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Sunday, April 29, 2012

'हॉलीवुड एंडिंग' के वैल और 'तेज' के प्रियदर्शनः इनके ब्लॉकबस्टर प्रोजेक्ट के 'पहले और बाद' कितने समान

फिल्मः तेज
निर्देशकः प्रियदर्शन
कास्टः बोमन ईरानी, अनिल कपूर, अजय देवगन, मोहनलाल, समीरा रेड्डी, जायद खान, कंगना रनौत
स्टारः डेढ़, 1.5
नोटः पढ़ने में सब्र रखें, खासतौर पर शुरू में


You know who would be perfect to direct this...
...not that I relish the idea of working with him, but my ex-husband.

Val?

He's perfect for this material.

She's right. It's his kind of story.

I love Val, but with all due respect, he's a raving, incompetent psychotic.

He's not incompetent.

They should lock him up and throw away the key. Don't take that the wrong way.
We'll wind up $ ... million over budget and no picture to boot.
I did a picture with him at Firestone. He never fini...had a nervous breakdown.

He was under a lot of stress. We'd just broken up.

Honey, he was fired off a picture here at Galaxie before I took over.
They said his demands were outrageous.
The light had to be perfect. The sun had to be just right.
He demanded they replace the leading lady.
He wanted to reshoot dailies, fire the cameraman.
He got shingles. They shut down the picture and found another director.

You don't have to tell me.
I was married to him then. But that was years ago.

His best pictures were years ago. Then he became an artiste.

I am the last person to defend that craziness, because it drove me nuts.
But Val cares about movies. He was born to do this material.

Ellie, we're talking about shingles, headaches. Why open a can of worms?

He's mellowed, I'm telling you.
Who better to direct this? New York's in his marrow.
The opening scene of Woody Allen’s masterly made piece “Hollywood Ending”. The central character is Val played by Woody himself, a film director now reduced to directing cheap commercials. Val’s former wife (Tea Leoni) and her current boyfriend (Treat Williams) who’s a studio head, are talking about their next big budget blockbuster project.

2002 में आई वूडी एलन की फिल्म हॉलीवुड एंडिंग। वैल और उसकी फिल्ममेकिंग की कहानी। कभी शानदार फिल्में बनाने वाला वैल (वूडी) आज सस्ते विज्ञापन बना रहा है। अपनी जवान गर्लफ्रेंड और बाकी खर्चों के लिए। उसके भीतर बैठे फिल्मकार की धार को जंग लग चुकी है। ये फिल्म का पहला सीन है। वैल की पूर्व बीवी और उसे वैल से चुराने और जल्द शादी करने वाला बड़े हॉलीवुड स्टूडियो का मालिक इस सीन में हैं। दोनों अपनी न्यू यॉर्क की पृष्ठभूमि वाली अगली बड़े बजट वाली ब्लॉकबस्टर फिल्म के लिए निर्देशक के विकल्पों पर विचार कर रहे हैं और तभी ये बात होती है।

यहां एंट्री करवाते हैं प्रियदर्शन की। कभी प्रियन ने मास्टरपीस बनाए थे। मलयालम में बोइंग बोइंगऔर काला पानीजैसी दर्जनों फिल्में। हिंदी में विरासत, डोली सजा के रखना, मुस्कराहट’, हेरा फेरी और गर्दिश जैसी प्यारी कहानियां। 2007 में ही आई थी कांचीवरम, राष्ट्रीय पुरस्कार जीतते हुए, तमाम कसर पूरी करते हुए। मगर अब तेजतक आते-आते भावों पर उनकी पकड़ ढीली पड़ने लगी है। तो जो बातचीत वैल को लेकर उसकी वाइफ और स्टूडियो मालिक कर रहे हैं, उसमें हम प्रियन को रखते हैं और हॉलीवुड फिल्म प्रोजेक्ट की जगह ‘तेज’ को... तो ये ओपनिंग सीन बनता है...

