Monday, March 19, 2012

मीठे मनोरंजन व संभोग रूपी आधुनिकता में टंगे नैतिक फूल

फिल्मः दिस मीन्स वॉर (अंग्रेजी)
निर्देशकः एमसीजे (जोसेफ मेक्गिंटी निकोल)
कास्टः रीस विदरस्पून, टॉम हार्डी, क्रिस पाइन, चेल्सिया हैंडलर
स्टारः ढाई, 2.5

'चार्लीज एंजेल्स’ और 'टर्मिनेटर साल्वेशन’ वाले डायरेक्टर एमसीजी की ये फिल्म कोई कल्ट होने का दावा नहीं करती। हल्का-फुल्का एंटरटेनमेंट देना था और देकर जाती है। ये दो दोस्त लड़कों को एक ही लड़की से प्यार होने वाला फंडा भी नया नहीं है, बहुत ही घिसा-पिटा है, पर फिल्म में हमें इससे बोरियत नहीं होती। वक्त-वक्त पर हंसी के फुहारे आते रहते हैं। मसलन, खंडित दांत वाले ब्रिटिश एक्टर टॉम हार्डी का खुलकर हंसना और फिर सीरियस हो जाना। उनका एक्सेंट भी रोचक है। रीस विदरस्पून के किरदा के दोस्त ट्रिश के रोल में चेल्सिया हैंडलर बेहद खिलखिलाने वाली हैं। खासतौर पर जब वह अपने मोटे पति और अपनी मैरिड फिजिकल लाइफ पर चटपटी बातें करती हैं। मॉरीन को दोनों लड़कों के साथ रिलेशन बनाने की सलाह खुद जोर-शोर से वह देती है, लेकिन जब मामला बिगड़ जाता है और मॉरीन पूछती है तो वह कहती है कि मैंने तो पहले ही कहा था कि दो-दो लड़कों के साथ प्यार मत करो। जाहिर है आप हंसते हैं।

फिल्म में कोई अप्रत्याशित हंसी वाली बातें नहीं हैं, वही हैं जो हम सुन चुके हैं, पर फिर भी काफी हैं। पर यही तो होना भी चाहिए न। जो महाकाव्यात्मक फिल्मों के साथ मनोरंजन देने के लिए बीच-बीच में टाइमपास किस्म की फिल्में आती हैं, जो किसी पर कोई बुरा असर नहीं छोड़ती हैं और थियेटर में जाने के आपके मूलभूत उद्देश्य को पूरा करती है। मुझे लगता है और दिखता है कि फिल्म बनाने वाले एमसीजी के भीतर के निर्देशक की बुनियाद में कहीं न कहीं वो सार्वभौमिक मसाला कहानी कहने वाला और नैतिक शख्स छिपा है, जो हिंदी फिल्मों में भी है, तमिल-तेलुगू में भी और पारंपरिक अमेरिकी फिल्मों में भी। जैसे, फिल्म में संभोग पर कई सीधे मजाक हैं, जो मॉरीन और उनकी दोस्त ट्रिश के बीच होते हैं, इससे फिल्म बड़ी बोल्ड भी लगती है कि भई यहां तो ऐस-ऐसे संवाद और एडल्ट बातें हैं। एफडीआर और टक के बीच शर्त भी यही लगती है कि ठीक है हम दोनों जेंटलमैन की तरह कोशिश करते हैं, पर ईमानदारी से उस लड़की के लिए बेस्ट जो है वही उसे मिले। जिससे वो प्यार करती है, उसके लिए दूसरा रास्ता खाली कर दे। पर ये पता लगने से पहले कि मॉरीन किससे प्यार करती है दोनों के बीच मीठी लड़ाई चलती रहती है। इसमें मॉरीन को डेट पर ले जाना और उसे पहली बार किस करना भी शामिल है।

यहां तक हमें लगता है कि काफी प्रगतिशील बातें हो रही हैं, जाहिर है दोनों दोस्त में से एक की तो वह नहीं हो पाएगी, लेकिन किस तो दोनों ने ही कर लिया। फिर वह वक्त भी आता है जब दोनों के साथ वह संभोग करे। फिल्म में हीरोइन और दोनों हीरो व्यक्तिगत तौर पर इसके लिए तैयार भी दिखते हैं। पर आखिर में टक एफडीआर को बताता है कि मैंने संभोग नहीं किया था। यानि निर्देशक साहब पारंपरिक निकले। आधुनिकता कितनी भी आधुनिक कर दे, समाजों के नैतिक मापदंड और नैतिक होने से जुड़े सम्मान-असम्मान नहीं बदलते। आखिर में ट्रिश भी मॉरीन को यही करती है कि मेरा पति मोटा है, पर मेरा मोटा है। और कोई ऐसा हो जो आपको दिल--जान से चाहे तो उस मौके और प्यार को गंवाना नही चाहिए। तो वही बात है साहब। कहानी का मूल प्रारूप, मध्य और अंत वही है, और समाज को मसाला फिल्मों के बीच भी पूंजीवादी अमेरिकी फिल्म तमाम प्रायोजनों में फंसने के बाद मोक्ष पाने का और बेहतर फैसले लेने का वही साम्यवादी तरीका सुझाती है, जो सही होता है।

