Friday, March 23, 2012

दर्शकों को लुभाना है तो मेहनत तो करनी ही पड़ेगीः सैफ अली खान (ओले ओले से एजेंट विनोद तक)

सैफ अली खान होने से पहले वह मेरे लिए कुछ मजबूत छवियां हैं। पहली में वह स्किन टाइट जींस, नुकीले जूतों, लंबे बालों और ढेर सारे छोकरेपन के साथ हीरोइन को प्रभावित करते नाच रहे हैं। गाना है...
जब
भी कोई लड़की देखूं मेरा दिल दीवाना बोले
ओले, ओले, ओले, ओले, ओले, ओले
गाओ तराना यारा झूम-झूम के हौले-हौले
ओले, ओले, ओले, ओले, ओले, ओले
मुझको लुभाती है जवानियां, मस्ती लुटाती जिंदगानियां
माने ना कहना पागल, मस्त पवन सा दिल ये बोले...

1994 में फिल्म ‘ये दिल्लगी’ में गायक अभिजीत की आवाज और विकी सहगल का किरदार सैफ को कितना लोकप्रिय कर गया, ये ओले ओले के बोल और उनके लड़कपन भरे चेहरे को जेहन से लगाए बैठी एक पूरी पीढ़ी बताएगी आपको। जो ‘एजेंट विनो’ देखने जाते वक्त 40 के हो चुके सैफ की उम्र की ओर बढ़ रही होगी। इसी दौर में शामिल हैं परंपरा भी,आशिक आवारा भी,मैं खिलाड़ी तू अनाड़ी भी, बंबई का बाबूभी औरतू चोर मैं सिपाही भी।

दूसरी छवि में हम तुम का करन कपूर भी है और दिल चाहता हैका समीर भी। दोनों ही में वह भले ही पश्चिमी अंदाज में भारतीय आम लड़कों वाले हाव-भाव अपनाकर हास्य सृजित करना चाह रहे थे, पर वक्त बीतने के साथ हमारे लिए समीक्षा से परे बस एक स्मृति बन गए है। एक जरूरी स्मृति। सैफ इन दो फिल्मी किरदारों के ऐसे स्मृति सेतू हैं जो लाखों नए-नवेले पापाओं को उनके कॉलेज और हाई स्कूल के दिनों की यादों से पवित्रता से जोड़ते हैं। दिल अठखेलियां करने लगता है।

तीसरी छवि में एक मल्लखंभ सा गड़ा किरदार है। जैसा फिर कभी न हुआ। लंगड़ा त्यागी। ओमकाराका ईश्वर लंगड़ा त्यागी। खैनी चबाने वाला, अंग्रेजी ओथैलो से निकला और पूर्वांचल के बीहड़ जैसे ओमकारा में घुसा धूसर किरदार। शायद सैफ की जिदंगी का अकेला इतना धूसर पात्र। सिहरन पैदा करता और सर्वस्वीकृत सा। सैफ अली खान एक एक्टर हैं इसकी सबसे बड़ी धमक यहीं सुनाई दी। लंगड़ा ने ही सुनाई। हालांकि एलओसी के कैप्टन अनुज नायर भी थे, बींग सायरस के सायरस मिस्त्री भी और एक हसीना थी के करन सिंह राठौड़ भी। उतने की कठोर। पर कठोरतम लंगड़ा।

ऐसा जरा-जरा सा लग रहा है कि एजेंट विनोद भी जरा-जरा सा भा जाएगा। हो सकता है मेरे जेहन में सैफ की चौथी छवि बनाए। गुंजाइश पक्की नहीं है, पर उम्मीद के बीज बोए हैं। क्योंकि प्रमोशन की इस भागमभाग में उन्हें ऐसे पहले नहीं देखा है। शायद ये जो पिछले एक साल में फिल्म रिलीज होने से पहले नागौर के पशु मेले जैसी प्रचार-प्रसार रैलियां अभिनेता और फिल्मकार मजबूरन निकाल रहे हैं, वो ढाई साल में बनी ‘एजेंट विनोद’ की वजह से सैफ पहली बार महसूस कर रहे थे। उनसे बहुत से साथियों के बीच सामूहिक बातचीत होनी थी। सामूहिक सवाल और उनके जवाब होने थे। सिलसिला शुरू हुआ। कुछ-कुछ वही हुआ। ये प्रचार की थकान थी कि बहुरंगी सवालों से उपजा सतहीपन कि उनके जवाब गहरे नहीं हो पाए। खुद को 'आशिक आवारादिनों से बतौर अभिनेता कैसे विकसित किया है? मेरे इस प्रश्न का उत्तर उन्होंने कितना घुमाकर दिया मैं जानता हूं। मैं उसे जवाब में गिनता ही नहीं हूं। उन्होंने अभिनय को शरीर, उम्र और सुंदरता से जोड़ कर छोड़ दिया। पर कोई शिकवा नहीं। व्यक्तिगत तौर पर वह ठीक हैं। ठीक व्यक्तित्व हैं। हाल ही में मुंबई के एक होटल में एक एनआरआई व्यवसायी से हुई उनकी लड़ाई और गिरफ्तारी वाली छवि के उलट। बातों का छोर लगातार श्रीराम राघवन के निर्देशन में बनी उनकी स्टाइलिश-हाई प्रोफाइल फिल्म 'एजेंट विनोद’ पर ही टिका रहा, जो आज शुक्रवार को सिनेमाघरों में लग गई है। इसलिए सवालों में ज्यादा कोई दूसरी किस्म नहीं है। पढ़िए बातचीत के संक्षिप्त अंशः