वह डायरेक्ट करने के लिए परफेक्ट रहेगा...
कौन प्रियन?
इस मटीरियल के लिए वो परफैक्ट है.
हां, ये उसके टाइप की स्टोरी है.
मैं उसे पसंद करता हूं, पर पूरे सम्मान के साथ ये भी मानता हूं कि वह सनकी और अक्षम पागल है.
वह अक्षम नहीं है.
गलत मत मानना, पर उसे तो ताले में बंद करके चाबी खाड़ी में फेंक देनी चाहिए.
हम लोग करोड़ों लगा देंगे और रिलीज करने के लिए कोई फिल्म ही नहीं होगी.
मैंने उसके साथ एक फिल्म की थी... उससे पूरी ही नहीं हो पाई, उल्टे नर्वस ब्रेकडाउन और हो गया (यहां जाहिर है कि प्रियदर्शन फिल्में अधूरी नहीं छोड़ते, हां ज्यादा अपनी ही मलयाली फिल्मों का हिंदी रीमेक बनाते रहते हैं। अब नर्वस ब्रेकडाउन कितना होता है पता नहीं)
तब वो बहुत ज्यादा प्रेशर में था, हमारा तलाक हुआ ही था. (भूल जाइए, आगे बढ़ें)
हनी, मैंने गैलेक्सी (प्रोड्यूसर रतन जैन की कंपनी को रख लेते हैं गैलेक्सी की बजाय यहां) स्टूडियो को खरीदा उससे पहले ही उससे एक फिल्म वापिस ले ली गई थी. (जाहिर है ऐसा कम ही हुआ होगा)
उन्होंने कहा कि उसकी मांगें पागलों जैसी थीं.
रोशनी परफेक्ट होनी चाहिए, सूरज बस बिल्कुल सही होना चाहिए. उसने तो मांग की कि फिल्म की हीरोइन को बदल दो. वह नॉर्मल से शॉट को फिर से फिल्माना चाहता था, कैमरामैन को निकाल देना चाहता था. फिर उसे दाद हो गई. प्रोड्यूसर्स ने फिल्म बंद कर दी और दूसरा डायरेक्टर ढूंढा.
तुम्हें ये सब मुझसे कहने की जरूरत नहीं है. मैं उससे शादीशुदा तब थी. और ये बरसों पहले की बात है. ( लागू करें)
उसकी बेस्ट फिल्में सालों पहले थीं. फिर तो वह आर्टिस्ट बन गया.
देखो, उसके पागलपन की सफाई देने वाली मैं आखिरी इंसान हूं, क्योंकि उससे मेरा भी दिमाग खराब हो गया था. पर प्रियन फिल्मों की बहुत चिंता करता है. हमारी नई फिल्म को जो मटीरियल है, वह उसे ही करने के लिए जन्मा है.
ऐली (हम दर्शक) हम दाद और सिर दर्द की टेंशन की बात कर रहे हैं, उसको लेने का मतलब कीड़ों-मकोड़ों से भरा ढोल खोलना है, तुम ऐसा क्यों करना चाहती हो.
मैं कह रही हूं न कि वह अब विनम्र हो चुका है. फिर उससे बेहतर कौन है इस फिल्म को डायरेक्ट करने के लिए. न्यू यॉर्क तो (यहां लंदन) उसकी अस्थिमज्जा में बहता है.

वैल को आखिरकार वो फिल्म मिली और प्रियन को ‘तेज’। पर बाद में हॉलीवुड एंडिंग में कुछ यूं होता है कि जैसे-तैसे शूटिंग शुरू करने के बाद वैल की आंखों की रोशनी अल्पकाल के लिए चली जाती है। पर यह बात वह अपनी पूर्व बीवी और उसके होने वाले प्रोड्यूसर पति को नहीं बताना चाहता इसलिए अंदाज से ही फिल्म शूट करता रहता है। वो सीन वहां, ये यहां, कहां क्या एडिट करना है, कहां क्या इमोशन आ पाया है, कुछ भी एक भावनाओं पर विशेषज्ञता पाए निर्देशक की आंखों से तो हो ही नहीं पाता है। बाद में जब वैल की आंखों की रोशनी आ जाती है और फिल्म रिलीज होती है, वह भी देखता है और कहता हैकिस अंधे ने ये फिल्म बनाई है। अमेरिका से फांसी खा लेने की हद तक नेगेटिव रिव्यू आने के बाद एक आशा की किरण आती है... संदेशवाहक और वैल का दोस्त कहता है, तुम्हारी फिल्म. फ्रेंच लोगों ने तुम्हारी फिल्म पैरिस में देखी है। वो कह रहे हैं कि ऐसी महान अमेरिकी फिल्म बरसों में नहीं आई है। तुम्हें एक सच्चा आर्टिस्ट कहकर पुकारा जा रहा है। एक ग्रेट जीनियस

वैल बने वूडी कहते हैं... थैंक गॉड फ्रेंच एग्जिस्ट
‘तेज’ बनाने के बाद और क्रिटिक्स के रिव्यू और स्टार देखने के बाद प्रियदर्शन भी कह रहे होंगे, थैंक गॉड सिंगल स्क्रीन्स एग्जिस्ट।

तो अब प्योरली आते हैं ‘तेज’ पर। कैसी है फ़िल्म? क्या है फिल्म?

जब मैं यह कहता हूं कि प्रियदर्शन सिंगल स्क्रीन वाले दर्शकों को थैंक्स कह रहे होंगे, तो उसका मतलब यह है कि फिल्म उन्हें ही पसंद आएगी। वजह ये कि जिन दर्शकों ने डायरेक्टर टॉनी स्कॉट की पिछली दो फिल्मों 'अनस्टॉपेबल और ' टेकिंग ऑफ फेलम 123’ को नहीं देखा है, वह 'तेज’ देख सकते हैं। उन्हें फिल्म की बदली विदेशी पृष्ठभूमि, रेलवे के सेंट्रल रूम के अंदर काम करने का तरीका, ट्रेन में बम, फिर फिरौती की बात, विदेशी कॉप वाले अंदाज में अनिल कपूर की भागा-दौड़ी, समीरा रेड्डी का बाइक परहेवायर वाली मैलोरी के अंदाज में स्टंट सीन करना और जायद खान के बॉडी डबल का अनोखे अंदाज में लंदन की गलियों में दीवारें फांदते-कूदते भागना नया लगेगा। जिन्होंने डेंजल वॉशिंगटन अभिनीत दोनों फिल्में देखी हैं, उन्होंने तो ये एहसास जी रखा है। तो उनके लिए इस अधपकी, तकनीकी रूप से कहीं कमजोर और भावविहीन फिल्म को देखना भला किस काम का होगा। उनके लिए वक्त और मुद्रा दोनों बेकार करने से तो बेहतर यही होगा न कि 1994 में आई निर्देशक जेन बॉन की शानदार फिल्म स्पीड की डीवीडी लगाकर देख लें। हर बार वही आनंद, वही मनोरंजन और वही किस्सागोई का नशा इस फिल्म और इस जैसी दूसरी रेल-बस एक्शन थ्रिलर वाली फिल्मों में मिल ही जाता है, टीवी प्रसारण में भी पूरा पूरा।

