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Saturday, October 7, 2017

मैं नहीं कहता तब करप्शन अपवाद था, पर अब तो माहौल फ़िल्म (जाने भी दो..) से बहुत ब्लैक है: कुंदन शाह

शनिवार सुबह 7 अक्टूबर को कुंदन शाह का निधन हो गया. बहुत ईमानदार, सच्चे, प्यारे और बेहतरीन इंसान. 2015 में उनसे ये बात की थी. उनकी बड़ी याद.

 Q & A. .Kundan Shah, Writer-director of – Jaane Bhi Do Yaaro, Kabhi Ha Kabhi Na.
  
Naseeruddin & Satish Shah in the epic Mahabharata scene from JBDY.

सईद अख़्तर मिर्जा ने 1980 में फ़िल्म ‘अल्बर्ट पिंटो को गुस्सा क्यों आता है’ का निर्देशन किया था। एफटीआईआई में उनके साथ पढ़े कुंदन शाह को भी गुस्सा आता था। इस फ़िल्म में सहायक निर्देशक रहे कुंदन ने बाद में अपना गुस्सा पूरी गंभीरता से हंसा-हंसाकर ‘जाने भी दो यारो’ के जरिए निकाला। 1983 में दोस्तों की अनूठी कोशिशों और धारा के उलट बनी इस व्यंग्य विनोद प्रधान फ़िल्म ने समय के साथ बहुत अलग मुकाम फ़िल्म इतिहास में पा लिया है। इसकी पूरी प्रक्रिया और यात्रा के बारे में फ़िल्म ब्लॉगर जय अर्जुन सिंह ने अपनी किताब में काफी विस्तार से लिखा है। अब 32 साल होने को आ रहे हैं, कुंदन शाह अभी भी गुस्से में हैं।

उनकी नई फ़िल्म है ‘पी से पीएम तक’। इसमें मीनाक्षी दीक्षित नाम की अभिनेत्री ने एक ऐसी वेश्या की भूमिका निभाई है जो प्रधान मंत्री पद का चुनाव लड़ने तक का सफर करती है। फ़िल्म शुक्रवार को रिलीज हो चुकी है। केंद्रीय फ़िल्म प्रमाणन बोर्ड ने फ़िल्म में से उन चर्चित नामों को हटा दिया है जिन पर व्यंग्य किया या नहीं किया गया था। जैसे, सलमान खान, जयललिता और सुब्रत रॉय। लेकिन अथक प्रयास के बाद फ़िल्म आ गई है। इस राजनीतिक व्यंग्य के बारे में कुंदन का अनुरोध है कि दिमाग लगाकर देखें। ट्रेलर देखकर लगता है कि ‘जाने भी..’ की तरह इस फ़िल्म की बुनियादी बात भी संभवत: अभी लोग अपनी हंसी में ही उड़ा देंगे। खेदजनक है। उन जैसे निर्देशकों की हमें जरूरत है।

कुंदन ने बीते तीन दशकों में और भी उल्लेखनीय काम किया है। उन्होंने ‘नुक्कड़’ (1986), ‘वागले की दुनिया’ (1988), ‘परसाई कहते हैं’ (2006) जैसे धारावाहिक बनाए हैं जो बेहद सार्थक रहे हैं। वे विधु विनोद चोपड़ा की 1985 में आई गंभीर फ़िल्म ‘ख़ामोश’ की लेखन और निर्देशन टीम का हिस्सा भी रहे। शाहरुख खान को लेकर उन्होंने 1993 में ‘कभी हां कभी ना’ जैसी फ़िल्म बनाई। वो शाहरुख की संभवत: अकेली फ़िल्म है जिसमें हीरो होते हुए भी अंत में वे हार जाते हैं। ‘क्या कहना’, ‘दिल है तुम्हारा’, ‘हम तो मोहब्बत करेगा’, ‘एक से बढ़कर एक’, ‘तीन बहनें’ कुंदन द्वारा निर्देशित अन्य फिल्में हैं।

उनसे बातचीत:

‘पी से पीएम तक’ बनाने की जरूरत कब महसूस हुई?
20 साल हो गए।

कहां से पनपा आइडिया?
देखिए मेरी सारी कहानियां न्यूज़पेपर्स से आती हैं। आप पढ़ते हैं, गुस्सा आ जाता है। एक आइडिया आया था कि जो ये पूरा पॉलिटिकल माहौल है, उसको कैसे बताया जाए? अचानक आइडिया आया कि प्रॉस्टिट्यूट (वेश्या) के किरदार को एक मेटाफर (रूपक) के तौर पर यूज़ करते हैं। कैसे वो एक बायइलेक्शन (उपचुनाव) में फंस जाती है और चार दिन में चीफ मिनिस्टर बन जाती है। उपचुनाव के चक्रव्यूह में कुछ ऐसी-ऐसी चीजें हो जाती हैं। उसे चीफ मिनिस्टर नहीं बनना है, न ही पॉलिटिक्स जॉइन करना है लेकिन कैसे वो बन जाती है। आगे की पीएम बनने की उसकी जर्नी क्या होती है। हालांकि वो पीएम बनती नहीं है।

20 साल तक अपने मूल किस्से को संजो कर रखना मुश्किल नहीं था?
मैंने कुछ सात साल पहले एक लाइन लिखी थी। दो पॉलिटिशियंस डिसकस कर रहे हैं कि “ये तो बहुत बड़ा झूठ होगा”। दूसरा बोला, “तो क्या हुआ, झूठ बोलो, सरेआम बोलो, छाती ठोक कर बोलो। लेकिन ऐसे बोलो कि लोग मंत्रमुग्ध हो जाएं”। यही आज की राजनीति है। मेरे ख़याल से वो आज भी वैलिड है। आप एक चीज का एसेंस (मूल तत्व) पकड़ते हैं, पर्सनैलिटी को नहीं पकड़ते हैं। जो एसेंस है आपके आसपास का वो स्क्रिप्ट को जिंदा रखता है। मैंने जब लिखी 1995 में तब ‘सेज’ (स्पेशल इकोनॉमिक जोन) का मामला गरम था। फिर वो मेरे ख़याल से ठंडा हो गया। अब वापस गरम हो रहा है। तो क्या है कि वो चीज बनी रहती है।

ये बड़ा अचरज है कि हम तीन घंटे की फ़िल्म देखते हैं या पांच मिनट की कहानी सुनते है फिर आगे बढ़ जाते हैं नई चीज कंज्यूम करने। लेकिन आप अपनी स्क्रिप्ट के साथ इतना लंबा वक्त बिताते हैं, रात बिताते हैं, दिन बिताते हैं। वो फीलिंग क्या होती है, अरुचि या कुछ और? क्यों जुड़े रहते हैं?
मैंने इसे लिखने के बीच में दूसरी फ़िल्में भी बनाईं। लेकिन उसका जो बर्थ आइडिया था वो 20 साल पहले का था। क्या होता है, आइडिया एक्साइटिंग रहता है तो आप उसपे काम करते रहते हैं। आप सोचते हैं। कभी बनाने का मौका मिलता है। क्योंकि मेरे हिसाब से ये यूनीक आइडिया है वर्ल्ड सिनेमा में कि एक प्रॉस्टिट्यूट जिसको कुछ लेना-देना नहीं है, वो बेचारी, उसके अड्डे पे रेड हो जाती है तो वो भागती है। कोई और शहर में जाती है और वहां एक बायइलेक्शन होता है और वहां वो फंस जाती है। और चार दिन में सीएम बन जाती है। तो ये जो प्रिमाइज (आधार) है वो इतना एबसर्ड (अजीब) है, इतना इललॉजिकल (अतार्किक) है, इतना इंट्रेस्टिंग है कि आपको वो अलाइव (जिंदा) रखता है। जैसे आपने जैन डायरीज (हवाला केस) के बारे में सुना होगा। जो एक डायरी मिली थी मि. जैन की जिसमें लिखा था कि किसको कितना पैसा दिया गया है। तो उसपे एक आइडिया आया। फ़िल्म जब बनेगी तब बनेगी। कि मि. जैन को पकड़ लिया है और वो हैलीकॉप्टर में है। उसे बोला जाता है कि कैसे भी साक्ष्य नष्ट कर दो। तो वो डायरी उठा के फेंक देते हैं। वो जाके एक खेत में गिरती है। वो न जाने कौन सा खेत है, न जाने कौन सा ट्राइबल एरिया है वहां जाकर गिरती है। और अब सब लोग उस डायरी को ढूंढ़ रहे हैं। तो इस तरह के आइडिया आप लेते हैं और वो आपको एक्साइट करते रहते हैं। उसको अपनी वास्तविकता से जोड़ते हैं।

ऐसे जितने भी पॉलिटिकल घपले हैं, इस हिसाब से देखें तो आपके पास स्टोरीज़ अनाप-शनाप हो सकती हैं?
बहुत हैं बहुत।

भारत के राजनीतिज्ञों ने इतना क्रिएटिव कंटेंट रखा हुआ है.. 
(खिलखिलाते हैं) बिलकुल। ..

आपके लिए बड़ी दुविधा होती होगी कि किसको उठाएं और किसको छोड़ें। ऐसा कभी होता है?
अभी आपको एक और आइडिया सुनाता हूं। हजारों आइडियाज़ हैं। एक आदमी है उसका एक्सीडेंट हो जाता है। दो एक्सीडेंट होते हैं अलग-अलग अंतराल में। उसकी याद्दाश्त चली गई है। उन दो एक्सीडेंट के बीच अंतर है वो तीन महीना है, छह महीना है या तीन साल है। वो दूसरे एक्सीडेंट से उठता है। पहला एक्सीडेंट हुआ उससे पहले वो फक्कड़ था और अब उसके पास 300 करोड़ है। लेकिन उसके पास 300 करोड़ आया कहां से। लोग उसके आस-पास घूम रहे हैं और उसको कुछ याद नहीं है। अब वो पता कर रहा है कि उसके पास 300 करोड़ कहां से आया। और ये उसकी अपनी गिल्ट (अपराधबोध) की यात्रा है। वो रिवर्स है “हार्ट ऑफ डार्कनेस” (जोसेफ कॉनराड की 1899 में प्रकाशित कहानी, जिस पर 1979 में फ्रांसिस फोर्ड कोपोला ने “अपोकलिप्स नाओ” बनाई) का। उसकी जरा सी याद्दाश्त आए बगैर भी स्क्रीनप्ले पूरा है। तो आइडिया आते हैं। मेरी सारी फ़िल्में न्यूज़पेपर्स से ही आती हैं। ‘जाने भी दो यारो’ से लेकर, ‘थ्री सिस्टर्स’ (तीन बहनें) है, ‘क्या कहना’ है। वहां भी मैंने कुछ न्यूजपेपर्स से लिया था।

पिछली बात हिमांशु शर्मा से हुई थी। उनसे पूछा कि सुबह अखबार पढ़ते हैं या ऑनलाइन खबरें टटोलते हैं तो दिल्ली में बाघ के बाड़े में गिरा आदमी, नेट न्यूट्रैलिटी, राडिया टेप्स, घपले.. इन खबरों पर आपके भीतर का लेखक कैसे रिएक्ट करता है। उन्होंने कहा कि वे एक लेखक के तौर पर इन खबरों को नहीं देखते, एक इंसान या नागरिक के तौर पर देखते हैं।
जहां तक मैं अपने आपको देखता हूं, एक आर्टिस्ट के तौर पर मैं रिएलिटी से इतना जुड़ा हूं कि हमारी जिंदगी में ये सारी चीजें आ जाती हैं। कॉरपोरेटाइजेशन, उसके विक्टिम कहें, फायदे कहो.. हर चीज आ जाती है। आप समझ रहे हैं न। ‘प्यासा’ (1957) का एंड में जो है.. गुरुदत्त बोलता है, “तुम चलोगी मेरे साथ”? या ‘प्रतिद्वंदी’ (1970) सत्यजीत रे का जो गांव चला जाता है। लेकिन आज आप गांव नहीं जा सकते। वहां की भी सच्चाई वही है जो शहर की है। आप भाग नहीं सकते, आपकी जो हकीकत है उससे।

इतनी निराश करने वाली, असल खबरें आप सोचते हैं कि आदमी का पागल होना तय है, उसके बावजूद आप बनाते कॉमेडीज़ हैं।
‘पी से पीएम तक’ का कंटेंट जितना ब्लैक है, उसकी ट्रीटमेंट उतनी ही ब्राइट है। वो संतुलित ऐसे किया है। क्योंकि मेरे पास एक ही हथियार है.. वो है कॉमेडी। उस कॉमेडी को यूज़ करके, सटायर को यूज़ करके आप कैसे वो सबजेक्ट को ऑडियंस के लिए रोचक बना पाते हैं। उसे मजा आए और वो कुछ सोचे। आप जब फ़िल्म देखते हैं तो लोग बोलते हैं अपना दिमाग घर पर रखो, इसमें हम बोलते हैं कि आप प्लीज़ दिमाग अपना लेके आइए। दिमाग से फील कीजिए और दिल से सोचिए।

जैसे मौजूदा सरकार है या अन्यथा भी राजनेताओं के सांप्रदायिक विचार होते हैं.. उसे लेकर बहुत कम कहानियां आती हैं। उस सांप्रदायिक पक्ष पर भी सोचा है आपने पिछले 20 साल में? या ज्यादातर पूंजीवाद और उपभोक्तावाद पर आपका दिमाग ज्यादा खराब होता है?
क्या होता है न.. आपकी बात सही है.. हर डायरेक्टर की एक पर्सनैलिटी होती है। आपकी बात बिलकुल सही है कि जो सांप्रदायिकता है या जो भी हुआ है। बात सही है। पर ओवरऑल आप वो चीज पकड़ते हैं जो आपको अपील करे। लेकिन इसका ये मतलब नहीं है कि आप उसे लेकर चिंतिंत नहीं हैं या उसके बारे में सोचते नहीं हैं कि जो हो रहा है वो नहीं होना चाहिए। एक जिम्मेदार नागरिक के तौर पर वो सोचना भी चाहिए।

