Tuesday, January 10, 2012

अमेरिकी प्रपंच से दूर, एलियन हमले का नया केंद्र रूस

फिल्म: द डार्केस्ट आवर (अंग्रेजी)
निर्देशक: क्रिस गोराक
कास्ट: ऐमिल हर्श, मैक्स मिंघेला, रैचल टेलर, ऑलिविया थर्लबॉय, वरॉनिका ऑजरोवा, यूरी कुत्सेंको, जोएल किनामैन
स्टार: दो, 2.0नील ब्लॉमकांप के निर्देशन में बनी 'डिस्ट्रिक्ट 9', एलियन जीवों के धरती पर होने की अब तक की श्रेष्ठ फिल्म है। अकेली ऐसी फिल्म जिसमें चौंका देने वाले एंटरटेनमेंट के साथ बड़े गंभीर पॉलिटिकल और सोशल विमर्श भी सिमटे थे। सबसे खास बात थी कि पहली बार एलियन अमेरिका की बजाय दक्षिण अफ्रीका की जमीन पर उतरे। इसी लिहाज से निर्देशक क्रिस गोराक की 'द डार्केस्ट आवर' भी अलग होती है। इसमें भी परग्रही जीवों का हमला अमेरिका पर नहीं होकर रूस पर होता है। शायद इसलिए भी क्योंकि प्रॉड्यूसर तिमूर रूस से हैं। और शायद वो चाहते थे कि फिल्मों में ये घिसा-पिटा जुमला बदले। और एंटरनेटमेंट के इस एलियन प्रपंच की धुरी गैर-अमेरिकी, गैर-हॉलीवुडी हो। और हर बार दुनिया को एलियंस से बचाने वाले सिर्फ एक ही देश (अमेरिका) से न हों।

खैर, एलियन दिखेंगे कैसे? उनकी शक्तियां कैसी होंगी? वो इंसानों को नुकसान किस तरीके से पहुंचाएंगे? उनके आने का कारण क्या है? वो चाहते क्या हैं? और उनका मुकाबला कैसे किया जाए? ...इन सब सवालों के लिहाज से भी एलियन फिल्में एक-दूसरे से अलग हो सकती हैं। ये फिल्म अलग तो है, लेकिन जहां भी अलग है वहां संतुष्ट नहीं करती। मसलन, इसमें एलियन दिखते नहीं हैं, बस कुछ इलैक्ट्रिकल बिजली जैसी चमकीली रेखाओं जैसी आकृतियों में वो आए हैं और जिसे भी छूते हैं वो राख में तब्दील हो जाता है। ये दिखने में नई चीज है पर आखिर में जब हमें इन एलियंस का चेहरा दिखता भी है तो मजा नहीं आता। कुछ बचकाना सा लगता है।

फिल्म की एक बड़ी खामी ये है कि इसका कोई भी कैरेक्टर रोचक नहीं है। सीन (ऐमिल हर्श) फिल्म का हीरो है पर उसमें वैसी बात नहीं है। बेन (मैक्स मिंघेला) में वो बात है पर जिंदा नहीं रहता। एनी (रैचल टेलर) ग्लैमरस दिखने, सुबकने और डरने में ही अपना सारा वक्त बिता देती है। नटाली (ऑलिविया थर्लबाय) आखिर तक फिल्म में रहती है पर उन्हें देख बोरियत होती है। रूसी लड़की वाइका (वरॉनिका ऑजरोवा) इंट्रेस्टिंग लगती है पर इस किरदार पर बिल्कुल भी ध्यान नहीं दिया गया है। फिल्म में जब तरह-तरह की धातू और जाल से ढके घोड़े पर बैठे मातवेई (यूरी कुत्सेंको) और उनके साथियों की एंट्री होती है तो रूचि जागती है। पर तब तक फिल्म दूसरे किनारे तक पहुंच रही होती है।

तो एलियंस के प्रति किसी जिज्ञासा का न होना और कहानी में डायलॉग्स और इंट्रेस्टिंग किरदारों के स्तर पर बोरियत होना, फिल्म को कमजोर बनाता है। आप फिल्म देख सकते हैं, उसके साधारण होने में हो सकता है खूबियां भी पाएं, पर मोटा-मोटी दर्शकों को कुछ खास नहीं मिलता। मिली-जुली प्रतिक्रिया लेकर थियेटर से निकलेंगे। पर फिल्म बुरी नहीं है। एक बार ट्राई कर सकते हैं। एक बड़ी अच्छी बात आखिर में कही जाती है। रूसी सोल्जर सा दिखने वाला मातवेई जब बचे हुए उन लोगों को अमेरिका जाने के लिए पनडुब्बी तक पहुंचाता है और खुद अपनी मातृभूमि में ही रहकर मरना पसंद करता है तो बड़ा बदलाव नजर आता है। जो हमेशा फिल्मों में नहीं होता। मातवेई कुछ-कुछ यूं कहता है, 'मैं यहीं रुकूंगा। तुम जाओ और उन एलियंस से बचने का जो रास्ता तुमने यहां रहकर सीखा है वो बाकी मानवता को सिखाओ, ताकि वो भी लड़ सकें। सामना कर सकें।'