दो दोस्तों के बीच इश्क युद्धः कहानी
बड़े मजेदार, डैशिंग और अच्छे इंसान हैं ये दो सीआईए एजेंट दोस्त। फ्रैंकलिन उर्फ एफडीआर (क्रिस पाइन) और टक (टॉम हार्डी)। दोनों एक जर्मन क्रिमिनल हैनरिक के पीछे लगे हैं। एक भिड़ंत में हैनरिक तो भाग जाता है और पीछे कई लाशें रह जाती हैं, जबकि उन्हें ये सब अंडरकवर करना था। तो उन्हें कुछ दिन डिपार्टमेंट अडरग्राउंड कर देता है। खाली वक्त में दोनों को एक ही लड़की लॉरीन (रीस विदरस्पून) से प्यार हो जाता है। लॉरीन भी अपनी बेस्ट फ्रेंड ट्रिश (चेल्सिया हैंडलर) के सिखाने पर दोनों से ही प्यार किए जाती है। अब लॉरीन को पाने के लिए एफडीआर और टक के बीच मीठा सा वॉर शुरू हो जाता है। उधर हैनरिक भी लौटेगा, ये तय है।*** *** *** *** ***
गजेंद्र सिंह भाटी

Thursday, March 15, 2012

"रचनात्मकता इंग्लिश लिट्रैचर होनी चाहिए, सब फिल्में हिट होने लगीं तो मैथेमैटिक्स हो जाएंगी"

कहानी की रिलीज और सफलता से पहले भारत देश की जनता को इनका नाम भी नहीं पता था। अब लोग जानना चाह रहे हैं कि विद्या बालन को लेकर एक बेहतरीन बंगाली जायके वाली थ्रिलर बनाने वाला ये बंदा कौन है। ये हैं यंग राइटर-डायरेक्टर सुजॉय घोष। 2003 में आई इनकी पहली फिल्म झनकार बीट्स.डी.बर्मन उर्फ पंचमदा के म्यूजिक को याद करती उनकी इस फ्रैश फिल्म को लोगों ने, खासतौर पर युवाओं ने चाहा, पसंद किया। इसके बाद सुजॉय विवेक ओबेरॉय, बोमन ईरानी और आयशा टाकिया के अभिनय वाली च्छी फिल्म होम डिलीवरी लेकर आए, पर न जाने क्यों फिल्म को तारीफ के बजाय दुत्कार मिली। फिर बारी थी अमिताभ बच्चन, रितेश देशमुख और श्रीलंकाई अभिनेत्री जैक्लीन फर्नाडिस के साथ बच्चों की कहानी अलादीन के मॉडर्न-एनिमेटेड-बॉलीवुड संस्करण की। फिल्म थी अलादीन। फिल्म नहीं चली। तो अब कुछ वक्त के बाद सुजॉय लौटे हैं ‘कहानी’ के साथ। लंदन से अपने पति की तलाश में कोलकाता आई विद्या बागची की इस कहानी में एक सशक्त स्क्रिप्ट और चतुर निर्देशन छिपा है। फिल्म रिलीज होने से पहले सुजॉय से ये वार्ता हुई। इस संक्षिप्त बातचीत में हालांकि उनके फिल्मकार बनने की यात्रा और फिल्म लेखक होने की गहराई में नहीं जाया जा सका, पर उन्होंने तकरीबन हर सवाल और विश्लेषण का हल्का और तुरत उत्तर दिया। उन्होंने मेरे शहर आने की इच्छा भी जताई, हां, शर्त या अनुरोध एक ही था कि मक्के की गरमा-गरम रोटी पर सफेद बटर चाहिए, जो वो दबाकर खाएंगे। बातचीत के कुछ अंशः

जर्नी डायरेक्टर बनने की?
मुंबई आया काम के लिए तो सबकी तरह मैंने भी एक स्क्रिप्ट लिखी। ये झंकार बीट्सथी। लोगों ने पढ़कर भगा दिया कि आ गया अजीब सी स्क्रिप्ट लेकर। कुछ ने कहा खुद ही बनाओ। तो नौकरी छोड़ी और फिल्म बनाई। सिर्फ यही कहूंगा कि डोन्ट गिव अप। दूसरों पर कभी निर्भर नहीं रहो। आप अकेले पचास बराबर हो।

कहानी की कहानी कहां से आई?
आपकी मां, मेरी मां और सबकी मां की कहानी है। औरत को कुछ होता है जब वो मां बन जाती है। अजीब सा चेंज आता है उसमें। जिसने कभी खाना नहीं बनाया वो खाना बनाना सीख जाती है, जो कभी पढ़ी नहीं वो पढ़ना सीख जाती है। हर काम वो खुशी-खुशी करती है। लड़की पहले कुछ और होती है और मां बनने के बाद कुछ और हो जाती है। वो अपने बच्चे को प्रोटेक्ट करने के लिए कुछ भी करेगी। आप अंगुली भी दिखाएंगे, तो आपकी गां* मा*** रख देगी। भगवान के करीब मां ही होती है। तो मुझे देखना था कि एक औरत में ये चीज कहां से आता है। एक प्रेग्नेंट औरत को आप अनजाने माहौल में डाल देंगे, अलग भाषा, शहर और लोगों के बीच... तो वो इसका सामना कैसे करेगी। यहीं से फिल्म का ख्याल आया। जब इश्किया की शूटिंग शुरू होने को थी तब मैंने और विद्या ने सोचा था। तब ये सिर्फ आइडिया था। मैं अलादीन की कहानी पर भी काम कर रहा था। फिर ‘अलादीन’ बनी थी, बुरी तरह फ्लॉप भी हुई।