(शुरू करने से पहले कुछ बेहद जरूरीः हमने भी 1977 में एक इंडियन बॉन्ड वाली फिल्म बना ली थी। धार्मिक और संस्कारों से भरी फिल्में बनाने वाले श्री ताराचंद बड़जात्या के निर्माणघर राजश्री प्रॉडक्शंस से निकली थी ये पुरानी ‘एजेंट विनोद’। इस पहली इंडियन 'एजेंट विनोद’ में भारत के नामी वैज्ञानिक अजय सक्सेना का अपहरण हो जाता है। हमारी सीक्रेट सर्विस के चीफ इस केस को एक डैशिंग एजेंट के हवाले करते हैं। फिल्म में एजेंट विनोद बने थे पंजाबी फिल्मों के जाने-पहचाने चेहरे महेंद्र संधू। फिल्म में जगदीप भी चंदू जेम्स बॉन्ड के मजाकिया रोल में दिखे थे। महेंद्र संधू ने 1977 यानी इसी साल फिल्म 'विदेश’ में भी सीबीआई एजेंट विनोद का ही छोटा सा रोल किया था। तो आधिकारिक तौर पर वही एजेंट हुए। अब दूसरे विनोद हैं सैफ।)

श्रीराम राघवन के साथ आप पहले 'एक हसीना थीकर चुके हैं। उस फिल्म और 'एजेंट विनोददोनों में से आपको तृप्त करने वाली फिल्म कौन सी थी? तृप्त करने वाली तो 'एजेंट विनोद’ ही है। क्योंकि 'एक हसीना थी’ तो मेरे और श्रीराम के लिए एक तरह से ट्रैनिंग थी एजेंट विनोद को बनाने की। तब मैं और श्रीराम दोनों ही कुछ नया करने की कोशिशों में लगे थे।

आप फिल्म में एक जासूस बने हैं, एक दर्शक के तौर पर आपका पसंदीदा फिल्मी जासूस या बॉन्ड कौन हा है?
' बॉर्न आइडेंटिटी का एजेंट जेसन बॉर्न मेरा फेवरेट है। फिल्म का नहीं नॉवेल का जो रॉबर्ट लुडलम ने लिखा था। हालांकि बॉर्न आइडेंटिटी फिल्म सीरीज में मैट डेमन और उनसे पहले जेसन बॉर्न का किरदार निभाने वाले रिची चैंबरलेन भी अच्छे थे। मैं दोनों की एक्टिंग की कद्र करता हूं, पर मेरा फेवरेट बुक वाला जेसन बॉर्न है।

फिल्म में करीना क्या देसी बॉन्ड गर्ल बनी हैं?
मूवी में वह पाकिस्तानी बॉन्ड गर्ल बनी हैं। रशियन माफिया और एलटीटीई से जुड़ी लगती हैं। विनोद उसका बिल्कुल भरोसा नहीं करता। यहां उनमें रेट्रो एलीमेंट भी लगता है। वो प्रेम चोपड़ा की पर्सनल डॉक्टर हैं। साइड भी बदलती रहती है। उलझाती रहती हैं। बतौर एक्ट्रेस वह रोमैंटिक और बबली रोल में ज्यादा जमती हैं, उन्हें उस खांचे से निकाल ऐसे कठिन रोल में डालना लगने में आसान नहीं, पर उनकी योग्यता वाली अभिनेत्री के लिए ये कोई मुश्किल भी नहीं थी।

शीर्षक एजेंट विनोद ही क्यों रखा?
इस नाम पर पहले भी एक फिल्म बन चुकी है। वह काफी फनी थी। कुछ साइंटिस्ट किडनैप हो जाते हैं और एक जासूस एजेंट विनोद को मिशन मिलता है। इस फिल्म में पल्प फिक्शन मीट्स रेट्रो, डिटैक्टिव मूवीज वाली बात थी। एक ऐसी फिल्म जिसे देख आप किसी कॉमिक या कार्टून स्ट्रिप की कल्पना कर सकें। हमने राजश्री प्रॉड्क्शंस से बात की जिन्होंने 1977 वाली एजेंट विनोद बनाई थी। हमने पूछा कि क्या टाइटल यूज कर लें? हमारी एजेंट विनोद पर काम शुरू हुआ। एक वक्त स्क्रीनप्ले बदलने का सोचा। श्रीराम तमाम बॉन्ड फिल्मों वाले लुक के बावजूद स्क्रीनप्ले बिल्कुल ऑरिजिनल चाहते थे। खैर, फिल्म तैयार है। ये आपको इस जॉनर की पुरानी फिल्मों की याद दिलाती है। ये याद दिलाती है कि हम ऐसी फिल्में भी बनाते थे। ये पल्प फिक्शन भरी भी लगती है, रेट्रो फीलिंग भी देती है और कमर्शियल भी है। शीर्षक तो ऐसे ही अच्छे होते हैं। मिशन इम्पॉसिबल सीरिज की फिल्में तो बाद में बननी शुरू हुईं, पहले इसकी टीवी सीरिज आती थी। टीवी सीरिज से जब फिल्म बनाई गई तो शीर्षक मिशन इम्पॉसिबल ही रखा और उसका पल्पी एलीमेंट कुछ कम कर दिया गया।

विनोद बनना फिजीकली कितना रिस्की और चुनौती भरा था?
बहुत था। एक सीन में मुझे चोट लगी। हैंड स्विंग फट गया था। मैंने ऋतिक को कॉल किया। उसे बुलाया। उसने सलाह दी। कहा कि ऐसे दौड़ो, ऐसे रीटेक कर लो, यहां ध्यान रखो। ये सब चैलेंजिंग था। फन भी था। मैंने योग और डाइटिंग से खुद को फिट रखना चाहा। एक्चुअली ये सब इतना फनी भी नहीं था, सॉरी। काफी अनुशासित होकर सब करना पड़ा। ये जरूरत भी तो थी। एक जासूस को अंडरवेट और छरहरा होना चाहिए। जो कि यूं ही मैंटेन करना कठिन होता है। हां, फिल्म कोई लव स्टोरी हो तो सब आसानी से हो जाता है। हालांकि उसमें भी सुंदर दिखना पड़ता है। फिजीकली एजेंट विनोद जैसे रोल करना आसान नहीं होता। एक्शन करना और वो भी बिना ड्यूप्लीकेट के मुश्किल होता है। और, इसी वजह से मैं एक्शन हीरोज की बड़ी इज्जत करता हूं। अब ऑडियंस को इम्प्रेस करना है तो मेहनत तो करनी ही पड़ेगी। कोई बात नहीं।

