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Monday, September 28, 2015

मुझे लगता है हर क्रिएटिव आदमी, अपने सबसे निचले धरातल पर मानवतावादी (humanist) होता है, उसमें चाह रहती है कि चीजें इससे बेहतर क्यों नहीं हो सकतीं: कनु बहल

.Q & A  .Kanu Behl, film writer and director (TITLI).

Amit Sial, Shashank Arora and Ranvir Shorey in a still from Titli.
ये भी ‘तितलियों’ की हत्या का दौर है। चैतन्यता, प्रेम, आजादी, यौन उन्मुखता, समानता, प्रकृति, फकीरी और सहिष्णुता पर संकट है। इस बीच कनु बहल की फिल्म ‘तितली’ आ रही है। कहानी दिल्ली में रहने वाले एक परिवार की है। तीन भाई हैं। सबसे छोटा है तितली। संवेदनशील है और आपराधिक पेशे से दूर जाना चाहता है, उसका ये नाम संभवत: इसीलिए रखा गया है। ये भूमिका नवोदित शशांक अरोड़ा ने अदा की है। बड़े भाई विक्रम का रोल रणवीर शौरी और प्रदीप का रोल अमित सियाल ने किया है। तितली की शादी नीलू से की जाती है जो किसी और से प्यार करती है। नीलू के रोल में शिवानी रघुवंशी हैं। तीनों भाइयों के पिता की भूमिका वरिष्ठ रंगकर्मी और एक्टर-डायरेक्टर ललित बहल ने की हैं। वे नवोदित निर्देशक कनु के पिता हैं।

दिल्ली में पले-बढ़े कनु की मां नवनिंद्र बहल भी वरिष्ठ अदाकारा और एक्टर-राइटर-डायरेक्टर हैं। नोएडा की एपीजे स्कूल में पढ़े कनु ने दिल्ली यूनिवर्सिटी के शहीद सुखदेव कॉलेज से बिजनेस में बैचलर्स डिग्री ली। 2003 में वे कोलकाता के सत्यजीत रे फिल्म एवं टेलीविजन संस्थान (SRFTI) सिनेमा की पढ़ाई करने गए। चार साल बाद 2007 में मुंबई पहुंचे और वहां निर्देशक दिबाकर बैनर्जी की दूसरी फिल्म ‘ओए लक्की लक्की ओए!’ में असिस्टेंट डायरेक्टर बन गए। उनकी अगली फिल्म ‘लव सेक्स और धोखा’ (2010) में भी वे ए.डी. थे। उन्होंने जर्मनी के चैनल ZDF और जापान के NHK के लिए डॉक्युमेंट्री फिल्में बनाईं। 2010 में कनु ने अपनी पहली फिल्म ‘तितली’ लिखनी शुरू की जिसकी स्क्रिप्ट 2012 में एनएफडीसी की स्क्रीनराइटर्स लैब में चुनी गई। फिल्म में उनके सह-लेखक हैं शरत कटारिया जो पहले ‘भेजा फ्राय’ जैसी फिल्म लिख चुके हैं और बतौर निर्देशक इस साल उनकी पहली फिल्म ‘दम लगा के हईशा’ आई है। ‘तितली’ का निर्माण दिबाकर बैनर्जी और यशराज फिल्म्स ने किया है। इसका फिल्मांकन सिद्धार्थ दीवान और एडिटिंग नम्रता राव ने की है। फिल्म पिछले साल फ्रांस के केन (Cannes) फिल्म फेस्ट की विशेष श्रेणी ‘अं सर्तेन रगाद’ (Un Certain Regard) में प्रदर्शित की गई तब से और चर्चा में है। यहां ‘कैमरा दॉर’ (Caméra d'Or) श्रेणी में भी इसे नामांकित किया गया। विश्व के 22 से ज्यादा फिल्म महोत्सवों में अब तक जा चुकी है।

‘तितली’ भारत भर के सिनेमाघरों में 30 अक्टूबर को प्रदर्शित होने जा रही है। इसके अलावा कनु अपनी अगली फिल्म भी लिख रहे हैं। इसका नाम ‘आगरा’ बताया जाता है। ये एक 24 साल के लड़के की कहानी है जो एक लड़की के प्यार में पड़ जाता है। लेकिन जल्द ही ज्ञात होता है कि वो लड़की काल्पनिक है। अभी भारत में प्रेम की परिस्थिति क्या है इसे भी ये कहानी प्रस्तुत करेगी। कनु से उनके जीवन, तितली, सिनेमा और सोच पर बात हुई। प्रस्तुत है:

एक साल पहले ‘तितली’ का ट्रेलर आ गया था और केन इंटरनेशनल फिल्म फेस्टिवल में भी तब चली गई थी। क्या तब पूरी तरह तैयार नहीं हो गई थी? या भारतीय प्रिंट में समय लगा?
नहीं, दरअसल फिल्म का अंतरराष्ट्रीय चक्र (festival cycle) करीब एक से डेढ़ साल लंबा होता है। एक बार केन (Cannes) चली जाती है तो काफी सारे शीर्ष फेस्टिवल्स में जाती है। हम फेस्टिवल फेरे को पहले पूरा करना चाहते थे। फिल्म पूरे जहां में कुछ सबसे बड़े फिल्म महोत्सवों में गई है। ये रॉटरडैम (Rotterdam) में गई है जो नीदरलैंड्स में होता है। गोटेनबर्ग (Gothenburg) में गई है जो स्वीडन में होता है। एएफआई (American Film Institute), लॉस एंजेलस में गई है। बीएफआई (BFI), लंदन में गई है। इसने 9* पुरस्कार जीते हैं। आमतौर पर ऐसी छोटी फिल्म के लिए काफी प्रयास करने पड़ते हैं। इंटरनेशनल मॉडल को फॉलो करना पड़ता है। इसके पीछे का सारा आधार तैयार करना होता है।

समाज में बहुत सारे विषय और चिंताएं हैं लेकिन पितृसतात्मक (Patriarchal) समाज पर ही आपने अपनी पहली फिल्म क्यों बनाई? ऐसा क्या लिंक रहा इस विषय से?
बहुत ईमानदारी से बोलूंगा। मैंने जब ये फिल्म लिखनी शुरू की थी तो मुझे नहीं पता था कि ये किन-किन थीम्स से रूबरू होगी। मैंने इससे पहले एक और फिल्म लिखी थी जिसकी स्क्रिप्ट मैं एक-डेढ़ साल लेकर घूमा हूं। दिबाकर (बैनर्जी) को भी पढ़ाई। मैंने बनाने की कोशिश की और कहीं न कहीं मुझे अहसास हुआ कि यार, ये ईमानदार फिल्म नहीं है! मैंने बस लिखने के लिए एक फिल्म लिख दी है। इसका कोई मतलब नहीं है। उसके बाद मैं डिप्रेशन में चला गया पांच-छह महीने। घर बैठा। मैंने सोचा कि यार तुमने शुरू क्यों किया था? तुम फिल्म क्यों बनाना चाहते थे सबसे पहले? वो इसलिए कि मुझे कहानी कहनी थी। सच्ची कहानी। जो अपने से जुड़ी हो। फिर वहां से पूरा विचार शुरू हुआ कि इस बार मैं जो लिखूंगा उससे मेरा अपना जीवन और अनुभव जुड़ा होना चाहिए। अच्छे तरीके से और भली-भांति तो मैं अपने परिवार को ही जानता था। सोचने लगा, तो वो एक बहुत ही नेचुरल सब्जेक्ट बन गया मेरे लिए... नॉर्थ इंडिया में रहते हुए, दिल्ली में रहते हुए .. जो कि एक बहुत पेट्रियार्कल सोसायटी है। मेरा अपने पिता से बहुत ही मुश्किल रिलेशनशिप रहा है। कुछ वो चीजें स्क्रिप्ट में ढुलनी शुरू हुईं।

 तो फिल्म बन गई एक ऐसे युवा के बारे में जो अपने बड़े भाई से भागना चाहता है क्योंकि बड़ा भाई बहुत हिंसक है। उसे मारता है, पीटता है, तंग करता है। इसमें कुछ अतिरिक्त बात लाने और इन बिंदुओं को तीखा करने के लिए मैंने और शरत (कटारिया) ने उसे एक फैमिली में सेट किया कि वो एक कारजैकर्स (कार लूटने वाले) की फैमिली से है। क्योंकि ... तभी-तभी ये रेप केस (दिल्ली, 2012) भी हुआ था। उसे भी समझने की कोशिश कर रहे थे। हम लोग लड़खड़ा रहे थे, ढूंढ़ रहे थे कि ये फिल्म है क्या? ये सारी चीजें अभी मैं बोल रहा हूं तो आपको लगेगा कि सोच के करीं, पर सच्चाई ये है कि ये सारे जो फिल्म के दरवाजे थे वो बतौर लेखक हमारे सामने एक-एक करके खुले। हमें ये भी लगा था कि इस फैमिली का हिंसक होना जरूरी है न सिर्फ घर में बल्कि बाहर भी। तो हमने कारजैकिंग की पृष्ठभूमि बनाई और उसके बारे में रिसर्च करना शुरू किया। कहानी के मुझसे जुड़े इमोशंस ये थे कि मेरा अपने फादर से डिफिकल्ट रिलेशनशिप था जो कि अपने आप में ही बहुत कॉमन चीज हैं। शरत का भी अपने पिता से कठिन रिश्ता था, सिद्धार्थ (दीवान) जिन्होंने फिल्म शूट कीं उनका भी अपने पिता से रिश्ता कठिन था। तो ये सबके भी विचार जुड़ते गए फिल्म में, जैसे-जैसे क्रू एड होती गई। शुरुआत यहीं से हुई थी।

 उसे हम पकड़ कर चले और पहला ड्राफ्ट लिखा। इससे ये कहानी चार मर्दों के परिवार की बन गई। एक पुरुषों वाली फैमिली में कोई लड़की आती है और क्या होता है? लेकिन फिर सोचा कि यार, बड़े भाई का किरदार तो आरोपित (accusatory) करने वाला लग रहा है। बड़ा भाई तितली को मार रहा है लेकिन इसमें तो हम गए ही नहीं कि ये ऐसा क्यों कर रहा है? इस घर में बड़ा पैटर्न क्या है? हमने बात करना शुरू किया कि यार अगर हम बोल रहे हैं कि ये जो छोटा लड़का है, वो अपने भाई से भागना चाह रहा है क्योंकि उसे बड़ा भाई जैसा है वैसा पसंद नहीं है तो वो भाई ऐसा बना क्यूं? विचार आया कि ये बाप क्या कर रहा है यहां? इसका क्या रोल है? उसे जब तलाशा तो हमें बाप मिला फिल्म में। एक और ड्राफ्ट लिखा तो लगा कि अच्छा, बड़ा भाई बाप की वजह से ऐसा है। लेकिन फिर हमने सवाल पूछा कि बाप ऐसा क्यों कर रहा है? तो उससे हमें एक दादाजी की फोटो मिली घर में। देखिए, ..फिल्म एक स्पेस है जिसमें हम 100 या 110 दस मिनट में एक स्टोरी कहना चाह रहे हैं.. और जिस दिन हमें आइडिया आया कि घर में एक दादाजी की फोटो है जिसकी पिताजी बार-बार पूजा करते हैं तो वो चक्र (circularity) ज्ञात हुआ। तब हमें पता चल गया कि ये फिल्म किस बारे में हैं?

 असल में फिल्म पितृसत्ता से भी ऊपर उठकर एक फैमिली के बारे में है। परिवार के पावर डायनेमिक्स (power dynamics) आपस में क्या होते हैं उस बारे में है। परिवार में जो ये भूत घूमते रहते हैं न चित्रों के.. और इन एक से दूसरी छवि में जो हस्तांतरित (pass on) होता रहता है.. ये एक्चुअली उसके बारे में है। तब हमें पता चला कि इस लड़के को लगता है कि वो बड़े भाई से भागना चाहता है पर असल में तो वो बाप से या दादा की फोटो से भागने की कोशिश कर रहा है। और शरीर के भागने से कुछ नहीं होगा। आप कितना भी भाग जाओ वो तो हमारे अंदर है। ये करते-करते स्क्रिप्ट की यात्रा रही है। ये मेल डॉमिनेशन से पेट्रियार्की से सर्कुलैरिटी पर चली गई है। मेरे हिसाब से पेट्रियार्की एक रनिंग थीम है फिल्म की। अगर हम सबसे बड़े माले पर जाकर इस पूरी ईमारत को देखें तो सबसे बड़े तौर पर ये फिल्म फैमिली सर्कुलैरिटी के बारे में है।

आपने फिल्म के साथ इतना वक्त बिताया है कि उसे बहुत स्तर पर और बहुत लहजों से जानते हैं। लेकिन बाहर से सिर्फ ट्रेलर देखते हैं तो मोटे तौर पर पेट्रियार्की ही समझ आती है। बड़ा चैलेंज अभी भी हमारे यहां पितृसत्ता वाला समाज है। आप रोज घटनाएं देख रहे हैं। पढ़ने-लिखने के दौरान निराशा ही होती है। ‘मैं हूं मर्द तांगे वाला’ और ‘मर्द को कभी दर्द नहीं होता’ के अमिताभ से लेकर हालिया ‘बाहुबली’ के प्रभास को ले सकते हैं जो शिवेंदु का किरदार करते हैं जिसमें हीरोइन (तमन्ना भाटिया) का उद्देश्य होता है कि वो बदला लेना चाहती है तो नायक उसे रोक देता है। अर्थ दिखता है ‘तू खूबसूरत रह, तू मुझसे लव कर, तेरा काम मैं करूंगा’।
बिल्कुल। ‘तितली’ पेट्रियार्की के बारे में ही है लेकिन इससे पहले भी ऐसी फिल्में रही हैं जो शायद इस मसले को डील कर चुकी हैं। हम बात कर रहे थे कि जब ये सारी फिल्में हैं तो हम अपनी फिल्म क्यों बना रहे हैं? यही बात क्यों कह रहे हैं? तो तय हुआ कि हम इस पर ही खत्म नहीं करना चाहते थे कि हमारे यहां पेट्रियार्की है और वो खराब है, हम उससे जूझ रहे हैं। ये तो सबको मालूम है। इस बात पर तो कई सदियों से लड़ाई चल ही रही है। लेकिन एक बार जब हमने मजबूती से तय कर लिया कि ‘तितली’ में इस विषय पर बात करना चाहते हैं तो उसके बाद हमारा पूरा प्रयास इस पर था कि ये क्यों है? और ये कहां से आती है? और इस पूरी डिबेट को खोला कहां जाए? इसकी शुरुआत कहां से होती है? और अगर इसे तोड़ना है तो क्या किया जाए? बात सिर्फ वहीं पर नहीं रुक जानी चाहिए जहां हर फिल्म ले जा चुकी है। बात उससे आगे जानी चाहिए। पेट्रियार्की के ढांचे को कैसे तोड़ा जाए? फैमिली के मायने क्या हैं? क्यों ये जुड़ी तो उसी से है न! प्रयास इसी पर रहा है कि परिवार और पितृसत्ता को समझा जाए और उसमें जो गलत पैटर्न नजर आ रहे हैं उनसे कैसे जूझा जाए। ये प्रॉबल्म इतना बड़ा है तो इसका मामूली सॉल्यूशन से काम नहीं चल सकता। हमने सोचा कि इसके भीतर जाकर कुछ फिल्टर व परदे और खोले जाएं जो हमें नजर (view) दे कि शायद इस मसले का हल यहां से खुल सकता है। क्योंकि पेट्रियार्की का स्ट्रक्चर हम सबसे बड़ा है। हम उन्हीं परिवारों, उसी पितृसत्ता और उन्हीं भूतों से जूझते हुए कुछ समझे बगैर 80 साल का जीवन जी लेते हैं। यही 70-80 साल अगर पेट्रियार्की के स्ट्रक्चर को समझकर उसका समाधान ढूंढ़ने में लगाएं तो शायद उसे बेहतरी से तोड़ पाएंगे, न कि इंसानों से ही लड़ते रहें। तो फिल्म शुरू उसी लड़ाई से होती है।

यानी आप उपाय भी साथ में बताने की कोशिश कर रहे हैं जो ज्यादातर फिल्मकारों द्वारा नहीं किया जाता। सत्यजीत रे की ‘महानगर’ बहुत चतुराई से दर्शक से कहती है कि घर की औरत को बाहर निकालो, शुरू में दिक्कत होगी आपको, मां-बाप को लेकिन बाद में बदलाव स्वीकार हो जाता है। ‘अशनी संकेत’ में जाति व्यवस्था पर बहुत मानवीय तरीके से बता देते हैं जहां उनका ध्यान इंसान की बुराई पर नहीं समस्या के ढांचे पर है कि ये समस्या रहेगी अगर आप इसे ऐसे रहने देंगे तो। ‘पाथेर पांचाली’ भी ऐसी थी। या अरुणा राजे की ‘रिहाई’ बहुत ही मजबूत नारीवादी फिल्म थी। आपने कहा कुछ पहले फिल्में रहीं जो इस विषय पर बात कर चुकी हैं, आप के जेहन में कौन सी थीं?
मैं इतनी फिल्में नहीं देखता आजकल। पिछली बार फिल्में फिल्म स्कूल में ही देखी थीं। मैं लिट्रेचर से ज्यादा जुड़ा था। इस संदर्भ में आर. डी. लैंग (R. D. Laing) हैं पॉपुलर साइकैट्रिस्ट, उनकी किताब है ‘द पॉलिटिक्स ऑफ द फैमिली’ (The Politics of the Family)। ये हमारा प्रमुख दस्तावेज बनी थी फिल्म के लिए। मेरी जो समझ है वो इससे बनी, और इससे मेरा वास्ता संयोग से ही हुआ था। मैंने किसी को स्क्रिप्ट का ड्राफ्ट पढ़ने के लिए दिया था कि हम क्या कर रहे हैं और हम बहुत एक्साइटेड हो गए थे कि ये देखो हमें लग रहा है कि हमने कुछ नया ढूंढ़ िलया है। ये सर्कुलैरिटी की बात किसी ने नहीं की थी। उन्होंने पढ़ी और जवाब दिया कि ‘आपने कभी आर. डी. लैंग पढ़ा है?’ मैंने और शरत ने बोला, नहीं सर हमने तो नहीं पढ़ा है। तो बोले, ‘आप ये किताब पढ़ो।’ जब पढ़ी तो अहसास हुआ कि हम जो सोच रहे थे कि हमने नया ढूंढ़ा है दरअसल एक इंसान अपना पूरा जीवन इसी बारे में बात करते हुए निकाल के गया है। इस पेशे में उन्होंने जो भी पचास-साठ साल बिताए वो इसी इश्यू पर लिख रहे थे। सर्कुलैरिटी पे ही लिख रहे थे। कि कैसे पीढ़ियों में व्यक्तित्व यात्रा करते हैं। एक जेनरेशन की पर्सनैलिटी दूसरे पे आती है। हम अपने ही आसपास के लोगों से लड़ते रहते हैं, ब्लेम करते रहते हैं लेकिन शायद ये साइकल ब्रेक करना ज्यादा जरूरी होता है। बाकी फिल्में तो हैं ही लेकिन हमने स्क्रिप्ट लिखते हुए कोई फिल्म नहीं देखी जो परिवार से जुड़ी हो। हमने फिल्मों के अपने सामान्य ज्ञान से ही बातें लीं कि वे कहां तक पहुंची हैं। मेरा तो फिल्म स्कूल जाने का पूरा इरादा ही यही था कि क्या फिल्में बन चुकी हैं और कहां आगे जाया जा सकता है? सेम फिल्में दोबारा बनाने का कोई सेंस नहीं है।