इसमें बहुत से बंगाली थियेटर एक्टर्स भी हैं...
सब कोलकाता से हैं। फिल्म की डिमांड थी। कोलकाता की खूबी इसमें है कि आप परदे पर उसे कैसे दिखाते हैं और उसमें जो इंसान बसते हैं वो उस शहर का दिल हैं। बॉलीवुड में बंगाली दिखाए जाते हैं पर असल में बंगाली वैसे नहीं होते। तो मुझे असली बंगाली दिखाने थे। फिल्म में जो यंग सा एक्टर विद्या के साथ भागदौड़ करता दिखता है वो कोलकाता का ही एक्टर है परमब्रत चैटर्जी। बहुत टैलेंटेड है।

स्क्रिप्ट लिखते वक्त क्या मैनस्ट्रीम हिंदी मूवीज में अलग बंगाल दिखाना चाहते थे?
जब मैंने लिखा तो एक चीज क्लीयर थी कि फिल्म में दो हिरोइन है, एक विद्या, दूसरा कोलकाता। अब विद्या को तो स्क्रीन पर दिखा सकता हूं, कोलकाता को कैसे दिखाऊं, ये चैलेंज था। ऐसा कोलकाता दिखाना कि लोगों को उससे प्यार हो जाए। तो जो मेरा तजुर्बा था, पढ़ते, खेलते-कूदते और बड़े होते वक्त, तब जो कोलकाता मैंने देखा और जिया वो मैंने फिल्म में दिखाया है। यहां बहुत सी जगह शानदार हैं, पर ये देखना था कि वो शूटिंग फ्रेंडली भी हो। तो पहले मैं जाकर रहा वहां और देखा कि कहां पर शूटिंग आसान रहेगी।

‘होम डिलीवरी’ और ‘अलादीन’ नहीं चली, उसके बाद क्या था दिमाग में?
कुछ नहीं। सबने बोला कि ऐसी फिल्में मत बनाओ। कमर्शियल बनाओ। पर मैं वही बनाता हूं जो बनाना चाहता हूं। फ्लॉप होनी भी जरूरी है। वरना तो सभी हिट बना देगे। नहीं तो क्रिएटिविटी का मतलब क्या होगा रचनात्मकता इंग्लिश लिट्रेचर होनी चाहिए, सब हिट होने लगी तो मैथ बन जाएंगी।

फेवरेट फिल्में और फिल्ममेकर?
ऑलटाइम फेवरेट सत्यजीत रे। फिर स्टीवन स्पीलबर्ग। मनमोहन देसाई और यश चोपड़ा की फिल्में देखकर बहुत कुछ सीखा।घायल बहुत पसंद,अंदाज अपना-अपना बहुत पसंद। अमिताभ बच्चन की कोई भी फिल्म। मुझे तो हजारों फिल्में पसंद हैं। अभी फ्लाइट से लौटा हूं तो पूरे रास्ते कालीचरणदेखी। मुझे उसका एक-एक डायलॉग याद है। मूवी में कुछ न कुछ होना चाहिए। ऋषिकेश मुखर्जी जैसे लोग हुए। ये सब लोग क्या फिल्में बनाते थे। दिल में घुस जाती थीं।

इन दिनों आई फिल्मों में?
बेस्ट स्क्रीनप्ले मेरे हिसाब से ‘लगे रहो मुन्नाभाई’। मेरी बहुत-बहुत फेवरेट मूवी है।

सबको राजकुमार हीरानी ही क्यों पसंद हैं?
वो सिंपल स्टोरीटेलर हैं। हार्ट जो होता है न उनकी पिक्चर में, वो मैं पसंद करता हूं। मुझे बहुत पसंद हैं उनकी फिल्में, पर न तो मैं वैसी बनाऊंगा, न बना सकता हूं। उसके लिए कुछ धारणा और टेलंट चाहिए। परलगे रहो...’ अच्छी है तो इसका मतलब ये नहीं कि ‘सलाम नमस्ते’ अच्छी नहीं है, कि ‘जॉनी गद्दार’ या ‘एक हसीना थी’ अच्छी नहीं है। ये सब बहुत अच्छी हैं। मुझे तो ‘कल हो न हो’ भी बड़ी पसंद हैं। करण जौहर भी मेरे फेवरेट्स में से हैं।

कैसी फिल्में बनाना चाहते हैं?
मुझे बस वही कहनी-बतानी हैं जो मैं कहना चाहता हूं। ऐसी कहानी जो मैंने सुनाई और किसी ने सुनी।

सुनील गांगुली की कहानी ‘अरण्येर दिन रात्रि’ पर फिल्म बनाएंगे क्या? क्या है कहानी और कास्टिंग वगैरह के बारे में बताइए?
उसके राइट्स लिए हैं। हिंदी में। फिलहाल तो उस नॉवेल के साथ एक साल बिताना है, फिर बाकी चीजें होंगी। कुछ मैच्योर उलझी सी स्टोरी है।