A still from P Se PM Tak.
‘पी से पीएम तक’ की केंद्रीय पात्र वेश्या है। आपने कॉमेडी का सहारा लेते हुए लोगों के सामने एक टिप्पणी करने की कोशिश की है लेकिन क्या ऐसा नहीं है कि जो सबसे आधारभूत दर्शक हमारा है जो किसी भी बात पर हंसने लगता है। ऐसा नहीं है कि वेश्या के किरदार पर वो उस लिहाज से हंसने लगेगा जैसे हमारा समाज उसे अपमानजनक ढंग से देखता ही है। ये डर नहीं कि वो दर्शक व्यंग्य को उल्टा ही ले ले?
नहीं, नहीं ऐसा नहीं हो सकता। आप अभी उसे बाहर से देख रहे हैं। वो मेरी सूत्रधार है, वो मेरी हीरोइन है हालांकि वो एक प्रॉस्टिट्यूट की भूमिका निभा रही है। देखिए, उसकी लाइफ तो इतनी पाप से भरी हुई है तो क्या कर सकते हैं। और पाप वो नहीं करना चाहती है लेकिन उसे करने पड़ते हैं। लेकिन फिर भी वो मेरी सूत्रधार है। उसको इस अंदाज से पेश करना मेरा काम है। जो आप कह रहे हैं उसका सवाल ही नहीं उठता कि ऐसा फील करेंगे लोग।

पॉलिटिकल कॉमेडीज जितनी भी हैं या हिंदी के बेहद काबिल व्यंग्यकारों की लेखनी है, क्या उनका कभी राजनेताओं की मोटी चमड़ी पर कोई असर हुआ है? आपने बीते 30-40 साल में देखा है क्या? प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से?
इनडायरेक्टली तो निश्चित तौर पर होता है। लेकिन क्या होता है कि ये एक स्तर पर ही असर डालता है। अब खाली मैं एक फ़िल्म बना दूं तो उससे समाज बदल नहीं सकता। लेकिन वो मेरा कर्तव्य है कि मैं कुछ बनाऊं जो समाज से जुड़ा हुआ है। और खासतौर पर आज के लिए। आज का सोचते हुए। क्योंकि आज हम इतने जुड़े हैं कि ग्लोबलाइजेशन है, ये है वो है। आप मुझे एक बात समझाइए आप पत्रकार हैं। आपने, हम लोगों ने एफडीआई (प्रत्यक्ष विदेशी निवेश) इंश्योरेंस में बढ़ा दिया है। कितना पर्सेंट बढ़ाया है आपको पता है? बताइए ना...

जी 49 फीसदी कर दिया है..
और कहां से किया। 25 से किया। क्यों किया? क्या है ऐसी चीज इंश्योरेंस जो हमको बाहर की टेक्नोलॉजी देगी? आप मुझे बताएं किसी न्यूजपेपर ने उठाया? आपने रिपोर्टर के तौर पर ये प्रश्न उठाया? क्यों नहीं उठाया है? क्या फायदा है इसमें? जो 25 से 49 पर्सेंट हुआ है वो इंश्योरेंस में क्या चीज है? आप मुझे बताइए ना...

कोई चीज नहीं है..
इंश्योरेंस में आप पैसे लेते हैं सबसे। करोड़ों से लो और हजारों में दो। तो इसमें हमको कौन सी एफडीआई की जरूरत है यार। किसी मिनिस्टर ने, किसी न्यूजपेपर ने ये सवाल उठाया है ये मुझे बताइए..

नहीं उठाया है..
क्यों नहीं उठाया है? क्या आप नहीं समझते ये बात।

समझते हैं..
तो ये देश के लिए हानिकारक है न?

बिलकुल..
तो फिर चुप क्यों रहते हैं? तो ऐसी बहुत सी चीजें हैं। मेरे कहने का मतलब ये है कि अभी आप नहीं उठा रहे हैं लेकिन एक वर्ग है जो इसकी बहुत भारी तरीके से कीमत चुकाता है। जितना करप्शन हो.. अभी ये मोदी साहब कहते हैं कि नहीं मैं खाऊंगा नहीं, और न खाने दूंगा लेकिन यहां महाराष्ट्र में तो फड़नवीस (देवेंद्र, सीएम) साहब हैं जिन्होंने डीपी (विकास योजना) प्लान ऐसा बनाया है कि यार हमको मुश्किल ही हो जाएगी यार। अगर इतनी बड़ी-बड़ी बिल्डिंगें बनने लगीं, न ही रास्ते हैं, न ही कुछ है, कैसे होने वाला है ये सब। वो सोचते हैं रिएल एस्टेट चलता है तो उससे इकोनॉमी को आगे बढ़ाएंगे। उनका यही सोचना है। इकोनॉमी को फिलिप (प्रोत्साहन) मिले ऐसा वो सोच तो रहे हैं तो गलत सोच रहे हैं। सही क्या सोचना है वो उनको पता नहीं है। शायद। मैं छोटा आदमी हूं। लेकिन मेरा एक ड्यूटी बन गया है कि मैं भी आज इकोनॉमिक्स पढ़ूं। अब मैं लिट्रेचर पढ़ता ही नहीं हूं, अब मैं इकोनॉमिक्स ही पढ़ता हूं। मेरा लाइफ इकोनॉमिक्स से ही संचालित होता है।

आपने अपनी शुरुआती फ़िल्म से लेकर आज तक जो भी बताने की कोशिश की है, चेताने की कोशिश की है, आपको नहीं लगता कि प्रोसेस इतना इर्रिवर्सिबल (न मोड़ा जा सकने वाला) हो गया है बीते सालों में कि अब तो नष्ट होना ही तय है?
इसका जवाब तो देना बहुत मुश्किल है। क्या होता है न.. आपने वो ‘नीरोज़ गेस्ट्स’ डॉक्युमेंट्री देखी है न। पी. साईंनाथ ने जो बनाई है। एक नीरो था। रोमन सम्राट था। इतना अंधाधुंधी थी उसके राज में। तो क्या होता है न कि आप जो हिस्टोरिकल पीरियड देखते हैं ... 1947 में हमको आजादी मिली.. 65 से ज्यादा साल हो गए। लेकिन आपने इतने से वक्त में पूरी मानवता का समझ लिया है कि हम समझ ही नहीं सकते? हिंदुस्तान में वही हो रहा है जो पूरे विश्व में हो रहा है। हम ये मान लेते हैं जो इतने साल में है वो बदल ही नहीं सकता। कि ये तो खराब होगा और। आप यही सोच रहे हैं ना..

जी..
ऐसा आर्टिस्ट नहीं सोचता। वो पूरा हिस्टोरिकल दृष्टिकोण में सोचता है न। 65 साल को आप बोलते हैं कि ये ही सच है। और तो कोई सच ही नहीं है, बस ये ही है। ऐसा ही होगा। कम्युनल ही होंगे। लोग मरेंगे। करप्शन होगा। तो अभी मैं क्या जवाब दूंगा? इसकी कीमत कोई न कोई तो चुका रहा है न। जब आपको पांच करोड़ की रिश्वत मिलती है, ओवरऑल इकोनॉमी में किसी से तो पांच करोड़ छिन रहे हैं न.. जो आपको ऐसे ही मिल गए। तो कोई तो तबका होगा जो इसकी प्राइस पे कर रहा है। इसकी कीमत अदा कर रहा है। आप समझ रहे हैं न। एक आर्टिस्ट के तौर पर हम तो ऐसे ही सोचेंगे न।

लेकिन आपके इतना पॉजिटिव होने की क्या वजह है .. कि अंततः चीजें हो सकता है ठीक हो जाएं।
अब मैं आपको उल्टा बात बोलूं? मैं टेलीविजन पर इतनी बार सुन रहा हूं कि अगर हम चेंज नहीं लाएंगे तो the country is driving for a revolution आपने सुना है ये। एम. जे. अकबर ने बोला है।

जी.. जो बीजेपी में आ गए हैं अब।
अब बीजेपी है या जो भी है, थोड़ा अकल वाला आदमी है। उसका लैंड एक्विजिशन (भूमि अधिग्रहण) के बारे में ये कहना था कि भई चलो हम आगे बढ़ते हैं, यार इंडस्ट्री को डालते हैं लेकिन वो जब बोलते हैं तो उसका मतलब क्या होता है। जब आदमी के पास रोटी नहीं रहेगी, कुछ नहीं रहेगा तो वो करेगा क्या। वो न्यूज़पेपर में नहीं आता है इतना। वो क्यूं बोल रहे हैं कि रेवोल्यूशन आएगा? किस आधार पर बोल रहे हैं?

जी..
नहीं नहीं वो क्या न्यूज़पेपर पढ़ के बोल रहे हैं?

वैसे वो न्यूज़ बिजनेस में ही हैं तो उस हिसाब से बोल रहे हैं
वो वो बोल रहे हैं जो न्यूज़ में नहीं आता है पर हकीकत है।

मैं यही तो बोल रहा हूं कि जब न्यूज में चीजें छप नहीं रहीं..
नहीं नहीं, आप हमसे ये हक मत छीनो कि हम क्या बोल सकते हैं या मॉरल स्टैंड लेना है या वैल्यू की बात ही करनी है।

नहीं नहीं मैं...
नहीं नहीं। आप मुझे टटोल रहे हैं तो मैं कहता हूं कि आज ऑनेस्ट रहना एक बहुत बड़ी लग्जरी है। अखबारों के मालिक कोल माइंस डालते हैं तो कॉरपोरेटाइजेशन से जुड़े हुए हैं न, उन चीजों से? क्या आप अपनी नौकरी छोड़ दोगे? अगर आप अवेयर हैं तो वही है। फ़िल्म आपको जागरूक करना चाहती है। कि भई हम ऐसे हैं तो क्या किया जाए? कैसे करें इसको?

मैं पूछता हूं ताकि या तो आशा मिल जाए या निराशा मिल जाए। क्योंकि सबसे जरूरी खबरें आज दबी हैं और जो नॉन-इश्यू है वो...
हां, अभी आप ही बोल रहे हैं...

मैं खुद बोल रहा हूं
जब हम न्यूज़पेपर पढ़ते हैं तो ये पढ़ते हैं कि लाइन्स के बीच में क्या है। तो लाइन्स के बीच में हमें तो हकीकत मिलने वाली नहीं है।

देखिए अन्य अखबारों की तो बात नहीं कर रहा लेकिन जैसे द हिंदु है। द इंडियन एक्सप्रेस है। द हिंदु में सबसे भरोसेमंद चेहरे थे वो चले गए। तीन-चार जो बेहद विश्वसनीय थे..
पी. साईंनाथ..

..उन्होंने, सिद्धार्थ वरदराजन ने। ऐसे कई लोगों ने ने छोड़ दिया..

करेक्ट

..वो कहते हैं कि अब प्रेस रिलीज बेस्ड हो गया है सारा। और प्रेस रिलीज ही लगानी है तो हमारी क्या जरूरत है। 8 रुपया 9 रुपया देकर भी द हिंदु मंगाने को तैयार हैं, दो रुपये का अखबार छोड़ के। इंडियन एक्सप्रेस में भी चीजें बदल चुकी हैं।
सही बात है आपकी लेकिन पी. साईंनाथ तो नहीं बदल गया है न।

वैकल्पिक मंच पर आ गए हैं
यार वो क्या है न, एक लग्जरी है मैं मानता हूं। लेकिन हम 70 साल को पूरी दुनिया के ये नहीं कह सकते कि ये ही सच्चाई है। आज की सच्चाई भी यही है और कल की सच्चाई भी यही रहेगी, ये सोचना गलत है।

उस संदर्भ में आप कह रहे हैं कि जैसे पूरी दुनिया हजारों साल से है तो हजारों बार उतार-चढ़ाव का चक्र रहा है.. ये प्रक्रियाएं रही हैं..
जब आफत आती है तो आप सोचते हैं लेकिन.. । मैं ये नहीं बोलता हूं कि नया सूरज उगेगा.. कम्युनिस्ट बातें नहीं कह रहा हूं लेकिन हम एक डार्क पीरियड को बोलते हैं कि यही सच्चाई है तो गड़बड़ हो जाते हैं। तो हम तो यही मानते हैं और कोशिश कर रहे हैं। एक नई चीज सामने लाने की कोशिश कर रहे हैं। और क्या कर सकता है आदमी। हमारे पास एक ही हथियार है ऑडियंस तक पहुंचने का वो है कॉमेडी।

पारंपरिक राजनीतिक दलों को लेकर व्यंग्य और उनकी हंसी-किरकिरी हम हमेशा देखते आए हैं। लेकिन आम आदमी पार्टी की बात करें तो आप कैसे लेते हैं दो साल में इनकी मेकिंग...
आम आदमी पार्टी ने जो संसद व विधायी सीटें जीतीं वो आम आदमी पार्टी की जीत नहीं है, वो किसकी जीत है आप मुझे बताइए ना? वो लोगों की जीत है। पीपल। लोग। लोगों की जीत है। वो (पार्टी) फेल हुए, उन्होंने (लोगों) बोला “हम एक और चांस देंगे। आप ऑनेस्ट रहिए, पांच साल में कुछ मत करिए हम समझेंगे, लगेगा कोई और नहीं है तो हम आपको ही रखेंगे”। देखिए जनता ने कितना साफ-साफ बताया है यार। और न ही उसमें किसी ने मुसलमान के तौर पर वोट किया, न ही उसमें ईसाई के तौर पर किया, न ही उसमें सिख के तौर पर किसी ने वोट किया। Aam Aadmi is not Kejriwal alone, या प्रशांत भूषण या जो भी है। Aam Aadmi is the people yaar.. क्या.. क्या तमाचा मारा है यार लोगों ने? तो जीत लोगों की होनी चाहिए न? आपको एक उत्साह होना चाहिए, एक बहुत बड़ी आशा होनी चाहिए। हम समझते हैं बदलाव नहीं होगा, अब ये बीजेपी हिल गई न? नहीं, बीजेपी हिल गई या नहीं? और सब लोगों को सच्चाई मालूम पड़ गई क्योंकि लोग सच के साथ हैं। बहुत मुश्किल हो गया है यार लोगों के लिए। पानी टैंकर से आता है। माफिया है। ये लोग कैसे जिएंगे यार। हमारा जो वॉचमैन है वो पूछता है आज मोदी साहब ने क्या कहा? मोदी साहब उसके लिए खुदा बन गए हैं। मोदी हो या जो भी हो आप समझ रहे हैं न। कब वो आदमी ऐसा सवाल करता है जब बिचारा गिरा हुआ है।

Ravi Baswani as Sudhir & Naseer as Vinod in the film.
32 साल पहले सुधीर-विनोद हारे थे, तरनेजा-आहूजा जीते थे? अब 2015 में आपके जेहन में समाज कैसा है? वो ही लोग जीत रहे हैं, वो ही लोग हार रहे हैं?
तब क्या है, मैं नहीं कहता कि करप्शन अपवाद था। लेकिन अभी तो सब माहौल ही बदल गया है। ये फ़िल्म (जाने भी दो यारो) से बहुत-बहुत ज्यादा ब्लैक है। जो हम कहना चाहते थे तब वो बहुत ब्लैक था लेकिन अब तो आप बात करेंगे तो लोग आपका टेबल छोड़कर चले जाएंगे। वैल्यू की बात करते हैं लोग टेबल छोड़कर चले जाते हैं। कहते हैं, इस आदमी से क्या बात करें। आप समझ रहे हैं? आप समझ रहे हैं?