यूं होता है परग्रही हमला

सीन और बेन अमेरिका से रूस सोशल नेटवर्किंग के अपने आइडिया पर कोई डील करने आए हैं। दोनों जिंदगी में कुछ बनना चाहते हैं, सबकुछ हासिल करना चाहते हैं। पर जब वो तय जगह पर पहुंचते हैं तो पता चलता है कि स्काइलर (जोएल किनामैन) ने उन्हें धोखा दिया और अब वो दोनों इस योजना का हिस्सा नहीं हैं। रात किसी पब में बिता रहे ये दोनों वहां दो अमेरिकी लड़कियों एनी और नटाली से मिलते हैं। स्काइलर भी यहां होता है। तभी सारी बत्तियां चली जाती हैं और सब लोग सड़कों पर आकर देखते हैं कि आसमां से रंगीन तंतुओं और इलैक्ट्रिक किरणों सी कुछ चीजें गिर रही हैं। थोड़ी देर में सबको पता चल जाता है कि ये एलियन अटैक है। मानवता को अब इस अटैक से बचना है और इन किरदारों को भी।
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गजेंद्र सिंह भाटी

Monday, January 9, 2012

अब्बास-मुस्तानः अपनी औसत सी फिल्मों के प्लेयर्स

फिल्म: प्लेयर्स
निर्देशक: अब्बास-मुस्तान
कास्ट: अभिषेक बच्चन, नील नितिन मुकेश, ओमी वैद्य, बॉबी देओल, सोनम कपूर, बिपाशा बसु, जॉनी लीवर, विनोद खन्ना, सिकंदर खेर
स्टार: ढाई, 2.5भला अपनी फिल्म के लिए 'प्लेयर्स' जैसा सपाट नाम सोचने में अब्बास और मुस्तान बर्मावाला को कितना वक्त लगा होगा? कितनी रचनाशीलता लगी होगी? जबकि जिस फिल्म (द इटैलियन जॉब) की ऑफिशियल रीमेक 'प्लेयर्स' है, उसके नाम में ज्यादा जिज्ञासा है। इन डायरेक्टर भाइयों की फिल्ममेकिंग में भी ऐसी किसी रचनाशीलता की कमी हमेशा होती है। पूरा ध्यान विशुद्ध एंटरटेनमेंट देने पर होता है। अगर लीड एक्टर्स में कुछ है तो वो खुद अपनी एक्टिंग को एक्सप्लोर कर लेते हैं, लेकिन अब्बास-मुस्तान इस पर ज्यादा ध्यान नहीं देते हैं। ये उनकी इस फिल्म को देखते हुए भी साफ नजर आता है। हमें एम्सटर्डम से लेकर रूस, न्यूजीलैंड और पूरे ग्लोब की सैर कराई जाती है। हीरो और विलेन के बीच खींचतान होती है। हीरोइन नाचती हैं, हीरो से प्यार करती है और इसके बाद भी कुछ वक्त मिल जाता है तो अपने पिता के गले लगकर रोती है। खैर, ये फिल्म एक्टिंग, कंसेप्ट और डायलॉग्स के मामले में बड़ी औसत है। कहीं कोई नएपन की कोशिश नहीं। पर कहानी और घुमाव-फिराव की वजह से देखने लायक हो जाती है। कहने का मतलब, दोस्तों को साथ टाइम अच्छे से पास हो जाता है। एक बार देख सकते हैं।

दस हजार का सोना कैसे लुटा
चार्ली मैस्केरेनस (अभिषेक बच्चन) और रिया (बिपाशा बसु) साथ मिलकर चोरी और ठगी करते हैं। पर जल्द ही चार्ली रूस में दस हजार करोड़ रुपये का सोना लूटने की योजना बनाता है। इस काम में खास काबिलियत वाले लोगों की टीम बनाने में वह अपने गुरु और जेल में बंद विक्टर दादा (विनोद खन्ना) की मदद लेता है। टीम बन जाती है। इसमें रॉनी (बॉबी देओल) भ्रमित करने वाला जादूगर है, रिया ऑटोमोबाइल एक्सपर्ट है, स्पाइडर (नील नीतिन मुकेश) हैकर है, बिलाल बशीर (सिकंदर खेर) विस्फोट विशेषज्ञ है और सनी (ओमी वैद्य) प्रोस्थैटिक्स या मेकअप विशेषज्ञ हैं। अब इन लोगों की इस बड़ी लूट में मोड़ तब आता है जब टीम का ही एक मेंबर धोखा दे देता है और पूरा सोना खुद ले जाता है। अब चार्ली को फिर से ये सोना लूटना है और खुद को सबसे बड़ा प्लेयर साबित करना है।