‘झनकार बीट्स’ का सीक्वल बन रहा है, आप ही डायरेक्ट करेंगे?
ये तो प्रीतिश नंदी साहब प्रोड्यूसर हैं, वही तय करेंगे।

अपनी पहली फिल्म तक तो आप बेहद प्राकृतिक, निर्मल और ईमानदार लग रहे थे, फिर ऐसा क्यों हुआ कि ‘अलादीन’ तक आते-आते नजर आने लगा कि आप बहुत ज्यादा प्रयास कर रहे हैं, लेकिन लोगों से जुड़ नहीं पा रहे हैं?
मैंने कभी कुछ साबित करने को मूवी नहीं बनाई। अलादीन बहुत बड़ी फिल्म थी। उसने डिमांड किया कि अगर बच्चों की मूवी बना रहा हूं तो कहीं उसका बैंचमार्क तो होना ही चाहिए। इंडिया में जो बच्चे आज ‘हैरी पॉटर’ देखते हैं, उन्हें मैं पुराने स्टूपिड से स्पेशल इफैक्ट्स तो नहीं दिखा सकता था न। तो ‘अलादीन’ में कुछ बनाने का प्रैशर था कि इसमें मैं वो दिखाऊं जो पहले किसी फिल्म में नहीं दिखाया गया है। और ऐसा हुआ भी। मेरी इ फिल्म में ऐसे सीन और विजुअल इफैक्ट्स थे जो इंडिया में तो क्या वर्ल्ड सिनेमा में भी कहीं नहीं दिखाए गए थे। और, ये सब इस फिल्म की कहानी की मांग थी। अगर ये आगे भी किसी फिल्म में करना पड़ा तो मैं करूंगा। अगर कहानी की डिमांड है कि मैं रस्ते में जाकर नंगा हो जाऊं, तो हो जाऊंगा। जैसेअरण्येर दिन रात्रि मैं हमें जंगल के अंदर की जिंदगी को शामिल करना है, तो मैं जाऊंगा और बहुत दिन जंगल में रहूंगा, वहां शूट करूंगा।
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गजेंद्र
सिंह भाटी

Sunday, March 11, 2012

स्टोरीज के बासी संसार में आई है एक नई कहानी

फिल्मः कहानी
निर्देशकः सुजॉय घोष
कास्टः विद्या बालन, परमब्रत चैटर्जी, नवाजुद्दीन सिद्दीकी, इंद्रनील सेनगुप्ता, नित्य गांगुली, कल्याण चैटर्जी, रिद्दी सेन, शाश्वत चैटर्जी, खराज मुखर्जी, दर्शन जरीवाला
स्टारः तीन, 3.0

हालांकि आमिर खान स्टारर तलाश आने को है, पर उससे पहले ही एक इज्जतदार थ्रिलर आई है कहानी। शुरू से आखिर तक फिल्म में पर्याप्त रहस्यमयी किरदार, घटनाक्रम और खुलासे हैं। डायरेक्टर सुजॉय घोष ने होम डिलीवरीऔर अलादीन जैसी अपूर्ण मनोरंजक फिल्मों के बाद खुद के लिए अपने करियर का पहला मोक्ष पा लिया है। फिल्म में उन्होंने तमाम प्रयोग किए हैं और उनपर कंट्रोल रखते हुए किए हैं। विद्या की मदद करने वाले कुशल बंगाली एक्टर परमब्रत चैटर्जी के किरदार का नाम सात्योकि रखा, जिसका मतलब होता है सात्यकि यानी महाभारत में अर्जुन का सारथी। यहां वह विद्या की महाभारत में उनका सारथी है। जिस जीरो स्टार होटल में विद्या ठहरी हैं, उसका इंट्रेस्टिंग रिसेप्शनिस्ट, वहां काम करने वाला छोटा लड़का, इंश्योरेंस एजेंट के भेस में स्लीपर सेल की तरह शूटर का काम करने वाला एक और शानदार बंगाली एक्टर या फिर इंटेलिजेंस का ऑफिसर ए. खान (नवाजुद्दीन सिद्दिकी) ये सब फिल्म के नगीने हैं। इनकी अदाकारी को आप इनके रोल के आकार के हिसाब से नहीं देख सकते, ये उम्दा हैं। सबको ढेरों तारीफें। इनके किरदारों को सुजॉय ने अच्छे से गढ़ा है। जैसे, खान के इतना गुस्सा क्यों आता है, वह छोटा लड़का इतना प्यारा क्यों है, विद्या बच्चों के साथ इतने प्यार से बर्ताव कैसे कर लेती हैं, इंस्पेक्टर सात्योकि के मन में विद्या के लिए एक पवित्र प्रेम कैसे उमड़-घुमड़ रहा है और कभी पुलिस का मुखबिर हुआ करता वह बूढ़ा बंगाली एक्टर कितना अपारंपरिक मुखबिर लगता है। इन्हीं सब सवालों और जवाबों के बीच फिल्म की कहानी अनोखी है, क्लाइमैक्स तो वाकई अप्रत्याशित है। मैं दावा कर सकता हूं कि हमने ये क्लाइमैक्स किसी अंग्रेजी फिल्म में भी शायद ही देखा होगा।

