आप एक-दूसरे के ऊपर छोटे-छोटे टुकड़े लगा रहे हैं लेकिन ऊपर से देखें तो ये एक सुंदर डिजाइन दिखता है। आपको वो छोटे-छोटे टुकड़े बहुत पास जाने के बाद ही दिखेंगे। तो फ़िल्म एडिटिंग में वो जो भी मोज़ेक है, उसका डिजाइन समझ आना चाहिए, वो अच्छा लगना चाहिए और उसका कुछ मतलब भी होना चाहिए।

आप किस सॉफ्टवेयर पर एडिट करती हैं? फ़िल्म उद्योग में अभी कौन सा चलन में है? दूसरा, कोई इंडिपेंडेट फ़िल्ममेकर अगर खरीद नहीं कर सकता और अपने बेसिक लैपटॉप पर ही एडिट करना चाहता है तो क्या करे और उसे कौन सी बातों का ध्यान रखना चाहिए?
एविड (Avid) और एफटीपी (FTP) दो सॉफ्टवेयर हैं। फ़िल्म इंडस्ट्री में दोनों से काम हो रहा है। कई लोग एविड पर करते हैं, कई लोग एफटीपी पर करते हैं। दोनों के दोनों ही आजकल लैपटॉप पर इंस्टॉल हो सकते हैं। एविड थोड़ा सा महंगा पड़ता है निवेश के लिहाज से, एफटीपी थोड़ा सस्ता है। इंडिपेंडेंट फ़िल्ममेकर ज्यादातर एफटीपी को तवज्जो देते हैं क्योंकि खर्च कम आता है। मैंने अपनी डॉक्युमेंट्री फ़िल्म बनाई थी जो पूरी लैपटॉप पर एडिट की थी और मुझे कोई दिक्कत हुई नहीं। आजकल डिजिटल फॉर्मेट धीरे-धीरे भारी होता जा रहा है तो पता नहीं कैसे होता है, मुझे भी नहीं पता क्योंकि मैं अब लैपटॉप पर करती नहीं हूं। लेकिन मुझे नहीं लगता कि इसमें कोई भी मुश्किल होती होगी।

नए लड़के-लड़कियां एडिटिंग सीखना चाहें और किसी इंस्टिट्यूट में एडमिशन नहीं मिला हो तो कैसे सीख सकते हैं और आगे काम पा सकते हैं?
देखिए, इंस्टिट्यूट का बड़ा लाभ तो होता ही है क्योंकि वो सिर्फ फ़िल्म स्कूल नहीं होता लाइफ स्कूल होता है। क्योंकि इसमें आप इतने सारे आर्ट से परिचित होते हैं और आपको उनके बारे में सोचने और समझने का समय मिलता है, वो एक लाभ है। अगर फ़िल्म इंस्टिट्यूट न जा सकें तो बदले में आप एक डिजिटल एकेडमी में जहां आपको सॉफ्टवेयर सिखाए जाएं, वहां जा सकते हैं। इसके बारे में ज्यादा तो नहीं कह सकती क्योंकि मैं डिजिटल एकेडमी गई नहीं हूं तो पता नहीं वहां क्या सिखाया जाता है और क्या नहीं सिखाया जाता है। आप और भी तरीकों से सीख सकते हैं। आप किसी एडिटर को असिस्ट कर सकते हैं। मुझे लगता है कि एडिटर को असिस्ट करके सीखना बहुत-बहुत अच्छा तरीका है। वहां आप बिल्कुल मामले के बीचों-बीच होते हो। आप वहीं पर रहकर सब देख और कर रहे होते हो।

फ़िल्म रिव्यू जब भी होता है तो उसमें बहुत से समीक्षक फ़िल्म एडिटर के बारे में लिखते ही नहीं हैं। और जब भी लिखते हैं तो समझ भी नहीं पाते हैं कि फ़िल्म एडिटर ने किया क्या होगा क्योंकि उसको पता नहीं है कि रॉ स्टॉक कब मिला था? ब्रीफ कैसे किया था? पहले दिन से एडिटर शूट पर साथ थे? या लास्ट में उनको मटीरियल ही सिर्फ दिया गया? क्या आर्ग्युमेंट उनके और डायरेक्टर के बीच हुआ? तो आपने जब असल में उस चीज को एडिट किया है और आप उन असल हालातों को जानती हैं और आप जब देखती हैं कि कहीं जिक्र हुआ है नाम और इस तरह से हुआ है और ये कमेंट है जो फिट ही नहीं बैठ रहा है, ऐसा कुछ था ही नहीं जो लिखा गया है, ये आलोचनात्मक रूप से सही ही नहीं बैठ रहा है...। तो इन लिखी चीजों को आप कैसे लेती हैं? हमारे यहां एडिटिंग को लेकर कितनी समझ है और उसको कितना सही लिखा जा रहा है?
नहीं, ज्यादातर तो सही नहीं लिखा जाता है। बहुत ही कम रिव्यूज मैंने देखे हैं जहां कुछ उपयुक्त होता है मूवी के बारे में। ज्यादातर समीक्षक फ़िल्म के पेस और एडिटिंग को कनेक्ट करते हैं। कि गति अच्छी है तो एडिटिंग अच्छी है, नहीं है तो अच्छी नहीं है। लेकिन एडिटिंग सिर्फ गति के बारे में ही नहीं होती है। न ही ये सिर्फ बड़े कट्स के बारे में होती है। जैसे, कह देते हैं कि बड़े से कट्स थे, यहां से वहां हो गया, फास्ट हो गया बहुत ही...। तो न तो सिर्फ कटिंग होती है और न ही महज पेसिंग होती है। जैसे मैंने ‘कहानी’ की थी तो इतने सारे रिव्यूज में लिखा गया कि बड़ी अच्छी कटिंग है, लेकिन कटिंग से ही नहीं होता है। कई जगह बोला गया था कि इतनी ज्यादा तेज गति है कि कुछ समझ में ही नहीं आ रहा है। मुझे नहीं लगता कि ये दोनों चीजें एडिटिंग में किसी भी चीज का सही प्रतिनिधित्व हैं। ठीक है, ये दोनों चीजें अपने आप में कुछ हैं, लेकिन इन्हें ही सिर्फ एडिटिंग नहीं बोल सकते हैं। मैंने कई जगहों पर तो यह भी पढ़ा है कि एडिटिंग खराब थी पर फ़िल्म बहुत अच्छी थी। ... अब ये कैसे हो सकता है मुझे तो नहीं पता। पर ठीक है, क्योंकि मुझे लगता है कि एडिटिंग एक ऐसी चीज है जिसके बारे में ज्यादा पता होना भी नहीं चाहिए। जिन्हें रुचि है सिर्फ उन्हीं को पता होना चाहिए। आम आदमी या दर्शक को इतना ज्यादा पता होने की जरूरत नहीं है। सिनेमा को इतना ज्यादा अगर हम डीकंस्ट्रक्ट कर देंगे न, कि हर चीज ऑडियंस को पता है, मुझे लगता है फिर उसका जादू नहीं रहता है। फिर सिनेमा एक अलग ही चीज हो जाएगी। मैजिक होना जरूरी है। कि अब पता नहीं क्या हो रहा है, किसने क्या किया है एग्जैक्टली पता नहीं लेकिन मैं एक्टरों में बिलीव करती हूं। जो एक्टर डायलॉग बोल रहा है मुझे लग रहा है कि बहुत ही सच है। उस जादू को बनाए रखने के लिए मुझे यकीन करना होगा कि ये जो भी हो रहा है, सच है। जितना ज्यादा मुझे पता होगा कि पीछे की तरफ ये लेंस लगाया गया था, यहां से लाइट मारी थी, तो फिर मजा नहीं रहेगा ऑडियंस के लिए। ठीक है, जो लिख रहे हैं उन्हें लिखने देना चाहिए। वो जो भी लिखें कोई फर्क नहीं पड़ता है।

लेकिन क्या ये संभव है कि एडिटर की वस्तुस्थिति जानी जा सके। क्योंकि फिल्म कैसे भी शूट हुई हो, कितना भी बुरा फुटेज हो, एडिटर उसे जादूगरी से बदल देता है। क्या उसका सही योगदान पता नहीं लगना चाहिए लोगों को। या बस एडिटर जानता है और डायरेक्टर उसे थैंक्स बोल देता है, इतना पर्याप्त है?
ये बहुत ही मुश्किल है कहना। मुझे लगता है कि अगर इंडस्ट्री में लोगों को पता चल जाए, इतना काफी है ताकि आपको और अच्छा काम मिलता रहे। उससे ज्यादा दर्शकों को बताना मेरे ख़्याल से इतना जरूरी नहीं है। सिडनी लुमिया (Sidney Lumet) ने कहा था या पता नहीं किसने कहा था कि, “एक संपादन कक्ष में क्या होता है, ये सिर्फ दो लोग जानते हैं, एक तो फ़िल्म का डायरेक्टर और एक एडिटर” (what happens in an editing room, only two people know, the director and the editor)। अगर आप बेहद अनुभवी एडिटर हैं तो फ़िल्म देखकर बता सकते हैं कि अच्छा ये हो सकता था और ये नहीं हुआ या ये बहुत अच्छा हुआ है। इसके अलावा मुझे नहीं लगता कि कोई तीसरा पक्ष इस विषय के बारे में जान सकता है या टिप्पणी कर सकता है।

आपने जितनी फ़िल्में अभी तक एडिट की हैं और उनका जो अंतिम नतीजा रहा है, क्या उनको और भी बहुत सारे तरीकों से एडिट किया जा सकता था, या वो ही बेस्ट रास्ते थे एडिट करने के?
मेरे लिए तो वही बेस्ट रास्ते थे। पर मैं आश्वस्त हूं कि आप उसको एडिट करते तो वो अलग होते, तीसरा कोई करता तो वो अलग होते। ये तो बहुत ही वस्तुपरक (subjective) है। जैसे, मैं जब दूसरी फ़िल्में देखती हूं और कभी बोर हो रही होती हूं फ़िल्म से तो फिर मैं एडिटिंग देखने लग जाती हूं। सोचती हूं कि मैं ऐसे करती, वैसे करती। तो ये बहुत अलग है। कोई भी ऐसा नहीं हो सकता कि एक ही तरह से एडिट करे। पर मेरे लिए एक ही तरीका होता है। जैसे, आप और मैं बात कर रहे हैं तो मैं किस टाइम पर आपको देखूं और किस टाइम पर किसी और चीज को देखूं, मुझे ये बहुत ही ऑर्गेनिक लगता है। शायद आपको कुछ और ही लगे ऑर्गेनिक। आप तो मुझसे बहुत अलग इंसान हैं न। अलग परवरिश है, अलग अनुभव हैं तो उनके हिसाब से आप अपनी स्टोरीज बताएंगे। मैं अपने हिसाब से बताऊंगी तो वो कहीं से भी सेम हो ही नहीं सकती हैं। पर बात ये है कि जो भी मैं करती हूं मुझे वो ऑर्गेनिक लगता है। जब भी मुझे लगता है कि ये (तरीका) जबरदस्ती है तो फिर मैं उसके बारे में ज्यादा सोचती हूं। कुछ ऐसे थीम होते हैं जो आपको ऑर्गेनिकली नहीं आते हैं, अगर आपको बार-बार उन पर काम करना पड़ता है तो।

मैं जैसे कोई स्टोरी एडिट करता हूं तो मुझे एडिट करने से पहले पता नहीं होता है कि एडिट करने के बाद उसका स्वरूप मैं कैसा बना दूंगा लेकिन मुझे पता होता है कि जब भी मुझे ऐसी मुश्किल आएगी तो मैं उसका सामना ऐसे करूंगा। क्या आपका दिमाग भी वैसे ही चलता है या आपको एकदम पता होता है कि फ़िल्म ऐसी नजर आएगी?
नहीं, मुझे बिल्कुल नहीं पता होता है कि क्या होने वाला है। मुझे कहीं-कहीं आइडिया होते हैं कि इसको यहां पर ऐसे बदलकर और इंट्रेस्टिंग बनाया जा सकता है, लेकिन एक सटीक विजुअल तो मेरे दिमाग में नहीं होता है।

कोई अगर एडिटिंग पढ़ना चाहे तो क्या किताबें हैं या सब कुछ प्रैक्टिकल खेल है? या फ़िल्में ज्यादा से ज्यादा देखी जाएं और सीखा जाए?
बुक्स तभी हेल्प करती हैं जब आपको कुछ प्रैक्टिकल अनुभव होता है। जब मैं फ़िल्म स्कूल में थी और किताबें पढ़ रही थी तो मुझे एडिटिंग एक अलग ही चीज लगती थी लेकिन एक बार जब मैंने प्रैक्टिस करना शुरू किया और काम हाथ में लिया तो जो किताबों में पढ़ा था वो बिल्कुल ही अलग दिखने लगा। सबके अलग-अलग मतलब निकलने लगे। मैं यही कहूंगी कि एडिटिंग करत विद्या है। आप जो भी किताबें पढ़ते हैं आपको हेल्प जरूर करेंगी, बिल्कुल करेंगी लेकिन प्रैक्टिकल अनुभव या अपने हाथ से की एडिटिंग का मुकाबला कोई ज्ञान नहीं कर सकता।

अब आपको मूवीज देखने के लिए टाइम मिलता है या एडिटिंग में व्यस्त रहती हैं?
फ़िल्म देखना बहुत जरूरी है, मेरे को तो लगता है कि वही बेस्ट लर्निंग है। जब आप ऑडियंस के साथ फ़िल्म देखते हैं, उससे अच्छी लर्निंग कोई दूसरी नहीं है। वो करना तो जरूरी होता है। बिल्कुल करती हूं मैं।

आप महीने या साल में कितनी फ़िल्में देख लेती हैं?
मैं कोशिश करती हूं रोज एक फ़िल्म देखने की, कभी-कभी नहीं हो पाता है। पर हफ्ते में दो, तीन, चार तो देख ही लेती हूं।

कौन से फ़िल्म एडिटर दुनिया में ऐसे हैं जिनकी आप बहुत प्रशंसा करती हैं?
थेल्मा शूनमेकर (Thelma Schoonmaker – ‘ह्यूगो’, ‘रेजिंग बुल’, ‘द डिपार्टेड’) मुझे बहुत पसंद हैं। वॉल्टर मर्च (Walter Murch – ‘द गॉडफादर’, ‘द कॉन्वर्जेशन’, ‘अपोकलिप्स नाओ’, ‘द इंग्लिश पेशेंट’) की एडिटिंग पसंद हैं क्योंकि वे बेहद आर्टिक्युलेट हैं। इसके अलावा कुछ फ़िल्में मुझे बहुत ही अच्छी लगती हैं जिनके एडिटर्स का नाम मुझे नहीं पता। ‘ब्लैक हॉक डाउन’ (Pietro Scalia) है, ‘डाउट’ (Dylan Tichenor) है और भी बहुत सी हैं। मुझे लगता है कि एडिटिंग में भी एक्सपेरिमेंट करना बहुत जरूरी है जिस किस्म की भी स्टोरी आपके पास हो। नया एक्सपेरिमेंट फ़िल्म में कहीं छिपा होना चाहिए, मतलब ऑडियंस को कुछ नया महसूस होना चाहिए पर उनको हर चीज दिखनी नहीं चाहिए।

