Sunday, February 19, 2012

खुद जलता और हमें भी जलाता घोस्ट राइडर

फिल्मः घोस्ट राइडर स्पिरिट ऑफ वेंजेंस
निर्देशकः मार्क नेवलडाइन और ब्रायन टेलर
कास्टः निकोलस केज, फरग्यूस रियॉर्डेन, सियरेन हिंड्स, जॉनी विटवर्थ, इदरिस एल्बा, वॉयलांत प्लासिदो
स्टारः डेढ़, 1.5

मार्वल कॉमिक्स के पाठकों के क्रेजी हीरो घोस्ट राइडर को दूसरी फिल्म में तब्दील करने का जिम्मा इस बार एक फ्रैश निर्देशक जोड़ी को मिला था। अमेरिकी मार्क नेवलडाइन और ब्रायन टेलर की जोड़ी को। एक कॉमिक्स के नायक को फिल्मी रूप देने में जितना बेसिर-पैर का होने की जरूरत होती है, उतना ये दोनों हैं। जैसी इनकी बनाई पहली फिल्म 'क्रैंक’ भी थी, जैसन स्टैथम के साथ। पर इतने जोश-खरोश के बावजूद फिल्म मनोरंजन नहीं दे पाती है। थकाती है, पकाती है और स्क्रिप्ट बिना किसी कहानीनुमा तेवर के आगे बढ़ती है। अगर एक बार ट्राई भी करना चाहें तो डीवीडी या टीवी पर करें। इसके थ्रीडी दृश्य भी इतने रोचक नहीं हैं कि थियेटर जाया जाए।

फिल्म में नेवलडाइन और टेलर ने 2007 में आई 'घोस्ट राइडर’ से कुछ नया किया है, जो अफसोस है कि चल नहीं पाता। मसलन, निकोलस केज को बतौर एक्टर कुछ खोलने की कोशिश की है, जिसके परिणामस्वरूप वह कुछ सीन में अजीब चेहरा बनाते हैं, और अजीब ढंग से बात करने की कोशिश करते हैं। मगर यहां निकोलस बिल्कुल भी फनी नहीं लगते। हम पकते हैं। उन्होंने फिल्म में ज्यादा स्कैच वाले ग्राफिक इस्तेमाल किए हैं। ये प्रयोग बार-बार किया गया है, जो फिल्म की गति को धीमा करता है और पूरे स्कैच बोरियत भरे हैं। हालांकि ऐसा वो नए दर्शकों को घोस्ट राइडर की कहानी और किरदार समझाने के लिए करते हैं। नेवलडाइन-टेलर को ये समझना था कि निकोलस कम बोलने वाले अंदाज और शून्य में चले जाने वाले चेहरे के साथ ज्यादा प्रभावित करते हैं। जो यहां नहीं है। दूसरा, जॉनी ब्लैज होते हुए घोस्ट राइडर के शाप से मुक्त होने की कोशिश में उनकी उलझन, उनके हीरोइज्म को कम करती है।

कहानी किसी से छिपी नहीं है, पर संक्षेप में कहूं तो जॉनी ब्लैज उत्तरी यूरोप में कहीं छिपा है और अपने घोस्ट राइडर होने के शाप से छुटकारा पाने को जूझ रहा है। वहीं दूसरी ओर नाडिया (वॉयलांत प्लासिदो) अपने बेटे डैनी (फरग्यूस रिर्योडेन) को लेकर भागी-भागी फिर रही है, पीछे है शैतान रोर्क (सियरेन हिंड्स) का गुंडा करिगन (जॉनी विटवर्थ)। रोर्क ने करिगन को डैनी को उसके पास लाने का काम सौंपा है। रोर्क किसी खास ग्रहों वाले दिन अपने ही अंश वाले डैनी के शरीर को लेना चाहता है। अब मॉरो (इदरिस एल्बा) जॉनी को ढूंढता है और उसे डैनी को बचाने को कहता है। वह कहता है कि बदले में उसे उसके शाप से मुक्त करवा देगा। तो ये है मोटा-मोटी कहानी।

