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Monday, January 9, 2012

अब्बास-मुस्तानः अपनी औसत सी फिल्मों के प्लेयर्स

फिल्म: प्लेयर्स
निर्देशक: अब्बास-मुस्तान
कास्ट: अभिषेक बच्चन, नील नितिन मुकेश, ओमी वैद्य, बॉबी देओल, सोनम कपूर, बिपाशा बसु, जॉनी लीवर, विनोद खन्ना, सिकंदर खेर
स्टार: ढाई, 2.5भला अपनी फिल्म के लिए 'प्लेयर्स' जैसा सपाट नाम सोचने में अब्बास और मुस्तान बर्मावाला को कितना वक्त लगा होगा? कितनी रचनाशीलता लगी होगी? जबकि जिस फिल्म (द इटैलियन जॉब) की ऑफिशियल रीमेक 'प्लेयर्स' है, उसके नाम में ज्यादा जिज्ञासा है। इन डायरेक्टर भाइयों की फिल्ममेकिंग में भी ऐसी किसी रचनाशीलता की कमी हमेशा होती है। पूरा ध्यान विशुद्ध एंटरटेनमेंट देने पर होता है। अगर लीड एक्टर्स में कुछ है तो वो खुद अपनी एक्टिंग को एक्सप्लोर कर लेते हैं, लेकिन अब्बास-मुस्तान इस पर ज्यादा ध्यान नहीं देते हैं। ये उनकी इस फिल्म को देखते हुए भी साफ नजर आता है। हमें एम्सटर्डम से लेकर रूस, न्यूजीलैंड और पूरे ग्लोब की सैर कराई जाती है। हीरो और विलेन के बीच खींचतान होती है। हीरोइन नाचती हैं, हीरो से प्यार करती है और इसके बाद भी कुछ वक्त मिल जाता है तो अपने पिता के गले लगकर रोती है। खैर, ये फिल्म एक्टिंग, कंसेप्ट और डायलॉग्स के मामले में बड़ी औसत है। कहीं कोई नएपन की कोशिश नहीं। पर कहानी और घुमाव-फिराव की वजह से देखने लायक हो जाती है। कहने का मतलब, दोस्तों को साथ टाइम अच्छे से पास हो जाता है। एक बार देख सकते हैं।

दस हजार का सोना कैसे लुटा
चार्ली मैस्केरेनस (अभिषेक बच्चन) और रिया (बिपाशा बसु) साथ मिलकर चोरी और ठगी करते हैं। पर जल्द ही चार्ली रूस में दस हजार करोड़ रुपये का सोना लूटने की योजना बनाता है। इस काम में खास काबिलियत वाले लोगों की टीम बनाने में वह अपने गुरु और जेल में बंद विक्टर दादा (विनोद खन्ना) की मदद लेता है। टीम बन जाती है। इसमें रॉनी (बॉबी देओल) भ्रमित करने वाला जादूगर है, रिया ऑटोमोबाइल एक्सपर्ट है, स्पाइडर (नील नीतिन मुकेश) हैकर है, बिलाल बशीर (सिकंदर खेर) विस्फोट विशेषज्ञ है और सनी (ओमी वैद्य) प्रोस्थैटिक्स या मेकअप विशेषज्ञ हैं। अब इन लोगों की इस बड़ी लूट में मोड़ तब आता है जब टीम का ही एक मेंबर धोखा दे देता है और पूरा सोना खुद ले जाता है। अब चार्ली को फिर से ये सोना लूटना है और खुद को सबसे बड़ा प्लेयर साबित करना है।