दो घंटे मनोरंजन पाने थियेटर गए लोगों को लंबे वक्त तक शायद फिल्म में क्या हो रहा है ये समझ न आए। और, थ्रिलर जॉनर को पसंद करने वाले दर्शकों को शायद फिल्म हार्डकोर न लगे, उनके रौंगटे शायद न खड़े हों, पर ‘कहानी’ जैसी भी है, एक अच्छी फिल्म है। इसमें जो मनोरंजन है वो तरोताजा भी है, स्वस्थ भी है और देखने लायक भी है। बिल्कुल देखें।

कहानी सुनोगे...
कोलकाता मेट्रो में एक जैविक आतंकी हमला होता है, जिसमें बहुत सारे लोग मारे जाते हैं। उसके दो साल बाद का दृश्य। लंदन से एक फ्लाइट कोलकाता आती है। और, हवाई अड्डे से बाहर निकलती है प्रेग्नेंट विद्या बागची (विद्या बालन), जो टैक्सी वाले को सीधे कालीबाड़ी पुलिस स्टेशन चलने को कहती है। वहां वह रपट लिखवाती है कि उनका हस्बैंड, नाम – अर्नब बागची, उम्र – 33, रंग – सांवला, कद – 5 फुट 11 इंच... गुमशुदा है। वह बताती है कि वह दोनों फायरवॉल एक्सपर्ट हैं और अर्नब इंडिया किसी असाइनमेंट पर आया था और लौटा नहीं। रपट लिखवाने के बाद विद्या उसे खोजने की अपनी यात्रा पर आगे बढ़ती है। इस काम में उसकी मदद करता है वहीं पुलिस स्टेशन का एक इंस्पेक्टर सात्योकि सिन्हा (परमब्रत चैटर्जी)। बाद में खोज और कहानी और गहरी होती जाती है और मामला गुप्तचर एंजेसियों से जुड़ा निकलता है।
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गजेंद्र सिंह भाटी

Saturday, March 10, 2012

समीर कर्णिक का इक गैर-जिम्मेदार हंसी-ठट्ठा

फिल्मः चार दिन की चांदनी
निर्देशकः समीर कर्णिक
कास्टः कुलराज रंधावा, तुषार कपूर, ओम पुरी, अनुपम खेर, राहुल सिंह, सुशांत सिंह, चंद्रचूड़ सिंह, मुकुल देव, अनीता राज, जॉनी लीवर
स्टारः ढाई, .5

फिल्म की हाइलाइट हैं ओमपुरी, उनका मा की गाली बोलने का तरीका, चंद्रचूड़ सिंह-सुशांत सिंह-मुकुल देव की रॉयल-भोली गुस्ताखियां और सुंदर कुलराज रंधावा। पर दिक्कत वही हो जाती है। सबकुछ है। खूबसूरत खींवसर फोर्ट, बेहद रंगों भरी राजपूती पोशाकें, नमकीन जिंदादिल पंजाब और पंजाबी, तकरीबन दर्जन भर उम्दा अदाकार, उनके फनी तरीके से गढ़े गए किरदार, म्यूजिक और कॉमेडी भी। मगर स्क्रिप्ट जगह-जगह झूल जाती है। हम जॉनी लीवर को शुरू में अनुपम खेर के किरदार चंद्रवीर सिंह से नाराज होकर जाते हुए देखते हैं, फिर वह एक-दो सीन में भी दिखते हैं मगर उसके बाद वह आखिर तक नजर नहीं आते।

फिल्म में शुरू में एक बैग दिखाया जाता है जो वीर (तुषार) की शादी करने जा रही बहन का है, जो उसने चांदनी (कुलराज) से लंदन से मंगवाया है, जिसमें कुछ सुहागरात से जुड़ा हॉट सामान है। वह बैग यशवंत (सुशांत सिंह) के हथियारों से भरे बैग से बदल जाता है, पर फिल्म के आखिर तक फिल्म से यह संदर्भ गायब ही हो जाता है। पूरी फिल्म स्क्रिप्ट की बजाय फिट किए गए चुटकुलों के सहारे आगे बढ़ती है। इससे चीजें और किरदारों की गति बदलती लगती है। ओम पुरी अपने सबसे पहले सीन में जितने ज्यादा प्रभावी हैं बाकी फिल्म में उतनी ही ढीले कर दिए गए हैं। अनुपम खेर का किरदार भी ऐसा गढ़ा गया है कि वह कब चार्ली चैपलिन जैसे हो जाते हैं और कब एक गुस्सैल पूर्व राजा समझ नहीं आता। मामोसा बने राहुल सिंह का किरदार फिल्म में सबसे अनफिट है। अनीता राज के सर्जरी करवाए हुए होठ और गाल आंखों में किसी चीनी मिट्टी के बर्तन के नुकीले टुकड़े की तरह चुभते हैं।