बात ‘तेज’ की करें तो इसकी कहानी और नाम का कोई मेल नहीं है। न जाने किस तर्क से रखा गया। क्योंकि यहां तेज कुछ भी नहीं है। कहानी ये है कि आकाश (अजय) और निकिता (कंगना) की हिंदु मैरिज एक्ट से हुई शादी को इंग्लैड का कानून मान्यता नहीं देता, इसलिए आकाश को इंडिया डिपोर्ट कर देता है। जलालत के कुछ साल बाद वह लंदन लौटता है, बदला लेने के इरादों के साथ। इसमें उसका साथ देते हैं मेघा (समीरा) और आदिल (जायद), जिनकी आकाश ने कभी बहुत मदद की थी। खैर, अब लंदन से ग्लासगो जाने वाली ट्रेन में आकाश ने दो बम फिट कर दिए हैं, अगर स्पीड 60 किलोमीटर प्रति घंटा से कम हुई तो विस्फोट हो जाएगा। इस स्थिति से निपट रहे हैं रेलवे के हैड ट्रैफिक कंट्रोलर संजय रैना (बोमन), जिनकी बेटी (अविका गौर) भी ट्रेन पर है। वहीं रिटायर होने की अगली सुबह ही पुलिस डिपार्टमेंट अपने सुपर कॉप अर्जुन खन्ना (अनिल) को फिर ड्यूटी पर बुला लेता है।

कहानी में बेहद रुचि भरे किरदार हो सकते थे मलयाली एक्टर मोहनलाल (जो प्रियदर्शन की तकरीबन हर मलयाली फिल्म में रहे हैं), जिनका बिल्कुल भी इस्तेमाल नहीं हुआ। कुल जमा चार-पांच छोटे-छोटे मौकों पर वह नजर आते हैं और बेहद बारीक प्रदर्शन करते हुए। वह जोड़ते हैं, बांधते हैं, पर गुब्बारे में पहले से ही छेद होता है, और हवा की तरह फिल्म से उनका किरदार बाहर निकल जाता है। वह बम वाली ट्रेन पर होते हैं एक कैदी को ले जाते हुए और मुझे आश्चर्य हुआ कि ट्रेन के अंदर उन्हें और उनकी कोशिशों को लेकर कोई कहानी नहीं बनाई गई। जैसे किस्पीड में होता है।

काफी कम सीन में दिखी रोती-धोती कंगना एक दृश्य में अजय के किरदार को अपने पिता से मिलवाने लाई है। वह बाहर बैठा है और कंगना अंदर बात कर रही है। अपने पिता से बोलती है, पापा तमीज से बात कीजिए, आपसे तो ज्यादा पढ़ा लिखा है, इंजीनियर है यहां से हमें पता चलता है कि वह इंजीनियर है, क्योंकि इससे पहले तक फिल्म में अजय देवगन की इमेज बस प्रताड़ित, कमजोर इंसान की थी। उसके कुछ नहीं आता, कोई हीरोइक बात नहीं, बिल्कुल आम सा है, कमजोर सा तो लगता है। ये सब महसूस होने की वजह से लगा कि जब सात साल बाद भारत से ब्रिटेन लौटा है बदला लेने तो इंडिया में तो कहीं से सीखकर आया होगा न। मगर इंडिया में रहकर बदला लेने के लिए क्या रणनीति बनाई, कैसे तैयारी की, क्या किया वगैरह.. कुछ नहीं पता। मसलन, वेडनसडेमें भी नसीरुद्दीन शाह के किरदार को कोई तैयारी करते हुए नहीं दिखाया जाता, लेकिन फिल्म के आखिर में मुंबई के पुलिस कमिश्नर राठौड़ उससे पूछते हैं, बम बनाना कहां सीखा, तो किरदार कहता है,आप नेट पर जाकर बम टाइप कीजिए 239 ( जाने कितने) तरीके लिखे मिल जाएंगे, वहीं से सीखा है। तो इतने भर से हम संतुष्ट हो जाते हैं कि हां भई संभव है। अब अजय इंजीनियर हैं, तो उसमें उनकी विशेषज्ञताएं नहीं बताई गई हैं, न ही कहीं जिक्र आता है। वह एक प्राइवेट कंपनी चलाते थे उसके बारे में भी कुछ नहीं बताया गया है कि कंपनी वो कितनी स्मार्टली या मूर्खता से चला रहे थे, उस कंपनी में उनकी इंजीनियरिंग कितनी काम आ रही थी, तब उन्हें बम वगैरह का कितना पता था। या फिर एक फिरौती की तैयारी के लिए जो दिमाग चाहिए होता है वो कितना कारगर उनके पास था। अगर यह भी नहीं तो जो इंसान इमीग्रेशन नियमों को पूरा करने में मात खा जाता है वह एकाएक इतने हौसले वाला और योजना बनाने वाला कैसे हो जाता है। ये कहीं न कहीं दिखाना था, पर नहीं दिखाया गया। यही वजह है कि अजय देवगन का किरदार पूरी तरह बोरिंग और फालतू हो जाता है। रेग्युलर दर्शक उन्हें चाहते हैं इसलिए देखते जाने में कोई बुराई नहीं, पर देखकर कुछ भी एहसास नहीं होता है।