शरत कब जुड़े ‘तितली’ से? और सवाल ये था कि एक निर्देशक या लेखक जो मूल कॉन्सेप्ट अपने दिमाग में पैदा करता है उसे किसी सह-लेखक की जरूरत क्यों पड़ती है? दूसरा, आपके विचार को वो उतनी ही आत्मीयता या मौलिकता से कैसे जान सकता है? क्योंकि वो तो दूसरा आदमी है। और फिर प्रोसेस क्या रहता है लिखने में? वो क्या मदद कर पाता है? जैसे ‘मसान’ में नीरज (घेवन) ने वरुण ग्रोवर को साथ जोड़ा था। तो अच्छी बात बन बड़ी। आपकी फिल्म में भी शरत हैं। क्या सह-लेखक एक बाहरी ही नहीं बना रहता?
Sharat and Kanu.
मेरे हिसाब से फिल्ममेकिंग बहुत सहयोगपूर्ण (collaborative) काम होता है। शरत से लेकर सिद्धार्थ (जिन्होंने शूट की) से लेकर नम्रता (जिन्होंने एडिट की) तक हर इंसान अपनी कहानी इस फिल्म में लेकर आया। इसीलिए ये फिल्म इतनी अच्छी बनी है। शरत तो इसका सबसे पहला हिस्सा था जब कोई नहीं था। शरत का बहुत बड़ा हाथ रहा है। उससे मैं मिला था करीब अक्टूबर 2012 में। और हमें करीब डेढ़ साल लगा ये फिल्म लिखने में। उसका आना बहुत जरूरी इसलिए था क्योंकि एक तो मुझे लगता है हर स्क्रिप्ट एक जीता जागता इंसान होती है। मुझे लगता है उसमें इतनी सारी चीजें, इतने सारे किरदार होते हैं कि एक आदमी का उस पर खेलना थोड़ा सीमित हो जाता है। दो लोग जब मिलकर खेल रहे हैं और उनमें लेन-देन होता है बातचीत का तो हर पात्र के अंदर जो जीवन है थोड़ा बढ़ता है। और खिल उठता है। और उसके अंदर का प्ले ज्यादा दिखता है। हम दोनों के व्यक्तित्व भी थोड़े विरोधाभासी हैं। तो विरोध थे। लेकिन बहुत जल्द ही हमें एक कॉमन चीज को मिल गई, वो ये कि हम दोनों एक ही जगह से थे। कम और ज्यादा हम दिल्ली के समान इलाकों से थे। मैं पटपड़गंज में रहता था और शरत वेस्ट दिल्ली में रहता था। जिन लोगों के बारे में हम बात कर रहे थे उनको मैं और वो बहुत अच्छे से जानते थे। वहीं पर हमको एक बहुत स्ट्रॉन्ग कॉमन ग्राउंड मिल गया। जब हम किसी भी चीज के बारे में बात करते थे तो बहुत जल्दी हमारा एक कोड बन जाता था। शरद की मजबूती है राइटिंग की, वो है कैरेक्टर्स और डायलॉग्स.. और मेरा स्ट्रक्चर का सेंस है और कहानी का सेंस है तो वो एक बहुत अच्छी चाबी बनी और हम दोनों जुड़ गए। वो बहुत बड़ी ताकत थी।

.. मैं ऑथर स्टोरी में बहुत ज्यादा यकीन नहीं रखता हूं। मुझे नहीं लगता डायरेक्टर कोई ऑथर होता है या कोई बहुत बड़ी चीज होता है। मुझे लगता है डायरेक्टर अपना बहुत राजनीतिकरण करते हैं। जबकि फिल्म में टीम वर्क होता है। शरत टीम का सबसे पहला हिस्सा था और दोनों के आने से कहानी कोई तीसरी ही चीज बन गई। मेरे न होने से भी वह नहीं होती और उसके न होने से भी। जब दोनों साथ आए और बात करनी शुरू की, कि भई ये क्यों हो रहा है? शरत बोला कि भई तू तो तितली को बिल्कुल ही पीड़ित (victim) दिखा रहा है और बड़ा भाई बस विलेन ही बन रहा है। उस सवाल पर हम आगे बढ़े। उसके बाद मैंने सवाल पूछे उसके शरत ने जवाब दिए। ये जो मंथन होता है इसके बिना सिर्फ एक राइटर-डायरेक्टर के लिए - कम से कम मेरे मामले में अगर मैं दूसरों की बात न भी करूं - प्रोसेस थोड़ा सा एकाकी (lonely) हो जाता है और थोड़ा सा लाइफ उसमें से जाती रहती है। मुझे लगता है एक को-राइटर के होने से एक वैधता (validity) मिलती है, कहानी को सार्वभौमिकता (universality) मिलती है। क्योंकि वो सिर्फ आपकी कहानी नहीं होती.. आपके पास मौका आ जाता है ये देखने का कि ये किसी और की कहानी भी बन सकती है कि नहीं? या ये सिर्फ मेरी कहानी है? और जिस पल आपको पता चलता है कि हां ये किसी और की कहानी बन सकती है इसका मतलब.. सही है। इसका मतलब आप एक ऐसी विशेष (archetypal) चीज बोल रहे हैं जो आपसे आगे बढ़कर एक बड़ी परिस्थिति के बारे में भी बात कर रही है।

क्या ऐसा होता है कि जिस स्क्रिप्ट या कहानी पर आप जितना वक्त बिताते हैं वो उतनी अच्छी होती जाती है.. या उल्टा? जैसे ‘पीके’ है तो उसमें राजकुमार हीरानी और अभिजात जोशी ने तीन-चार साल बिता दिए और आपने इस पर डेढ़ साल और शायद एक साल पहले किया होगा। या ऐसा भी होता है कि दस दिन या एक-दो सिटिंग में आपने लिख दी हो वो भी आइकॉनिक बन सकती है?
नियम तो कोई नहीं है। मैं सिर्फ इतना बोल सकता हूं कि अच्छी फिल्में एक कहानी के बारे में नहीं होती, कैरेक्टर्स के बारे में होती हैं। मेरे हिसाब से। और कैरेक्टर आता है आपकी लाइफ के निचोड़ से, अनुभव से। जितना ज्यादा आप उसे समय देते हैं वो कैरेक्टर उतना ही ज्यादा आपसे बात करने लग जाता है। और एक्चुअली बहुत सारी लिखाई होती है कैरेक्टर के पास पहुंचने तक.. वही सारा जो एफर्ट होता है, सारा जो डिजाइन होता है वो वही होता है कि कब आप अपने और कैरेक्टर के बीच की दीवार हटा दें और वो आपसे सच्चाई से बात करने लगे। कुछ लोग होते हैं जो दस-दस दिन में भी स्क्रिप्ट लिख लाते जाते हैं और बड़ी अच्छी होती है। लेकिन मेरा विश्लेषण ये है कि ऐसे लोग थोड़े से बिखरे (sporadic) हो जाते हैं। उनकी एक स्क्रिप्ट बहुत अच्छी होती है, फिर एक नहीं, फिर एक बहुत अच्छी होती है। वो थोड़ा सा त्रुटि वाला प्रोसेस (Error sticken process) होता है। कभी कभी हो जाता है कभी नहीं होता है। लेकिन जितना टाइम आप किसी चीज को दें उतना वो आपको वापस देती है, ये तो तय है। अगर आप उतना ही समर्पित हैं अपने प्रोसेस को लेकर.. सिर्फ टाइम के लिए टाइम लगाएंगे तो जाहिर है कुछ नहीं होगा.. अगर आप उतने ही समर्पण के साथ अपनी कहानी और पात्रों के पीछे जा रहे हैं और उनकी पूंछ पकड़कर बोलें कि हां भई बताओ तुम क्या कहना चाहते हो.. तो मुझे लगता है ज्यादा टाइम हमेशा फायदेमंद ही होता है।

‘तितली’ को लेकर एक्टर्स, सिनेमैटोग्राफर, एडिटर और बाकी टीम को आपका ब्रीफ क्या रहा?
हमने सबसे पहले तो सबको वो किताब पढ़ाई। फिर कुछ म्यूजिक था। एक-दो गाने थे जो मैंने सबको सुनाए। जो मूड देते हैं फिल्म का। कि हम ये मूड देना चाहते हैं.. 

गाने मतलब?
मैंने जो म्यूजिक सुना हुआ था लाइफ में जिससे मुझे पता लगा कि हम इस मूड का पीछा कर रहे हैं। वो गाने। और हमारा एक शब्द था - मैं अपनी हर फिल्म में एक शब्द रखता हूं जो कहानी का पूरा निचोड़ होता है। ‘तितली’ में वो शब्द था उत्पीड़न (oppression)। ‘तितली’ हर तरह के ऑप्रेशन के बारे में है। इसके अलावा सबसे बड़ी बात यही थी कि ये फिल्म चक्र (circularity) के बारे में है। इस बारे में है कि कैसे जिस इंसान की पर्सनैलिटी से आप सबसे ज्यादा दूर भागना चाहते हो.. आप जितना दूर उससे भागते हो वो उतना ही आपके अंदर जागना शुरू हो जाता है। आप दूर भाग तो जाते हो लेकिन क्योंकि आप इतना उसके बारे में सोच रहे हो कि उसकी लौ आपके अंदर उतनी ही जलनी शुरू हो जाती है। इस फिल्म का हर पात्र, हर पल, हर कॉस्ट्यूम, हर प्रॉपर्टी, हर बात इसी बारे में है। इसे इसी लेंथ से देखना है। इसके अलावा ये बात की कि तुम्हारी लाइफ में क्या अनुभव थे जो इस चीज से जुड़ते हैं? और जब भी किसी से ये बात करते थे तो कोई न कोई नया अनुभव जुड़ता था। देखिए, फैमिली ऐसी चीज है कि जिससे हर कोई जुड़ा होता है। तो हरेक का अनुभव है और हम मानवों के पैटर्न इतने समान हैं कुल मिलाकर कि हर किसी की फैमिली में कुछ न कुछ झगड़ा या परेशानी होती था। बात करते थे तो वो वहीं से निकल कर आता था। कि हां यार, मैं अपने पिता जैसा नहीं बनना चाहता था लेकिन अब मैं बड़ा हो रहा हूं तो उन्हीं के जैसा बनता जा रहा हूं। कि हां मैं अपनी मां से इतना ज्यादा कुढ़ती थी, पूरी कोशिश करी कि कभी अपनी मां जैसी न बनूं लेकिन अब मुझे लगता है कि यार मैं तो बिलकुल वैसी ही होती जा रही हूं।

आपका बचपन ज्यादा कहां बीता? पंजाब में या दिल्ली में? कैसा था? किस किस्म के बच्चे थे? क्या तब घर में माहौल लिट्रेचर या कहानियों का था?
मेरे लिए तो अपने बारे में कहना थोड़ा मुश्किल ही है कि कैसा था? मेरे माता-पिता से शायद आपको बात करनी चाहिए.. लेकिन घर में माहौल था। मेरे पिता (ललित बहल).. वो भी फिल्म में हैं। इसमें पिता का रोल कर रहे हैं। वो नेशनल स्कूल ऑफ ड्रामा से हैं। उनकी फीचर डेब्यू है ‘तितली’। माहौल शुरू से था। पापा एक्टर हैं, प्रोड्यूसर हैं, डायरेक्टर हैं... उन्होंने दूरदर्शन के लिए काफी काम किया। जब सैटेलाइट चैनल्स नहीं आए थे उससे पहले। शॉर्ट फीचर्स करते थे वो। दिल्ली में काफी जाने-माने हैं अपने वर्क के लिए। मेरी मां एक्टिंग टीचर हैं। वे प्रोफेसर थीं पटियाला के डिपार्टमेंट ऑफ टेलीविजन एंड थियेटर में। खुद लिखती भी हैं। वे दोनों साथ में टीम की तरह ही काम करते थे। मेरी मां लिखा करती थीं जो मेरे पिता डायरेक्ट करते थे या उल्टा होता था मां डायरेक्ट करती थी और पिता लिखते थे। तो आप कह सकते हैं कि वातावरण तो था ही। मैं बच्चा था तो याद है कि मां के साथ जाया करता था ‘द टेन कमांडमेट्स’ (The Ten Commandments, 1956) जैसी फिल्में देखने। ‘बेन हर’ (Ben-Hur, 1959) देखने। दिल्ली में शकुंतलम (सिनेमाघर) था तो वीकेंड पर मुझे याद है हम लोग वहां चले जाया करते थे। कोई न कोई क्लासिक लगी होती थी। मेरी शुरुआती याद भी ‘बेन हर’ की ही है। कि इसमें इतनी बारीकी से ह्यूमन लाइफ को कैप्चर किया गया है। सोचता था कि ये क्या दुनिया है? तो वो सब माहौल था, लिट्रेचर भी था ही, पढ़ने पर एक ज़ोर था। मेरे शुरू के करीब 8-9 साल पटियाला में गुजरे, उसके बाद मैं दिल्ली आ गया। फिर मैं 20-22 की उम्र तक दिल्ली में ही रहा। उसके बाद कैलकटा गया सत्यजीत रे फिल्म एंड टेलीविजन इंस्टिट्यूट। वहां पढ़ा चार साल। और 2007 से मैं बॉम्बे में हूं। कुछ सात-आठ साल हो गए यहां।

लिट्रेचर कैसा था? कॉमिक्स या स्टोरी बुक्स या कुछ और?
मैं सब कुछ पढ़ता था। कॉमिक्स पढ़ता था। उसी से शुरू किया। बॉलीवुड एक गहरा प्रभाव था। फिल्में देखना शुरू किया। 17-18 साल तक मैं सब कुछ देखता था। विश्व साहित्य में भी क्लासिक्स से लेकर नाबोकोव (Vladimir Nabokov 1899-1977) तक जो भी लाइब्रेरी में मिलता था पढ़ लेता था। थोड़ा सा मुझे लगता है स्पलिट पर्सनैलिटी (दोहरा व्यक्तित्व) है, दोस्त भी थे, बाहर भी बहुत रहता था लेकिन कैसे न कैसे अपने आप में भी था और पढ़ने में भी बहुत टाइम निकाल लेता था। पता नहीं मैं दोनों चीजें कैसे करता था। एक्टिव भी था फिजिकली लेकिन साथ ही घर पर बिलकुल अकेला बैठ लगातार दो-तीन दिन तक पढ़ता भी रहता था। ये दोनों ही बातें मुझमें आ गईं कि एक समय में अंतर्मुखी हो जाता हूं और दूसरे ही पल बाहर जाकर लोगों से इंटरैक्ट कर सकता हूं जब भी जरूरत हो।

इतिहास में देखें तो सबसे अमर कहानियां या आर्टवर्क जन्मा है तो भीषण त्रासदी में या अमानवीय घटनाओं से। हिटलर का संदर्भ देखें तो कितने आर्टवर्क और फिल्में रची गईं। वियतनाम युद्ध के बाद हम वॉर पर कितनी कालजयी फिल्में देख पाते हैं। भविष्य में आप और क्रिएटिव रहें, सृजन करते रहें इसके लिए जीवन में कोई कष्ट है जो निश्चित है? जैसे कहते हैं लेखक अगर पीड़ा में नहीं है तो अच्छा नहीं लिख सकता कभी..। आप सोचते हैं कि कष्ट की सप्लाई बंद हो गई तो मिडियोक्रिटी आ जाएगी?
जी बिलकुल सोचा है। आपसे पूरी तरह सहमत हूं। ये तो एक निरंतर चिंता हर आर्टिस्ट की होती ही है। पर मुझे नहीं लगता वो इतना ज्यादा किसी दर्द से जुड़ा होता है। विचार से जुड़ा होता है। ऐसे अगर आप देखें तो ऐसी अतीव-पीड़ा (extra ordinary pain) मेरी लाइफ में कुछ भी नहीं है जो किसी और ने महसूस न की हो। कई लोगों ने मुझसे भी ज्यादा पेन फील किया है लेकिन उन्होंने शायद बाहर आकर इतना अभिव्यक्त नहीं किया होगा जितना मैं करने की कोशिश कर रहा हूं। मुझे लगता है ये पेन से ज्यादा विचार से जुड़ा होता है। और सक्सेस आने से पेन कम भी हो जाए तो मुझे नहीं लगता है उससे फर्क पड़ता है। फर्क इससे पड़ता है कि आपकी सक्सेस आपके पास समय कितना छोड़ती है विचार के लिए। ..और अपने अंदर मंथन के लिए। और फिर भी उतने ही सवाल पूछते रहें आप। उतना वक्त आपके पास बचता है या नहीं बचता? मुझे लगता है फर्क इसी बात का होता है। ऐसे तो बहुत से लोगों ने सफलतापूर्वक मर्डर के बारे में भी लिखा है जिन्होंने खुद कभी मर्डर नहीं किया। ये प्रतिबिंबित करने के बारे में है। कि आप अपने आसपास की चीजों को कितना गहरे में समझ पाते हैं और उसे रिफ्लेक्ट कर पाते हैं। अंदर की पीड़ा की कितनी थाह ले पा रहे हैं। मेरे लिए हर फिल्म ह्यूमनिस्ट होनी जरूरी है। जैसे तितली में भी पांच किरदार हैं और फिल्म का नाम तितली है लेकिन वो सिर्फ तितली के बारे में नहीं लिखी गई है न? पांचों किरदारों के लिए लिखी गई है। पांचों के दर्द हैं, उन सबके लिए लिखी गई है। मेरा काम एक फिल्मकार के तौर पर ये नहीं है कि मैं अपना दर्द बढ़ाए रखूं या अपना दर्द बरकरार रखूं और सिर्फ उसके बारे में बात करूं। मैं वो कहानियां करना चाहूंगा जिनमें हम सबने जो अपने दर्द बनाए हुए हैं उनके बारे में बात की जाए। ये पूरी तरह प्रतिबिंबित करने से जुड़ा होता है। और वो रिफ्लेक्शन टाइम कैसे बचाऊं मैं अपने लिए, आगे जाते हुए, वो मेरी चिंता है। उसकी तरफ मैं ध्यान दे भी रहा हूं।