जी..
क्योंकि सब समझ रहे हैं, ऐसा ये 70 साल में हो गया तो अब वही चलेगा। मेरे ख़याल से ऐसा नहीं है। ये भी कि टेक्नोलॉजी अपना बदलाव ला रही है। अभी वो आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस है जिससे बहुत बड़ा धक्का आने वाला है। ऑटोमेशन है। रोबोटिक्स है। उससे बिचारा वर्कर और भी रिडंडेंट (बेकार) हो जाएगा। तो जब तक उसके लिए चारा (रास्ता) और नहीं बनेगा तो ये समस्या है बहुत। भई, टेक्नोलॉजी अपने लेवल पर चलेगी। टेक्नोलॉजी को आप रोक नहीं सकते। देखो, इकोनॉमिक्स टेक्नोलॉजी से जुड़ा हुआ है। टेक्नोलॉजी और इकोनॉमिक्स फ़िल्म से जुड़ा हुआ है। उससे वो जो फ़िल्म बनाता है वो जुड़ा हुआ है। आज की तारीख में हम सब एक-दूसरे से जुड़े हुए हैं। वो ये फ़िल्म दिखा रही है। मुझे ये लगता है।

‘जाने भी दो यारो’ में हम बात करते हैं बिल्डर-राजनेता-पुलिस की आपराधिक गुटबंदी की। शहरी बसावट की बात करते हैं जो तेजी से बदल रही है। फ्लाइओवर बन रहा है। आर्थिक असमानता है। ईमानदारी कितनी मुश्किल है, बेईमानी कितनी आसान है। सिहर जाते हैं वो सब देख कर। हम जब इसे बता रहे हैं तो क्या ये इतना अनिवार्य है हम हंसा कर ही बताएं? क्योंकि जिस पर बीतती है उससे मिलकर जानें कि कितना क्रूर है मामला उसके साथ। मैं इसे गलत नहीं कह रहा लेकिन क्या ये दर्शक बहुत घमंडी है जो कहता है I don’t care? मैंने पैसा दिया है मुझे हंसा के ही ये चीज बताओ? जबकि उसी के काम की चीज बताई जा रही है।
 आपका सवाल बहुत वैलिड है लेकिन क्या होता है न कि अभी.. ये आपका सवाल बहुत ही वैलिड है.. पर आप ये सवाल पूछिए कि आपका न्यूज़पेपर ये काम क्यों नहीं करता? क्यों ये सवाल नहीं उठाता? आपका टेलीविजन ये क्यों नहीं करता? आपकी गवर्नमेंट ये क्यों नहीं करती? आपके मंत्री ये क्यों नहीं करते? तो क्या होता है न हम भी इन सबसे जुड़े हुए हैं। अगर ये पाबंदियां न होतीं तो शायद हम अपना एक्सप्रेशन बदल देते। आप ये कहना चाहते हैं कि क्यों डायरेक्ट नहीं हो सकते? क्यों ये एजिटेटेड प्रोपोगैंडा (गुस्सैल रवैया) आप नहीं कर सकते। एजिटेटेड हैं ना कि चेंज आना चाहिए? उसके लिए क्या करना चाहिए? सही है आपका सवाल। डॉक्युमेंट्री भी ऐसी बनती हैं। लेकिन जब आप फ़िल्म बनाते हैं तो अलग होता है। आप उसमें इतना पैसा खर्च करते हैं तो आपको वायेबल (व्यावहारिक) होना है। लोगों तक बात पहुंचानी है। .. डॉक्युमेंट्री आप फ्री में दिखाएंगे टेलीविजन पे। अगर फ़िल्म फ्री में दिखाएंगे तो मैं बना दूंगा ऐसी फ़िल्म।

‘जाने भी दो यारो’ के समय में कॉमेडी जो थी और लोगों ने खुद को जैसे एंटरटेन किया उससे, आज के दर्शक उस कॉमिक सेंस को उतनी ही ताजगी से लेंगे या उनमें कोई बदलाव 20-30 साल में आप पाते हैं?
नहीं, ऐसा नहीं है। ये सवाल, सवाल ही नहीं है। ऑडियंस हर चीज के लिए है भाई। जहां आप सच्चाई की बात करेंगे वहां ऑडियंस क्यों नहीं होगी? आप ये सोचते हैं कि जो डेविड धवन का दर्शक है वो ही आपकी फ़िल्म देखने आएगा? क्यों आप ऐसा मान लेते हैं? या ऐसा क्यों सोचते हैं कि जो डेविड धवन की फ़िल्म देख रहे हैं वो आपकी फ़िल्म देखकर एंजॉय नहीं कर सकते? सबसे प्योर चीज है ऑडियंस। अगर आपकी फ़िल्म फ्लॉप होती है किसी कारणवश। मैं ये नहीं कर रहा हूं कि हमेशा फ़िल्म खराब है इसलिए फ्लॉप होती है। लेकिन ऑडियंस बहुत प्योर होती है। वो बिचारी पैइसा देकर आती है तो वो करेगी वो। बहुत सी फ़िल्में हैं जो चलती हैं, बहुत सी फ़िल्में हैं तो तारीफ पाती हैं। अलग-अलग कारणों से।

अगर मैं गोविंदा की फ़िल्में देखकर हंसा, आपकी देखकर हंसा लेकिन जो घर के युवा बच्चे हैं उनका कॉमेडी को लेकर नया टेस्ट ऐसा है कि शायद हमें इस कंटेंट के लिए हेय दृष्टि से देखे। कि इतनी प्रिटेंशस चीजें आप क्यों देख रहे हो?
नहीं नहीं। वो बच्चे एंजॉय करेंगे। इन फैक्ट आज का स्टैंडर्ड मापने का पैमाना ‘सब टीवी’ हो गया है। SAB TV is becoming the definition of humor.. तो वो बहुत मुश्किल है न। कॉमेडी कॉमेडी होती है। वहां ‘सब टीवी’ तो आपको ठूंस रहा है। आपके मुंह के अंदर वो ठूंस रहा है। कि लो लो लो, ये कॉमेडी है। एक वीक में वो आपको छह बार वो प्रोग्राम दिखाते हैं। और ऐसे आठ प्रोग्राम रोज दिखाते हैं। बोलते हैं ये हम कॉमेडी कर रहे हैं आप हंसो। तो अभी क्या, ऑडियंस वही लेती है जो उनको मिलता है।

जैसे केले के छिलके पर फिसलकर कोई गिरता था तो उस पर हम हंसते थे? आज फ़िल्म में ऐसे दृश्य काम करेंगे? दूसरों के दुख का हमारा मनोरंजन हो जाना, क्या अब भी है?
नहीं, नहीं ऐसा नहीं है। एक चीज रिपीट होगी तो वो काम नहीं करेगी। उसको अलग लेवल पे यूज़ करेंगे। अभी जब केले के छिलके का जिक्र ही कर दिया है तो मेरी फ़िल्म में (पी से पीएम तक) केले के छिलके हैं (खिलखिलाते हैं)।

मुझे नहीं पता था..
हां, मैंने यूज़ किए हैं छिलके। अभी वो अच्छे लगें, नहीं लगे वो मुझे नहीं मालूम। अलग तरीके से किया है। किसी को मजा आया तो ठीक है नहीं तो हम गलत है। ... अब जैसे परसाई (हरिशंकर) है। क्या परसाई को आज पढ़कर नहीं एंजॉय कर सकते। वो आज भी इतने वैलिड हैं यार। मुझे दूरदर्शन ने बोला था आप परसाई पर एक सीरियल बनाओ। तेरह कहानियां। उसमें एक कहानी में है कि डिस्ट्रिक्ट मजिस्ट्रेट घोषणा करता है जो भी राशन ब्लैक में रखेगा, जमा करेगा, उस पर हम छापा मारेंगे। तो परसाई जी का कैरेक्टर जाता है डीएम के पास और बोलता है सर ये आदमी है, इसने इतना माल अपने गोदाम में रखा है आप रेड कीजिए। बोले, “वैरी गुड, गुड इनफॉर्मेशन”। उसे बाद में मालूम चलता है कि गोदाम वाले को उन्होंने नोटिस भेजी है, “कि भई हमें खबर मिली है कि आपने इतना माल रखा है क्या ये सही है”? परसाई का किरदार बोला, “ये आप क्या कर रहे हो। माल हटा देगा वो”। तो डीएम बोलता है, “नहीं नहीं हमको तो प्रोसीजर से जाना पड़ेगा न”। तो अभी मुझे बताओ ये कैसे हो रहा है? ये दोबारा हो रहा है आपकी जिंदगी में। आप पत्रकार हैं मुझे बताइए कौन कर रहा है और कहां हो रहा है। मुझे बताइए..। फेल हो जाएंगे आप..

अ..
रोज आ रहा है यार। तो आप क्या पेपर पढ़ते हैं!

नहीं पढ़ता जी..
ये है ब्लैक मनी का। हम रेड कर देंगे, हम ये करेंगे, हम वो करेंगे। ये परसाई सामने आ रहे हैं आपके। आ रहे हैं कि नहीं? वो जेटली (अरुण) परसाई बन रहे है। डिस्ट्रिक्ट मजिस्ट्रेट। हंसी नहीं आती आपको? वो रोज बोल रहे हैं “हम ये कर देंगे.. उसके पास ब्लैक मनी है हम ऐसा करेंगे”। ये सब तुम ऐसे ही बोल रहे हो। कोई जेल नहीं जाएगा। कोई कुछ नहीं होगा। ये कॉन्ग्रेस को बोलते हैं क्रोनी कैपिटलिस्ट थी तो ये कौन से कम हैं यार। अभी पब्लिक को थोड़ा झांसे में रखना है तो अपने-अपने लेवल पर कर रहे हैं। उनका ये ... कौन सा स्वच्छ भारत हो रहा है डेढ़ साल में @#$*...

कुछ नहीं हुआ..
कुछ नहीं हुआ है एक साल में.. 2019-20 तक कर देगा क्या वो? बोलते हैं न कि सपने देखने में क्या बुराई है। मोदी जी तो यही बोलेंगे। कौन स्वच्छ.. पहले स्वच्छ दिमाग करो यार। ..खैर, फ़िल्म पर आते हैं। हमने दिल से बनाई है और ऑडियंस से कहते हैं कि प्लीज़ दिमाग साथ में लेकर आइए। हमारा मानना है कि जब थियेटर से बाहर जाएंगे तो फ़िल्म आपके साथ जाएगी। हमने कोशिश की है। एक बहुत छोटी फ़िल्म है। हमारे पास न ही स्टार हैं, न ही कुछ है। खाली कॉमेडी है, एक ही हथियार। आप आके देखिए क्या है। अरे प्रॉस्टिट्यूट को इसलिए सलेक्ट किया है कि वो हमारे समाज के सबसे नीचे के तबके की है। एकदम नीचे की है। जबकि पॉलिटिशियन कितने गंदे हैं ये दिखाने के लिए फ़िल्म है। रूपक के स्तर पर इस्तेमाल किया है। और वो प्रॉस्टिट्यूट है उसकी ट्रैजेडी है, क्योंकि हर प्रॉस्टिट्यूट की एक ट्रैजेडी है। उसके जीवन में इतना दुख भरा हुआ है। क्योंकि पॉलिटिकल मेटाफर यूज़ कर रहे हैं तो उससे कॉमेडी करवाई है, उससे स्लैपस्टिक करवाई है। और ट्रीटमेंट टोटल ब्राइट है। जितनी उसकी लाइफ डार्क है, जितना उसका सबजैक्ट डार्क है, जो हम कहना चाहते हैं डार्क है, उसी को दिखाने की कोशिश की है दोस्त।

‘तनु वेड्स मनु रिटर्न्स’ देखने गया था। दस मिनट हुए थे शुरू हुए। मेरे पास दो युवक बैठे थे। तभी टिकट वाला आया। छह-सात औरतों और बच्चों की सीटें दिखा रहा था। उसने उन लड़कों से कहा, “तुम अपने टिकट दिखाओ”। वो कहते हैं “तुमसे पहले एक आदमी था, उसने बोला था टिकट उसे दिखा दी, उसने हमको बिठा दिया”। तो उसने कहा “दोबारा दिखाओ मैं नया आदमी हूं अभी आया हूं”। तो टिकट वो धीरे-धीरे निकाल रहे थे। उसने पूछा “तुम कौन सी फ़िल्म देखने आए हो, तो कहते हैं हमको तो गब्बर देखनी है”। उसने कहा, “गब्बर देखनी है तो तनु वेड्स मनु रिटर्न्स में क्यों बैठा है दस मिनट हो गए तेरा अक्षय कुमार दिखा क्या?”
(खिलखिलाते हैं)...

