Wednesday, June 1, 2011

क्यों फॉलिंग डाउन अच्छी लगती है...

साउथ की मूवीज लोकतांत्रिक और संवैधानिक भले ही नहीं होती। पर वो कमजोर की मां बनना स्वीकार करती हैं। उस कमजोर की जो सड़कों पर चार पहिए वाले बड़ों के शासन में पल-पल बेइज्जत किया जाता है, जो आक्रोश के लहानिया भीखू (ओम पुरी) की तरह गला होते हुए भी गूंगा बना दिया गया है और उसकी मजदूरी करती जवान बहन की कीमत वहशियों की नजर में बस एक बिस्किट का लालच है। हर जायज बात में सवाल करने पर उसे गालियां और जलालत ही मिलती है। वह गुलाल के रणसा की तरह कोई फिल्मी किरदार भी नहीं है, जो पलटकर इतना कह सके कि "ये सवाल से सबकी फटती क्यों है, कोई जवाब नहीं है इसलिए?" बच्चे-बीवी उम्मीद लगाए बैठे रहते हैं और वह रोज शरीर और इरादों से कमजोर होता चला जाता है। वो शूल का समर प्रताप और यशवंत का यशवंत लोहार भी नहीं है कि क्षरण होते हुए भी व्यवस्था से अपना बदला आखिर में ले ही ले। उसकी जिंदगी में दुख के आने के तरीकों के अलावा कुछ भी ड्रमैटिक नहीं है। इसीलिए वह न तो किसी डीयो लगाए छरहरे मॉडल की ब्यूटी और इंग्लिश बातों के आगे अड़ सकता है और न ही सख्त शरीर वाले दर्जनों भीमकाय गुंडों से रोबॉट के रजनी रोबॉट चिट्टी की तरह भिड़ सकता है। सिर पर किसी नेता का नाम या ताकत भी नहीं है... है तो बस शरीर की कुछ अति-औसत सूखी बोटियां। समाज की गोरे रंग की सुंदर इमेज वाली जिंदगी एक-एक पैसे के लिए उसे 46.7 डिग्री तले झुलसाती है। यहां झुलसकर भी उसे जितना मिलता है उतने में शायद दिल्ली अब उसे एक सेर दूध भी न दे।

इस कमजोर की कमजोरी का अनुपात और चेहरा भले ही अलग लगे पर मूलतः साउथ की, हिंदी की, हॉलीवुड की और दूसरे देशों की मसालेदार या यथार्थ से भागने का अफीम कही जाने वाली फिल्मों से उसका रिश्ता सबसे करीबी है। जब पूरी व्यवस्था में उसे लगता है कि कुछ नहीं बदलने वाला और जिस संविधान और कानून की दुहाई दी जाती है उसका कोई नियुक्त प्रतिनिधि उसे जवाब देने को तैनात नहीं है तो उसके कांधे पर हाथ रखने आती हैं मार्टिन स्कॉरसेजी की फिल्म टैक्सी ड्राईवर और जोएल शूमाकर की फॉलिंग डाउन। एक ऐसी व्यवस्था जिसमें जिनके पास सबकुछ है, वो जिनके पास नहीं है उनके लिए चीजों के भाव तय करते हैं। फिर खुद उपभोग करने लगते हैं और दूर बैठे जिनके पास नहीं है उनसे कहते हैं कि "तुम्हारे पास नहीं है. हमारे पास तो है इसलिए तुम बस भुगतो।" इन दोनों फिल्मों के मूल तत्वों में से एक ये है। यहां से कह दिया जाता है कि "सोसायटी में एव्रीथिंग इज ऑलराइट। फिल्में हों तो सभ्य हों, एक लैवल वाली हों वरना न हों।" सभ्यता का पैमाना कहीं न कहीं बन जाते हैं मल्टीप्लेक्स और लैवलहीन होने का लैवल बन जाते हैं सिंगल स्क्रीन थियेटर।

...एक बार चंडीगढ़ के पीवीआर सिनेप्लेक्स में शो से दस मिनट लेट अंधेरे में अपनी सीट तलाशते एक लैवल वाले कस्टमर आए। वहां हाथ बांधे खड़े नीली वर्दी वाले (एम्पलॉयमेंट पाए) लड़के से कहने लगे, "वॉट इज दिस। डोन्ट यू हैव टॉर्च और समथिंग। वॉट इज दिस, इज दिस अ मल्टीप्लेक्स और सम स्टूपिड प्लेस।" उनका अंग्रेजी रुबाब देखता रहा। बीच-बीच में उनके अंग्रेजी डायलॉग आते रहे। शो छूटा। संयोग से लिफ्ट में वो मेरे सामने ही थे। लिफ्ट नीचे जा रही थी। बोले, "यहां तो कुछ है ही नहीं। बड़ी पिछड़ी जगह है। एसी भी ठीक से नहीं चलते। मैं बाहर ही रहता हूं, यहां तो कुछ भी नहीं है।" मैं अचरज से सुन रहा था और उसका भ्रम यूं ही कायम रहे इसलिए धीमी मुस्कान के साथ सिर सहमति में हिला रहा था। लिफ्ट से निकले और पिंड छूटा। पर सवाल रह गया कि आखिर ऐसे दर्शक.. सॉरी ऑडियंस आखिर चांद से आगे भी कुछ चाहते हैं क्या।

मैं अब भी पिछले साल की श्रेष्ठ फिल्म दो दूनी चार को ही मान रहा हूं, पर कुछ-कुछ दो दूनी चार को छोड़ दें तो सड़क पर चलने वालों की मां तो दबंग ही बनी। ये मैं दबंग की दर्जनों खामियों को इस दौरान किनारे रखते हुए कह रहा हूं। उसे व्यक्तिगत तौर पर खास नहीं बता रहा हूं। चुलबुल पांडे नाटकीय ज्यादा हैं पर देखने वालों को पसंद आए। हालांकि रॉबिन हुड पांडे (दबंग), संजय सिंघानिया (गजनी) और राधे (वॉन्टेड) ने कहानी और इमोशंस की आड़ में किए तो अपराध ही न। ये अपराधी हैं पर ज्यादातर दर्शकों के लिए इनके व्यक्तिगत प्रतिशोध तीन घंटे तक बेहद जरूरी भी रहते हैं। संजय सिंघानिया की सदाचारी प्रेमिका कल्पना का निर्मम वध मुझ कमजोर दर्शक के सामने ही होता है। उस सुंदर, मासूम, निर्मल, कमजोरों की मदद करने वाली लड़की की पीठ में चाकू घोंप दिया गया है। घर में हत्यारे छिपे हैं। ये वो मोड़ है जहां मैं संजय के साथ-साथ बेसब्री से इंतजार कर रहा हूं कि विदेश से लौटने के बाद वह अपने बारे में कल्पना को बताएगा और दोनों खुशी-खुशी अपनी प्यार भरी जिंदगी बिताएंगे। पर अब कांच सी चिकनी सफेद फ्लोर टाइल्स पर गजनी लोहे का विकृत सरिया पटक रहा है। इसकी आवाज खौफनाक है। दिल बींध रहा है। ये सारे भाव भीतर आखिर क्यों पनप रहे हैं? न सिर्फ पनप रहे हैं, बल्कि मैं इस संकट की घड़ी में संजय सिंघानिया के साथ हूं। उससे ज्यादा मैं ये चाहता हूं कि वो शॉर्ट टर्म मैमोरी लॉस (एंटेरोग्रेड एमनीज़िया) में रहते हुए ही चुनौती पूरी करे और पूरी इंटैंसिटी से गजनी का नाश कर दे।