जीवन का वो पल कब था जब कहा कि सिर्फ फिल्में ही करनी हैं? आप इतना आश्वस्त क्यों थे कि इसी में पूरी जिदंगी बिता पाएंगे?
कठिन सवाल है। कोई एक पल नहीं था। शायद मैं बहुत भाग्यशाली था क्योंकि मैंने कहानियों को बहुत पास से देखा। 4-5 साल का था, जबसे होश संभाला था कहानियां बनते हुए देख रहा था, उनका पावर देख रहा था। मैंने और कुछ इतना करीब से देखा ही नहीं। लेकिन तब भी.. मैंने बड़े होते हुए अपने माता-पिता को इतना स्ट्रगल करते हुए देखा टेलीविजन में.. जितनी वो मेहनत करते थे जितना काम करते थे मेरे हिसाब से उन्हें इसका उतना फल नहीं मिला। इस वजह से काफी टाइम तक मैं ऑलमोस्ट उल्टे मूड में था। सोच चलती रही। फिर काफी समय बाद वर्ल्ड सिनेमा के संपर्क में आया तो लगा कि ये जगह, ये काम है मेरे लिए, कि ऐसी भी फिल्में होती हैं। मैंने कीज़्लोवस्की (Krzysztof Kieśslowski) की ‘ब्लू’ (Blue, 1993) देखी, या कुबरिक (Stanley Kubrick) की ‘शाइनिंग’ (The Shining, 1980) देखी या ‘2001: अ स्पेस ऑडिसी’ (2001: A Space Odyssey, 1968) देखी.. या फिर कुस्तरिका (Emir Kusturica) की ‘अंडरग्राउंड’ (Underground, 1995) देखी। इस एक्सपीरियंस से जब गुजर रहा था तो मैं हिल गया कि ये बहुत ज्यादा इंस्पायरिंग है.. अगर ये काम है तो मुझे एक कोशिश तो करनी है कुछ महत्वपूर्ण करने की। वो मेरे लिए प्रेरक वक्त रहा 21-22 साल की उमर में। तब पहली बार आत्मविश्वास के साथ मैंने बोला कि हां मुझे ये करना है। फिल्में करनी हैं और मुझे इस तरह की फिल्में करनी हैं।

फिल्ममेकिंग जैसी अस्थिर चीज को जो भी छात्र या आकांक्षी लोग अपने लिए चुनें और उसमें सफल न हो पाएं तो क्या करें? ये तो तय है कि हर कोई सफल न होगा। हर कोई ‘तितली’ या ‘मसान’ तो नहीं बना सकता।
मुझे लगता है आपको फिल्मों में नहीं आना चाहिए अगर ये लगता है कि आगे सफल न हुए तो क्या करेंगे। ये थोड़ा सा पागलों वाला काम है। चाहे जितना भी अव्यावहारिक लगे लेकिन कभी ये सोचें ही नहीं कि मेरा बैकअप प्लान क्या होगा। क्योंकि ये पेशा बैकअप प्लान के लिए नहीं बना है। और ये करियर है भी नहीं। मुझे नहीं लगता फिल्मों को आपको करियर की तरह देखना चाहिए। ये जीवन जीने का एक तरीका (way of life) है। आप कुछ कहानियां कहना चाहते हैं। और वो कहानियां आपके अंदर हैं। और आप उन कहानियों से जूझ के और कई बार अपने आप से लड़कर उन्हें बाहर लाते हैं। तो वो भी एक तरह का ध्यान (meditation) है न! एक तरह का .. थोड़ा घिसा-पिटा (corny) लगता है शब्द पर .. पूजा है! उसके बीच में अगर आप अपना ध्यान हटाएंगे ये सोचने में कि स्थिरता, करियर.. तो आपका मेडिटेशन थोड़ा सा खराब होगा। ये जूझने वाला मामला है। हो जाता है। मैं भी वित्तीय तौर पर कोई बहुत स्थिर या सुरक्षित आदमी नहीं हूं। पर इतना विश्वास तो जरूर होता है कि हम अगला दिन देख लेंगे और आगे बढ़ जाएंगे। मुझे लगता है कि अगर आप ‘मसान’ या कुछ खास तरह की फिल्में बनाना चाहते हैं, कहानियां कहना चाहते हैं तो आपका सिर्फ एक ही मकसद हो सकता है वो ये है कि मुझे ये कहानी कहनी है। वो कैसे हो, कब हो और उससे जुड़ी हुई कठिनाइयां जो हैं उनसे जूझा जा सकता है।

आपने सत्यजीत रे फिल्म संस्थान में जाने से पहले कैसा सिनेमा देखा था और बाद में कैसे सिनेमा से वास्ता हुआ? कैसा तर्जुबा था?
वहां जाने से दो साल पहले से मैं समान किस्म का सिनेमा ही देख रहा था। जाने से पहले मैंने कीज़्लोवस्की देखा था। कुस्तरिका देखा था। लेकिन फिल्म स्कूल में जाकर और भी बहुत देखा। समकालीन भी और क्लासिक सिनेमा भी। ऑरसन वेल्स (Orson Welles, 1915-1985) भी देखा, अब्बास कीरोस्तामी (Abbas Kiarostami, 1940 - ) देखा। समकालीन में ज़ाक ऑर्दियाद (Jacques Audiard) देखा, स्टीव मेक्वीन (Steve McQueen) देखा। स्टीव की ‘हंगर’ (Hunger, 2008) देखी, ‘शेम’ (2011) देखी। हर किस्म का सिनेमा देखा। कोरियन सिनेमा में आजकल क्या हो रहा है। पर मुझे लगता है मेरे लिए जो सबसे बड़ा प्रभाव था जो पूरी तरह अप्रत्याशित था वो था डॉक्युमेंट्री। मैंने डॉक्युमेंट्री के बारे में कभी सोचा नहीं था। इत्तेफाकन ये हुआ कि जिन सालों में मैं फिल्म स्कूल में था उन सालों में डॉक्युमेंट्री मूवमेंट कैलकटा में बहुत स्ट्रॉन्ग हो रहा था और वो इंस्टिट्यूट से ही शुरू हो रहा था। उससे मेरा इंटरनेशनल डॉक्युमेंट्रीज़ के प्रति एक्सपोजर बहुत बढ़ा। जिसने मेरी फिल्म को भी काफी प्रभावित किया है। बहुत मैं उसका शुक्रगुजार रहा क्योंकि हमारे यहां डॉक्युमेंट्रीज़ बहुत सीमित और अरुचि वाली हैं लेकिन इंटरनेशनल डॉक्युमेंट्रीज़ देखकर मुझे एक अलग तरह की आजादी उनमें मिली। जिसे कहते हैं न कि कहानी से छुटकारा मिला और कैरेक्टर से प्यार हुआ और मुझे ये समझ में आया कि फिक्शन फिल्मों में भी कैसे वो अप्लाई किया जा सकता है? कैसे वो फ्रीडम दिया जा सकता है जहां कहानी के स्ट्रक्चर से ऊपर उठकर आप खाली एक किरदार के साथ चल सकते हैं।

कुछ ऐसी विस्फोटक डॉक्युमेंट्रीज़ जो बहुत प्रासंगिक हैं?
बहुत सारी हैं। कोसोकोवस्की की बहुत इंट्रेस्टिंग हैं। एक रशियन फिल्ममेकर हैं विक्टर कोसोकोवस्की (Viktor Kossakovsky)। उनकी बहुत सारी फिल्में हैं। वो अपने आप में.. बहुत अलग हैं। हमारे यहां इंडिया में निष्ठा जैन की फिल्में हैं जिनकी हाल ही में ‘गुलाबी गैंग’ आई। इससे पहले उन्होंने बहुत अच्छी फिल्में बनाई हैं। एक बहुत कमाल लिथुएनियन फिल्ममेकर हैं ऑड्रियस स्टोनिस (Audrius Stonys )।

डॉक्युमेंट्रीज़ में षड्यंत्र सुझाने वाली या हिला देने वाली फिल्मों की काफी संख्या है और वे इस कदर होती हैं कि उन्हें मान लिया जाए तो जीना मुश्किल हो जाता है। ‘जाइटगाइस्ट’ (Zeitgeist, 2007-2011) है, ‘फूड इंक’ (Food, Inc. 2008) है, वॉलमार्ट (Wal-Mart: The High Cost of Low Price, 2005) के बारे में है, या जापान में डॉल्फिन किलिंग पर बनी ‘द कोव’ ( The Cove, 2009) जिसे ऑस्कर भी मिला। दुनिया में हो रही ये साजिशें (conspiracy theories) देख हम इतने दुखी हो जाते हैं कि लगता है अब कुछ भी नहीं करना चाहिए मुझे मर जाना चाहिए ये दुनिया इतनी खराब है।
हम सब लोग ही इन सब चीजों से तो जूझते ही हैं। पॉइंट ये है कि हम इन सब विचारों का मूल क्या निकालते हैं, इन्हें मजबूत कैसे करते हैं और मुझे लगता है कि जो भी फिल्ममेकर ऐसी कोई फिल्में बनाता है तो इस उद्देश्य से ही बनाता है कि इसे देखकर कोई दुखी हो जाए या असमंजस में पड़ जाए या निराश हो जाए। बाकी हर इंसान जो भी काम कर रहा है और जो भी क्षेत्र उसने चुना है, उसके इर्द-गिर्द कोई मुद्दा फिल्म ने उठाया है तो उस पर जो एक्शन ले सकता है उसे लेना चाहिए। उधर ही आगे जाया जा सकता है। अन्यथा तो जीवन का कोई मतलब ही नहीं है। मेरा इससे डील करने का तरीका यही है कि किसी ऐसी सूचना से या किसी ऐसे इमोशन से एक्सपोज़ होता हूं जो मुझे बहुत डिस्टर्ब करता है या जिससे मैं बहुत ज्यादा प्रभावित होता हूं .. तो मैं वापस उसकी ओर जाता हूं, विचार मंथन करता हूं और उससे कुछ अच्छी चीज या अपना कुछ आउटपुट लेने की कोशिश करता हूं। मैं जितना योगदान दे सकता हूं उस मुद्दे को उठाने में या सॉल्यूशन की ओर जा सकता हूं उतना योगदान में अपने क्षेत्र में कर रहा हूं। वही एक विचार है जो हर वर्क ऑफ आर्ट करना चाहता है। आदर्श रूप से तो वही सबको करना चाहिए।

नम्रता राव एडिटिंग टेबल पर और सिद्धार्थ दीवान विजुअली कौन सी ऐसी चीजें या विचार लाए जो सिर्फ उन्हीं का योगदान था ‘तितली’ में?
ये इतना करीबी और साथ का काम होता है कि मेरे लिए बोलना मुश्किल है... । सिद्धार्थ की सबसे बड़ी ताकत यही है कि वो कैमरा को छुपा देते हैं। हमने जब सोचा कि हमें इस फिल्म का मिजाज डॉक्युमेंट्री की तरह रखना है। ऐसा देखते हुए आपको लगना ही नहीं चाहिए कि फिक्शन फिल्म देख रहे हो, ऐसा लगे कि एक्सीडेंटली ये लोग रील पर कैप्चर हो गए। कैमरा दिखता नहीं है। ऐसा लगता है कि ये लोगों का जीवन है और पता नहीं हम कैसे इसे देख पा रहे हैं।

 एक हम लोगों का सबसे बड़ा डर इमेज को लेके, फिल्म के विजुअल लुक को लेके ये था कि जब एक खास तबके के लोगों की कहानियां कही जाती हैं तो ये बहुत शोषण भरा (exploitative) हो जाता है कभी कभी। ऐसा लगता है कि फिल्म गंदगी या धूल के बारे में ज्यादा है और लोगों के बारे में कम है जबकि हमारा शुरू से ही ये अटेम्प्ट था कि ये फिल्म इन लोगों के बारे में है और ये लोग इस स्पेस में रहते हैं। तो इस स्पेस को सबसे ज्यादा समग्रता (totality) से कैसे रेप्रेजेंट किया जाए? स्पेस का दुरुपयोग कैसे न किया जाए? मुझे लगता है ये सिद्धार्थ और प्रोडक्शन डिजाइनर पारुल दोनों का योगदान कि इस स्पेस को उसकी गरिमा दी, सही कोनों (areas) की ओर देखा, लोगों की ओर देखा, उनके भावों की ओर देखा, ये देखा कि कैसे उनकी बेचैनी (desperation), कैसे उनके हालात भी आएं लेकिन कैसे वो शोषण भरा (exploitative) न हों? फिल्म का विजुअल टेक्सचर जो कि उभर के आता है उसमें उनका योगदान है। हालांकि हमारी अपनी फिल्म है तो अपनी ही तारीफ लगती है लेकिन मुझे लगता है ये उन सबसे कम फिल्मों में से है जो अपने स्पेस की गरिमा को जिंदा रखती है और इसमें इसे नीचा करके देखने वाली दृष्टि नहीं है जो हमारी सबसे बड़ी चिंता थी।

Shashank, Amit, Lalit Behl, Shivani Raghuvanshi and Ranvir in a scene.

 सिद्धार्थ और पारुल ने फिल्म के जैसे रंग चुने.. हम लोगों को शुरुआती विचार था कि थोड़ा ब्लू (नीले) और यैलो (पीले) में जाएंगे .. फिर जब रेकी पर गए.. असल इलाकों में गए तो हमने देखा कि ज्यादा पिंक (गुलाबी) और ग्रीन (हरा) यूज़ होता है। और क्या होता है कि लोगों के पास कभी-कभी पैसे नहीं होते हैं तो वो एक ही कमरा पेंट करवा लेते हैं। बहुत सारे घर हमने देखे जिसमें मिसमैच कलर थे। एक कलर पिछले पंछे (coat) का रह गया था या नए का रह गया था। और न जाने क्यों चमक (brightness) देने के लिए लोगों का आइडिया पिंक का है... तो पिंक और ग्रीन को यूज करने का विचार था और दूसरा हम उत्पीड़न/दमन (opression) की बात कर रहे थे तो तमाम रेकी के बाद हम तीनों ने सोचा कि पिंक और ग्रीन ज्यादा रियल और अभी के रंग रहेंगे .. ये रंग ही वो लोग हैं.. न कि एक झूठा प्रतिनिधित्व है जो हमेशा ब्लू और यैलो का रहता है कि जो थोड़ा सा वॉर्म कर देता है और फ्रेम को थोड़ा सा उठा देता है। उसके बजाय पिंक और ग्रीन लिए गए, वही थीम हमने रखी। हमारा फिल्म में एक डिवाइड भी ये बना कि घर का स्पेस, कॉलोनी का स्पेस और शहर का स्पेस। .. जब ये (पात्र) बाहर जाते हैं तो मॉल्स और सिटी ज्यादा सिल्वर और ब्लू बन जाते हैं। असल में हमने सिटी को ज्यादा ब्लू और सिल्वर किया, घर को और इनकी गली और इनके स्पेसेज को पिंक और ग्रीन में देखा। तो ऐसे ही एलिमेंट्स और रंगों का इस्तेमाल .. कि इतने मौन (mutedly) ढंग से क्यों हम इनकी कहानी के इमोशन कह रहे हैं। जो इनकी बेचैनी है और जो कहेंगे हालात - बेहतर शब्द की गैर-मौजूदगी में - हैं, सिर्फ रंग से उनका प्रतिनिधित्व कैसे करना है, वो भी आपके सिर में बहुत अवचेतन वाले तरीके (in a subconscious way) से। हमने एक पक्ष लिया कि इस फिल्म में चीजों को हम यूं ही चमका कर या ठूंसकर नहीं दिखा देंगे, ये फिल्म वैसी ही होगी जैसा है। बहुत मौकों पर लगता है कि फिल्में फिल्ममेकर्स को रेप्रेजेंट करती हैं लेकिन एक्चुअली मैं ये मान रहा हूं ... मेरा सबसे फेवरेट फिल्ममेकर है क्यूबरिक (Stanley Kubrick).. क्योंकि कोई क्यूबरिक नहीं है सिर्फ उसकी फिल्में हैं। वो हर एक फिल्म, एक हस्ती है, उसके बीच में क्यूबरिक नहीं आते हैं। वो नहीं बोलते कि मेरी फिल्म है। एक फिल्म जो है वैसे ही प्रस्तुत कर दी जाए, ये भी एक बड़ा टैलेंट है कि हम लोग इसके अंदर न आ जाएं। हम एक-दूसरे की आंखों में झांककर कह सकें कि ये फिल्म इस फिल्म के बारे में ही है और ये जो स्पेस है वो स्पेस रेप्रजेंट होनी चाहिए। तो पारुल और सिद्धार्थ के ये बड़े योगदान थे।

 नम्रता की बात करूं तो लोगों को लेकर उनकी अंतर्दृष्टि और वे कैसे उनकी ओर देखती हैं ये खास है। हम दोनों ने एडिट (editing) पर शुरू से ही तय किया था कि ये फिल्म प्रतिक्रियावादी (reactive) नहीं होगी। ये डायलॉग के बारे में नहीं है। ये इस बारे में है कि जब लोग दूसरे लोगों की ओर देखते हैं, और उन्हें लगता है हम देखे नहीं जा रहे। हम कैसे चोरी छुपे एक-दूसरे को देखते हैं, कैसे एक-दूसरे को ऑब्जर्व करते हैं.. तो एडिट पैटर्न पूरा उस पर निकला। नम्रता की जो बहुत ही महीन समझ है लोगों की, रिश्तों की.. वो इसमें स्थानांतरित हुई कि लोग जब दूसरे लोगों को देखते हैं .. बात करते हुए .. तो वो फिल्म कैसे बदलती है। बहुत सारा एडिट फिल्म के इस नजरिए के साथ है, जो उनके और मेरे दोनों के लिए बहुत रोचक था। क्योंकि उन्होंने भी देखने का एक नया नजरिया विकसित किया।