बोमन ईरानी के किरदार में कुछ-कुछ जान है। पहले अपनी बेटी को छोड़ने जाना, फिर कंट्रोल रूम में परेशान होते हुए योजना बनाना। यहां मुझे ऐसा लगा कि बोमन के पास करने के लिए क्षमताएं खूब थीं, पर प्रियदर्शन के पास दृष्टिकोण और विचार नहीं थे कि उनसे क्या करवाया जाएं। जैसेथ्री इडियट्स में राजकुमार हीराणी उनसे करवा ले जाते हैं। आईआईटी के एक प्रोफेसर के रोल में उनके दिखने का ढंग और उसपर अटल बिहारी वाजपेयी वाले अंदाज में जीभ को तालू से बार-बार लगाते हुए बोलने का अंदाज, ये सब निर्देशक के दृष्टिकोण से होता है। बोमन यहां भी कुछ वैसा कर सकते थे, पर पटकथा या निर्देशक करवाए तब तो।

अनिल कपूर सुंदर और छरहरे दिखते हैं, उनके सीन भी ठीक जाते हैं, पर कहीं कोई एंकर नहीं है, जहां किरदार का रोचक जहाज बेड़ा डाल सके। उनका अपनी वाइफ और बच्ची के साथ रिश्ता भी खोला नहीं गया है। उन्हें सीधा रिटायरमेंट के दिन में दिखाया गया है, पर पूरे कार्यकाल में वह कैसा कॉप रहा है और वह किस चीज को लेकर कुख्यात या विख्यात है यह भी नहीं बताया जाता है। जैसे फॉलिंग डाउन में भी एलएपीडी सार्जेंट प्रेंडरगास्ट (रॉबर्ट डूवाल) होता है, जो रिटायर होने वाला होता है। यह उसका आखिरी दिन होता है और सड़कों पर घूम रहे सिस्टम के खिलाफ हथियार का मुंह खोल चुके इंसान को ढूंढने का जिम्मा वह खुद उठाता है। उसका पारिवारिक चेहरा भी दिखाया जाता है। कैसे कुछ पागल सी बीवी दिन में कई बार दफ्तर में उसे फोन करती है, ये सारा जटिल रिश्ता फिल्म में खुलता है। ये भी उघड़ता है कि एक कॉप के तौर पर वह ताकरियर डेस्क के पीछे ही रहा है और उसकी पीठ पीछे दफ्तर में बातें भी होती है कि इसने आज तक न तो एक भी गिरफ्तारी की है और न ही किसी को गोली मारी है। तो ये इश्यू भी चलते हैं। यहां तक कि टेकिंग ऑफ फेलम 123’ में भी डेंजल वॉशिंगटन के किरदार वॉल्टर के एक सबवे कार कॉन्ट्रैक्ट में रिश्वत लेने का पेंच बीच में चलता रहता है। इस मामले में द बर्निंग ट्रेन आदर्श फिल्म थी। उसमें सब कुछ था। एक मजबूत कहानी थी। बहुत सारी भावनाएं, किरदारों के परिचय और उनके ऐसा होने की पर्याप्त वजहें थीं।

फिल्मों के विश्लेषण की बात आती है तो एक बड़ी छोटी और बारीक मगर महत्वपूर्ण चीज यहां भी दिखी। एक दृश्य में अनिल कपूर ने कहे मुताबिक फिरौती के रुपये एक वॉटरप्रूफ पीले केस में डालकर उसे तेज बहती नदी में डाल दिया है। थोड़ा आगे तैनात समीरा रेड्डी का किरदार अपने हवा भरी बोट में वह केस लाद लेती है और आगे बढ़ती है। तभी ऊपर पुलिस का हैलीकॉप्टर आ जाता है गोलियां बरसाते हुए। नाव पलट जाती है और लगता है वह मर गई। कुछ सेकेंड बाद वह केस और समीरा दोनों पानी की सतह पर उभरते हैं और पृष्ठभूमि में (किसी महत्वपूर्ण किरदार के जीवित बचने) राहत की सांस लेने वाला म्यूजिक बजता है, वैसा ही जैसा भले लोगों के जिंदा रहने पर होता है। सवाल यह है कि फिल्म में समीरा, अजय और जायद सही राह पर नहीं हैं, ऐसे में बतौर फिल्ममेकर आप यह फैसला कैसे कर सकते हैं कि गलत को बचाना है और इसीलिए जनता के मन में सहानुभूति विकसित करें।

तेज का मटीरियल भी निर्देशक प्रियदर्शन के लायक था और उनकी काबिलियत भी पूरे से जरा ज्यादा ही थी, मगर इस बार वह अपनी फिल्म के साथ औसत भी नहीं हो पाए हैं अच्छा होना तो दूर है।
*** *** *** ***
गजेंद्र सिंह भाटी

Wednesday, June 1, 2011

क्यों फॉलिंग डाउन अच्छी लगती है...