चाहे वैध हो या अवैध पर अनिल मट्टू के निर्देशन में बनी फिल्म यशवंत का यशवंत लोहार (नाना पाटेकर) थियेटर में जाने वाले उस कमजोर को अपना सा लगता है। क्योंकि थियेटर से बाहर की क्रूर दुनिया से जो लड़ा मैं कमजोर दर्शक नहीं लड़ (जीत) सकता, उसे इंस्पेक्टर लोहार जीतता है। मुझ कमजोर दर्शक के सामने होली के दिन कोई मंत्री का साहबजादा किसी लड़की का स्कर्ट खींचकर चला जाए, तो मैं कुछ नहीं कर पाऊंगा। अपनी बेबसी पर ज्यादा से ज्यादा दो आंसू गिरा दूंगा। पर मेरा प्रतिनिधि इंस्पेक्टर लोहार उस मंत्री के लड़के को पकड़कर जीप में डाल देता है। मैं खुश होता हूं। थाने पहुंचते हैं तो क्या देखते हैं कि वह रईसजादा इंस्पेक्टर की कुर्सी पर बैठा है और वो भी मेज पर पैर रखकर। मुझे गुस्सा आता है, पर मैं बेबस हूं। मेरी शक्तियां सीमित से भी सीमित हैं। तभी लोहार आता है, एक मोटा सा डंडा हाथ में लेता है और कसकर उस कमीने लड़के को मारना शुरू करता है। ठीक वैसे ही जैसे मैं करना चाहता था। हां, हां मुझे पता है कि ये अनडेमोक्रेटिक है, पर तीन घंटे के लिए तो मुझे कम-स-कम ये ज्ञान मत ही बांटो। जब मैं बेबस होता हूं थियेटर से बाहर तब तो तुम मुझे कुछ सिखाने-बताने नहीं आते और जब मैं परदे के सामने मजबूत होने लगता हूं तो तुम कानून-कायदा ले आते हो। मैं कमजोर दर्शक जिंदगी की नाइंसाफी के प्रति गंभीर हो जाना चाहता हूं। यहां भी लोहार मेरा प्रतिनिधि बनता है। उस दृश्य में जब लोहार की बीवी रागिनी (मधु) अपनी पति की हो जाना चाहती है तो सीने पर ठंडा लोहा और जीभ पर तेजाब रखकर लोहार शायद यूं ही कुछ बोलता है ... "खेलो। खेलो। तुम खेलो मेरे इस शरीर से खेलो। ये जिस्म तुम्हारा है, तुम्हें इसकी भूख है, पर मेरी आत्मा यहां नहीं है। वो वहां है, जहां किसी को अभी-अभी मार दिया गया है।"

चोर रास्ते से हमारे समाज में आई पर्सनैलिटी डिवेलपमेंट और पॉजिटिव थिंकिंग की बाहरी किताबें हमें सिखाने लगी हैं कि कुछ भी बुरा न देखो। आप अपने हिस्से को देखकर खुश हो जाओ। अपनी सोचो। पॉजिटिव सोचो पर स्वार्थी बनो। समाज गया तेल लेने। पर उन किताबों ने ये नहीं बताया कि समाज ही नहीं रहेगा तो हम कहां से रहेंगे। इसके ठीक विपरीत मौजूद है यशवंत लोहार। जो हर क्षण समाज और व्यवस्था में फैली गंदगी के अवसाद से ग्रस्त रहता है। राजनीति में, प्रशासन में, घरों में, पढ़ाई के संस्थानों में, चौपालों में, गलियों में, आप में और हम में भ्रष्ट हो जाने को सामूहिक रूप से स्वीकार कर लिए जाने से जो बहुत नाराज रहता है। पूंजी के वल्गर होते नाच से उसके तन-बदन में आग लगी हुई है। इसी लिए वो तेजाबी हो गया है। अब लौटते हैं टैक्सी ड्राईवर और फॉलिंग डाउन की ओर। फिल्मी कथ्य और समाजी असर दोनों ही लिहाज से टैक्सी ड्राईवर के ट्रैविस (रॉबर्ट डी नीरो) का कोई मुकाबला नहीं है। मैनहैटन के ऊंचे नाम और चमक-दमक तले ट्रैविस सबसे करीब है शहर की परेशान करने वाली असलियत के। वही जो यशवंत लोहार को परेशान करती है, वही जो फॉलिंग डाउन के विलियम फॉस्टर (माइकल डगलस) को उत्तेजित बनाए हुए है। ट्रैविस उनींदा है। लगातार टैक्सी चला रहा है। इसमें चढ़ने वालों को देखता है। पीछे की सीट पर न जाने क्या-क्या होता रहता है। जब वो उतरते हैं तो सीट की सफाई करते हुए इस पूर्व मरीन के दिमाग में शहर की बदसूरत तस्वीर और गाढ़ी होती जाती है। उसे शहर के वेश्यालय परेशान करते हैं। एक लड़की में उसे भलाई नजर आती है। वह आकर्षित होता है, खुद को पॉजिटिव बनाता है, पर यहां भी उसकी नजर में उसे धोखा ही मिलता है। चुनाव होने को हैं और सभी राजनेताओं के बयान उसे खोखले और धोखा देने वाले लगते हैं। कहीं व्यवस्था नहीं है। अमेरिका में राजहत्याओं या पॉलिटिकल एसेसिनेशन्स का ज्यादातर वास्ता ट्रैविस जैसे किरदारों से ही रहा है। जैसा हमारे यहां नाथूराम गोडसे का था। हां, उसका रोष विचारधारापरक और साम्प्रदायिक ज्यादा था, यहां ट्रैविस और विलियम सिस्टम से नाखुश हैं। जैसे कि मेरा प्रतिनिधि यशवंत लोहार है और सड़कों पर चलने वाले हम सब हैं।

विलियम फॉस्टर और फॉलिंग डाउन का जिक्र करना यहां बहुत जरूरी है। फिल्मों में जिस एंटरटेनमेंट की बात की जाती है वो टैक्सी ड्राईवर से ज्यादा फॉलिंग डाउन में है। विलियम के साथ एलएपीडी सार्जेंट प्रेंडरगास्ट (रॉबर्ट डूवॉल) की कहानी चलती है। विलियम खतरनाक है और हिंसक, वहीं जिदंगी भर डेस्क के पीछे ही बैठे प्रेंडरगास्ट में अहिंसा का भाव है। हथियार चलाने का सरकारी लाइसेंस होते हुए भी पुलिस के अपने पेशे में उसने गोली चलाने को जिंदगी के अंतिम विकल्प के तौर पर चुन रखा है। बुनियादी तौर पर यशवंत लोहार, विलियम फॉस्टर, ट्रैविस, संजय सिंघानिया, राधे और चुलबुल पांडे से बिल्कुल अलग। नैतिक चुनाव को छोड़कर आगे चलें। डिफेंस एजेंसी से निकाल दिए गए विलियम का अपनी पत्नी बेथ से अलगाव हो गया है। एक छोटी बच्ची है एडेली जिससे वो मिलने को तरस रहा है और उसी से मिलने निकला है। लॉस एंजेल्स में इस दिन विलियम पूरे सिस्टम को आड़े हाथों लेता है, जैसे कभी-कभी हमारा भी करने का मन करता है। गाड़ी खराब हो गई है। एसी नहीं चल रहा। सड़क के बीचों-बीच छोटी सी बात पर लोग बर्बर हो रहे हैं। फोन पर बात करने के लिए एक परचून की अमेरिकी दुकान से वह छुट्टे मांगता है। दुकान का कोरियाई मालिक कहता है कुछ सामान खरीदो तो छुट्टे दूंगा। ठीक वैसे ही जैसे मुझे दवाई, दूध, केंटीन और दूसरी शॉप्स पर छुट्टे नहीं दिए जाते, टॉफी दे दी जाती है। पूछता हूं क्या ये टॉफी लौटाते वक्त भी करंसी का काम करेगी तो जवाब में मुझे गैर-व्यावहारिक घोषित कर दिया जाता है। इस घड़ी में उस कोरियाई दुकानदार के सामने यशवंत लोहार होता तो भी वही करता जो आज विलियम ने किया। ऑफिस पर्सन लगने वाले ने उठा लिया बेसबॉल बैट। भूख लगने पर फास्ट फूड रेस्टोरेंट में घुसता है। ब्रेकफस्ट ऑर्डर करता है, पर उसे कह दिया जाता है कि आप पांच मिनट लेट हो गए हैं, अब तो लंच मैन्यू ऑर्डर करना होगा। चेहरे पर बेशर्मी और जुबान पर 'सर' का संबोधन लिए ये मल्टीनेशनल फास्ट फूड चेन अपने किए को भुगतती है और विलियम का रौद्र रूप देखती है, कि कलेजे में ठंडक पड़ जाती है। तभी तो फॉलिंग डाउन अच्छी लगती है। ये तो हुई सिस्टम के खिलाफ हमारी और इस फिल्म के खून के रिश्ते की बात, पर मनोरंजन के लिहाज से भी इसमें रोमांच हर पल बना रहता है। माइकल डगलस को कोई अगर प्रमुख अमेरिकी अभिनेताओं में न गिनता हो तो उसे फॉलिंग डाउन देखनी चाहिए।

