Sunday, February 26, 2012

मार्क वॉलबर्ग की बाकी फिल्मों सी तृप्ति यहां भी

फिल्म: कॉन्ट्राबैंड
निर्देशकः बाल्टसर कॉर्मेकर
कास्टः मार्क वॉलबर्ग, केट बेकिंगसेल, जियोवानी रिबिसी, सालेब लॉन्ड्री जोन्स, बेन फॉस्कर
स्टारः ढाई, 2.5/5

कभी स्मग्लिंग की दुनिया का जादूगर कहलाने वाला क्रिस (मार्क वॉलबर्ग) अब घरों में सिक्योरिटी अलार्म और कैमरा लगाने का ईमानदारी भरा काम करता है पर उसकी वाइफ केट (केट बेकिंगसेल) के भाई एंडी (सालेब लॉन्ड्री जोन्स) ने खुद को मुसीबत में डाल लिया है। उसे एक खतरनाक गुंडे टिम (जियोवानी रिबिसी) के ड्रग्स के सात लाख डॉलर दो हफ्ते में चुकाने है। हालात को देखते हुए क्रिस पनामा से एक करोड़ डॉलर के नकली बिल स्मग्ल करने का फैसला करता है। अपने बेस्ट फ्रैंड सबैश्यिन (बेन फॉस्टर) को अपनी वाइफ औ दो बेटों की हिफाजत करने के कहकर वह निकलता है। उसका रास्ता बड़ा मुश्किल है, लेकिन हारने का विकल्प उसके पास है नहीं।

आइसलैंड मूल के निर्देशक बाल्टसर कॉर्मेकर की 'कॉन्ट्राबैंड' को मैं बुरी फिल्म नहीं मानूंगा। ये चौंकाती बहुत कम जगहों पर है, पर ले-देकर जोड़े रखती है। एक हद तक थ्रिल पूरी फिल्म में बनी रहती है। तकनीकी तौर पर फिल्म में कहीं कोई खामी नहीं है, बस हम कुछ अनोखा नहीं पाते हैं। कहानी के लिहाज से भी हम मिलती-जुलती ढेरों फिल्में देख चुके हैं, इसलिए फिल्म खास नहीं हो पाती। हां, दो घंटे से कुछ कम का ये वक्त बीत जाता है और आप ऊबते नहीं हैं। जैसा कि मार्क वॉलबर्ग की मौजूदगी वाली फिल्मों में होता है, उनका एक अपना लहजा और सीधी-सपट एक्टिंग होती है। बस सारा ध्यान फिल्म और दर्शकों के साथ-साथ चलने पर होता है। उनका काम हमेशा डीसेंट होता है।

बेन फॉस्टर गहरे हैं। उनकी बोलती आंखें और पत्थर सा जड़ चेहरा अदाकारी में सबसे ज्यादा यूज होते हैं। जियोवानी रिब्सी को आप 'फ्लाइट ऑफ फीनीक्स' के सहमते लेकिन घमंडी और जिद्दी इलियट के तौर पर देख लें या और ' रम डायरी' के रमबाज फक्कड़ राइटर के रूप में, सब में सनकी होने की बात कॉमन है। इस फिल्म में भी वो सनकी, टैटू गुदाए, ड्रग क्रिमिनल बने हैं। 'कॉन्ट्राबैंड' देखी जा सकती है, अगर रेग्युलर हॉलीवुड मसाला देखना चाहें तो। चूंकि गति ठीक-ठाक है इसलिए देखते वक्त तसल्ली बनी रहती है।*** *** *** *** ***
गजेंद्र सिंह भाटी

Sunday, February 19, 2012

“एक रोज किशोरवय पान सिंह दुकान मिर्च लेने जाता है, और एक-डेढ़ साल लौटकर ही नहीं आता”

अभिनेता इरफान खान और निर्देशक तिग्मांशु धूलिया से बातचीत

'स्टार बेस्टसेलर्स और 'चाणक्य जैसी टीवी सीरिज में नजर आने वाला वह मेंढक जैसी बड़ी आंखों वाला एक्टर आज इंडिया की सबसे रईस फिल्मी प्रोफाइल वाला सेलेब्रिटी बनता जा रहा है। नहीं तो आंग ली जैसे प्रशंसित इंटरनेशनल निर्देशक की बहुप्रतीक्षित फिल्म 'लाइफ ऑफ पी में वह क्यों लिया जाता? नहीं तो स्पाइडरमैन फ्रैंचाइजी की आने वाली फिल्म ' अमेजिंग स्पाइडरमैन के लिए जब सिर्फ एक फिल्म पुराने निर्देशक मार्क वेब ने कास्टिंग करनी शुरू की तो उसे ही क्यों चुना? वह एक्टर 2 मार्च को बड़े परदे पर इस बार जब उतरेगा तो ख्यात एथलीट और कुख्यात डकैत पान सिंह तोमर बनकर। ये वह हैं इरफान खान। टौंक मूल के जयपुर से ताल्लुक रखने वाले सीधे-सपाट अभिनेता। उनसे पा सिंह तोमर के संदर्भ में बातें हुईं। साथ में सक्षम निर्देशक और फिल्म लेखक तिग्मांशु धूलिया भी थे। तिग्मांशु साहिब बीवी और गैंगस्टर का भाग-2 बना रहे हैं। इसमें इरफान भी होंगे। दोनों ठोस बातें करते हैं और पूरी सहमति-असहमति के साथ करते हैं। कोई लाग-लपेट नहीं, किसी प्रकार की कोई औपचारिक लोकालाज नहीं। चेहरे पर कोई नकली मुस्कान नहीं। बातें हुईं। सामूहिक सवालों के बीच मेरे चुभते प्रश्न भी थे, और हर प्रश्न पर दोनों की ओर से तकरीबन असहमति का भाव था। मंशा अपनी कला में सक्षम इन दोनों कलाकारों को असहज करने की नहीं थी, बल्कि उन्हें उस मनःस्थिति में डालने की थी, जिसमें रहकर सोचने की जरूरत है। बातचीत के कुछ अंशः