आपके जो समकालीन एडिटर हैं भारत में, उनमें से किसका काम अच्छा लगता है, जो नया कर रहे हैं?
बहुत सारे हैं। श्रीकर सर (A. Sreekar Prasad – ‘राख़’, ‘वानाप्रस्थम’, ‘फिराक़’, ‘दिल चाहता है’) हैं। वो कितनी सारी अच्छी फ़िल्में कर चुके हैं। दीपा (Deepa Bhatia – ‘हज़ार चौरासी की मां’, ‘देव’, ‘तारे जमीं पर’, ‘काई पो चे’) है, आरती (Aarti Bajaj – ‘ब्लैक फ्राइडे’, ‘जब वी मेट’, ‘रॉकस्टार’, ‘पान सिंह तोमर’) है। ये बहुत अलग तरह का काम कर रही हैं। बहुत रोचक।

आपकी ऑलटाइम फेवरेट मूवीज कौन सी हैं, इंडियन और विदेशी?
ये तो बहुत ही मुश्किल सवाल है, इसका मेरे पास कभी कोई जवाब नहीं होता है क्योंकि ये नाम बदलते रहते हैं। मुझे बहुत सारी फ़िल्में अलग-अलग टाइम पर अच्छी लगती हैं। जैसे, मुझे ‘गरम हवा’ बहुत अच्छी लगी थी। जब देखी थी तो हिल गई थी। फिर कुछ और देखने की इच्छा बाकी न रही। मुझे ‘परिंदा’ बहुत अच्छी लगती है, ‘मिस्टर इंडिया’ बहुत अच्छी लगती है, ‘जाने भी दो यारों’, ‘अंदाज अपना-अपना’, फिर... ‘दीवार’ बहुत अच्छी लगती है। एक टाइम था जब ‘हम आपके हैं कौन’ बहुत अच्छी लगती थी। ‘दिलवाले दुल्हनिया ले जाएंगे’ बहुत अच्छी लगती है। अलग-अलग फेज में अलग-अलग पसंद होती हैं। फ़िल्म स्कूल जाकर वर्ल्ड सिनेमा को देखा। किश्लोवस्की की फ़िल्में बहुत अच्छी लगने लगीं। तब कुछ खास किस्म की फ़िल्मों को ही मैं ज्यादा एंजॉय कर पाती थी। अब ऐसा है कि कोई भी फ़िल्म अगर मुझे एंगेज करती है तो मुझे अच्छी लगती है। कोई परवाह नहीं कि स्लो है या उसमें कुछ और है... अगर आप मुझे थाम कर रख सकते हो तो मुझे बहुत अच्छी लगती है। मैं किसी फ़िल्म को पसंद करने के लिए बहुत ज्यादा प्रयास करना पसंद नहीं करती हूं। फ़िल्म में कोई न कोई जुड़ाव होना चाहिए जो मुझे दिखा रही हो।

डायरेक्टर्स में अभी कौन अच्छा काम कर रहे हैं?
वे जिनके साथ आपने काम किया है और वे जिनका सिर्फ काम देखा है। मैं तो उन्हीं के साथ काम करती हूं जो मुझे बहुत अच्छे लगते हैं तो पूछना ही बेकार है। दिबाकर (बैनर्जी), सुजॉय (घोष), मनीष (शर्मा) जिनके साथ मैंने अब तक काम किया है। ‘इश्किया’ में अभिषेक चौबे।, मुझे मजा आया। अनुराग बासु का काम भी बहुत पसंद है। वह बहुत अच्छे डायरेक्टर और स्टोरी टेलर हैं। फिर अनुराग कश्यप हैं, जोया (अख़्तर) है... मुझे जोया का काम बहुत पसंद है।

सभ्यताओं के बसने के बाद से ही स्पष्ट नहीं हो पाया है कि आप प्रेरणा किसे मानते हैं? या इंस्पिरेशन होना कितना बुरा है या अच्छा है? जैसे आपने अनुराग बासु का नाम लिया तो ‘बर्फी’ को लेकर काफी रहा कि जो सीन्स थे वो दूसरी फ़िल्मों से थे। अभी स्पष्ट नहीं है कि डिबेट किस तरफ जानी चाहिए क्योंकि एक तरह से तो सारी फ़िल्में इंस्पायर्ड ही हैं। कुछ भी मौलिक या ऑरिजिनल तो एक लिहाज से है ही नहीं। ‘बर्फी’ आई तो कुछ लोग बिल्कुल सपोर्ट में खड़े हो गए कि नहीं, अनुराग ने पुरानी फ़िल्मों को श्रद्धांजलि दी, कुछ कहते हैं कि नहीं, उन्होंने अपनी तरफ से क्या प्रयास किया था। फ़िल्म स्कूल में ये डिबेट तीन सालों में जरूर रही होगी। आपकी सोच क्या है?
मैं निजी तौर पर दूसरे लोगों के काम से चीजें लेने के पक्ष में नहीं हूं। प्रेरणा अलग चीज होती है, ट्रिब्यूट अलग चीज होती है। जैसे ‘द अनटचेबल्स’ (The Untouchables, 1987) में ब्रायन डी पाल्मा ने ‘ओडेसा स्टेप्स सीन’ (फ़िल्म ‘बैटलशिप पोटयेमकिन’, 1925 का एक आइकॉनिक दृश्य) को ट्रिब्यूट दी थी। उस तरह के स्टेप्स लिए थे जहां उनकी फाइट होती है। वो अलग चीज है लेकिन कोई सीन कहीं से उठा लेना और उसे अपना बताना एक अलग चीज है। मुझे नहीं पता, पर ये ओपन डिबेट है। अगर मैं एक फ़िल्ममेकर हूं तो मैं ये नहीं करूंगी। मैं जानबूझकर या इरादतन किसी के सीन्स को उठाकर हूबहू वैसे यूज नहीं करूंगी। पर किसी फ़िल्ममेकर को मुझे ट्रिब्यूट देनी है तो.. जैसे ‘कहानी’ में सत्यजीत रे को ट्रिब्यूट है कि विद्या खिड़की के पास खड़ी हैं और वहां से देवी को गुजरते देखती हैं, वो बिल्कुल ट्रिब्यूट है ‘चारुलता’ को, लिफ्टेड नहीं है। जैसे खिड़की में चलकर मदारी को देखती है चारुलता और ऐसे ही विद्या देवी को गुजरते हुए देखती है। मेरे लिए ये उचित ट्रिब्यूट है। लेकिन मैं किसी पर टिप्पणी नहीं कर सकती क्योंकि ‘बर्फी’ के कौन से दृश्य कहां से हैं और क्या माजरा है, इसकी जांच मैंने की नहीं है इसलिए जानती नहीं कि उसमें जो है वो क्या है। लेकिन एक फ़िल्ममेकर के तौर पर और व्यक्तिगत रूप से मैं जानती हूं कि अनुराग बासु कहानी कहने की एक विशेषता रखते हैं।

फ़िल्म एडिटिंग में अभी क्या चुनौतियां हैं? क्या इनवेंशन और इनोवेशन की कमी हम में और हॉलीवुड में भी है, क्योंकि एक जॉनर की फ़िल्म आती है तो उनमें समान तरह का पेस और प्रस्तुति होती है? जैसे एक्शन और स्टंट वाली फ़िल्मों में एडिटिंग का उनका एक अलग ही फॉर्म्युला बना हुआ है। एडिटिंग की दुनिया में भीतरी बहस अभी क्या चल रही है?
सबसे बड़ी बहस तो यही होती है कि आधे लोग (एडिटर या फ़िल्ममेकर) ये यकीन रखते हैं कि दर्शकों को ये देखना है तो हम ये करेंगे और आधे लोग ये यकीन रखते हैं कि आपको क्या पता दर्शकों को क्या चाहिए, आप तो दर्शक क्रिएट कीजिए। एडिटिंग में भी सवाल आता है, मैं जिस सवाल का रोज सामना करती हूं कि ये फ़िल्म किसके लिए है? ये फ़िल्म डायरेक्टर अपने लिए बना रहे हैं कि दर्शकों के लिए बना रहे हैं? वो ऑडियंस कौन है? क्या मैं फ़िल्म रिलीज से पहले पता कर सकती हूं कि वो दर्शक कौन हैं? क्या मेरी ये रींडिग सही है या मैं सिर्फ अपने पास्ट एक्सपीरियंस से जा रही हूं। क्योंकि हम देखते हैं कि दर्शक हर बार अलग तरह से प्रतिक्रिया देते हैं। तो आपकी जो स्टडी है, किस बात पर बेस्ड है। और सबसे ज्यादा मुझे लगता है कि फ़िल्मों में करप्शन भी इसी बिंदु पर प्रवेश करता है। क्योंकि आपको लगता है कि फ़िल्में ये बन रही हैं क्योंकि दर्शकों को ये देखना है, ये तो एक बहुत ही आसान-सहज सोच बना दी गई है। मतलब आप ये फ़िल्म बना रहे हैं क्योंकि आपको ये फ़िल्म बनानी है, कौन देखता है कौन नहीं देखता है ये तो बाद की बात है। ये जो ‘ऑडियंस’ शब्द है न जो फ़िल्मों को गवर्न करता है, सबसे बड़ी डिबेट तो यही चलती है, अंदरूनी भी और बाहरी भी। मतलब कि कौन है ये दर्शक, जिन्हें आप परोस रहे हैं। जैसे, अनुराग, दिबाकर या छोटी फ़िल्में जो बना रहे हैं, क्या ये किन्हीं दर्शकों को केटर कर रहे हैं या इन्होंने अपने दर्शक ख़ुद बनाए। क्योंकि ऐसी फ़िल्में भी पसंद करते ही हैं कुछ लोग। सिर्फ ऐसा नहीं है कि लोग बड़ी फ़िल्में ही पसंद करते हैं। ‘विकी डोनर’ जैसी फ़िल्म को भी तो दर्शक मिले हैं तो क्या उन्होंने पहले से सोचा होगा। क्या दर्शकों को पहले से पता होगा। ऐसा नहीं होता है तो मतलब ये एक आसान सी टर्म है जो फॉर्म्युला में डालकर यूज कर ली जाती है। मुझे लगता है कि ये सबसे बड़ी और मौजूदा वक्त में चल रही डिबेट है। मेरे को आज छह साल हो गए हैं कि छह साल में मेरे पास तो कोई जवाब आज तक नहीं आया है कि आप एडिटिंग जो कर रहे हैं तो किसके लिए कर रहे हैं? कि आप बोर न करें, तो किसको बोर न करें? मतलब कौन बोर हो रहा है? फ़िल्ममेकर बोर हो रहा है देखते हुए या ऑडियंस बोर होगी जिसने फ़िल्म अभी तक देखी ही नहीं है।

इतनी फ़िल्मों की एडिटिंग आपने की है तो आखिरी नतीजे के लिहाज से अपनी कौन सी फ़िल्म की एडिटिंग से आप बहुत खुश हैं, संतुष्ट हैं?
बहुत मुश्किल है कहना। ‘कहानी’ में काम करने में हम लोगों को बहुत मजा आया था क्योंकि ये वाकई में एक बहुत प्यारी और छोटी सी फ़िल्म थी। लेकिन मुझे उतना ही मजा ‘एलएसडी’ में आया था, मुझे उतना ही मजा ‘बैंड बाजा बारात’ में आया था, उतना ही मजा ‘इश्किया’ में भी आया था और ‘ओए लक्की! लक्की ओए!’ मेरी पहली फ़िल्म थी तो मेरी खुशी का ठिकाना ही नहीं था। अलग-अलग फ़िल्म से अलग-अलग याद जुड़ी हुई है। ‘जब तक है जान’ जब मैंने की थी तो यश जी के साथ काम करने का मेरा पहला अनुभव था। वो अपने आप में बहुत ही बड़ी बात थी मेरे लिए। मैं तो दूरदर्शन पर उनकी फ़िल्में देखकर बड़ी हुई हूं तो मैं तो कभी सोच ही नहीं सकती थी कि मेरे पास बैठकर वो मुझसे इस तरह से बात कर रहे होंगे। तो हर फ़िल्म की अपनी एक खुशी है। ‘कहानी’ में ये मजा आया कि इतनी सारी डॉक्टुमेंट्री किस्म की फुटेज थी। उसे शूट करके एक अलग ही परत बनाई गई फ़िल्म में, जिसका मुझे गर्व है।

संगीत का इस्तेमाल दर्शक को इमोशनली क्यू (उसके भावों को एक निश्चित दिशा में कतारबद्ध करना) करने के लिए किया जाता है। कुछ कहते हैं कि ये बहुत बासी तरीका है, वहीं सत्यजीत रे की फ़िल्में भी संगीत का जरा अलग लेकिन इस्तेमाल लिए होती थीं। जैसे फ़िल्म की कहानी में कोई बहुत बड़ी ट्रैजेडी हुई तो वीणा या सितार उसी भाव में बजकर क्यू करेगा कि भई बड़ा दुख का मौका है। क्या आप इसे बासी तरीका मानती हैं या नहीं मानती हैं? क्या ये हर फ़िल्म के संदर्भ पर निर्भर करता है?
बिल्कुल निर्भर करता है। जैसे अगर आप ‘एलएसडी’ जैसी फ़िल्म बना रहे हैं जो फाउंड फुटेज पर बनी है। कि ये किसी ने एडिट नहीं की है, ये किसी ने शूट नहीं की है। ये किरदारों ने ही शूट की है और उन्होंने ही बनाई है। उसमें अगर मैं बैकग्राउंड म्यूजिक डालती हूं तो अपने संदर्भ या कथ्य को ही हरा रही हूं। वहीं अगर मैं ऐसी फ़िल्म बना रही हूं जिसके बारे में मैं पहले बिंदु से ही कह रही हूं कि ये तो काल्पनिक है, कि मुझे तो पता नहीं है कि ये सच है कि झूठ है, जिसका किसी जिंदा व्यक्ति से किसी तरह का कोई लेना-देना नहीं है.. तो ऐसी स्थिति में संगीत के साथ मैं जैसा करना चाहूं कर सकती हूं। अगर मुझे किसी बिंदु पर लग रहा है कि यहां ये संगीत लाकर दर्शकों को मैन्युपुलेट कर सकती हूं और अगर उस मैन्युपुलेशन से मुझे कोई नैतिक दिक्कतें नहीं हैं तो करूंगी। इन दिनों मैं कई ऐसे निर्देशकों से मिलती हूं जिन्हें संगीत नैतिक तौर पर गलत मैन्युपुलेशन लगता है। मेरे लिए ये डिबेटेबल है। क्योंकि मुझे लगता है संगीत ही क्यों, आप डायलॉग्स से भी तो वही मैन्युपुलेशन कर रहे हैं, आप कट्स से भी तो वही मैन्युपुलेशन कर रहे हैं... मतलब कुछ खास कैमरा शॉट्स भी तो मैन्युपुलेशन है न। मुझे संगीत मैन्युपुलेशन नहीं लगता है, पर ये नहीं होना चाहिए कि पांच सौ वॉयलिन बज चुके हैं और जो इमोशन आपके विजुअल में नहीं है आप उसे ही अपने म्यूजिक में डाल रहे हैं तो उस पर मैं सवाल जरूर उठाऊंगी। अगर आप संगीत से किसी दृश्य को सहयोग कर रहे हैं, अगर संगीत से मुझे किसी और ही दुनिया में लेकर जा सकते हैं, विजुअल और म्यूजिक से अगर आप एक तीसरे दृष्टिकोण का निर्माण कर रहे हैं तो कोई आपत्ति नहीं है।