फिल्म में तीन सबसे प्रभावी एक्टर हैं सियरेन हिंड्स, जॉनी विटवर्थ और इदरिस एल्बा। सियरेन 'द वूमन इन ब्लैक’ में भी थे। और यहां वो बिल्कुल अलग हैं। अपने पहले सीन में जब वह टेलीफोन बूथ से करिगन से बात करते हैं, सबसे प्रभावी हैं। फिल्म में धीरे-धीरे उनका चेहरा बिगड़ता जाता है और इस दौरान वह मेकअप भी ऐसे कैरी करते हैं कि उनका असल चेहरा ही लगता है। इदरिस फिल्म में सबसे ज्यादा उमंग भरा फैक्टर लाते हैं। पर कहानी में उनके कैरेक्टर को सबसे कम आंका गया है। 'घोस्ट राइडर: द स्पिरिट ऑफ वेंजेंस’ एक ऐसी फिल्म होनी थी, कि जिसे देखने के लिए लोग बिना सोचे समझे उमड़ते। मगर ऐसा हो नहीं पाता। इस फिल्म में न तो विजुअल इफैक्ट्स शानदार हो पाते हैं और न ही स्क्रिप्ट थ्रिलिंग है। फिल्म को लेकर जो बची-खुची उमीद बचती है उसे नेवलडाइन-टेलर की जोड़ी का बिखरा निर्देशन मार देता है। फिल्म में निकोलस केज कम है और जलता हुआ घोस्ट राइडर का कंकाल ज्यादा। ये परेशान करता है। हिसाब से उसका जलते हुए दुश्मनों का खत्म करना कम अवधि में होना चाहिए था, पर वो दुश्मनों की आंखों में आंखें डाल उन्हें एटिट्यूड के साथ कई पलों तक निहारता या डराता रहता है। उसके ऐसा करने के पीछे अगर कोई वजह भी है तो हमें समझ नहीं आती।*** *** *** *** ***
गजेंद्र सिंह भाटी

Tuesday, February 14, 2012

ड्रैगन टैटू वाली लड़की सशक्त है, श्रेय जाता है नॉवेल लिखने वाले स्टीग लारसन कोः स्वीडिश फिल्म 2009

ये "औरतों से नफरत करने वाले मर्द" अर्थ वाले इस नॉवेल की ख्याति ही है कि दो साल के अंतराल में ' गर्ल विद ड्रेगन टैटू' नाम की दो फिल्में (2009 में स्वीडिश निर्देशक नील आर्डेन ऑप्लेव की, 2011 में अमेरिकी डेविड फिंचर की) बन गईं. स्वीडन के पत्रकार, लेखक और कम्युनिस्ट विचारधारा वाले स्टीग लारसन जब गुजरे तब 'मिलेनियम सीरिज' नाम के उनके तीन अप्रकाशित नॉवेल प्रकाशित हुए. फिर न जाने क्या हुआ कि ढिंढोरा पिट गया और ये नॉवेल बहुत बिके. मूल विचार क्राइम का रहा, औरतों के खिलाफ होने वाला अपराध और उसके इधर-ऊधर थ्रिल रची गई. ये तीन नॉवेल रहे ' गर्ल विद ड्रैगन टैटू', ' गर्ल हू प्लेड विद फायर' और ' गर्ल हू किक्ड हॉर्नेट्स नेस्ट.'

एक लेखक चाहे तो कुछ भी रच सकता है, कुछ भी कर सकता है. स्टीग लारसन ने अपने इस नॉवेल में लीजबेथ सेलेंडर नाम की इस नाटी सी भीतर ही भीतर रहने वाली लड़की को कई कुशलताएं दी हैं. आखिर स्टीग ने ऐसा क्यों किया. 15 बरस की उम्र में उनकी आंखों के आगे एक लड़की की आबरू लुटती रही और वह कुछ न कर पाए, ये इसी बात की पीड़ा थी जो उन्हें ताउम्र कचोटती रही. इसी का नतीजा था कि उनके नॉवेल और दुनिया के दो बहुत उम्दा फिल्म निर्देशकों की फिल्मों में नायक एक तरह से लीजबेथ है, मिकाइल ब्लॉमकोविस्ट नहीं. आखिर में वही उसे मरने से बचाती है, हांस एरिक वॉनस्ट्रॉम के खिलाफ मिलेनियम मैगजीन में अगली बड़ी खुलासे वाली स्टोरी के लिए (पहले नॉवेल और फिल्म में) सारे कागजात वही लाकर देती है. आखिर में मिकाइल अपने मुंह से खुद कहता है कि अगर तुम नहीं होती तो मैं ये केस कभी नहीं सुलझा पाता। असल जीवन में न सही, किताबी और फिल्मी दुनिया में लीजबेथ सशक्त है, चतुर है और अपने अपमान का बदला लेने में सक्षम है.