आपने हाल ही कहा कि पांच साल इस फिल्म के सीक्वल बनाएंगे?
10-15 दिन से इतनी बकवास कर रहा हूं तो कुछ भी कहता हूं सुबह शाम। जैसे एक बार ये भी कह दिया था। अब कह तो दिया पर सीक्वल पब्लिक डिमांड से बनेगा, हमारे कहने से नहीं। एक बार मैंने एक डायरेक्टर से एक फिल्म के बारे में पूछा कि सीक्वल क्यों नहीं बनाते तो उन्होंने कहा, पागल हो, इंडिया में सीक्वल नहीं बनाया करते। पर अब तो फिल्म के नाम के आगे दो-तीन लगाकर हम बनाने लगे हैं।

करीना की जोड़ी किन एक्टर्स के साथ अच्छी लगती है?
सबके साथ। वह बहुत खूबसूरत है और सब एक्टर भी बड़े हैंडसम हैं तो सबके साथ। शाहरुख के साथ, इमरान, सलमान सबके साथ। किसके साथ उनकी जोड़ी सुंदर नहीं लगती।

श्रीराम राघवन का फिल्ममेकिंग वाला जायका कैसा है?
क्या बताऊं। पहले सीन में ही सोडियम पेंटोथॉल इंजेक्ट करके मुझसे पूछताछ कर रहे हैं। ऐसे हैं श्रीराम राघवन।

अगर विनोद बॉन्ड जैसा ही है तो इसमें इंडियन क्या है?
नहीं, ये बॉन्ड नहीं है, ये पूरा इंडियन कैरेक्टर है। पर जब आप ऐसी एजेंट्स वाली फिल्में बनाते हैं तो कुछ पहले बनी बॉन्ड मूवीज के जरूरी तत्व तो आ ही जाते हैं। जैसे इसमें मोरक्कन ड्रग डीलर्स हैं, रशियन माफिया है, साइबेरिया के सीन हैं। अब कोई जासूस होगा तो वो भला क्या करेगा। आतंकवाद, ड्रग्स, इंटरनेशनल मिशन और ढेर सारा एक्शन। यही सब तो करेगा न। हां, हमारे एजेंट तो रॉ वाले हैं, उनके बारे में खूब पढ़ा भी है पर उन्हें एजेंट के तौर पर कैसे पेश करें।

लेकिन नया करने की कोशिश भी तो की होगी?
थोड़ा नया है तो थोड़ी पुरानी चीजें हैं। एक्शन, अच्छा म्यूजिक, स्टायलिश लोकेशन, से-क-सी वीमन, ये सब होता है ऐसी फिल्मों में और हमारी फिल्म में भी है। श्रीराम ने बड़ी मेहनत की है इंडियन वर्जन बनाने की। जरा सी नकल भी आपको लगेगी तो निराश नहीं होंगे।

फिल्म के संगीत पर विवाद हुआ, धुन चुराने का आरोप लगा?
क्या आपने उस बैंड (ईरानी बैंड बैरोबेक्स कॉर्प ने फिल्म के म्यूजिक डायरेक्टर प्रीतम को लीगल नोटिस भेजा था कि उन्होंने उनकी धुन चुराकर पुंगी बजा कर... गाने में इस्तेमाल की) का मूल गाना सुना या देखा है। बस इंट्रो के बेसलाइन में दो नोट कॉमन हैं ईरानी गाने में, पर वो तो अमिताभ बच्चन की फिल्म लावारिस के गाने जिसकी बीवी मोटी गाने जैसे लगते हैं। मैं ईरानी म्यूजिक इंडस्ट्री की पूरी इज्जत करता हूं, पर उन बैंडवालों को क्या जरूरत थी कि मेरी फिल्म रिलीज होने से इतना पहले ही हल्ला करें। अगर उनका कारण जेनुइन था तो उन्होंने ये वक्त ही क्यों चुना। और फिर जरा सा असर तो म्यूजिक मेकिंग में चलता है न यार।
*** *** *** *** ***
गजेंद्र सिंह भाटी

Wednesday, March 21, 2012

गे अधिकारों को मजबूत करने वाले हाउस म्यूजिक के फ्रांसीसी पुरोधा डेविड गुएटा से बातचीतः शुरुआती संदर्भ माइक मिल्स की फिल्म 'बिगीनर्स' से

मौका: डेविड गुएटा का मार्च में हुआ पहला भारत दौरा

जिनके बारे में बात करने जा रहा हूं, उन पर आने से पहले एक लंबा रास्ता लेता हूं। बात करता हूं एक म्यूजिक और माहौल की। उस म्यूजिक और माहौल को समझने से पहले बात करते हैं 2010 में बनी फिल्म 'बिगीनर्स' की।

बेहद भद्र पुरुष, रूई सी मुलायम जबान बोलने वाले निर्देशक माइक मिल्स की ये फिल्म असल में उनके पिता की ही बायोग्रफी थी। फिल्म में उनके पिता का रोल निभाने वाले 82 साल के कैनेडियन अभिनेता क्रिस्टोफर प्लमर को इस साल फिल्म के लिए ही बेस्ट सपोर्टिंग एक्टर का ऑस्कर मिला। पहली बार इस श्रेणी का ऑस्कर इतनी ज्यादा उम्र वाले व्यक्ति को गया। क्रिस्टोफर को भी जिदंगी का पहला एकेडमी अवॉर्ड मिला। तो 'बिगीनर्स' की कहानी एक पिता-पुत्र के बदलते रिश्तों के बारे में है। हैल (क्रिस्टोफर प्लमर) ने चालीस-पैंतालीस साल तक एक स्वस्थ और सुखी वैवाहिक जीवन अपनी पत्नी के साथ व्यतीत किया है। अब उनकी पत्नी नहीं रहीं। वह विधुर हो गए हैं। 70 से ज्यादा बरस के हैं। वह चाहते हैं कि अपने लैंगिक झुकाव के बारे में वह दुनिया से छिपाना बंद कर दें। वह गे हैं, समलैंगिक हैं, पुरुषों में रुचि रखते हैं। हालांकि इस तथ्य का हैल के संपूर्ण वैवाहिक जीवन पर रत्तीभर भी असर नहीं पड़ा। वह अपनी पत्नी से प्यार करते थे। तो अब वह अपने बेटे ऑलिवर (इवान मैकग्रैगर) को बताते हैं कि वह गे हैं और अपने गे होने को उम्र के बचे वक्त में खुलकर जीना चाहते हैं। मतलब समलैंगिक पुरुषों-युवकों के साथ न सिर्फ घूमना चाहते हैं, प्यार करना चाहते हैं बल्कि मैथुन करना चाहते हैं, संभव हुआ तो संभोग भी करना चाहते हैं।