पान
सिंह का नाम पहली बार तिग्मांशु के मुंह से सुनने से लेकर फिल्म बनने तक किन-किन शारीरिक अनुभवों से गुजरे?
इरफान खानः तिग्मांशु ने कहानी मुझसे पहली बार कही तो लगा कि इसपर तो फिल्म बननी ही चाहिए। फिर तैयारी की। रिसर्च की। पर ज्यादा कुछ हाथ नहीं आया। फिर करते-करते इस सपने को पूरा करने में 8-10 साल लग गए। फिल्म में सिर्फ डकैत पान सिंह की कहानी नहीं है। वैल्यूज हैं, देश है, इमोशंस हैं और ढेरों दूसरी चीजें हैं। तैयारी करते हुए दौड़ना तो जाहिर तौर पर सीखना ही था। पर स्टेपलचेज यानी बाधा दौड़ अलग होती है। तो इसे सीखा। फिल्म की शूटिंग के दौरान दौड़ने के एक सीन में मेरा पैर टूट गया। अब जहां शूट कर रहे थे वहां कोई डॉक्टर या हॉस्पिटल तो था नहीं इसलिए गांव वालों से झाड़-फूंक करवाया। इसके अलावा मध्यप्रदेश की बोली बोलनी सीखी। इस रोल को कैसे समझूं और करूं, इसकी जद्दोजहद साथ-साथ दिमाग में चल रही थी।

चंबल में शूटिंग की है, आज क्या हालात हैं उस जगह के?
इरफान खानः वहां बागी आज भी हैं। वैसे ही हैं, उतने ही हैं। वहां के भौगोलिक हालात और सिस्टम ही ऐसा है कि आम लोगों के साथ इंसाफ नहीं होता। हालांकि पान सिंह के बागी बनने के पीछे कुछ और कारण भी रहे। मैं दुनिया घूमा हूं पर इतना खूबसूरत इलाका कहीं नहीं मिला। वहां खूबसूरत चंबल नदी बहती है। शानदार। ये पूरा इलाका ब्रैंड है पर लोग भूखे मर रहे हैं।

फिल्म से आपकी यादों में क्या कोई सीन अटका है?
इरफान खानः वैसे तो पूरी फिल्म ही ऐसे सीन से भरी पड़ी है। उनमें से एक सीन है। जब पान सिंह किशोर ही होता है। वह एक दिन घर से बगैर बताए मिर्च लेने दुकान जाता है और वापिस ही नहीं आता। बीवी और मां इंतजार करते रहते हैं। फिर एक-डेढ़ साल बाद एक दिन आता है। दरअसल, कहीं आर्मी की भर्ती होती है, तो उसमें टेस्ट देता है और चुन लिया जाता है। भर्ती हो जाता है। अब जब वह इतने लंबे वक्त बाद लौटा है तो इस कम उम्र में बीवी से जो उसका आमना-सामना होता है वह बहुत इमोशनल सीन था। मैंने बहुत सोचा कि कैसे किया जाए इसे। वो मिलेंगे तो कैसे बात करेंगे। कैसे नजरें मिलाएंगे। फिर वो घर में कहां जगह ढूंढते हैं, मिलते हैं और अपने प्यार को चरम तक पहुंचाते हैं।

लोग आपको अपना पसंदीदा एक्टर मानते हैं, आपको किसका अभिनय पसंद है?
इरफान खानः मुझे जॉनी लीवर का काम बहुत पसंद है। वह बहुत खुले हुए एक्टर हैं। उनकी एक्टिंग को बयां नहीं किया जा सकता है। पर अफसोस है कि उनका अब तक फिल्मों में सही इस्तेमाल नहीं हुआ है। मुझे उन्हें देख बहुत प्रेरणा मिलती है। फिर नसीर साहब हैं। फीमेल एक्टर तो सब अच्छी हैं।

कोई एक संवाद जो पसंद है इस फिल्म में?
इरफान खानः कई हैं। जैसे एक प्रोमो में ही है। पान सिंह का इंटरव्यू लेने कोई जर्नलिस्ट आती है। पूछती है, “डकैत कैसे बने”। तो वह कहता है, आपको समझ नहीं आया। बीहड़ में बागी होते हैं, डकैत मिलते हैं पार्लियामेंट में

अभिनेता नहीं होते तो इरफान क्या करते?
इरफान खानः पतंग उड़ा रहा होता। चैस खेलता। या बैठा होता। या कुछ नहीं करता। वैसे एक बार थैली बनाने का बिजनेस भी शुरू किया। पर बहुत बुरा लगता था, मन नहीं लगता था।

ऑफ बीट फिल्में और मुख्यधारा की फिल्में?
इरफान खानः जिन्हें आप ऑफ बीट कहते हैं, वो कुछ और तरह से एंटरटेन करती है। मुझे जो अच्छी लगती है करता हूं। चाहेथैंक यू हो यानॉक आउट। मुझे ‘नॉक आउट’ की कहानी अच्छी लगी और मैंने की। ‘थैंक यू’ की क्योंकि मुझे अनीस बज्मी के साथ काम करना था। मुझे वो आदमी पसंद है और काम करके बहुत मजा आया। कोई भी कहानी जो अच्छी लगे मैं करता हूं। ऑफ बीट या मुख्यधारा की बात नहीं है।