चौंक गया अपने साथी दर्शकों को देखकर ...
नहीं नहीं, इसमें सबको मत गिनो। एक अलग वाकया सबको डिफाइन नहीं करता। लेकिन अच्छा है ये वाकया अच्छा है। (हंसते हैं)

लेकिन फ़िल्मों से इतर भी हालात बहुत निराशाजनक हैं
नहीं, नहीं ठीक होगा। यहां मुंबई में तो हालात बहुत ही खराब हैं। मैं एक किस्सा बताता हूं। जब निर्भया वाला मामला हुआ तो टाइम्स ऑफ इंडिया ने एक खबर छापी कि वडाला में – वडाला हमारा बंबई में एक सबर्ब है, जैसे बांद्रा है वैसे वडाला है – वहां एक लड़का और लड़की बस में ट्रैवल कर रहे थे। लड़के और लड़की में कुछ अनबन हो गई और लड़की नीचे उतर गई। पता नहीं वो बॉयफ्रेंड- गर्लफ्रेंड थे या दोस्त थे कॉलेज के .. वो बात मायने नहीं रखती .. तो लड़का उसके पीछे जा रहा था उसको मनाने के लिए। आगे पांच लोग खड़े थे। पांच लोग खड़े थे और वो देख रहे थे। वो लड़की को देख रहे हैं, फिर बोल रहे हैं.. “मान जा मान जा, हम भी तो खड़े हैं लाइन में, कमी है तो सिर्फ एक सरिए की”। ………..आप सुन रहे हैं।

…सुन रहा हूं बिलकुल सुन रहा हूं
“कमी है तो…” …ये लोग में इतनी सिकनेस (बीमारी) कैसे पैदा हो गई? आपने देखी निर्भया पर (लेस्ली उडविन की डॉक्युमेंट्री ‘इंडियाज़ डॉटर’).. आपको लिखना चाहिए उस पर। वो फ़िल्म सब स्कूल में दिखानी चाहिए ये मेरा मानना है। बैन कर दी गवर्नमेंट ने। लेकिन उसमें सबसे समझ वाली बात उस साइकेट्रिस्ट ने कही है। वो बोल रहा है कि यार ये लोग सिक नहीं हैं मेंटली, ये लोग एंटी-सोशल लोग हैं। ये जहां रहते हैं वहां औरतों को ऐसे ही ट्रीट किया जाता है। नॉट एग्जैक्टली ये.. पर वो जो देखते हैं वैसे ही ट्रीट करते हैं वो लोग एंटी सोशल हैं। वो जो साइकेट्रिस्ट ने बात कही वो किसी न नहीं छापी। ये क्राइम भी सामाजिक वजहों से आ जाता है। एक हर्ष मंदर का आर्टिकल आया था जब निर्भया का केस चल रहा था कि Who are these boys who did this? और ये डॉक्युमेंट्री कुछ तीन दृष्टिकोण से बताती है। कि बिचारी वो लड़की.. वो तो बहुत बड़ी ट्रैजेडी ही है यार। लेकिन क्यों हुआ ये? आप फांसी दे देंगे, ये कर देंगे, वो कर देंगे.. उससे क्या। यार क्यों करते हैं लोग वो आप नहीं सोचते। “करेंगे तो हम मारेंगे..” ये सोचते हैं। क्राइम क्यों हो रहा है ये तो कहेंगे तो फंस जाएंगे क्योंकि इसमें फिर समाज को सुधारना पड़ेगा खुद को सुधारना पड़ेगा गवर्नमेंट को बहुत काम करना पड़ेगा। तो गवर्नमेंट छोटा काम कर देती है और चलो।

यहीं पर फ़िल्मों के लिए मन में बहुत सम्मान होता है। जैसे ‘आशीर्वाद’ (1968) फ़िल्म आपने देखी होगी अशोक कुमार की...
हां देखी है.. एक और फ़िल्म बनाई थी ऋषिकेश मुखर्जी ने ‘सत्यकाम’। वो फ़िल्म देखकर मेरे दोस्त (रंजित कपूर, ‘जाने भी दो यारो’ के सह-लेखक) की जिंदगी बदल गई। वो क्राइम करने जा रहा था, उसको वो फ़िल्म देखनी ही नहीं थी उसको कोई एंटरटेनमेंट वाली देखनी थी। पर वो फ़िल्म देखी उसने तो बोला “ये मैं क्या करने जा रहा हूं?” पिक्चर देखके उसने रास्ता बदल लिया। और जब ऋषिकेश मुखर्जी को सालों बाद पता चला कि एक आदमी ने अपनी जिंदगी का रास्ता बदल लिया तो वो इतने खुश हो गए कि मैं क्या बताऊं आपको। और मेरा दोस्त इसके बाद ही फ़िल्म इंडस्ट्री में आया। तो आप सोचिए ...

आप देखिए ‘आशीर्वाद’ कितनी अकल देती है। उसमें प्रांगण में खुले घूमते या अन्यथा कैदियों के बारे में जेलर (अभि भट्टाचार्य) और डॉक्टर (संजीव कुमार) जैसे पात्र विचार रखते हैं कि वे कोई शेर भालू हैं जो पिंजरे में बंद रखे जाएं। जेल के बारे में ये ही तो भ्रांति है। जैसे शरीर के रोगों के लिए अस्पताल है, वैसे ही मानसिक बीमारी के लिए जेल है। आदमी यहां आता है ताकि समाज और परिवार से दूर अपने साथ एकांत में वक्त बिता सके और फिर समाज में लौट सके। कितनी सार्थक-सुलझी सोच देकर जाने वाले थे हमारे फ़िल्मकार...
ऐसी फ़िल्में बनना बहुत जरूरी है। जैसे देखो, एक शरीर को ख़ुराक़ चाहिए, रोटी चाहिए, दाल चाहिए। वैसे भी दिमाग को भी कुछ तो चाहिए न ख़ुराक़। तो ऐसी फ़िल्में बनना जरूरी है। ऐसे न्यूजपेपर की जरूरत है, ऐसे लोगों की जरूरत है। बहुत से लोग बिचारे काम कर रहे हैं यार। अब हम भी एक हैं यार। तुम बोलोगे बदलाव नहीं आया तो नहीं आया यार। कोशिश तो करते हैं।

 आप किसपे लिखते हैं? की-बोर्ड पर या पेन से?
अरे साब मैं बहुत फास्ट टाइपिस्ट हूं। मेरे पिताजी ने बोला था, “टाइपिंग सीखो भूखे नहीं मरोगे”। तब उस जमाने में सीखा। अब भी मैं हिंदी में भी टाइप करता हूं दोनों हाथों की पांचों अंगुलियों से। अच्छा टाइपिस्ट हूं। अच्छी स्पीड भी है। कंप्यूटर पर लिखता हूं।

आप कौन सी फ़िल्मों को देखकर सबसे ज्यादा हंसे हैं?
बहुत सी फ़िल्में हैं। एक है.. फ्रैंकली में पहली या दूसरी बार बता रहा हूं जहां से मुझे डेड बॉडी का आइडिया “जाने भी दो यारो” में आया था वो एक फ़िल्म है “डेथ ऑफ अ ब्यूरोक्रैट” (1966)। क्यूबन फ़िल्म है मेरे ख़याल से। उसमें क्या हो जाता है कि वो आदमी मर जाता है। तो उसका जो पेंशन कार्ड है वो दफनाते वक्त साथ चला जाता है। अब कार्ड चाहिए तो बोलते हैं कि दफनाया है उससे बाहर निकालना पड़ेगा। उसे बाहर निकालने का जो पूरा ब्यूरोक्रैटिक प्रोसेस है तो पूरी ब्यूरोक्रेसी है यार उसमें। इसे देखकर बहुत हंसा। बहुत सी और भी फ़िल्में हैं जो आपको हंसाती हैं साथ ही सोचने पे मजबूर करती हैं। एक और पुरानी फ़िल्म है स्टैनली कुबरिक की “डॉ. स्ट्रेंजलव ऑरः हाउ आई लर्न्ड टु स्टॉप वरिंग एंड लव द बॉम्ब” (1964)।

जो बच्चे एफटीआईआई (भारतीय फ़िल्म एवं टेलीविजन संस्थान, पुणे) में एडमिशन नहीं ले सकते वो सेल्फ-स्कूलिंग कैसे कर सकते हैं?
आजकल तो फ़िल्म इंस्टिट्यूट इंटरनेट पर भी हैं। बहुत से लोग हैं जो फ़िल्मों से ही फ़िल्ममेकिंग सीखे हैं। जब आप फ़िल्म को देखते हैं फ़िल्म एप्रीसिएशन सीखना पड़ेगा। जैसे एक डॉक्टर डेड बॉडी लेकर परीक्षण करता है कि उसकी धमनियां कहां हैं, ये कहां है, वो कहां है? काट के वो देखते हैं। वैसे ही फ़िल्म का पूरा विश्लेषण करना पड़ेगा। कि ये सीन क्या करता है? ये डायलॉग क्यों है? ये पूरा डीटेल में खुद से पूछना पड़ेगा। फिर उसको मालूम पड़ेगा कि ये क्यों कैसे बनी है फ़िल्म? नहीं तो बस आप ऊपर से देख लेते हैं कि ये हो जाता है लेकिन फ़िल्म क्षेत्र में आने के लिए आपको पूरा फ़िल्म विश्लेषण करना पड़ेगा। ये सारी चीजें आज इंटरनेट पे हैं। बहुत सारे फ़िल्म इंस्टिट्यूट हैं इंटरनेट पर वो बताएंगे कि आपको क्या करना है। फिर आप करेंगे वो देखेंगे कि कैसा है।

लेकिन क्या वो महंगा नहीं होगा?
अरे वो फ्री है। मैं सब मोफत का बात कर रहा हूं। बहुत सारी हिंदी स्क्रिप्ट्स भी ऑनलाइन हैं अभी।

“जाने भी..” को छोड़ दें तो कौन सी पॉलिटिकल सटायर आपको पसंद आई है?
एक थी “तेरे बिन लादेन”। वो अच्छी है। उसमें मुझे सेकेंड हाफ में अच्छा लगा। कि वो पूरा सीआईए को इनवॉल्व करता है। एक झूठा लादेन पैदा करता है। वो फंस जाते हैं और सीआईए आ जाती है। बस अंत गड़बड़ था कि आप क्या कटाक्ष कर रहे हैं, व्यंग्य कर रहे हैं अमेरिका पर, लादेन के जरिए। और लादेन ही अमेरिका पहुंच जाता है। तो लगता है कि यार ये कहां हो गया।

“फंस गए रे ओबामा” ?
उसमें वो था न किडनैप, फिर और किडनैप। अच्छी है कॉमेडी के लेवल पर। मैंने देखी नहीं है। उसमें जो आर्टिस्ट है वो जबरदस्त है। संजय मिश्रा। जिन्होंने “आंखों देखी” की। जबरदस्त आर्टिस्ट है।

आर्टिस्ट आमतौर पर सनकी होते हैं। आपको दोस्त और परिवार वाले किस श्रेणी में रखते हैं?
ये तो उन्हीं से पूछना पड़ेगा। कभी-कभी परिचित या एक्टर या एक्ट्रेस बोल देते हैं कि सर तो वैसे हैं, पर मुझे लगता है मैं सही हूं। वैसे ये जवाब बहुत मुश्किल है।

जो युवा फ़िल्मों में आ रहे हैं उनके सामने क्या दो ही रास्ते हैं? एक कमर्शियल फ़िल्में बनाओ या सार्थक फ़िल्में बनाकर भूखे रहो? कुछ और विकल्प है? 
देखो रास्ता तो अपना ढूंढ़ना पड़ेगा। सफलता की कोई गारंटी नहीं है। फ़िल्म लाइन में यही है। क्योंकि एक डायरेक्टर बनता है तो सौ खो जाते हैं। निर्णय तो आपको लेना पड़ेगा। कमजोर दिल वाले हैं वो खो जाते हैं। जो बनते हैं बन जाते हैं, जो नहीं बन सकते नहीं बनते। ये ट्रैजेडी ही है। क्या करें?

Kundan Shah was most known for his classic comedy Jaane Bhi Do Yaaro (1983). His other notable works are - TV series Wagle Ki Duniya (1988) and Nukkad (1986), Parsai Kehte Hain. He also made Bollywood films such as Kya Kehna (2000) and Dil Hai Tumhara (2002). His last film P Se PM Tak released on 29 May 2015. Like Jaane Bhi.. it is a political satire. Kundan Shah passed away on Saturday October 7, 2017 following a heart attack. He was 69. What a wonderful, honest and caring human being he was! He will be missed.

(First published on 29/05/2015, this interview was last updated on 07/10/2017)
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Sunday, January 13, 2013

मैंने कुमुद मिश्रा को ‘इल्हाम’ में देखा और बस रो दियाः मंत्र

रंगमंच अभिनेता, टेलीविजन प्रस्तोता, रेडियो जॉकी, फिल्म कलाकार और स्टैंड अप कॉमेडियन मंत्र से मुलाकात हुई। अपने मनमोहक अंदाज में इस लंबी बातचीत में वह छूते चले पिया बहरुपिया, कॉमेडी सर्कस, रेडियो, दिनेश ठाकुर, ओशो, थियेटर, अतुल कुमार, सखाराम बाइंडर, शाहरुख खान, दर्शन, पीयूष मिश्रा, बॉलीवुड, ब्रॉडवे बनाम पारंपरिक रंगमंच, अश्लीलता, बर्फी, कॉमेडी, मिस्टर बीन और जीने का फलसफे जैसे कई विषयों को। धैर्य रख सकें तो पढ़ें।
 