अपनी मां की हालिया मौत से उबर रहा, अलग रह रहा ऑलिवर चौंकता है और पिता के इस नए सच को पचाने में अलग ही मानसिक स्थिति से गुजरने लगता है। खैर, हैल को कैंसर भी है। वह ज्यादा जिएगा भी नहीं। तो बाहैसियत अच्छे पुत्र ऑलिवर एक स्वस्थ मानस से फैसला लेता है और अपने पिता का समर्थन करता है। अब कैसे हैल नए युवकों को दोस्त बनाने की कोशिश करता है, बीच में अपनी बीमारी से लड़ता है और ऑलिवर अपनी उथल-पुथल से घिरी जिंदगी को समझने-सुलझाने की कोशिश करता है, यही कहानी है। बड़ी प्यारी, ईमानदार और इंसानी कहानी है। हमें बेहतर, सहनशील और सहिष्णु इंसान बनाती है ये फिल्म। तो इसी फिल्म का एक सीन कुछ इस तरह हैः

(ऑलिवर अपने बैडरूम में सो रहा है।)
तभी फोन बजता है। ऑलिवर जाग जाता है, वह बत्ती जलाता है, फोन का जवाब देता है, कैंसर की आखिरी स्टेज पर पहुंच चुका उसका पिता हैल बहुत ज्यादा उत्साह के साथ फोन के दूसरे सिरे से बात करता है।
ऑलिवरः हैलो?
हैलः ऑलिवर?
ऑलिवरः हां!
हैलः सॉरी तो क्यों कहूं कि मैंने तुम्हें जगा दिया.
मैं आज रात अकबर (उनका नया पुरुष मित्र) के वहां गया था.
ऑलिवरः आप गए थे?
(यहां बीच में... अकबर के वहां का दृश्य उभरता है, हैल और उसके दोस्त, ब्रायन और रॉबर्ट, एक भीड़ भरे गे क्लब में अपना रास्ता बनाते हुए आते हैं. हैल वहां सबसे ज्यादा उम्र का है, और शायद वहां पर सबसे ज्यादा उत्साहित व्यक्ति है.)

हैलः वहां वो लोग बड़ा शानदार ऊंची आवाज वाला म्यूजिक बजा रहे थे. वो क्या म्यूजिक था ऑलिवर?
ऑलिवरः शायद... हाउस म्यूजिक!
हैल एक हाथ से फोन कान पर लगाए, दूसरे हाथ से एक पैड और पेन उठाता है, ये लिखने के लिए।
हैलः हा-उ-स म्यू-जि-क (धीरे-धीरे मुंह से बोलते हुए पैड पर लिखता है)
(फिर से अकबर के वहां का सीन उभरता है.. कुछ यंग गे लड़के नाच रहे हैं. हैल किनारे खड़ा है, खुद ही नाच रहा है. हवा में हाथ खड़े किए हुए उंगलियों को नचाते हुए)

ऑलिवरः तो क्या आप वहां किसी से मिले?
उस खचाखच भरे बार में हैल अकेला ही ड्रिंक करता है...
हैलः बेटा, यंग गे आदमी दरअसल किसी बूढ़े गे आदमी के पास नहीं जाते.
(बातचीत खत्म होती है, ऑलिवर सोने जाता है और सीन खत्म हो जाता है)

तो जिस हाउस म्यूजिक नाम को दो शब्दों पर ये सीन जानदार बना हुआ है, मेरे आज के मेहमान भी उसी हाउस म्यूजिक के बड़े नाम है। उन्हें हाउस म्यूजिक की खोज करने वाला भी कहा जाता है। ये हैं डेविड गुएटा फिलहाल जानी पहचानी पत्रिका डीजे मैग-100 के लोकप्रियता नक्शे के मुताबिक विश्व के शीर्ष डीजे यानी डिस्क जॉकी। माने दुनिया के नंबर वन डीजे। डेविड फ्रेंच हाउस म्यूजिक बनाते हैं, रिकॉर्ड्स यानी एलबमों का निर्माण करते हैं, गाने लिखते हैं, गाते भी हैं और डीजेइंग करते हैं। उनके कई गाने और एलबम की प्रतियां पूरी दुनिया में लाखों की तादाद में बिकी है। कुछ तो सर्वाधिक। वह संगीत के ऑस्कर कहे जाने वाले ग्रैमी पुरस्कारों में भी अपने संगीत की वजह से साल 2012 समेत सात बार नामित हो चुके हैं।

फ्रांस के डेविड पॉप म्यूजिक बनाते हैं। इलेक्ट्रो और हिप-हॉप के फ्यूजन वाला। उनकी सृजित बीट्स के लाखों युवा दीवाने हैं। मुझे तो हालांकि ये सब ज्यादा नहीं भाता, पर हां, उनकी इलेक्ट्रॉनिक स्टाइल्स और डिजाइनिंग बड़ी चर्चित हैं। इसी में उनके डीजे होने की क्षमता नजर आती है। तो माइक मिल्स की फिल्म बिगीनर्स की बात का संदर्भ इस पूरे किस्से में जरूरी ही इस लिहाज से था कि डेविड ने वही हाउस म्यूजिक गढ़ा या जन्मा जिसके आधार में समलैंगिकों के अधिकार और उन्हें समाज में बाकियों जितनी बराबरी दिलाने का आंदोलन शुरू हुआ था।