एक्टर और उनके कैरेक्टर
अभिषेक बच्चन: चार्ली के रोल में अभिषेक को एक सेकंड के लिए भी अपनी एक्टिंग स्किल्स को पुश नहीं करना पड़ता। वो कहीं कोई यादगार पल नहीं देते, क्लाइमैक्स में विलेन को अपनी लंबी-लंबी टांगों से मारने के अलावा।
नील नीतिन मुकेश: फिल्म में अभिनय के मामले में सबसे ज्यादा नील ही चमकते हैं। उनके किरदार स्पाइडर में कई परछाइयां हैं। जहां-जहां नील आते हैं, वहां फिल्म में थोड़ी जान आती है।
सिकंदर खेर: इस बंदे में संभावनाएं तो हैं, पर वो कभी अब्बास-मुस्तान बाहर नहीं ला सकते थे। पर चूंकि उनके डायलॉग कम हैं और रोल सीरियस, तो वह दमदार लगते हैं। ओमी वैद्य को उनका 'मेहरे' कहने का अंदाज अच्छा लगता है।
ओमी वैद्य: हालांकि अब उन्हें एक जैसे एक्सेंट और रोल में देख उबासी आती है, पर फिल्म में हम हंसी को तरस जाते हैं इसलिए ओमी यहां जो भी करते हैं वो हमें रिलैक्स करता है।
बॉबी देओल: रॉनी बने बॉबी का रोल बहुत छोटा है पर प्रभावी है। उनके लिए करने को न के बराबर था।
सोनम कपूर: सुंदर-सुंदर कपड़े और एक्सेसरी पहनने में ही उनका वक्त जाता है। पर चूंकि फिल्म में किसी को एक्टिंग करने जैसा कुछ करना ही नहीं था इसलिए क्या कहूं। हां, मूवी में रोने-धोने (नकली ही सही) के जो इक्के-दुक्के सीन हैं वो सोनम और बिपाशा के हिस्से ही आते हैं।
बिपाशा बसु: एक बिकिनी में समंदर से निकलने का सीन, एक गाना और बाकी टाइम हीरो लोगों के साथ फ्रेम में रंगत बनाए रखना, बिपाशा के रोल रिया के भाग्य में ढाई घंटे बस यही लिखा था।
विनोद खन्ना: दिखने में अब बूढ़े लगने लगे हैं विनोद खन्ना। विक्टर दादा के रोल में वो फिट लगते हैं, और बाकी बस निभा जाते हैं।
जॉनी लीवर: अपने टेलंट के लिहाज से जॉनी ने फूंक मारने जितना प्रयास भी नहीं किया है पर वो माहौल खुशनुमा बनाते हैं, पर मूवी में उनके सीन दो-तीन ही हैं।****************
गजेंद्र सिंह भाटी

Wednesday, January 4, 2012

भला, बुरा, भटका और उल्लेखनीयः सिनेमा वर्ष 2011

वो बारह महीने जो गुजर गए। वो जो अपने पीछे कुछ बड़े परदे के विस्मयकारी अनुभव छोड़ गए। वो जो ऐसे वीडियो पल देकर गए जो हमारे होने का दावा करते हुए भी हमारे लिए न थे। वो जो नुकसान की शुरुआत थे। वो जो धीरज बंधाते थे। वो जो सिनेमैटिकली इतने खूबसूरत थे कि क्या कहें, मगर पूरी तरह सार्थक न थे। वो बारह महीने बहुत कुछ थे। हालांकि मुख्यधारा की बातों में बहुत सी ऐसी क्षेत्रीय फिल्में और ऐसी फिल्में जो फीचर फिल्मों की श्रेणी में नहीं आती है, नहीं आती हैं, यहां भी नहीं है, पर कोशिश रहेगी की आगे हो।

अभी के लिए यहां पढ़ें बीते साल का सिनेमा। कुछ भला, कुछ बुरा, कुछ भटकाव को जाता और कुछ उल्लेखनीय। और भी बहुत कुछ।
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गजेंद्र सिंह भाटी