फिल्में जो कुछ-कुछ सच्चे विषयों पर बनी हैं, फिर भी हकीकत भरी नहीं लगती. मसलन, बिजॉय नांबियार कीशैतान’?
तिग्मांशु धूलियाः अलग-अलग फिल्में बनती हैं। बननी भी चाहिए। ‘शैतान’ टेक्नीकली बहुत अच्छी फिल्म थी। मुझे पसंद आई। फिल्म जमीन से जुड़ी नहीं थी। मैं जब देख रहा था तो लग रहा था कि हां, यार ये बच्चे हैं, नाराज से हैं, अजीब सा बर्ताव कर रहे हैं, अपने मां-बाप से, समाज से, ऐसा क्यों कर रहे हैं। मगर ध्यान रखने वाली बात ये है कि ये हमारे देश की पॉइंट वन वन पर्सेंट आबादी है। इतनी नहीं कि इनपर फिल्में बनाई जाए। ऐसी फिल्मों में जिनके बारे में और जो कहानी कह रहे हैं दोनों में फर्क है। दोनों के बीच एक-दूसरे को समझने का अभाव है। इस मामले में महबूब खान मिसाल हैं। वो कमाल के फिल्ममेकर थे। उन्होंनेमदर इंडिया बनाई। आप देखिए उस फिल्म में सबकुछ है। वह हकीकत भरी भी है, बनी भी अच्छे से है और इश्यू भी प्रासंगिक हैं।

हिंदी फिल्मों की दुनिया में स्क्रिप्ट की कमी है क्या?
तिग्मांशु धूलियाः वो क्या होती है। हर तरफ स्क्रिप्ट ही स्क्रिप्ट है। हर आदमी की जिंदगी इतनी रोचक है कि फिल्म बन सकती है। और दस मिनट लगते हैं स्क्रिप्ट लिखने में। बात स्क्रिप्ट की कमी की नहीं लोगों और समाज को समझने की कमी की है।

नाच-गाने वाली रॉम-कॉम ही इन दिनों ज्यादा से ज्यादा बन रही हैं। क्या ये अच्छी फिल्मों, सही मुद्दों वाली फिल्मों और सीरियस फिल्मों के बनने में रोड़ा हैं?
तिग्मांशु धूलियाः रोमैंस और सिंगिंग मुख्यधारा के कमर्शियल सिनेमा का मुख्य हिस्सा है और होना भी चाहिए। उसमें कोई खराबी नहीं है। क्योंकि नौटंकी के नाच गाने से ही तो एक्टिंग और फिल्में आई हैं। रही बात सोशल चेंज की तो बदलाव फिल्मों से नहीं आता। लोग फिल्में देखते हैं, एंजॉय करते हैं, सिगरेट जलाते हैं और फिल्म को भूल जाते हैं। मेरा स्पष्ट मानना है कि बदलाव का कोई दूसरा जरिया हो नहीं सकता। वह सिर्फ और सिर्फ पॉलिटिकल क्रांति से ही आता है।

गली-गली चोर हैजैसी सार्थक इश्यू वाली फिल्म नहीं ली?
तिग्मांशु धूलियाः प्रोमो देखकर मुझे लगा था कि चल जाएगी, पर क्यों नहीं चली, पता नहीं। रूमी भाई (डायरेक्टर) बहुत अच्छे राइटर हैं और मुझे काफी पसंद हैं। पर आमतौर पर ही देखें तो सार्थक फिल्म होना ही काफी नहीं है। फिल्म अच्छी बनी हो ये भी बहुत जरूरी है। सबसे जरूरी है। फिल्ममेकिंग के अलावा सबसे जरूरी चीज है कि फिल्ममेकर अपने समाज को समझें। और आजकल के फिल्मकार अपने समाज को बिल्कुल भी नहीं समझ पा रहे। यही दिक्कत है।

फिल्म के कलाकारों को कहां से चुना है?
तिग्मांशु धूलियाः माही गिल और इरफान तो मुख्य कलाकार हैं ही। बाकी सभी थियेटर से हैं। नेशनल स्कूल ऑफ ड्रामा से हैं। कुछ मध्यप्रदेश से हैं। एफटीआईआई में हाल ही में एक्टिंग का कोर्स शुरू हुआ है तो कुछ वहां से हैं।

चंबल के डाकूओं या लोगों की बात होती है तो उनकी आवाज में एक किस्म के खुरदरेपन या रगड़ की उम्मीद स्वत: होती है। क्या आपने इसे तथ्य पर विचार किया है या इसे कैसे लेते हैं?
इरफान खानः देखिए मैं इस बात से इत्तेफाक नहीं रखता। डाकू है तो तिलक लगाएगा, घोड़े पर बैठेगा, भारी आवाज में बोलेगा, ये सब घिसे-पिटे सांचे हैं। चंबल के पानी में कुछ ऐसा थोड़े ही है कि सबकी आवाज खुरदरी या रगड़ वाली ही होगी। वहां हर आवाज और हर तरह का आदमी हो सकता है।