जब फिल्म में 72 साल का कैंसर से जूझ रहा समलैंगिक हैल अपने बॉयफ्रेंड के पास से घर लौटकर आधी रात को अपने बेटे ऑलिवर को फोन लगाता है। कि, वो कौन सा म्यूजिक वहां बज रहा था, और ऑलिवर कहता है कि संभवतः हाउस म्यूजिक और बड़े चाव और बच्चे सी सीखने की नई-नई आई ललक से ये बुजुर्ग कॉपी पर लिखता है हा------ म्यू---जि----क। कितना दुर्लभ दृश्य। हमारे मुल्क में आर्टिकल 377 पर रुढ़िवादी सोच वाले करोड़ों हैं, जो बीचवाले बोलकर हमारे ही जैसे किन्हीं इंसानों की मजाक उड़ाते हैं। मैं लिख रहा हूं तो न जाने मेरे उनका पक्ष लेने को भी कैसे देखा जाए, पर मेरे लिए मुद्दा नहीं।

तो डेविड गुएटा इस महीने दिल्ली, पुणे और बेंगलुरु में प्रदर्शन करने पहली बार भारत आए थे। 9, 10 और 11 मार्च को उनका प्रदर्शन था। एक नामी शराब कंपनी की ओर से आयोजित इस इलेक्ट्रॉनिक मेले में पिछले साल ब्रिटेन के इसी म्यूजिक के दिग्गज आए थे। इस दूसरे एरिस्टॉफ इनवेजन फेस्टिवल में सिर्फ डेविड थे और उन्हें सुनकर झूमने वाले लाखों युवा। भारत में या तो डेविड गुएटा के आने पर चर्चा होती है या फिर इंडो-ब्रिटिश म्यूजिक कंपोजर और प्रोड्यूसर नितिन साहनी। मुझे सार्थकता के लिहाज से नितिन बेहतरीन लगते हैं। तो ई-वार्ता के जरिए बात हुई इस साल 2012 में फिर से दो ग्रैमी पुरस्कारों के लिए नामित डेविड गुएटा से। प्रस्तुत है वार्ता के बेहद संक्षिप्त अंशः
डीजेइंग कहां से सीखी?
यंग था तभी से क्लबों में डीजेइंग करने लगा था।

इंडिया के म्यूजिक पर।
सच कहूं तो इंडियन म्यूजिशियंस के बारे में इतना जानता नहीं हूं। पर जब तक इंडिया में रहूंगा यहां का ज्यादा म्यूजिक सुनूंगा।

डेविड गुएटा के पास बचपन, फैमिली और अपने दौर की क्या यादें हैं?
मुझमें हमेशा से म्यूजिक के प्रति पागलपन था। जब 12 साल का था तो फ्रांस में एक 'पायरेट रेडियो हुआ करता था। फ्रांस में ये एफएम रेडियो की शुरुआत थी। 80 का दशक था। तब फंक म्यूजिक था, डीजे लोग क्लबों में आते थे और म्यूजिक मिक्स करते थे। कोई प्रोग्रैम डायरेक्टर नहीं होते थे। डीजे अपनी मर्जी से कुछ भी प्ले करते थे और ये देख मैं दीवाना हो गया था। मेरे घर से कोई डीजे या क्लब में काम करने वाला नहीं था। ऊपर से 'पायरेट रेडियो’ जैसी चीजों की घरों में मनाही थी। तो बतौर टीनएजर मेरे लिए बड़ा एक्साइटिंग वक्त था। मैं उन डीजे लोगों की तरह मिक्सिंग करना चाहता था। इसलिए रोज स्कूल के बाद सीखना शुरू किया। जब 18 का हुआ तो मैंने हाउस म्यूजिक खोजा। फ्रांस में ऐसा म्यूजिक बजाने वाला मैं पहला डीजे था। मैं लंदन गया और वहां के रेव क्लब 'शूम’ के बीचोंबीच ब्रिटिश हाउस डीजे डैनी रैंपलिंग को प्ले करते हुए देखा। इस सीन ने मेरी जिंदगी बदल दी। हाउस म्यूजिक, म्यूजिक में भी क्रांति थी और समाज में भी क्योंकि इसने लोगों की सोच को खोला। ये म्यूजिक गे क्लबों में शुरू हुआ इसलिए ये एक-दूसरे को स्वीकार करने के बारे में था। जब नॉन-गे यानी सीधे सेक्सुअल झुकाव वाले लोगों ने हाउस म्यूजिक को स्वीकारा तो इसे देखने का तरीका बदल गया। हजारों यंगस्टर्स रेव और क्लबों में जाने के लिए मिलने लगे। ये रेडियो पर चलने वाला म्यूजिक नहीं था, बल्कि एक सीक्रेट कोड बन गया था।

ग्रैमी नामांकन पर।
ग्रैमी अवॉर्ड के लिए नॉमिनेट होना सम्मान की बात है। ये मेरा आठवां नामांकन रहा। इस बार हमारे म्यूजिक सीन पर खास ध्यान दिया गया है। म्यूजिक शोकेस करने के लिए उन्होंने अलग माहौल बनाया है। और डीजे स्क्रिलैक्स, यार, इस बार तो उसने कमाल कर दिया है!

फिल्मी, क्लासिकल और फोक म्यूजिक भी पसंद करते हैं?
हालांकि मेरी जड़ें डांस म्यूजिक में है, पर किंग्स ऑफ लियोन और कोल्डप्ले जैसे आर्टिस्ट भी मुझे प्रभावित करते हैं। निकी रोमैरो, एफ्रैजैक, स्क्रिलैक्स और एवीचि जैसे नए प्रॉड्यूसर भी अच्छे हैं। जो भी म्यूजिक के प्रति पैशनेट हैं, मुझे प्रेरित करते हैं। मुझे क्लबों से भी प्रेरणा मिलती है, कि कैसे वहां लोग अलग-अलग बीट पर प्रतिक्रिया देते हैं, कैसे वो नाचते हैं।

तुरत फुरत में कुछ और उनके बारे में....
# फरवरी 2012 में हुए ग्रैमी पुरस्कारों में डेविड को 'सनशाइन और 'नथिंग बट बीट के लिए दो ग्रैमी नामांकन मिले।
# यूरोप और अमेरिका में डेविड का काम धुंआधार बिकता है।
# इनके चर्चित एल्बम हैं, जस्ट लिटिल मोर लव (2002), गुएटा ब्लास्टर (2004), पॉप लाइफ (2007), वन लव (2009) और नथिंग बट बीट (2011)।
# डेविड के नए एलबम ‘नथिंग बट द बीट’ में 17 स्टार आर्टिस्ट दिखते हैं। इनमें स्नूप डॉग, लूडक्रिस, टिंबलैंड, विलियम, रैपर निकी मिनाज, लिल वेइन, आर एंड बी सुपरस्टार अशर, क्रिस ब्राउन और एकॉन शामिल हैं।
# ब्राजील के कोपाकबाना बीच पर हुई दुनिया की सबसे बड़ी न्यू ईयर पार्टी में उन्होंने 20 लाख फैन्स के सामने भी म्यूजिक प्ले किया था।