Saturday, December 31, 2011

पिटता, पीटता और हंसाता चलता वो जासूस शरलॉक होम्स

फिल्मः शरलॉक होम्स गेम ऑफ शैडोज (अंग्रेजी)
निर्देशकः गाय रिची
कास्टः रॉबर्ट डाउनी. जूनियर, जूट लॉ, जैरेड हैरिस, रैचल मैकएडम्स, स्टीफन फ्राई, नूमी रीपेस, पॉल एंडरसन, कैली रायली
स्टारः साढ़े तीन, 3.5डायरेक्टर गाय रिची की ये सीक्वल 'शरलॉक होम्स: गेम ऑफ शेडौज 2009 में उन्हीं के निर्देशन में आई पहली फिल्म से ज्यादा तेज, स्मार्ट और इंसानी लगती है। पूरे दो घंटे और कुछ मिनट हम आंखें परदे पर ही गड़ाए रखते हैं, कहीं बोरियत नहीं, कहीं घिसे-पिटे फिल्मी फॉर्म्युले नहीं। फिल्म का प्रस्तुतिकरण बहुत जगह रंग बदलता है, एक्सपेरिमेंटल लगता है। एक्शन सीक्वेंस में, स्लो मोशन वाले सीन में, तनाव भरे पलों में उपजते ह्यूमर में और हांस फ्लोरियन जिमर के रहस्य भरे बैकग्राउंड म्यूजिक में, फिल्म जायका बदलती चलती है। फिल्म जरूर देखें, मेरी सीधी हां है। मजा आएगा।

डाउनी जूनियर और जूड लॉ की जोड़ी पहले सी ही फ्रैश है। अब वॉटसन बने जूड की शादी का एंगल आ गया है, जिससे दोनों के बीच नोकझोंक होती है। मसलन, पुल के ऊपर से ट्रेन गुजर रही है और मारियाती के आदमियों ने हनीमून मनाने जा रहे वॉटसन और उसकी नवविवाहित वाइफ मैरी के डिब्बे पर हमला बोल दिया है। इस बीच औरत का रूप धरे होम्स आता है और मैरी को कई फुट नीचे नदी में फैंक देता है। यहां दर्शकों को हंसी आने लगती है, क्योंकि वॉटसन अपनी वाइफ को नीचे धकेलने के लिए उससे लड़ रहा है और होम्स कह रहा है कि डोंट वरी, फैंकते वक्त मेरी टाइमिंग बहुत अच्छी थी, उसे कुछ नहीं होगा। इस तरह ये शादी का रेफरेंस दोनों के बीच आता-जाता रहता है।

विलेन मारियाती बने जैरेड हैरिस लुक्स और अभिनय में गैरपारंपरिक लगते हैं। हीरो के तेज दिमाग को टक्कर देते हुए। उनका और होम्स का क्लाइमैक्स सीन देखिए। यहां दोनों दिमाग में ही गणित के मुश्किल सूत्र हल करने के अंदाज में शतरंज की चाल चल रहे हैं और लडऩे के एक-एक स्टेप को पहले ही प्रडिक्ट कर रहे हैं। हालांकि आखिर में किसका मोहरा हावी रहता है ये तो सस्पेंस है, पर तरीका इंट्रेस्टिंग है। होम्स तो सोचता भी ऐसे ही है। एक छोटे से सुराग से कुछ सेकंड में मन ही मन अगले दर्जनों स्टेप सोच लेना।

गाय रिची ने फिल्म में एक्शन सीक्वेंस में स्लो मोशन का चतुर इस्तेमाल किया है। चाहे, होम्स का हर लड़ाई से पहले स्लो मोशन में हर फाइट एक्शन को मन में सोचना हो या जंगलों में से होते हुए मारियाती के आदमियों से भागना। इस दौरान जो गोलियां और हथगोले छूट रहे हैं, वो हमें बड़ी धीमी रफ्तार में पेड़ों की छाल छीलते, मिट्टी उछालते और बाहें खरोंचते नजर आते हैं। मंत्रमुग्ध करते हुए।

डाउनी जूनियर होम्स के रोल में पानी की तरह घुले लगते हैं। हालांकि डाउनी दिखने में स्कॉटिश राइटर सर ऑर्थर कॉनन डॉयेल के इस काल्पनिक किरदार जैसे नहीं हैं। डॉयेल के स्कैच वाला होम्स ज्यादा बूढ़ा, पीछे खिसकी हेयरलाइन वाला और ज्यादा सनकी था, जबकि हमारे डाउनी जूनियर किरदार में अपने हाव-भाव डालते हैं, जो अच्छे लगते हैं। उनका बिना सोचे-समझे हर खतरे में टांग अड़ा देना, फिर कभी पिटना, कभी पीट देना, इस नामी जासूस को हमारे जैसा इंसानी ही लगता है। उनके ह्यूमर की टाइमिंग सौ साल पुराने इस किरदार को हमारे आज के टेस्ट के मुताबिक बनाती है।

फिल्म के छोटा सा सीन है, पर स्मृतियों में रह गया। होम्स के भाई माइकॉफ्ट का रोल कर रहे स्टीफन फ्राई अपने घर में सुबह-सुबह बिना कपड़ों के घूम रहे हैं और सामने वॉटसन की वाइफ मैरी आ जाती है, जो ये माजरा देख चकरा जाती है। अब खुद का नंगा होना तो माइकॉफ्ट के लिए तो जैसे कोई बात ही नहीं है, पर मैरी उसे देखने से बचते-बचाते हुए अपने पति की जानकारी उससे ले रही है।