बैंडिट क्वीनसेपान सिंह तोमरकी तुलना होनी लाजमी है।बैंडिट क्वीनमें सबसे दो खास बातें थीं। पहली उसके लंबे-लंबे खूबसूरत वीराने वाली सिनेमैटोग्रफी और दूसरा झुनझुनाने वाला संगीत। इन दो चीजों का आपनेपान सिंह तोमरमें कितना ख्याल रखा है?
तिग्मांशु धूलियाः बहुत से लोगों को शायद नहीं पता कि मैं ‘बैंडिट क्वीन’ में था। कास्टिंग और डायरेक्शन से जुड़ा था। शेखर जी मेरे गुरू हैं और मैं चाहता नहीं था कि दिखने में पान सिंह तोमर’ ‘बैंडिट क्वीन सी लगे। नहीं तो लोग कहते कि चेले ने गुरू की नकल कर ली। लैंडस्केप का जहां तक सवाल है तो ‘बैंडिट क्वीन’ पूरी की पूरी चंबल में ही शूट हुई थी। मगर पान सिंह में कहानी चंबल के बाहर भी बहुत देर रहती है। जैसे पान सिंह ओलंपिक जाता है तो, उसके घर में जो कहानी चलती है वो और उसका फौज में भर्ती होना। संगीत का सवाल है तो हमारी फिल्म में दो-तीन गाने हैं जो पृष्ठभूमि में चलते हैं। म्यूजिक अभिषेक रे का है।

महानगरों में एंटरटेनमेंट की हल्की-फुल्की (गैर-गंभीर विषयों वाला) डोज चाहने वाले युवाओं की तादाद ज्यादा है और हो रही है। क्या उन्हें पान सिंह सहन होगी?
तिग्मांशु धूलियाः ऐसी कोई बात नहीं है। जैसे चंडीगढ़ है और अहमदाबाद है। ये दो बहुत हॉट टैरेटरी हैं। यहां ऑडियंस के पास खूब पैसा है। पर हल्की या भारी डोज वाला मामला नहीं है। सब फिल्म पर निर्भर करता है। स्क्रिप्ट पर निर्भर करता है। और अगर मैं स्क्रिप्ट पढ़कर सुना दूं, तो नरेट करने के पैसे ले सकता हूं, इतनी कमाल की स्क्रिप्ट पान सिंह की।
इरफान खानः मैं इस सवाल से सहमत नहीं हूं। यंगस्टर मुद्दों से जुड़ता है, चाहे भारी हो या हल्के या कैसे भी हों। ‘साहिब बीवी और गैंगस्टर’ उन्होंने पसंद की, वो देखना चाहते हैं। आपने अगर हॉलीवुड फिल्म की कॉपी बनाई है, या अच्छी नहीं बनाई है या बचकानी फिल्म बनाई है तो उन्हें पसंद नहीं आएगी। हमने ये परिभाषा भी बहुत सीमित कर दी है। एंटरटेनमेंट का मतलब सिर्फ हंसना नहीं होता। फिल्म ने अगर किसी को रुला दिया तो वो भी एंटरटेनमेंट ही है।*** *** *** *** ***
गजेंद्र सिंह भाटी

पॉटर के साये को पीछे छोड़ परिपक्व होकर आगे बढ़ते डेनियल

फिल्मः वूमन इन ब्लैक
निर्देशकः जेम्स वॉटकिन्स
कास्टः डेनियल रैडक्लिफ, सियरेन हिंड्स, मिशा हैंडली, लिज वाइट, सोफी स्टकी, जैसिका रेन
कॉस्ट्यूमः कीथ मैडन
स्टारः तीन, 3.0रामसे ब्रदर्स से होते हुए ओरेन पैली के आने तक हॉरर ने हमेशा दिल का दौरा देने की हद तक डराया है। छोटे बच्चे थे तो 'भूतिया हवेली देख सहम जाते, बड़े हुए तो 'पैरानॉर्मल एक्टिविटी ने सीना फाड़ दिया। इस लिहाज से 'द वूमन इन ब्लैक’ का हॉरर ज्यादा से ज्यादा लोग देख सकते हैं। बैचेनी भी लगातार बनी रहेगी और जब काले कपड़ों वाली वह औरत सामने आएगी तो डर के मारे हार्ट अटैक भी नहीं आएगा। निर्देशक जेम्स वॉटकिन्स की ये फिल्म सिर्फ भयंकर डर चाहने वाले युवाओं के लिए नहीं है, इसे पूरा परिवार देख सकता है। हां, ये ध्यान रखें कि आप हॉरर फिल्म देखने जा रहे हैं और उसमें तरह-तरह के मोड़, दुख, चिंताएं और क्लाइमैक्स भी आते हैं। उनके लिए तैयार रहें। एक सिंपल स्वस्थ हॉरर फिल्म।

हिंदी फिल्में देखने वालों के लिए इस फिल्म को पहचानने का सबसे पहला और आखिरी बिंदु हैं हैरी पॉटर फिल्मों में हैरी बनने वाले ब्रिटिश एक्टर डेनियल रैडक्लिफ। जिन लोगों को लगा होगा कि डेनियल कभी पॉटर की इमेज से बाहर नहीं निकल पाएंगे, उन्हें ये देखनी चाहिए। इस फिल्म में वह एक चार साल के प्यारे से ब्रिटिश एक्सेंट वाले बेटे जोसेफ (मिशा हैंडली) के पिता आर्थर क्रिप्स बने हैं। औ पिता के तौर पर इनकी पकड़ यहां से आखिर तक कायम रहती है। उनको एक पिता महसूस करवाने में चाइल्ड एक्टर मिशा की स्वीट जबान का बड़ा हाथ है। वह जब उन्हें 'पपा’ बोलते हैं तो थियेटर में मिसरी की डली घुल जाती है। बेटे को जन्म देते वक्त मर गई बीवी स्टेला (सोफी स्टकी) अभी भी आर्थर को अपने आस-पास महसूस होती है। वह उसके बुरे सपनों में आती है। पेशे से वकील ऑर्थर को पैसे की तंगी है और अगर उसने काम में सुधार नहीं किया तो नौकरी से भी निकाल दिया जाएगा। इन सब हालातों से डेनियल टूटे हुए भी लगते हैं, मगर काले कपड़ों वाली औरत के मामले को आखिर तक जानने की कोशिश में हिमत बटोरते दिखते हैं। ये सब भाव उनके चेहरे पर स्वत: ही आते हैं। उनके संपन्न दोस्त सैम डैली बने आयरिश अभिनेता सियरेन हिंड्स डेनियल रैडक्लिफ से ज्यादा बेहतर एक्टर हैं, यही उनके लिए बड़ी परीक्षा थी। वह जब आर्थर बन सैम के घर डिनर कर रहे होते हैं और बाद में कई बार पेग बांटते हैं तो बराबरी के लगते हैं। असल में इन दोनों अभिनेताओं की उम्र में जो दोगुना फर्क है, वह यहां मिट जाता है।