खैर, 2009 में आई स्वीडिश फिल्मकार नील आर्डेन ऑप्लेव की 'द गर्ल विद द ड्रैगन टैटू' देखी. फिल्म ने जिगरा तो नहीं जलाया पर, इज्जत कमाने वाली फिल्म है. खासतौर पर इसकी जान है स्वीडिश एक्ट्रेस नूमी रेपेस. इनका अभिनय इतना सटीक है कि पहचानने में धोखा होता है कि क्या ये वही हैं जो हाल ही में आई फिल्म 'शरलॉक होम्सः गेम ऑफ शेडोज' में मदाम सिम्जा बनी थीं. पर फिर पहचान हो ही जाती है. नूमी यहां लिजबेथ बनी हैं. अजीब सी वेशभूषा वाली बेस्ट रिसर्चर. पूरी फिल्म में लिजबेथ की जिंदगी इज्जत और बेइज्जती के न जाने कौन कौन से पड़ावों से गुजरती है, पर उसके पास अंततः हर चीज का जवाब है, हर अपमान का बदला है. इसमें नूमी खरी उतरती हैं. मुझे किसी एंगल से नहीं लगता कि ये कोई अभिनेत्री थी जो लिजबेथ की भूमिका अदा कर रही थी, ये तो कोई असल लिजबेथ ही थी, जो कहीं जीवित है. यही इनके अभिनय की खासियत रही. उनकी किरदार लिजबेथ के कानूनी गार्जियन नील जुरमैन बने स्वीडन के ही एक्टर पीटर एंडरसन परपीड़ा में सुख भोगने वाले सेडिस्ट बने, और छककर बने. जलालत उनके चेहरे से लगातार टपकती रही. लिजबेथ को थप्पड़ जड़ने, शारीरिक या यौन क्रूरता करने के क्षणों में कैमरा जैसे हमारे इनके बीच से बिल्कुल गायब ही हो जाता है. पर हम दर्शक भी इतने बर्बर से हो गए हैं कि अगर इन सीन में बैचेनी न हो तो ये चिंता की बात है.

मुख्य
अभिनेता यानी मिकाइल ब्लॉमकोविस्ट के किरदार को निभाने वाले माइकल नाइकविस्ट के चेहरे को देख लगता है कि पिछले साल वाली द गर्ल विद ड्रैगन टैटू में डेविड फिंचर ने डेनियल क्रैग को इन्हीं के चेहरे मोहरे से मिलता जुलता देख लिया या ढूंढा. अगर किसी को इन दो फिल्मों का न पता हो और वो इस स्वीडिश फिल्म को ही देखने लगे तो पहले पहल नाइकविस्ट को ही डेनियल समझ बैठेगा. इनके अभिनय के बारे में क्या कहा जाए. फिल्म में कोई गहन क्षण तो थे नहीं, हां कुछेक थे, मसलन फिल्म के आखिर में मौत से लड़ना. फांसी पर चढ़ते हुए जूझना. इन क्षणों में और जंगल में कोई बंदूक की गोली जब कनपटी से छूकर निकल जाती है तो, ये ऐसे पल हैं जहां नाइकविस्ट को गहन होना पड़ता है, अन्यथा नहीं.

ऑप्लेव का निर्देशन कच्चा नहीं है. फिंचर की फिल्म में जाहिर है म्यूजिक, फ्रेम का रंग और हीरो-हीरोइन की भूमिकाओं में कुछ कमर्शियल हेर-फेर होगा ही, पर ऑप्लेव ने दो साल पहले ही अच्छी क्राइम थ्रिलर बना दी थी. 'मिलेनियम सीरिज' की बाकी दो फिल्में हालांकि उन्होंने नहीं की, पर ये फिल्म निश्चित तौर पर मजबूत बनावट रही.

मसाला फिल्म में औरतों के खिलाफ हिंसा के सामाजिक संदर्भ को रखना और कहानीनूमा अंदाज में रखना सही था. सीधे तौर पर न सही पर लोगों को संदेश जाता है. न सिर्फ लिजबेथ की जिंदगी की कहानी में जो कि इस नॉवेल को लिखने वाले स्टीग लारसन ने खास उन्हीं को ध्यान में रखते हुए लिखा, बल्कि धनी वांगर फैमिली में हुई रहस्यमयी मौतों के पीछे छिपे औरतों पर अत्याचार के पहलू में भी.