Mantra
सर एंड्रयू एग्यूचीक सीधे बंदे हैं। वह ऑलिविया से शादी करना चाहते हैं, पर सब जानते हैं कि ऐसा कभी नहीं होगा। वह बुद्धिमान हैं, बहादुर हैं, भाषाओं के जानकार हैं, नाचना जानते हैं, रंगत वाले कपड़े पहनते हैं, नौजवान हैं। मगर उनके हालात उनकी छवि किसी मूर्ख की सी बना देते हैं जैसा कि हमारी आदत होती है, मुसीबत में पड़े किसी पर हंसना। विलियम शेक्सपियर के नाटक ‘ट्वेल्फ्थ नाइट’ (वॉट यू विल) में एंड्रयू पर हम हंसते हैं। मगर पूरणजीत दासगुप्ता की परिस्थितियां बेचारगी वाली नहीं हैं। हम उन पर हंसते नहीं हैं, बल्कि वह हमें हंसाते हैं। कोई बारह साल ‘रेडियो मिर्ची’ के पहले ब्रेकफस्ट शो में रेडियो जोकींग करते हुए भी, बाद में भी रेडियो पर ‘बजाते हुए’ लगातार, फिर दिल्ली के गलियारों में 2003 में बैरी जॉन से थियेटर सीखने के बाद बहुत सारे प्ले करते हुए, ‘भेजा फ्राई-2’ और ‘हम तुम और शबाना’ जैसी कुछ फिल्मों में सहायक भूमिकाओं में, टेलीविजन पर भांति-भांति के शो की एंकरिंग करते हुए, ‘कॉमेडी सर्कस’ में स्टैंड अप कॉमेडी करते हुए, थियेटर को समर्पित अतुल कुमार द्वारा निर्देशित शेक्सपियर के हिंदी रूपांतरित प्ले ‘पिया बहरुपिया’ में एग्यूचीक को निभाते हुए... वह लगातार हंसा रहे हैं। असल जिंदगी में भी जब उनसे मिलता हूं तो उनका स्वर, आभा, व्यक्तित्व इलाइची के दानों की गंध से भी हल्का और भीतर समाहित करने लेने वाला होता है। जीवंतता सुलगते लोबान की खूबसूरती लिए सुलगती है। लंबी बातचीत के दौरान बीच-बीच में वह हंसाने की कोशिश करते हैं, हालांकि इससे जवाब कट-कट जाते हैं, पर उनके इरादे नेक होते हैं। कोई बारह-चौदह साल पहले जबलपुर के ओशो आश्रम में उन्होंने सन्यास ले लिया था। वहां उन्होंने ‘मंत्र’ नाम धारण किया। इसीलिए 2000 से शुरू हुए उनके कार्यक्षेत्र में उन्हें मंत्र नाम से ही जाना जाता है। उच्चारण हालांकि मंत्रा हो चुका है। हमें हिंदी नाम को भी पहले अंग्रेजी में लिखकर फिर हिंदी में पढ़ने की कोशिश करने की आदत जो है। मंत्र की मां चंद्रा दासगुप्ता एक अभिनेत्री रहीं। पिता प्रबीर दासगुप्ता कोलकाता में ‘दासगुप्ता पब्लिकेशंस’ चलाते थे। हालांकि मंत्र बातचीत में प्रमुखता से मां के बारे में बात करते हैं। वह खुलकर हर मुद्दे पर बात करते हैं। बहुमुखी प्रतिभा वाले लगते हैं। कहते हैं कि भाषा कोई भी हो बस काम अच्छा होना चाहिए। उन्हें हीरो बनने या मुख्य भूमिका करने की कोई लालसा नहीं है। बोलते हैं, “कैरेक्टर आर्टिस्ट हूं, मुझे हीरो नहीं बनना। मेरे आदर्श शाहरुख नहीं हैं, इरफान खान हैं”। फिलहाल ‘कॉमेडी सर्कस’ के मौजूदा संस्करण में हिस्सा लेते, कुछ टीवी शो की एंकरिंग करते, ‘पिया बहरुपिया’ का मंचन देश के अलग-अलग शहरों में करते हुए... मंत्र अपने तीन नए प्रोडक्शन में व्यस्त हैं। प्रस्तुत है उनसे हुई ये बातचीतः

तो क्लाउन आपका स्कूल ऑफ थियेटर है, कुछ बताइए आपकी इस दुनिया के बारे में।
2008 से ही मैं अतुल कुमार से जुड़ गया था। उनके स्कूल ऑफ थियेटर को पसंद करता हूं। जो इस एक्सट्रीम पर हैं जैसे रजत कपूर, विनय पाठक, रणवीर शौरी। इनका ‘हैमलेट - द क्लाउन प्रिंस’, ये जो थियेटर क्लाउन वाला करते हैं जिसमें शेक्सपीयर की बड़ी से बड़ी ट्रैजेडीज को वो क्लाउन के जरिए पेश करते हैं, ये मेरा स्कूल ऑफ थियेटर था। मैंने ज्यादातर अंग्रेजी थियेटर किया है और अंग्रेजी थियेटर का मार्केट है भी और नहीं भी। इंडिया हैबिटैट सेंटर से लेकर कामानी से लेकर एलटीजी से लेकर चिन्मय मिशन तक.. दिल्ली में कोई ऐसा हॉल नहीं है जो हमने छोड़ा हो। 60-65 प्रतिशत तक मेरे प्ले अंग्रेजी में रहे हैं। इसकी एक अलग ऑडियंस है, जो कमर्शियल थियेटर में नहीं गिनी जाती है, हालांकि मैं हिंदी में पोस्ट ग्रेजुएशन कर चुका हूं। हिंदी मेरी उत्तीर्ण भाषा है, सबसे ज्यादा मैं हिंदी का ही उपयोग करता हूं लेकिन अंग्रेजी पर मेरी पकड़ उतनी ही ज्यादा है और ये जो थोड़ा चेहरा मिला है फिरंगियों माफिक तो इसका भरपूर फायदा डायरेक्टर साहब उठाते हैं।

और नाम आपका मंत्र है...
हां, और नाम मंत्र है तो आदमी कन्फ्यूज हो जाता है कि भइया ये आदमी है क्या, गोरा-चिट्टा लग रहा फिरंगी है, नाम मंत्र है, बोल शुद्ध हिंदी रहा है, आवाज अमरीश पुरी जैसी है, क्या करेगा ये? ...थियेटर करते मुझे 12 साल हो गए। लेकिन ‘पिया बहरुपिया’ मेरा सबसे बड़ा हिंदी प्रोडक्शन रहा है। इसके अलावा मेरे अंग्रेजी प्रोडक्शन बहुत बड़े रहे। अतुल के साथ काम करना मेरे लिए बहुत जरूरी था। वो अगर मुझे प्रोडक्शन में भी ले लेते तो मैं अपने बिजी शेड्यूल में से टाइम निकालकर प्रोडक्शन भी देखता, क्योंकि अतुल के आस-पास बहुत कुछ देखने को मिलता है, समझने को मिलता है। हालांकि उनका डायरेक्शन का स्टाइल बहुत अलग है। वह बेहतर एक्टर हैं, ही इज अ ब्रिलियंट एक्टर ऑन स्टेज। और एक डायरेक्टर के तौर पर वह सब-कुछ एक्टर्स पर छोड़ देते हैं। ‘पिया बहरुपिया’ भी वैसे ही बना। हम पे ही छोड़ दिया और हम पूछते रहे कि सर करें क्या? बोले, कल्ल लो। तो अच्छा कर लेते हैं, तो हमने अपने हिसाब से किया। थोड़ा ये, थोड़ा वो। सब इम्प्रोवाइजेशन था। बाकी मेरा अपना एक अलग स्कूल ऑफ थॉट है, अलग स्कूल ऑफ थियेटर है, वो मैं करूंगा आने वाले टाइम में, मेरे अपने तीन प्ले तैयार हो रहे हैं। उन पर काम कर रहा हूं।

आदमी एक हद के बाद सीख चुका होता है, या सीखता रहता है?
नहीं, नहीं... हमेशा सीखता रहता है। थियेटर में तो हमेशा वही हालत रहती है जो कक्षा में एग्जाम देने वाले बच्चे की होती है। कि क्या होगा? बड़े से बड़ा एक्टर... वहां जाकर जबान फिसल जाए... फंबल कर जाए, कितना भी बड़ा आपका कॉन्फिडेंस क्यों न हो। और मेरे लिए तो हर प्ले के साथ कुछ नया हो जाता है। टीवी का क्या है एक-बार कर दिया तो वही रहता है, 25 साल बाद भी ‘शोले’ में बच्चन साहब को देखेंगे तो उनका हाथ वैसा ही रहेगा लेकिन अगर वो प्ले होता तो अलग हो जाता। बच्चन साहब कुछ और कर रहे होते, शाहरुख कुछ और कर रहे होते।

स्टेज पर उतरने के बाद नर्वस होते हैं स्कूली दिनों के माफिक, लेकिन जब एक बार उतर जाते हैं तो खुलकर खेलते हैं?
अरे, उसके बाद तो... मैं इतना मानता हूं कि एक बार स्टेज पर उतरने के बाद डायरेक्टर मेरा क्या कल्ल लेगा। डायरेक्टर का सबसे बड़ा डर भी रहता है कि ऐसे एक्टरों से पाला न पड़े लेकिन मैं कभी साथी कलाकारों को परेशान करने वाला रिस्क, चेंज या एक्सपेरिमेंट नहीं लेता। ऐसी कोई लाइन नहीं बोल दूंगा कि मेरे सामने जो एक्टर है वो घबरा जाए कि ये क्या बोल गया। लेकिन खेलने का बड़ा मौका मिलता है। थियेटर में मेरे लिए सबसे जरूरी चाह ये है कि मुझे पुराने जमाने वाला ख्याल आ जाता है कि सामने ऑडियंस बैठी हैं और आप उनके सामने पेश कर रहे हो कुछ। ये कहीं हिल के जाएगा नहीं ये आदमी...। टीवी पर वह मुझे रिमोट से बंद करके उठ सकता है, ये (थियेटर ऑडियंस) उठ कर जाएगा नहीं, मैं रोक सकता हूं इसको। मुझे ये सब करने में बड़ा मजा आता है।

लेकिन इतने किस्म की पहचान आपकी हैं, कहीं न कहीं तो दिक्कत होती होगी? कहीं तो सोचते होंगे कि मैं इस आइडेंटिटी का अपने से करीबी ताल्लुक मानता हूं? जैसे अब लग रहा है कि आप थियेटर को सबसे ज्यादा करीब पाते हैं।
नहीं गजेंद्र जी, मैं क्या बताऊं। मैं ये कहता हूं कि मैं एक कलाकार हूं। मुझे मीडियम से इत्ता फर्क नहीं पड़ता। अपने करियर के ज्यादातर वक्त मैं रेडियो पर रहा। 12 साल रेडियो किया। 10 साल थियेटर किया। तकरीबन 6 साल से टेलीविजन कर रहा हूं मैं। फिल्में कर रहा हूं 5-6 सालों से लेकिन मेरे लिए कोई बदलाव नहीं रहा। हां, रेडियो पर मेकअप नहीं लगाना पड़ता था। बस यही फर्क था। रेडियो में चड्डी बनियान पहनकर पहुंच गए, जो भी बोल दिया बोल दिया, लोगों को मजा आता था। आपको वो नहीं करना पड़ता था कि थोड़ी बॉडी बनाएं, थोड़ा फिट रहें, फेशियल कराने जाएं, थोड़ा शेव करें। मैं तो सर एक्टर नहीं होता, मैं कभी दाढ़ी नहीं बनाता। नेचुरल चीजें रोकने में मेरे को बड़ा तकलीफ होती है। मैं दाढ़ी-बाल नहीं काटता, लेकिन अब एक्टर हूं तो करना पड़ता है। कोई मीडियम मेरे लिए खास नहीं है, कोई मीडियम मेरे लिए दूसरे से ज्यादा उत्तीर्ण नहीं है। हां, रेडियो से प्यार करता हूं क्योंकि रेडियो ने बहुत ज्यादा सिखाया है। ये नाटक करना भी एक तरह से रेडियो से ही शुरू हुआ। रेडियो पर प्ले हुआ करते थे, ‘हवामहल’ प्रोग्रैम आता था। स्टूडेंट होते थे हम तब। ‘ऑल इंडिया रेडियो’ में हम लोग साउंड डिपार्टमेंट में हुआ करते थे। आज हमारे पास हजार चीजें हैं। आपको किसी की भी आवाज चाहिए, दुनिया में किसी की आवाज चाहिए, बटन दबाया आ गया। उस टाइम पे मेरे को आज भी याद है हमारे सीनियर थे बोस साहब। वो विनोद के किरदार की आवाज निकालते थे तो... हमारे पास क्यू शीट आती थी लंबी सी, कि मतलब 2 मिनट 35 सेकेंड के बाद चहल-कदमी होगी। वो चहल-कदमी का मेरे पास क्यू आता था तो ईंट लगाते थे और ऐसे रस्सी बांधते थे, वेट करते थे, जैसे ही लाल लाइन वहां पर जली, चहल-कदमी शुरू, खटक-खटक-खटक-खटक... बीच-बीच में गड़गड़ाहट के लिए एल्युमीनियम शीट बजाते थे। वो रेडियो थियेटर ही था एक तरह से। एक तरह से आप बना रहे थे, इट वॉज अ थियेटर ऑफ माइंड। कहते हैं न नेत्रहीन का चलचित्र है रेडियो। जो आप पेंट कर सको एक पिक्चर श्रोता के लिए वही मजेदार बात है।

मगर आपकी ‘कॉमेडी सर्कस’ वाली पहचान भी हावी है, लोग स्टेज पर प्ले के बाद कामेडी करने की रिक्वेस्ट करने लगते हैं।
‘कॉमेडी सर्कस’ चल गया यार। मतलब, आप विश्वास नहीं करेंगे, मैंने ‘कॉमेडी सर्कस’ को पांच सीजन लगातार ना बोला है। क्योंकि मेरा प्रण था कि मैं कभी कोई रिएलिटी शो नहीं करूंगा। ये लोग लगातार मेरे पीछे पड़े रहे जबकि मेरा फिक्स था कि एक्टिंग के लिए फिल्म्स और थियेटर। टेलीविजन, सिर्फ एंकरिंग। बहुत सारे शो मैंने एंकर किए हैं। मैं चैनल वी का वीजे था। बिंदास टीवी पर वीजेइंग करता था। ज्यादातर मैं वीजे ही था, पर ये लोग पीछे पड़े। फिर एक बार तो लिटरली हमारे जो प्रोड्यूसर-डायरेक्टर हैं विपुल शाह और निकुल देसाई, उनने आए और बोला कि (बेहद ड्रमैटिक अंदाज में) “देखो बेटा, छोटी सी इंडस्ट्री है, कहीं न कहीं टकराएंगे, अच्छा नहीं लगेगा ...तब हम ना बोल दें”। मैंने कहा, सर आप धमकी दे रहे हो क्या। “...हां, ...यही समझो”। (हंसते हुए) मजाक कर रहे थे, फिर उन्होंने मुझे समझाया।

जैसे नसीरुद्दीन शाह हैं, शबाना आजमी हैं। बाद के इंटरव्यू में इन्होंने एक तौर पर स्वीकार किया कि “जितनी जान हम थियेटर के प्लेज में लड़ाते थे, बीच में हमारे पास जो ऐसी कमर्शियल फिल्में आईं जो बिल्कुल सिर के ऊपर से निकलने वालीं थीं, उनमें जब हमने काम किया तो उतनी मेहनत नहीं की। हमने सोचा कि जब उतनी ही ऊर्जा की जरूरत है तो ऊपर-ऊपर से ही करके निकल जाते हैं”। आपके परफॉर्मेंस में ‘कॉमेडी सर्कस’ में ऐसा नहीं नजर आता, आप अपने परफॉर्मेंस में अनवरत हैं, वहां स्क्रिप्ट चाहे कितनी भी ढीली हो।
‘कॉमेडी सर्कस’ थियेटर ही है। उसे करने के लिए मेरे पास सबसे बड़ा कारण ही ये है कि वो थियेटर है। वो उसको कैप्चर करके टीवी पर दिखा रहे हैं, उसका मेरे से कोई लेना-देना नहीं है। मैं उस वक्त वहां मौजूद उन चालीस-पचास लोगों और सामने बैठे अर्चना-सोहेल के लिए परफॉर्म कर रहा हूं। आखिरकार वो एक्ट दस-पंद्रह मिनट के प्ले ही तो हैं।