सायों के खेल में होम्स और वॉटसन
हम 1891 के लंदन में हैं। ख्यात जासूस शरलॉक होम्स (रॉबर्ट डाउनी, जूनियर) इस बार मशहूर प्रफेसर और अपने पुराने दुश्मन मारियाती (जेरेड हैरिस) के खिलाफ सबूत जुटा रहा है। नामी डॉक्टर हॉफमैनस्टॉल और होम्स की लव इंट्रेस्ट इरीन एडलर (रैचेल मैकएडम्स) मारे जा चुके हैं। जब होम्स का दोस्त और जासूसी करतबों का साथी डॉ. वॉटसन (जूड लॉ) उससे मिलता है तो होम्स बताता है कि बहुत से कत्लों, आतंकी घटनाओं और कारोबारी अधिग्रहणों का सिरा मारियाती पर जाकर टिकता है। हालांकि वॉटसन मैरी (कैली रायली) से शादी कर रहा है, पर होम्स के मनाने पर वह इस केस में भी उसका साथ देता है और दोनों मारियाती को रोकने में जुटते हैं। इसी कहानी में एक घुमंतू लड़की सिम्जा (नूमी रीपेस), होम्स का भाई माइकॉफ्ट (स्टीफन फ्राई) और मारियाती का खास आदमी सबैश्चियन मोरान (पॉल एंडरसन) के किरदार भी आते हैं।
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गजेंद्र सिंह भाटी

Thursday, December 29, 2011

माइनस सत्यदेव दुबे इंडियन थियेटर पूरा नहीं होता

" उनके बारे में खासतौर पर बहुत कुछ कहा जाएगा और कहा जाना चाहिए। क्योंकि भारतीय थियेटर में उनके जितनी लौहकाय-भीमकाय और हिमालयी छवि कुछेक ही हुई हैं। अपनी पूरी जिंदगी किसी एक पैशन में गुजार देना यूं ही नहीं आता। ये बड़े त्याग और बड़े रोग मांगता है। सत्यदेव दुबे फक्कड़ बनकर रहे। ज्ञान के मामले में उनसा कोई न था, पर उनके तरीके उतने ही देसी या कहें तो आर या पार वाले थे। छत्तीसगढ़ से आए लेकर महाराष्ट्रियन बनकर रहे। यहां उनके बारे में जरा सी बात करने का मतलब बस इतना ही है कि उनकी स्मृतियां हमारे बीच कायम रहे। हम उन्हें भूले न। क्योंकि ये उन लोगों में से थे जो सदियों में एक-आध बार होते है। और समाज को इतना कुछ देकर जाते हैं कि अगली कई सदियों का जाब्ता हो जाता है।"

सत्यदेव दुबे
1936-2011

'ब्लैक में देबराज साहनी नाम का सनकी और अप्रत्याशित तरीके अपनाने वाला एक गुरु था। लोगों के लिए अजीब, पर मिशेल मेक्नैली के लिए उसकी जिंदगी बदलने वाला टीचर। पंडित सत्यदेव दुबे भी एक ऐसे ही गुरु थे। मुंबई के थियेटर वर्ल्ड सबसे ऊंची पर्सनैलिटी, और इंडियन थियेटर की भी। बीते रविवार को 75 की उम्र में उनका निधन हो गया। हिंदी फिल्मों में आज के कई सुपर एक्टर हैं जिन्हें एक्टिंग की क ख ग उन्होंने ही सिखाई। अमरीश पुरी उनके ऑलटाइम फेवरेट स्टूडेंट रहे और पुरी खुद मानते थे कि एक्टिंग में उन्होंने सब-कुछ दुबे साहब से ही सीखा। थियेटर के नए आकांक्षी उनके सामने हाथ बांधकर जाते, दिल ऊपर नीचे होता रहता कि इस लैजेंड से कैसे बात हो पाएगी और न जाने वो क्या कह देंगे। पर बाद में सत्यदेव दुबे उनके सबसे करीबी फ्रेंड, पेरंट और गाइड हो जाते।

मेरा उनसे पहला परिचय गोविंद निहलानी की फिल्म 'आक्रोश से हुआ। ओमपुरी, नसीरुद्दीन शाह और अमरीश पुरी की एक्टिंग के साथ दिग्गज नाटककार विजय तेंडुलकर की कहानी और वहीं-कहीं डायलॉग के क्रेडिट में लिखा एक नाम, पंडित सत्यदेव दुबे। ये नाम श्याम बेनेगल की छह शानदार समानांतर फिल्मों में भी डायलॉग-स्क्रिप्ट लिखने के क्रेडिट में दिखता रहा। 'अंकुर’, 'निशांत’, 'भूमिका’, 'जुनून’, 'कलयुग और 'मंडी। इन कल्ट फिल्मों और भारत के थियेटर को माइनस सत्यदेव दुबे करके नहीं देख सकते।