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गजेंद्र सिंह भाटी

Monday, February 13, 2012

यहां फिल्में हैं, पर उनमें तुम नहीं हो टैरी: कुछ बातें

"Life's a mess dude, but we're all just doing the best we can. you know. You, me and samantha. we're just doing what we can." - मिस्टर फिट्जगेरॉल्ड, फिल्म टैरी में

टैरी.
तुम कैसे किसी को प्यारे नहीं लग सकते. हालांकि ये और बात है कि तुम लगना नहीं चाहते, फिर भी लगते हो. क्योंकि हम फिल्में देखते हैं. तरह-तरह की देखते हैं. ब्रिटेन से, अमेरिका से, इटली से, फ्रांस से, कोरिया से, चीन से, जापान से, ईरान से, यूरोप से, पाकिस्तान से और भारत से. हम जिन्हें ज्यादा देखते हैं, वो सोती हुई आती हैं और हमें नींद दिलाकर चली जाती हैं. सुबह होती है और कुछ नहीं बदलता. बदलना तो दूर हम खुद को भी 35 या उससे भी कम होते जा रहे एमएम आईने में नहीं देख पाते.

तुम ऐसे वक्त में आए हो टैरी, जब स्टार रेटिंग के सिस्टम में कोई तुम्हें पांच में से डेढ़ स्टार भी नहीं दे, पर मैं तुम्हें चार दूंगा. साढ़े चार दूंगा. देना पड़ा तो उससे भी ज्यादा दूंगा. पर तुम्हें उसकी दरकार नहीं है. तुम जिस ईमानदारी से बात करते हो, जिस निडरता के साथ कदम उठाते हो, जिस बेझिझकी से डर जाते हो, तुम्हें जितनी आसानी से गुस्सा आ जाता है, तुम जितनी बेफिक्री से जमाने की फिक्र नहीं करते हो... ये सब तुम्हें भीतर से पवित्र बनाता है. एक आम इंसान सा पवित्र. क्योंकि आज खास तो सब हैं, आम कोई नहीं. न ही कोई रहना चाहता है. तुममें जो एकांत है, वो सकल विश्व की सामाजिक और आर्थिक व्यवस्था की बदौलत है. अभी अमेरिका में है. फिर भारत में आएगा. और, आएगा क्यों, आ ही गया है. आज तुम तमाम जींस ब्रैंड छोड़कर पजामाज पहनने लगे हो, स्कूल तक में, बिना किसी की परवाह के. वेल, हमें अभी तुम्हारी तरह पजामाज पहनने की बात सीखने में बरसों लगेंगे. चाहें तो अभी भी पहन सकते हैं, पर जब तक ठोकर नहीं खाएंगे, संभलेंगे नहीं. हमारी हिंदी फिल्मों में मॉल हैं, ब्रैंड्स हैं, आइटम सॉन्ग हैं, गोरे रंग वाले इंसान हैं, सुंदरता के पैमाने हैं, फिगर के फीते हैं, मनोरंजन नाम का म्यूटेंट हैं, पूंजी है, प्रॉफिट है, अंग्रेजी है, सफलता की बदरंग समझाइश है, आगे बढ़ने के झांसे हैं, ऊंचा उठने के जल्द फटने वाले गुब्बारे हैं, झूठ हैं, गुमराह करने वाले किस्से हैं, चरस चुभोए रखने वाले मोटे इंजेक्शन हैं. और भी बहुत कुछ है. पर तुम नहीं हो टैरी. पर हम नहीं हैं टैरी.

काश हम समझ पाते कि हम राह भटक रहे हैं, पर अब तो भटकना ही है. भटकेंगे नहीं तो तुममे जैसा एकांत है, वह कैसे पाएंगे. आखिर होगा वही, कि जब सबकुछ लुटाकर-खोकर और समाज को सूंतकर हम वह एकांत, वह गुमनामी पाएंगे, तभी हम एक टैरी बना पाएंगे. तभी हम एक टैरी अपने यहां देख पाएंगे. अब यह प्रक्रिया बुरी है कि सही मैं नहीं जानता पर, दोनों ही बात है. हम अभी टैरी देखने लगें, टैरी बनाने लगें, तो हमारी ही भलाई है. हमारे समाज में संवेदनशीलता नाम की बेशकीमती चीज के बचे रहने की भलाई है. अगर हम अभी संभलें तो. अन्यथा होगा वही. पूरी प्रक्रिया से गुजरकर बहुत बरसों बात हममे से कोई अजाजेल जेकब्स आएगा और ममाज मैन बनाएगा, टैरी बनाएगा.