सही-गलत क्या है और कितना है, इस बहस के बीच हर 26 जनवरी और 15 अगस्त जैसे मौकों पर आखिर डीडी1 क्रांतिवीर ही क्यों दिखाता है, ये भी सोचने वाली बात है। आखिर मेहुल कुमार ने अपनी फिल्म में नायक प्रताप (नाना पाटेकर) के हाथों भ्रष्ट बताए गए नेताओं को अदालती न्याय के उलट गोलियां ही तो मरवाई थीं। सरकारें गांधी की अहिंसा के बीच और संविधान की सख्त लकीर के बीच क्या क्रांतिवीर के इस असंवैधानिक तत्व को देखना नहीं चाहती। या फिर मुझ कमजोर और सबल प्रताप के बीच होते कनेक्शननुमा एंटरटेनमेंट को वो भी प्रमुख मानती है।

बात साउथ की मूवीज से शुरू हुई थी, खत्म भी वहीं पर हो। शुरू-शुरू में इन फिल्मों की अजीब डबिंग भले ही परेशान करती हो और ये हिंदी फिल्मों से कमतर लगती हो पर मनोरंजन और कमर्शियल पहलुओं के लिहाज से ये फिल्में ज्यादा स्मार्ट साबित होती हैं। निश्चित तौर पर हिंसा इनमें बहुत ज्यादा होती है। अब ये हिंसा नाजायज न लगे इसलिए इस पर भावनाओं, रिश्तों, प्रतिशोध और प्रतिरोध का वर्क चढ़ाया जाता है। घटिया फिल्मों में भी ये होता है और सार्थक बातों के साथ आई मूवीज में भी। चिरंजीवी की इंद्र को ले लीजिए या फिर महेश बाबू के अभिनय वाली अर्जुन को। इनमें ऊपर जिक्र की गई फिल्मों की तरह व्यवस्था की कमजोरियां मुद्दा नहीं है। यहां मुद्दा ये है कि आम इंसान और लाइन में खड़े आखिरी दर्शक को कहां मनोरंजनयुक्त संतोष ज्यादा मिलता है। वो यहां मिलता है। इंद्र में इंद्रसेन की कहानी है। कैसे वाराणसी के घाट पर नाव खेने वाला नायक शुरू के कुछ वक्त हंसी-मजाक में आपका मनोरंजन करता है और उसके बाद ऐसे खुलासे होते हैं कि उसके लिए मन में श्रद्धा पैदा होती चली जाती है। उसका सशक्त व्यक्तित्व और देवताओं जैसी इमेज बनती चली जाती है। वजह होती है उसका दूसरों की मदद करना, अपनों के लिए बड़ा त्याग करना और वचन के लिए अपनी जान तक लड़ा देना। थियेटर आने वाले दर्शक की इन मूल्यों के साथ गर्भनाल जुड़ी है। ये और बात है कि अब इन्हें निभा पाना उसके लिए बड़ा मुश्किल हो गया है। ऐसे में अगर इंद्रसेन जैसा किरदार उसका ही होने का दावा करता है तो तीन घंटे वो खुश हो जाता है। अब आते हैं अर्जुन (महेश बाबू) पर। अपनी बहन की रक्षा करने वाला चतुर नौजवान। एक ऐसा नौजवान जो बस जीतता ही है। बहन के सास-ससुर अपनी बहु को मारकर बेटे की दूसरी शादी कर देना चाहते हैं पर अर्जुन मुझ दर्शक की तरह भोला नहीं है। दुश्मनों से दस कदम वह आगे ही चलता है।

देखिए बात सीधी सी है। हिंदी मूवीज में एक बैलेंस बनाने के लिए हीरो को पिटते और एक मोड़ पर हारते भी दिखाया जाता है, पर साउथ के फिल्ममेकर और कथाकार इस बात को समझते हैं कि एक रिक्शेवाला और एक मजदूर दिन भर की निराशा और कड़ी मेहनत के बाद एक अच्छी दुनिया में जाने के लिए अपने खून-पसीने की कमाई लगाना चाहता है। एक ऐसी दुनिया में जहां सारी मुश्किलों को हल होते दिखाया जाता हो। जहां आखिर में सब खुश हों। सब बुरों को उनके किए की सजा दी जाए और भलों को शाबासी। इसी वजह से गजनी में संजय सिंघानिया और वॉन्टेड में राधे सिर्फ मारते ही हैं, मार खाते नहीं हैं। साउथ की फिल्में कमजोर की मां इसलिए भी बनती हैं, कि हर फिल्म में सिस्टम और समाज में फैली बुराइयों को भी पिरोया जाता है। हिंदी मूवीज ने बरास्ते गजनी, वॉन्टेड और रेडी मनोरंजन के स्वर को तो पकड़ लिया है, पर भ्रष्टाचार, नैतिक मूल्य और अन्याय को उसके मूल रूप में पटकथा में जगह दे पाना उसे अभी सीखना है।

गजेंद्र सिंह भाटी

Saturday, April 16, 2011

अपनी खूबी-खामी वाले तीन चार्ली चैपलिन

फिल्मः तीन थे भाई
डायरेक्टरः मृगदीप सिंह लांबा
कास्टः ओमपुरी, दीपक डोबरियाल, श्रेयस तलपड़े, रागिनी खन्ना, योगराज सिंह
स्टारः तीन


'लिसन सुनो भई, चूज चुनो भई... तीन थे भाई।' गुलजार के ये बोल और दलेर मेंहदी की आवाज इन भाइयों की फिल्म को नई पहचान देते हैं। बाकी काम करते हैं टॉम एंड जैरी की तरह गिरते-पड़ते, झगड़ते ओमपुरी, श्रेयस तलपड़े और दीपक डोबरियाल। शुरू के बीस मिनट बहुत नंद देते हैं पर उसके बाद से फिल्म के आखिर तक सीन दर सीन छोटे-छोटे गैप आने लगते हैं। कुछ कमी महसूस होने लगती है। ये कमी रही स्क्रिप्ट में। कुछ ऑडियंस को इससे झल्लाहट होगी, तो कुछ फिल्म के बारे में अपना व्यू यहीं से तय कर लेंगे। फिल्म में डायलॉग्स को फनी रखने की कोशिश की गई है, पर ये सब मिलकर भी फिल्म को एक संपूर्ण कहानी नहीं बना पाते हैं। अच्छी बात ये है कि फिल्म कहीं वल्गर नहीं होती, बस ...ओ? टॉपलेस हाउस और सिलिकॉन्स जैसे जुमलों को छोड़ दें तो। काम तीनों एक्टर्स का अच्छा है पर अपने कैरेक्टर में सबसे ज्यादा इनोवेशन डाल पाए दीपक डोबरियाल। उनका खास जिक्र। एंजॉय करने के लिए फ्रेंड्स और फैमिली का साथ बेस्ट रहेगा।