...लेकिन जो स्क्रिप्ट आपको दे रहे हैं, वो आपके पसंद न आए, कभी बचकानी लगे?
उसमें आप कुछ नहीं कर सकते। ‘कॉमेडी सर्कस’ फैक्ट्री है। वहां मशीन से जैसे प्रोडक्ट निकलते हैं वैसे प्रोडक्ट निकलते हैं। शो के राइटर्स सात-सात दिन कमरे से बाहर नहीं निकलते हैं। मैं उनको जानता हूं। मेरे चहेते राइटर हैं वकुंश अरोड़ा, कानपुर का लड़का है। इतना बेहतरीन राइटर है। वो एक ही चीज बोलता है, “यार और कोई टेंशन नहीं है, पर बाहर निकलूं और देखूं, तो कुछ नया लिखूं न”। वो कमरे से बाहर नहीं निकलते। हफ्ते के सातों दिन अंदर ही रहते हैं और मशीन की तरह लिखते हैं। कैसे लिख लेते हैं मेरे को भी नहीं मालूम। और वहीं पर से ये हल्की स्क्रिप्ट आती हैं। ऐसे में आपको जुगाड़ बिठाकर, कुछ नया-पुराना लगाकर एक कलाकारी दिखाकर, अगर वो आठ नंबर की है तो उठाकर नौ पर पहुंचाना पड़ता है। लेकिन आप कुछ नहीं कर सकते क्योंकि ये शो ही ऐसा है। उनको बनाना है। चैनल कितने साल से चला है? पांच साल से चल रहा है..।
Mantra performing in 'Piya Behrupiya.'

फिल्मों में अगर ऐसे रोल आएं तो, या उनमें रुचि नहीं है?
नहीं, किए हैं मैंने पांच-छह रोल। लेकिन फिल्मों की दुनिया ही अलग लगी। एक थियेटर एक्टर के तौर पर मेरे लिए बड़ा मुश्किल काम रहा। क्योंकि आप समझते हैं, थियेटर की जैसे शुरुआत होती है, मसलन, ‘पिया बहरुपिया’। फरवरी (2012) में हमने प्ले बनाना चालू किया। किरदार को डिवेलप किया। लगातार लाए, लाए, लाए और प्ले के महीने भर पहले आप किरदार बन गए। प्ले के दिन तो आप अपने आपको जानते ही नहीं, किरदार को ही जानते हैं। और प्ले शुरू होता है और आखिर तक जाता है, एक ग्राफ रहता है। फिल्मों में जिस दिन आया तो मेरी जान ही निकल गई, पहले दिन ही क्लाइमैक्स शूट। ओपनिंग सीन, आखिरी दिन। मैं बोला ऐसे कैसे होगा, मुश्किल है थोड़ा। तो बोले, “ऐसे ही होगा सर, हमारे पास यही लोकेशन पहले है तो क्लाइमैक्स ही शूट होगा”। मैंने बोला, हीरो-हिरोइन मिले नहीं, रोमैंस हुआ नहीं, तुम पहले शादी का सीक्वेंस शूट कर रहे हो, फिर उनका कॉलेज में मिलना दिखाओगे, फिर कहीं बीच में रोमैंस करोगे। तो फिल्मों के साथ बड़ा मुश्किल है। और एक सीन डिवेलप होता है प्ले में। अगर कोई सीन है, मां मर गई... तो पहले मां मरेगी, फिर बेटे को मालूम पड़ेगा, फिर बेटा रिएक्ट करेगा, फिर वो कुछ करेगा। जबकि फिल्म के अंदर सीधे, मां मर गई... । वो फीलिंग जब तक कि आती है, तब तक तो कट है। मैं ये नहीं कहता कि फिल्म के एक्टर्स कुछ कम हैं। मैं बोलता हूं फिल्म के एक्टर्स को ज्यादा मेहनत करनी पड़ती है, टु बी ऑन द मूमेंट, ऑन द स्पॉट। तुरंत, शिफ्ट। मैंने फिल्म एक्टर्स को देखा है, मैंने थियेटर एक्टर्स को भी देखा है, प्ले से पहले लगे पड़े हैं, लाइनें रट रहे हैं। वहीं फिल्म वाले मजे से सुट्टा मार रहे हैं, आने-जाने वाले को ...और बढिय़ा सब, क्या हाल-चाल... फिर आवाज आई... मां मर गई और वो मां-मां करके रोने लगता है। औचक कट, औचक शिफ्ट।

कोई 30-35 साल पहले जैसे हमारी फिल्मों में चरित्र भूमिकाएं (कैरेक्टर आर्टिस्ट) हुआ करती थीं। जो ‘मिली’ में गोपी काका थे, ‘मदर इंडिया’ में लाला थे, या वही ‘गंगा-जमुना’ में लाला बने थे और पॉजिटिव लाला बने थे, और जो ललिता पंवार के रोल हुआ करते थे, निरुपा रॉय के हुआ करते थे, उनमें एक किस्म से इमोशंस की इंटेंसिटी थी जो बाद में वैसे किरदारों के लिए इतनी क्लीशे बना दी न... कॉमेडी से भी बनी.. कि देखो मां है तो रोती ही रहती है। लेकिन उन अदाकारों की जो एक्टिंग हुआ करती थी, जैसे आप कह रहे हैं न कि चुटकी बजाते बोलोगे और रोने लगेंगे कि मां मर गई.. तो क्या उस मामले में वो दिग्गज नहीं थे। उन्हें आज कितना कम पहचाना जाता है?
अरे, कैरेक्टर आर्टिस्टों के बल पर तो फिल्में चलती हैं और उन्हीं को सबसे कम पहचान मिलती है। आज आप देखिए हीरोज को जरूरत है कैरेक्टर आर्टिस्ट की। अकेले नहीं संभाल पा रहे। कैरेक्टर आर्टिस्ट एक रिएलिटी लाते हैं। एक असलियत लाते हैं फिल्म के अंदर, क्योंकि हीरो तो हीरो ही लगता है।

जैसे ‘रॉकस्टार’ में कैंटीन वाले खटाना (कुमुद) का रोल न होता तो रणबीर के किरदार में भी बात नहीं आती...
कुमुद जी से मेरी बातचीत होते रहती है वक्त-वक्त पे। उनका मैंने लास्ट प्ले देखा ‘इल्हाम’मानव कौल का प्ले था। सर मैं रो दिया। मैं स्टेज पर रो दिया। मैं बैकस्टेज गया उनसे बात करने के लिए मैं बात नहीं कर पाया मैं रो दिया। मैं इतना भावुक हो गया कि मैंने बोला ये आदमी असली रॉकस्टार है। मेरे ख्याल से रणबीर ने बहुत सीखा होगा उनसे। लेकिन कुमुद जी को आप फिल्म में देखिए... और कुमुद जी को आप स्टेज पे देखिए। दोनों में अलग इंसान नजर आएंगे आपको। स्टेज एक अलग दुनिया है सर।
Kumud Mishra (right) in 'Ilhaam'. Photo Courtesy: Kavi Bhansali
मैं अगर एक आम आदमी की तरह समझना चाहूं। कि मुझे कुछ नहीं पता थियेटर के बारे में। मैं अपनी जिंदगी और दो वक्त की रोटी में उलझा रहता हूं, बस मनोरंजन के लिए कभी घुस जाता हूं फिल्मों में। कभी थियेटर का नाम अखबार में पढ़ लेता हूं ... कि ये थियेटर वाले हैं, ऐसा... वैसा। इस बीच आखिर ऐसा क्या है थियेटर में कि लोग इतनी तारीफ करते हैं? थियेटर ही सब-कुछ है, फिल्में उतनी नहीं हैं?
आम आदमी को सबसे ज्यादा मजा थियेटर में इसलिए आता है... दो कारण मानता हूं मैं इसके। एक तो मुझे एंटरटेन किया जा रहा है, ये शाही फीलिंग आती है, ठीक है...। कि मेरे लिए हो रहा है कुछ काम। एक महत्व महसूस होता है। कि ये एक्टर मुझसे बात कर रहा है। फिल्म के अंदर वो स्टार है, वो कैमरे से बात कर रहा है। यहां पर वो मुझसे बात कर रहा है, मेरी आंखों में आंखें डालकर बात कर रहा है। एक वो वाली फीलिंग सबसे ज्यादा जरूरी है। दूसरी सबसे बड़ी बात है, आप टच कर सकते हो थियेटर को। आप छू सकते हो, महसूस कर सकते हो। जबकि फिल्मों के अंदर वो नहीं होता, फिल्मों में अगर हवा चली है तो वहां चली है। थियेटर में अगर मैं बोल रहा हूं कि ये चली हवा, तो सामने वाले को अंदर महसूस होने लगता है। वो जो लाइव सा इसका तत्व है, वो आपको केवल थियेटर में मिल सकता है। अतुल कुमार का मैं उदाहरण देता हूं आपको। हाल ही में वह दक्षिण अफ्रीका में थे। जोहानसबर्ग में प्ले कर रहे थे, ‘नथिंग लाइक लीयर’। किंग लीयर का रूपांतरण। उसके अंदर एक सीन है। जहां पर उसकी जिंदगी में कुछ तूफान आया है और वो तूफान से कहता है, अंग्रेजी में डायलॉग है कि जिसका मतलब है कि “मेरी जिंदगी में तू जब से आया है, मेरी जिंदगी में खलबली मचा दी है। ए तूफान तू कब तक चलेगा”। जिस वक्त वो ये डायलॉग बोल रहे थे, जोहानसबर्ग में, स्टेज के ऊपर बने कांच के गुंबद के ऊपर ओले गिरने लगे। और यहां पर उन्होंने कहा कि “ऐ तूफान ..” तो वहां घड़ घड़ घड़.. मतलब असली। अतुल बोले, “मेरे तो रौंगटे खड़े हो गए और ऑडियंस में दो-तीन की फ* गई”। बोले, “ये क्या हो गया”। लाइव फील... वहां पर हो गया तो हो गया। आपके डायलॉग बोलते-बोलते, आप बारिश की बात कर रहे हो बारिश हो गई, तूफान की बात कर रहे हो तूफान हो गया, फिल्म में नहीं हो सकता। फिल्म में क्रिएट किया जाता है, लेकिन वो माहौल जो लाइव होता है। आपको मजा आने लग जाता है कि यार केवल एक्टर और थियेटर ही नहीं, पांचों तत्व जो हैं वो उस वक्त एकजुट हो गए हैं। तो हवा मेरी बात सुन रही है, पानी मेरी बात सुन रहा है, ये फीलिंग आती है।

थियेटर के इतिहास में चाहे भारत में ले लीजिए, क्षेत्रीय या अंतरराष्ट्रीय... ऐसे कौन से तानसेन या बैजू बावरा हैं जो दीया जला देते हैं गाके, या दिया बुझा देते हैं?
मैं गिरीष कर्नाड साहब का बहुत बड़ा फैन हूं। उनके लेखन का बहुत कायल हूं। भले ही वो ‘अग्निबरखा’ हो जिसमें मैंने किरदार निभाया था ब्रह्मराक्षस का, उसका किरदार फिल्म में प्रभुदेवा जी ने निभाया था। और प्रभुदेवा जी को लोग याद रखते हैं क्योंकि उन्होंने ब्रह्मराक्षस का किरदार निभाया था। सब ने अपने अलग-अलग किस्म के ब्रह्मराक्षस बनाए हैं। या गिरीष कर्नाड साहब का ‘तुग़लक’। मैं तो मोहम्मद-बिन-तुग़लक को वैसे ही याद करता हूं जैसे कर्नाड साहब ने दिखाया है। मैंने इतिहास नहीं पढ़ा, मैंने कर्नाड साहब को पढ़ा। वहां से मुझे बहुत कुछ उठाने को मिला, सीखने को मिला क्योंकि वो मेरी जेनरेशन के नहीं हैं पर कम से कम उन्हें ही मैं देख सकता हूं, मैंने तानसेन को तो देखा नहीं, जहां तक नाटक का सवाल है। उसके बाद अगर आप संगीत पर आ जाएं, लाइव परफॉर्मेंस में जो जादू क्रिएट करते हैं, वो अपने आप में फिर बेताज बादशाह हैं आरिफ लोहार साहब पाकिस्तान के। उनका एक लाइव परफॉर्मेंस देख लिया मैंने.. (सरप्राइज होते हुए) कौन है वो आदमी.. कहां से आया है? उनके जो वालिद साहब हैं आलम लोहार वो अपने आप में संगीत के सम्राट हुआ करते थे। संगीत थियेटर का अंतनिर्हित अंग है। मैं आजकल हर चीज को संगीत के साथ जोड़कर देखता हूं। कि कहीं न कहीं इन दोनों का कॉम्बिनेशन मिल जाए थियेटर और म्यूजिक का, तो असली जादू पैदा होता है।