एक्टर और उनके कैरेक्टर
अभिषेक बच्चन: चार्ली के रोल में अभिषेक को एक सेकंड के लिए भी अपनी एक्टिंग स्किल्स को पुश नहीं करना पड़ता। वो कहीं कोई यादगार पल नहीं देते, क्लाइमैक्स में विलेन को अपनी लंबी-लंबी टांगों से मारने के अलावा।
नील नीतिन मुकेश: फिल्म में अभिनय के मामले में सबसे ज्यादा नील ही चमकते हैं। उनके किरदार स्पाइडर में कई परछाइयां हैं। जहां-जहां नील आते हैं, वहां फिल्म में थोड़ी जान आती है।
सिकंदर खेर: इस बंदे में संभावनाएं तो हैं, पर वो कभी अब्बास-मुस्तान बाहर नहीं ला सकते थे। पर चूंकि उनके डायलॉग कम हैं और रोल सीरियस, तो वह दमदार लगते हैं। ओमी वैद्य को उनका 'मेहरे' कहने का अंदाज अच्छा लगता है।
ओमी वैद्य: हालांकि अब उन्हें एक जैसे एक्सेंट और रोल में देख उबासी आती है, पर फिल्म में हम हंसी को तरस जाते हैं इसलिए ओमी यहां जो भी करते हैं वो हमें रिलैक्स करता है।
बॉबी देओल: रॉनी बने बॉबी का रोल बहुत छोटा है पर प्रभावी है। उनके लिए करने को न के बराबर था।
सोनम कपूर: सुंदर-सुंदर कपड़े और एक्सेसरी पहनने में ही उनका वक्त जाता है। पर चूंकि फिल्म में किसी को एक्टिंग करने जैसा कुछ करना ही नहीं था इसलिए क्या कहूं। हां, मूवी में रोने-धोने (नकली ही सही) के जो इक्के-दुक्के सीन हैं वो सोनम और बिपाशा के हिस्से ही आते हैं।
बिपाशा बसु: एक बिकिनी में समंदर से निकलने का सीन, एक गाना और बाकी टाइम हीरो लोगों के साथ फ्रेम में रंगत बनाए रखना, बिपाशा के रोल रिया के भाग्य में ढाई घंटे बस यही लिखा था।
विनोद खन्ना: दिखने में अब बूढ़े लगने लगे हैं विनोद खन्ना। विक्टर दादा के रोल में वो फिट लगते हैं, और बाकी बस निभा जाते हैं।
जॉनी लीवर: अपने टेलंट के लिहाज से जॉनी ने फूंक मारने जितना प्रयास भी नहीं किया है पर वो माहौल खुशनुमा बनाते हैं, पर मूवी में उनके सीन दो-तीन ही हैं।****************
गजेंद्र सिंह भाटी

Monday, September 26, 2011

बिन मौसम मेला है ये

(खिलखिलाती, फिल्म को पहले ही प्रडिक्ट कर लेती, बेहद मजाकिया निष्ठुर उन लड़कियों ने फिल्म को यूं सम अप किया)

फिल्म: मौसम
निर्देशक: पंकज कपूर
कास्ट: शाहिद कपूर, सोनम कपूर, अदिति शर्मा, कमल चोपड़ा, मनोज पाहवा, सुप्रिया पाठक
स्टार: दो, 2.0

पूरा थियेटर निराश था। यही निराशा 'सांवरिया' के पहले शो में देखी थी। 'मौसम' खत्म होने में अभी 25 मिनट थे और आठ लड़कों का वह ग्रुप उठकर जाने लगा। मेरे पास बैठे एक पिता खड़े हुए और बेटे से बोले, 'मैं गाड़ी निकाल रहा हूं तुम ममी और भैया के साथ बाहर आ जाना।' पूरे थियेटर से आ रही बू की आवाजों के बाद भी मैं डटा रहा। चाहता था कि पंकज कपूर की ये फिल्म बहुत अच्छी हो। मैंने पचास एंगल से मन ही मन इसे अच्छा साबित करने की कोशिश की पर कर नहीं पाया। फिल्म का पहला आधा घंटा और बीच-बीच में आते रियलिस्टिक किरदार, चीजें, कपड़े, बोली, गांव और सीन बड़े अच्छे हैं। उसके बाद हर बदलते मौसम में हम परेशान होने लगते हैं। ऐसे लगता है कि कोई जबरदस्ती एक ऐसा नॉवेल पढ़कर हमें सुना रहा है जो हमें बहुत बोरिंग लग रहा है। बहुत सारी सिनेमैटिक, एब्सट्रैक्ट और अच्छी चीजें होने के बावजूद दुख के साथ मैं कहूंगा कि मौसम अच्छी नहीं है।

शॉर्ट में स्टोरी
मल्लूकोट, पंजाब में रहने वाले हरिंदर सिंह (शाहिद कपूर) को अपने पड़ोस में आई कश्मीरी शरणार्थी लड़की आयत (सोनम कपूर) से मासूमियत भरा प्यार हो जाता है। पर इकरार से पहले वह बिछड़ जाते हैं। फिर बदलते मौसम की तरह मिलते-जुदा होते रहते हैं।