तो टैरी अब हो तो भला, या तब हो तो भला... हम तय करेंगे टैरी. अब तुम्हें देख लिया है न तो तय करेंगे.

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शुक्रिया, जेकब वायसोस्की, टैरी बनने के लिए. तुम्हारा काम जाया नहीं जाएगा. तुम्हारे बारे में खूब बातें होंगी. शुक्रिया जॉन रायली, मिस्टर फिट्जगेरॉल्ड बनने के लिए, और इतना सच्चा फिट्जगेरॉल्ड बनने के लिए. आप वाकई में बेहद बारीक हैं. आपका अभिनय जो बेसिर-पैर की बेपरवाह हंसी वाली फिल्मों को देख लोग पहले किनारे कर दिया करते थे, उन्हें टैरी देखनी चाहिए, आपकी कद्र करेंगे. और, अजाजेल. न जाने तुम दिमाग के किस कोने से सोचते हो यार. समझ नहीं आता. लाखों फिल्में बन गई दुनिया में, और लोग शिकायत करते हैं कि दर्शकों को क्या दें, क्या सरप्राइज करें. तुम फिर भी टैरी ले आए यार. फिल्म में कुछ भी नहीं है. कुछ भी नहीं. पर सबकुछ है. बने रहो.

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गजेंद्र सिंह भाटी

Friday, February 10, 2012

राहुल मर्जी की टाई पहनने और बगैर चॉपस्टिक खाना खाने के दिन चाहता है, वो दिन लाने में मदद करती है चुलबुली रियाना

फिल्म: एक मैं और एक तू
निर्देशक: शकुन बत्रा
कास्ट: इमरान खान, करीना कपूर, बोमन ईरानी, रत्ना पाठक शाह, निखिल कपूर, जेनोबिया श्रॉफ
स्टार: तीन, 3.0शकुन बत्रा 'रॉक ऑन' और 'जाने तू या जाने ना' इन दों फिल्मों में असिस्टेंट डायरेक्टर रहे थे। फरहान अख्तर की 'डॉन' में जो
खइके पान बनारस वाला... गाना था, संभवत: वह उसमें पानवाला भी बने थे। खैर, इन दोनों फिल्मों से कई बातें शकुन के निर्देशन में बनी पहली फिल्म 'एक मैं और एक तू' में भी तैरती महसूस होती है। जैसे, स्क्रिप्ट तसल्ली से आगे बढ़ती है। इसमें पैसेवाले घर का, लेकिन इमोशनली उलझा युवक है। अपनी ही हाई सोसायटी से कुछ बागी होकर परफैक्टली एवरेज बन जाना चाहता है। उसके ह्यूमर में ठहाके नहीं गुदगुदी है। वो मारपीट नहीं करता, बद्तमीजी नहीं करता। और आखिर में अपनी आजादी को पा लेता है। ऐसा 'रॉक ऑन' में भी था, ऐसा किसी और रूप में 'जाने तू या जाने ना' में भी था।

'एक मैं और एक तू' ऐसा शानदार सिनेमैटिक अनुभव नहीं बन पाती है, जिससे गुजरने के लिए हम थियेटर के बाहर लंबी लाइनों में खड़े होते हैं। ये एक औसत फिल्म है, पर जो चीजें इसे खास बनाती हैं, वो है इसका टेक्नीकली अच्छा होना। करीना-इमरान के काम और उनके एक-दूजे से उलट किरदारों में तरोताजगी है। पैसेवाले यंगस्टर्स की फिल्म होते हुए भी ये मुझे इस लिहाज से अच्छी लगी कि आखिर में हीरो राहुल सीख जाता है कि परफैक्टली एवरेज यानी एकदम आम होने में कोई बुराई नहीं है। वह अपने पेरंट्स को कह देता है कि अब अपनी मर्जी की टाई पहनेगा। मर्जी होगी तो डिनर, चॉपस्टिक से करेगा, नहीं तो हाथ से।