साउथ की मूवीज लोकतांत्रिक और संवैधानिक भले ही नहीं होती। पर वो कमजोर की मां बनना स्वीकार करती हैं। उस कमजोर की जो सड़कों पर चार पहिए वाले बड़ों के शासन में पल-पल बेइज्जत किया जाता है, जो आक्रोश के लहानिया भीखू (ओम पुरी) की तरह गला होते हुए भी गूंगा बना दिया गया है और उसकी मजदूरी करती जवान बहन की कीमत वहशियों की नजर में बस एक बिस्किट का लालच है। हर जायज बात में सवाल करने पर उसे गालियां और जलालत ही मिलती है। वह गुलाल के रणसा की तरह कोई फिल्मी किरदार भी नहीं है, जो पलटकर इतना कह सके कि "ये सवाल से सबकी फटती क्यों है, कोई जवाब नहीं है इसलिए?" बच्चे-बीवी उम्मीद लगाए बैठे रहते हैं और वह रोज शरीर और इरादों से कमजोर होता चला जाता है। वो शूल का समर प्रताप और यशवंत का यशवंत लोहार भी नहीं है कि क्षरण होते हुए भी व्यवस्था से अपना बदला आखिर में ले ही ले। उसकी जिंदगी में दुख के आने के तरीकों के अलावा कुछ भी ड्रमैटिक नहीं है। इसीलिए वह न तो किसी डीयो लगाए छरहरे मॉडल की ब्यूटी और इंग्लिश बातों के आगे अड़ सकता है और न ही सख्त शरीर वाले दर्जनों भीमकाय गुंडों से रोबॉट के रजनी रोबॉट चिट्टी की तरह भिड़ सकता है। सिर पर किसी नेता का नाम या ताकत भी नहीं है... है तो बस शरीर की कुछ अति-औसत सूखी बोटियां। समाज की गोरे रंग की सुंदर इमेज वाली जिंदगी एक-एक पैसे के लिए उसे 46.7 डिग्री तले झुलसाती है। यहां झुलसकर भी उसे जितना मिलता है उतने में शायद दिल्ली अब उसे एक सेर दूध भी न दे।

इस कमजोर की कमजोरी का अनुपात और चेहरा भले ही अलग लगे पर मूलतः साउथ की, हिंदी की, हॉलीवुड की और दूसरे देशों की मसालेदार या यथार्थ से भागने का अफीम कही जाने वाली फिल्मों से उसका रिश्ता सबसे करीबी है। जब पूरी व्यवस्था में उसे लगता है कि कुछ नहीं बदलने वाला और जिस संविधान और कानून की दुहाई दी जाती है उसका कोई नियुक्त प्रतिनिधि उसे जवाब देने को तैनात नहीं है तो उसके कांधे पर हाथ रखने आती हैं मार्टिन स्कॉरसेजी की फिल्म टैक्सी ड्राईवर और जोएल शूमाकर की फॉलिंग डाउन। एक ऐसी व्यवस्था जिसमें जिनके पास सबकुछ है, वो जिनके पास नहीं है उनके लिए चीजों के भाव तय करते हैं। फिर खुद उपभोग करने लगते हैं और दूर बैठे जिनके पास नहीं है उनसे कहते हैं कि "तुम्हारे पास नहीं है. हमारे पास तो है इसलिए तुम बस भुगतो।" इन दोनों फिल्मों के मूल तत्वों में से एक ये है। यहां से कह दिया जाता है कि "सोसायटी में एव्रीथिंग इज ऑलराइट। फिल्में हों तो सभ्य हों, एक लैवल वाली हों वरना न हों।" सभ्यता का पैमाना कहीं न कहीं बन जाते हैं मल्टीप्लेक्स और लैवलहीन होने का लैवल बन जाते हैं सिंगल स्क्रीन थियेटर।

...एक बार चंडीगढ़ के पीवीआर सिनेप्लेक्स में शो से दस मिनट लेट अंधेरे में अपनी सीट तलाशते एक लैवल वाले कस्टमर आए। वहां हाथ बांधे खड़े नीली वर्दी वाले (एम्पलॉयमेंट पाए) लड़के से कहने लगे, "वॉट इज दिस। डोन्ट यू हैव टॉर्च और समथिंग। वॉट इज दिस, इज दिस अ मल्टीप्लेक्स और सम स्टूपिड प्लेस।" उनका अंग्रेजी रुबाब देखता रहा। बीच-बीच में उनके अंग्रेजी डायलॉग आते रहे। शो छूटा। संयोग से लिफ्ट में वो मेरे सामने ही थे। लिफ्ट नीचे जा रही थी। बोले, "यहां तो कुछ है ही नहीं। बड़ी पिछड़ी जगह है। एसी भी ठीक से नहीं चलते। मैं बाहर ही रहता हूं, यहां तो कुछ भी नहीं है।" मैं अचरज से सुन रहा था और उसका भ्रम यूं ही कायम रहे इसलिए धीमी मुस्कान के साथ सिर सहमति में हिला रहा था। लिफ्ट से निकले और पिंड छूटा। पर सवाल रह गया कि आखिर ऐसे दर्शक.. सॉरी ऑडियंस आखिर चांद से आगे भी कुछ चाहते हैं क्या।