Namrata Rao is an Indian film editor. She Started with Dibaker Banerjee's Oye Lucky! Lucky Oye! in 2008. Later on she edited films like Ishqiya (2010), Love Sex aur Dhokha (2010), Band Baaja Baaraat (2010), Ladies vs Ricky Bahl (2011), Kahaani (2012), Shanghai (2012) and Jab Tak Hai Jaan (2012). For Kahaani she received 60th National Film Award for Best Editing. Now she's doing the editing of Maneesh Sharma's Shuddh Desi Romance, slated to release on September 13, this year.
******      ******      ******

Friday, June 28, 2013

ये ग़लत ख़्याल है कि फ़िल्मों में हमारी हीरोइन्स ही हमारा समाज हैं, हमारे समाज की औरतें तो ऐसी नहीं हैं : सुभाष घई

 Q & A  .Subhash Ghai, Ace filmmaker, India.
Posters of Subhash Ghai Films.
तब एक चैनल आया करता था, एटीएन। दोपहर में ‘मेरी जंग’ उस पर बहुत दिखाई जाती थी। हर बार अच्छी लगती थी। अरुण (अनिल कपूर), उसकी मां (नूतन) और छोटी बहन कोमल (खुशबू) की कहानी। पिता (गिरीष कर्नाड) पर ख़ून का झूठा इल्ज़ाम लगता है और एक नामी वकील ठकराल (अमरीश पुरी) फांसी दिलवा देता है, उसकी बेगुनाही जानते हुए भी। “जिंदगी, हर कदम, इक नई, जंग है... जीत जाएंगे हम, जीत जाएंगे हम, तू अगर संग है... जिंदगी...” इस गीत को गाते हुए नन्हा सा अरुण छहरहा-गंभीर नौजवान अरुण वर्मा बन जाता है। एक वकील। डिफेंस लॉयर। ठकराल की केस स्टडी करता हुआ। छोटी बहन को मां-बाप दोनों का प्यार देता है। मां तो पति की फांसी और घर नीलाम होने के बाद पाग़ल हो जाती है। अरुण को नहीं पता कि वह पाग़लखाने में है। खैर, उनके दुख, संघर्ष, संघर्षों का सामना करने की हिम्मत, जिजिविषा और बदला चुकाने की बारी... एक ऐसी कहानी का हिस्सा बनते हैं जिसे देखने का मन बार-बार करता था।

ये हिम्मत देती थी। कि, जैसे इन्हें दुख आ रहे हैं, हमें भी आ रहे हैं और हमें भी हिम्मत रखनी चाहिए। कि जैसे ये पढ़-लिखकर लायकी ला रहे हैं और जीकर दिखा रहे हैं, हमें भी जीना चाहिए। अरुण वर्मा की लड़ाई हमारी लड़ाई बन गई थी। मां बनी नूतन की बतौर अभिनेत्री वही छवि ज्यादा करीब हो गई थी, ‘बंदिनी’ वाली नहीं। दुखियारी मां, जो पागल है, क्या उसे न्याय मिलेगा? पर मौका मिलता है। अरुण के पास डॉ. आशा माथुर (बीना) का केस आता है। उस पर मरीज को दवाई के नाम पर ज़हर देकर मारने का इल्ज़ाम है। वह केस लड़ने से मना कर देता है क्योंकि झूठे केस नहीं लेता। लेकिन जब डॉ. की बहन गीता (मीनाक्षी शेषाद्रि) अरुण को कहती है, “जिसके पास कोई सबूत कोई गवाह नहीं होते, क्या वे बेगुनाह नहीं होते”, तो वह द्रवित हो जाता है। ये वही पंक्ति है जो उसकी मां ने ठकराल को कभी अदालत में अपनी पति की जान की भीख मांगते हुए कही थी और किसी ने अरज नहीं सुनी थी, लेकिन 8 साल का अरुण सुन रहा था। तो अब अरुण केस लड़ता है। अदालत में उसका अभूतपूर्व हीरोइज़्म दिखाते हुए और असामान्य रास्ता अपनाते हुए सबूत के तौर पर पड़ी ज़हर भरी दवा की शीशी पी जाना, आज भी जेहन में ताज़ा-ताज़ा जिंदा है। पूरे अधिकार से वह दृश्य दिमाग में बिस्तर लगाए लेटा है। इतने बरसों से। कभी वकील बनना होता तो पक्का ही ऐसे प्रयोग जरूर करता। तो यूं वह डॉक्टर आशा को छुड़वा लेता है।

फिर वह पियानो वाला क़िस्सा आता है। हिंदी सिनेमा में पियानो जैसे उपकरण वो चीज़ें हैं जो हमारे घरों के लिए सिर्फ फ़िल्मी ही बात थीं। भला असली दुनिया में कौन तो पियानो बजाता था और कौन तो बजाते हुए गाता था! बहरहाल ब्रिटिश राज की एक बड़ी निशानी यूं पीछे छूट गई थी, शायद। जब अरुण को अप्रतिम मदद के लिए फीस बताने का अनुरोध डॉक्टर कपल (आशा के पति के रोल में परीक्षित साहनी) करते हैं तो अरुण उनके घर पड़ा पियानो मांग लेता है। ये वही पियानो होता है जो उसके पिता बजाते हुए गाते थे। उस पर लगा कृष्ण का स्टिकर डायरेक्टर सुभाष घई की तमाम फ़िल्मों की एपिक भारतीय फिलॉसफी का प्रतिनिधित्व करता है। सारी ‘कर्मा’, ‘खलनायक’, ‘विधाता’, ‘विश्वनाथ’, ‘राम लखन’, ‘मेरी जंग’ और ‘परदेस’ ऐसी ही जिंदगी के संघर्ष की भारतीय फिलॉसफी से बनी थीं। ये फिलॉसफी उस दौर में गांवों से शहरों और शहरों से महानगरों में आकर जिंदगी का संघर्ष करने वाले हमारे पिताओं का ईंधन भी थी और उस पीढ़ी का आईना भी। वो बूढ़ी हो रही पीढ़ी आज भी ‘शराबी’, ‘कर्मा’ और ‘मशाल’ में खुद को ढूंढती है, हालांकि दौर अब दूसरे किस्म की पीढ़ी का आ चुका है। अब जो संघर्ष कर रहे हैं वो ‘इंडियन आइडल जूनियर’ और ‘डांस इंडिया डांस लिटिल चैंप्स’ में अपने बच्चों की प्रतिभा की आस पर कर रहे हैं। बाकी जिनके पिता लोगों की जिंदगी घई, चोपड़ा, देसाई और मेहरा की फ़िल्मों के नायकीय संघर्ष का अक़्स थी, उनके बच्चे आज या तो फेसबुक की लाइफ में राज़ी हैं या फिर कॉरपोरेट सेक्टर का हिस्सा हो गए हैं और एसी वाले ऑफिस में बैठने को “आई हैव अराइव्ड” मानते हैं। उनके पिता भी खुश हैं कि ऐसा जिंदगी की जंग लड़ने का पुण्य-प्रताप है।

तो अब क़िस्से में विक्रम ठकराल (जावेद जाफरी) आता है। “बोल बेबी बोल, रॉक एंड रॉल” पर जावेद का नाचना फ़िल्मी डांस में तब ‘द बिग थिंग’ था। भारत के कस्बों और छोटे शहरों में उन्हें इंडिया का माइकल जैक्सन कहा जा रहा था, बड़े शहरों का पता नहीं। फ़िल्मी डांस को लेकर कुछ ऐसा ही आश्चर्य एन. चंद्रा की 1991 में आई फ़िल्म ‘नरसिम्हा’ में रवि बहल का नृत्य था। पतले जूते, जरा ऊंची चढ़ी फिटेड पैंट और तितली की तरह माइकल जैक्सन वाले अंदाज में उर्मिला को छेड़ते हुए “हम से तुम दोस्ती कर लो, ये हसीं ग़लती कर लो...” गाने पर उनका नाचना, आज भी बचकाना नहीं लगता। तो जावेद के क़िरदार का नाच कॉलेज में कोमल को मन मोह लेता है। वह अरुण की बहन को प्यार के चंगुल में फंसा लेता है। दोनों भागने की योजना भी बना लेते हैं। आधी रात को वह उसे भगा ले जाने के लिए आता है कि विकी की गर्लफ्रेंड आ जाती है और उसकी योजना चौपट कर देती है। गुस्से में आया विकी उसका क़त्ल कर देता है। अदालत में केस दर्ज़ होता है। बेटे का केस ठकराल साहब लड़ते हैं और सामने होता है अरुण। अब एक कोर्ट सागा शुरू होता है। अंत सुखद होता है। जिंदगी की जंग में अरुण और उसकी मां की जीत होती है। अंत में वही ठकराल बेटे के गम में पागल होकर उसी पागलखाने पहुंच जाता है जहां अरुण की मां इतने साल गुजारती है। फ़िल्म पागलखाने की गली में जाते ठकराल पर खत्म होती है।

‘मेरी जंग’ तब हर बार पूरी मासूमियत और न के बराबर फ़िल्म निर्माण ज्ञान के साथ देखी थी। जैसे कि देश के प्राथमिक दर्शकों ने सुभाष घई की बाकी संघर्ष-कथाओं को भी देखा था। उनकी तब की किस फ़िल्म ने द्रवित नहीं किया है। आज भी टेलीविज़न पर ‘राम लखन’, ‘विधाता’, ‘कर्मा’ और ‘परदेस’ समेत सभी फ़िल्मों की रिपीट वैल्यू उतनी ही है। इन्हें अगले पचास साल भी प्रसारित किया जाता रहे तो दर्शक मोहित होकर वैसे ही देखेंगे। जाहिर है इन फ़िल्मों के नायकों और उनकी लड़ाइयों से सहमत नहीं हुआ जा सकता, लेकिन इसमें तो कोई संदेह नहीं कि ये देश की सत्य कथाओं का ही फ़िल्मी रूप रही हैं। सुभाष घई से मेरी इस मुलाकात में उन्होंने कहा भी कि उनकी कहानियां अख़बार, मैग़जीन, दूसरी पठन सामग्री और फर्श से अर्श तक पहुंचे लोगों से मिलने और जानने से आई हैं। और फिर ज्यादातर दर्शकों ने जिंदगी के इन बहावों का अपने थपेड़ों से मिलान किया है। जब-जब ये मिलान हो जाता है, फ़िल्में मास्टरपीस हो जाती हैं।

सुभाष घई की बाकी कुछ फ़िल्मों की भी ऐसी ही अमिट यादें हैं। उनकी भी कहानियां यूं ही याद हैं। किसी भी पल आप झुक जाएं, रो रहे हों, निराश हों और पस्त हों तो उनकी शुरू की दस-बारह फ़िल्मों में किसी की भी डीवीडी लगा लें, आप हौंसले के साथ उठ खड़े होंगे। हां, उन फ़िल्मों के अंत कोई सृजनात्मक सुझाव नहीं देंगे, लेकिन काम की चीज़ उन फ़िल्मों की कहानियों के बीच ही मिलेगी। ‘यादें’, ‘किसना’ और ‘युवराज’ में उनका निर्देशन वो जादू नहीं जगा पाया। हालांकि ‘यादें’ अब टेलीविज़न पर देखें तो बुरी नहीं लगती। उसमें धड़कता दिल नजर में आता है। हां, कोका कोला और दूसरे उत्पादों का अंदरूनी विज्ञापन दिल दुखाता है लेकिन ध्यान कहानी पर रखें तो ठीक लगता है। ‘किसना’ और ‘युवराज’ भी ऐसी ही कोशिश थे, बस कुछ सही नहीं हो पाया। सुभाष ने बीच में ‘इक़बाल’ जैसी फिल्मों का निर्माण भी किया जिसका निर्देशन नागेश कुकुनूर ने किया और जो काफी सराही गई।

Subhash Ghai. Photo Courtesy: Mukta Arts
तो शोमैन अब कोई चार बरस बाद फिर बतौर निर्देशक लौट रहे हैं। उनकी इस फ़िल्म का नाम ‘कांची’ है। रिलीज के वक्त नाम बदला जा सकता है। इसमें उन्होंने नई अभिनेत्री का चुनाव किया है। मिष्ठी कोलकाता से। देश के कई हिस्सों में ऑडिशन के बाद उन्होंने अपनी नई तारिका का चुनाव किया है। ये तरीका भी उनकी पिछली कुछ फ़िल्मों की तर्ज पर है। जैसे ‘परदेस’ में गंगा के रोल के लिए महिमा चौधरी जैसे नए चेहरे का चुनाव किया गया था और जो सफल रहा था। दो मैं से एक हीरो के रोल में कार्तिक को चुना गया है जो इससे पहले ‘प्यार का पंचनामा’ और ‘आकाशवाणी’ में काम कर चुके हैं। खल चरित्रों में ऋषि कपूर और मिथुन चक्रवर्ती हैं।