एक एडिटर फिल्म को कितना तब्दील करता है? आपने अगर स्क्रिप्ट पर डेढ़ साल बिताया है और एक-एक अक्षर बहुत सोच-विचार-शोध के बाद लिखा है कि यहां ये दृश्य ऐसे ही होगा। क्या एडिटर उसे बिलकुल बदल देता है? दृश्यों का क्रम या संरचना बदलता है?
नहीं, ये बहुत बड़ा क्लीशे है। एडिटिंग एक अन्य प्रोसेस है जहां फिल्म दोबारा लिखी जाती है। खासकर तितली जैसी फिल्म जो शूट ही डॉक्युमेंट्री स्टाइल में की गई है और डॉक्युमेंट्री में शुरू से होता है कि फिल्म बना रहे हैं और धीरे-धीरे कैरेक्टर को जान रहे हैं और कैरेक्टर का जैसे-जैसे पता चलता है तो कुछ नई ही फिल्म निकल आती है। हमारे सीमित संसाधनों में ऐसा बहुत हुआ। छोटी सी फिल्म है हमारी, बहुत ज्यादा हम शूट नहीं कर पाए लेकिन उसके बीच में भी बहुत सारी चीजें हमने करी थीं तो नम्रता ने तकरीबन री-कंस्ट्रक्ट ही की फिल्म.. हां ये जरूर था कि नम्रता जब तक आईं तो 8-9 महीने का एडिट हो चुका था। वो फिल्म पर तीसरी एडिटर थीं। मैं इससे पहले दो अन्य एडिटर्स पर काम कर रहा था। चीजें जिस दिशा में जा रही थीं उनसे अंतत: मैं खुश नहीं था। लेकिन जब तक वे आईं बहुत कुछ हो चुका था। लेकिन अगर ओवरऑल प्रोसेस की बात करें तो उस 8-9 महीने के फेज़ में बहुत सी री-राइटिंग हुई थी। हमने बहुत लंबे-लंबे हिस्से शूट किए जो फिल्म में है ही नहीं। ये जानते हुए कि ये फिल्म के लिए जरूरी नहीं हैं। री-राइट और एडिट के प्रोसेस के बाद लगा कि ये जरूरी नहीं हैं। ये इस प्रोसेस का बहुत ऑर्गेनिक हिस्सा है। ये पहले भी हो रहा था और नम्रता के आने के बाद बहुत ज्यादा हुआ। वो आईं तब हमारा 2 घंटे 40 मिनट का कट था, बाद में वो 2 घंटे और 4 मिनट का रह गया। तो ये करीब 30 पर्सेंट कम हो गया था।

दिबाकर के साथ आपने 8 साल बिताए हैं। उन्होंने आपसे कुछ सीखा होगा। आपने उन्हें ऑब्जर्व करते हुए पूरी जिंदगी के लिए क्या सीख ली है?
अनुशासन। ठहराव। दिबाकर के साथ काम करते हुए सबसे बड़ी बात जो मैंने सीखी है वो ये कि सारा काम शांति से हो सकता है और शांति से काम कम से कम दस गुना बेहतर होता है। मैं खुद बहुत गर्म दिमाग था जब मैं फिल्म स्कूल से निकला था। मेरा अनुभव बहुत सीमित था। और मैं वैसे काम करता था जैसा मैंने अपने पेरेंट्स को करते हुए देखा। लेकिन जब मैंने ‘ओए लक्की लक्की ओए’ के वक्त दिबाकर को जॉइन किया और शांत माहौल देखा तो सोचा, यार ये तो बहुत शांति से काम हो रहा है और कई गुना ज्यादा अच्छा काम हो रहा है। बहुत ही गहन स्तर का अनुशासन, कठोर परिश्रम.. वो हर पहलू पर काम करते रहते हैं .. चाहे स्क्रिप्ट हो, एडिट हो, चाहे उनका शूट करने का तरीका हो.. वो अंतिम छोर तक, सिरे तक चीजों को लेकर जाते हैं, जब तक आपको पूरा विश्वास न हो जाए और उससे ऊपर भी 50 परसेंट पक्का करना और उस पक्के पर भी आपको विश्वास न हो जाए कि इससे ज्यादा अब मेरे पास कुछ बचा नहीं है। ज्यादातर फिल्मकार थोड़े आलसी होते हैं और एक बिंदु के बाद उन्हें कुछ अच्छा मिल जाता है तो उसके आगे नहीं जाते लेकिन ये जो दृढ़ता (rigor) है दिबाकर की.. अच्छे से भी आगे जाना और चलते रहना जब तक यकीन न हो जाए कि अब इससे बेटर अगले पांच साल तक मैं कुछ नहीं कर सकता.. वो मुझे लगता है बहुत महत्वपूर्ण पाठ है जो मैंने सीखा है।

आज आपकी सर्वकालिक पसंदीदा फिल्में कौन सी हैं? जिन्हें बार-बार देखते हैं।
बहुत सारी हैं। कुस्तरिका की ‘अंडरग्राउंड’। कुबरिक की - वैसे तो आप उनकी कोई भी फिल्म उठा लें - ‘2001: अ स्पेस ऑडिसी’। कीरोस्तामी की ‘विंड विल कैरी अस’ (The Wind Will Carry Us, 1999)। ज़ाक ऑर्दियाद की ‘अ प्रोफेट’ (2009)। स्टीव मैक्वीन की ‘हंगर’। डारर्डीन ब्रदर्स (Jean-Pierre & Luc Dardenne) की ‘रॉजे़टा’ (Rosetta 1999)। सब अलग-अलग फिल्में हैं और वर्ल्ड सिनेमा का इतना विस्तृत नजरिया देती हैं कि आप ...। बहुत फिल्में हैं पर मेरे जेहन में एकाएक ये ही आ रही हैं।

टैरेंस मलिक (Terrence Malick) की?
मुझे उनका काम पसंद है पर उनका मैथड.. अपनी फिल्मों को बनाने में वे खुद को जिस प्रोसेस में झोंकते हैं वो बहुत-बहुत मुश्किल होता है। हाल के दिनों में वो कुछ निराशाजनक रहे हैं मेरे लिए लेकिन उनका हर प्रोजेक्ट सांसें थाम देने वाला रहा है। उनके प्रयास का जो दायरा होता है वो एक्सीलेंट है। ‘द ट्री ऑफ लाइफ’ (The Tree of Life, 2011) मुझे काफी अच्छी लगी थी। लेकिन क्रिश्चन बेल वाली उनकी पिछली फिल्म (Knight of Cups, 2015) के साथ ऐसा नहीं था। लेकिन निश्चित तौर पर सिनेमा के मास्टर्स में से एक हैं।

और वर्नर हरजॉग (Werner Herzog)?
वे तो दादाजी हैं। फिल्मों के ग्रांडफादर हैं। मुझे नहीं लगता कि मुझे उनके बारे में बोलना भी चाहिए। वे अमेजिंग हैं। उनकी सारी डॉक्युमेंट्रीज़, उनका सारा फिक्शन वर्क इस दुनिया से परे है।

बीते एक-दो साल में अच्छी लगी भारतीय या विदेशी फिल्म?
मुझे अविनाश अरुण की ‘किल्ला’ बहुत अच्छी लगी।

चारों ओर विलाप की स्थिति है, क्या चीज है जो आपको उम्मीद देती है? क्रिएटिव लोगों के पास उम्मीद कहां से आती है जब नेगेटिव चीजों से घिरे हैं?
बहुत इंट्रेस्टिंग सवाल है। इससे हम सभी जूझ रहे हैं। मुझे लगता है हर क्रिएटिव आदमी, कहीं से भी आ रहा हो वो अपने सबसे निचले धरातल पर मानवतावादी (humanist) होता है। उसके अंदर मंथन चलता है, एक गुस्सा होता है, इस गुस्से के कई नाम हो सकते हैं। उसके अंदर एक चाह रहती है कि चीजें जैसी हैं उससे बेहतर क्यों नहीं हो सकतीं? कोई भी क्रिएटिव आदमी, आर्टिस्ट कहीं भी काम कर रहा हो वो इसी जरूरत से संचालित होता है कि वो इस बारे में बोलना चाहता है कि ये चीज ऐसी क्यों है और इससे बेहतर होनी चाहिए। वो होप यहीं से आती है कि शायद जिस भी बारे में वो सोच रहा है, जो भी उसे विचलित कर रहा है उसके बारे में बात करने के बाद वो चीज बेहतर हो सकती है। मुझे लगता है इसीलिए कहा जाता है कि क्रिएटिव लोग सबसे विचलित करने वाले टाइम में रहते हैं क्योंकि ये उन्हें ज्यादा ईंधन देता है, ज्यादातर फूड फॉर थॉट देता है ताकि निराशा (hopelessness) के बारे में बात कर सकें। ये आर्टिस्टों के लिए अच्छा है, जितना ज्यादा निराशा होगी उतना ज्यादा उनके काम की क्वालिटी प्रतिबिंबित होगी।

रचनात्मक गतिरोध की अवस्था में उम्मीद कहां से लेंगे? आगे जब आइडियाज़ नहीं सोच पाएंगे या फिल्में कई स्तरों पर फंसने लगेंगी या वित्तीय दुश्वारियां होंगी।
मैं सिंपल सा आदमी हूं। सबकी तरह कनफ्यूज हूं। सबकी तरह परेशान हूं। लेकिन हिम्मत है.. जज्बा है। कोशिश है कि झूठ न बोला जाए। जो कहानी है, जिस पर काम कर रहे हैं, उसे जितनी सच्चाई से बोला जा सके वो बोला जाए.. और उसमें वक्त लगता है। बात ये नहीं है कि फिल्म बन नहीं रही है.. मैं बस अपना समय ले रहा हूं जो भी मैं कर रहा हूं। जो अगली भी फिल्म है। क्योंकि मुझे पता है ये एक बहुत जटिल कहानी है। एक फिल्मकार के तौर पर एक कदम आगे ले जाएगी। प्रोसेस जारी है। मैं अपनी अगली फिल्म लिख रहा हूं। लड़खड़ाहट तो चलती रहती है और उसे तो मान लेना चाहिए हर फिल्मकार को। उसे तो हिस्सा बना लेना चाहिए अपनी जिंदगी का। कनफ्यूजन को, ठोकरों (stumbling) को। सुबह उठकर बोलना चाहिए कि अरे आज मैं कनफ्यूज्ड हूं, आओ आओ.. और आप उस कनफ्यूज़न को गले लगा लें। उसकी ओर मुस्कराएं और कहें, हम फिर से दोस्त हैं इस पूरे दिन के लिए। क्योंकि वहीं से ऊर्जा (kick) आती है। अगर वो नहीं होगा और सुबह उठकर आपको पता होगा कि आप हूबहू क्या लिखने वाले हैं, कौन सी फिल्म बनने वाली है तो उसका मतलब है कि कुछ गलत है। या कुछ गलत जाने लगा है।

फलसफा..?
मेरा मोटो नहीं है पर ये कुछ ऐसा है जो मैं हाल ही में ढूंढ़ रहा हूं और मेरी लाइन होगी कि ‘बस एक और दिन’ (just another day)। हम हर दिन को बहुत ज्यादा महत्व देने की कोशिश करते हैं अपनी लाइफ में। लेकिन अगर वो प्रेशर हम अपने ऊपर से निकाल दें और हर दिन को उस दिन के लिए जिएं, तो हमें अपने आप को और जीवन को जानने में थोड़ी आसानी हो जाती है। मैं अकसर जागता हूं तो खुद से कहता हैं .. बस एक और दिन।

‘तितली’ या ऐसी अन्य जागरूक फिल्में हैं, ये सिर्फ उन्हीं के समझ में आती हैं जो पहले से जागरूक हैं। जैसे ये केन फिल्म फेस्ट में गई तो फ्रेंच समाज इतना विकसित है कि वो बहुत तारीफ करेगा जब भी ऐसे प्रयास देखेगा। लेकिन जो लोग खुद आक्रांता हैं या अत्याचार करते हैं, लोगों का दमन करते हैं वो कभी न ये फिल्म समझने वाले हैं, न मानने वाले हैं?
ऐसा बिलकुल नहीं है। देखिए, ‘तितली’ फेस्टिवल के लिए बिलकुल नहीं बनी थी। मैंने कभी ये सोच के नहीं बनाई थी कि मेरे को ये फिल्म केन लेकर जानी है, ये जो भी हुआ है वो फिल्म जैसी बनी है उसकी वजह से हुआ है।

..मान लें कि मैं संदर्भ के साथ ये समझ चुका हैं कि एक औरत और एक आदमी में समानता होनी चाहिए। और मेरे कुछ दोस्त हैं जो बिलकुल विपरीत हैं, वो ये सब करते हैं घर में और कभी पश्चाताप नहीं करते। तो उस आदमी को तो ‘तितली’ पहले समझ में आनी चाहिए तभी समाज बेहतर होगा लेकिन वो कभी समझेगा ही नहीं और स्वीकार नहीं करेगा।
आपको क्या लगता है क्यों नहीं समझते हैं? आप बोल रहे हैं कि फिल्म कमसमझ आने वाली (obtuse) होती है। बाकी सब की बात तो नहीं कर सकता लेकिन मुझे लगता है कि ‘तितली’ ऐसी (obtuse) नहीं है। वो हाड़ मांस के लोगों के बारे में है। ऐसे लोगों के बारे में है जिनको आप जानते हैं। जिनसे आप रिलेट कर सकते हैं। वो सारे कैरेक्टर भी इसलिए पास हैं आपके जीवन के.. आप ये नहीं बोल पाएंगे ‘तितली’ देख के कि यार समझ में नहीं आ रही। आप ये शायद कह सकते हैं कि यार ये लोग बहुत देखे हुए हैं और मैं अब नहीं देखना चाहता। ये इतने करीब हैं मेरे कि मैं देख कर असहज हो रहा हूं कि मैं नहीं देख पाऊंगा ये फिल्म। ये जरूर बोल सकते हैं आप। लेकिन समझने में कठिन है ये कोई नहीं बोलेगा। मेरा अपना स्टैंड ये है एक फिल्मकार के तौर पर कि मैं फेस्टिवल्स के लिए फिल्म नहीं बना रहा, मैं एक फिल्म बना रहा हूं जो लोगों तक जुड़नी चाहिए। जो मेरे से जुड़ी हुई है कहानी और हाड़-मांस के लोगों के बारे में है, ये शायद मेरी सारी फिल्मों के बारे में सच रहेगा। मैं आपको ये कहना चाहता हूं कि ये केन जाना और बुद्धिजीवी और ये.. 

..नहीं, ये केंद्र नहीं है। मसलन, मेरी बड़ी बहन जो मुश्किल से पूरे जीवन में तीन-चार बार थियेटर भेजी गई हैं, उन्हें मैंने कहा कि ‘पीकू’ देख सकती हैं, अच्छी फिल्म है। बहन गृहिणी हैं। कॉलेज की पढ़ाई भी घर रहकर की। पितृसत्ता वाला समाज रहा। उन्होंने कहा कि इसमें (टॉयलेट कॉमेडी, घर की बातें) जो है वो हम रोज देखते हैं, कुछ मूड फ्रेश करने या खुश करने वाली फिल्म होती तो ठीक रहता। तो सवाल का केंद्र ये है कि उन्हें ही सशक्त करने वाली चीज है जो उन्हें ही नहीं सुहाती। ये चिंता नहीं? आपने अपना प्रयास दिया तितली’ बनाकर, पर जिन्हें समझना चाहिए वो न समझें तो?
मेरा ये सोचना है कि मैं अकेला ये बीड़ा नहीं उठा सकता कि मुझे समाज बदलना है या बड़ा बदलाव लाऊं। मैं एक इंसान हूं एक बहुत बड़े ढांचे में। जो मुझे अपनी सच्चाई से करना है वो मैं कर रहा हूं। इसके बाद मुझे लगता है बीड़ा दर्शकों के हाथ में खुद है, वो उन्हें खुद ही उठाना पड़ेगा। वो कोई चम्मच से उनके मुंह में डालकर बदल भी नहीं सकता। चीजें नहीं बदल सकती जब तक वे खुद पैरों पर खड़े होकर बोलें कि हां हमें कुछ आगे का (evolved) देखना है। जीवन की कुछ विकसित समझ लेनी है। और ईमानदारी से कहूं तो मैं इस चीज से खुद को परेशान भी नहीं करता। मेरा काम है, जो मैं कर रहा हूं वो करना पूरी सच्चाई से। इसके बाद मैं इस विश्वास के साथ फिल्में बनाता हूं कि अगर मैं ये कहानी सिंपल तरीके से कह रहा हूं, सिंपल डायलॉग के साथ, सिंपल किरदार हैं, तो लोग उसे देखेंगे और कंज्यूम करेंगे। और घर जाकर साथ वाले को बोलेंगे यार प्लीज ये देखकर आओ, ये समझ में आ रही है। ऑडियंस का बीड़ा भी उतना ही है जो उन्हें कभी न कभी तो उठाना ही होगा। ये सारी चीजें बहुत बड़े मुद्दों से जुड़ी नहीं हैं, ये सारी चीजें एजुकेशन से जुड़ी हैं, सिस्टम से जुड़ी हैं। ये सब बदलने के लिए एक बड़े स्तर पर बहुत बड़े बदलाव की जरूरत है। सब मिलकर छोटा-छोटा अपना किरदार निभाकर पूरा कर सकते हैं। वो हम सबको साथ में ही करना है।

जब आप 3 साल की सीरियाई बच्चे ऐलान कुर्दी का समंदर किनारे पड़ा शव या ऐसी कोई भी मानवीय कहानी/छवि देखते हैं तो आपके भीतर क्या प्रक्रिया घटनी शुरू होती है?
मैं भी सबसे पहले एक इंसान के तौर पर ही प्रतिक्रिया देता हूं। क्योंकि मैं फिल्ममेकर बाद में हूं। और मेरे लिए वो कनेक्शन बनाए रखना जरूरी है। कुछ अलग नहीं चलता है। मुझे लगता है ये लंबा प्रोसेस होता है, आप रोज का अपना ह्यूमन एक्सपीरियंस निचोड़ते जाते हैं और उसे एक ह्यूमन की तरह ही कंज्यूम करते हैं। जब भी आप किसी कहानी को लिखना शुरू करते हैं तो उसमें इस निचोड़ के कुछ-कुछ कुछ-कुछ हिस्से बाहर आ जाते हैं। तो मेरे लिए वो इतना कॉन्शियस प्रोसेस नहीं है। और मैं उसे कॉन्शियस रखता भी नहीं हूं। क्योंकि मैं अपने अवचेतन (sub-conscious) को प्रोसेस करने देता हूं जो भी होता है। अगले डेढ़-दो साल तक उसके संदर्भ में जो मेरे अनुुभव बाहर आते हैं पहले ही प्रोसेस किए हुए वो कहानी में जुड़ते जाते हैं। क्योंकि प्रयास यही रहता है कि कहानी को जितना आज की दुनिया से जुड़ा बना सकते हैं उतना बनाएं। कॉन्शियसली अगर आप हर चीज को उस तरह से देखने लग जाएं तो बहुत ही उपभोक्तावादी रवैया (consumerist attitude) बन जाता है। फिर तो आप हर चीज को निचोड़कर स्टोरी बनाना चाह रहे हो। जो कि जीवन का उद्देश्य नहीं है। जीवन का उद्देश्य है कि जीवन जिओ और अनुभव करो जो भी अनुभव कर सकते हो। फिर अपनी कहानी आने दो।