खैर, फिल्म एक बार देख सकते हैं, बोर नहीं होंगे।

बचकाना, बुरा और बद्तमीज
# एक गे इंटीरियर डिजाइनर का कैरेक्टर गढ़कर पूरी फिल्म में उसका भद्दा मजाक उड़ाना।
# अनुपम खेर जोधपुर की एक रियासत खींवगढ़ (असल में वह खींवसर नाम का रॉयल ठिकाणा है और वहीं के खींवसर फोर्ट में फिल्म की शूटिंग हुई है) के पूर्व महाराज हैं, पर शराब के एक ब्रैंड के संदर्भ में वह बांसवाड़ा जिले का नाम सुनकर उसे भोंसवाड़ा कहते हैं, एक मुख्यधारा की फिल्म में इससे घटिया और बचकाना कुछ हो नहीं सकता। राजस्थान में किसी के लिए बांसवाड़ा फनी नाम नहीं है।
# यहां आते-आते निर्देशक समीर कर्णिक का थोथापन दिखने लगता है। सरदारों या पंजाबियों का जैसा चित्रण यहां है, वह फिल्मों में अब तक इस्तेमाल होती रही उनकी बारह बजने वाली, संता-बंता या कॉमेडी सर्कस के सुरिंदर जैसी बुरे सांचे में बंधी इमेज जैसी ही है। ये खराब बात है। पंजाब में तो सब हंस लेते हैं, पर बाहर के राज्यों में दर्शक सरदारों के प्रति एक असम्माननीय धारणा बना लेते हैं।

चांदनी और वीर की कहानी कुछ यूं है
जोधपुर में एक रियासत है खींवगढ़। यहां के पूर्व राजा हैं चंद्रवीर सिंह राठौड़ (अनुपम खेर)। इनकी वाइफ महारानी देविका (अनीता राज) और चार बेटे हैं। सबसे बड़े पृथ्वी सिंह (चंद्रचूड़ सिंह) के हाथ में हर पल जाम रहता है, उनसे छोटे उदयभान (मुकुल देव) रसिया किस्म के हैं, तीसरे नंबर पर काउबॉय अंदाज वाले गुस्सैल यशवंत (सुशांत सिंह) और चौथे सबसे छोटे हैं वीर विक्रम सिंह (तुषार कपूर) जो ऑक्सफोर्ड, लंदन से अपनी लुधियाना से ताल्लुक रखने वाली माशूका चांदनी (कुलराज रंधावा) को साथ लेकर लौटे हैं। चूंकि गढ़ में वीर की बहन की शादी का माहौल है और पिता हिज हाइनेस चंद्रवीर सिंह को अपनी किसी भी औलाद की शादी किसी गैर-राजपूती गैर-रॉयल खून के साथ कतई बर्दाश्त नहीं है, इसलिए वीर और चांदनी अपने रिश्ते को शुरू से ही छिपाकर सबकुछ ठीक करने की कोशिश करते हैं। पर हालात बिगड़ते जाते हैं और हास्य उत्पन्न होता जाता है। कहानी में वीर के शक्की मामा (राहुल सिंह), चांदनी के मां-पिता (फरीदा जलाल – ओम पुरी) और कान सिंह (जॉनी लीवर) आते जाते हैं। अब पेंच ये है कि वीर-चांदनी क्या चंद्रवीर सिंह को मनाकर शादी कर पाते हैं।
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गजेंद्र सिंह भाटी

Sunday, March 4, 2012

हनुमान जी सी शक्तियां अगर किसी अमेरिकी लड़के में आज होती, तो वह जॉश ट्रैंक की इस फिल्म का किरदार होता

फिल्मः क्रॉनिकल (अंग्रेजी)
निर्देशकः जॉश ट्रैंक
लेखकः मैक्स लैंडिस और जॉश ट्रैंक
कास्टः डेन डहान, माइकल कैली, एलेक्स रसेल, माइकल बी. जॉर्डन
स्टारः साढ़े तीन, 3.5/5

अद्भुत। असरदार। असाधारण होते हुए भी साधारण रहने की कोशिश करती हुई। ये है सिर्फ 27 साल के डेब्युटेंट डायरेक्टर जॉश ट्रैंक की कुशलता से बनी फिल्म 'क्रॉनिकल’। फाउंड फुटेज जॉनर की शायद ये अब तक की पहली नॉन-हॉरर फिल्म है। कहानी है कॉलेज में पढ़ने वाले एंड्रयू (डेन डहान) की, जो एक कैमरा खरीदकर अपनी जिंदगी की हर चीज रिकॉर्ड करनी शुरू करता है। कॉलेज में उसे ताकतवर लड़के दबाते-पीटते हैं, गली में लोकल लड़के और घर में गुस्सैल-हिंसक पिता (माइकल कैली) जो अग्निशमन कर्मी हुआ करता था। एक एक्सीडेंट के बाद उसे जबरन रिटायर होना पड़ा और उसी से वह कुंठित रहता है। एंड्रयू अपनी केंसर से मर रही मां से बहुत प्यार कर रहा है, पर जिंदगी के हर पहलू में वह खुद को कमजोर और शोषित पाता है।

एक दिन पार्टी में पिटे जाने के बाद जब वह बाहर बैठकर रो रहा होता है तो उसके कजिन भाई मैट (एलेक्स रसेल) का दोस्त स्टीव (माइकल बी. जॉर्डन) उसे बुलाता है और कुछ दूर मैदान में हुए रहस्यमयी छेद को वीडियो रिकॉर्ड करने को कहता है। इसमें से बेहद भयंकर कंपन की आवाज आ रही होती है। फिर तीनों छेद में जाते हैं। कुछ दिन बाद तीनों महसूस करते हैं कि उनमें कुछ सुपरह्यूमन शक्तियां आ गई हैं। इन टेलीकनेटिक शक्तियों में ये अपनी दिमागी ताकत से कुछ भी कर सकते हैं। मगर बॉयज विल बी बॉयज। ये अपने दिमाग से संचालित बास्केटबॉल एक-दूसरे पर फैंकते हैं, करीब से गुजर रही लड़कियों के स्कर्ट उड़ाते हैं, डिनर फॉर्क को हाथ पर घोंपने का खेल खेलते हैं, बादलों से ऊपर उड़ते हैं और मॉल में लोगों को डराते हैं। लेकिन ताकत हमेशा जिम्मेदारी के साथ आती है, अगर ध्यान नहीं देंगे तो उसका बुरा असर सामने आता है। फिल्म में भी यही होता है।