हां पकंज, हमें सहानुभूति है
एक मुस्लिम परिवार पर बीतती कहानी 1991, 1993, 1999, 2002 से गुजरती है। 1984 का भी जिक्र आता है। दुख भरी है। एयरफोर्स के वीर रस वाले फाइटर प्लेन, पौशाक, बैज, टशन और गर्व हैं। बड़े लैंडस्केप हैं। स्कॉटलैंड है, स्विटजरलैंड है, अमेरिका है। ये सब तो ठीक पर दोनों लीड स्टार शाहिद और सोनम एक्टिंग करना नहीं जानते हैं। ये दोनों पंकज कपूर की इस फिल्म के हर सीन को मटियामेट करते रहते हैं। पंकज भी निर्देशन के दौरान फिल्म की कहानी से न जुड़े रहकर अपने बेटे की प्रोफाइल शूट करते लगते हैं। (हां, ये बात और है कि 'मौसम' जैसी दर्जनों प्रोफाइल फिल्में भी शाहिद को बेहतर एक्टर पाएंगी, ऐसा लगता नहीं है) साथ ही वह बीच में कई पोएटिक भाषाओं में बातें करने लगते हैं, जो कि आम दर्शकों के मतलब की चीज नहीं है। कहानी को भी वो रेलेवेंट नहीं रख पाते। ऑटो से लौटते वक्त मेरे साथ एक अनजाना यंग कपल बैठा था। लड़की कहने लगी, 'यार पता नहीं ये फिल्म किस बंदे ने बनाई है। बड़ी बोरिंग थी। सब कुछ डाल दिया। इतना भी कम था तो रीसेंट ब्लास्ट भी डाल देते।'

नहीं सुधरेंगे क्या?
शाहिद जो एटिट्यूट चेहरे पर लेकर चलते हैं वह खोखला है। वह भयंकर रूप से निराश करते हैं। उन्हें थोड़ा रुककर ये भी जान लेना चाहिए कि अपने मैनरिज्म या शारीरिक भाव-भंगिमाओं के साथ वह कभी सहज नहीं हो पाते। अभी नहीं हो पाए हैं, आगे भी मिजाज कम ही लगते हैं। आर्मी की वर्दी में कैसे सोबर रहा जाता है ये जानने के लिए शाहिद 'लक्ष्य' की डीवीडी लें और एडजुटेंट मेजर प्रताप सिंह बने अभिमन्यु सिंह को देखें। अभिमन्यु आईएमए की पासिंग आउट परेड में माइक पर बोल रहे होते हैं। सोनम फिल्म में थोपी हुई लगती हैं। शुरू के आधे घंटे में वह निर्देशक साहब की वजह से नॉर्मल लगती हैं, इसकी प्रशंसा करूंगा। उसके बाद तो न पूछें।

ये अच्छा है
#
आयत के अब्बू बने एक्टर कमल चोपड़ा ने कश्मीरी शरणार्थी की आवाज और लाचारी को जैसे निभाया है वह बेहतरीन है। फिल्म के बाकी एक्टर उनसे ही बहुत कुछ सीख सकते हैं।
# फिल्म के पहले आधे घंटे में पंजाब को पंकज कपूर ने बहुत सच्ची खूबसूरती से फिल्माया है। मसलन ये बेहद नेचरल सीन है जहां हरिंदर स्कूटर पर आयत के अब्बू को लेकर आ रहा है और पीछे मोहल्ले की चाची लड़ रही है और उनकी आवाज पूरी गली में गूंज रही है।
# मनोज पाहवा की एक्टिंग। वो सीन जब आयत को कातर निगाहों से देखने के लिए अपनी साइकिल की चैन बनाने का नाटक करता हरिंदर है, सामने बैठे मनोज कहते हैं, 'आजकल तो इसकी चैन हमेशा ही उतरी रहती है।' चाय पीते हुए उनका वो लुक और अंदाज उनके वॉन्टेड वाले अंदाज से कितना अलग है।
# गांवों की गलियों को पंकज की नजर से देखना। मनोज पाहवा का किरदार पहले घोड़ागाड़ी चलाता था, अब रिक्शा ले लेता है। ऑरिजिनल फटा सा रिक्शा है। छट से फटा हुआ। गली से आयत और फूफी को सामान साथ जब दुपहरी में ऑटो में लेकर वह ऑटो गियर में डालकर चलते हैं और पीछे से धूल उड़ती है तो अपने गांव की हूबहू ऐसी ही गलियों की याद आ जाती है।
# गोधरा दंगों के दौरान दंगाइयों से हरिंदर/हैरी आयत को बचाता है तो वह पूछती है.. 'ये कौन है हैरी।' हैरी जवाब देता है, 'भयानक साये हैं आयत, इनके न चेहरे होते हैं न नाम।' ऐसे कुछ संवाद ज्यों ही आते हैं हम समझ जाते हैं कि पंकज कपूर की जबां बोल रही है। मसलन, कमल चोपड़ा के किरदार का एक सीन में ये कहना, 'बाकी तो सब लकड़ी पत्थर है। रख लेने दो उन्हें। इंसानों को उजाड़ रहे हैं, न जाने क्या जोड़ लेंगे।' जैसे शुरू में ये डायलॉग है। 'ये कार सेवा क्या है'... 'कुछ नहीं, ब्लू स्टार मरा नहीं कि अयोध्या पैदा हो गया।'