भारतीय फिल्म एवं टेलीविजन संस्थान, पुणे (FTII) के अध्यक्ष के तौर पर गजेंद्र चौहान (टीवी-सीरीज ‘महाभारत’ के युधिष्ठिर बने थे) की नियुक्ति गलत हैं, इसका छात्र विरोध कर रहे हैं। एक छात्रा-छात्र में एक्टिविस्ट को कहां तक चलकर रुक जाना चाहिए और एक फिल्मकार को सक्रिय हो जाना चाहिए?
देखिए एक्टिविज़्म की तो बात ही नहीं है। सबसे पहले इस पर एक्टिविज़्म का लेबल लगाना बहुत ही ज्यादा गलत है। मुझे लगता है ये एक बहुत ही ज्यादा बेवकूफाना हरकत है जिसने भी गजेंद्र चौहान को नियुक्त किया है। वो बिलकुल भी योग्य नहीं हैं। मैं खुद फिल्म स्कूल से हूं और बिल्कुल समझता हूं जो ये स्टूडेंट मुद्दा उठा रहे हैं। सबसे पहले तो हमें ये समझना चाहिए कि ये स्कूली बच्चे नहीं हैं। 15-16 साल के नहीं हैं। ये सब एडल्ट हैं। 25-26 साल के लोग हैं। जो अपनी शिक्षा खत्म करके एक ऐसी जगह आए हैं जहां उन्हें आजादी से मन की विधा पढ़नी है। ऐसा नहीं है कि स्टूडेंट्स प्रिंसिपल बदलने को बोल रहे हैं। वे ऐसा व्यक्ति चाहते हैं जो उनको आगे लेकर जा सके। ये उनका अधिकार है। ये सब बहुत ही वयस्क नजरिए से आपसे बात कर रहे हैं कि आप किस तरह के फिगरहैड को नियुक्त कर रहे हैं। एशिया का प्रीमियर फिल्म स्कूल है वो, एशिया का सबसे लोकप्रिय फिल्म स्कूल है जिसे देश-विदेश के संस्थानों के समर्थन वाले ख़त आ रहे हैं कि आप ये क्या कर रहे हैं? ये दुखदायी स्थिति है कि 100 दिन से वो लोग लगे हुए हैं और उनकी बात नहीं सुनी जा रही है। अगर आप जागरूक लोगों को बोलेंगे कि वो एक्टिविस्ट हैं तो फिर दुनिया का क्या होगा? वो स्टूडेंट तो बस अपने आप-पास होने वाली परिस्थिति से वाकिफ हैं। और पर्याप्त रूप से रूचि रखते हैं दुनिया से संबंध विकसित करने की। जो उन्हें वहां पर सिखाया जाता है। वही तो उस मंदिर की सबसे बड़ी सीख है। वहां सबसे पहले यही सिखाया जाता है कि आपको अपने आंखों-कानों के दरवाजे बंद नहीं करने हैं, उनको खुला रखना है और जो अपने आप-पास का जीवन है उसे निचोड़कर अपने दिल में लेकर आना है। जो उनके मंदिर में हो रहा है उसके बारे में ही बात नहीं करेंगे और इस बात करने को आप एक्टिविज़्म बोलने लग जाएंगे तो ये कितना न्यायपूर्ण है!

ये तर्क दिया गया है गजेंद्र जी के खिलाफ कि उन्होंने ‘खुली खिड़की’ और अन्य सी-ग्रेड फिल्में की हैं। क्या ये स्टूडेंट्स का एलिटिस्ट होना नहीं हो गया? क्या संदर्भ गलत लिया गया है कि सिर्फ वे ही ज्ञानवान हैं?
मैं बिलकुल सहमत नहीं हूं। अगर आपने देखा हो तो और भी लोग जिनकी बात हो रही है उस ओहदे के लिए.. जैसे मान लीजिए अनुपम खेर हैं, उन्होंने भी हर तरह का काम किया है। उन्होंने बहुत सारी अच्छी फिल्में की हैं लेकिन वो खुद सबसे पहले मानेंगे कि उन्होंने खराब फिल्में भी की हैं। ये आपकी खराब फिल्मों के बारे में नहीं हैं, ये आपकी योग्यता के बारे में हैं। जिस इंसान से टेलीविजन इंटरव्यू पर पूछा जाता है कि आपकी फेवरेट इंटरनेशनल फिल्म क्या है? और वो खुलेआम कहता है कि ‘मैं जवाब देने से मना करता हूं’ (I refuse to comment), तो वो खुद ही बोल रहा है कि मैं इस पद को योग्य नहीं हूं। एफटीआईआई के चेयरमैन से आप क्या उम्मीद करते हैं? - कल को अगर वो बात कर रहे हैं किसी एक्सचेंज प्रोग्राम में या कहीं जाकर हमारे स्टूडेंट्स के बारे में बोल कर रहे हैं तो वो वार्ता, सुनने लायक, जागरूक और तथ्यपरक तो होनी चाहिए न? उनका तो अनुभव और शब्दावली ही बॉलीवुड तक सीमित है, बात ये हो रही है। ये फिल्में (सी-ग्रेड) करने के बावजूद अगर उनका ज्ञान होता, अनुभव विस्तृत होता तो मुझे नहीं लगता किसी को भी समस्या होती क्योंकि वो उनकी बातों और व्यक्तित्व में साफ झलकता। और सिर्फ गजेंद्र चौहान की भी बात नहीं है। उनकी नियुक्ति के अलावा जो समिति भी गठित हुई है, उसमें आठ में से चार लोग भी पर्याप्त योग्यता नहीं रखते.. कि वो संस्थान में शैक्षणिक फैसले ले सकें स्टूडेंट्स के प्रतिनिधि के तौर पर जिससे क्रिएटिव माहौल बन सके संस्थान में। ये राजनीतिक होना, एलिटिस्ट होना या एक्टिविस्ट होना नहीं है। ये सिर्फ करिकुलर के उच्च शैक्षणिक पैमानों के बारे में है और रचनात्मकता के बारे में है जो हमारी फिल्म स्कूल में है। सिर्फ वही मसला है।

नई सरकार आने के बाद सेंसर बोर्ड की नीतियां भी बदल गई हैं। मानें कि अगर दो कार्यकाल तक ये सरकार रहती है तो आप कैसे सामना करेंगे? कुछ महीने पहले दिल्ली में फिल्मकारों के एक समूह ने सूचना एवं प्रसारण राज्यमंत्री राज्यवर्धन राठौड़ से मुलाकात की थी। उस दौरान उन्हें मुंबई आने और इंडस्ट्री से मेल-जोल बढ़ाने का निमंत्रण दिया तो वे कथित तौर पर बोले, ‘तो आप चाहते हैं मैं आऊं और तुम सबके लिए आइटम नंबर करूं।’ आप इसे कैसे देखते हैं? ये क्या सोच है? फिल्मों की आर्ट फॉर्म का सम्मान न देना।
ये कोई नई समस्या नहीं है। पहले भी थी, आज भी है। 70 के दशक में जब श्याम बेनेगल, गोविंद निहलानी, मणि कौल और बहुत सारे अन्य फिल्मकार काम कर रहे थे तब भी ये ही मुद्दे थे, तब भी सरकारें यही करती थीं, ये कोई नई बात नहीं है। ये हमेशा से होता आया है। मैं अपने काम पर ध्यान केंद्रित कर सकता हूं। मुझे जो कहना है मैं वो कह सकता हू्ं। उसके बाद जो भी हालात हैं वो बदलते रहते हैं। अभी कुछ हैं कल को कुछ और भी हो सकते हैं। अंतत: बात तो यही है कि हम लोकतंत्र में रहते हैं, अभी जो सरकार है वो भी लोकतांत्रिक तौर पर चुनी हुई है और मान लीजिए ये लोगों के पैमाने पर खरी नहीं उतरती तो कल को एक और सरकार आ जाएगी। हमें कहीं न कहीं लोकतंत्र में विश्वास तो रखना ही पड़ेगा। और अपने आप में फेथ रखना पड़ेगा। उसके साथ हम अपने मुद्दे उठाकर आगे चलते रहेंगे। ये चीजें एक्चुअली एड करती हैं, ये हमें निराश नहीं करें। बोलें तो अच्छी हैं।

जीवन में कैसे विषय आकर्षित करते हैं जिन पर आगे फिल्में बनाना चाहेंगे?
हर तरह की चीज फेसिनेट करती है। मेरी आजमाइश ये है कि मैं हर तरह की बातों पर बात कर पाऊं। मुझे साइंस-फिक्शन भी उतनी ही रोचक लगती है जितना एक ड्रामा लगता है। जितना थ्रिलर इंट्रेस्ट करता है, जितना एक पोलिटिकल फिल्म इंट्रेस्ट करेगी। मैं हर तरह की कहानियां कहना चाहूंगा। निर्भर करेगा कि मेरी खुद की समझ कितनी है कहानी के बारे में जिंदगी के तब के बिंदु पर। बहुत ही ज्यादा एक गतिशील (dynamic) और बदलने वाली (malleable) सी चीज है। पर मेरी रूचि काफी व्यापक है। मौजूदा समय में मुझे फैमिली स्ट्रक्चर में बहुत रुचि है। न सिर्फ वो एक महीन लेवल पर ह्यूमन अंडरस्टैंडिंग देता है बल्कि व्यापक दुनिया के लिहाज से एक समझ दे जाता है। तो अभी मैं उसमें काम कर रहा हूं क्योंकि उसमें सूक्ष्म और स्थूल (micro & macro) का बहुत अच्छा जुड़ाव नजर आता है। लेकिन अंतत: मैं हर तरह की कहानियां कहना चाहूंगा और सब में गोता लगाना चाहूंगा। इसीलिए मुझे क्यूबरिक जैसा फिल्मकार बहुत ही पसंद है क्योंकि उनकी फिल्में एक-दूसरी से बिलकुल अलग थीं। उनसे भौचक्का हूं।

 
Kanu Behl

Kanu Behl is a young and talented film writer and director based in Mumbai. His directorial debut TITLI is slated to release on October 30 this year. It has gone to several prestigious international film festivals in last one year or so. Most prominently, it was selected in the Un Certain Regard section of the Cannes Film Festival (France) in 2014. It is produced by Dibakar Banerjee and Yashraj Films. Kanu is from Delhi. In 2003, he joined the Satyajit Ray Film and Television Institute and did his PG diploma in cinema. Later he assisted director Dibakar Banerjee on Oye Lucky! Lucky Oye! in 2007-2008 and co-worte Dibakar's next Love Sex aur Dhokha. Kanu as also writing his next titled Agara.

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Wednesday, July 3, 2013

बहुत विरोध हुआ घर पर, मैं आज्ञाकारी बेटी थी, पता नहीं कहां से मुझमें हिम्मत आई, मैंने कहा कि मैं तो जा रही हूं, मैंने पहली बार बग़ावत कीः नम्रता राव

 Q & A. . Namrata Rao, film editor .

Poster of 'Shuddh Desi Romance', a soon to be released Yash Raj film, edited by Namrata Rao.

मनीष शर्मा की फ़िल्म ‘शुद्ध देसी रोमैंस’ की एडिटिंग में व्यस्त नम्रता राव इससे पहले उनके साथ ‘बैंड बाजा बारात’ और ‘लेडीज वर्सेज रिकी बहल’ कर चुकी हैं। दिल्ली की नम्रता ने आई.टी. की पढ़ाई और एन.डी.टी.वी. में नौकरी के बाद कोलकाता के सत्यजीत रे फ़िल्म एवं टेलीविज़न संस्थान का रुख़ किया। वहां से फ़िल्म संपादन सीखा। 2008 में दिबाकर बैनर्जी की फ़िल्म ‘ओए लक्की! लक्की ओए!’ से उन्होंने एडिटिंग की शुरुआत की। बाद में ‘इश्किया’, ‘लव से-क्-स और धोखा’, ‘शंघाई’ और ‘जब तक है जान’ एडिट कीं। ‘कहानी’ में सर्वश्रेष्ठ फिल्म संपादन के लिए उन्हें इस साल 60वां राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार दिया गया। फ़िल्म संपादन में रुचि रखने वाले युवाओं के लिए यह साक्षात्कार उपयोगी हो सकता है। जिन्हें रुचि नहीं भी है और फ़िल्म बनाने की कला को चाव से देखते हैं वे भी पढ़ते हुए नया परिपेक्ष्य पाएंगे। प्रस्तुत है नम्रता राव से विस्तृत बातचीतः

कहां जन्म हुआ? बचपन कैसा था? घर व आसपास का माहौल कैसा था?
त्रिवेंद्रम, कोचीन में हुआ जन्म। मैं कोंकणी हूं। केरल में ही हमारा घर है। मेरे पिता बी.एच.ई.एल. (Bharat Heavy Electricals Limited) में काम करते थे और दिल्ली में पोस्टेड थे, तो मैं दिल्ली में पली-बढ़ी। स्कूलिंग और ग्रेजुएशन वहीं से की। आई.टी. में मैंने ग्रेजुएशन किया था। उसके बाद मुझे उसमें उतना रस नहीं आ रहा था तो सोचने लगी कि आगे क्या करना है। इस तरह मैं इस माध्यम की ओर आई। मैं सत्यजीत रे फ़िल्म एंड टेलीविज़न इंस्टिट्यूट, कोलकाता गई और वहां से पोस्ट-ग्रेजुएशन इन सिनेमा किया। एडिटिंग में स्पेशलाइजेशन किया।

कैसी बच्ची थीं आप? कैसा व्यवहार था?
शांत, गुमसुम, सामान्य। मैं एक नॉर्मल और स्पोर्टी चाइल्ड थी। बहुत किताबें पढ़ती थी। बहुत खेलती थी। पूर्वी दिल्ली में पली-बढ़ी।

सबसे शुरुआती फ़िल्में कौन सी देखी थीं जो आपको सम्मोहित छोड़ गईं?
दरअसल, हम लोग बहुत ही कम फ़िल्में देखते थे। मेरी सबसे पुरानी याद्दाश्त है ‘राम तेरी गंगा मैली’ जो मैंने तब देखी जब बहुत छोटी थी। मेरे पेरेंट्स लेकर गए थे रात के शो में, कि “ये सो जाएगी, हम फ़िल्म देखेंगे”। सिनेमा का सबसे पहला आमना-सामना यही था। फिर ‘मिस्टर इंडिया’ देखने गए। वैसे बहुत ही कम फ़िल्में देखते थे। ज्यादातर तो दूरदर्शन पर ही देखी हैं जितनी भी मैंने देखी हैं। मतलब ये सिनेमा में और थियेटर में जाने का ज्यादा कुछ नहीं था। किताबें पढ़ने का था, इसे प्रोत्साहित किया जाता था। मैं बहुत पढ़ती थी, नॉवेल और कॉमिक्स। कहानियों का शौक मुझमें वहीं से आया। फ़िल्मों से कम, किताबों से ज्यादा आया। मतलब, फ़िल्मों तक पहुंचना मेरे लिए इतना आसान नहीं था। हमारे घर में वी.सी.आर. नहीं था। तब टेलीविज़न और इंटरनेट तो होते नहीं थे। थियेटर बहुत मिन्नत करने के बाद घरवाले कभी लेकर जाते थे।

ये एडिटिंग का कहीं उन कॉमिक्स से तो नहीं आया जो आप पढ़तीं थीं? जैसे, उनमें अलग-अलग हिस्से बने होते हैं हर पन्ने पर। सिलसिलेवार डिब्बे कहानी कहते जाते हैं एक-दूसरे में जुड़े हुए। सीन और कहानी की समझ कि कैसे सेट करना है, अनजाने में कहीं वहीं से तो नहीं आया?
बिल्कुल हो सकता है, बिल्कुल हो सकता है। क्योंकि कॉमिक्स भी बहुत एडिटेड होते हैं और बहुत लीनियर नहीं होते हैं, सुपर लीनियर और आपको पता चला है.. । मतलब वो इतना पर्याप्त होते हैं कि आप कहानी समझ सकें, कहानी का असर समझ सकें और इमोशनल इम्पैक्ट जो है वो करेक्ट रहे। फ़िल्मों में भी वही है, कि ये जरूरी नहीं आप हर चीज बोलें, हर चीज लीनियरली कही जाए लेकिन इमोशनल इम्पैक्ट होना जरूरी है और वो शायद बिल्कुल उसी तरह से आता है।

बढ़ने के दिनों में कौन से नॉवेल आपने पढ़े जिनका असर रहा, जो बेहद पसंद रहे?
सारे क्लासिक्स पढ़े मैंने। मतलब, एमिली ब्रॉन्ट (Emily Brontë) और जेन ऑस्टन (Jane Austen) से लेकर चार्ल्स डिकन्स (Charles Dickens) के और बाकी क्लासिक्स ‘द काउंट ऑफ मोंटे क्रिस्टो’ (The Count of Monte Cristo)... मतलब सारे इंग्लिश क्लासिक्स पढ़े। घर में कोंकणी ही ज्यादा चलती थी। हिंदी पढ़ने की ऐसी प्रथा नहीं थी, हां हम बोलते हिंदी थे। ऐसे में इंग्लिश में ही पढ़ते थे। फिर हमारे पड़ोस में किराए की कॉमिक्स मिलती थी। राज कॉमिक्स... 50 पैसे में... सर्कुलेशन में जो चलता है न...।

फेवरेट कौन सी थी इनमें से?
आई थिंक, मुझे फैंटम बहुत पसंद थी। फैंटम (Phantom), मैंड्रेक (Mandrake) मेरे फेवरेट थे। कैरेक्टर्स के हिसाब से बताऊं तो फैंटम मेरा पसंदीदा था। मतलब उसका बहरूपिया होना, एक तरफ वह सामान्य जीवन जीता है और दूसरी तरफ उसके एकदम उलट।

Namrata with Filmfare Trophy.
हाई-स्कूल और कॉलेज कहां से किया? उस दौरान फ़िल्में कितना देखना शुरू किया और तब चाव कितना बढ़ा?