*** *** *** *** ***

गजेंद्र सिंह भाटी

Monday, March 19, 2012

मीठे मनोरंजन व संभोग रूपी आधुनिकता में टंगे नैतिक फूल

फिल्मः दिस मीन्स वॉर (अंग्रेजी)
निर्देशकः एमसीजे (जोसेफ मेक्गिंटी निकोल)
कास्टः रीस विदरस्पून, टॉम हार्डी, क्रिस पाइन, चेल्सिया हैंडलर
स्टारः ढाई, 2.5

'चार्लीज एंजेल्स’ और 'टर्मिनेटर साल्वेशन’ वाले डायरेक्टर एमसीजी की ये फिल्म कोई कल्ट होने का दावा नहीं करती। हल्का-फुल्का एंटरटेनमेंट देना था और देकर जाती है। ये दो दोस्त लड़कों को एक ही लड़की से प्यार होने वाला फंडा भी नया नहीं है, बहुत ही घिसा-पिटा है, पर फिल्म में हमें इससे बोरियत नहीं होती। वक्त-वक्त पर हंसी के फुहारे आते रहते हैं। मसलन, खंडित दांत वाले ब्रिटिश एक्टर टॉम हार्डी का खुलकर हंसना और फिर सीरियस हो जाना। उनका एक्सेंट भी रोचक है। रीस विदरस्पून के किरदा के दोस्त ट्रिश के रोल में चेल्सिया हैंडलर बेहद खिलखिलाने वाली हैं। खासतौर पर जब वह अपने मोटे पति और अपनी मैरिड फिजिकल लाइफ पर चटपटी बातें करती हैं। मॉरीन को दोनों लड़कों के साथ रिलेशन बनाने की सलाह खुद जोर-शोर से वह देती है, लेकिन जब मामला बिगड़ जाता है और मॉरीन पूछती है तो वह कहती है कि मैंने तो पहले ही कहा था कि दो-दो लड़कों के साथ प्यार मत करो। जाहिर है आप हंसते हैं।

फिल्म में कोई अप्रत्याशित हंसी वाली बातें नहीं हैं, वही हैं जो हम सुन चुके हैं, पर फिर भी काफी हैं। पर यही तो होना भी चाहिए न। जो महाकाव्यात्मक फिल्मों के साथ मनोरंजन देने के लिए बीच-बीच में टाइमपास किस्म की फिल्में आती हैं, जो किसी पर कोई बुरा असर नहीं छोड़ती हैं और थियेटर में जाने के आपके मूलभूत उद्देश्य को पूरा करती है। मुझे लगता है और दिखता है कि फिल्म बनाने वाले एमसीजी के भीतर के निर्देशक की बुनियाद में कहीं न कहीं वो सार्वभौमिक मसाला कहानी कहने वाला और नैतिक शख्स छिपा है, जो हिंदी फिल्मों में भी है, तमिल-तेलुगू में भी और पारंपरिक अमेरिकी फिल्मों में भी। जैसे, फिल्म में संभोग पर कई सीधे मजाक हैं, जो मॉरीन और उनकी दोस्त ट्रिश के बीच होते हैं, इससे फिल्म बड़ी बोल्ड भी लगती है कि भई यहां तो ऐस-ऐसे संवाद और एडल्ट बातें हैं। एफडीआर और टक के बीच शर्त भी यही लगती है कि ठीक है हम दोनों जेंटलमैन की तरह कोशिश करते हैं, पर ईमानदारी से उस लड़की के लिए बेस्ट जो है वही उसे मिले। जिससे वो प्यार करती है, उसके लिए दूसरा रास्ता खाली कर दे। पर ये पता लगने से पहले कि मॉरीन किससे प्यार करती है दोनों के बीच मीठी लड़ाई चलती रहती है। इसमें मॉरीन को डेट पर ले जाना और उसे पहली बार किस करना भी शामिल है।

यहां तक हमें लगता है कि काफी प्रगतिशील बातें हो रही हैं, जाहिर है दोनों दोस्त में से एक की तो वह नहीं हो पाएगी, लेकिन किस तो दोनों ने ही कर लिया। फिर वह वक्त भी आता है जब दोनों के साथ वह संभोग करे। फिल्म में हीरोइन और दोनों हीरो व्यक्तिगत तौर पर इसके लिए तैयार भी दिखते हैं। पर आखिर में टक एफडीआर को बताता है कि मैंने संभोग नहीं किया था। यानि निर्देशक साहब पारंपरिक निकले। आधुनिकता कितनी भी आधुनिक कर दे, समाजों के नैतिक मापदंड और नैतिक होने से जुड़े सम्मान-असम्मान नहीं बदलते। आखिर में ट्रिश भी मॉरीन को यही करती है कि मेरा पति मोटा है, पर मेरा मोटा है। और कोई ऐसा हो जो आपको दिल--जान से चाहे तो उस मौके और प्यार को गंवाना नही चाहिए। तो वही बात है साहब। कहानी का मूल प्रारूप, मध्य और अंत वही है, और समाज को मसाला फिल्मों के बीच भी पूंजीवादी अमेरिकी फिल्म तमाम प्रायोजनों में फंसने के बाद मोक्ष पाने का और बेहतर फैसले लेने का वही साम्यवादी तरीका सुझाती है, जो सही होता है।