हमें ये संदर्भ गवारा नहीं
# एक सोल्जर वॉर टाइम में हर पल आखिर कैसे अपने खोए प्यार के बारे में सोचता रह सकता है। (वो भी एक ऐसा प्यार जो महाप्रेमनुमा है इसका एहसास फिल्म बिल्कुल नहीं करवा पाती है, बस ये फैक्ट निगलने के लिए हमारे आगे रख दिया जाता है) खासतौर पर तब जब वो फोन पर अपनी बहन से स्टाइलिश पैशनेट देशभक्ति के अंदाज में कुछ यूं कहता है, 'आई वोन्ट कम, अनटिल आई पुश देम (दुश्मन) बैक टु देयर ब्लडी होल्स।' बेहद फनी और नकली लगता है। क्या देशभक्ति महज इस सीन में ही है।
# मल्लूकोट के दिनों में जब एक सीन में शाहिद अपने चार दोस्तों को कार में बिठाकर ट्रेन से रेस लगाता है, फिर ट्रेन से पहले रेलवे स्टेशन क्रॉस कर लेता है, बाल-बाल बचते हुए, तो पलटकर जाती ट्रेन को देखता है। यहां यूं लगता है कि ये बंदा एयरफोर्स से अपने लैटर का इंतजार कर रहा है और कितना पैशनेट है आम्र्ड फोर्सेज में जाने को लेकर। मगर बाद में ये पैशन खत्म सा हो जाता है।
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गजेंद्र सिंह भाटी

Saturday, April 9, 2011

नो जी थैंक यू!

फिल्मः थैंक यू
डायरेक्टरः अनीस बज्म़ी
कास्टः अक्षय कुमार, सोनम कपूर, इरफान खान, रिमी सेन, बॉबी देओल, सेलीना जेटली, सुनील शेट्टी
स्टारः डेढ़ 1.5


साउथ के एक्टर चिरंजीवी को लेकर 1990 में एक फिल्म बनी थी। नाम था 'प्रतिबंध।' इसके राइटर थे 'थैंक यू' के डायरेक्टर अनीस बज्मी। अनीस ने उस फिल्म में चिरंजीवी को बनाया बॉम्बे पुलिस में सब-इंस्पेक्टर सिद्धांत और जूही चावला को खिलौने बेचने वाली शांति। ये सारा का सारा खांचा 'जंजीर' और उसमें अमिताभ बच्चन-जया भादुड़ी के कैरेक्टर्स से उठाया गया। अनीस की वो इमेज और एटिट्यूड 'थैंक यू' में भी जिंदा है। ये फिल्म आसानी से टाली जा सकती है। अक्षय कुमार ने अपने पिता के नाम पर बनाई 'हरि ओम प्रॉडक्शंस' तले एक और बुरी फिल्म प्रॉड्यूस की है। एक बांसुरी बजाते मसीहा की कहानी सोचे जाने तक तो ठीक थी, पर स्क्रिप्ट, एक्टिंग और डायरेक्शन की प्रक्रिया में उसे बिखेर दिया गया। एक्स्ट्रा मैरिटल अफैयर्स का इश्यू भी सीरियस था पर क्रेडिट्स में राइटर्स की जगह जो चार-पांच नाम आते हैं, वो मिलकर भी इसे एक डीसेंट कहानी नहीं बना सके। थियेटर में लोग हंसते जरूर हैं पर फिल्म हिस्ट्री में इस मूवी का नाम कभी याद नहीं रखा जाएगा। न देखें तो बेहतर।