दरअसल हाई स्कूल तो सेम ही स्कूल में था, कुछ बदलाव नहीं आया। दिल्ली में ही था। लेकिन कॉलेज में आकर दुनिया थोड़ी खुल गई। पहली बार मेरा सामना थियेटर से हुआ। मैंने ख़ुद थियेटर करना शुरू किया। ऐसे लोगों से मिली जो काफी फ़िल्में देखते थे तो उनके साथ मैंने भी फ़िल्में देखनी शुरू कीं। एक शंकुतला थियेटर है दिल्ली में। होता था, अब तो शायद बंद हो गया। वहां पर बहुत ही सस्ते में बहुत सारी फ़िल्में हमने देखी। हर फ्राइडे वहां जाते थे क्योंकि शनिवार-रविवार तो छुट्टी होती थी कॉलेज की, तो शुक्रवार को जरूर जाकर देखते थे। तब शायद मैंने इतनी फ़िल्में देखना शुरू किया। तब तक कंप्यूटर भी आ गए थे तो सीडीज भी मिलने लगी थीं। वह भी एक विकल्प हो गया था। मतलब फिर इतना कठिन नहीं था जितना बचपन में होता था। बचपन में तो आप निर्भर होते हैं अपने अभिभावकों पर। उन्होंने मना कर दिया तो फिर तब ऐसा तरीका नहीं है कि जाकर देख सकें। कॉलेज में आकर बहुत फ़िल्में देखीं, इंग्लिश फ़िल्में देखीं। तब रुचि जागने लगी इनमें। पर तब भी ऐसे नहीं पता था कि फ़िल्मों में काम करना है। तब थिएटर में ज्यादा इंट्रेस्ट था, लगता था यही करेंगे। मैं तब आई.टी. पढ़ रही थी। कॉलेज ऑफ बिजनेस स्टडीज है दिल्ली यूनिवर्सिटी में। चार साल का कोर्स किया। जमा नहीं तो फिर ढूंढने लगी कि क्या करना है, क्या नहीं करना है।

फिर फ़िल्म स्कूल आने का किस्सा क्या रहा? घरवालों ने आपको बोला नहीं कि ये सडन चेंज ऑफ माइंड है इसे छोड़ दो, सिक्योर जॉब है और उसी में आगे बढ़ते रहो?
हां बिल्कुल, बिल्कुल बोला उन्होंने। वे बहुत नाराज थे इसके बारे में। क्योंकि उन्हें लग रहा था कि फ़िल्में कौन पढ़ता है। और वो भी तीन साल का कोर्स है जिसे करते हुए चार साल हो जाते हैं। मैं तब 23 साल की ही थी और पेरेंट्स बहुत नाराज थे कि “उमर तुम्हारी बिल्कुल भी नहीं है ऐसे तीन साल के कोर्स की। इस वक्त तुम नौकरी कर रही हो”। तब मैं एन.डी.टी.वी. में काम कर रही थी। “अच्छी-भली नौकरी छोड़कर तुम क्यों जा रही हो” और ये सब...। तो बहुत ही विरोध हुआ घर पर। पता नहीं तब कहां से मुझमें हिम्मत आई, मैंने कहा कि मैं तो जा रही हूं। क्योंकि मैं बहुत ही आज्ञाकारी बेटी थी। पहली बार मैंने बग़ावत की। वहां पर जाकर मेरी जिंदगी पूरी तरह बदल गई। मैंने कभी भी इतना फ़िल्मों को सीरियसली नहीं लिया था। मैंने इतनी सारी फ़िल्में देखीं। कैसे-कैसे लोग काम करते है, ये देखा। कितनी बड़ी दुनिया है, ये वहां जाकर पता चला। इंडिया में तो ये सिर्फ मनोरंजन है लेकिन बाकी लोगों के लिए ये ख़ुद को अभिव्यक्त करने का एक तरीका है और ख़ुद को अभिव्यक्त करने के बहुत सारे तरीके हैं।

सत्यजीत रे फ़िल्म संस्थान में किन फ़िल्मों ने आपको एकदम हिलाकर रख दिया?
ऐसे तो याद नहीं लेकिन किश्लोवस्की (Krzysztof Kieślowski) एक पॉलिश फ़िल्ममेकर थे जिनकी फ़िल्म से मैं बहुत ज्यादा प्रभावित हुई थी। अकीरा कुरोसावा (Akira Kurosawa ) हैं, उनकी ‘सानशीरो सुगाता’ (Sanshiro Sugata, 1943)। बहुत फ़िल्में थीं। इंडियन फ़िल्में भी थीं जिनके बारे में पहले मैंने सोचा भी नहीं था। फिर एक बहुत बड़ा प्रभाव था डॉक्युमेंट्री फ़िल्मों का, जिनका पहले मुझे कोई एक्सपोजर नहीं था और मुझे अहसास हुआ कि वो कितनी ज्यादा... मतलब एक टाइम को कैप्चर करती हैं। आपकी जेनरेशन को कैप्चर करती हैं। समाज के एक विशेष पहलू को कैप्चर करती हैं। ये इतिहास का सच्चा दस्तावेज होती हैं। तो मैं इन्हें यहां देख पा रही थी और बहुत खुश थी।

संस्थान में रोजाना तीन-चार फ़िल्म दिखाई जाती होंगी और यूं आपने सैंकड़ों फ़िल्में देखी होंगी?
हां...।

तब आपने और आपके दोस्तों ने फ़िल्में बनाने का सपना साथ देखा होगा। आज आप लोग बना पा रहे हैं तो एक-दूसरे की सफलता देखकर कैसा लगता है? कौन दोस्त फ़िल्मों में आज सफल हो पाए हैं?
ये तो बहुत अन्यायपूर्ण बात होगी सफलता को ऐसे आंकना। सक्सेस और फेलियर तो बहुत सब्जेक्टिव हैं। तो मैं सफलता को यूं नहीं मापती हूं। अगर वे अपना काम करते हुए खुश हैं तो मेरे लिए वही सक्सेस है। पर जो करना चाह रहे थे और कर रहे हैं, उनमें बहुत हैं। जो डायरेक्टर होता है उसे वक्त लगता है, इसलिए जो डायरेक्टर्स हैं वो धीरे-धीरे कर रहे हैं, जो टेक्नीशियंस हैं उनके लिए थोड़ा सा आसान होता है क्योंकि उनके ऊपर लोगों को इतना पैसा नहीं लगाना पड़ता है जितना डायरेक्टर के ऊपर लगाना होता है। बहुत सारे लोग कर रहे हैं। बहुत सारे साउंड डिजाइनर्स हैं। बहुत सारे सिनेमैटोग्राफर्स हैं, राइटर्स हैं जो मेरे साथ वहां थे और अब यहां हैं। मतलब हम उतना बात अब नहीं कर पाते हैं, मिल नहीं पाते हैं, बहुत बिजी हैं, पर...। बहुत सारे डॉक्युमेंट्री मेकर्स हैं जो वही करना चाहते थे जो कर रहे हैं और बहुत खुश हैं। कमर्शियली सफल नहीं हैं लेकिन बहुत खुश हैं।

आप भी साउंड डिजाइनिंग करना चाह रही थीं?
हां, साउंड डिजाइनिंग में करना चाहती थी पर वो हो नहीं पाया लेकिन एडिटिंग में साउंड डिजाइनिंग बहुत बड़ी भूमिका निभाता है।

थियेटर आपने पहले किया, अभी एडिटिंग कर रही हैं, बीच में साउंड की रुचि कहां से आई?
मुझे लगता है ये सब चीजें बहुत अलग-अलग या स्वतंत्र नहीं हैं। एडिटिंग कहानी कहना होता है और साउंड डिजाइनिंग उस कहानी को या में जोड़ना होता है। मतलब बिना साउंड के ज्ञान के आप एडिट नहीं कर सकते और बिना एडिटिंग के ज्ञान के आप साउंड डिजाइनिंग नहीं कर सकते। तो ऐसा नहीं है कि ये सब बहुत अलग हैं। ये सब एक-दूसरे से जुड़ी हुई हैं।

क्या एडिटर बनने के बाद आप लाइफ की बाकी चीजों या बातचीतों को भी एक सेंस में एडिट करने लगती हैं? मतलब, क्या आपकी एडिटिंग क्षमताएं फ़िल्मों के बाहर की दुनिया को भी वैसे ही देखती या समझती है? आपकी पर्सनैलिटी में वो कहीं न कहीं आ गया है?
हां, बिल्कुल होता है। पहले तो बहुत ही ज्यादा होता था, अभी काफी कंट्रोल में है। अब मैं सोच-समझकर ही करती हूं। पहले तो बहुत ज्यादा होता था, मतलब बहुत ही ज्यादा होता था। अब शायद मैं टेक्स्ट मैसेज मैं बहुत बार एडिट करके भेजती हूं। बातें एडिट करना तो मैंने बंद कर दिया है लेकिन पहले बहुत होता था। कभी क्या होता है कि आप फ़िल्म देखने चले जाओ तो आपको सिर्फ शॉट्स नजर आते हैं। वैसे कोशिश करती हूं कि मेरी वो पर्सनैलिटी बिल्कुल अलग रहे। अब फ़िल्मों को आम दर्शकों की तरह देखने की कोशिश करती हूं। लोगों की बातें सुनूं तो मैं ऑब्जर्व करने की कोशिश करती हूं क्योंकि कभी पर भी कहीं भी यूज हो सकती है ये चीज।

जर्नलिज़्म में अगर कोई एडिटर है तो उसे सिनिकल या दोषदर्शी होना जरूरी है रिपोर्टर के प्रति भी, उसकी खबर के प्रति भी और जो कंटेंट सामने पड़ा है उसके प्रति भी। फ़िल्म एडिटर के लिए भी सिनिकल होना जरूरी है या कोई दूसरा ऐसा इमोशन उसमें होना चाहिए ताकि फ़िल्म आखिरकार बहुत बेहतर होकर निकले?
एक अच्छा ऑब्जर्वर होना तो बहुत जरूरी है। कौन डायरेक्टर किस तरह से बिहेव करेगा... क्योंकि कई बार ऐसा होता है फ़िल्मों में, सीन्स में, कि जो एक्टर्स करते हैं उनको कई बार आइडिया भी नहीं होता है सीन्स में कि उन्होंने क्या-क्या एक्सप्रेशन दिए हैं, एग्जैक्टली किस बात में क्या किया था। तो आप उस भाव को एडिट करके लाते हो। आप उस वक्त उसे सही करते हैं। मान लीजिए आप किसी की डेट एडिट कर रहे हैं। दो लोग पहली बार मिल रहे हैं कहीं पर। तो किस तरह का अजनबीपन रहेगा? किस तरह बात करेंगे? कितना बात करेंगे? कैसे करेंगे? जाहिर है कैरेक्टर की अपनी एक समझ होती है लेकिन उसमें अनुकूल हाव-भाव आप शामिल करने की कोशिश करते हैं। तो मेरे हिसाब से एक एडिटर के तौर पर आपकी सबसे बड़ी जरूरत है कि आप जिंदगी के बहुत बेहतरीन ऑब्जर्वर हों। आपको लाइफ को लाइक करना आता हो।

मान लीजिए आपके सामने बहुत धूसर या कच्चेपन वाली फ़िल्में आती हैं। जैसे ‘गैंग्स ऑफ वासेपुर’ है या ‘शंघाई’ है। उनमें जो लोग हैं वो एक अलग ही भारत से नाता रखते हैं और उनको आपको एडिट करना होता है, तो क्या आपको लगता है आप पर्याप्त घूमी हुई हैं या आपने वैसे लोग पर्याप्त तौर पर देखे हुए हैं? या अगर प्रोजेक्ट ऐसा अलग आ जाए तो कैसे सामना करती हैं? आप जाकर देखती हैं या कैसे संदर्भ लेती हैं?
मैं इसी देश में पली-बढ़ी हूं। पूर्वी दिल्ली में पली-बढ़ी हूं। मुझे पर्याप्त आइडिया है। मैंने बहुत ट्रैवल किया है। आज भी करती हूं। मुझे लगता है कि मुझे अपने लोगों का एक निश्चित आइडिया है। और अगर कोई बहुत ही विशेष या तय विषय है जो मैंने कभी देखा नहीं है, जैसे मैंने कभी मर्डर होते हुए तो देखा नहीं और ना मेरी इच्छा है देखने की। अब अगर मुझे मर्डर का सीन एडिट करना है और मर्डरर का माइंडस्पेस दिखाना है तो उसके लिए मुझे एक निश्चित मात्रा में कल्पना की जरूरत होगी। आपके डायरेक्टर का भी यही रोल होता है कि आपको ठीक-ठीक बताए और आप सोचें। जैसे, हर तरह के दंगे अलग होते हैं। मैं जब दिल्ली में थी तो सिख दंगे देखे थे, उसके बाद मंडल कमीशन के दौरान देखे थे। लेकिन अब जो ‘शंघाई’ के दंगे थे वो बहुत ही अलग थे। मतलब वो बिल्कुल ही पॉलिटिकल दंगे थे। मैंने ऐसे कभी नहीं देखे थे। तो आप डील करते हैं। डायरेक्टर भी बताता है, ब्रीफ करता है। और डायरेक्टर ने भी दंगे देखें हों ये जरूरी नहीं। तो ऐसी चीजों को डॉक्युमेंट करने के लिए उनको अनुभव करना जरूरी नहीं है, उनके बारे में आपकी दूरदर्शिता या विज़न होना जरूरी है कि क्या सोचकर करें जो भी करें।

किस फ़िल्म के लिए अब तक सबसे ज्यादा रॉ मटीरियल आपको मिला है और कितनी दिक्कत आई? जैसे 20 घंटे का माल हो और उसे काटकर दो घंटे का करना हो। ऐसी फ़िल्में कौन सी रही हैं और ऐसा होता है तब क्या करती हैं?
ऐसा मेरे साथ कई बार हुआ है। काफी सारी फ़िल्मों में हुआ है। ज्यादा घंटे की शॉट फ़िल्म है और फ़िल्म दो घंटे की ही बनानी होती है। ये तो हर बार होता है। मेरा एक प्रोसेस है। मुझे जो चीजें अपील करती हैं उन्हें मैं रख लेती हूं और बाद में यूज़ करती हूं। जैसे, ‘बैंड बाजा बारात’ में मुझे पता था कि ये दो मुख्य किरदार हैं और इन्हें इस तरह प्रेजेंट करना है कि लोग इन दोनों से कनेक्ट करें और दिल्ली में शादी और वेडिंग प्लैनिंग का माहौल बने। मतलब सबकुछ रियल हो और आपको लगे कि ये हमारे पड़ोस में रहते हैं। मैंने एडिट पर यही कोशिश की। हमारे पास काफी सारा फुटेज था। धीरे-धीरे-धीरे-धीरे ... मतलब मेरा सामना जब भी अत्यधिक फुटेज से होता है तो पूरी मुश्किल को मैं छोटे-छोटे टुकड़ों में बांट देती हूं। मैं जितने छोटे-छोटे-छोटे-छोटे टुकड़ों में फुटेज को बांट सकूं, बांट देती हूं। फिर इन छोटे-छोटे-छोटे-छोटे टुकड़ों को हल करती चलती हूं। मतलब जब मैं छोटी चीज के बारे में सोच रही हूं तो मैं बड़ी चीज टालती हूं।

जैसे आप छोटे-छोटे टुकड़ों में बांटती चलती हैं तो उस दौरान पूरा का पूरा मटीरियल अपने जेहन में याद रखती हैं? क्या एक खास सेक्शन को छोटे टुकड़ों में बांटती हैं, फिर उसे निपटाती हैं? फिर दूसरे पोर्शन को टुकड़ों में बांटती हैं और उसको निपटाती हैं? या पूरी फ़िल्म का फुटेज आपने छोटे-छोटे टुकड़ों में बांट दिया और फिर उसे हैंडल करती हैं?
ऐसा कोई तरीका नहीं होता है। हर फ़िल्म को हल करने या एडिट करने का एक सिस्टम होता है। पहले मैं सीन को टारगेट करती हूं। फिर उस सीन में भी बहुत सारी फुटेज है तो वन टू थ्री, अलग-अलग ब्लॉक में विभाजित करती हूं। मतलब जितना आप उसे छोटी-छोटी इकाइयों में बांट देते हैं न, तो समझना और सुलझाना आसान रहता है। जब फील्ड वर्क पूरा हो जाता है तो सबको पिरोकर एक पूरी फ़िल्म बनती है तो उसको भी छोटे-छोटे हिस्सों में बांटती हूं और स्टोरी फ्लो और दूसरे पहलुओं के हिसाब से तह करती हूं। कि फर्स्ट हाफ हो गया, सेकेंड हाफ हो गया, फर्स्ट हाफ में फर्स्ट रील हो गई, सेकेंड रील हो गई, थर्ड रील हो गई। फर्स्ड रील में भी पहले दस मिनट हो गए, फिर अगले दस मिनट हो गए। उसमें भी अगर यूं, कि अच्छा, कैरेक्टर का इंट्रोडक्शन ऐसे नहीं बैठ रहा है, या बैठ रहा है तो ... मतलब जितने भी छोटे हिस्सों में उसे विभाजित करें, आसान हो जाता है। सबकुछ एक साथ तो कर नहीं सकते।

ये तरीका आपका पहली फ़िल्म से रहा है या पहली-दूसरी फ़िल्मों के बाद अनुभव से सोचा कि मुझे इस तरह से अपने काम को अनुशासित और व्यवस्थित करना चाहिए?
नहीं, शुरू से तो नहीं था। ऑन द जॉब हुआ है धीरे-धीरे। लगा कि ये तरीका हो सकता है चीजों को डील करने का। शुरू-शुरू में बहुत घबरा जाती थी इतना मटीरियल होता था। अब मैं उसे अच्छे तौर पर या लाभ मानकर लेती हूं। क्योंकि मेरे पास इतना मटीरियल है तो उतना ही लचीलापन और उतनी ही स्वतंत्रता है, अपनी कहानी कहने के लिए। पहले मैं थोड़ा घबरा जाती थी कि भगवान! कैसे होगा, मुझसे तो नहीं होगा! लेकिन अब ऐसा नहीं। अब तो लगता है, नहीं, जितना मेरे पास मटीरियल है उतनी ही मेरे पास पावर है। ये तो कर कर के ही सीखा है। ... और हर डायरेक्टर से आप कोई नई चीज सीखते हैं। हरेक के साथ काम करते हुए उनके स्टाइल को देखती रही और सीखकर चीजों को अपने में जोड़ती रही। उससे भी बहुत फर्क पड़ता है क्योंकि वे सभी बेहद विशिष्ट लोग हैं जिनका अपना-अपना नजरिया है, अपनी सोच है।