कौन हैं ये तीन
ये तीन सगे भाई हैं। सबसे बड़े चिकरजीत यानी चिक्सी गिल (ओमपुरी), दूसरे हैप्पी गिल (दीपक डोबरियाल) और सबसे छोटे फैंसी गिल (श्रेयस तलपड़े). प्योर पंजाबी हैं। एक दूसरे को फूटी आंख नहीं सुहाते, पर छोटों को बड़े का लिहाज है। चिक्सी की तीन बेटियां हैं पर कोई लड़का उन्हें पसंद नहीं करता। हैपी की डॉक्टरी नहीं चल रही। ...और फैंसी को अंग्रेजी बोलने की फैंसी है, इसलिए रीजनल फिल्मों में भी साइड रोल नहीं मिलता। एक दिन तीनों को वकील का फोन आता है। दादाजी (योगराज सिंह) गुजर गए हैं और पीछे एक वसीयत और अजीब सी शर्त छोड़ गए हैं। इसके मुताबिक अगले तीन साल दादा की हर बरसी पर पूरा एक दिन इन्हें एक-दूसरे के साथ बिताना होगा। यहीं से सारी उठा-पटक शुरू होती है। सवाल खड़ा होता है, कि क्या बड़ा अपनी बेटियों की शादी कर पाएगा, छोटा अमेरिका जाकर अपनी हॉलीवुड मूवी बना पाएगा रिटर्न ऑफ ए ब्लू लगून, और मंझला बड़ा डॉक्टर हो जाएगा, खुद का हॉस्पिटल खोल पाएगा।

प्रेजेंटेशन का अंदाज
चार्ली चैपलिन की साइलेंट कॉमेडी फिल्मों में अगर आप हिंदी संवाद डाल दें, तो कुछ-कुछ तीन थे भाई वाला असर पैदा होता है। ओमपुरी का बड़े भाई का लाउड कैरेक्टर, बीच वाले भाई के रूप में शर्मीले-कुछ डरपोक से दीपक और तीसरे मूर्ख लेकिन साहसी और खुराफाती भाई के तौर पर श्रेयस। तीनों के कैरेक्टर में ये गुण सोच-समझकर और पूरे बैलेंस के साथ डाले गए हैं। बर्फीला मौसम, वाइन, कुत्ता, घर की चिमनी, पुराना दरवाजा, अफीम और पंजाबी लेंगवेज इन तीनों के साथी कैरेक्टर बन जाते हैं। म्यूजिक अरेंजमेंट में काफी वेरिएशन है। अमेरिकन बीहड़ों वाली फिल्मों में बजने वाला गिटार भी, क्लासिकल वीणा भी, बुल्ले शाह भी, ढोलक भी और प्योर देसी पेटी भी।

जो अच्छा नहीं है
खासतौर पर ये सीन। ओमपुरी के कैरेक्टर का परिचय दिया जा रहा है। चिकरजीत यानी चिक्सी, भटिंडा का मशहूर सड़ियल, नाड़ों की दुकान है, तीन मोटी बेटियां, न तो इनकी बेटियां सुशील है, न ही इनकी इन गायों को कोई अपने खूंटे से बांधेगा। कॉमेडी क्रिएट करने के लिए मुझे ये जोक पसंद नहीं आया। भारी शरीर वाली लड़कियों के लिए अपमानजनक है, चाहे इरादा सिर्फ हंसाने का ही क्यूं न रहा हो।

हंसी मलाई मार के
श्रेयस के कैरेक्टर फैंसी का ओपनिंग सीन बहुत मजेदार है। पंजाबी फिल्म की शूटिंग चल रही है। डाकू बने श्रेयस का डायलॉग सीक्वेंस है... लंबरदारा, जो बड़ा इंप्रैसिव हैं। श्रेयस के करियर के बेस्ट सीन्स में से एक हैं। एक्टिंग, टाइमिंग, पंजाबी मूवीज के डाकू की इमेज का मजाकिया अंदाज और शब्दों के उच्चारण को देखते हुए ये सीन तकरीबन परफैक्ट बन पड़ता है। चूंकि पहले की फिल्मों में श्रेयस हिंदी के शब्दों को देसी लहजे में बोलने के कोशिश में सफल नहीं हो पाते थे, यहां भी यही डर था। पर इस फिल्म में वो ये गलती नहीं करते। हंसाने का एक अंदाज डायरेक्टर मृगदीप ने ये भी सोचा कि घर गिराने आई जेसीबी मशीन किसी हाथी की तरह पीछे के हिस्से पर खड़ी हो जाती है और फिर अगले हिस्से को सूंड की तरह उठाकर चिंघाड़ती हैं।

प्योर डायलॉग
सबसे अच्छे पंजाबी शब्दों के इस्तेमाल वाली लाइन ओमपुरी और योगराज सिंह के हिस्से आती हैं। ओमपुरी का वकील दोस्त कहता है कि दादा की वसीयत के मुताबिक तीनों भाइयों को एक पूरा दिन और रात साथ बितानी होगी। इस पर ओमपुरी कहते हैं, दो दिन इन्हें झेलने की खुर्क नहीं है मुझे (खुर्क शब्द का इस्तेमाल), या फिर ये कहावत, मां जिन्ने झल्ले, मेरे पल्ले। गांव की रामलीला में रावण का रोल कर रहे दादा की भूमिका में योगराज सिंह का संवाद है, खेंच के पकड़ इस बांदर दी रस्सी, नहीं पिलाणी एनू लंका दी लस्सी। ये पूरा सीन ही अच्छा है। फिल्म में एक जगह वह कहते हैं, दूसरों का चेहरा लाल देख के अपने मुंह पे चपेड़े नहीं मारते ओए।

रियल का गांव
हैपी बने दीपक अपने बचपन के लव गुरलीन (रागिनी खन्ना) को याद कर रहे है। इन यादों में उनके बचपन का स्कूल सेंट पर्सेंट किसी पंजाबी पिंड का प्राइमरी स्कूल लगता हैं, जहां बच्चियां दो चोटियों में लाल रिबन बांधकर आती हैं और लड़के नीले शर्ट-पेंट में। स्कूल की लोकेशन भी असली है। रिव्यू में डायरेक्टर के ऑब्जर्व करने के तरीके और बारीकी पर मैं अक्सर बात करता हूं, यहां इस सीन में गांव के कच्चेपन को डायरेक्टर मृगदीप ने अच्छे से उभारा है। दीपक सड़क किनारे दीवार सहारे अपनी साइकिल टिकाकर उसपर खड़ा है। ऊंची दीवार से गर्दन निकालकर अंदर खेत पार कोयले वाली इस्त्री कर रही गुरलीन (रागिनी खन्ना) को देख रहा है। उसपर किसी गांव की कुड़ी की तरह गुरलीन का नजरें नीची कर लेना... ये पूरा सीन बिना किसी मिलावट के हाजिर होता है। बस एक कसर रह जाती है। इस्त्री के कपड़ों में जो काला ब्लाउज छोटा छोटा फैंसी टोपी समझकर निकाल लेता है वो किसी गांव का नही बल्कि इंटरनेशनल फैशन ब्रैंड का लगता है। इसका कारण क्या रहा, प्रॉडक्शन की कमी रही.. ये तो फिल्म बनाने वाले ही बता सकते हैं। इसके अलावा छितर, कुटापा, लेडीज बनियान, धोबियों वालियों की कुड़ियां.. फिल्म में कई जगह पर ऐसी क्षेत्रीय भाषा और शब्दों का इस्तेमाल है।

आखिर में...
चंडीगढ़ वालों के लिएः इस शहर का जिक्र दो बार आता है, पहला तो जब हीरोइन रागिनी का एडमिशन 'लॉ कॉलेज चंडीगढ़' में हो जाता है और दूसरा जब तीनों भाई फिल्म के पहले हाफ के बाद सड़क पर 'चंडीगढ़ 20 किलोमीटर' के बोर्ड के सामने खड़े होते हैं। (प्रकाशित)
गजेंद्र सिंह भाटी

Thursday, April 14, 2011

पथैटिक हैं एक्टिंग सिखाने वाली ये दुकानें: ओमपुरी

ओमपुरी के साथ संक्षिप्त बातचीत...