मैं अब भी पिछले साल की श्रेष्ठ फिल्म दो दूनी चार को ही मान रहा हूं, पर कुछ-कुछ दो दूनी चार को छोड़ दें तो सड़क पर चलने वालों की मां तो दबंग ही बनी। ये मैं दबंग की दर्जनों खामियों को इस दौरान किनारे रखते हुए कह रहा हूं। उसे व्यक्तिगत तौर पर खास नहीं बता रहा हूं। चुलबुल पांडे नाटकीय ज्यादा हैं पर देखने वालों को पसंद आए। हालांकि रॉबिन हुड पांडे (दबंग), संजय सिंघानिया (गजनी) और राधे (वॉन्टेड) ने कहानी और इमोशंस की आड़ में किए तो अपराध ही न। ये अपराधी हैं पर ज्यादातर दर्शकों के लिए इनके व्यक्तिगत प्रतिशोध तीन घंटे तक बेहद जरूरी भी रहते हैं। संजय सिंघानिया की सदाचारी प्रेमिका कल्पना का निर्मम वध मुझ कमजोर दर्शक के सामने ही होता है। उस सुंदर, मासूम, निर्मल, कमजोरों की मदद करने वाली लड़की की पीठ में चाकू घोंप दिया गया है। घर में हत्यारे छिपे हैं। ये वो मोड़ है जहां मैं संजय के साथ-साथ बेसब्री से इंतजार कर रहा हूं कि विदेश से लौटने के बाद वह अपने बारे में कल्पना को बताएगा और दोनों खुशी-खुशी अपनी प्यार भरी जिंदगी बिताएंगे। पर अब कांच सी चिकनी सफेद फ्लोर टाइल्स पर गजनी लोहे का विकृत सरिया पटक रहा है। इसकी आवाज खौफनाक है। दिल बींध रहा है। ये सारे भाव भीतर आखिर क्यों पनप रहे हैं? न सिर्फ पनप रहे हैं, बल्कि मैं इस संकट की घड़ी में संजय सिंघानिया के साथ हूं। उससे ज्यादा मैं ये चाहता हूं कि वो शॉर्ट टर्म मैमोरी लॉस (एंटेरोग्रेड एमनीज़िया) में रहते हुए ही चुनौती पूरी करे और पूरी इंटैंसिटी से गजनी का नाश कर दे।

चाहे वैध हो या अवैध पर अनिल मट्टू के निर्देशन में बनी फिल्म यशवंत का यशवंत लोहार (नाना पाटेकर) थियेटर में जाने वाले उस कमजोर को अपना सा लगता है। क्योंकि थियेटर से बाहर की क्रूर दुनिया से जो लड़ा मैं कमजोर दर्शक नहीं लड़ (जीत) सकता, उसे इंस्पेक्टर लोहार जीतता है। मुझ कमजोर दर्शक के सामने होली के दिन कोई मंत्री का साहबजादा किसी लड़की का स्कर्ट खींचकर चला जाए, तो मैं कुछ नहीं कर पाऊंगा। अपनी बेबसी पर ज्यादा से ज्यादा दो आंसू गिरा दूंगा। पर मेरा प्रतिनिधि इंस्पेक्टर लोहार उस मंत्री के लड़के को पकड़कर जीप में डाल देता है। मैं खुश होता हूं। थाने पहुंचते हैं तो क्या देखते हैं कि वह रईसजादा इंस्पेक्टर की कुर्सी पर बैठा है और वो भी मेज पर पैर रखकर। मुझे गुस्सा आता है, पर मैं बेबस हूं। मेरी शक्तियां सीमित से भी सीमित हैं। तभी लोहार आता है, एक मोटा सा डंडा हाथ में लेता है और कसकर उस कमीने लड़के को मारना शुरू करता है। ठीक वैसे ही जैसे मैं करना चाहता था। हां, हां मुझे पता है कि ये अनडेमोक्रेटिक है, पर तीन घंटे के लिए तो मुझे कम-स-कम ये ज्ञान मत ही बांटो। जब मैं बेबस होता हूं थियेटर से बाहर तब तो तुम मुझे कुछ सिखाने-बताने नहीं आते और जब मैं परदे के सामने मजबूत होने लगता हूं तो तुम कानून-कायदा ले आते हो। मैं कमजोर दर्शक जिंदगी की नाइंसाफी के प्रति गंभीर हो जाना चाहता हूं। यहां भी लोहार मेरा प्रतिनिधि बनता है। उस दृश्य में जब लोहार की बीवी रागिनी (मधु) अपनी पति की हो जाना चाहती है तो सीने पर ठंडा लोहा और जीभ पर तेजाब रखकर लोहार शायद यूं ही कुछ बोलता है ... "खेलो। खेलो। तुम खेलो मेरे इस शरीर से खेलो। ये जिस्म तुम्हारा है, तुम्हें इसकी भूख है, पर मेरी आत्मा यहां नहीं है। वो वहां है, जहां किसी को अभी-अभी मार दिया गया है।"