सवाल-जवाब का सिलसिला शुरू करने से पहले सुभाष के बारे में कुछ जान लेते हैं। वह नागपुर में जन्मे। पंजाबी पृष्ठभूमि से हैं। पिता डेंटिस्ट थे, दिल्ली में प्रैक्टिस करते थे इसलिए हाई स्कूलिंग दिल्ली से की। फिर रोहतक, हरियाणा से कॉमर्स में ग्रेजुएशन किया। उसके बाद फ़िल्म एंड टेलीविज़न इंस्टिट्यूट ऑफ इंडिया, पुणे से फ़िल्ममेकिंग की पढ़ाई की। शुरू में कुछ फ़िल्मों में अभिनय किया। 1970 में आई ‘उमंग’ में वह मुख्य भूमिका में भी थे। नहीं चले तो 1976 में ‘कालीचरण’ से बतौर निर्देशक शुरुआत की। ये फ़िल्म उन्हें शत्रुघ्न सिन्हा के सौजन्य से मिली जो उसी साल सुभाष घई की लिखी ‘ख़ान दोस्त’ में नजर आ चुके थे। ‘कालीचरण’ बहुत सफल रही। यहां से उन्होंने पीछे मुड़कर नहीं देखा। उन्होंने दिलीप कुमार को विधाता (1982), कर्मा (1986) और सौदागर (1991) में डायरेक्ट किया। जैकी श्रॉफ और अनिल कपूर को हीरो (1983) और मेरी जंग (1985) के जरिए मजबूत करियर दिया। अनिल, जैकी और सुभाष ने ‘कर्मा’, ‘राम लखन’ और ‘त्रिमूर्ति’ में भी साथ काम किया। 1997 में उन्होंने ‘परदेस’ और 1999 में ‘ताल’ का निर्देशन किया। दोनों बेहद पसंद की गईं। बतौर प्रोड्यूसर भी सुभाष घई ने ‘जॉगर्स पार्क’, ‘एतराज’, ‘इक़बाल’, ‘36 चाइना टाउन’, ‘शादी से पहले’, ‘अपना सपना मनी मनी’ और ‘गुड बॉय बैड बॉय’ जैसी फ़िल्में बनाईं। अब ‘कांची’ बन रही है। प्रस्तुत है उनसे हुई बातचीतः

प्रश्न. आपको क्या लगता है अभिनेता फ़िल्मों को बनाते हैं, या फ़िल्में अभिनेताओं को बनाती हैं?
सुभाष घईः जब हम फ़िल्में बनाते हैं, तो सबसे महत्वपूर्ण सवाल ही यही होता है, फ़िल्में चलती हैं या स्टार चलते हैं? जवाब में यही माना गया है कि फ़िल्में चलती हैं, तब स्टार चलते हैं। तो फ़िल्मों में क्या चलता है? फ़िल्मों में चलती है कहानी, स्क्रिप्ट, क़िरदार। स्क्रिप्ट का रोल सबसे अहम होता है। जब एक्टर उस क़िरदार को निभाता है तो उसकी वजह से वह स्टार बनता है। ‘दिलवाले दुल्हनिया ले जाएंगे’ में जब शाहरुख खान ऐसे क़िरदार में होते हैं जो लड़की को कहता है कि “जब तक तुम्हारे पिता जी मुझे मंजूरी नहीं देंगे, मैं शादी नहीं करूंगा”, है न! उससे वो स्टार बन गए। ‘परदेस’ से वो स्टार बन गए। वही एक्टर पहले इतनी फ़िल्मों में संघर्ष कर रहा था। यानी हर एक्टर का पूरा दारोमदार कैरेक्टर पर होता है। जैसे डायरेक्टर का पूरा दारोमदार स्क्रिप्ट पर होता है तो एक्टर का क़िरदार पर होता है।

अब जब हम एक विषय लिखते हैं या स्क्रिप्ट लिखते हैं तो पहले ये सोचते हैं कि ये जो रोल है, ये स्टार को करना चाहिए या न्यूकमर को करना चाहिए। स्टार करेगा तो कौन से स्टार को करना चाहिए। जैसे, एक शर्मीली लड़की का क़िरदार है तो क्या उसे काजोल को करना चाहिए या करीना को करना चाहिए। हरेक की अपनी-अपनी पर्सनैलिटी है। कौन सी पर्सनैलिटी सूट करेगी, उसके हिसाब से हम चेहरा ढूंढ़ते या कास्ट करते हैं। क्योंकि गलत कास्टिंग से फ़िल्में फ्लॉप हो जाती हैं। आप कितना भी बड़ा स्टार लीजिए... जैसे अभी देखिए, मैंने एक गलत स्क्रिप्ट अपने स्टार के लिए ली, उसका नाम है ‘युवराज’। उसी पर बात करते हैं। कभी-कभी जिंदगी में हो जाता है। मैंने सलमान के साथ वो फ़िल्म बनाई जिसके पीछे स्क्रिप्ट नहीं है, क्लासिकल म्यूजिक है, जिसमें इंटरनेशनल नोट्स हैं, ए आर रहमान का म्यूजिक है। जब मेरे दोस्त बोनी कपूर ने ‘वॉन्टेड’ बनाई, एक्शन बनाई तो वहां से ये आदमी स्टार से सुपरस्टार बन गया। इसका मतलब मेरी कास्टिंग कहीं न कहीं गलत हो गई। उसके लिए सबजेक्ट एक्शन ही बनाना चाहिए था या उसी तरह का सबजेक्ट बनाना चाहिए था। मिसमैच हो गया। मैंने अपनी जिंदगी में हमेशा कोशिश की है कि स्क्रिप्ट स्टार रहे, चाहे वो ‘कालीचरण’ फ़िल्म थी, ‘खलनायक’ थी या कोई भी दूसरी फ़िल्म थी।

छोटी सी मिसाल दूंगा मैं आपको ‘परदेस’ की। जब मैं ‘परदेस’ बना रहा था तो पिछली रही थी ‘खलनायक’, और सब चीज़ें आसान थीं। जब मैंने कहानी लिखी तो उसके बाद अपनी प्रोडक्शन टीम को बुलाया। सबसे पहले मैंने शाहरुख को बुलाया। ‘दिलवाले दुल्हनिया...’ चल गई थी। मेरी एक फ़िल्म ‘त्रिमूर्ति’ में वह काम कर चुका था जो फ्लॉप रही थी। मैंने उसे बुलाया और कहा कि, देखो शाहरुख ये मेरे पास एक कहानी है। इसमें एक लड़की है और तुम उसका मैच कराने जाते हो और ऐसा कराते-कराते ही तुम दोनों को प्यार हो जाता है। वह कहने लगा कि “मैं करना चाहता हूं सर आपके साथ”। अब वो तो तय हो गया लेकिन जो लड़की है, गंगा, वो कहां से लें? फ़िल्म का नाम तब दरअसल ‘गंगा’ था, ‘परदेस’ नहीं था। जैसे अभी ‘कांची’ है। तो मैंने कहा कि ये लड़की नई होनी चाहिए। मेरे बंदे ने कहा कि सर आपको पता है न, माधुरी को ये सब्जेक्ट सुनाया हुआ है, और माधुरी को पता लग गया है कि आप ‘गंगा’ बना रहे हैं। खैर, उसके बाद माधुरी ने मुझे फोन किया कि “सुभाष जी, मैंने सुना है आप ‘गंगा’ बना रहे हैं”। मैं उसका मतलब समझ गया कि उसने क्यों फोन किया है। मैंने कहा, माधुरी तुम बहुत बड़ी स्टार हो। पहले ‘राम-लखन’ की, तब लोकप्रिय हुई और फिर ‘खलनायक’ के बाद तो उसमें बहुत इजाफा हुआ। तो माधुरी, ऐसा है, मैंने सोचा है कि इस रोल को नई लड़की करे तो बेहतर है। तुम्हे ये नहीं करना चाहिए। वो बोली, “क्यों, मैं एक्ट्रेस नहीं हूं?” मैंने कहा, एक्टर तो बहुत अच्छी हो तुम, लेकिन इस फ़िल्म में स्टार पावर नहीं चाहिए क्योंकि जब भी कोई स्टार गंगा का रोल करेगी तो वो बन के करेगी। आर्टिफिशियल लगेगी। बच्चों से खेल रही है, बड़ी हो रही है, अमरीश पुरी आ गया है, सबसे बातें कर रही है ... जो नया इंसान इन दृश्यों को करेगा वो कैरेक्टर लगने लगेगा। तो वो उदास भी हो गई बेचारी। मैंने कहा कि तुम्हें जब पिक्चर दिखाऊंगा तब तुम समझोगी। फिर मैंने नई लड़की ली।

उसके बाद जो दूसरे लड़के (अपूर्व अग्निहोत्री) का रोल था, उसमें भी यही हुआ। दूसरे एक्टर कहने लगे कि “सलमान को ले लीजिए क्योंकि शाहरुख और सलमान की जोड़ी अच्छी होगी। माधुरी, सलमान, शाहरुख तीनों को ले लोगे तो पैसा भी मिल जाएगा और लोग भी आ जाएंगे। फ्राइडे भी बुक हो जाएगा। मंडे ड्रॉप हो जाएगा तो कोई नहीं, चलेगा”। मैं बोला, मैं फ़िल्में मंडे ड्रॉप के लिए नहीं बनाता हूं। मेरी फ़िल्म जो है वो मंडे के लिए भी होनी चाहिए। मेरी फ़िल्म को लोग बार-बार देखने चाहिए। आई कैन नॉट मेक फ़िल्म फॉर वन वॉच। मैं हमेशा ऐसी फ़िल्म बनाता हूं जिसे दोबारा, दोबारा, दोबारा देखा जा सके और हर बार आप उसमें कुछ नया खोज लें। मैं प्रपोजल नहीं बनाता हूं, फ़िल्म बनाता हूं। लेकिन मेरे डिस्ट्रीब्यूटर और कलाकार लोगों ने भी जिद कर ली, कि “साहब प्राइस में बहुत फर्क है। वो इतने में बिकने जा रही है और ये इतने में बिकेगी। वो सौ में बिकने जा रही है और ये चालीस में बिकेगी”। मैंने कहा चालीस में ही बना दो और मैंने ‘परदेस’ बना डाली। मैंने ‘हीरो’ बना डाली। मैंने बहुत सी फ़िल्में ऐसे ही बनाईं। ‘कालीचरण’ में रीना से लेकर, फिर टीना से लेकर माधुरी, मनीषा, महिमा चलते रहे। आज जो फ़िल्में बन रही हैं वो बहुत कॉस्मैटिक्स से बन रही हैं, लेकिन सोलफुल नहीं हैं, उनमें दिल नहीं है। लड़कियों के कैरेक्टर में एक आत्मा होनी चाहिए। ये गलत ख्याल है कि फ़िल्मों में जो हमारी हीरोइन्स हैं वो ही हमारा समाज हैं। हमारे समाज की औरतें तो ऐसी नहीं हैं। मेरी अगली फ़िल्म ‘कांची’ में कांची का क़िरदार असल के करीब है। ये सोलफुल फ़िल्म है और ऐसी बनेगी कि लोग बार-बार देखेंगे, सौ बार भी देखेंगे तो बोर नहीं होंगे।

प्रश्न. ‘कांची’ के लिए ऑडिशन करने आप देश के कुछ हिस्सों में गए थे...
घईः देखिए कितनी बड़ी विडंबना है ईश्वर की। मेरे ऑफिस में बेचारे हजारों लड़के-लड़कियां आते हैं, जो कहते हैं कि एक छोटा रोल दे दो जी, एक साइड रोल दे दो। और मैं उन सबको छोड़कर खुद कांची ढूंढने निकला।

प्रश्न. कहानी क्या है? कांची कैसा क़िरदार है?
घईः कांची एक जम्मू और कश्मीर, पंजाब, हिमाचल या उत्तर भारत की रहने वाली कोई पहाड़ी लड़की है जिसने जवान होने के बाद पहली बार संसार देखा है। जैसे 15 से 19 साल का होने के बाद पहली बार किसी को होश आता है। जन्म के बाद से ही वो समझती है कि यही सबसे खूबसूरत दुनिया है। उस लड़की के लिए सब कुछ उसका परिवार है, दोस्त हैं, समुदाय है और गांव है। उसको कुछ पता ही नहीं कि दुनिया में क्या हो रहा है। एक दुनिया शहरों की भी है, वहां के लोगों की भी है। वह अपनी दुनिया में बहुत खुश है। वह बहुत ही खुश लड़की है। बस खुशी है और कुछ नहीं है। उसकी जिंदगी में ट्रैजिडी होती है। अब वो ट्रैजिडी ऐसे बड़े तूफान से आती है कि विश्वास करना मुश्किल हो जाता है। उन हालातों से वह लड़ती है, इस दौरान उसे वो सब बातें याद आती हैं जो उसने गलत समझकर इग्नोर की थी। तब वो आक्रामक थी, कुछ भी बोलती थी, कुछ भी करती थी। उसका अपना राज था। लेकिन जब उसने देखा कि मेरे इस खूबसूरत गांव को, खूबसूरत लोगों को, खूबसूरत साथियों को खत्म कर दिया गया है... तो अब उसके अंदर एक नई औरत जाग जाती है और वो औरत मशाल लेकर आगे चलती है और बड़ी से बड़ी देश की जो ताकत है उसके मुकाबले में खड़ी होती है। इनके सामने वह अदनी सी बनकर खड़ी होती है।

प्रश्न. फ़िल्म में और कौन से क़िरदार हैं?
घईः कांची है, उसकी जिंदगी में आने वाले दो लड़के हैं। एक पहले और दूसरा बाद में आता है। दो विलेन हैं। भयंकर वाले हैं। एक हैं ऋषि कपूर जो बहुत रईस आदमी का रोल कर रहे हैं और एक हैं मिथुन चक्रवर्ती जो बहुत ही ताकतवर आदमी बने हैं, डॉन बने हैं। अब इनके सामने एक छोटी सी लड़की खड़ी है। जब फ़िल्म आएगी, कांची का क़िरदार निभाने वाली लड़की बहुत बड़ी सुपरस्टार होगी। क्योंकि जैसे मैंने कहा, कैरेक्टर स्टार बनाता है। जैसे, ‘इक़बाल’ फ़िल्म हमने बनाई तो उसमें कोई अकल नहीं कोई शकल नहीं कुछ भी नहीं, बेचारा मराठी थिएटर का एक लड़का था श्रेयस। हमने उसको कास्ट किया। वो कितना बड़ा एक्टर बन गया ‘इक़बाल’ के बाद। कैरेक्टर से बना है न, यूं ही थोड़े बना है। मुझे मेरी इस स्क्रिप्ट पर गर्व है। स्क्रिप्ट मैंने और आकाश खुराना ने मिलकर लिखी है।