मराठी
, इंग्लिश और हिंदी के नाटकों को उन्होंने अपने इंटरप्रिटेशन वाली भाषा दी। उनकी बोलचाल की भाषा बड़ी रंगीन थी। जब वो मीडिया के इंटरव्यू मांगने पर पैसे मांगते तो कुछ और नहीं बल्कि वो थियेटर को किसी की गरज नहीं करने वाला बना रहे होते थे। थियेटर को दिए अपने 50 सालों में उनका अपने और बाकियों के लिए एक ही मूलमंत्र रहा। पैशन। कि थियेटर को प्रमोशन, पब्लिसिटी या स्टार्स की नहीं बल्कि सिर्फ पैशन की जरूरत है। 'अंधा युग', 'शांतता कोर्ट चालू आहे', 'आधे अधूरे’, 'एंटीगॉन और अपने लिखे 'संभोग से सन्यास तक जैसे नाटकों में उनका निर्देशन बेदाग था। उनके जाने के बाद जो तस्वीरें दिखती या उभरती हैं उनमें दुबे जी के दाह संस्कार वाली जगह निराशा में सिर झुकाए बैठे नसीरुद्दीन शाह दिखते हैं, तो अर्थी को हाथ देते निर्देशक गोविंद निहलानी। ट्विटर पर अमिताभ बच्चन बताते हैं कि उन्हें 'दीवार’ में सत्यदेव दुबे के साथ काम करने का सौभाग्य मिला था। सौरभ शुक्ला कहते हैं कि मैं हमेशा उनकी हस्ती से खौफ खाता रहा। एक बार पार्टी में दूर नर्वस खड़ा रहा और वो आकर बोले कि मैंने तुम्हारी फिल्म इस रात की सुबह नहीं देखी, तुमने बड़ा अच्छा काम किया है।

ये
साल एक और लार्जर देन लाइफ नाम को अपने साथ ले जा रहा है, पर उनकी यादें और अमिट योगदान जेहन में सदा बने रहेंगे।
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ज्योति सभरवाल के साथ लिखी अपनी ऑटोबायोग्रफी ' एक्ट लाइफ में खुद के थियेटर डेज के दौरान अमरीश पुरी सत्यदेव दुबे का खासतौर पर जिक्र करते हैं। चूंकि दुबे साहब अमरीश को अपना फेवरेट स्टूडेंट मानते थे, तो पढ़िए कि इंडियन फिल्मों का ये सबसे कद्दावर विलेन और एक्टर अपने गुरू दुबे साहब के बारे में क्या लिखता है:

# मेरे साथ जो अगली अच्छी चीज हुई वो दुबे साहब थे। उन्हें हिंदी सेक्शन में नियुक्त किया गया। वो मॉलिएर के फ्रेंच प्ले 'स्कॉर्पियन’ के हिंदी ऐडप्टेशन 'बिच्छू’ को डायरेक्ट कर रहे थे। मैं उसमें लीड रोल कर रहा था। नवाब के घर का नौकर। 'बिच्छू’ के डायलॉग बड़े फनी और चतुराई भरे थे। अप्रत्यक्ष तौर पर दुबे साहब का मजाक उड़ाते हुए मैं उन्हें और भी फनी बना देता था।

# उन दिनों वो बड़े यंग और लड़कों जैसे लगते थे। बहुत सारे घुंघराले बाल वाला एक पतला नाटा बंदा। पहले मुझे उनसे निर्देश लेने में बड़ी दिक्कत हुई। कि कैसे इस लड़के को एक्टिंग में अपना टीचर और डायरेक्टर मानूं। फिर जब उनका निर्देशन सख्त हुआ तो मुझे वो बड़े सक्षम लगे। तालमेल बैठने के बाद मैं उनकी इज्जत करने लगा।

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उस गहन ट्रेनिंग कोर्स के दौरान दुबे साहब ने ज्यादा इंट्रेस्ट दिखाना शुरू किया। जब भी मैंने कोई पॉइंट मिस किया उन्होंने मुझे डांटा। मैं एक समर्पित स्टूडेंट की तरह उनके कहे मुताबिक काम कर रहा था। वो काफी इम्प्रेस हुए।

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अपने स्तर पर वो 1954 से इंग्लिश थियेटर ग्रुप से भी जुड़े थे। इसमें अल्काजी साहब, एलेक पदमसी, पर्ल पदमसी और ख्यात बुद्धिजीवी पी.डी.शिनॉय जैसे लोग थे। शिनॉय को दुबे साहब अपना गुरू मानते थे। शिनॉय बहुत ज्यादा ज्ञानवान थे, पर मैं कहूंगा कि दुबे साहब थियेटर के मामले में अंतिम आवाज और अथॉरिटी हैं। उनके परफेक्शन को छू सकने वाला कोई नहीं है।