फिल्म का प्रस्तुतिकरण हालांकि यहां ज्यादा महत्वपूर्ण है पर बात करते हैं कहानी की। राहुल कपूर (इमरान खान) 26 साल का है और वेगास में आर्किटेक्ट है। पैदा हुआ है तब से मॉम-डैड (रत्ना
पाठक शाह - बोमन ईरानी) ने हाई सोसायटी के तौर-तरीके और हमेशा फर्स्ट आने की उम्मीदें उस पर लाद दी है। मॉम से वह कुछ कहना चाहता है, पर उनका इंट्रेस्ट 'बेटा, हैव अ हेयरकट' कह देने भर में है। डैड की जबान पर बस यही होता है कि 'बेटा तुमने सिल्वर नहीं जीता है, तुमने गोल्ड हारा है।' वह जिंदगी को घसीट रहा है। उसने पेरंट्स को डर के मारे ये भी नहीं बताया है कि उसकी नौकरी चली गई है। अब वह दूसरी नौकरी तलाश रहा होता है कि रियाना ब्रिगैंजा (करीना कपूर) नाम की चुलबुली, अल्हड और अप्रत्याशित हेयरस्टाइलिस्ट से टकरा जाता है। राहुल जितना निर्जीव है, रियाना उतनी ही सजीव है। यहां से राहुल की लाइफ 360 डिग्री मुड़ जाती है। उसे तय करना है कि पेरंट्स की इज्जत करते हुए उनका कहा मानता जाए कि खुद क्या चाहता है, वो करे। उसे रियाना के साथ अपने रिश्ते को भी कोई आयाम देना है, जो कि जितना आसान दिखता है, उतना है
नहीं।

हिंदी फिल्मों के अंत में हीरो-हिरोइन को प्यार हो ही जाता है। पर यहां कई स्टीरियोटाइप तोड़े गए हैं। यहां राहुल तो रियाना से प्यार करता है, पर वह उसे सिर्फ एक बेस्ट फ्रेंड ही मानती है, और अंत में दोनों इसी स्थिति पर अपने रिश्ते को रोकते हैं। हालांकि राहुल की कोशिशें जारी रहती हैं। ये अनोखी बात है। फिल्म पर अमेरिकी असर भी है। मसलन, वेगास में ड्रिंक्स के नशे में राहुल-रियाना का कोर्ट मैरेज कर लेना। ये सीन इससे पहले 'हैंगओवर' में भी नजर आया था। या फिर मूवी में इक्के-दुक्के अडल्ट जोक। करण जौहर के बैनर की फिल्मों में वेस्ट का असर तो होता ही है, क्योंकि ये भारत से पहले भारत से बाहर बसे एनआरआईज की फिल्में होती हैं। इन पर पहला हक उनका होता है। पर ये बात भुला दी जाती है कि जैसी जीवनशैली एनआरआईज अपना चुके हैं, जिस कंज्यूमरिज्म और सोच में वो ढल चुके हैं, उससे हमारा अंदरूनी मुल्क अभी अछूता है। पर फिल्में भीतरी भारत में भी लगती हैं, और वहां के कोरे कागज दिमाग प्रभावित होते हैं।

विशुद्ध मनोरंजन के पहलू से कहूं तो कहीं कुछ धीमी होती है पर फिल्म में आप कहीं पकते नहीं हैं। करीना कपूर के पेरंट्स बने निखिल कपूर और जेनोबिया श्रॉफ बहुत अच्छी कास्टिंग हैं। शकुन का निर्देशन और आसिफ अली शेख की एडिटिंग साफ-सुथरी है। अमित त्रिवेदी का म्यूजिक फिल्म की प्रस्तुति के हिसाब से ठीक-ठाक है। 'एक मैं और एक तू' की टीवी या डीवीडी रिलीज का भी इंतजार कर सकते हैं, पर थियेटर में देखने का भी कोई अफसोस नहीं होगा।
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गजेंद्र सिंह भाटी

टापू तो रहस्यमयी, पर फिल्म का कथ्य और नौटंकी फीकी

फिल्मः जर्नी 2 - मिस्टीरियस आइलैंड (अंग्रेजी-थ्रीडी)
निर्देशकः ब्रैड पेटन
कास्टः ड्वेन जॉनसन, जॉश हचरसन, माइकल केन, लुइस गजमान, वेनेसा हजन्स
स्टार: डेढ़, 1.5/5

डायरेक्टर ब्रैड पेटन की 'जर्नी 2: द मिस्टीरियस आइलैंड' का इंतजार एडवेंचर-फैंटेसी फिल्मों के फैन्स बड़ी बेसब्री से कर रहे थे। इतना कि फिल्म लगे और सब तुरंत जाकर देखें। पर उनका मजा यहां किरकिरा हो जाता है। इन 90 मिनटों में 'इफ यू स्मेल, वॉट रॉक इज कुकिन' जुमले वाले जोरदार स्टार ड्वेन जॉनसन है, सम्माननीय ब्रिटिश एक्टर माइकल केन हैं और मिस्टीरियस आइलैंड वाली तीन खूब पढ़ी गई किताबों का मेल है, मगर सबसे जरूरी मनोरंजन गायब है।