दो दोस्तों के बीच इश्क युद्धः कहानी
बड़े मजेदार, डैशिंग और अच्छे इंसान हैं ये दो सीआईए एजेंट दोस्त। फ्रैंकलिन उर्फ एफडीआर (क्रिस पाइन) और टक (टॉम हार्डी)। दोनों एक जर्मन क्रिमिनल हैनरिक के पीछे लगे हैं। एक भिड़ंत में हैनरिक तो भाग जाता है और पीछे कई लाशें रह जाती हैं, जबकि उन्हें ये सब अंडरकवर करना था। तो उन्हें कुछ दिन डिपार्टमेंट अडरग्राउंड कर देता है। खाली वक्त में दोनों को एक ही लड़की लॉरीन (रीस विदरस्पून) से प्यार हो जाता है। लॉरीन भी अपनी बेस्ट फ्रेंड ट्रिश (चेल्सिया हैंडलर) के सिखाने पर दोनों से ही प्यार किए जाती है। अब लॉरीन को पाने के लिए एफडीआर और टक के बीच मीठा सा वॉर शुरू हो जाता है। उधर हैनरिक भी लौटेगा, ये तय है।*** *** *** *** ***
गजेंद्र सिंह भाटी

Thursday, March 15, 2012

"रचनात्मकता इंग्लिश लिट्रैचर होनी चाहिए, सब फिल्में हिट होने लगीं तो मैथेमैटिक्स हो जाएंगी"

कहानी की रिलीज और सफलता से पहले भारत देश की जनता को इनका नाम भी नहीं पता था। अब लोग जानना चाह रहे हैं कि विद्या बालन को लेकर एक बेहतरीन बंगाली जायके वाली थ्रिलर बनाने वाला ये बंदा कौन है। ये हैं यंग राइटर-डायरेक्टर सुजॉय घोष। 2003 में आई इनकी पहली फिल्म झनकार बीट्स.डी.बर्मन उर्फ पंचमदा के म्यूजिक को याद करती उनकी इस फ्रैश फिल्म को लोगों ने, खासतौर पर युवाओं ने चाहा, पसंद किया। इसके बाद सुजॉय विवेक ओबेरॉय, बोमन ईरानी और आयशा टाकिया के अभिनय वाली च्छी फिल्म होम डिलीवरी लेकर आए, पर न जाने क्यों फिल्म को तारीफ के बजाय दुत्कार मिली। फिर बारी थी अमिताभ बच्चन, रितेश देशमुख और श्रीलंकाई अभिनेत्री जैक्लीन फर्नाडिस के साथ बच्चों की कहानी अलादीन के मॉडर्न-एनिमेटेड-बॉलीवुड संस्करण की। फिल्म थी अलादीन। फिल्म नहीं चली। तो अब कुछ वक्त के बाद सुजॉय लौटे हैं ‘कहानी’ के साथ। लंदन से अपने पति की तलाश में कोलकाता आई विद्या बागची की इस कहानी में एक सशक्त स्क्रिप्ट और चतुर निर्देशन छिपा है। फिल्म रिलीज होने से पहले सुजॉय से ये वार्ता हुई। इस संक्षिप्त बातचीत में हालांकि उनके फिल्मकार बनने की यात्रा और फिल्म लेखक होने की गहराई में नहीं जाया जा सका, पर उन्होंने तकरीबन हर सवाल और विश्लेषण का हल्का और तुरत उत्तर दिया। उन्होंने मेरे शहर आने की इच्छा भी जताई, हां, शर्त या अनुरोध एक ही था कि मक्के की गरमा-गरम रोटी पर सफेद बटर चाहिए, जो वो दबाकर खाएंगे। बातचीत के कुछ अंशः

जर्नी डायरेक्टर बनने की?
मुंबई आया काम के लिए तो सबकी तरह मैंने भी एक स्क्रिप्ट लिखी। ये झंकार बीट्सथी। लोगों ने पढ़कर भगा दिया कि आ गया अजीब सी स्क्रिप्ट लेकर। कुछ ने कहा खुद ही बनाओ। तो नौकरी छोड़ी और फिल्म बनाई। सिर्फ यही कहूंगा कि डोन्ट गिव अप। दूसरों पर कभी निर्भर नहीं रहो। आप अकेले पचास बराबर हो।

कहानी की कहानी कहां से आई?
आपकी मां, मेरी मां और सबकी मां की कहानी है। औरत को कुछ होता है जब वो मां बन जाती है। अजीब सा चेंज आता है उसमें। जिसने कभी खाना नहीं बनाया वो खाना बनाना सीख जाती है, जो कभी पढ़ी नहीं वो पढ़ना सीख जाती है। हर काम वो खुशी-खुशी करती है। लड़की पहले कुछ और होती है और मां बनने के बाद कुछ और हो जाती है। वो अपने बच्चे को प्रोटेक्ट करने के लिए कुछ भी करेगी। आप अंगुली भी दिखाएंगे, तो आपकी गां* मा*** रख देगी। भगवान के करीब मां ही होती है। तो मुझे देखना था कि एक औरत में ये चीज कहां से आता है। एक प्रेग्नेंट औरत को आप अनजाने माहौल में डाल देंगे, अलग भाषा, शहर और लोगों के बीच... तो वो इसका सामना कैसे करेगी। यहीं से फिल्म का ख्याल आया। जब इश्किया की शूटिंग शुरू होने को थी तब मैंने और विद्या ने सोचा था। तब ये सिर्फ आइडिया था। मैं अलादीन की कहानी पर भी काम कर रहा था। फिर ‘अलादीन’ बनी थी, बुरी तरह फ्लॉप भी हुई।

इसमें बहुत से बंगाली थियेटर एक्टर्स भी हैं...
सब कोलकाता से हैं। फिल्म की डिमांड थी। कोलकाता की खूबी इसमें है कि आप परदे पर उसे कैसे दिखाते हैं और उसमें जो इंसान बसते हैं वो उस शहर का दिल हैं। बॉलीवुड में बंगाली दिखाए जाते हैं पर असल में बंगाली वैसे नहीं होते। तो मुझे असली बंगाली दिखाने थे। फिल्म में जो यंग सा एक्टर विद्या के साथ भागदौड़ करता दिखता है वो कोलकाता का ही एक्टर है परमब्रत चैटर्जी। बहुत टैलेंटेड है।