प्रश्न. जितनी नई तरह की स्क्रिप्ट और फ़िल्में इन दिनों आ रही हैं, उन्हें आप किसी तरह देखते हैं?
घईः अब खाने की ही बात करें तो बीस साल पहले तक बस राजमा-चावल की ही बात होती थी, अब देखिए थाई आ गया, वाई आ गया, ये भी आ गया, वो भी... वैरायटी का धीरे-धीरे विभाजन होता चला गया। इसी तरह सिनेमा का भी है। एक रियलिस्टिक सिनेमा है, एक अलग सिनेमा है, एक कमर्शियल सिनेमा है, एक लार्जर दैन लाइफ सिनेमा है, लेकिन पहले हमारे पास 300 थियेटर होते थे आज हमारे पास 5000-6000 स्क्रीन्स हैं। ये सिर्फ दस साल में बढ़ी हैं। अब इतनी स्क्रीन्स में ‘गैंग्स ऑफ वासेपुर’ हो, ‘थ्री इडियट्स’ हो, ‘जब तक है जान’ हो या ‘सन ऑफ सरदार’ हो, सबका स्थान है। आप हर तरीके की, आकृति की फ़िल्में बना सकते हैं। जो जैसा है वैसा है। अगर पंडित रविशंकर हैं तो बिस्मिल्लाह खान भी हैं, जाकिर हुसैन भी हैं। ये सब संगीतज्ञ हैं और सबके अपने-अपने राग हैं, तो इनके तरीके इनके ही माने जाएंगे। अब सुभाष घई की फ़िल्म है तो सुभाष घई की ही मानी जाएगी। यश जी की फ़िल्म उनके अंदाज की होती हैं। तो स्थान है सबके लिए। आप अच्छी फ़िल्म बनाओ। स्टार को लेकर दो दिन धोखाधड़ी होती है, लोग आ जाते हैं फिर उनको लगता है कि पिक्चर नहीं अच्छी है, लेकिन तब तक तो 100-200 करोड़ रुपये कमा लिए डिस्ट्रीब्यूटर ने और मंडे को कहते हैं कि सॉरी सॉरी सॉरी अच्छी नहीं लगी।

प्रश्न. आपने जब कांची के लिए नई लड़की की तलाश को लेकर ट्वीट किया था तो उसमें पोस्टर डाला था रेड ऐंट रिडंप्शन का, जो वीडियोगेम सीरीज है। उसकी काऊबॉय अंदाज वाली नायिका रेगिस्तान में खड़ी होती है वेस्टर्न ड्रेस में तो क्या उससे कोई लेना-देना है कांची का?
घईः देखिए क्या है, एक होता है ट्रेलर और एक होता है टीजर। तो हम लोग टीज करते रहते हैं, कि वो ऐसी तो नहीं? ऐसी तो नहीं? ऐसी तो नहीं?... उसके पहले भी मैंने चार-पांच आकृतियां और दी थीं। अलग-अलग तरीके का मतलब है कि वो कुछ हटके है, नॉर्मल नहीं है। हम लोग टीजर भेजते रहते हैं। टीज करने का मतलब होता है, आधा आप बताइए, आधा हम बताएंगे।

प्रश्न. अभी जो आपने कहानी बताई, उसमें कांची की जो बदले वाली भावना है, वैसी ही वीडियोगेम की नायिका वाली लगती है। तो क्या ये टीजर होकर हकीकत में समानता तो नहीं है?
घईः दम है आपकी बात में। एक लड़का-लड़की जो मिलते हैं, बिछड़ते हैं और फिर मिल जाते हैं। एक लॉस्ट एंड फाउंड का बेस होता है, एक बदला होता है, अच्छा आदमी बुरा बन जाता है और बुरा आदमी अच्छा बन जाता है (A good man becomes a bad man, a bad man becomes a good man) ये होता है... ये दस तो कहानियां हैं हमारे पास और दस हजार फ़िल्में बन चुकी हैं। लेकिन किस तरह से बनती है फ़िल्म, उसके कैरेक्टर्स कितने अद्भुत तरीके से आते हैं, कितने इंट्रेस्टिंग लगते हैं, ये अंत में मायने रखता है। शेक्सपियर के हिसाब से भी 36 प्लॉट से ऊपर नहीं हैं हमारे पास ड्रामा में।

प्रश्न. मेरी बहुत जिज्ञासा है जानने की कि एक क्रिएटिव आदमी को कोई चीज़ जब खनकती है किसी क्षण में कि ये वो स्टोरी है, तो आपके लिए वो कौन सा वक्त था, वो कनविक्शन कैसे आया कि यही मुझे बनानी है? वो जो स्पेशल मूमेंट होता है, क्योंकि आपने बहुत कम फ़िल्में बनाई हैं लेकिन ज्यादातर शाहकार हैं। तो वो जो पल आता है वो बहुत पावरफुल होता है, वो आपको कब महसूस हुआ?
घईः वो मूमेंट आपकी खबरों से आता है, मैगजीन्स की कहानी से आता है, एक फोटोग्राफ देख ली, एक चीज़ सुन ली, कहीं ख्याल आया, किसी ने कुछ सुना दिया..। जैसे ‘परदेस’ की कहानी थी, उसमें मैं जब अमेरिका गया तो कोई अमरीश पुरी जैसा कैरेक्टर था जो बिलियनेयर था। उसने मेरे से कहा पीने के बाद कि “सर, सुभाष जी, मैं यहां दस डॉलर लेकर आया था और लाखों डॉलर कमा लिए मैंने। पैसे तो कमा लिए, बच्चे गवां दिए। अमेरिकन हो गए हमारे बच्चे”। मैं जब लौटा तो ये बात दिमाग में घूम रही थी। ‘विधाता’ पिक्चर में किसी ने कहा कि “मैं बहुत गरीब आदमी था, अपने बच्चे को दूध पिलाने के पैसे नहीं मिले तो मैंने शराब बेचनी शुरू की, मैं लिकर किंग बन गया, करोड़पति बन गया मैं। बेटा बड़ा हो गया तो बोला कि मैं क्या लोगों से ये कहूं कि मैं आपका बेटा हूं, लिकर किंग का। आप तो क्रिमिनल हैं, चोर हैं”। तो उन्होंने बताया। मैंने ये ‘विधाता’ पिक्चर में दिखाया कि आप जिसके लिए करते हैं, वही बच्चा बड़ा होकर आपको सुनाता है। ये जो वेदनाएं हैं, अहसास हैं, अनुभूतियां हैं... जब ये अनुभूतियां आपको क्लिक करती हैं तब कहानी तय हो जाती है। तो इसी तरह ‘कांची’ में भी एक वेदना है। जो आम लोग हैं, गरीब लोग हैं, बहुत गरीब हैं, उनके अंदर बहुत गुस्सा है लेकिन वो रियलाइज करते हैं कि गुस्सा है तभी हमें दिखता है। अब गणपति उत्सव वाले खुश रहते हैं, फेस्टिवल वगैरह में, अच्छे से रहते हैं। उनको गरीबी से कोई शिकायत नहीं है। है उनका, जीवन है। लेकिन जिस वक़त चीज़ सामने आती है, तो बहुत बड़ी होकर। तो मुझे किसी की वेदना बहुत चुभ गई। ये आम लोगों की वेदना है। ऐसे क़िरदार बहुत हैं। आप कह लीजिए की आम आदमी की बात है। पार्टी भी बन गई अब तो।

प्रश्न. जैसे ‘परदेस’ में गंगा थी, जो गांव से आई थी, ‘ताल’ में ऐश्वर्या राय का क़िरदार था... तो वैसा ही है कांची का भी?
घईः बिल्कुल, ये भी गांव से शहर आती है।

प्रश्न. आपकी कोई नायिका शहर से गांव क्यों नहीं जाती?
घईः नहीं, गई होगी, ऐसा तो हो ही नहीं सकता। कौन सी फ़िल्म में गई थी... ‘खलनायक’ में शहर से गांव में ही जाती है न। ट्रैवलिंग होती है न, जर्नी होती है। स्टोरी खुद ट्रैवल करती है, वो अपना फ्लो लेती है।

प्रश्न. सुभाष घई ने अपने नाम को बनाए रखने के लिए क्या किया है?
घईः हर नाम या ब्रैंड का उद्देश्य यही होना चाहिए की वो अपनी गुणवत्ता बरकरार रखे। कि मेरी क्वालिटी पहले से बेहतर होनी चाहिए या कम से कम उतनी तो रहनी चाहिए। चाहे तो चाय के बारे में हो, कोका कोला के बारे में हो, न्यूजपेपर के बारे में हो। ब्रैंड का सबसे बड़ा डर यही होता है कि मुझे क्वालिटी में नीचे नहीं आना। मुझे कोई अफसोस नहीं है कि किसना या युवराज नहीं चली है, लेकिन क्वालिटी में तो कहीं फर्क नहीं आया है न। हमने ऐसी कसर नहीं छोड़ी कि कोई कह सके, यार ऐसा क्या कर दिया। कभी सब्जेक्ट वक्त से आगे का होता है, कभी सब्जेक्ट नहीं मैच करता है, ऐसा होता है लेकिन क्वालिटी की जिम्मेदारी रहती है और वो कांची में भी होगी।

प्रश्न. म्यूजिक कौन दे रहे हैं?
घईः इस्माइल दरबार हैं, सलीम-सुलेमान भी होंगे। इरशाद गाने लिख रहे हैं। मैं समझता हूं कि इस्माइल दरबार बहुत ही गुणी म्यूजिक कंपोजर हैं। अगर संगीत में क्वालिटी देनी है तो ये लोग लाएंगे।

प्रश्न. फ़िल्मों में पंजाब के रंग ज्यादा क्यों दिखते हैं?
घईः हमारी बॉलीवुड इंडस्ट्री में 75 फीसदी से ज्यादा लोग पंजाबी हैं। पंजाबी अपने कल्चर को लेकर आए। जितने कलर पंजाब में हैं वो सेलिब्रेशन के हैं। वो लोग हर चीज़ को सेलिब्रेट करते हैं और सिनेमा तो सेलिब्रेशन ही है। इसलिए।

प्रश्न. आपके प्रोडक्शन हाउस ने हीरोइन के रोल के लिए जो क्राइटेरिया दिया था उसमें लिखा था कि रंग गोरा होना चाहिए। तो धूसर क्यों नहीं हो सकती वो, जैसे आपने कहां गांव से आई है?
घईः वो फेयर है…

प्रश्न. नहीं, लेकिन धूसर या गेहुंए से तो फेयर बहुत आगे आ जाता है न?
घईः फेयर वो भी होता है, फेयर का मतलब होता है एक साफ स्किन। आमतौर पर जब पहाड़ी लड़की दिखाते हैं तो सिनेमैटिकली ऐसा ही गोरा रंग होना चाहिए। उसी संदर्भ में है और कोई कारण नहीं है।

प्रश्न. पालतू हैं घर पर?
घईः हां, एक डॉगी है, हैपी सिंह नाम है उसका।

प्रश्न. कपड़े कैसे पहनना पसंद करते हैं आप?
घईः दिन में वाइट पहनता हूं, रात को काला पहनता हूं।

प्रश्न. खाने में क्या पसंद है आपको?
घईः सबसे ज्यादा राजमा पसंद है, आलू के परांठे पसंद हैं और भिंडी है। बाकी स्टाइल मारने के लिए कुछ भी खा लेता हूं। थाई भी, चाइनीज भी। उसे बोलते हैं, चलो स्टाइल मारा जाए।

प्रश्न. सिर्फ खाने का ही शौक है कि बनाते भी हैं?
घईः नहीं, नहीं, बनाता नहीं हूं, बस बिल पे कर देता हूं।

प्रश्न. सोते कितने बजे हैं?
घईः 12-12.30 बजे सोता हूं और 5.30 पर उठता हूं।

प्रश्न. किताबें कौन सी पढ़ना पसंद हैं?
घईः मैं ओशो की किताबें ज्यादा पढ़ता हूं। जितनी भी व्यक्तित्व निखारने की किताबें हैं, फिलॉसफी की हैं, जो समाज के कन्वेंशन पर हैं, वो ज्यादा पढ़ता हूं। जेम्स हार्ले की किताबें पढ़ता हूं।

प्रश्न. सेलफोन कौन सा बरतते हैं?
घईः मेरा और मेरी बेटी का मुकाबला चलता रहता है कि लेटेस्ट टेक्नोलॉजी किसके पास आई है। मैं आईफोन-5 यूज करता हूं।

प्रश्न. आपकी सर्वकालिक पसंद फ़िल्में कौन सी हैं?
घईः ऑलटाइम फेवरेट मूवी मेरी ‘मदर इंडिया’ है सर। वो मैं भूल ही नहीं सकता कभी।

प्रश्न. आपको अपनी ही कोई फ़िल्म फिर से इस जमाने में, इस जमाने के युवाओं के लिए बनाने का मौका मिले तो कौन सी बनाएंगे?
घईः ‘हीरो’।

प्रश्न. दोस्त और परिवार कितने महत्वपूर्ण हैं आपके लिए?
घईः बहुत ज्यादा। दोस्त मेरे लिए ज्यादा जरूरी हैं, रिश्तेदारों से भी ज्यादा। मैं होस्टल बॉय रहा हूं, होस्टलों में पढ़ा-बढ़ा हूं तो दोस्त मेरे लिए बहुत प्यारे हैं। मेरी दुनिया ही मेरे दोस्तों में है।

प्रश्न. खाली वक्त में क्या करते हैं?
घईः संगीत सुनता हूं। सिम्फनी से लेकर फोक सॉन्ग तक सब सुनता हूं।

प्रश्न. विस्लिंग वुड्स के लिए जमीन को लेकर जो पूरा मसला चला है इससे आपने क्या सबक लिया है?
घईः मैं दो लाइन में बताऊंगा। मैं जिंदगी में बहुत बार फेल हुआ हूं। हर हार को अवसर मानकर मैंने खुद को मजबूत बनाया है। उसे फायदा बनाकर मैं आगे बढ़ा हूं। उसी को स्टेपिंग स्टोन बनाया है। जो जमीन हमारी हरियाणा से गई है, वो तो हुड्डा साहब हमारे इंस्टिट्यूट में आए थे, अच्छा लगा कि विकास के लिए ये करना चाहिए। तो उन्होंने कहा कि “भई आप तो यहां के हैं और यहां के लिए फ़िल्म बनाओ, इंस्टिट्यूट बनाओ”। मैंने कहा कि हां, मैं नॉर्थ इंडिया में करना चाहता हूं। पंजाब सरकार ने हमें कोई रिस्पॉन्स नहीं दिया और हरियाणा सरकार दे रही है तो जरूर करेंगे। झझ्झर में हमको 20 एकड़ जमीन दी तो हमने जमीन खरीदी। लेकिन उन्होंने क्या किया कि बोला, पंचायत से दिला देंगे। जब वक्त लगने लगा तो उन्होंने कहा कि फेवर किया है। क्या होता है कि जब भी सेलेब्रिटीज का नाम आता है, सीएम का नाम आता है तो उसको पीआईएल में तुरंत लिस्टेड किया जाता है कि ये फेवर की गई है। अब मुझे फेवर चाहिए होता तो मैं बिल्डिंगें बनाता, कमर्शियल कॉम्पलैक्स बनाता, मुझे फ़िल्म स्कूल बनाने की, एक बेफायदे की चीज़ बनाने की क्या जरूरत थी। इसमें नुकसान मेरा नहीं हुआ, हरियाणा का हुआ, पंजाब का हुआ, वहां के बच्चों का हुआ है। ये नहीं होना चाहिए। मैं फिर भी प्रयास करूंगा, दोबारा से अप्रोच करने के लिए पंजाब और हरियाणा दोनों की सरकारों से, कि ये होना चाहिए। मजे की बात ये है कि वो भी चाहते हैं। जब ये जमीन चली गई तो उसका दुख हरियाणा के सीएम को और ऑफिसर्स को भी हुआ, क्योंकि वो चाहते थे। फायदा तो इससे सभी को होता न, ये पब्लिक इंट्रेस्ट में है, बच्चों के लिए है।