कहें कहानी
इंडिया से बाहर की तमाम खूबसूरत लोकेशन कभी हमारे कैरेक्टर्स का घर बनती हैं तो कभी नाचने-कूदने की जगह। खैर, इस पर गौर भी न करिएगा कि ये कहानी है कहां की। बस सुनिए। तीन दोस्त हैं। विक्रम (इरफान खान), राज (बॉबी देओल) और योगी (सुनील शेट्टी)... इनकी वाइफ हैं शिवानी (रिमी सेन), संजना (सोनम कपूर) और माया (सेलीना जेटली). मैन आर डॉग, जो घर से बाहर मुंह मारते रहते हैं, इसी अंग्रेजी कहावत पर एक और कहानी। तीनों पति एक-दूसरे के दोस्त, बिजनेस पार्टनर और अय्याशियों में राजदार हैं। एक बार संजना को अपने पति राज पर शक हो जाता है। यहां आना होता है माया के दोस्त किशन (अक्षय कुमार) का, जो एक प्राइवेट डिटैक्टिव है। ये बात पतियों को नहीं पता। इससे आगे कोई कहानी नहीं है बस टुकड़ों में बंटे सीन हैं, जो कभी हजम होते हैं कभी नहीं। जाहिर है आखिर में ये तीनों मर्द रंगे हाथों पकड़े जाएंगे, पर लाख टके का (मगर मालूम) सवाल ये है कि फिर क्या होगा? इनकी वाइफ क्या करेंगी? किशन का मकसद क्या है? घबराने की बात नहीं। ये सवाल जितने सीरियस यहां पढऩे में लग रहे हैं उतने, मूवी देखने के दौरान नहीं लगेंगे।

इतनी ढिलाई क्यों?
तीनों हीरोइन दोस्त हैं। एक मॉल में जब पहली बार मिलती हैं तो हाय-हैलो कहते वक्त उनके होठों से वॉयसओवर बिल्कुल नहीं मिलता। एक मल्टीस्टारर और घोर कमर्शियल फिल्म में ये छोटी-छोटी भद्दी गलतियां देखनी पड़ जाएंगी ये सोचा न था। कुछ ऐसा ही होता है अक्षय कुमार के कैरेक्टर के इंट्रोडक्टरी सीन में। टोरंटो जैसे किसी शहर की ऊंची इमारत की छत पर लेटे किशन अंग्रेजी बांसुरी बजा रहे हैं और उनके होठ सिले पड़े हैं। वो बांसुरी में फूंक नहीं रहे पर उसमें से प्रीतम का म्यूजिक निकल रहा है। फिल्म में मुन्नी और शीला के मुकाबले रजिया को उतारा गया। रजिया गुंडों में फंस गई... इस गाने में बस ये पांच शब्द हैं जो नए या रोचक जुमले से लगते हैं। बेहतर होता अगर इनका इस्तेमाल किसी 20 सैकंड के एड में कर लिया जाता। क्योंकि यहां इस गाने में और कुछ भी नहीं है। मल्लिका शेरावत गैरजरूरी और बेढंगी लगीं, अब उन्हें सोच-समझकर कपड़े उतारने चाहिए। एक सेकंड के लिए भी उन्हें या उनके डांस को देखना मुश्किल हो जाता है। डायलॉग कहीं-कहीं काफी फनी हैं और कहीं औसत। मसलन इरफान के कैरेक्टर का ये डायलॉग... औरत को ऋषि-मुनी नहीं समझ सके तो मैं कैसे समझूंगा। फर्स्ट हाफ में फिल्म एडल्ट कंटेंट और भाषा वाली लगती है। लगता है कि कमर्शियल कारणों से ही एक्स्ट्रा मैरिटल अफैयर्स जैसे गंभीर इश्यू में ऐसी मिलावट की गई। इस पर भी कुछ कमी न रह जाए तो पुराने फिल्मी मसालों में से करवा चौथ का सीक्वेंस उठाकर डायरेक्टर अनीस बज्मी ने यहां लगा लिया।