हालांकि सूजन हिल के नॉवेल 'द वूमन इन ब्लैक’ की कहानी पढऩे वालों को पता है, पर फिल्म देखने से पहले उसे न जानें तो ही अच्छा। हल्का सा अंदाजा हो इसलिए जानिए जरा सी कहानी। ये 1901 के बाद के ब्रिटेन की बात है। आर्थर एक वकील है और अपने बच्चे जोसेफ और उसकी दाई मां (जैसिका रेन) के साथ रहता है। कंपनी उसे इंग्लैंड के उत्तर पूर्व में एक द्वीप सी जगह पर बनी एलिस ड्रैब्लो की हवेली का केस दिया जाता है। इस काम से वह दूर बने इस गांव में जाता है। डरे-सहमे इस गांव में हर घर में बच्चों ने आत्महत्याएं कर ली है। लोग कहते हैं कि ये उस काले कपड़े वाली औरत की वजह से है जो हवेली में नजर आती है। आर्थर वहां जाता है और पता लगाने की कोशिश करता है। वहां एलिस अपने पति, बेटे नथैनियल और बहन जैनेट (लिज वाइट) के साथ रहती थी। पर उन सभी के मारे जाने के बाद वह हवेली खंडहर है। कोई वहां जाता नहीं। आर्थर को यहां नथैनियल की मौत और जैनेट (काले कपड़ों वाली औरत) के साये के बारे में पता चलता है। कहानी का अंत उमीद के मुताबिक नहीं होगा तो उसके लिए तैयार रहें।

इस फिल्म में क्वीन विक्टोरिया के मरने के बाद एडवर्ड काल के फैशन, कपड़े और ग्रामीण जीवन के अंधविश्वास की झलक है। कॉस्ट्यूम डिजाइनर कीथ मैडन ने दुख और डर में डूबे लोगों के कपड़ों में पक्का रंग सोच-समझकर दिया है। ब्रिटिश निर्देशक जेस वॉटकिन्स की ये फिल्म अच्छी है, प उनकी पहली हॉरर फिल्म 'ईडन लेक’ ज्यादा प्रभावी है। अपने जॉनर की फिल्मों से 'द वूमन इन ब्लैक’ कुछ कमजोर जरूर हो सकती है पर इसकी खासियत ये है कि ये सिंपल है। इसमें जेस का सारा ध्यान चेहरे वाले भावों और चीजों के इस्तेमाल से फिल्म को आगे बढ़ाने पर होता है।*** *** *** *** ***
गजेंद्र सिंह भाटी

खुद जलता और हमें भी जलाता घोस्ट राइडर

फिल्मः घोस्ट राइडर स्पिरिट ऑफ वेंजेंस
निर्देशकः मार्क नेवलडाइन और ब्रायन टेलर
कास्टः निकोलस केज, फरग्यूस रियॉर्डेन, सियरेन हिंड्स, जॉनी विटवर्थ, इदरिस एल्बा, वॉयलांत प्लासिदो
स्टारः डेढ़, 1.5

मार्वल कॉमिक्स के पाठकों के क्रेजी हीरो घोस्ट राइडर को दूसरी फिल्म में तब्दील करने का जिम्मा इस बार एक फ्रैश निर्देशक जोड़ी को मिला था। अमेरिकी मार्क नेवलडाइन और ब्रायन टेलर की जोड़ी को। एक कॉमिक्स के नायक को फिल्मी रूप देने में जितना बेसिर-पैर का होने की जरूरत होती है, उतना ये दोनों हैं। जैसी इनकी बनाई पहली फिल्म 'क्रैंक’ भी थी, जैसन स्टैथम के साथ। पर इतने जोश-खरोश के बावजूद फिल्म मनोरंजन नहीं दे पाती है। थकाती है, पकाती है और स्क्रिप्ट बिना किसी कहानीनुमा तेवर के आगे बढ़ती है। अगर एक बार ट्राई भी करना चाहें तो डीवीडी या टीवी पर करें। इसके थ्रीडी दृश्य भी इतने रोचक नहीं हैं कि थियेटर जाया जाए।