पहले सीन से लेकर आखिरी तक में स्क्रीनप्ले लिखने वाले ब्रायन और मार्क गन ने वही लिखा है जो हर हॉलीवुड फिल्म में बारंबार लिखा गया है। वही शुरुआत, वही मध्य और वही अंत। पलाऊ में अपने पुराने से हैलीकॉप्टर से सैलानियों को सैर कराने वाले हंसोड़ गबाटो के रोल में लुइस गजमान को छोड़ दें तो हर एक्टर इमोशंस के मामले में लकड़ी का बना लगता है। शॉन (जॉश हचरसन) और हैंक (ड्वेन जॉनसन) अपनी जान पर खेलकर हजारों मील दूर जिस जादुई द्वीप को खोजने जाते हैं, वो जब उनकी आंखों के आगे होता है तो उनकी आंखें विस्मय से फटती नहीं हैं, जो कि होनी चाहिए थी। इन दोनों के बीच जो सौतेले बाप-बेटे का रिश्ता है, वो भी बेजान है। ग्रैंडफादर एलेग्जेंडर एंडरसन बने माइकल केन जब अपने ग्रैंडसन शॉन से मिलते हैं तो उनकी आंखों में कहीं कोई गीलापन नहीं दिखता। तो कुल मिलाक इमोशंस, शारीरिक मुद्राओं, डायलॉग्स और कहानी के उमड़ाव-घुमड़ाव में कहीं कोई एक्शन-एडवेंचर है नहीं, जिसका दावा ये फिल्म करती है।

कहानी है अपने सौतेले पिता हैंक से नाराज-उलझे लड़के शॉन की, जो एक रेडियो मैसेज को हल करने में लगा है। बेटे के करीब आने के लिए हैंक उस कोड को सुलझाता है। ये कोड शॉन के ग्रैंडफादर ने उस मिस्टीरियस आइलैंड से भेजा है, जिसका जिक्र तीन नॉवेल में किया गया है। ट्रैजर आइलैंड, गुलीवर्स ट्रैवल्स और वर्न का मिस्टीरियस आइलैंड। अब शॉन को उस द्वीप को ढूंढना है और हैंक उसका साथ देता है। पलाऊ आइलैंड से उन्हें बतौर गाइड मिलते हैं गबाटो और उसकी बेटी कलानी (वेनेसा हजन्स)। आगे की यात्रा है उस अद्भुत द्वीप को ढूंढने की, शॉन के ग्रैंडपा से मिलने की, तरह-तरह के जादुई जीवों से सामने की और वापिस लौटने की।

फिल्म में कुछेक विहंगम दृश्य हैं। पहला जब ये लोग विशालकाय हरी लिजर्ड के अंडों पर गलती से चढ़ जाते हैं और वो उन्हें खाने के लिए दौड़ती है, दूसरा ग्रैंडपा के जंगल में बने घर में लगा झूमर, जो उसमें जुगनू भर देने से चलता है और तीसरा जब ये भंवरों की पीठ पर बैठकर उड़ते हैं। कैप्टन नीमो की किताब और पनडुब्बी में लिखे हिंदी के शब्द देखकर गुदगुदी होती है। बच्चे इस फिल्म को एक बार देख सकते हैं, पर रेग्युलर फिल्म दर्शकों को फिल्म में बहुत सारा फीकापन और बासीपन कचोटता रहेगा।*** *** *** *** ***
गजेंद्र सिंह भाटी

Friday, February 3, 2012

गली गली चोर है कह देना ही काफी न था, कोई रास्ता दिखाते

फिल्म: गली-गली चोर है
निर्देशकः रूमी जाफरी
कास्टः अक्षय खन्ना, श्रिया सरन, मुग्धा गोडसे, सतीश कौशिक, मुरली शर्मा, अमित मिस्त्री, अन्नू कपूर, जगदीप, विजयराज
स्टारः ढाई, 2.5/5

"ये सब मन के भी हैं काले, ये सब धन के भी हैं काले, मेरे घर में ही रहते हैं मेरा घर लूटने वाले। जो चीजें जंगलों की हैं, उन्हें जंगल में रहना था, वो अब दिल्ली में रहते हैं जिन्हें चंबल में रहना था"
सिस्टम को जमकर कोसने की शुरुआत निर्देशक रूमी जाफरी अपनी फिल्म में स्वानंद किरकिरे के लिखे इस गीत से करते हैं। इशारा बार-बार दिल्ली यानी केंद्र सरकार की नीतियों की ओर होता है। फिल्म कहती है कि गली-गली में चोर है, चारों तरफ बेशर्म भ्रष्टाचारी हैं और आम आदमी डरा हुआ है। शरीफ होते हुए भी उसे पुलिस थाने में जाने से लेकर शनिवारी के बर्तन में शनि भगवान को तेल नहीं चढ़ाने तक से डर लगता है। उसका सवाल है कि किस्मत हमेशा आम आदमी की ही क्यों खराब होती है?