घिस रहे हैं फ्लॉप चिराग
फिल्म का पहला हाफ देखकर लगता है कि इरफान खान ने (फीस को छोड़ दें तो) अपनी जिंदगी की सबसे व्यर्थ फिल्म चुनी है। सेकंड हाफ में वो तीन-चार अच्छे गुदगुदाने वाले सीन देते हैं। जब इरफान की वाइफ बनी रिमी बताती है कि उसने सारी प्रॉपर्टी अपने नाम करवा ली है तो बीवी पर शेर बने रहने वाले इस कैरेक्टर की आवाज हलक में अटक जाती है। पूरी फिल्म में ये पहला और शायद आखिरी कंप्लीट ह्यूमरस सीन है। इसके अलावा सब कैरेक्टर्स को भांत-भांत के ढेरों फैशनेबल कपड़े पहनाने में 'थैंक यू' जरूर एक सीरियस मूवी लगती है। क्लाइमैक्स में अपनी वाइफ को मनाने के लिए इरफान का अक्षय से हेल्प मांगने वाला सीन भी छोटा मगर रिझाने वाला है। सोनम कपूर को देखना किसी टॉर्चर से कम नहीं रहा। ये संजय लीला भंसाली ही थे जिन्होंने रणबीर-सोनम को 'सांवरिया' में अदभुत रूप में पेश किया, बस उसके बाद से दर्शक इस हीरोइन को झेल ही रहे हैं। न वो रो पाती हैं, न हंस पाती हैं। ऐसा लगता है जैसे दो दिन से उन्हें खाना नहीं दिया गया है। मुकेश तिवारी तो 'गोलमाल सीरिज' के टाइम से ही साइड किक डॉन बनकर रह गए हैं। वही मूछें, वही बाल और आस-पास काली टी-शर्ट में पिस्टल पकड़े गुर्गे। न लुक में कोई फर्क है न डायलॉग डिलीवरी में और न ही रोल में।

थोड़ी एक्टिंग होती तो अहसान होता
मूवी में सबसे ज्यादा इरिटेट किया है एक्टर्स की एक्टिंग ने, जो उन्होंने की ही नहीं। करोड़ों की फीस लेते हैं, स्टार्स बने बैठे हैं पर बस एक्ट ही नहीं करते। अगर इसका दोष भी डायरेक्शन और स्क्रिप्ट पर डाला जाए तो सिरफिरी फिल्में पहले भी होती थी। प्राण, जगदीप, धर्मेंद्र, सुनील दत्त और असरानी ये कुछ पुराने नाम हैं, जो फिल्ममेकिंग की बाकी कमतरी को अपने अभिनय से ढकते थे। फिर अरुणा ईरानी, कादर खान, गुलशन ग्रोवर और अनिल कपूर जैसे नाम भी रहे जिन्होंने पूरे करियर में एक भी फिल्म में ढीली एक्टिंग नहीं की, फिल्में भले ही घटिया रही हों। पर क्या करें हमारे गोरे दिमाग वाले इंडियन अक्षय कुमारों, बॉबी देओलों और सोनम कपूरों का जिन्हें कैमरे के लेंस के पीछे बैठे ऑडियंस नजर नहीं आते। अक्षय और सोनम के बीच हर फ्रेम में उम्र के तालमेल का टकराव साफ दिखता है। वो भी असहज होते रहते हैं, हम भी। उल्टे सुनील शेट्टी कई सपाट फिल्मों के बाद यहां कुछ अलग करने की कोशिश करते दिखते हैं।

आखिर में...
शुरू होने से पहले ही अहसास हो जाता है कि ये 'मस्ती' और 'नो एंट्री' की सीधी नकल है। क्लाइमैक्स में कुछ देर के लिए हीरो जेल पहुंचते हैं तो यहां आते-आते ये 'आमदनी अठन्नी खर्चा रुपया' बन जाती है। आखिर में 'बावर्ची' के राजेश खन्ना की तरह रिश्तों के जग में उजियारा फैलाने वाले मसीहा बनकर अक्षय कुमार चौंकाते कम और हमारा मजाक बनाते ज्यादा लगते हैं। मुझे यकीन नहीं होता कि (ऑरिजिनल हो या किसी दूसरी फिल्म से प्रेरित) इन्हीं अनीस बज्मी ने 'सिर्फ तुम', 'प्यार तो होना ही था', 'दीवाना मस्ताना', 'लाडला', 'राजा बाबू', 'गोपी किशन' और 'आंखें' जैसी फिल्में और उनके डायलॉग लिखे थे। (प्रकाशित)
गजेंद्र सिंह भाटी