फिल्म में नेवलडाइन और टेलर ने 2007 में आई 'घोस्ट राइडर’ से कुछ नया किया है, जो अफसोस है कि चल नहीं पाता। मसलन, निकोलस केज को बतौर एक्टर कुछ खोलने की कोशिश की है, जिसके परिणामस्वरूप वह कुछ सीन में अजीब चेहरा बनाते हैं, और अजीब ढंग से बात करने की कोशिश करते हैं। मगर यहां निकोलस बिल्कुल भी फनी नहीं लगते। हम पकते हैं। उन्होंने फिल्म में ज्यादा स्कैच वाले ग्राफिक इस्तेमाल किए हैं। ये प्रयोग बार-बार किया गया है, जो फिल्म की गति को धीमा करता है और पूरे स्कैच बोरियत भरे हैं। हालांकि ऐसा वो नए दर्शकों को घोस्ट राइडर की कहानी और किरदार समझाने के लिए करते हैं। नेवलडाइन-टेलर को ये समझना था कि निकोलस कम बोलने वाले अंदाज और शून्य में चले जाने वाले चेहरे के साथ ज्यादा प्रभावित करते हैं। जो यहां नहीं है। दूसरा, जॉनी ब्लैज होते हुए घोस्ट राइडर के शाप से मुक्त होने की कोशिश में उनकी उलझन, उनके हीरोइज्म को कम करती है।

कहानी किसी से छिपी नहीं है, पर संक्षेप में कहूं तो जॉनी ब्लैज उत्तरी यूरोप में कहीं छिपा है और अपने घोस्ट राइडर होने के शाप से छुटकारा पाने को जूझ रहा है। वहीं दूसरी ओर नाडिया (वॉयलांत प्लासिदो) अपने बेटे डैनी (फरग्यूस रिर्योडेन) को लेकर भागी-भागी फिर रही है, पीछे है शैतान रोर्क (सियरेन हिंड्स) का गुंडा करिगन (जॉनी विटवर्थ)। रोर्क ने करिगन को डैनी को उसके पास लाने का काम सौंपा है। रोर्क किसी खास ग्रहों वाले दिन अपने ही अंश वाले डैनी के शरीर को लेना चाहता है। अब मॉरो (इदरिस एल्बा) जॉनी को ढूंढता है और उसे डैनी को बचाने को कहता है। वह कहता है कि बदले में उसे उसके शाप से मुक्त करवा देगा। तो ये है मोटा-मोटी कहानी।

फिल्म में तीन सबसे प्रभावी एक्टर हैं सियरेन हिंड्स, जॉनी विटवर्थ और इदरिस एल्बा। सियरेन 'द वूमन इन ब्लैक’ में भी थे। और यहां वो बिल्कुल अलग हैं। अपने पहले सीन में जब वह टेलीफोन बूथ से करिगन से बात करते हैं, सबसे प्रभावी हैं। फिल्म में धीरे-धीरे उनका चेहरा बिगड़ता जाता है और इस दौरान वह मेकअप भी ऐसे कैरी करते हैं कि उनका असल चेहरा ही लगता है। इदरिस फिल्म में सबसे ज्यादा उमंग भरा फैक्टर लाते हैं। पर कहानी में उनके कैरेक्टर को सबसे कम आंका गया है। 'घोस्ट राइडर: द स्पिरिट ऑफ वेंजेंस’ एक ऐसी फिल्म होनी थी, कि जिसे देखने के लिए लोग बिना सोचे समझे उमड़ते। मगर ऐसा हो नहीं पाता। इस फिल्म में न तो विजुअल इफैक्ट्स शानदार हो पाते हैं और न ही स्क्रिप्ट थ्रिलिंग है। फिल्म को लेकर जो बची-खुची उमीद बचती है उसे नेवलडाइन-टेलर की जोड़ी का बिखरा निर्देशन मार देता है। फिल्म में निकोलस केज कम है और जलता हुआ घोस्ट राइडर का कंकाल ज्यादा। ये परेशान करता है। हिसाब से उसका जलते हुए दुश्मनों का खत्म करना कम अवधि में होना चाहिए था, पर वो दुश्मनों की आंखों में आंखें डाल उन्हें एटिट्यूड के साथ कई पलों तक निहारता या डराता रहता है। उसके ऐसा करने के पीछे अगर कोई वजह भी है तो हमें समझ नहीं आती।*** *** *** *** ***
गजेंद्र सिंह भाटी

Tuesday, February 14, 2012

ड्रैगन टैटू वाली लड़की सशक्त है, श्रेय जाता है नॉवेल लिखने वाले स्टीग लारसन कोः स्वीडिश फिल्म 2009

ये "औरतों से नफरत करने वाले मर्द" अर्थ वाले इस नॉवेल की ख्याति ही है कि दो साल के अंतराल में ' गर्ल विद ड्रेगन टैटू' नाम की दो फिल्में (2009 में स्वीडिश निर्देशक नील आर्डेन ऑप्लेव की, 2011 में अमेरिकी डेविड फिंचर की) बन गईं. स्वीडन के पत्रकार, लेखक और कम्युनिस्ट विचारधारा वाले स्टीग लारसन जब गुजरे तब 'मिलेनियम सीरिज' नाम के उनके तीन अप्रकाशित नॉवेल प्रकाशित हुए. फिर न जाने क्या हुआ कि ढिंढोरा पिट गया और ये नॉवेल बहुत बिके. मूल विचार क्राइम का रहा, औरतों के खिलाफ होने वाला अपराध और उसके इधर-ऊधर थ्रिल रची गई. ये तीन नॉवेल रहे ' गर्ल विद ड्रैगन टैटू', ' गर्ल हू प्लेड विद फायर' और ' गर्ल हू किक्ड हॉर्नेट्स नेस्ट.'