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जब मराठी और गुजराती थियेटर के लोग दुबे साहब के संपर्क में आए तो वो उनके नाटकों के मूल तत्व को समझने की कोशिश कर रहे थे। कि कैसे दुबे साहब की थीम्स का इंटरप्रिटेशन बाकियों से बहुत अलग था। 1960 के बाद के वक्त में थियेटर में जो एक्सपेरिमेंटल मूवमेंट चल रहा था, उसके लिए जिम्मेदार लोगों में दुबे साहब ने भी बड़ी इज्जत कमाई। मुंबई में हिंदी, मराठी और इंग्लिश थियेटर को करीब से देखने के बाद मैं पाता हूं कि नाटकों के अपने अलग ही इंटरप्रिटेशन से उन्होंने नाटकों का पूरा ट्रेक ही बदल दिया। सिर्फ लाइन्स के मतलब को पकडऩे के लिए नहीं बल्कि उन लाइन्स के बीच क्या है, उसे पढऩे के लिए भी वो गहराई में जाते थे।

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अपने एक्टर्स से भी वो हमेशा यही चाहते थे कि प्ले को समझें। जल्द ही हमने कालिदास के प्ले 'आषाढ़ का एक दिन’ जिसे मोहन राकेश ने एडेप्ट किया था, उसे 1963 में मंचित किया। दुबे साहब तीस के भी नहीं हुए थे और इस
प्ले की गहरी परतों को समझना उनके लिए चैलेंजिंग रहा होगा।

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मुझे याद है एक बार दुबे साहब ने मुझे कहा, 'समर्पण बहुत जरूरी है।‘ उनका कहना था कि अगर वो किसी को ढालना या मोडऩा चाहते हैं तो उस व्यक्ति को उनके आगे पूरी तरह समर्पित होना होगा। संपूर्ण समर्पण।फोटो: चित्रा पालेकर, अमरीश पुरी और सत्यदेव दुबे

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गजेंद्र सिंह भाटी

Monday, December 26, 2011

फ्रेंच रैंबो जैसे सिमोन को देखें, बाकी सब बुरा-भला

फिल्मः एल्विन एंड चिपमंक्स: चिपरैकेड
निर्देशकः माइक मिशेल
कास्टः जेसन ली, डेविड क्रॉस, जेनी स्लेट
वॉयसओवरः जस्टिन लॉन्ग, मैथ्यू ग्रे गब्लर, एलन टुडी, जेसी मैककॉर्टनी, क्रिस्टीना एपलगेट, एना फैरिस, एमी पूलर
स्टारः ढाई, 2.5
 सात साल पहले आई 'शार्क टेल’ से होते हुए इस साल की ' एडवेंचर्स ऑफ टिनटिन: सीक्रेट्स ऑफ यूनीकॉर्नऔर 'हैपी फीट-2’ तक पहुंचे तो ऐसी बहुत कम एनीमेशन फिल्में हुई हैं जो 'एल्विन एंड चिपमंक्स: चिपरैकेड जितनी बिखरी हुई हैं। या जिनकी स्क्रिप्ट इतनी कमजोर, या डायलॉग इतने उबाऊ हैं। शुरू इस तरह से होती है मानो किसी एनिमेशन फिल्म का शेष भाग टीवी ब्रेक के बाद हम देख रहे हैं। ओपनिंग किसी फिल्म सी नहीं महसूस होती।

'वेकेशन, ऑल आई एवर वॉन्टेड, वेकेशन गाते हुए सब चिपमंक शिप पर चढ़ जाते हैं। ब्रिटनी स्पीयर्स और लेडी गागा सी तड़कीली-भड़कीली ड्रेसेज और एटिट्यूड लिए चिपेट्स शुरू में ज्यादातर वक्त बात-बात पर नाचती रहती हैं। एल्विन की झल्ला देने वाली शरारतें भी खत्म नहीं होती। उस बीच डेव बने जेसन ली बड़े बुझे-बुझे लगते हैं। उन्हीं के दोस्त इयान बने एक्टर डेविड क्रॉस बतख की ड्रेस में परेशान ही करते हैं, हंसाना तो बहुत दूर की बात है। यहां तक आते-आते ऐसा लगता है जैसे स्क्रिप्ट को गाय चबा गई थी और जितनी बच पाई, उसी से फिल्म बना दी। टापू पर चिपमंक्स को वहां पर कुछ साल से फंसी लड़की जोई (जेनी स्लेट) मिलती है। जेनी की एक्टिंग और क्लाइमैक्स में उनका रोल बहुत खराब है।

