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Thursday, December 29, 2011

माइनस सत्यदेव दुबे इंडियन थियेटर पूरा नहीं होता

" उनके बारे में खासतौर पर बहुत कुछ कहा जाएगा और कहा जाना चाहिए। क्योंकि भारतीय थियेटर में उनके जितनी लौहकाय-भीमकाय और हिमालयी छवि कुछेक ही हुई हैं। अपनी पूरी जिंदगी किसी एक पैशन में गुजार देना यूं ही नहीं आता। ये बड़े त्याग और बड़े रोग मांगता है। सत्यदेव दुबे फक्कड़ बनकर रहे। ज्ञान के मामले में उनसा कोई न था, पर उनके तरीके उतने ही देसी या कहें तो आर या पार वाले थे। छत्तीसगढ़ से आए लेकर महाराष्ट्रियन बनकर रहे। यहां उनके बारे में जरा सी बात करने का मतलब बस इतना ही है कि उनकी स्मृतियां हमारे बीच कायम रहे। हम उन्हें भूले न। क्योंकि ये उन लोगों में से थे जो सदियों में एक-आध बार होते है। और समाज को इतना कुछ देकर जाते हैं कि अगली कई सदियों का जाब्ता हो जाता है।"

सत्यदेव दुबे
1936-2011

'ब्लैक में देबराज साहनी नाम का सनकी और अप्रत्याशित तरीके अपनाने वाला एक गुरु था। लोगों के लिए अजीब, पर मिशेल मेक्नैली के लिए उसकी जिंदगी बदलने वाला टीचर। पंडित सत्यदेव दुबे भी एक ऐसे ही गुरु थे। मुंबई के थियेटर वर्ल्ड सबसे ऊंची पर्सनैलिटी, और इंडियन थियेटर की भी। बीते रविवार को 75 की उम्र में उनका निधन हो गया। हिंदी फिल्मों में आज के कई सुपर एक्टर हैं जिन्हें एक्टिंग की क ख ग उन्होंने ही सिखाई। अमरीश पुरी उनके ऑलटाइम फेवरेट स्टूडेंट रहे और पुरी खुद मानते थे कि एक्टिंग में उन्होंने सब-कुछ दुबे साहब से ही सीखा। थियेटर के नए आकांक्षी उनके सामने हाथ बांधकर जाते, दिल ऊपर नीचे होता रहता कि इस लैजेंड से कैसे बात हो पाएगी और न जाने वो क्या कह देंगे। पर बाद में सत्यदेव दुबे उनके सबसे करीबी फ्रेंड, पेरंट और गाइड हो जाते।

मेरा उनसे पहला परिचय गोविंद निहलानी की फिल्म 'आक्रोश से हुआ। ओमपुरी, नसीरुद्दीन शाह और अमरीश पुरी की एक्टिंग के साथ दिग्गज नाटककार विजय तेंडुलकर की कहानी और वहीं-कहीं डायलॉग के क्रेडिट में लिखा एक नाम, पंडित सत्यदेव दुबे। ये नाम श्याम बेनेगल की छह शानदार समानांतर फिल्मों में भी डायलॉग-स्क्रिप्ट लिखने के क्रेडिट में दिखता रहा। 'अंकुर’, 'निशांत’, 'भूमिका’, 'जुनून’, 'कलयुग और 'मंडी। इन कल्ट फिल्मों और भारत के थियेटर को माइनस सत्यदेव दुबे करके नहीं देख सकते।

मराठी
, इंग्लिश और हिंदी के नाटकों को उन्होंने अपने इंटरप्रिटेशन वाली भाषा दी। उनकी बोलचाल की भाषा बड़ी रंगीन थी। जब वो मीडिया के इंटरव्यू मांगने पर पैसे मांगते तो कुछ और नहीं बल्कि वो थियेटर को किसी की गरज नहीं करने वाला बना रहे होते थे। थियेटर को दिए अपने 50 सालों में उनका अपने और बाकियों के लिए एक ही मूलमंत्र रहा। पैशन। कि थियेटर को प्रमोशन, पब्लिसिटी या स्टार्स की नहीं बल्कि सिर्फ पैशन की जरूरत है। 'अंधा युग', 'शांतता कोर्ट चालू आहे', 'आधे अधूरे’, 'एंटीगॉन और अपने लिखे 'संभोग से सन्यास तक जैसे नाटकों में उनका निर्देशन बेदाग था। उनके जाने के बाद जो तस्वीरें दिखती या उभरती हैं उनमें दुबे जी के दाह संस्कार वाली जगह निराशा में सिर झुकाए बैठे नसीरुद्दीन शाह दिखते हैं, तो अर्थी को हाथ देते निर्देशक गोविंद निहलानी। ट्विटर पर अमिताभ बच्चन बताते हैं कि उन्हें 'दीवार’ में सत्यदेव दुबे के साथ काम करने का सौभाग्य मिला था। सौरभ शुक्ला कहते हैं कि मैं हमेशा उनकी हस्ती से खौफ खाता रहा। एक बार पार्टी में दूर नर्वस खड़ा रहा और वो आकर बोले कि मैंने तुम्हारी फिल्म इस रात की सुबह नहीं देखी, तुमने बड़ा अच्छा काम किया है।