'क्रॉनिकल का स्टोरी आइडिया और फिल्ममेकिंग कमाल की है। शुरू में आपको लगता है कि पता नहीं किस बेकार फिल्म को देखने आ गए हैं, मगर खत्म होते-होते ये अपना रुतबा बहुत बढ़ा चुकी होती है। इसके किरदार 'लव सेक्स और धोखाऔर अमेरिकी फिल्म 'टैरी के किरदारों जितने तुच्छ और असली हैं। तो उतने ही 'कैप्टन अमेरिका, 'आयरनमैन और 'सुपरमैन जितने काल्पनिक और महाशक्तिशाली। इस स्मार्ट संकल्पना वाली कहानी का श्रेय जाता है कॉमिक्स और वीडियो गेम्स के दीवाने डायरेक्टर जॉश और ब्रिलियंट यंग स्क्रीनप्ले राइटर मैक्स लैंडिस को। जॉश का निर्देशन कहीं भी कांपता नहीं है। एंड्रयू के रोल में डेन डहान इतने प्रभावी हैं कि ' बास्केटबॉल डायरीज और 'वट्स ईटिंग गिल्बर्ट ग्रैपमें लियोनार्डो डी कैप्रियो के चेहरे-मोहरे और अभिनय की याद दिलाते हैं। डेन काफी आगे जाएंगे। फिल्म का सीक्वल भी बन सकता है और उसमें एलेक्स रसेल मुख्य भूमिका में होंगे। सिनेमैटोग्रफर मैथ्यू जेनसन 'क्रॉनिकल’ को फाउंड फुटेज मूवी बनाए रखने में खरे उतरते हैं। पूरी फिल्म में कहीं नहीं लगता कि ये कोई फिल्म है और इसे कोई कैमरामैन शूट कर रहा है। एक फिल्म की सबसे बड़ी खासियत यही होती है।

मैक्स लैंडिस बहुत कम उम्र में दर्जनों स्क्रीनप्ले लिख चुके हैं और 'क्रॉनिकल’ उनका पहला धमाका है। इसमें एक नयापन है। आधार तो सुपरहीरो फिल्में ही हैं, पर असर कॉपी किया हुआ नहीं लगता।

बरसात में पीछे से हॉर्न मार रहे गाड़ीवाले को एंड्रयू नदी में फैंक देता है, पर ऐसा नहीं है कि यहां ये तीनों दोस्त कुछ सुपरहीरो जैसा करते हैं, ये आम इंसानों की ही तरह डर जाते हैं, एक नदी में कूदता है और ड्राइवर को बचाकर लाता है, फिर 911 कॉल करते हैं, एम्ब्युलेंस बुलाते हैं।

शक्तियां अगर बिन मेहनत के आ जाएं तो कोई लड़का क्या करेगा। पहले तो मसखरी, शरारतें और दूसरों को थोड़ा सताने वाला काम करेगा। फिर अपनी पर्सनल इमोशनल प्रॉब्लम्स से जन्मे गुस्से को खुद पर हावी होकर खुद को बुरा बनने लगेगा। कॉलेज के टेलेंट शो में हिस्सा लेकर शॉर्ट सक्सेस पाने की कोशिश। मां की दवाई के लिए पैसा चाहिए तो एंड्रयू क्या करता है। कोई बैंक नहीं लूटता। वह अपने पिता की पुरानी फायरफाइटर वाली (जो उसपर बहुत ढीली रहती है) ड्रेस पहनकर पहले गली के बदमाश लड़कों को लूटता है। उनके बटुओं में तो बहुत कम पैसे मिलते हैं, फिर पास के पेट्रोल पंप कम ग्रोसरी स्टोर में जाता है, जहां लूट तो लेता है पर जाते-जाते पेट्रोल पंप पर हुए विस्फोट में घायल हो जाता है। अब अगर ये दूसरी सुपर हीरो फिल्म होती तो भला एक मामूली से पेट्रोल पंप पर वह खुद ब खुद घायल क्यों होता। स्पाइडरमैन या कैप्टन अमेरिका या आयरन मैन की तरह ये परफैक्ट उड़ाके नहीं हैं। एक बार तो ये एक हवाई जहाज से टकराते-टकराते बचते हैं।

ये सारी सुपरह्यूमन होते हुए भी अत्यधिक ह्यूमन बने रहने की जो बारीकियां पटकथा में डाली गई हैं, इसी वजह से मैक्स लैंडिस को ब्रिलियंट कहा जाना चाहिए।
*** *** *** *** *** गजेंद्र सिंह भाटी