अपनी एक नई फिल्म के प्रचार से सिलसिले में चंडीगढ़ आए हुए थे एक्टर ओमपुरी। उनसे पहली बार आमना-सामना हो रहा था। सफेद बाल, सफेद टी-शर्ट, खराश भरी भारी आवाज और भारी होते शरीर के साथ उनका एक रौबीला स्वरूप भी दिखाई दे रहा था। हालांकि ये कहीं-कहीं नेगेटिव भी हो रहा था, तो कहीं मित्रवत भी, उन्हें मीडियावालों पर गुस्सा आ रहा था, तो सभी लोग सही एंगल से तस्वीरें खींच पाए इसकी चिंता भी। वो किसी नशे में लग रहे थे तो पूरी तरह होश-ओ-हवास में भी। उनके साथ बैठे तनु वेड्स मनु के पप्पी जी यानी एक्टर दीपक डोबरियाल डर से सहम रहे थे तो बाहर से सौम्य होने की कोशिश भी कर रहे थे। मतलब सब कुछ नियंत्रण में होते हुए भी तुरंत बेकाबू हो जाएगा ऐसा लग रहा था। मैंने अपनी बारी का यही कोई चार घंटे इंतजार किया। फिर बात की तो कुछ परेशान होते हुए भी सहज होकर उन्होंने किनारे बैठकर बात की। मगर तब तक मेरी इच्छा नहीं रही। बात करने का इतना उत्साह अब नहीं बचा था। पर ये भी था कि बहुत कुछ पूछना है। तो चार सवाल पूछे। उनके जवाब की कुछ जरूरी बात छूट भी गईं। भीड़-भड़ाके और हड़बड़ाहट के बीच बात टूटी। फिर करीब एक घंटे बाद एक होटल की दूसरी मंजिल पर नाश्ता करते वक्त उनसे आखिरी सवाल पूछा, इसमें कुछ ऑफ द रेकॉर्ड बिंदू भी रहे। फिर उन्हें उठना पड़ा। मिजाज ठीक नहीं थे तो उठकर चल पड़ा। दूसरी मंजिल की लिफ्ट की तरफ जा रहा था कि वो कुछ और मीडियावालों से बातकर सामने आते दिखे। मैंने हाथ मिलाकर कह दिया चलता हूं सर। थैंक यू। इस बार उनकी पकड़ में और चेहरे की मुस्कान में अलग ही अपनत्व लगा। पर उन्हें पांच मिनट में ही आसमान की उड़ान भरनी थी और मुझे सड़क पर उड़ना था। सो, उड़ चले। सोचता हूं किसी दुरूस्त माहौल में पारस्परिक रूचि के साथ उनसे फिर मुलाकात होगी, लंबी बातचीत के लिए। फिलहाल ओमपुरी के साथ ये संक्षिप्त बातचीतः

‘आक्रोश’ और ‘मंडी’ जैसी फिल्मों में आपने काम किया। वहां से आज इतने सालों का सफर तय कर लिया। मैंने देखा है कि अपनी फिल्मों में आप आज भी हर एक सीन में अपना सौ फीसदी देते हैं। आखिर वो क्या चीज है जो आपको इतने साल बाद आज भी ऐसा करने की प्रेरणा देती है या आप कर पाते हैं?
कुछ नहीं, बस इस क्षेत्र और अभिनय की विधा से प्यार है इसलिए ऐसा कर पाता हूं। बाकी बहुत से ऐसे एक्टर हैं जो आज भी दशकों बाद अपने काम को उसी तरह से लिए हुए हैं। इसमें मैं अमिताभ बच्चन की बहुत इज्जत करता हूं। वो मेरे सीनियर हैं और उनके जैसे अपने काम को गंभीरता से लेने वाले इंसान बहुत कम हैं। इस उम्र में भी उसी अनुशासन के साथ काम कर रहे हं। तो मैं भी ऐसे ही कर लेता हूं।

कॉमेडी में फूहड़पन या वल्गैरिटी को आप कैसे लेते हैं। टीवी पर कॉमेडी सर्कस जैसे प्रोग्रैम हैं जिसमें सिर्फ हंसी पैदा करने के लिए एक्टर एक दूसरे को लातें मारते हैं और डबल मीनिंग बातें करते हैं?
मैं इसके बिल्कुल खिलाफ हूं। बल्कि मैं तो ऐसे प्रोग्रैम देखता ही नहीं हूं। ये बहुत ही घटिया और सस्ती कॉमेडी होती है जिसे एक्टिगं तो जोड़कर ही नहीं देखा जाना चाहिए।

कॉमेडी मूवीज तो आपने लगातार बहुत की हैं, अब आने वाले वक्त में क्या आपको सीरियस काम करते हुए भी देखा जा सकेगा?
नहीं यार मैं नहीं समझता हूं कि अब मैं करुंगा। सीरियस सिनेमा में मेरा टाइम बीत चुका है। आई एम ओवर। पर हां, कुछ दूसरी फिल्में कर रहा हूं। इसमें ‘डॉन-2’ है और ‘अग्निपथ-2’ है। बाकी तो कर लिया यार जो करना था।

फिर से सवाल कॉमेडी पर है। आपने तकरीबन हर प्रतिभाशाली निर्देशक के साथ काम किया है। ऐसे में हमारे यहां का बेस्ट डायरेक्टर इसमें आप किसे मानते हैं?
मैं प्रियदर्शन को बहुत काबिल निर्देशक मानता हूं इसमें। फिल्मों और कॉमेडी को लेकर इसमें जो उनकी समझ है उसका कोई मुकाबला नहीं है। जब हम ‘मालामाल वीकली’ की शूटिंग कर रहे थे तो एक सीन के दौरान मैंने उनसे कहा कि आप इस तरीके से भागने और गिरने को कह रहे हैं ये तो बिल्कुल अजीब सा है। रियलिस्टक भी नहीं है और इसका सेंस भी कुछ समझ में नहीं आता। तो उन्होंने अपना मतलब समझाया। उन्होंने कहा कि आप टॉम एंड जैरी की कार्टून मूवी देखिए। इसमें वो बिल्ला चूहे के पीछे भागता है, उसके लगती है, पीटा जाता है खून भी आ जाता है पर लोग हंसते हैं, ठीक वैसे ही हमारी कॉमेडी है। लोग रिलैक्स होने और एंजॉय करने आते हैं। ऐसे में थोड़ा सा खून निकलने और गिरने-पड़ने भागने का मतलब सिर्फ टॉम एंड जैरी के संदर्भ में ही है। तो इस तरह उनकी समझ और उनकी क्षमता काफी ज्यादा है।

प्रियदर्शन की फिल्मों में जो गांव दिखाया जाता है, जो लोग दिखाए जाते हैं उसका असली गांव से कोई वास्ता नहीं होता। इसपर आपका क्या कहना है?
बिल्कुल सही है। उनके गांव से असली गांव बहुत जुदा होते हैं। स्टोरी नॉर्थ ईस्ट के धूप भरे गांवों की होती है और मूवी में साउथ के गांव शूट होते हैं। ये अंतर तो होता है।