प्रश्न. काफी वक्त पहले अंजुम रजबअली से बात हुई थी, जो एफटीआईआई और आपके इंस्टिट्यूट दोनों में स्क्रिप्ट राइटिंग पढ़ाते हैं। उन्होंने बताया था कि आपके इंस्टिट्यूट से निकल रहे बहुत से बच्चे फ़िल्मों में अच्छा कर रहे हैं।
घईः हमारे विस्लिंग वुड्स के 90 परसेंट बच्चे मीडिया इंडस्ट्री में काम कर रहे हैं और वेल प्लेस्ड हैं। 500 ग्रेजुएट्स निकले हैं हमारे यहां से। हमारे यहां 40 फीसदी विदेशी स्टूडेंट्स हैं। विश्व के शीर्ष-10 संस्थानों में ये आता है जबकि पूरी दुनिया में 1240 स्कूल हैं। ट्रैजेडी ये है कि लोग पीआईएल कर देते हैं और अब कुछ माहौल ऐसे चला है कि जहां लैंड है वहां करप्शन है, ऐसा तो नहीं होना चाहिए न। हर जमीन का सौदा तो भ्रष्टाचार नहीं है न, विकास के लिए भी तो हो सकता है न। ये सोच और दृष्टिकोण चाहे मीडिया में हो, समाज में हो, राजनीति में हो, हमें बदलना पड़ेगा। नहीं तो हम किसी को भी तरक्की नहीं करने देंगे। जो असली लोग हैं, ईमानदार लोग हैं, समाजवादी हैं, शिक्षाविद् हैं वो आगे ही नहीं आएंगे। सरकार इस तरह से तो हमको कभी मदद कर ही नहीं पाएगी। तो ये पूरा दृश्य चेंज होना बहुत जरूरी है।

Subhash Ghai came into films in 1970 as an actor. Later on he started writing and directing films. Now he is a very well known Indian film director, producer and screenwriter. His most notable films are Kalicharan (1976), Vishwanath (1978), Karz (1980), Vidhaata (1982), Hero (1983), Meri Jung (1985), Karma (1986), Ram Lakhan (1989), Saudagar (1991), Khalnayak (1993), Pardes (1997) and Taal (1999). Ghai is shooting his latest ‘Kaanchi’ these days. With this movie he’s once again launching a new girl (Mishthi from Kolkata) as the leading lady.
******      ******      ******

Sunday, June 16, 2013

गीतांजलि राव की ‘चाय’ : आधारभूत

 5 Short Films on Modern India 

विदेश मंत्रालय, गूगल, वायाकॉम 18 और अनुराग कश्यप की फ़िल्म निर्माण कंपनी ने मिलकर “इंडिया इज... अ विजुअल जर्नी” विषय पर पांच शॉर्ट फ़िल्में बनाई हैं। मौजूदा भारत के विभिन्न पहलुओं को दिखाती और नए विमर्शों की बयार लाती ये फ़िल्में हैं अनुभूति कश्यप की ‘मोइ मरजाणी’, श्लोक शर्मा की ‘हिडन क्रिकेट’, नीरज घैवन की ‘द एपिफनी’, वासन बाला की ‘गीक आउट’ और गीतांजलि राव की ‘चाय’। पांचों फ़िल्में यूट्यूब पर उपलब्ध हैं।

 



गीतांजलि राव की ‘चाय’ चार ऐसे लोगों की कहानी है जो अलग-अलग परिवेश और पृष्ठभूमि से आते हैं। ये अलग-अलग जगहों पर चाय बनाते हैं। इनमें एक चितौड़गढ़, राजस्थान की 18 साल की युवती है। वह किसी शहर में चाय बनाती है। दूसरा कोल्हापुर मूल का लड़का है, 10 साल का, मुंबई के गेटवे ऑफ इंडिया पर चाय बनाता और पकड़ाता है। तीसरे एक 80 साल के बुजुर्ग हैं जो केरल के किसी बस स्टैंड पर चाय की दुकान लगाते हैं। चौथा एक 19 साल का कश्मीरी लड़का है जो बरिस्ता में चाय बनाता है। फ़िल्म भारत के उन लाखों-करोड़ों लोगों को समर्पित है जो अलग रंग, ढंग और स्वाद की चाय बनाते हैं, पिलाते हैं लेकिन पीने वाले को दिखती है तो बस चाय की गिलास या कप, वह चाय बनाने वाला या वाली नहीं दिखते। शायद यही परिपेक्ष्य गीतांजलि का रहा क्योंकि पूरी फ़िल्म के दौरान चारों किरदारों की शक्ल दिखाई नहीं देती। वे बस अपनी गतिविधियों में व्यस्त रहते हैं और अपनी कहानियां सुनाते हैं।

Gitanjali Rao
पांचों फ़िल्मों में ये सबसे आधारभूत है, जाहिर है चाय से आधारभूत देश में क्या होगा। इन्हीं कहानियों में समाज की सोच और बदलाव भी छिपे मिलते हैं। मूलतः गीतांजलि एक एनिमेटर हैं। इसके अलावा वह फ़िल्मकार और रंगकर्मी भी हैं। उन्होंने मुंबई के जेजे इंस्टिट्यूट ऑफ अप्लाइड आर्ट से फाइन आट्र्स की पढ़ाई की। उनकी एनिमेटेड फ़िल्म ‘प्रिंटेड रेनबो’ को 2006 में फ्रांस के कान फ़िल्म महोत्सव के क्रिटिक्स वीक में दिखाया गया। वहीं इसे बेस्ट शॉर्ट फ़िल्म के तीन पुरस्कार भी मिले। विश्व के 100 से ज्यादा फ़िल्म महोत्सवों में जाकर आ चुकी ‘प्रिंटेड रेनबो’ को 2008 के ऑस्कर पुरस्कारों की आखिरी 10 फ़िल्मों में भी चुना गया।

इसके अलावा उन्होंने ‘ब्लू’, ‘ऑरेंज’ और ‘गिरगिट’ जैसी उम्दा एनिमेटेड शॉर्ट फ़िल्में बनाई हैं। ‘कलाइडोस्कोप’ को देखना भी अनूठा अनुभव है। गीतांजलि ने अनेकों विज्ञापनों में अपनी जादुई रचनात्मकता दिखाई है। यहां पर वे पूरी की पूरी विज्ञापन फ़िल्में उपलब्ध हैं, एक-एक करके सभी देखें, आनंद आएगा। साथ ही, अनुराग कश्यप फिल्म्स प्राइवेट लिमिटेड की हर फ़िल्म से पहले लोगो का जो विजुअल नजर आता है जिसमें चांद पर चढ़ी बिल्ली की आकृति ‘ए’ अक्षर बन जाती है, वह भी गीतांजलि ने ही बनाया है।

(बातचीत के लिए गीतांजलि राव उपलब्ध नहीं हो पाईं)

Gitanjali Rao is an animator, film maker and theatre artist. She graduated with honors as a Bachelor of Fine Arts from Sir J. J. Institute of Applied Art, Mumbai, in 1994. She has made a couple of animated shorts like ‘Printed Rainbow’ (Short listed in the last ten films for the Oscars in 2008), ‘Orange’, ‘Blue’ and ‘Girgit’. Her string of popular and award winning commercials can be seen here. Her most recent work in ‘Chai’, a short film made for ‘India Is’ campaign.
******      ******      ******

Saturday, June 15, 2013

वासन बाला की ‘गीक आउट’ : वो सोया नहीं, जागा है

 5 Short Films on Modern India 

विदेश मंत्रालय, गूगल, वायाकॉम 18 और अनुराग कश्यप की फ़िल्म निर्माण कंपनी ने मिलकर “इंडिया इज... अ विजुअल जर्नी” विषय पर पांच शॉर्ट फ़िल्में बनाई हैं। मौजूदा भारत के विभिन्न पहलुओं को दिखाती और नए विमर्शों की बयार लाती ये फ़िल्में हैं अनुभूति कश्यप की ‘मोइ मरजाणी’, श्लोक शर्मा की ‘हिडन क्रिकेट’, नीरज घैवन की ‘द एपिफनी’, वासन बाला की ‘गीक आउट’ और गीतांजलि राव की ‘चाय’। पांचों फ़िल्में यूट्यूब पर उपलब्ध हैं।

    
वासन बाला से पिछले साल उनकी फीचर फ़िल्म ‘पैडलर्स’ के वक्त भी बात (यहां पढ़ें) हुई थी। वह बहुत सारे अंतरराष्ट्रीय फ़िल्म महोत्सवों में जाकर आई। अब अगली फीचर के लेखन पर वह गंभीरता से जुटे हैं। उनकी शॉर्ट फ़िल्म ‘गीक आउट’ सबों में जटिल है। इसे सतह देखकर नहीं समझा जा सकता। दृश्यों में विविधता और विषय-वस्तु के लिहाज से पाचों शॉर्ट फ़िल्मों में इसका दायरा सबसे व्यापक है। दस मिनट की इस फ़िल्म को देखने के बाद आपके पास बात करने को इतना कुछ होता है कि तीन घंटे की फ़िल्मों को देखने के बाद भी नहीं होता।

फ़िल्म की कहानी पारंपरिक मायनों वाली नहीं है, ये पारस्परिक सभ्याचार वाले समाजों में ठिठके-दुबके सभी गीक्स के स्वप्निल निशाचरी मन की मृगतृष्णाओं और खोयेपन में जगी चौकन्नी छलांगों के बारे में है। जिन इंटरनेट उनींदों को महज वर्चुअल बावरा समझकर आज का समाज न देखने का सायास अभिनय कर रहा है, वो धीरे-धीरे कैसे दुनिया को हमेशा के लिए बदलते जा रहे हैं, अंदाजे से बाहर है। इस्तांबुल के गेजी पार्क वाले प्रदर्शनों को जो वैश्विक वर्चुअल समर्थन मिला है और वर्चुअल होते हुए भी आंदोलन को जो सचमुच की ऊष्णा मिली है वह उस बदलाव का ठोस सबूत है। उस बड़े वैश्विक बदलाव को लेकर नासमझी के इस वक्त को वासन ने ‘गीक आउट’ में समझा-समझाया है। कुछ वर्षों बाद ये फ़िल्म उस चेंज का दस्तावेज साबित होगी। अगर उक्त संदर्भ और ‘गीक आउट’, दोनों को पूरी तरह समझना है तो वासन से हुई ये बातचीत काफी मदद करेगी। गीक्स, ये वक्त, इसमें छिपी भौतिक बदलावों की परतें और आने वाली पीढ़ियों पर उन्होंने समझदारी वाली बातें की हैं। वासन, श्लोक, अनुभूति और नीरज महत्वपूर्ण सोच वाले युवा हैं और फ़िल्म बनाने की विधि जानते हैं। खुशी है कि विधि संभवतः सही हाथों में है। कुछ वर्षों में इनकी बनाई फ़िल्में अनूठा सिनेमा प्रस्तुत कर देंगी, मुझे लगता है। पढ़ें, वासन बाला से बातचीतः

गीक आउट को वैसे तो प्रोमो में आप स्पष्ट कर चुके हैं लेकिन फिर भी अपनी परिभाषा में बताएं?
जैसे मैं ऑफिस में देखता हूं कि हम मर्दाना बात काफी कर लेते हैं, लेकिन सिर्फ बात ही करते हैं। जैसे बचपन में हम लोग आपस में पूछते थे कि हनुमान और ब्रूस ली में लड़ाई हुई तो कौन जीतेगा। ये फ़िल्म उन चीजों का एक अलग और जटिल विस्तार है। लाइफ आपको एक दायरे में बांध रही है तो आप शायद उन यादों को और समकालीन तरीके से याद करना चाहते हो। जो तब हनुमान और ब्रूस ली था, अभी वो सुपरमैन, बैटमैन से लेकर वुल्वरीन तक बहुत कुछ हो गया है। इसने ट्विटर, फेसबुक और लिंक्डइन के रूप में नया आकार ले लिया है।

जैसे, मैं हेल्पलेस आदमी हूं लेकिन अगर मुझे किसी बात का गुस्सा है या मेरा कोई ओपिनियन है तो... पहले क्या होता था, कि बुजुर्ग 50-60 साल के बाद संपादक के नाम पत्र लिखा करते थे, खासकर तमिलियन। जैसे मैं भी दक्षिण भारतीय हूं और हमारी फैमिली में भी कोई न कोई टाइम्स ऑफ इंडिया को लेटर लिखता था और इंतजार करता था कि वो छपेगा या नहीं छपेगा। और वो छपकर आता था तो बहुत खुश हो जाते थे और हम लोगों को पढ़कर सुनाते थे। दादा हुए या दादी या कोई रिश्तेदार, वे बोलते थे कि देखो आज टाइम्स ऑफ इंडिया पढ़ लो हमारा लेटर आया है, लेटर टू द एडिटर ...लेकिन आज एक ब्ल़ॉग से लेकर ट्विटर और फेसबुक पर कोई भी मत हो आपका, आप तुरंत अभिव्यक्त कर सकते हो। उस पर कोई सेंसरशिप नहीं है। कोई बैठकर आपका ओपिनियन एडिट नहीं करने वाला है। आपसे कोई नहीं कह रहा है कि कैसे लिखना चाहिए। ये जो एम्पावरमेंट है, ताकत है ये किसी सुपरहीरो से कम नहीं है, उस आदमी के लिए जो बंध चुका है अपने काम से, अपनी जियोग्राफी से या दूसरे हिसाब से। ये फ़िल्म उसी बिंदु को लेकर एक विस्तार है, बढ़ा-चढ़ा विस्तार।