चोर रास्ते से हमारे समाज में आई पर्सनैलिटी डिवेलपमेंट और पॉजिटिव थिंकिंग की बाहरी किताबें हमें सिखाने लगी हैं कि कुछ भी बुरा न देखो। आप अपने हिस्से को देखकर खुश हो जाओ। अपनी सोचो। पॉजिटिव सोचो पर स्वार्थी बनो। समाज गया तेल लेने। पर उन किताबों ने ये नहीं बताया कि समाज ही नहीं रहेगा तो हम कहां से रहेंगे। इसके ठीक विपरीत मौजूद है यशवंत लोहार। जो हर क्षण समाज और व्यवस्था में फैली गंदगी के अवसाद से ग्रस्त रहता है। राजनीति में, प्रशासन में, घरों में, पढ़ाई के संस्थानों में, चौपालों में, गलियों में, आप में और हम में भ्रष्ट हो जाने को सामूहिक रूप से स्वीकार कर लिए जाने से जो बहुत नाराज रहता है। पूंजी के वल्गर होते नाच से उसके तन-बदन में आग लगी हुई है। इसी लिए वो तेजाबी हो गया है। अब लौटते हैं टैक्सी ड्राईवर और फॉलिंग डाउन की ओर। फिल्मी कथ्य और समाजी असर दोनों ही लिहाज से टैक्सी ड्राईवर के ट्रैविस (रॉबर्ट डी नीरो) का कोई मुकाबला नहीं है। मैनहैटन के ऊंचे नाम और चमक-दमक तले ट्रैविस सबसे करीब है शहर की परेशान करने वाली असलियत के। वही जो यशवंत लोहार को परेशान करती है, वही जो फॉलिंग डाउन के विलियम फॉस्टर (माइकल डगलस) को उत्तेजित बनाए हुए है। ट्रैविस उनींदा है। लगातार टैक्सी चला रहा है। इसमें चढ़ने वालों को देखता है। पीछे की सीट पर न जाने क्या-क्या होता रहता है। जब वो उतरते हैं तो सीट की सफाई करते हुए इस पूर्व मरीन के दिमाग में शहर की बदसूरत तस्वीर और गाढ़ी होती जाती है। उसे शहर के वेश्यालय परेशान करते हैं। एक लड़की में उसे भलाई नजर आती है। वह आकर्षित होता है, खुद को पॉजिटिव बनाता है, पर यहां भी उसकी नजर में उसे धोखा ही मिलता है। चुनाव होने को हैं और सभी राजनेताओं के बयान उसे खोखले और धोखा देने वाले लगते हैं। कहीं व्यवस्था नहीं है। अमेरिका में राजहत्याओं या पॉलिटिकल एसेसिनेशन्स का ज्यादातर वास्ता ट्रैविस जैसे किरदारों से ही रहा है। जैसा हमारे यहां नाथूराम गोडसे का था। हां, उसका रोष विचारधारापरक और साम्प्रदायिक ज्यादा था, यहां ट्रैविस और विलियम सिस्टम से नाखुश हैं। जैसे कि मेरा प्रतिनिधि यशवंत लोहार है और सड़कों पर चलने वाले हम सब हैं।

विलियम फॉस्टर और फॉलिंग डाउन का जिक्र करना यहां बहुत जरूरी है। फिल्मों में जिस एंटरटेनमेंट की बात की जाती है वो टैक्सी ड्राईवर से ज्यादा फॉलिंग डाउन में है। विलियम के साथ एलएपीडी सार्जेंट प्रेंडरगास्ट (रॉबर्ट डूवॉल) की कहानी चलती है। विलियम खतरनाक है और हिंसक, वहीं जिदंगी भर डेस्क के पीछे ही बैठे प्रेंडरगास्ट में अहिंसा का भाव है। हथियार चलाने का सरकारी लाइसेंस होते हुए भी पुलिस के अपने पेशे में उसने गोली चलाने को जिंदगी के अंतिम विकल्प के तौर पर चुन रखा है। बुनियादी तौर पर यशवंत लोहार, विलियम फॉस्टर, ट्रैविस, संजय सिंघानिया, राधे और चुलबुल पांडे से बिल्कुल अलग। नैतिक चुनाव को छोड़कर आगे चलें। डिफेंस एजेंसी से निकाल दिए गए विलियम का अपनी पत्नी बेथ से अलगाव हो गया है। एक छोटी बच्ची है एडेली जिससे वो मिलने को तरस रहा है और उसी से मिलने निकला है। लॉस एंजेल्स में इस दिन विलियम पूरे सिस्टम को आड़े हाथों लेता है, जैसे कभी-कभी हमारा भी करने का मन करता है। गाड़ी खराब हो गई है। एसी नहीं चल रहा। सड़क के बीचों-बीच छोटी सी बात पर लोग बर्बर हो रहे हैं। फोन पर बात करने के लिए एक परचून की अमेरिकी दुकान से वह छुट्टे मांगता है। दुकान का कोरियाई मालिक कहता है कुछ सामान खरीदो तो छुट्टे दूंगा। ठीक वैसे ही जैसे मुझे दवाई, दूध, केंटीन और दूसरी शॉप्स पर छुट्टे नहीं दिए जाते, टॉफी दे दी जाती है। पूछता हूं क्या ये टॉफी लौटाते वक्त भी करंसी का काम करेगी तो जवाब में मुझे गैर-व्यावहारिक घोषित कर दिया जाता है। इस घड़ी में उस कोरियाई दुकानदार के सामने यशवंत लोहार होता तो भी वही करता जो आज विलियम ने किया। ऑफिस पर्सन लगने वाले ने उठा लिया बेसबॉल बैट। भूख लगने पर फास्ट फूड रेस्टोरेंट में घुसता है। ब्रेकफस्ट ऑर्डर करता है, पर उसे कह दिया जाता है कि आप पांच मिनट लेट हो गए हैं, अब तो लंच मैन्यू ऑर्डर करना होगा। चेहरे पर बेशर्मी और जुबान पर 'सर' का संबोधन लिए ये मल्टीनेशनल फास्ट फूड चेन अपने किए को भुगतती है और विलियम का रौद्र रूप देखती है, कि कलेजे में ठंडक पड़ जाती है। तभी तो फॉलिंग डाउन अच्छी लगती है। ये तो हुई सिस्टम के खिलाफ हमारी और इस फिल्म के खून के रिश्ते की बात, पर मनोरंजन के लिहाज से भी इसमें रोमांच हर पल बना रहता है। माइकल डगलस को कोई अगर प्रमुख अमेरिकी अभिनेताओं में न गिनता हो तो उसे फॉलिंग डाउन देखनी चाहिए।