तो फिल्म में तमाम टॉर्चर देने वाली चीजें मैंने आपको सबसे पहले बता दी हैं। और ये ज्यादातर टॉर्चर देने वाली तब लगती हैं जब हम किसी मैच्योर की तरह फिल्म देखें। जबकि फिल्म देखते हुए आपका बच्चा होना बहुत जरूरी है। क्योंकि छह की छह गिलहरियां इतनी प्यारी हैं कि आप चाहकर भी बुराई नहीं कर पाते। शायद बच्चा बनकर देखने के लिहाज से ही डायरेक्टर माइक मिशेल ने फिल्म को ऐसा रखा। फिर भी कहूंगा कि इस सीरिज की तीनों फिल्मों में ये सबसे कमजोर है।

अब आते हैं उन खूबसूरत बातों पर जो दिल लुभाती हैं। जो हमको और खासतौर पर बच्चों को भाएगी। फिल्म में सिमोन ने मेरा दिल चुरा लिया। नजर की ऐनक लगाए पढ़ेसरी और समझदार साइमन (मैथ्यू ग्रे गब्लर की आवाज) की पर्सनैलिटी में किसी कीड़े के काटने से बदलाव आते हैं और वो फ्रेंच एक्सेंट में बात करने वाला महारोमैंटिक, कूल डूड और रैंबो सा परमवीर सिमोन (एलन टूडी की आवाज) बन जाता है। अहा! उसका जिनेट को फ्रेंच में मेदमोजेल (मैम) बोलना, शार्क से लडऩा, फ्लर्ट करना या फिर आशिकों के जैसे इम्प्रेस करने वाले लंबे-लंबे डायलॉग बोलना फिल्म के सबसे यादगार पल हैं। मैं बस सिमोन को देखने के लिए फिल्म दोबारा देख सकता हूं।

फिल्म में क्लाइमैक्स बहुत बोरिंग है, पर बच्चों में नैतिकता और दूसरों की मदद करने या दूसरों को माफ करने का गुण डालने वाली अच्छी बात है। जब डेव लकड़ी के पुल से नीचे लटक रहा होता है और जेनी उसे मारने वाली होती है तो डेविड क्रॉस का कैरेक्टर आकर उसे समझाता है। खजाने की लोभी उस लड़की का ह्रदय परिवर्तन करता है। ये बोरिंग है पर अच्छा है। एल्विन के जंगल में सुधरने का तरीका बच्चों को एंटरटेन भी करता है और सीख भी देता है। पहले साइमन सारी टेंशन लेता था और एल्विन शैतानियां करता, अब साइमन तो सिमोन होकर आवारा हो गया है और सारी जिम्मेदारी एल्विन को लेनी पड़ती है। वो सुधरता है। फिल्म में 13 साउंडट्रेक हैं और कुछ एडिशनल हैं, पर उन्हें फिल्म में पिरोया ऐसे गया है कि कहीं कोई भावुक-यादगार पल नहीं पैदा होते। इन्हें एडजस्ट करने के चक्कर में भी फिल्म की एनर्जी इधर-उधर भागती है।

तमाम कमजोरियों के बावजूद बच्चों के लिहाज से कहूंगा कि उन्हें ये फिल्म जरूर दिखाएं। फिल्मी ग्रामर में तो ये फिल्म फेल होती है, पर मासूमियत में पास। बड़ों, आपके लिए ये फिल्म डेढ़ स्टार वाली है पर बच्चों के लिहाज से ढाई स्टार।

एल्विन और चिपमंक्स कथा: भाग तीन
पहली फिल्म थी फ्लॉप सॉन्गराइटर डेव (जेसन ली) के तीन नाचने-गाने वाली मेल गिलहरियों यानी चिपमंक्स से मिलने और हिट होने की। दूसरी फिल्म में तीन फीमेल गिलहरियां यानी चिपेट्स भी आ गईं। अब इस तीसरी फिल्म में शरारती चिपमंक एल्विन को सुधरना होगा। कहानी शुरू होती है एल्विन, साइमन, थियोडोर, ब्रिटनी, जिनेट और एलेनॉर इन चिपमंक्स के अपने मैनेजर और पिता समान डेव के साथ समुद्री जहाज पर छुट्टियां मनाने जाने के साथ। डेव के बार-बार समझाने पर भी एल्विन (आवाज जस्टिन लॉन्ग की) की बदमाशियां कम नहीं होती है और एक दिन पतंग से खेलते-खेलते वह और उसके सभी साथी चिपमंक उड़ जाते हैं। अब वो किसी टापू पर फंस जाते हैं और डेव को मिस करते हैं। एल्विन को पछतावा होता है और वो जिम्मेदार बनने की कोशिश करता है। पर क्या वो कभी इस टापू से निकल नहीं पाएंगे, जो ज्वालामुखी फटने से नष्ट होने वाला है? और क्या डेव उन्हें बचाने आएगा?

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गजेंद्र सिंह भाटी