Vasan Bala
जैसे, एक आदमी कंप्यूटर पर बैठा है और वो दस टैब खोले हुए है। एक में निठारी हत्याकांड के बारे में पढ़ रहा है, एक में आरूषि मर्डर केस के बारे में पढ़ रहा है, एक उसका फेसबुक पेज खुला है, एक उसका ट्विटर पेज खुला है और एक यूट्यूब पर कोई ट्रेलर देख रहा है। अगर उसके 10-15 टैब्स खुले हों और वह उन तमाम टैब्स के बीच आ-जा रहा है, तो क्या अनुभव रहा होगा उसका। ये फ़िल्म वही है। मतलब आप पहले थोड़े बुद्धिजीवी बनते हो, चलो आपने नक्सलियों के बारे में पढ़ लिया, आपको बुरा लग रहा है, आपको कुछ लिखना है, अरुंधति रॉय के आप साथ हो - विरोधी हो, आप सोच रहे हो, फिर आपको फेसबुक पर मैसेज आ जाता है, आपके फ्रेंड का ऐसी ही किसी फिलॉसफी के बारे में। या फेसबुक पर वो जो टिपिकल अपडेट होते हैं न, कि आई डोन्ट लाइक लायर्स... ठीक है वो अजीब है मजाकिया है लेकिन आप व्यक्त कर सकते हो, शायद वो नोट कर लिया और उसके बाद किसी लड़की का फोटो देख लिया फेसबुक पर तो उसका पीछा करने लगे, उसकी तस्वीरें देखने लगे। फिर बाहर आए और ट्विटर पर कुछ लिख दिया। उसके बाद यूट्यूब पर एक वीडियो देख लिया। तो फ़िल्म मूलतः वो है। फिर जब रिएलिटी में आप आते हो, तो वो जो रंग और एक सुपरहीरो क्वालिटी है, बढ़ाई-चढ़ाई, वो कम हो जाती है। वो सब चला जाता है और आप फिर से असल दुनिया में आ जाते हो। अब जो चेहरे दिखते हैं वो ही असल हैं, वो ही हालात असल हैं। ऐसे विचार दिखाने की कोशिश थी, पर एक्सपेरिमेंट ही है। लिखा भी था तब आइडिया था कि बहुत से लोगों को समझ नहीं आएगा और गाली भी पड़ने वाली है।

गीक्स की जो परिभाषा है तो क्या ये वही हैं जिनके पास कंप्यूटर और इंटरनेट की पहुंच है, जो महानगरों में रहते हैं? क्या उनके अलावा भी कोई गीक हो सकता है? कस्बाई या गांव का आदमी? या किसी और परिपेक्ष्य में...
जरूर। सुपररहीरो की जो परंपरा रही है वो ये कि सुपरहीरो अपनी पहचान छिपाकर रखता है और उसकी जो आम असहाय इंसान वाली पहचान है वो लोगों के सामने होती है। उसी प्रकार इंटरनेट आपके लिए बहुत ही बढ़िया लबादा है। ये बहुत बढ़िया परदा है जिसके पीछे आप छिप सकते हो और किसी पर भी वार कर सकते हो। उस हिसाब से इंटरनेट की पहुंच वाला कोई भी सुपरहीरो बन सकता है। जैसे, गांव में जिनके पास इसकी पहुंच नहीं होती, वो शायद इसीलिए चद्दरमार करते हैं। किसी को खेत में पकड़ लिया, चद्दर में लपेटा और मार दिया। नहीं, ये तो मजाकिया बात हो गई लेकिन गांव में भी आज एक जागरूकता तो है। जब-जब उसे प्लेटफॉर्म मिलेगा जहां वो अपनी राय दे पाए वहां-वहां वो मौका गीक बनने का सबको मिलेगा। जैसे पहले लेटर टु एडिटर हुआ करते थे या चिट्ठियां हुआ करती थीं, वैसे ही आजकल ये है कि आपको रुकना नहीं होगा कि कोई एडिटर छापे। इसमें आप छप भी जाते हैं और पूरी दुनिया भर में उसकी खबर हो जाती है।

जितने भी गीक हैं दुनिया के उनको ज्ञान बहुत है दुनिया का, सूचना की बौछार उन पर हो रही है, वो दीन-दुनिया के सारे इवेंट्स जानते हैं, उनका एक मत है लेकिन क्या इससे रियल लाइफ में वो कुछ फर्क डाल पाते हैं या कभी डाल पाएंगे?
दरअसल ये जो एम्पावरमेंट है, एक तरह से थोड़ा खोखला एम्पावरमेंट भी है। अल्पावधि में ये आपको सशक्त महसूस करवाएगा और आपको लगने लगेगा कि दुनिया तो अब बदल दोगे, लेकिन दीर्घावधि में ये सिर्फ शब्द ही रहेंगे। ये फिजिकल (भौतिक) नहीं है, वर्चुअल (छाया) है। लेकिन उसी कॉन्ट्रास्ट में अगर आप देखो तो एक आदमी के अलावा लाखों जुड़ गए तो शायद ईजिप्ट गिर जाए। जैसे विकीलीक्स हैं, वो अपने आप में एक क्रांति हैं। ये तो सच है कि अगर हमने ढंग से हमारी बातों को प्रस्तुत किया तो जैसे ईजिप्ट में है, जैसे क्यूबा में है, वैसे अगर वो लोगों को जोड़ पाए तो फर्क भी पड़ेगा। इसमें एम्पावरमेंट को बहुत कंस्ट्रक्टिव (सृजनात्मक) तरीके में हमें ढालना पड़ेगा। मतलब अभी तो हम बहुत ही इंडिविजुअलिस्टिक हैं, हम अपनी-अपनी निजी ग्लोरी में घुसे हैं कि यार मैंने बोल दिया है। जैसे, मैं शाहरुख को पसंद नहीं करता हूं तो मैं खुद ही उसके ट्विटर अकाउंट पर जाकर लिख दूंगा कि भाई मैं तुझे पसंद नहीं करता। तो इस खेल से जब हम ऊपर उठेंगे तो शायद सीरियस तरीके से ओपिनियन देने का मौका है हमारे पास, एकजुट होने का मौका है। गंभीर होंगे, साथ होंगे तो काफी कुछ हो सकता है। अभी जैसे फ्लैशमॉब या पीसमार्च होते हैं तो मेरे ख्याल से छोटे-मोटे लेवल पर हो ही रहा है, आगे भी होंगे। मतलब अभी तो लोग खेल रहे हैं, जब इस खेल से थक जाएंगे और उनका कंस्ट्रक्टिव यूज होगा तो पक्के तौर पर कुछ बदलाव होगा। मेरे ख्याल से हो भी रहा है।

जैसे दिल्ली की घटना हुई थी तो उस समय भी बहुत से ऑब्जर्वेशन थे कि जितने लोग जंतर-मंतर पर जा रहे थे उनमें ज्यादातर फेसबुक और ट्विटर से प्रेरित होकर जा रहे थे, बाकी लोग जेएनयू या दूसरी शैक्षणिक संस्थाओं की स्टूडेंट पॉलिटिक्स से जुड़े थे।
...सही, सही... ये फ़िल्म में है भी। एक असहाय गुस्से को दिखाया है। जैसे हमें लगता है कि अगर हम वहां होते तो हम कुछ करते। ये उसी तरह का है। पहुंचना आसान हो गया है। सही चीजों के लिए आप पहुंचोगे तो मेरे ख्याल से वो सुनी जाएंगी।

जितना हम लोगों के पास, जो शहरों में बैठे हैं, इंटरनेट की उपलब्धता है या जो बड़े उदार विचार रखते हैं, वैसे ही जो तमाम ऐसी ताकतें हैं जो दकियानूसी हैं, या कहें तो औरतों के अधिकारों को दबाने वाली हैं या खुली सोच को दबाने वाली हैं, उनके भी फेसबुक पेज हैं, वो भी ट्विटर पर एक्टिव हैं, वो भी गीक हैं अपने मायनों में। तो फिजिकली ही नहीं, वर्चुअली भी वो हैं और अपनी जय... फलानी संस्था खोलकर बैठे हैं। तो इसे आप कैसे देखते हैं? उनका इस स्पेस पर होना क्या यहां भी एक पुरानी वाली ही लड़ाई नहीं खोल देता है? क्योंकि एक तरीके से हमें लगता है कि जितने भी गीक्स हैं वो सही हैं या उनके पास इतना नॉलेज है कि वो सही ही करना चाहते हैं बस कर नहीं पाते हैं।
ये एक्चुअली बहुत सही बात बोली जो इस फ़िल्म में भी है। इसमें अगर आप देखोगे तो लीड कैरेक्टर बॉक्सिंग रिंग में दो दूसरे लोगों से लड़ रहा है। वह कहता है, “मेरे जैसे दूसरे लोग भी हैं लेकिन वो मुझे तरह-तरह की चीजें कहते हैं पर मैं सहमत नहीं होता”। फिर उनमें झगड़ा शुरू हो जाता है। तो वह ट्विटर पर चलने वाले वॉर से जोड़ने के लिए था। आखिर में वह कहता है, “अनफॉलो, कि ये चीज मुझे रोकती है तो मुझे उसे अनफॉलो करना है”। फिर उन दोनों को लात मार देता है रिंग के बाहर। वो अपनी जगह है लेकिन आप सही कह रहे हो कि एम्पावरमेंट दोनों जगह है, दोनों को मिल रहा है। मतलब मैं न्यूट्रल और लिबरल होकर बहस कर सकता हूं तो एक एक्सट्रीम लेफ्ट विंग और एक एक्सट्रीम राइट विंग भी आर्ग्युमेंट दे सकता है। ये प्लेटफॉर्म एक अजीब सी समानता दे रहा है। जैसे कुएं में ये पानी पिएगा और ये पानी नहीं पिएगा... जिसके साथ 25 साल पहले ऐसा हुआ वो आज एक-बराबर बनकर रह सकता है, पॉजिटिव को प्रस्तुत कर सकता है। प्रोज और कॉन्स तो रहेंगे ही। जरूरी नहीं है कि इंटरनेट लिबरल्स के लिए ही है, वो तो सभी के लिए है। वही है कि कितना मजबूती से आप अपनी बातें रख सकते हैं। आम आर्ग्युमेंट में क्या होता है कि कोई इंसान डरा हुआ हो तो उसके सामने वाला उसे चिल्लाकर ही चुप करवा देगा, इंटरनेट पर वो तो नहीं हो सकता है कम से कम। आपको अपनी पूरी बात कहने की आजादी है, दूसरा कोई आपकी बात काट नहीं सकता। मेरे ख्याल से आर्ग्युमेंट रखने के लिए बहुत बढ़िया जगह है और इसके साथ हम इवॉल्व भी होंगे और बेहतर इवॉल्व होंगे। अभी तो मजा आ रहा है। अभी तो बहुत कुछ करने को मिल रहा है। वो होता था न कि बचपन में एक चम्मच शक्कर खा ले तो बच्चा कूदता रहता है पूरे घर में पूरे दिन। अभी तो मेरे ख्याल से उस तरह का एक माहौल है। जब ये माजरा थोड़ा स्पष्ट होगा तो मेरे ख्याल से ये दौर कुछ और ही होगा।

अगर इंटरनेट पूरी आजादी दे रहा है और हमें मजा आ रहा है और ये बहुत पॉजिटिव सब कुछ लग रहा है, तो क्या इसके साथ एक खामी ये नहीं आ गई है कि जो निजी जीवन में हमारे अपने हैं उनको हम कम वक्त दे रहे हैं?
आइसोलेशन तो मैं मानता हूं, होता है। जितना लाखों अनजान लोगों से हम जुड़ रहे हैं उतना पांच अपने लोगों से दूर जा रहे हैं। मानता हूं ऐसा हो रहा है। जैसे, पति-पत्नी भी बाहर डिनर पर जाते हैं तो दोनों अपने-अपने स्मार्टफोन खोलकर वर्चुअल लोगों से इंटरैक्ट कर रहे हैं और सामने उनकी दूरी बढ़ रही है। इसका भी एक दौर है क्योंकि ये आपको अपने अंदर सोख लेती है, इतना एम्पावर करती है कि क्या कहें। तो इवॉल्यूशन होगा, अभी जितना जोश है उतना एम्पावरमेंट हैं, जाहिर है आप ज्यादा घुस चुके हैं उस चीज में तो एक बिंदु के बाद आपको दोनों चीजों का अहसास होगा कि ये इतना सा ठीक है और इतना ठीक नहीं है। ये इंट्रेस्टिंग सा है पर पता चलेगा आगे आने वाले सालों में। एक जेनरेशन जैसे मेरी जेनरेशन है जो दूरदर्शन, ब्लैक एंड वाइट और मारुति 800 से आई है। जब वो वक्त आएगा तो हम काफी बूढ़े हो चुके होंगे। तब एक ऐसी जेनरेशन होगी जो सिर्फ इसी मैं पैदा हुई होगी। बढ़िया से बढ़िया इंटरनेट स्पीड में, ग्लोबलाइज्ड दुनिया में और मॉल में पैदा हुई होगी। वो इस चीज को कैसे यूज करती है देखना बहुत इंट्रेस्टिंग होगा। कैसी फैमिली वैल्यूज और अपना कैसा समाज वो बनाना चाहेंगे, देखना होगा। उनकी बातें, शायद बहुत रोचक होगी सुननी। हम तो बीच की पीढ़ी के हैं तो रियलाइज भी करते हैं और खुद को रोक भी लें कि चलो डिनर के दौरान फोन नहीं यूज करना है या ये नहीं करना है वो नहीं करना है। पर जो युवा एब्सोल्यूट फ्रीडम में पैदा हुआ है। मेरे ख्याल से आने वाले तीस साल में महानगरों में तो कम से कम वर्ग भेद नहीं होगा क्योंकि तब का युवा कॉन्शियस होकर इन चीजों से गुजरा नहीं होगा कि यार मेरे पास तो दो रुपए की पेंसिल है और उसके पास इतनी महंगी पेंसिल है। इस तरह की छोटी-छोटी चीजों से हम गुजरे हैं, वो जो नहीं गुजरा होगा, वो कैसे रिएक्ट करेगा टेक्नोलॉजी को लेकर और उसकी एडवांसमेंट को लेकर, देखना ज्यादा रोचक होगा शायद।

फ़िल्म का पहला विचार आपको कब आया और अंतिम मसौदे तक पहुंचने में कितना वक्त लगा?
आइडिया मुझे अपने ट्विटर के दोस्तों से आया था। मैं ट्विटर पर एक्टिव नहीं रहता हूं बस फॉलो करता हूं, देखता रहता हूं। मेरे जो दोस्त हैं वो आपस में जैसे जज्बे के साथ लड़ते रहते हैं और किसी को कुछ भी बोल देते हैं। कभी-कभी ये माध्यम विस्तार, पहुंच और ताकत भी देता है। जैसे मैं कहूंगा कि “काम नहीं है” तो दोस्त पूछेगा कि “तू बोल क्या-क्या कर सकता है”, तो मैं कहूंगा कि “ये ये कर सकता हूं”। इसे वो ट्विटर पर डाल देगा कि “मेरा दोस्त है उसे काम चाहिए”, “मेरा दोस्त है उसे घर चाहिए”। ये एम्पावरमेंट है जिससे पहले आपकी पहुंच बहुत सीमित थी। दूसरी तरफ वो जो बचकानी हरकतें करते हैं। जैसे, कोई फ़िल्म रिलीज हुई और उस पर जो आर्ग्युमेंट चल रहा है वो न जाने किस लेवल पर चला जाता है। असल जिदंगी में मैं इन सबको जानता हूं। जैसे एक का ट्विटर हैंड है वो एक अलग व्यक्तित्व होगा और जो असली है वो एक अलग पर्सनैलिटी होगा और मैं दोनों को जानता हूं। उसकी ट्विटर पर दस-पंद्रह हजार की फॉलोइंग है और लोग डरते हैं उससे, वो आर्ग्यू जब करता है तो लोग चुप हो जाते हैं और सचमुच की जिदंगी में मैं उसे देखता हूं और जानता हूं कि कैसा है उसकी आवाज क्या है। तो वो जो कॉन्ट्रास्ट है, वो प्रेरणा थी इस फ़िल्म की। मतलब आदमी एक वर्चुअल स्पेस में हल्क बन सकता है और असली जिदंगी में जैसे हल्क बनने से पहले जो डरा हुआ डॉक्टर है वो हो सकता है, तो एक तरह से वो ही शुरुआत थी कहानी की।

