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Tuesday, February 14, 2023

Ratna Pathak Shah Interview: अभिनय की परिभाषा और गुजराती सिनेमा पर बात

रत्ना पाठक शाह इस इंटरव्यू में कहती हैं //

कमर्शियल हिंदी फिल्म से किसी भी ऑथेंटिसिटी की उम्मीद करते हैं तो आपकी गलती हैं. ये आपकी मूर्खता है. उनको तो ऑथेंटिसिटी से कोई मतलब नहीं है.

हर कौम, कम्युनिटी, ज़बान का मजाक ही उड़ाती है हिंदी फिल्में. 

श्याम बेनेगल की मंथन ऐसी फिल्म थी जो गुजरात में बेस्ड थी. उन्होंने शूटिंग हिंदी में की और डबिंग में फैसला लिया कि इसे थोड़ा गुजराती टोन दिया जाए. मेरी मां ने भी मदद की कि इसका "गुजरातीफिकेशन" कैसे किया जाए 

दर्शक की एजुकेशन उतनी ही जरूरी, जितनी की फिल्ममेकर की एजुकेशन होती है. 

कई फिल्में छह बार देखने पर भी मजा नहीं आता, उन्हें छोड़ना ही पड़ता है. कई फिल्में खुद को धीरे धीरे रिवील करती हैं. 

मैं पठान भी देखना चाहती हूं, और शिप ऑफ थीसियस भी. बशर्ते अच्छी बनी हो. ये जो कचरा बनाकर कहते हैं कि डायवर्सिटी... माफ कर दो. उसमें मुझे दिक्कत है. 

अच्छी एक्टिंग क्या होती है इसे लेकर तो अपना टेस्ट धीरे धीरे डिवेलप करना पड़ता है. 

मुझे भाषा की सुंदरता बहुत पसंद है, उसमें मय परफॉर्मेंस पसंद है.

कई लोग demonstrative acting में माहिर होते हैं. मसलन KGF में यश की एक्टिंग तकनीकी रूप से भले ही सुपीरियर न हो लेकिन लोगों को रास आई. इस संदर्भ में मानना पड़ेगा कि यश की एक्टिंग अच्छी एक्टिंग है. इफेक्टिव है, चाहे अच्छी न हो.

पंकज कपूर ने 'धर्म' का जो किरदार किया और करमचंद, दोनों में कोई समानताएं नहीं है. कुछ एक्टर्स को अपने आपको पूरा बदलने में आनंद मिलता है, अंदर से भी. 

ये शायद हर एक्टर का भी उद्देश्य होना चाहिए, अपने आप को बदलना.  

एक्टिंग को मापना बड़ा मुश्किल है.

पंकज अच्छे उदाहरण हैं जिनको अपनी स्किल के मुताबिक अच्छे अवसर नहीं मिले हैं.

Interview at Lallatnop Cinema:


Friday, February 10, 2012

राहुल मर्जी की टाई पहनने और बगैर चॉपस्टिक खाना खाने के दिन चाहता है, वो दिन लाने में मदद करती है चुलबुली रियाना

फिल्म: एक मैं और एक तू
निर्देशक: शकुन बत्रा
कास्ट: इमरान खान, करीना कपूर, बोमन ईरानी, रत्ना पाठक शाह, निखिल कपूर, जेनोबिया श्रॉफ
स्टार: तीन, 3.0शकुन बत्रा 'रॉक ऑन' और 'जाने तू या जाने ना' इन दों फिल्मों में असिस्टेंट डायरेक्टर रहे थे। फरहान अख्तर की 'डॉन' में जो
खइके पान बनारस वाला... गाना था, संभवत: वह उसमें पानवाला भी बने थे। खैर, इन दोनों फिल्मों से कई बातें शकुन के निर्देशन में बनी पहली फिल्म 'एक मैं और एक तू' में भी तैरती महसूस होती है। जैसे, स्क्रिप्ट तसल्ली से आगे बढ़ती है। इसमें पैसेवाले घर का, लेकिन इमोशनली उलझा युवक है। अपनी ही हाई सोसायटी से कुछ बागी होकर परफैक्टली एवरेज बन जाना चाहता है। उसके ह्यूमर में ठहाके नहीं गुदगुदी है। वो मारपीट नहीं करता, बद्तमीजी नहीं करता। और आखिर में अपनी आजादी को पा लेता है। ऐसा 'रॉक ऑन' में भी था, ऐसा किसी और रूप में 'जाने तू या जाने ना' में भी था।