एक लेखक चाहे तो कुछ भी रच सकता है, कुछ भी कर सकता है. स्टीग लारसन ने अपने इस नॉवेल में लीजबेथ सेलेंडर नाम की इस नाटी सी भीतर ही भीतर रहने वाली लड़की को कई कुशलताएं दी हैं. आखिर स्टीग ने ऐसा क्यों किया. 15 बरस की उम्र में उनकी आंखों के आगे एक लड़की की आबरू लुटती रही और वह कुछ न कर पाए, ये इसी बात की पीड़ा थी जो उन्हें ताउम्र कचोटती रही. इसी का नतीजा था कि उनके नॉवेल और दुनिया के दो बहुत उम्दा फिल्म निर्देशकों की फिल्मों में नायक एक तरह से लीजबेथ है, मिकाइल ब्लॉमकोविस्ट नहीं. आखिर में वही उसे मरने से बचाती है, हांस एरिक वॉनस्ट्रॉम के खिलाफ मिलेनियम मैगजीन में अगली बड़ी खुलासे वाली स्टोरी के लिए (पहले नॉवेल और फिल्म में) सारे कागजात वही लाकर देती है. आखिर में मिकाइल अपने मुंह से खुद कहता है कि अगर तुम नहीं होती तो मैं ये केस कभी नहीं सुलझा पाता। असल जीवन में न सही, किताबी और फिल्मी दुनिया में लीजबेथ सशक्त है, चतुर है और अपने अपमान का बदला लेने में सक्षम है.

खैर, 2009 में आई स्वीडिश फिल्मकार नील आर्डेन ऑप्लेव की 'द गर्ल विद द ड्रैगन टैटू' देखी. फिल्म ने जिगरा तो नहीं जलाया पर, इज्जत कमाने वाली फिल्म है. खासतौर पर इसकी जान है स्वीडिश एक्ट्रेस नूमी रेपेस. इनका अभिनय इतना सटीक है कि पहचानने में धोखा होता है कि क्या ये वही हैं जो हाल ही में आई फिल्म 'शरलॉक होम्सः गेम ऑफ शेडोज' में मदाम सिम्जा बनी थीं. पर फिर पहचान हो ही जाती है. नूमी यहां लिजबेथ बनी हैं. अजीब सी वेशभूषा वाली बेस्ट रिसर्चर. पूरी फिल्म में लिजबेथ की जिंदगी इज्जत और बेइज्जती के न जाने कौन कौन से पड़ावों से गुजरती है, पर उसके पास अंततः हर चीज का जवाब है, हर अपमान का बदला है. इसमें नूमी खरी उतरती हैं. मुझे किसी एंगल से नहीं लगता कि ये कोई अभिनेत्री थी जो लिजबेथ की भूमिका अदा कर रही थी, ये तो कोई असल लिजबेथ ही थी, जो कहीं जीवित है. यही इनके अभिनय की खासियत रही. उनकी किरदार लिजबेथ के कानूनी गार्जियन नील जुरमैन बने स्वीडन के ही एक्टर पीटर एंडरसन परपीड़ा में सुख भोगने वाले सेडिस्ट बने, और छककर बने. जलालत उनके चेहरे से लगातार टपकती रही. लिजबेथ को थप्पड़ जड़ने, शारीरिक या यौन क्रूरता करने के क्षणों में कैमरा जैसे हमारे इनके बीच से बिल्कुल गायब ही हो जाता है. पर हम दर्शक भी इतने बर्बर से हो गए हैं कि अगर इन सीन में बैचेनी न हो तो ये चिंता की बात है.

मुख्य
अभिनेता यानी मिकाइल ब्लॉमकोविस्ट के किरदार को निभाने वाले माइकल नाइकविस्ट के चेहरे को देख लगता है कि पिछले साल वाली द गर्ल विद ड्रैगन टैटू में डेविड फिंचर ने डेनियल क्रैग को इन्हीं के चेहरे मोहरे से मिलता जुलता देख लिया या ढूंढा. अगर किसी को इन दो फिल्मों का न पता हो और वो इस स्वीडिश फिल्म को ही देखने लगे तो पहले पहल नाइकविस्ट को ही डेनियल समझ बैठेगा. इनके अभिनय के बारे में क्या कहा जाए. फिल्म में कोई गहन क्षण तो थे नहीं, हां कुछेक थे, मसलन फिल्म के आखिर में मौत से लड़ना. फांसी पर चढ़ते हुए जूझना. इन क्षणों में और जंगल में कोई बंदूक की गोली जब कनपटी से छूकर निकल जाती है तो, ये ऐसे पल हैं जहां नाइकविस्ट को गहन होना पड़ता है, अन्यथा नहीं.

ऑप्लेव का निर्देशन कच्चा नहीं है. फिंचर की फिल्म में जाहिर है म्यूजिक, फ्रेम का रंग और हीरो-हीरोइन की भूमिकाओं में कुछ कमर्शियल हेर-फेर होगा ही, पर ऑप्लेव ने दो साल पहले ही अच्छी क्राइम थ्रिलर बना दी थी. 'मिलेनियम सीरिज' की बाकी दो फिल्में हालांकि उन्होंने नहीं की, पर ये फिल्म निश्चित तौर पर मजबूत बनावट रही.

मसाला फिल्म में औरतों के खिलाफ हिंसा के सामाजिक संदर्भ को रखना और कहानीनूमा अंदाज में रखना सही था. सीधे तौर पर न सही पर लोगों को संदेश जाता है. न सिर्फ लिजबेथ की जिंदगी की कहानी में जो कि इस नॉवेल को लिखने वाले स्टीग लारसन ने खास उन्हीं को ध्यान में रखते हुए लिखा, बल्कि धनी वांगर फैमिली में हुई रहस्यमयी मौतों के पीछे छिपे औरतों पर अत्याचार के पहलू में भी.