फिल्म बनाने वाली पूरी टीम के इस प्रयास को हम आंखें बांधकर देखते हैं। चूंकि मुद्दा हम सभी से जुड़ा है तो चिंता भी होती है, पर फिल्म औसत ही साबित होती है। न तो ये हमें 'मुन्नाभाई सीरिज' की तरह घर जाते वक्त परेशानी में सबको जादू की झप्पी देने का दिलकश तरीका देती है, न गुलाब के फूलों के साथ 'गेट वेल सून' कहने का नारा और न ही भ्रष्टाचार से त्रस्त एक रिटायर्ड पेंशनर को पेंशन ऑफिस जाकर पूरे कपड़े उतारकर बाबू को सबक सिखाने का आइडिया सुझाती है।

'गली-गली चोर है' के साथ दिक्कत इतनी ही है कि ये न 'चला मुसद्दी ऑफिस-ऑफिस' हो पाती है और न ही 'जाने भी दो यारों' शुरू एक मजेदार फिल्म की तरह होती है और खत्म एक प्रयोगी फिल्म की तरह पथरीली जिंदगी की हकीकत सी। मैं कहूंगा कि बुरी नहीं है एक बार जरूर देखें क्योंकि ऐसा बहुत कम होता है कि आपके मसलों पर कोई पूरे दो घंटे की फिल्म बनाए। ठीक-ठाक है।

भोपाल के भारत (अक्षय खन्ना) की कहानी है। बैंक में कैशियर है और अशोक नगर की रामलीला में हनुमान का रोल करता है। घर में एक आम पिता (सतीश कौशिक) और स्कूल टीचर वाइफ निशा (श्रिया सरन) है। एक कॉल सेंटर में काम करने वाली किराएदार अमिता (मुग्धा गोडसे) है जिसकी वजह से भारत और निशा में गलतफहमियां पैदा होती हैं। आगे की कहानी ये है कि कैसे लोकल एमएलए त्रिपाठी (मुरली शर्मा) और रामलीला में घटिया एक्टिंग करते हुए राम का रोल करने वाला उसका छोटा भाई (अमित मिस्त्री) भारत को भ्रष्ट सिस्टम के चक्करों में उलझाकर बर्बाद कर देते हैं।

तुरत-फुरत तकनीकी बात करें तो चोर छन्नू फरिश्ता बने विजयराज बड़े मामूली रोल में भी परदे पर जान डाल देते हैं। वेटर बने मोहित बाघेल हंसाते, पर उनका निर्देशन सही से नहीं हुआ। हवलदार परशुराम कुशवाह बने अन्नू कपूर ठीक-ठाक एक्टिंग तो करते हैं पर पूरी फिल्म में उनकी पेस्ट लगी नकली मूछें साफ नजर आती हैं। श्रिया सरन और अक्षय खन्ना अपनी ओर से कोई कसर नहीं छोड़ते, निभा जाते हैं। रूमी जाफरी ने दर्जनों 'नंबर वन' अंदाज वाली सुपरहिट फिल्में लिखी हैं, पर निर्देशक के तौर पर उनकी ये तीसरी फिल् भी यादगार नहीं हो पाती। मोमुक्षु मुद्गल की लिखी स्क्रिप्ट और डायलॉग कुछ उल्लेखनीय हो सकते थे पर फिल्म को औसत ही बनाए रखते हैं। उनके लिखे में विडंबनाएं दिखती हैं, हालांकि वो प्रभावी नहीं हैं। जैसे, संकटमोचन हनुमान का रोल करने वाले भारत के चेहरे पर उदासी, राम का रोल करने वाले त्रिपाठी के घर मुंबई से आई डांसर और एक टूटे-फूटे पंखे पर सिस्टम के करप्शन की वजह से खर्च होते 31,000 रुपये।*** *** *** *** ***
गजेंद्र सिंह भाटी