और कौन हैं जिनकी परफॉर्मेंस नहीं देखी तो क्या देखा?
दिनेश ठाकुर साहब, दुर्भाग्य से अब वह नहीं हैं। मुझे याद है, मैं 2006 में रेडियो कर रहा था और कर-कर के गला बंद हो गया और ऐसा बंद हुआ कि आवाज की सिसकी तक बंद हो गई। मैंने महीने भर की छुट्टियां ले ली थीं। करने को कुछ था नहीं तो उस वक्त तकरीबन एक हफ्ते तक मैंने दिनेश ठाकुर साहब का पूरा फेस्टिवल देखा और उनके अलग-अलग नाटक देखे। सिंपल। कोई ताम-झाम नहीं। कि कहीं से लाइट आ रही है, कि कहीं से म्यूजिक आ रहा है, कि कहीं से कुछ विजुअल डिलाइट आ रहा है। कुछ नहीं, बस स्टोरीटेलिंग। साधारण स्टोरीटेलिंग। उनको देख बड़ा मजा आया। एक रियल एलिमेंट। ये दिनेश ठाकुर, कुमुद मिश्रा आम इंसान दिखते हैं। स्टार्स नहीं दिखते हैं। मैं एक तरीके से कभी-कभी खुश होता हूं कि यार ऊपर वाले ने सूरत दी है, फिर मैं ये सोचता हूं कि इस सूरत के साथ एक आम इंसान का किरदार निभाना मेरे लिए बहुत मुश्किल है। जबकि कुमुद जी के लिए या दिनेश जी के लिए ये बाएं हाथ का खेल था। क्योंकि कहते हैं न, इफ यू लुक द कैरेक्टर, हाफ द वर्क इज डन। नाना पाटेकर को देखा, मराठी प्ले करते हुए। अरे, उस आदमी के तो मैं पैर धो-धो के पिऊं। ‘सखाराम बाइंडर’ देखा मैंने उनका। बाप रे, मतलब, मुझे नहीं लगता कि सखाराम उनसे बेहतर कोई कर सकता है। ‘सखाराम...’ सयाजी शिंदे ने किया, वो भी थियेटर किया करते थे, मतलब ये लोग रियल लगते हैं। मैं ‘सखाराम बाइंडर’ करूंगा तो मेरे को किसी अलग तरीके से सखाराम को पेश करना पड़ेगा। मैं नहीं लगता वो बीड़ी फूंकने वाला। अगर मुझे वीजे का रोल मिलेगा तो बड़ा आसानी से कर लूंगा। लेकिन वहीं पर तो एक कलाकार, वहीं पर तो एक अभिनेता का काम शुरू होता है। मुझे ऐसे किरदार मिलें इसका मैं इतंजार कर रहा हूं। भले ही वो फिल्मों में हों, भले ही वो थियेटर में हों।

कुछ शानदार रोल वाली फिल्में करने की इच्छा नहीं है?
उस किस्म के किरदारों के लिए बेसब्री से इंतजार कर रहा हूं। अभी तक जो भी फिल्में करी थीं अधिकतर में मेरा सहयोगी किरदार था, हीरो के बेस्ट फ्रेंड वाला रोल था, अब वही रोल आ रहे हैं। क्योंकि फिल्में बड़ी सीमित हैं। कि जो चलता है वही चलने दो। कोई भी एक्सपेरिमेंट करने को तैयार नहीं हैं। इसीलिए खान साहब चलते हैं और चलते ही हैं। और सही बात है। बॉलीवुड जो है क्रिएटिव आर्ट को दिखाने से ज्यादा बिजनेस मीडियम है। आज आप सलमान खान साहब की ‘एक था टाइगर’ को लेकर 400 करोड़ कमा सकते हैं, वहीं सलमान खान अगर मंत्र को ले लेते तो 4000 रुपये नहीं कमा पाते, या चार लाख नहीं कमा पाते। क्योंकि स्टोरी ऐसी कोई खास नहीं थी। वो सलमान खान थे इसलिए चली। लेकिन फिल्म इंडस्ट्री कला को पलट के नहीं देगी केवल बिजनेस करेगी तो कब तक चलेगा ये। इसी लिए जो ये डायरेक्टर्स की नई खेंप है... ये कुछ नया करने की कोशिश कर रहे हैं। लेकिन ये भी अब उसी सेक्टर का हिस्सा बन गए हैं। सब आते हैं, एक ऑफ बीट फिल्म बनाते हैं और उसके बाद इंतजार करते हैं कि एक बड़ा डायरेक्टर उन्हें मिल जाए क्योंकि सबको रोटी कमानी है।

जो आते हैं वो पहले सिस्टम और स्टार्स के खिलाफ खरी-खोटी सुनाते हैं, पर उन्हीं के साथ फिल्में डिस्कस करने लगते हैं, पूछने पर कहते हैं कि यार क्या करें उनके साथ भी काम करना पड़ेगा।
सबको कमर्शियल हिट चाहिए। बहुत कम ऐसे... अतुल कुमार की बात करता हूं। इस मामले में मैंने उनके जैसा आदमी मंच पर नहीं देखा। उन्होंने ‘तक्षक’ फिल्म में काम किया था। उन्हीं के साथी हैं रजत कपूर, विनय पाठक, रणवीर शौरी, कोंकणा सेन शर्मा। आज आप उन सबको देखते हैं, वक्त निकाल कर ... वो करते हैं। अतुल कुमार ने जीवन रंगमंच को समर्पित किया है। इस बात पर मैं उनकी बहुत इज्जत करता हूं। इसलिए जब मुझे उन्हें बोलना होता है कि दो नई फिल्में मेरे को मिली हैं तो मैं गर्व के साथ नहीं जाता हूं उनके पास, शर्म के साथ जाता हूं, सिर झुकाकर जाता हूं कि सर... फिल्में... मिली हैं... करता .... हूं मैं... जाके। वो भी कहते हैं, ...ठीक है बेटा, करो। करो सबका अपना-अपना है। न कि ये कि क्या बात कर रहा है दो नई फिल्में मिली हैं, वाह। तो बहुत कम हैं जो थियेटर को समर्पित हैं। इसलिए मैं परेश रावल साहब को बहुत मानता हूं। जैसे उनकी ‘ओ माई गॉड’ आई है वो उन्हीं का प्ले है ‘किशन वर्सेज कन्हैया’, उसी पर बनी है। परेश रावल या नसीरुद्दीन शाह ऐसे हैं जिन्होंने बैलेंस बनाकर रखा है। ये मेरे आदर्श हैं। मैं ऐसा बैलेंस बनाकर रखना चाहता हूं जहां पर मैं थियेटर, फिल्म या टेलीविजन, सब में समान रूप से मिल-बांटकर काम कर सकूं और वो बड़ा मुश्किल है। क्योंकि टाइम नहीं निकलता है। प्ले के लिए अपने शूट छोड़कर जाता हूं। वहां प्ले की फीस जितनी मिलती है उससे दोगुना तो मैं अपने खाने-पीने पर खर्च कर देता हूं। थियेटर पैसे के लिए नहीं किया जा सकता। अगर पैसों के लिए आप थियेटर कर रहे हो तो आप जी नहीं पाओगे। और पैसों के लिए नहीं कर रहे हो तो कहां से लाओगे पैसा। कहीं न कहीं से तो आएगा, आज मैं थियेटर में पैसा लगाता हूं, खुद का प्रोडक्शन चालू करने वाला हूं, कहां से लाऊंगा प्रोडक्शन करने का पैसा। वो मैं दूसरे क्षेत्रों से लाता हूं लेकिन उसका मतलब ये नहीं है कि उनकी इज्जत कम है। टेलीविजन ने तो बहुत कुछ दिया है, उसकी वजह से आज लोग जानते हैं पहचानते हैं और शायद वो देखकर मेरा प्ले देखने आते हैं।

लेकिन अतुल और सत्यदेव दुबे जैसे व्यक्तित्व थियेटर के गलियारों तक ही सिमट कर रह जाते हैं।
चलेगा न सर। हमारे लिए अतुल कुमार अमिताभ बच्चन से बड़ा है। सत्यदेव जी का जब निधन हुआ तो जो एक रैली निकली थी पृथ्वी (पृथ्वी थियेटर, मुंबई) से वो देखने लायक थी, जब मैंने देखी तो मैं मान गया कि सत्यदेव जी अमर हो गए। जरूरी नहीं कि अख़बार में उनके बारे में छपे, कि लोग उनके बारे में बात करें या न करें। जिनको जानना था वो उनके कायल थे, उनका (सत्यदेव दुबे) काम हो गया। उन्हें हमेशा याद रखा जाएगा। थियेटर का समुदाय भी बहुत बड़ा समुदाय है। ऐसा नहीं है कि कम लोग हैं। लेकिन बात ये है कि हर थियेटर एक्टर फिल्म अभिनेता नहीं बनना चाहता। ...ये जानकर मेरे को खुशी होती है। कि केवल थियेटर को सीढ़ी बनाकर नहीं चल रहे फिल्मों में जाने के लिए, वो अपने आप में एक जरिया है, अपने आप में एक मीडियम है।

हर फील्ड में जो एक अंदरूनी आलोचना चलती रहती है ...कम्युनिटी के भीतर कि हम लोग क्या कर रहे हैं, क्यों कर रहे हैं, वो बंदा गलत कर रहा है, ये सही कर रहा है, उसने एक्सपेरिमेंट ज्यादा कर दिया ये नहीं करना चाहिए था, वहां सीमा पार कर दी। पत्रकारिता में जैसे होता है कि हम बहुत से एंकर्स की आलोचना करते हैं कि वो किस तरीके से बात कर रहे हैं, जिसका मजाक सीरियल्स या फिल्मों में उड़ता भी है जो जायज है। तो थियेटर में अभी कौन सी आलोचना है जो चल रही है?
... कि क्या आप ब्रॉडवे या वेस्टर्न थियेटर को टक्कर दे सकते हैं? या क्या वो टक्कर देने लायक हैं? या उनकी दुनिया अलग है, हमारी दुनिया अलग है? मैं लंदन में थियेटर पढ़ा हूं, वहां पर गया, मैं वहां के म्यूजिकल्स का हिस्सा बना। इतने भव्य प्रोडक्शंस कि उत्ते मैं तो फिल्म बन जाए। हवा में उड़ रहा है आदमी, आप केबल ढूंढ नहीं सकते कि काहे में उड़ रहा है। हमारे यहां दिल्ली में वो... ‘किंगडम ऑफ ड्रीम्स’ या ‘जिंगारो’। उन्होंने भरपूर कोशिश की वहां पर पहुंचने की। बहुत पैसे लगाए ...क्या हुआ? वो एक जगह रुके हुए हैं। क्योंकि वो अपना थियेटर बदल नहीं सकते हैं। वो कमानी में आकर शो नहीं कर पाएंगे। क्यों? क्योंकि उनका सीमित है। वहीं पर चार केबल उन्होंने लगा रखी हैं, उसी से उनको उडऩा है। तो सबसे बड़ी आलोचना ये भी है कि कहीं ये तामझाम या विजुअल डिलाइट, इस शब्द को मैं बार-बार कह रहा हूं, दिखाने के चक्कर में प्ले की आत्मा को तो नहीं खो रहे? या आत्मा दिखाने के चक्कर में आप सामने वाले को बोर तो नहीं कर रहे? कि ये फ्लड लाइट लगा ली और उसी में पूरा प्ले निपटा दिया। ऐसा भी नहीं हो सकता। ऑडियंस वहां पर आई है और अपना कीमती समय आपको दे रही है। उसे मनोरंजन दो। भले ही वह किसी भी जॉनर का प्ले हो, उसको एंटरटेनमेंट दो। ये जो दुविधा है कि थियेटर में ये करना चाहिए या नहीं? क्या केवल एक कहानीकार से काम चल जाएगा या उसके साथ उसको एक आइटम डांस डालना जरूरी है? थियेटर में भी वही हो रहा है, आइटम क्या है प्ले का? मतलब रंग, विजुअल डिलाइट, गाना-बजाना... क्या इनकी इतनी ज्यादा जरूरत है? या जैसे पुराने जमाने के सादे नाटक हुआ करते थे। कि मैं आऊंगा, कहानी सुनाऊंगा, ये मां है ये बेटा है, दोनों की बातचीत... बस। लेकिन अब उसे नए तरीके से दर्शाया जाता है। पहले बालक का रोल, फिर वो बड़ा हुआ थोड़ा, फिर और बड़ा हुआ, फिर पूरा बड़ा हुआ तो इस तरह चार एक्टर हो गए एक ही किरदार को निभाते हुए... सबका अपना-अपना क्रिएटिव तरीका है उसे दर्शाने का।

पीयूष मिश्रा जब थे ‘एक्ट-वन’ में दिल्ली में तो उनके दीवाने बहुत थे और जैसे सुपरस्टार्स के फैन होते हैं, वैसे उनके हुआ करते थे। उस समय उनकी जो एक बाग़ी विचारधारा थी, वो तेजाब फैंकते थे जब बोलते थे... लोग जल जाते थे। लेकिन पिछले दिनों जब उनसे मुलाकात हुई तो पूरी बातचीत में ये लगातार आता रहा कि यार अब छोड़ो। तो ऐसे लोग जो इतना असर अपने कहने-करने में रखते हैं और बॉलीवुड में यूं पूरी तरह चले जाते हैं और विज्ञापन और फिल्म करने के बाद उनके सार्वजनिक बोल-चाल में सपोर्ट की बजाय थियेटर वालों के लिए एक चुनौती आ जाती है... तो लोग कहते हैं अब आपके पास क्या जवाब है आपका सबसे खास बंदा तो ये कह रहा है? उसके जवाब में आप क्या कहेंगे? या वो थियेटर और फिल्मों में एक बैलेंस बनाकर चल रहे हैं? या ठीक है फर्क नहीं पड़ता? या उनको हक़ है कि वो इतनी कमाई करें... या ये कि अभी वो अपना नया मत ठीक से बना नहीं पाए हैं, बना रहे हैं? जैसे वो बड़ा मजबूती से कहते हैं कि यार ठीक है छोड़ो, सबको पैसा कमाना है। ‘बॉडीगार्ड’ हिट है तो हिट है, तुम कौन होते हो खारिज करने वाले...
पीयूष मिश्रा जी जैसे जो हैं, इन्होंने इतना काम कर दिया है कि अब उनको उस मामले में टोका नहीं जा सकता। वो जितना थियेटर को दे सकते थे उन्होंने दिया है और अभी भी कोशिश कर रहे हैं देने की। और हम कोई नहीं होते कि उन्हें कहें कि आप ऐसा न करें। जैसे सचिन तेंडूलकर को कब रिटायर होना चाहिए, ये उस इंसान पर ही निर्भर करता है जिसने इतना कुछ कर दिया है। हां, मैं रोहित शर्मा के लिए बोल सकता हूं, क्योंकि रोहित शर्मा को खुद को प्रूव करना बाकी है। एक वक्त के बाद उन्हें (पीयूष) एक्सपेरिमेंट करने का पूरा-पूरा हक़ है। आज अगर पीयूष मिश्रा जी प्ले करने आएंगे तो वो आदमी जिसने उन्हें फिल्मों से या किसी और माध्यम से जाना है वो दूसरे को भी कहेगा कि अरे यार उनका ये प्ले देखने चलते हैं इनको अपन ने उसमें देखा था न। वो बड़ा मजेदार होता है। शाहरुख खान ने भी अपने करियर की शुरुआत थियेटर से की। उन्होंने भी काफी थियेटर किया। जरा सोचिए, अगर शाहरुख खान कल को एक प्ले करता है, थियेटर को कितना बड़ा बूस्ट मिलेगा। इसलिए नहीं कि उन्हें ऐसा करने की जरूरत है, इसलिए नहीं कि हमें उनकी जरूरत है लेकिन उनका भी एक हक बनता है। ये उनका कर्तव्य और दायित्व है दरअसल। उनको वक्त निकाल कर एकाध प्ले कर देना चाहिए। फिर मैं विदेश का उदाहरण दूंगा आपको। वहां सौ-सौ पाउंड की टिकट है। सौ पाउंट कित्ते हो गए... आठ हजार.. आठ हजार की टिकट है। क्यों? क्योंकि वो प्ले में लीड एक्टर वो है... क्या नाम है उसका हैरी पॉटर... डेनियल रेडक्लिफ और सुनने में आया है प्ले में वो पूरा न्यूड सीन दे रहा है। लोग सोचते हैं अरे क्या बात है, न्यूड सीन... प्ले देखें तो सही क्या कर रहा है..। बहुत बड़े-बड़े एक्टर्स हैं हॉलीवुड के, जो अपना वक्त निकालकर थियेटर करते हैं, न केवल थियेटर को कुछ देने के लिए बल्कि थियेटर से बहुत कुछ लेने के लिए। तो ये दूरी कम होनी बहुत जरूरी है। थियेटर वालों को फिल्मों में जाने की जरूरत है, फिल्म वालों को थियेटर में जरूरत है। बहुत कुछ एक-दूसरे से सीखने को मिलेगा।