सही-गलत क्या है और कितना है, इस बहस के बीच हर 26 जनवरी और 15 अगस्त जैसे मौकों पर आखिर डीडी1 क्रांतिवीर ही क्यों दिखाता है, ये भी सोचने वाली बात है। आखिर मेहुल कुमार ने अपनी फिल्म में नायक प्रताप (नाना पाटेकर) के हाथों भ्रष्ट बताए गए नेताओं को अदालती न्याय के उलट गोलियां ही तो मरवाई थीं। सरकारें गांधी की अहिंसा के बीच और संविधान की सख्त लकीर के बीच क्या क्रांतिवीर के इस असंवैधानिक तत्व को देखना नहीं चाहती। या फिर मुझ कमजोर और सबल प्रताप के बीच होते कनेक्शननुमा एंटरटेनमेंट को वो भी प्रमुख मानती है।

बात साउथ की मूवीज से शुरू हुई थी, खत्म भी वहीं पर हो। शुरू-शुरू में इन फिल्मों की अजीब डबिंग भले ही परेशान करती हो और ये हिंदी फिल्मों से कमतर लगती हो पर मनोरंजन और कमर्शियल पहलुओं के लिहाज से ये फिल्में ज्यादा स्मार्ट साबित होती हैं। निश्चित तौर पर हिंसा इनमें बहुत ज्यादा होती है। अब ये हिंसा नाजायज न लगे इसलिए इस पर भावनाओं, रिश्तों, प्रतिशोध और प्रतिरोध का वर्क चढ़ाया जाता है। घटिया फिल्मों में भी ये होता है और सार्थक बातों के साथ आई मूवीज में भी। चिरंजीवी की इंद्र को ले लीजिए या फिर महेश बाबू के अभिनय वाली अर्जुन को। इनमें ऊपर जिक्र की गई फिल्मों की तरह व्यवस्था की कमजोरियां मुद्दा नहीं है। यहां मुद्दा ये है कि आम इंसान और लाइन में खड़े आखिरी दर्शक को कहां मनोरंजनयुक्त संतोष ज्यादा मिलता है। वो यहां मिलता है। इंद्र में इंद्रसेन की कहानी है। कैसे वाराणसी के घाट पर नाव खेने वाला नायक शुरू के कुछ वक्त हंसी-मजाक में आपका मनोरंजन करता है और उसके बाद ऐसे खुलासे होते हैं कि उसके लिए मन में श्रद्धा पैदा होती चली जाती है। उसका सशक्त व्यक्तित्व और देवताओं जैसी इमेज बनती चली जाती है। वजह होती है उसका दूसरों की मदद करना, अपनों के लिए बड़ा त्याग करना और वचन के लिए अपनी जान तक लड़ा देना। थियेटर आने वाले दर्शक की इन मूल्यों के साथ गर्भनाल जुड़ी है। ये और बात है कि अब इन्हें निभा पाना उसके लिए बड़ा मुश्किल हो गया है। ऐसे में अगर इंद्रसेन जैसा किरदार उसका ही होने का दावा करता है तो तीन घंटे वो खुश हो जाता है। अब आते हैं अर्जुन (महेश बाबू) पर। अपनी बहन की रक्षा करने वाला चतुर नौजवान। एक ऐसा नौजवान जो बस जीतता ही है। बहन के सास-ससुर अपनी बहु को मारकर बेटे की दूसरी शादी कर देना चाहते हैं पर अर्जुन मुझ दर्शक की तरह भोला नहीं है। दुश्मनों से दस कदम वह आगे ही चलता है।

देखिए बात सीधी सी है। हिंदी मूवीज में एक बैलेंस बनाने के लिए हीरो को पिटते और एक मोड़ पर हारते भी दिखाया जाता है, पर साउथ के फिल्ममेकर और कथाकार इस बात को समझते हैं कि एक रिक्शेवाला और एक मजदूर दिन भर की निराशा और कड़ी मेहनत के बाद एक अच्छी दुनिया में जाने के लिए अपने खून-पसीने की कमाई लगाना चाहता है। एक ऐसी दुनिया में जहां सारी मुश्किलों को हल होते दिखाया जाता हो। जहां आखिर में सब खुश हों। सब बुरों को उनके किए की सजा दी जाए और भलों को शाबासी। इसी वजह से गजनी में संजय सिंघानिया और वॉन्टेड में राधे सिर्फ मारते ही हैं, मार खाते नहीं हैं। साउथ की फिल्में कमजोर की मां इसलिए भी बनती हैं, कि हर फिल्म में सिस्टम और समाज में फैली बुराइयों को भी पिरोया जाता है। हिंदी मूवीज ने बरास्ते गजनी, वॉन्टेड और रेडी मनोरंजन के स्वर को तो पकड़ लिया है, पर भ्रष्टाचार, नैतिक मूल्य और अन्याय को उसके मूल रूप में पटकथा में जगह दे पाना उसे अभी सीखना है।

गजेंद्र सिंह भाटी