'एक मैं और एक तू' ऐसा शानदार सिनेमैटिक अनुभव नहीं बन पाती है, जिससे गुजरने के लिए हम थियेटर के बाहर लंबी लाइनों में खड़े होते हैं। ये एक औसत फिल्म है, पर जो चीजें इसे खास बनाती हैं, वो है इसका टेक्नीकली अच्छा होना। करीना-इमरान के काम और उनके एक-दूजे से उलट किरदारों में तरोताजगी है। पैसेवाले यंगस्टर्स की फिल्म होते हुए भी ये मुझे इस लिहाज से अच्छी लगी कि आखिर में हीरो राहुल सीख जाता है कि परफैक्टली एवरेज यानी एकदम आम होने में कोई बुराई नहीं है। वह अपने पेरंट्स को कह देता है कि अब अपनी मर्जी की टाई पहनेगा। मर्जी होगी तो डिनर, चॉपस्टिक से करेगा, नहीं तो हाथ से।

फिल्म का प्रस्तुतिकरण हालांकि यहां ज्यादा महत्वपूर्ण है पर बात करते हैं कहानी की। राहुल कपूर (इमरान खान) 26 साल का है और वेगास में आर्किटेक्ट है। पैदा हुआ है तब से मॉम-डैड (रत्ना
पाठक शाह - बोमन ईरानी) ने हाई सोसायटी के तौर-तरीके और हमेशा फर्स्ट आने की उम्मीदें उस पर लाद दी है। मॉम से वह कुछ कहना चाहता है, पर उनका इंट्रेस्ट 'बेटा, हैव अ हेयरकट' कह देने भर में है। डैड की जबान पर बस यही होता है कि 'बेटा तुमने सिल्वर नहीं जीता है, तुमने गोल्ड हारा है।' वह जिंदगी को घसीट रहा है। उसने पेरंट्स को डर के मारे ये भी नहीं बताया है कि उसकी नौकरी चली गई है। अब वह दूसरी नौकरी तलाश रहा होता है कि रियाना ब्रिगैंजा (करीना कपूर) नाम की चुलबुली, अल्हड और अप्रत्याशित हेयरस्टाइलिस्ट से टकरा जाता है। राहुल जितना निर्जीव है, रियाना उतनी ही सजीव है। यहां से राहुल की लाइफ 360 डिग्री मुड़ जाती है। उसे तय करना है कि पेरंट्स की इज्जत करते हुए उनका कहा मानता जाए कि खुद क्या चाहता है, वो करे। उसे रियाना के साथ अपने रिश्ते को भी कोई आयाम देना है, जो कि जितना आसान दिखता है, उतना है
नहीं।

हिंदी फिल्मों के अंत में हीरो-हिरोइन को प्यार हो ही जाता है। पर यहां कई स्टीरियोटाइप तोड़े गए हैं। यहां राहुल तो रियाना से प्यार करता है, पर वह उसे सिर्फ एक बेस्ट फ्रेंड ही मानती है, और अंत में दोनों इसी स्थिति पर अपने रिश्ते को रोकते हैं। हालांकि राहुल की कोशिशें जारी रहती हैं। ये अनोखी बात है। फिल्म पर अमेरिकी असर भी है। मसलन, वेगास में ड्रिंक्स के नशे में राहुल-रियाना का कोर्ट मैरेज कर लेना। ये सीन इससे पहले 'हैंगओवर' में भी नजर आया था। या फिर मूवी में इक्के-दुक्के अडल्ट जोक। करण जौहर के बैनर की फिल्मों में वेस्ट का असर तो होता ही है, क्योंकि ये भारत से पहले भारत से बाहर बसे एनआरआईज की फिल्में होती हैं। इन पर पहला हक उनका होता है। पर ये बात भुला दी जाती है कि जैसी जीवनशैली एनआरआईज अपना चुके हैं, जिस कंज्यूमरिज्म और सोच में वो ढल चुके हैं, उससे हमारा अंदरूनी मुल्क अभी अछूता है। पर फिल्में भीतरी भारत में भी लगती हैं, और वहां के कोरे कागज दिमाग प्रभावित होते हैं।

विशुद्ध मनोरंजन के पहलू से कहूं तो कहीं कुछ धीमी होती है पर फिल्म में आप कहीं पकते नहीं हैं। करीना कपूर के पेरंट्स बने निखिल कपूर और जेनोबिया श्रॉफ बहुत अच्छी कास्टिंग हैं। शकुन का निर्देशन और आसिफ अली शेख की एडिटिंग साफ-सुथरी है। अमित त्रिवेदी का म्यूजिक फिल्म की प्रस्तुति के हिसाब से ठीक-ठाक है। 'एक मैं और एक तू' की टीवी या डीवीडी रिलीज का भी इंतजार कर सकते हैं, पर थियेटर में देखने का भी कोई अफसोस नहीं होगा।
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गजेंद्र सिंह भाटी