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गजेंद्र सिंह भाटी

Monday, February 13, 2012

यहां फिल्में हैं, पर उनमें तुम नहीं हो टैरी: कुछ बातें

"Life's a mess dude, but we're all just doing the best we can. you know. You, me and samantha. we're just doing what we can." - मिस्टर फिट्जगेरॉल्ड, फिल्म टैरी में

टैरी.
तुम कैसे किसी को प्यारे नहीं लग सकते. हालांकि ये और बात है कि तुम लगना नहीं चाहते, फिर भी लगते हो. क्योंकि हम फिल्में देखते हैं. तरह-तरह की देखते हैं. ब्रिटेन से, अमेरिका से, इटली से, फ्रांस से, कोरिया से, चीन से, जापान से, ईरान से, यूरोप से, पाकिस्तान से और भारत से. हम जिन्हें ज्यादा देखते हैं, वो सोती हुई आती हैं और हमें नींद दिलाकर चली जाती हैं. सुबह होती है और कुछ नहीं बदलता. बदलना तो दूर हम खुद को भी 35 या उससे भी कम होते जा रहे एमएम आईने में नहीं देख पाते.

तुम ऐसे वक्त में आए हो टैरी, जब स्टार रेटिंग के सिस्टम में कोई तुम्हें पांच में से डेढ़ स्टार भी नहीं दे, पर मैं तुम्हें चार दूंगा. साढ़े चार दूंगा. देना पड़ा तो उससे भी ज्यादा दूंगा. पर तुम्हें उसकी दरकार नहीं है. तुम जिस ईमानदारी से बात करते हो, जिस निडरता के साथ कदम उठाते हो, जिस बेझिझकी से डर जाते हो, तुम्हें जितनी आसानी से गुस्सा आ जाता है, तुम जितनी बेफिक्री से जमाने की फिक्र नहीं करते हो... ये सब तुम्हें भीतर से पवित्र बनाता है. एक आम इंसान सा पवित्र. क्योंकि आज खास तो सब हैं, आम कोई नहीं. न ही कोई रहना चाहता है. तुममें जो एकांत है, वो सकल विश्व की सामाजिक और आर्थिक व्यवस्था की बदौलत है. अभी अमेरिका में है. फिर भारत में आएगा. और, आएगा क्यों, आ ही गया है. आज तुम तमाम जींस ब्रैंड छोड़कर पजामाज पहनने लगे हो, स्कूल तक में, बिना किसी की परवाह के. वेल, हमें अभी तुम्हारी तरह पजामाज पहनने की बात सीखने में बरसों लगेंगे. चाहें तो अभी भी पहन सकते हैं, पर जब तक ठोकर नहीं खाएंगे, संभलेंगे नहीं. हमारी हिंदी फिल्मों में मॉल हैं, ब्रैंड्स हैं, आइटम सॉन्ग हैं, गोरे रंग वाले इंसान हैं, सुंदरता के पैमाने हैं, फिगर के फीते हैं, मनोरंजन नाम का म्यूटेंट हैं, पूंजी है, प्रॉफिट है, अंग्रेजी है, सफलता की बदरंग समझाइश है, आगे बढ़ने के झांसे हैं, ऊंचा उठने के जल्द फटने वाले गुब्बारे हैं, झूठ हैं, गुमराह करने वाले किस्से हैं, चरस चुभोए रखने वाले मोटे इंजेक्शन हैं. और भी बहुत कुछ है. पर तुम नहीं हो टैरी. पर हम नहीं हैं टैरी.

काश हम समझ पाते कि हम राह भटक रहे हैं, पर अब तो भटकना ही है. भटकेंगे नहीं तो तुममे जैसा एकांत है, वह कैसे पाएंगे. आखिर होगा वही, कि जब सबकुछ लुटाकर-खोकर और समाज को सूंतकर हम वह एकांत, वह गुमनामी पाएंगे, तभी हम एक टैरी बना पाएंगे. तभी हम एक टैरी अपने यहां देख पाएंगे. अब यह प्रक्रिया बुरी है कि सही मैं नहीं जानता पर, दोनों ही बात है. हम अभी टैरी देखने लगें, टैरी बनाने लगें, तो हमारी ही भलाई है. हमारे समाज में संवेदनशीलता नाम की बेशकीमती चीज के बचे रहने की भलाई है. अगर हम अभी संभलें तो. अन्यथा होगा वही. पूरी प्रक्रिया से गुजरकर बहुत बरसों बात हममे से कोई अजाजेल जेकब्स आएगा और ममाज मैन बनाएगा, टैरी बनाएगा.

तो टैरी अब हो तो भला, या तब हो तो भला... हम तय करेंगे टैरी. अब तुम्हें देख लिया है न तो तय करेंगे.

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शुक्रिया, जेकब वायसोस्की, टैरी बनने के लिए. तुम्हारा काम जाया नहीं जाएगा. तुम्हारे बारे में खूब बातें होंगी. शुक्रिया जॉन रायली, मिस्टर फिट्जगेरॉल्ड बनने के लिए, और इतना सच्चा फिट्जगेरॉल्ड बनने के लिए. आप वाकई में बेहद बारीक हैं. आपका अभिनय जो बेसिर-पैर की बेपरवाह हंसी वाली फिल्मों को देख लोग पहले किनारे कर दिया करते थे, उन्हें टैरी देखनी चाहिए, आपकी कद्र करेंगे. और, अजाजेल. न जाने तुम दिमाग के किस कोने से सोचते हो यार. समझ नहीं आता. लाखों फिल्में बन गई दुनिया में, और लोग शिकायत करते हैं कि दर्शकों को क्या दें, क्या सरप्राइज करें. तुम फिर भी टैरी ले आए यार. फिल्म में कुछ भी नहीं है. कुछ भी नहीं. पर सबकुछ है. बने रहो.

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गजेंद्र सिंह भाटी