लिखने में कितना वक्त लग गया?
उसमें कुछ व्यवस्थित नहीं था। मतलब कुछ भी लिख दिया था कि ऐसे-ऐसे-ऐसे होगा। मन में था कि देखते हैं विजुअल्स के साथ इसका बनता क्या है। हम लोग एक रैंडमनेस (भटकाव) के साथ कोशिश कर रहे थे फ़िल्म बुनने की। हम लोगों को आम स्टोरीटेलिंग की आदत है कि ‘ये ऐसे ऐसे है’, लेकिन हमारी जो वर्चुअल जिदंगी है वो मेरे ख्याल से ‘ये है ये है ये है’ नहीं है। तो वो रैंडमनेस जरूरी थी कि आप यहां से वहां कूद रहे हो अपने मन में। आप जब बैठकर दिन में सपने भी ले रहे होते हो तो अजीब से अजीब परिस्थितियों में होते हो। ऑस्कर भी कलेक्ट कर रहे होते हो, भाग भी रहे होते हो, कहीं मुड़ भी रहे होते हो, तो उसकी कोई सीमा नहीं है। ऐसा कुछ बांधा नहीं था मैंने स्टोरी के साथ, अलग-अलग सब्जेक्ट थे। ऐसा इंडिया के बारे में मैसेज भी है। जैसे, वो स्लो मोशन में एक दिशा में भाग रहा है जहां एक शहरी आदमी शायद ही जाता है। वहां बताया जाता है कि “जब आप शहर में मॉल बना रहे हो तब जंगल में युद्ध लड़ा जा रहा है, सिविल वॉर”। वहां लोगों के पास घर-बार नहीं हैं, उन्हें विस्थापित कर दिया गया तो वो लड़ रहे हैं। ये उसका एक प्रस्तुतिकरण था, पर बहुत ग्लैमरस प्रस्तुतिकरण था।

एक सुपरहीरो क्लीशे के काम भी आता है कि एक सुपरहीरो जो होता है उसे एक्सट्रीम पेन से गुजरना पड़ता है, इससे पहले कि वो तय करे कि सुपरहीरो बनेगा। ये उसी का संदर्भ था। जैसे, वो नक्सली अपनी गर्लफ्रेंड के साथ भाग रहा है और जंगल में वो इंडियन आर्मी के हाथों मारी जाती है, तब वो लड़ाई करता है तो सोचता है कि अब मैं शहर जाकर लड़ूंगा। अकसर आपने देखा हो तो सुपरहीरो कहीं का भी रहने वाला हो शहर में आकर ही अपनी जंग लड़ता है। यानी आप कहीं पर भी अपनी जंग जारी रख सकते हो। वो चाहता तो जंगल में भी लड़ाई चालू रख सकता था, पर आता तो शहर में ही है और बिल्डिंग की छत पर खड़ा होता है। ये जो अलग-अलग छवियां हैं इन्हें लिया गया है।

जैसे वो ट्रेन वाला सीक्वेंस है जहां पर वो लड़की उसे आकर थैंक यू कहती है और वो शरमा जाता है और उसके बाद एक घटनाओं की श्रंखला होती है। ये बेसिकली हमारे जो इंस्टाग्रैम अपडेट्स हैं, हमारे जो अच्छे वाले फेसबुक अपडेट्स हैं कि यार आज में इस पार्टी में गया, वो जो होता है न कि सामने कैमरा रखकर आप खुद की फोटो खींच लेते हो और अलगअलग पोज देते हो। मतलब आप भले ही मोटे हो लेकिन सिर्फ अपना पेट खींचते हो कि पूरी बॉडी न दिखे। मतलब वो कैजुअली मैनिप्युलेटेड अच्छी वाली तस्वीरें जो होती हैं, ये वो वाला हिस्सा है। और इंटरनेट पर जैसे आप देखोगे कि कोई बिल्ली का वीडियो डाल देगा तो छह लाख लोग उसे देख लेंगे लेकिन एक सीरियस इश्यू के बारे में बात करोगे तो कोई नहीं देखता। ये उस तरह की चीजें हैं। जैसे वो बिल्ली लाकर दे रहा है और बुड्ढियों के साथ सीडी देख रहा है। मतलब वो जो बहुत ही कन्वेंशनल क्यूट चीजें लोग करते हैं इंटरनेट में खोते हुए।

फिर स्टोरी का प्रोग्रैशन ये है कि वो अब इन चीजों से पक चुका है। अब उसे सुपरहीरो विजिलांते वाली चीजें आ रही हैं, वो लोगों से लड़ रहा है, लोग उसे कुछ कह रहे हैं, उसे मान ही नहीं रहे। फिर वो फेसबुक में अपने दिन बिताने लगता है और लड़कियों को स्टॉक कर रहा है। बाथ टब से लेकर वो जो आगे वाले सीन हैं, उनका मतलब यही है कि फेसबुक पर वह लड़कियों की तस्वीरें स्टॉक कर रहा है और फिर हम देखते हैं कि वो लड़की उसके सामने बैठी है और वो उससे बात नहीं कर पाता, उसकी बातचीत सिर्फ इतनी ही है कि यूट्यूब पर कमेंट छोड़ देता है उसके लिए कि मुझे तुम पर यकीन है। लड़की ने शायद इंडिया अगेंस्ट करप्शन की तरफ से अर्णब गोस्वामी के शो पर हिस्सा लिया हो और वो देख रहा है यूट्यूब पर। उसे बस वही रास्ता दिखता है कि मैं यूट्यूब पर कमेंट छोड़ दूंगा जबकि सपनों में और वर्चुअल लाइफ में वो सुपरहीरो है और उस लड़की को बचाता है और सब दुनिया को बचा रहा है। यानी जब रिएलिटी की बात आती है तो यही भाव हैं, यही हमारे ख्वाब हैं और उतने में ही सिमट जाते हैं।

आखिर में जब वो लोग अपनी डेस्क ऊपर कर रहे होते हैं, वो क्या करते हैं?
हा हा, वो एकदम गीक वॉर होते हैं कि एक मैकेनिकल डेस्क है और देखते हैं सबसे पहले ऊपर कौन करेगा। फ़िल्म में तो बहुत सीरियस दिखाया है पर असल मैं ऐसे सीरियस होता नहीं है। जैसे, दो लोग कागज की गेंद बनाते हैं और कचरे के डिब्बे में फेंकने की कोशिश करते हैं कि किसकी पहले गई। ये वैसा ही है। ये छोटी-मोटी चीजें हैं इसमें आप अपनी खुशी दिखाते हो क्योंकि आगे आप सोशियली बहुत चैलेंज्ड हो। आप एक पार्टी की जान नहीं हो। आपके लिए लोग रुकते नहीं हैं, आप उनमें से हो जिसे पूछना पड़ता है “कहां जा रहा है कहां जा रहा है, मैं आऊं मैं आऊं”। आपके जाने या न जाने से लोगों को फर्क नहीं पड़ता। हम जैसे लोग आपस में मिलते हैं तो एक अजीब सा इंटरेक्शन होने लगता है। ये उस तरह की स्थिति थी जहां मुझे दिखा कि गूगल के दफ्तर में ऐसी बैंच है जो ऊपर-नीचे होती हैं, तो मैंने सोचा कि हां रोज ये लोग शायद करते होंगे तो यूज करता हूं। जब कैमरा सेट हो रहा था, लाइट सेट हो रही थी तो मैं ऐसे किसी और के साथ खेल रहा था।

किन-किन लोगों को कास्ट किया और क्यों किया?
विकी (कौशल) को मैं तीन-चार साल से जानता हूं। उससे समर्पित और कमाल लड़का मैंने देखा नहीं है। लुक और परफॉर्मेंस में और एक इंसान के तौर पर उसने मेरे सामने ही ग्रो किया है। उसके साथ तो मैं हमेशा ही काम करना चाहता था। मुझे पता था कि बिना एक भी डायलॉग के बहुत सटल एक्सप्रेशन में एक वही है जो कर पाएगा। जहां बेहद एक्शन की डिमांड है वो भी कर लेगा और जहां अभिनय की जरूरत है वो भी कर लेगा। नेहा (चौहान) को मैंने ‘एलएसडी’ (लव सेक्स और धोखा) में देखा था। फ़िल्म में उसके काम से काफी प्रभावित था मैं। उसकी लाइफ भी अजीब रही थी, वो दोस्त की शादी में नाच रही थी, वो वीडियो दिबाकर ने देखी और उसे चुना। मुझे उसका लुक काफी रोचक लगा था, पारंपरिक नहीं था। जैसे आप हीरोइन चुनते हो तो एकदम गोरी-चिट्टी और मर्यादाओं वाली, तो नेहा उन धारणाओं को तोड़ रही थी। जब भी वो एक कमरे में चलकर आती थी तो लड़के रिएक्ट करते थे। मुझे वो अच्छा लगा कि उसका एक अजीब तरह का अट्रैक्शन है, जो कि पारंपरिक तरीकों से आप नहीं लगते हो। नेहा अच्छी एक्ट्रेस है। काफी उत्साहित है। उसके अलावा जितने भी लोग हैं, सारे मेरे दोस्त ही हैं। जैसे, कोई ट्रेन में पीछे खड़ा है तो प्रॉडक्शन वाला है।

कौन सा कैमरा इस्तेमाल किया?
कुछ-कुछ जगहों पर रेड एपिक (Red Epic) किया है जहां पर एक्शन है और जंगल के सीक्वेंस हैं। बाकी जगहों पर जहां परमिशन नहीं ले सकते थे जैसे ट्रेन हो गई वहां पर 5डी (Canon EOS 5D) यूज किया।

इस फ़िल्म में जैसे दो-तीन बिंदु हैं कि “जंगलों में युद्ध लड़े जा रहे हैं और शहरों में मॉल खड़े किए जा रहे हैं” या “दिल्ली की उस बस में मैं होता”, ऐसे बिंदु क्या अपनी बाकी फ़िल्मों में भी आप लाना चाहेंगे?
ये जिदंगी से ताल्लुक तो रखते ही हैं। आप अखबार उठाओ तो पढ़ सकते हो। मेरे ख्याल से किरदार कोई भी हो पुट तो किए ही जा सकते हैं, कितना वो रजिस्टर कर पाएंगे पता नहीं। अब जैसे इसमें मजाक के तौर पर डाल दिया है तो शायद ध्यान नहीं जा रहा लेकिन अब उस मूमेंट में कितना हो सकता है उतना ही किया जा सकता है। लेकिन बात ये है कि मैं अपने पॉइंट रखता जाऊं, बाकी लोग पहले हफ्ते में समझेंगे या दूसरे में या मिस कर देंगे। ठीक लगा तो शायद समझ जाएं।

फ़िल्में कौन सी देखीं हाल में?
ऐसी कोई मजेदार फ़िल्म देखी नहीं। एक ‘ओनली गॉड फरगिव्स’ बहुत ही चर्चित फ़िल्म रही जो कान में थी और लोगों को बिल्कुल पसंद नहीं आई। मेरे ख्याल से एक अजीब सा माहौल बन रहा है जहां लोग नहीं चाहते कि फ़िल्म में एक्सट्रीम हिंसा हो या खून-खराबा हो तो उसे वो बिल्कुल नकार रहे हैं। मेरे ख्याल से फिर से वो दौर आएगा जहां साफ फ़िल्में होंगी। इंटरनेशनली भी मैं देख रहा हूं कि माहौल रिएलिटी या हिंसा दिखाने का नहीं है। डार्क फ़िल्में लोग नकार रहे हैं।

ऐसा क्यों, क्योंकि निकोलस की पिछली फ़िल्म ‘ड्राइव’ में भी हिंसा को बहुत ही शांत-सुरम्य तरीके से दिखाया गया था और लोगों ने पसंद भी किया, ‘ओनली गॉड फरगिव्स’ भी शायद वैसी ही है फिर ऐसा क्यों? टैरेंटीनो भी पोएटिक सा वॉयलेंस दिखाते हैं लेकिन उन्हें उनके फैन्स देवता मानते हैं। ये जो हिंसा को नकारने वाले दर्शक हैं, ये नई पीढ़ी के हैं या उस पीढ़ी के जो काफी वक्त से सिनेमा देख रही है?
दोनों। दोनों ही नकार रहे हैं। टैरेंटीनो को आप फिर भी इतना सीरियस नहीं पाएंगे। मतलब टैरेंटीनो की फ़िल्म में मुझे नहीं लगता कि मैं रिएलिटी ढूंढता हूं। मैं तो एंटरटेनमेंट ही ढूंढ रहा होता हूं। लेकिन निकोलस की फ़िल्में एक बहुत ही अलग जोन में जाती हैं और वो एक घुटन सा महसूस करवाती हैं। मैं तो ऐसे सिनेमा से जुड़ना चाहूंगा जो ज्यादा रियल है, ज्यादा रेजोनेंट है। भले ही वो बहुत ही डिबेटेड फ़िल्में हों क्योंकि अच्छी बात ये है कि वो समानांतर भाषाओं में हैं ताकि सब लोग देख सकें। वो एक ऐसी चीज होगी जो कुछ लोगों को बहुत ही बेकार लगेगी और कुछ लोगों को बहुत ही पसंद आएगी। आज के वक्त में एक बहुत ही कमाल माहौल है कि हर आदमी अपना अलग नजरिया रख रहा है न कि आयातित नजरिया। इस लिहाज से निकोलस जो करने की कोशिश कर रहे हैं वो काफी हिम्मत का काम है। उनका करियर फॉलो करने में मजा आएगा।

और किसी फ़िल्म से जुड़े हैं कि अपनी पटकथा पर ही काम कर रहे हैं?
अपनी कहानी ही लिख रहा हूं। वैसे ‘बॉम्बे वेलवेट’ में राइटर था पर वो काम काफी पहले ही खत्म हो गया था।

Vasan Bala is a Mumbai based filmmaker. He has made a Short film called ‘Geek Out.' Last year, he made ‘Peddlers' which was received very well at various National - International film festivals. He has worked with Anurag Kashyap on 'Dev D', 'That Girl in Yellow Boots', 'Gulaal' and ‘Bombay Velvet’ (Script). He was an associate director to Michael Winterbottom on 'Trishna'. Now he’s writing his next movie.
******      ******      ******