ये
साल एक और लार्जर देन लाइफ नाम को अपने साथ ले जा रहा है, पर उनकी यादें और अमिट योगदान जेहन में सदा बने रहेंगे।
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ज्योति सभरवाल के साथ लिखी अपनी ऑटोबायोग्रफी ' एक्ट लाइफ में खुद के थियेटर डेज के दौरान अमरीश पुरी सत्यदेव दुबे का खासतौर पर जिक्र करते हैं। चूंकि दुबे साहब अमरीश को अपना फेवरेट स्टूडेंट मानते थे, तो पढ़िए कि इंडियन फिल्मों का ये सबसे कद्दावर विलेन और एक्टर अपने गुरू दुबे साहब के बारे में क्या लिखता है:

# मेरे साथ जो अगली अच्छी चीज हुई वो दुबे साहब थे। उन्हें हिंदी सेक्शन में नियुक्त किया गया। वो मॉलिएर के फ्रेंच प्ले 'स्कॉर्पियन’ के हिंदी ऐडप्टेशन 'बिच्छू’ को डायरेक्ट कर रहे थे। मैं उसमें लीड रोल कर रहा था। नवाब के घर का नौकर। 'बिच्छू’ के डायलॉग बड़े फनी और चतुराई भरे थे। अप्रत्यक्ष तौर पर दुबे साहब का मजाक उड़ाते हुए मैं उन्हें और भी फनी बना देता था।

# उन दिनों वो बड़े यंग और लड़कों जैसे लगते थे। बहुत सारे घुंघराले बाल वाला एक पतला नाटा बंदा। पहले मुझे उनसे निर्देश लेने में बड़ी दिक्कत हुई। कि कैसे इस लड़के को एक्टिंग में अपना टीचर और डायरेक्टर मानूं। फिर जब उनका निर्देशन सख्त हुआ तो मुझे वो बड़े सक्षम लगे। तालमेल बैठने के बाद मैं उनकी इज्जत करने लगा।

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उस गहन ट्रेनिंग कोर्स के दौरान दुबे साहब ने ज्यादा इंट्रेस्ट दिखाना शुरू किया। जब भी मैंने कोई पॉइंट मिस किया उन्होंने मुझे डांटा। मैं एक समर्पित स्टूडेंट की तरह उनके कहे मुताबिक काम कर रहा था। वो काफी इम्प्रेस हुए।

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अपने स्तर पर वो 1954 से इंग्लिश थियेटर ग्रुप से भी जुड़े थे। इसमें अल्काजी साहब, एलेक पदमसी, पर्ल पदमसी और ख्यात बुद्धिजीवी पी.डी.शिनॉय जैसे लोग थे। शिनॉय को दुबे साहब अपना गुरू मानते थे। शिनॉय बहुत ज्यादा ज्ञानवान थे, पर मैं कहूंगा कि दुबे साहब थियेटर के मामले में अंतिम आवाज और अथॉरिटी हैं। उनके परफेक्शन को छू सकने वाला कोई नहीं है।

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जब मराठी और गुजराती थियेटर के लोग दुबे साहब के संपर्क में आए तो वो उनके नाटकों के मूल तत्व को समझने की कोशिश कर रहे थे। कि कैसे दुबे साहब की थीम्स का इंटरप्रिटेशन बाकियों से बहुत अलग था। 1960 के बाद के वक्त में थियेटर में जो एक्सपेरिमेंटल मूवमेंट चल रहा था, उसके लिए जिम्मेदार लोगों में दुबे साहब ने भी बड़ी इज्जत कमाई। मुंबई में हिंदी, मराठी और इंग्लिश थियेटर को करीब से देखने के बाद मैं पाता हूं कि नाटकों के अपने अलग ही इंटरप्रिटेशन से उन्होंने नाटकों का पूरा ट्रेक ही बदल दिया। सिर्फ लाइन्स के मतलब को पकडऩे के लिए नहीं बल्कि उन लाइन्स के बीच क्या है, उसे पढऩे के लिए भी वो गहराई में जाते थे।

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अपने एक्टर्स से भी वो हमेशा यही चाहते थे कि प्ले को समझें। जल्द ही हमने कालिदास के प्ले 'आषाढ़ का एक दिन’ जिसे मोहन राकेश ने एडेप्ट किया था, उसे 1963 में मंचित किया। दुबे साहब तीस के भी नहीं हुए थे और इस
प्ले की गहरी परतों को समझना उनके लिए चैलेंजिंग रहा होगा।

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मुझे याद है एक बार दुबे साहब ने मुझे कहा, 'समर्पण बहुत जरूरी है।‘ उनका कहना था कि अगर वो किसी को ढालना या मोडऩा चाहते हैं तो उस व्यक्ति को उनके आगे पूरी तरह समर्पित होना होगा। संपूर्ण समर्पण।फोटो: चित्रा पालेकर, अमरीश पुरी और सत्यदेव दुबे

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गजेंद्र सिंह भाटी