स्क्रिप्ट लिखते वक्त क्या मैनस्ट्रीम हिंदी मूवीज में अलग बंगाल दिखाना चाहते थे?
जब मैंने लिखा तो एक चीज क्लीयर थी कि फिल्म में दो हिरोइन है, एक विद्या, दूसरा कोलकाता। अब विद्या को तो स्क्रीन पर दिखा सकता हूं, कोलकाता को कैसे दिखाऊं, ये चैलेंज था। ऐसा कोलकाता दिखाना कि लोगों को उससे प्यार हो जाए। तो जो मेरा तजुर्बा था, पढ़ते, खेलते-कूदते और बड़े होते वक्त, तब जो कोलकाता मैंने देखा और जिया वो मैंने फिल्म में दिखाया है। यहां बहुत सी जगह शानदार हैं, पर ये देखना था कि वो शूटिंग फ्रेंडली भी हो। तो पहले मैं जाकर रहा वहां और देखा कि कहां पर शूटिंग आसान रहेगी।

‘होम डिलीवरी’ और ‘अलादीन’ नहीं चली, उसके बाद क्या था दिमाग में?
कुछ नहीं। सबने बोला कि ऐसी फिल्में मत बनाओ। कमर्शियल बनाओ। पर मैं वही बनाता हूं जो बनाना चाहता हूं। फ्लॉप होनी भी जरूरी है। वरना तो सभी हिट बना देगे। नहीं तो क्रिएटिविटी का मतलब क्या होगा रचनात्मकता इंग्लिश लिट्रेचर होनी चाहिए, सब हिट होने लगी तो मैथ बन जाएंगी।

फेवरेट फिल्में और फिल्ममेकर?
ऑलटाइम फेवरेट सत्यजीत रे। फिर स्टीवन स्पीलबर्ग। मनमोहन देसाई और यश चोपड़ा की फिल्में देखकर बहुत कुछ सीखा।घायल बहुत पसंद,अंदाज अपना-अपना बहुत पसंद। अमिताभ बच्चन की कोई भी फिल्म। मुझे तो हजारों फिल्में पसंद हैं। अभी फ्लाइट से लौटा हूं तो पूरे रास्ते कालीचरणदेखी। मुझे उसका एक-एक डायलॉग याद है। मूवी में कुछ न कुछ होना चाहिए। ऋषिकेश मुखर्जी जैसे लोग हुए। ये सब लोग क्या फिल्में बनाते थे। दिल में घुस जाती थीं।

इन दिनों आई फिल्मों में?
बेस्ट स्क्रीनप्ले मेरे हिसाब से ‘लगे रहो मुन्नाभाई’। मेरी बहुत-बहुत फेवरेट मूवी है।

सबको राजकुमार हीरानी ही क्यों पसंद हैं?
वो सिंपल स्टोरीटेलर हैं। हार्ट जो होता है न उनकी पिक्चर में, वो मैं पसंद करता हूं। मुझे बहुत पसंद हैं उनकी फिल्में, पर न तो मैं वैसी बनाऊंगा, न बना सकता हूं। उसके लिए कुछ धारणा और टेलंट चाहिए। परलगे रहो...’ अच्छी है तो इसका मतलब ये नहीं कि ‘सलाम नमस्ते’ अच्छी नहीं है, कि ‘जॉनी गद्दार’ या ‘एक हसीना थी’ अच्छी नहीं है। ये सब बहुत अच्छी हैं। मुझे तो ‘कल हो न हो’ भी बड़ी पसंद हैं। करण जौहर भी मेरे फेवरेट्स में से हैं।

कैसी फिल्में बनाना चाहते हैं?
मुझे बस वही कहनी-बतानी हैं जो मैं कहना चाहता हूं। ऐसी कहानी जो मैंने सुनाई और किसी ने सुनी।

सुनील गांगुली की कहानी ‘अरण्येर दिन रात्रि’ पर फिल्म बनाएंगे क्या? क्या है कहानी और कास्टिंग वगैरह के बारे में बताइए?
उसके राइट्स लिए हैं। हिंदी में। फिलहाल तो उस नॉवेल के साथ एक साल बिताना है, फिर बाकी चीजें होंगी। कुछ मैच्योर उलझी सी स्टोरी है।

‘झनकार बीट्स’ का सीक्वल बन रहा है, आप ही डायरेक्ट करेंगे?
ये तो प्रीतिश नंदी साहब प्रोड्यूसर हैं, वही तय करेंगे।

अपनी पहली फिल्म तक तो आप बेहद प्राकृतिक, निर्मल और ईमानदार लग रहे थे, फिर ऐसा क्यों हुआ कि ‘अलादीन’ तक आते-आते नजर आने लगा कि आप बहुत ज्यादा प्रयास कर रहे हैं, लेकिन लोगों से जुड़ नहीं पा रहे हैं?
मैंने कभी कुछ साबित करने को मूवी नहीं बनाई। अलादीन बहुत बड़ी फिल्म थी। उसने डिमांड किया कि अगर बच्चों की मूवी बना रहा हूं तो कहीं उसका बैंचमार्क तो होना ही चाहिए। इंडिया में जो बच्चे आज ‘हैरी पॉटर’ देखते हैं, उन्हें मैं पुराने स्टूपिड से स्पेशल इफैक्ट्स तो नहीं दिखा सकता था न। तो ‘अलादीन’ में कुछ बनाने का प्रैशर था कि इसमें मैं वो दिखाऊं जो पहले किसी फिल्म में नहीं दिखाया गया है। और ऐसा हुआ भी। मेरी इ फिल्म में ऐसे सीन और विजुअल इफैक्ट्स थे जो इंडिया में तो क्या वर्ल्ड सिनेमा में भी कहीं नहीं दिखाए गए थे। और, ये सब इस फिल्म की कहानी की मांग थी। अगर ये आगे भी किसी फिल्म में करना पड़ा तो मैं करूंगा। अगर कहानी की डिमांड है कि मैं रस्ते में जाकर नंगा हो जाऊं, तो हो जाऊंगा। जैसेअरण्येर दिन रात्रि मैं हमें जंगल के अंदर की जिंदगी को शामिल करना है, तो मैं जाऊंगा और बहुत दिन जंगल में रहूंगा, वहां शूट करूंगा।
*** *** *** *** ***
गजेंद्र
सिंह भाटी