जो युवा फिल्मों में आना चाहते हैं, एक्टर बनना चाहते हैं उन्हें आप क्या सलाह देंगे?
बस यही की पूरे पैशन के साथ आएं। लेकिन पहले सबसे जरूरी है कि अपनी पढ़ाई को पूरा करें। याद रखें पहले सिर्फ और सिर्फ अपनी पढ़ाई को पूरा करें। उसके बाद किसी अच्छे इंस्टिट्यूट से इसकी ट्रेनिंग लें। एक्टिंग सिखाने के नाम पर जो ये दुकानें खुल गईं है न, जो लाखों रुपए लेकर तीन महीने में एक्टिंग सिखाने का दावा करती हैं, उनमें बिल्कुल नहीं जाएं। नेशनल स्कूल ऑफ ड्रामा (एनएसडी), या एफटीआईआई, पुणे (फिल्म एंड टेलीविजन इंस्टिट्यूड ऑफ इंडिया) या सत्यजीत रे इंस्टिट्यूड से एक्टिंग सीखें।

मगर जिन एनएसडी, एफटीआईआई और सत्यजीर रे संस्थान का आपने जिक्र किया वो तो बहुत ही थोड़े हैं, इस फील्ड में आने वाले बहुत ज्यादा तो वो कैसे आ पाएंगे। इसके लिए क्या उन्हें एकलव्य बनना पड़ेगा?
नहीं, पर इसका मतलब ये नहीं कि वो इन दुकानों में जाएंगे। मेहनत करो और इन इंस्टिट्यूड में आकर दिखाओ। अगर नहीं आ सकते तो इसका मतलब तुममें एक्टर बनने की क्षमता ही नहीं है।

पर सीटें भी तो बहुत कम हैं?
तो क्या हुआ। उन्हें हासिल करो। मैं चंडीगढ़ में एक बड़े प्राइवेट एक्टिंग इंस्टिट्यूड में गया था। वहां शूटिगं कर रहा था तो मुझसे कहा गया कि आप जाएंगे तो बच्चों का हौसला बढ़ेगा। जब मैं गया तो वहां के बच्चों की एक्टिंग की हालत देखकर मुझसे सहा नहीं गया। आई मीन वो लोग पथैटिक थे। पर वहां आए हुए थे और क्यों तो साब एक्टिगं सीख रहे हैं, लाखों रुपए दिए हैं। तो ये हालत है, मुंबई की भी बाकी दुकानों की, पुणे की भी प्राइवेट दुकानों की। सब बेकार हैं।
गजेंद्र सिंह भाटी

Sunday, April 10, 2011

बच्चों का प्यारा ब्लू...

फिल्मः रियो (अंग्रेजी, थ्रीडी-एनिमेशन)
डायरेक्टरः कार्लोस सेल्दाना
वॉयसः जेसी आइजनबर्ग, एनी हैथवे, रॉड्रिगो सेंतोरो, बेबल गिलबर्टो, केट डि कास्टिलो, जेमी फॉक्स, जॉर्ज लोपेज, विलियम, ट्रेसी मॉर्गन, जेक टी. ऑस्टिन, लेस्ली मेन, जेमीन क्लीमेंट, जेन लिंच, रॉबिन थाइक
स्टारः तीन, 3.0


फीचर फिल्मों के मुकाबले एनिमेशन मूवीज हमेशा बेस्ट परफॉर्म करती हैं। 'रियो' पहले आ चुकी 'शार्क टेल्स' या 'आइस एज' जितनी फनी तो नहीं है पर नीले तोते की ये कहानी बच्चों को खूब पसंद आएगी। ज्यादा कैरेक्टर होने की वजह से कहीं मूवी कुछ भारी होती है पर ओवरऑल ठीक लगती हैं। मुझे निराशा हुई कहानी से, क्योंकि इसमें पूरा टच बॉलीवुड वाला आ जाता है। हथकड़ी में बंधे हमारे नीले हीरो-हीरोइन तोते दुश्मनों से भाग रहे हैं और धीरे-धीरे उन्हें प्यार हो जाता है। क्लाइमैक्स पूरा फिल्मी है। ब्लू उड़ नहीं सकता ये फैक्ट कुछ ज्यादा लंबा खिंच जाता है। इसके अलावा मूवी में इमोशनल मूमेंट्स की भी कुछ कमी है। बड़ों को ये फिल्म जहां नॉर्मल लगेगी वहीं बच्चे शुरू से आखिर तक खिलखिलाने के कई मौके ढूंढ ही लेंगे।

सुनो बच्चों कहानी
ब्राजील के जंगलों में झूमते-गाते रंग-बिरंगे पंछियों पर बहेलियों का हमला होता है। तस्करी के लिए वो सब विशेष किस्म के पंछियों को कैद कर अमेरिका ले आते हैं। इनमें एक होता है छोटा सा नीला तोता ब्लू (जेसी आइजनबर्ग), जिसका पिंजरा मूर लेक मिनेसोटा में वैन से गिर जाता है। इस मकाउ स्पीशीज के दुर्लभ तोते को पालती है छोटी बच्ची लिंडा। दोनों साथ बड़े होते हैं। इसी बीच एक वैज्ञानिक टूलियो (रॉड्रिगो सेंतोरो) लिंडा को बताता है कि ब्लू की प्रजाति का एक फीमेल तोता उसे मिला है और इनकी स्पीशीज को आगे बढ़ाने के लिए ब्लू को ब्राजील ले जाना होगा। बस वहां जाना होता है और घर में पले ब्लू की जिंदगी में आफत आ जाती है। वहां कुछ तस्कर और उनका विलेन जैसा पालतू मुर्गा नाइजल (जेमीन क्लीमेंट) पीछे पड़ जाता है। अब उसे खुद को भी बचाना है और अपने लव जूल (एनी हैथवे) को भी। इसमें उनकी मदद करते हैं एक बुलडॉग लुइस (ट्रेसी मॉर्गन), नीली गर्दन वाला मुर्गा पेद्रो (विलियम), हरे ढक्कन की टोपी पहने पीली चिडिय़ा नीको (जेमी फॉक्स) और लकड़ी में छेद करने वाला पंछी राफेल (जॉर्ज लोपेज).

चित्रकथा चश्मे वाली
थ्री-डी के चश्मे के साथ रोशनी की प्रॉबल्म है। इमेजेज बिल्कुल करीब और जिंदा लगती हैं पर अंधेरे से सिरदर्द होने लगता है। यहां तक कि परदे पर से रोशनी आपके सामने पर कुर्सियों से रिफ्लेक्ट होने लगती है और ये अजीब लगता है। इसके अलावा कुछ चीजें तो कमाल की हैं। बुलडॉग के मुंह से लटकती मोटी-मोटी लार हो या लाल मोटरसाइकल की हैडलाइप पर लगा जंग... सब-कुछ किसी रियल मूवी से भी रियल लगता है। फिल्म में एनिमेशन का काम इतना बारीक है कि कहीं कोई गलती नहीं निकाल सकते, सिवाय शाम के दृश्यों में धुंधली होती रोशनी के। नीले रंग के ब्लू और जूल नीले ही बैकग्राउंड में देखने में अजीब लगते हैं। ये ध्यान रहे कि 'रियो' किसी कैरेक्टर का नाम नहीं है, बल्कि ये ब्राजील के शहर रियो डि जेनेरो के लिए यूज किया गया है।

वॉयस देवता कौन
'सोशल नेटवर्क' के बाद तुरंत ही जेसी आइजनबर्ग की आवाज सुनने को मिल गई। उनकी और एनी हैथवे की जोड़ी वॉयसओवर में जमती है। एक बैचेन-सॉफिस्टिकेटेड तोते की आवाज में जेसी अपने बाकी मूवी कैरेक्टर जैसे लगते हैं। इसमें मार्क जकरबर्ग के निभाए कैरेक्टर को भी शामिल कर सकते हैं। एनी हैथवे कॉन्फिडेंस से भरी नजाकत वाली शी-पैरट ब्लू को आवाज देते हुए खुद सी लगती हैं। फिल्म के हिंदी वर्जन में अपनी आवाज देते हैं विनय पाठक और रणवीर शौरी। मुझे अंग्रेजी वॉयसओवर ज्यादा बेहतर लगा। विलेन मुर्गे नाइजल को आवाज देते जेमीन क्लीमेंट कुछ-कुछ अमरीश पुरी का सा असर छोड़ते हैं।