डायरेक्टर लोग भी तो आपसे सीखते होंगे? जैसे आप नई थीं तो अनुभवी लोगों से सीखा होगा लेकिन आज आपको बहुत सी फ़िल्मों का और सफल फ़िल्मों का अनुभव है तो कोई नया डायरेक्टर आता है वो भी आपसे काफी सीखता होगा?
मैंने दरअसल बहुत सारे फर्स्ट टाइमर्स के साथ काम किया है। ‘इश्किया’ अभिषेक (चौबे) की पहली फ़िल्म थी, ‘बैंड बाजा बारात’ मनीष (शर्मा) की पहली फ़िल्म थी। उसके बाद और भी दो-तीन छोटी फ़िल्में मैंने की हैं। अब भी कर रही हूं। मुझे लगता है कि एडिटिंग स्टोरीटेलिंग होती है और जो एक मूल स्टोरीटेलिंग होती है वो प्राकृतिक रूप से आप में होती है। कि या तो आप एक नेचुरल स्टोरीटेलर हैं। और जो दूसरी चीज होती है स्टोरीटेलिंग मं वो करत विद्या है, कि कर-कर के आपको समाधान आने लगते हैं। मतलब जब आपको समझ आने लगता है कि अच्छा अब ये समस्या आ रही है, कैरेक्टर का अब ये समझ में नहीं आ रहा है, इसका कैसे करूं। बोर हो रहा है, इसका मैं क्या करूं। तो ये चीजें आपको समझ में जल्दी आने लगती हैं। वो एक दूसरा पहलू है। जो दूसरी बेसिक स्टोरीटेलिंग वाला पहलू है, उसका और अनुभव का ज्यादा कनेक्शन नहीं है, सॉल्युशंस का कनेक्शन है। कि अगर स्टोरी काम नहीं कर रही है और आप अनुभवी हैं तो समाधान ज्यादा आने लगते हैं। चाहे पहली बार के निर्देशक ही क्यों न हो, मैं तो जितना ज्यादा सीख सकती हूं सीखती हूं। सब में कुछ न कुछ खास बात होती है। कुछ लोग बहुत अच्छा एक्टर्स के साथ व्यवहार करते है। यानी उन्हें इतनी बेहतरी से डायरेक्ट करते हैं। इतने आर्टिक्युलेट (स्पष्ट) होते हैं कि बहुत ही ग्रे इमोशन एक्टर्स को समझा पाते हैं। कि ये मुझे चाहिए और तुम इस तरह से निभाओ। कुछ ऐसे होते हैं जो बहुत सारा शूट करते हैं लेकिन अच्छे से जानते हैं कि मुझे ये पीस चाहिए या मुझे ये सब चाहिए और ये सब नहीं चाहिए। तीसरी तरह के निर्देशक वे होते हैं जो कभी हार नहीं मानते हैं। चाहे उन्हें बहुत सारी आलोचना मिल रही है। जैसे फ़िल्म रिलीज होने से पहले काफी सारे लोगों को दिखाई जाती है तो कई लोग आलोचना करते हैं, कई लोग अच्छा कहते हैं। कुछ डायरेक्टर होते हैं जो कभी हार नहीं मानते, वो लगे रहते हैं। उन्हें आलोचना भी मिलती है तो बहुत शांति से स्वीकार करते हैं। ये सब चीजें मैंने बहुत से निर्देशकों से सीखी। वे कभी हार नहीं मानते, सुझावों को लेकर बेहद खुले मन के होते हैं।

फ़िल्म स्टॉक और डिजिटल पर एडिट करने में मूलतः क्या फर्क है?
डिजिटल में आपको पैसों के बारे में इतना ज्यादा नहीं सोचना पड़ता। आप थोड़ा अतिरिक्त शूट कर लेते हैं। क्वालिटी के लिहाज से भी डिजिटल वाले स्टॉक की बराबरी करने की कोशिश कर रहे हैं तो गुणवत्ता में भी बहुत फर्क नहीं है। जाहिर तौर पर टेक्नीकली तो है, पर आम गणित करें तो इतना फर्क नहीं है जब मिलाना है या विलय करना है। एडिटर के लिए डिजिटल में अनुशासन कम होता है। वो अनुशासन कम होने से शूटिंग ज्यादा होती है। सेटअप टाइम कम होता है। तो मुख्यतः अनुशासन का फर्क है।

दोनों के लुक में तो कोई फर्क रहा नहीं, क्योंकि जितने भी सॉफ्टवेयर हैं, उनसे डिजिटल भी फ़िल्म स्टॉक की तरह ही लगने लगता है।
जी, बिल्कुल।

अगर आम दर्शक को समझाना हो कि एडिटिंग की प्रक्रिया मोटा-मोटी क्या होती है?
फ़िल्में शॉट्स में शूट की जाती हैं। मतलब छोटे-छोटे टुकड़ों में शूट की जाती हैं। एडिटिंग करते वक्त आप उन छोटे-छोटे हिस्सों को मिलाकर एक कहानी कहते हैं। कहानी ऐसी जो आपको समझ में आ रही है, आपको रोक कर रख रही है, आपको कहीं बोर नहीं कर रही है, क्रम में चल रही है और आपको वो छोटे-छोटे हिस्से अलग से नजर नहीं आ रहे हैं। तो एडिटर का काम ये होता है। ये मोज़ेक जैसा है, कि आप एक-दूसरे के ऊपर छोटे-छोटे टुकड़े लगा रहे हैं लेकिन ऊपर से देखें तो ये एक सुंदर डिजाइन दिखता है। आपको वो छोटे-छोटे टुकड़े बहुत पास जाने के बाद ही दिखेंगे। तो फ़िल्म एडिटिंग में वो जो भी मोज़ेक है, उसका डिजाइन समझ आना चाहिए, वो अच्छा लगना चाहिए और उसका कुछ मतलब भी होना चाहिए।

आप किस सॉफ्टवेयर पर एडिट करती हैं? फ़िल्म उद्योग में अभी कौन सा चलन में है? दूसरा, कोई इंडिपेंडेट फ़िल्ममेकर अगर खरीद नहीं कर सकता और अपने बेसिक लैपटॉप पर ही एडिट करना चाहता है तो क्या करे और उसे कौन सी बातों का ध्यान रखना चाहिए?
एविड (Avid) और एफटीपी (FTP) दो सॉफ्टवेयर हैं। फ़िल्म इंडस्ट्री में दोनों से काम हो रहा है। कई लोग एविड पर करते हैं, कई लोग एफटीपी पर करते हैं। दोनों के दोनों ही आजकल लैपटॉप पर इंस्टॉल हो सकते हैं। एविड थोड़ा सा महंगा पड़ता है निवेश के लिहाज से, एफटीपी थोड़ा सस्ता है। इंडिपेंडेंट फ़िल्ममेकर ज्यादातर एफटीपी को तवज्जो देते हैं क्योंकि खर्च कम आता है। मैंने अपनी डॉक्युमेंट्री फ़िल्म बनाई थी जो पूरी लैपटॉप पर एडिट की थी और मुझे कोई दिक्कत हुई नहीं। आजकल डिजिटल फॉर्मेट धीरे-धीरे भारी होता जा रहा है तो पता नहीं कैसे होता है, मुझे भी नहीं पता क्योंकि मैं अब लैपटॉप पर करती नहीं हूं। लेकिन मुझे नहीं लगता कि इसमें कोई भी मुश्किल होती होगी।

नए लड़के-लड़कियां एडिटिंग सीखना चाहें और किसी इंस्टिट्यूट में एडमिशन नहीं मिला हो तो कैसे सीख सकते हैं और आगे काम पा सकते हैं?
देखिए, इंस्टिट्यूट का बड़ा लाभ तो होता ही है क्योंकि वो सिर्फ फ़िल्म स्कूल नहीं होता लाइफ स्कूल होता है। क्योंकि इसमें आप इतने सारे आर्ट से परिचित होते हैं और आपको उनके बारे में सोचने और समझने का समय मिलता है, वो एक लाभ है। अगर फ़िल्म इंस्टिट्यूट न जा सकें तो बदले में आप एक डिजिटल एकेडमी में जहां आपको सॉफ्टवेयर सिखाए जाएं, वहां जा सकते हैं। इसके बारे में ज्यादा तो नहीं कह सकती क्योंकि मैं डिजिटल एकेडमी गई नहीं हूं तो पता नहीं वहां क्या सिखाया जाता है और क्या नहीं सिखाया जाता है। आप और भी तरीकों से सीख सकते हैं। आप किसी एडिटर को असिस्ट कर सकते हैं। मुझे लगता है कि एडिटर को असिस्ट करके सीखना बहुत-बहुत अच्छा तरीका है। वहां आप बिल्कुल मामले के बीचों-बीच होते हो। आप वहीं पर रहकर सब देख और कर रहे होते हो।

फ़िल्म रिव्यू जब भी होता है तो उसमें बहुत से समीक्षक फ़िल्म एडिटर के बारे में लिखते ही नहीं हैं। और जब भी लिखते हैं तो समझ भी नहीं पाते हैं कि फ़िल्म एडिटर ने किया क्या होगा क्योंकि उसको पता नहीं है कि रॉ स्टॉक कब मिला था? ब्रीफ कैसे किया था? पहले दिन से एडिटर शूट पर साथ थे? या लास्ट में उनको मटीरियल ही सिर्फ दिया गया? क्या आर्ग्युमेंट उनके और डायरेक्टर के बीच हुआ? तो आपने जब असल में उस चीज को एडिट किया है और आप उन असल हालातों को जानती हैं और आप जब देखती हैं कि कहीं जिक्र हुआ है नाम और इस तरह से हुआ है और ये कमेंट है जो फिट ही नहीं बैठ रहा है, ऐसा कुछ था ही नहीं जो लिखा गया है, ये आलोचनात्मक रूप से सही ही नहीं बैठ रहा है...। तो इन लिखी चीजों को आप कैसे लेती हैं? हमारे यहां एडिटिंग को लेकर कितनी समझ है और उसको कितना सही लिखा जा रहा है?
नहीं, ज्यादातर तो सही नहीं लिखा जाता है। बहुत ही कम रिव्यूज मैंने देखे हैं जहां कुछ उपयुक्त होता है मूवी के बारे में। ज्यादातर समीक्षक फ़िल्म के पेस और एडिटिंग को कनेक्ट करते हैं। कि गति अच्छी है तो एडिटिंग अच्छी है, नहीं है तो अच्छी नहीं है। लेकिन एडिटिंग सिर्फ गति के बारे में ही नहीं होती है। न ही ये सिर्फ बड़े कट्स के बारे में होती है। जैसे, कह देते हैं कि बड़े से कट्स थे, यहां से वहां हो गया, फास्ट हो गया बहुत ही...। तो न तो सिर्फ कटिंग होती है और न ही महज पेसिंग होती है। जैसे मैंने ‘कहानी’ की थी तो इतने सारे रिव्यूज में लिखा गया कि बड़ी अच्छी कटिंग है, लेकिन कटिंग से ही नहीं होता है। कई जगह बोला गया था कि इतनी ज्यादा तेज गति है कि कुछ समझ में ही नहीं आ रहा है। मुझे नहीं लगता कि ये दोनों चीजें एडिटिंग में किसी भी चीज का सही प्रतिनिधित्व हैं। ठीक है, ये दोनों चीजें अपने आप में कुछ हैं, लेकिन इन्हें ही सिर्फ एडिटिंग नहीं बोल सकते हैं। मैंने कई जगहों पर तो यह भी पढ़ा है कि एडिटिंग खराब थी पर फ़िल्म बहुत अच्छी थी। ... अब ये कैसे हो सकता है मुझे तो नहीं पता। पर ठीक है, क्योंकि मुझे लगता है कि एडिटिंग एक ऐसी चीज है जिसके बारे में ज्यादा पता होना भी नहीं चाहिए। जिन्हें रुचि है सिर्फ उन्हीं को पता होना चाहिए। आम आदमी या दर्शक को इतना ज्यादा पता होने की जरूरत नहीं है। सिनेमा को इतना ज्यादा अगर हम डीकंस्ट्रक्ट कर देंगे न, कि हर चीज ऑडियंस को पता है, मुझे लगता है फिर उसका जादू नहीं रहता है। फिर सिनेमा एक अलग ही चीज हो जाएगी। मैजिक होना जरूरी है। कि अब पता नहीं क्या हो रहा है, किसने क्या किया है एग्जैक्टली पता नहीं लेकिन मैं एक्टरों में बिलीव करती हूं। जो एक्टर डायलॉग बोल रहा है मुझे लग रहा है कि बहुत ही सच है। उस जादू को बनाए रखने के लिए मुझे यकीन करना होगा कि ये जो भी हो रहा है, सच है। जितना ज्यादा मुझे पता होगा कि पीछे की तरफ ये लेंस लगाया गया था, यहां से लाइट मारी थी, तो फिर मजा नहीं रहेगा ऑडियंस के लिए। ठीक है, जो लिख रहे हैं उन्हें लिखने देना चाहिए। वो जो भी लिखें कोई फर्क नहीं पड़ता है।

लेकिन क्या ये संभव है कि एडिटर की वस्तुस्थिति जानी जा सके। क्योंकि फिल्म कैसे भी शूट हुई हो, कितना भी बुरा फुटेज हो, एडिटर उसे जादूगरी से बदल देता है। क्या उसका सही योगदान पता नहीं लगना चाहिए लोगों को। या बस एडिटर जानता है और डायरेक्टर उसे थैंक्स बोल देता है, इतना पर्याप्त है?
ये बहुत ही मुश्किल है कहना। मुझे लगता है कि अगर इंडस्ट्री में लोगों को पता चल जाए, इतना काफी है ताकि आपको और अच्छा काम मिलता रहे। उससे ज्यादा दर्शकों को बताना मेरे ख़्याल से इतना जरूरी नहीं है। सिडनी लुमिया (Sidney Lumet) ने कहा था या पता नहीं किसने कहा था कि, “एक संपादन कक्ष में क्या होता है, ये सिर्फ दो लोग जानते हैं, एक तो फ़िल्म का डायरेक्टर और एक एडिटर” (what happens in an editing room, only two people know, the director and the editor)। अगर आप बेहद अनुभवी एडिटर हैं तो फ़िल्म देखकर बता सकते हैं कि अच्छा ये हो सकता था और ये नहीं हुआ या ये बहुत अच्छा हुआ है। इसके अलावा मुझे नहीं लगता कि कोई तीसरा पक्ष इस विषय के बारे में जान सकता है या टिप्पणी कर सकता है।

आपने जितनी फ़िल्में अभी तक एडिट की हैं और उनका जो अंतिम नतीजा रहा है, क्या उनको और भी बहुत सारे तरीकों से एडिट किया जा सकता था, या वो ही बेस्ट रास्ते थे एडिट करने के?
मेरे लिए तो वही बेस्ट रास्ते थे। पर मैं आश्वस्त हूं कि आप उसको एडिट करते तो वो अलग होते, तीसरा कोई करता तो वो अलग होते। ये तो बहुत ही वस्तुपरक (subjective) है। जैसे, मैं जब दूसरी फ़िल्में देखती हूं और कभी बोर हो रही होती हूं फ़िल्म से तो फिर मैं एडिटिंग देखने लग जाती हूं। सोचती हूं कि मैं ऐसे करती, वैसे करती। तो ये बहुत अलग है। कोई भी ऐसा नहीं हो सकता कि एक ही तरह से एडिट करे। पर मेरे लिए एक ही तरीका होता है। जैसे, आप और मैं बात कर रहे हैं तो मैं किस टाइम पर आपको देखूं और किस टाइम पर किसी और चीज को देखूं, मुझे ये बहुत ही ऑर्गेनिक लगता है। शायद आपको कुछ और ही लगे ऑर्गेनिक। आप तो मुझसे बहुत अलग इंसान हैं न। अलग परवरिश है, अलग अनुभव हैं तो उनके हिसाब से आप अपनी स्टोरीज बताएंगे। मैं अपने हिसाब से बताऊंगी तो वो कहीं से भी सेम हो ही नहीं सकती हैं। पर बात ये है कि जो भी मैं करती हूं मुझे वो ऑर्गेनिक लगता है। जब भी मुझे लगता है कि ये (तरीका) जबरदस्ती है तो फिर मैं उसके बारे में ज्यादा सोचती हूं। कुछ ऐसे थीम होते हैं जो आपको ऑर्गेनिकली नहीं आते हैं, अगर आपको बार-बार उन पर काम करना पड़ता है तो।

मैं जैसे कोई स्टोरी एडिट करता हूं तो मुझे एडिट करने से पहले पता नहीं होता है कि एडिट करने के बाद उसका स्वरूप मैं कैसा बना दूंगा लेकिन मुझे पता होता है कि जब भी मुझे ऐसी मुश्किल आएगी तो मैं उसका सामना ऐसे करूंगा। क्या आपका दिमाग भी वैसे ही चलता है या आपको एकदम पता होता है कि फ़िल्म ऐसी नजर आएगी?
नहीं, मुझे बिल्कुल नहीं पता होता है कि क्या होने वाला है। मुझे कहीं-कहीं आइडिया होते हैं कि इसको यहां पर ऐसे बदलकर और इंट्रेस्टिंग बनाया जा सकता है, लेकिन एक सटीक विजुअल तो मेरे दिमाग में नहीं होता है।

कोई अगर एडिटिंग पढ़ना चाहे तो क्या किताबें हैं या सब कुछ प्रैक्टिकल खेल है? या फ़िल्में ज्यादा से ज्यादा देखी जाएं और सीखा जाए?
बुक्स तभी हेल्प करती हैं जब आपको कुछ प्रैक्टिकल अनुभव होता है। जब मैं फ़िल्म स्कूल में थी और किताबें पढ़ रही थी तो मुझे एडिटिंग एक अलग ही चीज लगती थी लेकिन एक बार जब मैंने प्रैक्टिस करना शुरू किया और काम हाथ में लिया तो जो किताबों में पढ़ा था वो बिल्कुल ही अलग दिखने लगा। सबके अलग-अलग मतलब निकलने लगे। मैं यही कहूंगी कि एडिटिंग करत विद्या है। आप जो भी किताबें पढ़ते हैं आपको हेल्प जरूर करेंगी, बिल्कुल करेंगी लेकिन प्रैक्टिकल अनुभव या अपने हाथ से की एडिटिंग का मुकाबला कोई ज्ञान नहीं कर सकता।