अच्छा है अब भारत के भीतर से पान सिंह तोमरों की कहानी सुनाने कुछ इरफान, कुछ धूलिया आए हैं

फिल्मः पान सिंह तोमर
निर्देशकः तिग्मांशु धूलिया
कास्टः इरफान खान, माही गिल, विपिन शर्मा, राजेंद्र गुप्ता, नवाजुद्दीन सिद्दीकी, इमरान हस्नी
स्टारः चार, 4.0/5कई सुनहरे दृश्यों में ये एक अटककर साथ चला आया है। पान सिंह नेशनल बाधा दौड़ के ट्रैक पर दौड़ रहा है। कोच रंधावा (राजेंद्र गुप्ता) को जब लगता है कि वह धीरे दौड़ रहा है तो चिल्लाकर कहते हैं, "ओए पान सिंह, मा**** याद रखना, अगर हार गया तो तुझे मार-मारकर यहीं के यहीं गाड़ दूंगा।" जब पान सिंह जीत जाता है तो रंधावा बड़े राजी होते हैं, शाबासी देते हैं, पर वह कुछ नाराज है। रंधावा जब उससे पूछते हैं, तो वह रुआंसा होकर कहता है, "कोच साब आप गुरू हैं, लेकिन दोबारा मां की गाली नहीं देना। हमारे गांव में मां की गाली देने वाले को हम गोली मार देते हैं।" इतना कहकर वह रंधावा के पैर छू लेता है। और वो उसे गले लगा लेते हैं।
अब देखिए कि कितना सहज लेकिन धमाकेदार सीन है। ये फिल्म कुछ ऐसी ही है। हालांकि मैं पान सिंह की विचारधारा से सहमत नहीं हूं, हालांकि ट्रैक पर दौड़ने वाले सीन में इरफान की कमजोर शारीरिक क्षमता साफ दिखती है पर तिग्मांशु का कुशल निर्देशन और आरती बजाज की चतुर एडिटिंग उस हिस्से को छिपाते रहते हैं, पर फिल्म बहुत पंसद आई। रॉ, सुंदर, कथ्यात्मक, रुलाने वाली, बांधे रखने वाली और अनुभवों से भरी हुई।

निर्देशक तिग्मांशु धूलिया पान सिंह नाम के इंसान को कितना गहराई से समझते और हमें समझाते हैं, फिल्म यहीं पर सबसे पहले जीतती है। उनके सभी किरदार कैमरे के अस्तित्व को जैसे नकारकर अभिनय करते हैं। पत्रकार बने बृजेंद्र काला, इरफान खान और माही हमारी सिनेमा देखने वाली इंद्रियों को भीतर तक तृप्त करते हैं। बृजेंद्र का अभिनय, अभिनय कम और किसी महीन डिजाइन वाले स्वेटर की बुनावट ज्यादा लगता है। पान सिंह का इंटरव्यू लेने का उनका पूरा सीक्वेंस यादगार है। इरफान के आर्मी वाले दिनों के जितने भी सीन हैं, बेहतरीन हैं। उनमें वह अपने ही अभिनय में नई परतें जोड़ते हैं। ये उनकी जिंदगी की सबसे कठिन फिल्म है। माही को मैं अब 'देव डी' के लिए नहीं 'पान सिंह तोमर' के लिए याद रखूंगा। ये फिल्म इंडस्ट्री में उनकी इज्जत बहुत बढ़ा जाएगी। इरफान-माही का सबसे कच्चा और पिघला देने वाला सीन है, जब इरफान घर के एक कोने में उनकी पीठ पर बच्चे की तरह अपना सिर टिका देते हैं। मैंने इससे ज्यादा रॉ सीन बरसों से किसी हिंदी फिल्म में नहीं देखा है। फिल्म के आखिर में मुल्क के उन खिलाडिय़ों को ट्रिब्यूट दी गई है, जिन्होंने ताउम्र देश को खेलों में मेडल दिलाए, पर जरूरत के वक्त मुल्क और सरकारों ने उनका साथ छोड़ दिया। फिल्म से 'आओ घर आओ चंदा' और 'जाओ ढल जाओ' जैसे गाने याद आते हैं। कर्णप्रिय और कहानी को रोचक बनाते हुए। फिल्म में पान सिंह तोमर जरूर देखें। प्रभावित होंगे।

कहानी एक तकड़े तोमर की
बहुत स्पष्ट, मेहनती और आम आदमी है पान सिंह तोमर (इरफान खान)। कब का गया 1950 में गांव लौटता है तो फौजी वर्दी में। घर में मां और बीवी इंदिरा (माही गिल) हैं। दौडऩे को वह एंजॉय करता है, इसलिए अपने साथी सैनिकों में सबसे अलग लगता है। वहां मेजर मसंद (विपिन शर्मा) उसकी मदद स्पोट्र्स में जाने में करते हैं। स्टीपलचेज में उसे कोच करते हैं रंधावा (राजेंद्र गुप्ता)। वह जीतता भी है। मगर फिर उसकी जिंदगी उसे खेलों से दूर कर, हाथ में राइफल और नसीब में चंबल के बीहड़ थमा देती है। ये कहानी जितनी औसत लग रही है, परदे पर उतनी ही इंट्रेस्टिंग लगती है। हर पल।*** *** *** *** ***
गजेंद्र सिंह भाटी