आखिर में...
डायरेक्टर कार्लोस सेल्दाना ब्राजील के हैं और लंबे टाइम से 'रियो डि जेनेरो' की कहानी कहना चाहते थे। उन्होंने ब्राजीली म्यूजिक और मूड वाली ये फिल्म बना भी दी है, पर बेस्ट तो आज भी 'आइस एज' सीरिज की उनकी मूवीज ही हैं। (प्रकाशित)
गजेंद्र सिंह भाटी

एक कॉमन सी कॉमेडी

फिल्मः जस्ट गो विद इट
डायरेक्टरः डैनिस ड्यूगन
कास्टः एडम सैंडलर, जेनिफर एनिस्टन, बैली मेडिसिन, ग्रिफिन ग्लूक, डैन पैट्रिक, ब्रुकलिन डेकर, डेव मैथ्यूज, निक स्वॉर्डसन, निकोल किडमैन
स्टारः दो 2.0


हिंदी में जैसे 'थैंक यू’ बनती है, हॉलीवुड में वैसे ही 'जस्ट गो विद इट' बनती है। इनमें कॉमन ये होता है कि अपने-अपने '..वुड' में इन जैसी दर्जनों फिल्में पहले ही बन चुकी होती हैं। इस वजह से ये मूवीज होपलैस होती हैं। बस फर्क होता है तो एडिटिंग और स्क्रिप्ट की क्वालिटी का, जिसकी वजह से 'जस्ट गो विद इट' टाइमपास बन जाती है। फिल्म में दो एक्टर्स का काम सबसे खास लगता है। पहला चाइल्ड एक्ट्रेस बैली मेडिसन का जो ब्रिटिश राजघराने के एक्सेंट में कमाल की बात करती हैं। दूसरे हैं कॉमिक एक्टर निक स्वॉर्डसन जो हर बार बोरियत से बचा ले जाते हैं। एडम सेंडलर और जेनिफर के फैन हैं तो जरूर जाइये, अन्यथा ये फ्रेंड्स के साथ बस एक बार देखी जा सकती है।

रॉमकॉम कहानी
डैनी मेकबी (एडम सेंडलर) लॉस एंजेल्स में एक प्लास्टिक सर्जन है। उम्र काफी हो गई है पर शादीशुदा नहीं है। अच्छा इंप्रैशन बनाने के लिए अंगुली में अंगूठी पहन मैरिड होने का दिखावा करता है। उसे सबसे बेहतर कोई जानता है तो वो है उसकी ऑफिस मैनेजर कैथरीन (जेनिफर एनिस्टन), जो तलाकशुदा है और दो बच्चों की मां है। एक पार्टी में डैनी की मुलाकात सुंदर युवती पामर (ब्रुकलिन डैकर) से होती है। दोनों करीब आते हैं, पर जब वो डैनी की अंगूठी देखती है तो बुरा फील करती है कि वह एक मैरिड आदमी का घर खराब कर रही है। अब अपनी खराब मैरिड लाइफ दिखाने के लिए वह कैथरीन से मदद मांगता है। एक झूठ से दूसरा पैदा होता जाता है। बाद में इस प्लैन में कैथरीन की ब्रिटिश एक्सेंट वाली बेटी मैगी (बैली मैडिसन) और हवाई जाकर डॉल्फिन के साथ तैरने का सपना देखने वाला बेटा माइकल (ग्रिफिन ग्लूक) भी शामिल हो जाता है। आखिर में डैनी-कैथरीन के बीच असली रिश्ते निकलकर आने है। अनुमानित सा क्लाइमैक्स है।

बुरा-भला, भला-बुरा
एडम और जेनिफर दोनों ही इजी एक्टिंग वाले लोग हैं। एडम चेहरे पर कोई एक्सप्रैशन लाए बगैर डायलॉग बोलते हैं और जेनिफर तुरत-फुरत में एक्सप्रैशन बदलती रहती हैं। दोनों में समानता ये है कि लोग बहुत हंसते हैं। गड़बड़ शुरू होती है इनके फिल्म के चुनाव से। 'जस्ट गो विद इट' तांबे की नहीं, यूज एंड थ्रो गिलास है। इसका एक बार यूज तो है पर लंबे वक्त में कोई महत्व नहीं। निकोल किडमैन डैवलिन के कैरेक्टर में मिसफिट लगती हैं। सबसे वाहियात है, उनका और जेनिफर का एक क्लब में स्टूपिड सा डांस। शुरू में प्लास्टिक सर्जन डैनी के क्लिनिक में एडल्ट सर्जरी की बातें ज्यादा होती हैं, उसके बाद सारी कहानी हवाई में इनके पिकनिक पर चली जाती है। डायलॉग और सिचुएशन के लिहाज से इस फिल्म में नया कुछ भी नहीं किया गया है। (प्रकाशित)
गजेंद्र सिंह भाटी

Saturday, April 9, 2011

नो जी थैंक यू!

फिल्मः थैंक यू
डायरेक्टरः अनीस बज्म़ी
कास्टः अक्षय कुमार, सोनम कपूर, इरफान खान, रिमी सेन, बॉबी देओल, सेलीना जेटली, सुनील शेट्टी
स्टारः डेढ़ 1.5


साउथ के एक्टर चिरंजीवी को लेकर 1990 में एक फिल्म बनी थी। नाम था 'प्रतिबंध।' इसके राइटर थे 'थैंक यू' के डायरेक्टर अनीस बज्मी। अनीस ने उस फिल्म में चिरंजीवी को बनाया बॉम्बे पुलिस में सब-इंस्पेक्टर सिद्धांत और जूही चावला को खिलौने बेचने वाली शांति। ये सारा का सारा खांचा 'जंजीर' और उसमें अमिताभ बच्चन-जया भादुड़ी के कैरेक्टर्स से उठाया गया। अनीस की वो इमेज और एटिट्यूड 'थैंक यू' में भी जिंदा है। ये फिल्म आसानी से टाली जा सकती है। अक्षय कुमार ने अपने पिता के नाम पर बनाई 'हरि ओम प्रॉडक्शंस' तले एक और बुरी फिल्म प्रॉड्यूस की है। एक बांसुरी बजाते मसीहा की कहानी सोचे जाने तक तो ठीक थी, पर स्क्रिप्ट, एक्टिंग और डायरेक्शन की प्रक्रिया में उसे बिखेर दिया गया। एक्स्ट्रा मैरिटल अफैयर्स का इश्यू भी सीरियस था पर क्रेडिट्स में राइटर्स की जगह जो चार-पांच नाम आते हैं, वो मिलकर भी इसे एक डीसेंट कहानी नहीं बना सके। थियेटर में लोग हंसते जरूर हैं पर फिल्म हिस्ट्री में इस मूवी का नाम कभी याद नहीं रखा जाएगा। न देखें तो बेहतर।