अब आपको मूवीज देखने के लिए टाइम मिलता है या एडिटिंग में व्यस्त रहती हैं?
फ़िल्म देखना बहुत जरूरी है, मेरे को तो लगता है कि वही बेस्ट लर्निंग है। जब आप ऑडियंस के साथ फ़िल्म देखते हैं, उससे अच्छी लर्निंग कोई दूसरी नहीं है। वो करना तो जरूरी होता है। बिल्कुल करती हूं मैं।

आप महीने या साल में कितनी फ़िल्में देख लेती हैं?
मैं कोशिश करती हूं रोज एक फ़िल्म देखने की, कभी-कभी नहीं हो पाता है। पर हफ्ते में दो, तीन, चार तो देख ही लेती हूं।

कौन से फ़िल्म एडिटर दुनिया में ऐसे हैं जिनकी आप बहुत प्रशंसा करती हैं?
थेल्मा शूनमेकर (Thelma Schoonmaker – ‘ह्यूगो’, ‘रेजिंग बुल’, ‘द डिपार्टेड’) मुझे बहुत पसंद हैं। वॉल्टर मर्च (Walter Murch – ‘द गॉडफादर’, ‘द कॉन्वर्जेशन’, ‘अपोकलिप्स नाओ’, ‘द इंग्लिश पेशेंट’) की एडिटिंग पसंद हैं क्योंकि वे बेहद आर्टिक्युलेट हैं। इसके अलावा कुछ फ़िल्में मुझे बहुत ही अच्छी लगती हैं जिनके एडिटर्स का नाम मुझे नहीं पता। ‘ब्लैक हॉक डाउन’ (Pietro Scalia) है, ‘डाउट’ (Dylan Tichenor) है और भी बहुत सी हैं। मुझे लगता है कि एडिटिंग में भी एक्सपेरिमेंट करना बहुत जरूरी है जिस किस्म की भी स्टोरी आपके पास हो। नया एक्सपेरिमेंट फ़िल्म में कहीं छिपा होना चाहिए, मतलब ऑडियंस को कुछ नया महसूस होना चाहिए पर उनको हर चीज दिखनी नहीं चाहिए।

आपके जो समकालीन एडिटर हैं भारत में, उनमें से किसका काम अच्छा लगता है, जो नया कर रहे हैं?
बहुत सारे हैं। श्रीकर सर (A. Sreekar Prasad – ‘राख़’, ‘वानाप्रस्थम’, ‘फिराक़’, ‘दिल चाहता है’) हैं। वो कितनी सारी अच्छी फ़िल्में कर चुके हैं। दीपा (Deepa Bhatia – ‘हज़ार चौरासी की मां’, ‘देव’, ‘तारे जमीं पर’, ‘काई पो चे’) है, आरती (Aarti Bajaj – ‘ब्लैक फ्राइडे’, ‘जब वी मेट’, ‘रॉकस्टार’, ‘पान सिंह तोमर’) है। ये बहुत अलग तरह का काम कर रही हैं। बहुत रोचक।

आपकी ऑलटाइम फेवरेट मूवीज कौन सी हैं, इंडियन और विदेशी?
ये तो बहुत ही मुश्किल सवाल है, इसका मेरे पास कभी कोई जवाब नहीं होता है क्योंकि ये नाम बदलते रहते हैं। मुझे बहुत सारी फ़िल्में अलग-अलग टाइम पर अच्छी लगती हैं। जैसे, मुझे ‘गरम हवा’ बहुत अच्छी लगी थी। जब देखी थी तो हिल गई थी। फिर कुछ और देखने की इच्छा बाकी न रही। मुझे ‘परिंदा’ बहुत अच्छी लगती है, ‘मिस्टर इंडिया’ बहुत अच्छी लगती है, ‘जाने भी दो यारों’, ‘अंदाज अपना-अपना’, फिर... ‘दीवार’ बहुत अच्छी लगती है। एक टाइम था जब ‘हम आपके हैं कौन’ बहुत अच्छी लगती थी। ‘दिलवाले दुल्हनिया ले जाएंगे’ बहुत अच्छी लगती है। अलग-अलग फेज में अलग-अलग पसंद होती हैं। फ़िल्म स्कूल जाकर वर्ल्ड सिनेमा को देखा। किश्लोवस्की की फ़िल्में बहुत अच्छी लगने लगीं। तब कुछ खास किस्म की फ़िल्मों को ही मैं ज्यादा एंजॉय कर पाती थी। अब ऐसा है कि कोई भी फ़िल्म अगर मुझे एंगेज करती है तो मुझे अच्छी लगती है। कोई परवाह नहीं कि स्लो है या उसमें कुछ और है... अगर आप मुझे थाम कर रख सकते हो तो मुझे बहुत अच्छी लगती है। मैं किसी फ़िल्म को पसंद करने के लिए बहुत ज्यादा प्रयास करना पसंद नहीं करती हूं। फ़िल्म में कोई न कोई जुड़ाव होना चाहिए जो मुझे दिखा रही हो।

डायरेक्टर्स में अभी कौन अच्छा काम कर रहे हैं?
वे जिनके साथ आपने काम किया है और वे जिनका सिर्फ काम देखा है। मैं तो उन्हीं के साथ काम करती हूं जो मुझे बहुत अच्छे लगते हैं तो पूछना ही बेकार है। दिबाकर (बैनर्जी), सुजॉय (घोष), मनीष (शर्मा) जिनके साथ मैंने अब तक काम किया है। ‘इश्किया’ में अभिषेक चौबे।, मुझे मजा आया। अनुराग बासु का काम भी बहुत पसंद है। वह बहुत अच्छे डायरेक्टर और स्टोरी टेलर हैं। फिर अनुराग कश्यप हैं, जोया (अख़्तर) है... मुझे जोया का काम बहुत पसंद है।

सभ्यताओं के बसने के बाद से ही स्पष्ट नहीं हो पाया है कि आप प्रेरणा किसे मानते हैं? या इंस्पिरेशन होना कितना बुरा है या अच्छा है? जैसे आपने अनुराग बासु का नाम लिया तो ‘बर्फी’ को लेकर काफी रहा कि जो सीन्स थे वो दूसरी फ़िल्मों से थे। अभी स्पष्ट नहीं है कि डिबेट किस तरफ जानी चाहिए क्योंकि एक तरह से तो सारी फ़िल्में इंस्पायर्ड ही हैं। कुछ भी मौलिक या ऑरिजिनल तो एक लिहाज से है ही नहीं। ‘बर्फी’ आई तो कुछ लोग बिल्कुल सपोर्ट में खड़े हो गए कि नहीं, अनुराग ने पुरानी फ़िल्मों को श्रद्धांजलि दी, कुछ कहते हैं कि नहीं, उन्होंने अपनी तरफ से क्या प्रयास किया था। फ़िल्म स्कूल में ये डिबेट तीन सालों में जरूर रही होगी। आपकी सोच क्या है?
मैं निजी तौर पर दूसरे लोगों के काम से चीजें लेने के पक्ष में नहीं हूं। प्रेरणा अलग चीज होती है, ट्रिब्यूट अलग चीज होती है। जैसे ‘द अनटचेबल्स’ (The Untouchables, 1987) में ब्रायन डी पाल्मा ने ‘ओडेसा स्टेप्स सीन’ (फ़िल्म ‘बैटलशिप पोटयेमकिन’, 1925 का एक आइकॉनिक दृश्य) को ट्रिब्यूट दी थी। उस तरह के स्टेप्स लिए थे जहां उनकी फाइट होती है। वो अलग चीज है लेकिन कोई सीन कहीं से उठा लेना और उसे अपना बताना एक अलग चीज है। मुझे नहीं पता, पर ये ओपन डिबेट है। अगर मैं एक फ़िल्ममेकर हूं तो मैं ये नहीं करूंगी। मैं जानबूझकर या इरादतन किसी के सीन्स को उठाकर हूबहू वैसे यूज नहीं करूंगी। पर किसी फ़िल्ममेकर को मुझे ट्रिब्यूट देनी है तो.. जैसे ‘कहानी’ में सत्यजीत रे को ट्रिब्यूट है कि विद्या खिड़की के पास खड़ी हैं और वहां से देवी को गुजरते देखती हैं, वो बिल्कुल ट्रिब्यूट है ‘चारुलता’ को, लिफ्टेड नहीं है। जैसे खिड़की में चलकर मदारी को देखती है चारुलता और ऐसे ही विद्या देवी को गुजरते हुए देखती है। मेरे लिए ये उचित ट्रिब्यूट है। लेकिन मैं किसी पर टिप्पणी नहीं कर सकती क्योंकि ‘बर्फी’ के कौन से दृश्य कहां से हैं और क्या माजरा है, इसकी जांच मैंने की नहीं है इसलिए जानती नहीं कि उसमें जो है वो क्या है। लेकिन एक फ़िल्ममेकर के तौर पर और व्यक्तिगत रूप से मैं जानती हूं कि अनुराग बासु कहानी कहने की एक विशेषता रखते हैं।

फ़िल्म एडिटिंग में अभी क्या चुनौतियां हैं? क्या इनवेंशन और इनोवेशन की कमी हम में और हॉलीवुड में भी है, क्योंकि एक जॉनर की फ़िल्म आती है तो उनमें समान तरह का पेस और प्रस्तुति होती है? जैसे एक्शन और स्टंट वाली फ़िल्मों में एडिटिंग का उनका एक अलग ही फॉर्म्युला बना हुआ है। एडिटिंग की दुनिया में भीतरी बहस अभी क्या चल रही है?
सबसे बड़ी बहस तो यही होती है कि आधे लोग (एडिटर या फ़िल्ममेकर) ये यकीन रखते हैं कि दर्शकों को ये देखना है तो हम ये करेंगे और आधे लोग ये यकीन रखते हैं कि आपको क्या पता दर्शकों को क्या चाहिए, आप तो दर्शक क्रिएट कीजिए। एडिटिंग में भी सवाल आता है, मैं जिस सवाल का रोज सामना करती हूं कि ये फ़िल्म किसके लिए है? ये फ़िल्म डायरेक्टर अपने लिए बना रहे हैं कि दर्शकों के लिए बना रहे हैं? वो ऑडियंस कौन है? क्या मैं फ़िल्म रिलीज से पहले पता कर सकती हूं कि वो दर्शक कौन हैं? क्या मेरी ये रींडिग सही है या मैं सिर्फ अपने पास्ट एक्सपीरियंस से जा रही हूं। क्योंकि हम देखते हैं कि दर्शक हर बार अलग तरह से प्रतिक्रिया देते हैं। तो आपकी जो स्टडी है, किस बात पर बेस्ड है। और सबसे ज्यादा मुझे लगता है कि फ़िल्मों में करप्शन भी इसी बिंदु पर प्रवेश करता है। क्योंकि आपको लगता है कि फ़िल्में ये बन रही हैं क्योंकि दर्शकों को ये देखना है, ये तो एक बहुत ही आसान-सहज सोच बना दी गई है। मतलब आप ये फ़िल्म बना रहे हैं क्योंकि आपको ये फ़िल्म बनानी है, कौन देखता है कौन नहीं देखता है ये तो बाद की बात है। ये जो ‘ऑडियंस’ शब्द है न जो फ़िल्मों को गवर्न करता है, सबसे बड़ी डिबेट तो यही चलती है, अंदरूनी भी और बाहरी भी। मतलब कि कौन है ये दर्शक, जिन्हें आप परोस रहे हैं। जैसे, अनुराग, दिबाकर या छोटी फ़िल्में जो बना रहे हैं, क्या ये किन्हीं दर्शकों को केटर कर रहे हैं या इन्होंने अपने दर्शक ख़ुद बनाए। क्योंकि ऐसी फ़िल्में भी पसंद करते ही हैं कुछ लोग। सिर्फ ऐसा नहीं है कि लोग बड़ी फ़िल्में ही पसंद करते हैं। ‘विकी डोनर’ जैसी फ़िल्म को भी तो दर्शक मिले हैं तो क्या उन्होंने पहले से सोचा होगा। क्या दर्शकों को पहले से पता होगा। ऐसा नहीं होता है तो मतलब ये एक आसान सी टर्म है जो फॉर्म्युला में डालकर यूज कर ली जाती है। मुझे लगता है कि ये सबसे बड़ी और मौजूदा वक्त में चल रही डिबेट है। मेरे को आज छह साल हो गए हैं कि छह साल में मेरे पास तो कोई जवाब आज तक नहीं आया है कि आप एडिटिंग जो कर रहे हैं तो किसके लिए कर रहे हैं? कि आप बोर न करें, तो किसको बोर न करें? मतलब कौन बोर हो रहा है? फ़िल्ममेकर बोर हो रहा है देखते हुए या ऑडियंस बोर होगी जिसने फ़िल्म अभी तक देखी ही नहीं है।

इतनी फ़िल्मों की एडिटिंग आपने की है तो आखिरी नतीजे के लिहाज से अपनी कौन सी फ़िल्म की एडिटिंग से आप बहुत खुश हैं, संतुष्ट हैं?
बहुत मुश्किल है कहना। ‘कहानी’ में काम करने में हम लोगों को बहुत मजा आया था क्योंकि ये वाकई में एक बहुत प्यारी और छोटी सी फ़िल्म थी। लेकिन मुझे उतना ही मजा ‘एलएसडी’ में आया था, मुझे उतना ही मजा ‘बैंड बाजा बारात’ में आया था, उतना ही मजा ‘इश्किया’ में भी आया था और ‘ओए लक्की! लक्की ओए!’ मेरी पहली फ़िल्म थी तो मेरी खुशी का ठिकाना ही नहीं था। अलग-अलग फ़िल्म से अलग-अलग याद जुड़ी हुई है। ‘जब तक है जान’ जब मैंने की थी तो यश जी के साथ काम करने का मेरा पहला अनुभव था। वो अपने आप में बहुत ही बड़ी बात थी मेरे लिए। मैं तो दूरदर्शन पर उनकी फ़िल्में देखकर बड़ी हुई हूं तो मैं तो कभी सोच ही नहीं सकती थी कि मेरे पास बैठकर वो मुझसे इस तरह से बात कर रहे होंगे। तो हर फ़िल्म की अपनी एक खुशी है। ‘कहानी’ में ये मजा आया कि इतनी सारी डॉक्टुमेंट्री किस्म की फुटेज थी। उसे शूट करके एक अलग ही परत बनाई गई फ़िल्म में, जिसका मुझे गर्व है।

संगीत का इस्तेमाल दर्शक को इमोशनली क्यू (उसके भावों को एक निश्चित दिशा में कतारबद्ध करना) करने के लिए किया जाता है। कुछ कहते हैं कि ये बहुत बासी तरीका है, वहीं सत्यजीत रे की फ़िल्में भी संगीत का जरा अलग लेकिन इस्तेमाल लिए होती थीं। जैसे फ़िल्म की कहानी में कोई बहुत बड़ी ट्रैजेडी हुई तो वीणा या सितार उसी भाव में बजकर क्यू करेगा कि भई बड़ा दुख का मौका है। क्या आप इसे बासी तरीका मानती हैं या नहीं मानती हैं? क्या ये हर फ़िल्म के संदर्भ पर निर्भर करता है?
बिल्कुल निर्भर करता है। जैसे अगर आप ‘एलएसडी’ जैसी फ़िल्म बना रहे हैं जो फाउंड फुटेज पर बनी है। कि ये किसी ने एडिट नहीं की है, ये किसी ने शूट नहीं की है। ये किरदारों ने ही शूट की है और उन्होंने ही बनाई है। उसमें अगर मैं बैकग्राउंड म्यूजिक डालती हूं तो अपने संदर्भ या कथ्य को ही हरा रही हूं। वहीं अगर मैं ऐसी फ़िल्म बना रही हूं जिसके बारे में मैं पहले बिंदु से ही कह रही हूं कि ये तो काल्पनिक है, कि मुझे तो पता नहीं है कि ये सच है कि झूठ है, जिसका किसी जिंदा व्यक्ति से किसी तरह का कोई लेना-देना नहीं है.. तो ऐसी स्थिति में संगीत के साथ मैं जैसा करना चाहूं कर सकती हूं। अगर मुझे किसी बिंदु पर लग रहा है कि यहां ये संगीत लाकर दर्शकों को मैन्युपुलेट कर सकती हूं और अगर उस मैन्युपुलेशन से मुझे कोई नैतिक दिक्कतें नहीं हैं तो करूंगी। इन दिनों मैं कई ऐसे निर्देशकों से मिलती हूं जिन्हें संगीत नैतिक तौर पर गलत मैन्युपुलेशन लगता है। मेरे लिए ये डिबेटेबल है। क्योंकि मुझे लगता है संगीत ही क्यों, आप डायलॉग्स से भी तो वही मैन्युपुलेशन कर रहे हैं, आप कट्स से भी तो वही मैन्युपुलेशन कर रहे हैं... मतलब कुछ खास कैमरा शॉट्स भी तो मैन्युपुलेशन है न। मुझे संगीत मैन्युपुलेशन नहीं लगता है, पर ये नहीं होना चाहिए कि पांच सौ वॉयलिन बज चुके हैं और जो इमोशन आपके विजुअल में नहीं है आप उसे ही अपने म्यूजिक में डाल रहे हैं तो उस पर मैं सवाल जरूर उठाऊंगी। अगर आप संगीत से किसी दृश्य को सहयोग कर रहे हैं, अगर संगीत से मुझे किसी और ही दुनिया में लेकर जा सकते हैं, विजुअल और म्यूजिक से अगर आप एक तीसरे दृष्टिकोण का निर्माण कर रहे हैं तो कोई आपत्ति नहीं है।

Namrata Rao is an Indian film editor. She Started with Dibaker Banerjee's Oye Lucky! Lucky Oye! in 2008. Later on she edited films like Ishqiya (2010), Love Sex aur Dhokha (2010), Band Baaja Baaraat (2010), Ladies vs Ricky Bahl (2011), Kahaani (2012), Shanghai (2012) and Jab Tak Hai Jaan (2012). For Kahaani she received 60th National Film Award for Best Editing. Now she's doing the editing of Maneesh Sharma's Shuddh Desi Romance, slated to release on September 13, this year.
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