कहें कहानी
इंडिया से बाहर की तमाम खूबसूरत लोकेशन कभी हमारे कैरेक्टर्स का घर बनती हैं तो कभी नाचने-कूदने की जगह। खैर, इस पर गौर भी न करिएगा कि ये कहानी है कहां की। बस सुनिए। तीन दोस्त हैं। विक्रम (इरफान खान), राज (बॉबी देओल) और योगी (सुनील शेट्टी)... इनकी वाइफ हैं शिवानी (रिमी सेन), संजना (सोनम कपूर) और माया (सेलीना जेटली). मैन आर डॉग, जो घर से बाहर मुंह मारते रहते हैं, इसी अंग्रेजी कहावत पर एक और कहानी। तीनों पति एक-दूसरे के दोस्त, बिजनेस पार्टनर और अय्याशियों में राजदार हैं। एक बार संजना को अपने पति राज पर शक हो जाता है। यहां आना होता है माया के दोस्त किशन (अक्षय कुमार) का, जो एक प्राइवेट डिटैक्टिव है। ये बात पतियों को नहीं पता। इससे आगे कोई कहानी नहीं है बस टुकड़ों में बंटे सीन हैं, जो कभी हजम होते हैं कभी नहीं। जाहिर है आखिर में ये तीनों मर्द रंगे हाथों पकड़े जाएंगे, पर लाख टके का (मगर मालूम) सवाल ये है कि फिर क्या होगा? इनकी वाइफ क्या करेंगी? किशन का मकसद क्या है? घबराने की बात नहीं। ये सवाल जितने सीरियस यहां पढऩे में लग रहे हैं उतने, मूवी देखने के दौरान नहीं लगेंगे।

इतनी ढिलाई क्यों?
तीनों हीरोइन दोस्त हैं। एक मॉल में जब पहली बार मिलती हैं तो हाय-हैलो कहते वक्त उनके होठों से वॉयसओवर बिल्कुल नहीं मिलता। एक मल्टीस्टारर और घोर कमर्शियल फिल्म में ये छोटी-छोटी भद्दी गलतियां देखनी पड़ जाएंगी ये सोचा न था। कुछ ऐसा ही होता है अक्षय कुमार के कैरेक्टर के इंट्रोडक्टरी सीन में। टोरंटो जैसे किसी शहर की ऊंची इमारत की छत पर लेटे किशन अंग्रेजी बांसुरी बजा रहे हैं और उनके होठ सिले पड़े हैं। वो बांसुरी में फूंक नहीं रहे पर उसमें से प्रीतम का म्यूजिक निकल रहा है। फिल्म में मुन्नी और शीला के मुकाबले रजिया को उतारा गया। रजिया गुंडों में फंस गई... इस गाने में बस ये पांच शब्द हैं जो नए या रोचक जुमले से लगते हैं। बेहतर होता अगर इनका इस्तेमाल किसी 20 सैकंड के एड में कर लिया जाता। क्योंकि यहां इस गाने में और कुछ भी नहीं है। मल्लिका शेरावत गैरजरूरी और बेढंगी लगीं, अब उन्हें सोच-समझकर कपड़े उतारने चाहिए। एक सेकंड के लिए भी उन्हें या उनके डांस को देखना मुश्किल हो जाता है। डायलॉग कहीं-कहीं काफी फनी हैं और कहीं औसत। मसलन इरफान के कैरेक्टर का ये डायलॉग... औरत को ऋषि-मुनी नहीं समझ सके तो मैं कैसे समझूंगा। फर्स्ट हाफ में फिल्म एडल्ट कंटेंट और भाषा वाली लगती है। लगता है कि कमर्शियल कारणों से ही एक्स्ट्रा मैरिटल अफैयर्स जैसे गंभीर इश्यू में ऐसी मिलावट की गई। इस पर भी कुछ कमी न रह जाए तो पुराने फिल्मी मसालों में से करवा चौथ का सीक्वेंस उठाकर डायरेक्टर अनीस बज्मी ने यहां लगा लिया।

घिस रहे हैं फ्लॉप चिराग
फिल्म का पहला हाफ देखकर लगता है कि इरफान खान ने (फीस को छोड़ दें तो) अपनी जिंदगी की सबसे व्यर्थ फिल्म चुनी है। सेकंड हाफ में वो तीन-चार अच्छे गुदगुदाने वाले सीन देते हैं। जब इरफान की वाइफ बनी रिमी बताती है कि उसने सारी प्रॉपर्टी अपने नाम करवा ली है तो बीवी पर शेर बने रहने वाले इस कैरेक्टर की आवाज हलक में अटक जाती है। पूरी फिल्म में ये पहला और शायद आखिरी कंप्लीट ह्यूमरस सीन है। इसके अलावा सब कैरेक्टर्स को भांत-भांत के ढेरों फैशनेबल कपड़े पहनाने में 'थैंक यू' जरूर एक सीरियस मूवी लगती है। क्लाइमैक्स में अपनी वाइफ को मनाने के लिए इरफान का अक्षय से हेल्प मांगने वाला सीन भी छोटा मगर रिझाने वाला है। सोनम कपूर को देखना किसी टॉर्चर से कम नहीं रहा। ये संजय लीला भंसाली ही थे जिन्होंने रणबीर-सोनम को 'सांवरिया' में अदभुत रूप में पेश किया, बस उसके बाद से दर्शक इस हीरोइन को झेल ही रहे हैं। न वो रो पाती हैं, न हंस पाती हैं। ऐसा लगता है जैसे दो दिन से उन्हें खाना नहीं दिया गया है। मुकेश तिवारी तो 'गोलमाल सीरिज' के टाइम से ही साइड किक डॉन बनकर रह गए हैं। वही मूछें, वही बाल और आस-पास काली टी-शर्ट में पिस्टल पकड़े गुर्गे। न लुक में कोई फर्क है न डायलॉग डिलीवरी में और न ही रोल में।

थोड़ी एक्टिंग होती तो अहसान होता
मूवी में सबसे ज्यादा इरिटेट किया है एक्टर्स की एक्टिंग ने, जो उन्होंने की ही नहीं। करोड़ों की फीस लेते हैं, स्टार्स बने बैठे हैं पर बस एक्ट ही नहीं करते। अगर इसका दोष भी डायरेक्शन और स्क्रिप्ट पर डाला जाए तो सिरफिरी फिल्में पहले भी होती थी। प्राण, जगदीप, धर्मेंद्र, सुनील दत्त और असरानी ये कुछ पुराने नाम हैं, जो फिल्ममेकिंग की बाकी कमतरी को अपने अभिनय से ढकते थे। फिर अरुणा ईरानी, कादर खान, गुलशन ग्रोवर और अनिल कपूर जैसे नाम भी रहे जिन्होंने पूरे करियर में एक भी फिल्म में ढीली एक्टिंग नहीं की, फिल्में भले ही घटिया रही हों। पर क्या करें हमारे गोरे दिमाग वाले इंडियन अक्षय कुमारों, बॉबी देओलों और सोनम कपूरों का जिन्हें कैमरे के लेंस के पीछे बैठे ऑडियंस नजर नहीं आते। अक्षय और सोनम के बीच हर फ्रेम में उम्र के तालमेल का टकराव साफ दिखता है। वो भी असहज होते रहते हैं, हम भी। उल्टे सुनील शेट्टी कई सपाट फिल्मों के बाद यहां कुछ अलग करने की कोशिश करते दिखते हैं।

आखिर में...
शुरू होने से पहले ही अहसास हो जाता है कि ये 'मस्ती' और 'नो एंट्री' की सीधी नकल है। क्लाइमैक्स में कुछ देर के लिए हीरो जेल पहुंचते हैं तो यहां आते-आते ये 'आमदनी अठन्नी खर्चा रुपया' बन जाती है। आखिर में 'बावर्ची' के राजेश खन्ना की तरह रिश्तों के जग में उजियारा फैलाने वाले मसीहा बनकर अक्षय कुमार चौंकाते कम और हमारा मजाक बनाते ज्यादा लगते हैं। मुझे यकीन नहीं होता कि (ऑरिजिनल हो या किसी दूसरी फिल्म से प्रेरित) इन्हीं अनीस बज्मी ने 'सिर्फ तुम', 'प्यार तो होना ही था', 'दीवाना मस्ताना', 'लाडला', 'राजा बाबू', 'गोपी किशन' और 'आंखें' जैसी फिल्में और उनके डायलॉग लिखे थे। (प्रकाशित)
गजेंद्र सिंह भाटी