‘कॉमेडी सर्कस’ का कुल-मिलाकर अनुभव कैसा रहा? वो जो एक अनवरत मजाक जज लोगों की और एक-दो जोड़ियों की होती है वहां। जिन्हें सबसे ज्यादा पसंद किया जाता है जैसे कृष्णा-सुदेश हो गए या कपिल हो गए, उनकी स्क्रिप्ट में कुछ लोगों का मजाक एक बार नहीं बार-बार लिखा जाता है। राजीव ठाकुर हुए और दूसरे भी हैं... तो वो शर्मसार करने वाला वाकई में होता है उनके लिए जिनका मजाक उड़ता है?
अरे होता है। राजीव ठाकुर बता रहा था। ठाकुर साहब फ्लाइट में बैठे हैं और पीछे से बीच सीटों के आवाज आई, “ठाकुर बोहत आठ-आठ ले रहे हो”। तो वो शर्म से पानी-पानी हो गए। क्योंकि इस मामले में ‘कॉमेडी सर्कस’ में हम बड़े मजे लेते हैं ठाकुर साहब के। हमारे भी लिए जाने लगे, सस्ता डेली बोला जाने लगा। अब उसका कितना अपने ऊपर ले रहे हैं ये आप पर है। जैसे ‘गुरु’ में अभिषेक बोलता है न कि “लोग बात कर रहे हैं तो अच्छा ही है”। ‘कॉमेडी सर्कस’ के अंदर वैरी फ्रैंकली, ये आपस में ही मजे ले रहे हैं और जनता को मजा इसीलिए आ रहा है कि ये हंसते-खेलते लोग हैं, एक-दूसरे की खिंचाई कर रहे हैं। जिस दिन सीरियस हो गए न उस दिन इनका भी वही हाल हो जाएगा जो बाकियों का हुआ है। ये मस्तमौला लोग हैं, इसमें काम करने वाले 80 प्रतिशत पंजाबी हैं और काम करवाने वाले बाकी 20 पर्सेंट गुजराती हैं। तो इन्हीं दोनों ने दुनिया चला रखी है। तो एक-दूसरे का मजाक उड़ाना या बॉलीवुड के बड़े लोगों का मजाक उड़ाना इसकी हिम्मत सिर्फ ‘कॉमेडी सर्कस’ ही कर सकता है, ये जोक कोई और करे तो उस पर पुलिस केस हो जाएगा। कभी-कभी जोक हद पार कर जाते हैं, वल्गैरिटी की सीमा पार कर जाते हैं। उस समय पर हमारी भी भौंहे चढ़ जाती हैं कि यार, क्या हम सही कर रहे हैं? तो हम भी अपनी तरफ से बोल देते हैं कि भई ये नहीं बोलेंगे हम। लेकिन वो कॉमेडी का जॉनर ही वही सर। आप वेस्टर्न कॉमेडी भी देखें, स्टैंड अप कॉमेडी, दो ही चीज है से-क्-स और ड्रग।

लेकिन आपको नहीं लगता कि इस समय जितनी भी फिल्में बन रही हैं, जैसे ‘क्या सुपरकूल हैं हम’ नहीं बन सकती थी इस टाइम के अलावा कभी। हालांकि ‘क्या सुपरकूल...’ को मैं बहुत खराब फिल्म मानता हूं, बेहद गैर-जरूरी फिल्म मानता हूं... लेकिन जो ये कोशिश हो रही है कि ‘कॉमेडी सर्कस’ में एडल्ट बातें जितनी होती हैं... है न... डाल दिया निकाल लिया... तो इसकी एक वजह ये नहीं है कि भारत में ज्यादातर अभी व्यस्क हैं। गर्लफ्रेंड-बॉयफ्रेंड वाली उम्र के ज्यादा हैं, नए-नवैले शादीशुदा हैं?
हां, और वैरी फ्रैंकली, आज का यूथ जो भाषा बोल रहा है, उस जेनरेशन को अभी-अभी पार किया है मैंने। मैंने 15-16 साल की उम्र में वो सब चीजें नहीं बोली थीं... लेकिन आज न केवल टेलीविजन के जरिए, फिल्मों के जरिए ये डायलॉग अब बहुत आम हो गए हैं। और बच्चे-बच्चे की जबां पर गाली है, बच्चे-बच्चे की जबां पर नंगाई है। वह केवल टेलीविजन तक सीमित नहीं है। सबसे बड़ा अगर कोई जरिया है तो वो है इंटरनेट। वो दिन दूर नहीं जब इंटरनेट सब चीजों को खा जाएगा। टीवी, फिल्म, रेडियो सब निगल लेगा वो... दुनिया केवल इंटरनेट से चलेगी, शादियां इंटरनेट पे हो जाएंगी, बच्चे इंटरनेट पे पैदा हो जाएंगे और वो कोई नहीं रोक सकता। एक वक्त में मुझे कोई जानकारी चाहिए होती थी तो फलानी लाइब्रेरी में जाके फलाने कोने से फलानी किताब निकालनी होती थी। आज मैं गूगल टाइप करता हूं सब मालूम चल जाता है यार, दो सेकेंड के अंदर-अंदर। तो एक्सेसेबिलिटी बहुत ज्यादा बढ़ गई है। उसी का नतीजा है कि आप क्या सुपरकूल हैं हम या कॉमेडी सर्कस या इस किस्म के काम देखते हैं।

हेल्दी सब्जेक्ट पर ‘विकी डोनर’ भी आती है। स्पर्म डोनेशन पर बहुत ही सकारात्मक तरीके से सोचते हैं। इससे करीने से बनी आ भी नहीं सकती थी।
अच्छे तरीके से दिखाया गया। वही चीज अगर अश्लील तरीके से दिखाते तो फिल्म बिगड़ जाती। आपको हर दौर में एक गांधी और एक हिटलर मिलेगा ही मिलेगा। इस दौर में भी वैसे ही हैं। अभी भी अपने आपको साध कर काम कर रहे हैं सब। नहीं भई, हम साफ-सुथरा काम ही करेंगे। कुछ हैं जो वक्त के साथ चल रहे हैं और वक्त इस वक्त का ये है कि उल्टा-सीधा एक समान।

आपका और ‘कॉमेडी सर्कस’ के बाकी लोगों का इस पर कोई मत नहीं होता... जो प्रोसेस उन्होंने एक शुरू किया है या बाकी जगह भी चल चुका है? ऐसा प्रोसेस जिसे रोका या पलटा नहीं जा सकता। जैसे आप कह रहे हैं इंटरनेट कब्जा कर लेगा, तो उससे पहले के जिस एक टाइम फ्रेम में हम हैं कि कौन क्या कर रहा है और कितना जिम्मेदार है, तो उस पर कोई ओपिनियन है कि यार सब ऐसा ही हो गया है हम क्या करें?
नहीं, नहीं। बिल्कुल नहीं। मेरा पूरा मानना है कि एक-एक चीज जो हमारे आस-पास है वो हमारी ही बनाई गई है। ऐसा तो है नहीं कि एक दिन अचानक से आकर अश्लीलता ने हमें टेकओवर कर लिया। हमारे ही द्वारा बनाई गई चीज है। और कितना ज्यादा इंसान ईज़ी हो गया है, चीजों को अपनाने लग गया है। एक टाइम था, बाहरवाली औरत बहुत बड़ा हौव्वा था और घरवाली-बाहरवाली एक कॉमन फैक्टर हो गया है। वैसे ही कॉमेडी में चार्ली चैपलिन का केले के छिलके पर फिसलकर गिरना ह्यूमर था। आज होता है तो... अरे यार बहुत पुराना कर रहा है यार। आज तो तंबू और बंबू है। आज जब तक कोई जाकर गर्म तवे पर बैठ नहीं जाता, ऐसे टेढ़े-मेढ़े चलता नहीं है तब तक हंसी नहीं आती है। तो वक्त बदल रहा है और वक्त के साथ बहुत सारी चीजें बदलती हैं। और बदलाव तो प्रकृति का नियम है उसे अपनाना भी चाहिए। लेकिन वही है बैलेंस... कितना बैलेंस आप बनाकर चल सकते हो।

‘कॉमेडी सर्कस’ पर आपने जितने भी एक्ट किए हैं, उस दौरान मैंने देखा है... कि कृष्णा-सुदेश के हिस्से कुछ गैग आएं हैं तो वो थप्पड़ मार लेंगे या सूदिया बोल देंगे या फिर मां का साकीनाका। कपिल हैं तो वो उस लड़की को गले लगाते रहेंगे या उसे कोस देंगे.. या उनके भी फिक्स गैग्स हैं कि लोग हंस पड़ेंगे। आपके अपने जोड़ीदारों के साथ कोई तय मुहावरे या गैग नहीं हैं, आप व्यस्क बातें भी नहीं करते। ऐसे में ये ज्यादा चुनौती भरा हो जाता है?
मेरे लिए तो ‘कॉमेडी सर्कस’ एक जरिया है भड़ास निकालने का। मुझे वो किरदार जो कहीं और जाकर करने को मिलेंगे नहीं, मैं वहां पर जाकर कर देता हूं। और चूंकि मैं थियेटर से जुड़ा हूं मुझे एक चीज पता है कि प्ले जब खत्म हो तो सामने वाला अपने साथ कुछ लेकर जाए। मनोरंजन तो मिले ही मिले, साथ में कुछ ख़्याल लेकर जाए, सोचना लेकर जाए। तो मेरे 60-70 फीसदी एक्ट व्यंग्यात्मक होते हैं। उनमें सामाजिक या किसी न किसी दृष्टिकोण से मैसेज देने की कोशिश करता ही करता हूं। जैसे, हमारा एक अच्छाई-बुराई वाला एक्ट था, वो ऐतिहासिक एक्ट हो गया, अर्चना पूरण सिंह रो दी उसमें। उनने बोला कि मैंने आज तक पांच साल के करियर में ऐसा एक्ट देखा नहीं। क्यों? क्योंकि कॉमेडी थी और साथ में संदेश भी था। पूरी तरह सेंसफुल था और पूरा पैकेज था। हमारी कोशिश रहती है कि ज्यादातर चीजें वैसी बन पाएं। मैं रेडियो में था, रेड एफएम पर, जहां पर टैगलाइन थी ‘बजाते रहो’, लोगों को बड़ा लगता था, बजाते रहो, मतलब लोगों की बड़ी बजा रहे हैं यार। मेरा मंत्र था कि बजाने वाले को मजा आना चाहिए और बजवाने वाले को मजा आना चाहिए। उसको भी मजा आना चाहिए कि अरे यार अच्छी बात बोली इसने मेरे बारे में, मैं इस चीज का ख्याल रखूंगा अगली बार। नहीं तो आप.. अरे यार तुम तो क्या...। तो वो भी एक तरीका है क्योंकि आपके पास ताकत है माइक्रोफोन की। लेकिन अपनी जिम्मेदारी समझेंगे तो आप उसी चीज को कपड़े में लपेटकर रखेंगे और ऐसे इस्तेमाल करेंगे कि सामने वाले के काम आए।

फैमिली में कौन हैं? कैसा सपोर्ट है?
मेरा खानदान कलकत्ता से है। पूरे खानदान में किसी ने दूर-दूर तक कभी टेलीविजन पर, फिल्मों में या थियेटर में काम नहीं किया। वो संगीत से जुड़े हुए हैं। क्योंकि हर बंगाली घर में आपको रविंद्र नाथ टैगोर की तस्वीरें, किताबें और रबींद्र संगीत मिलेगा ही मिलेगा। हमारे वहां भी है। वो खुश होते हैं। मैं कभी-कभी जाता हूं। पहली बार गया। अपने भाई-बहनों से मिला, कजिन हैं सब। मैंने देखा मेरे खानदान में कोई डबल इंजीनियर, कोई साइंटिस्ट, एक एनवायर्नमेंटलिस्ट, एक जियोलॉजिस्ट, एक डॉक्टर... तो उनने मेरी तरफ पलटकर देखा कि “आप..?” मैं बोला कि मैं... एंटरटेनर हूं मैं। बोले, “हां वो सब तो ठीक है, पर काम क्या करते हो”। खैर, तो उनको क्या समझाऊंगा मैं। वो मेरा खानदान थोड़ा अलग है और उनके साथ मैं कभी रहा नहीं हूं। मेरी पैदाइश इंदौर, मध्य प्रदेश की रही है। बचपन से वही मेरी फैमिली हैं। और माताजी अब मेरी पुत्री जैसी बन गई हैं। जैसे-जैसे वक्त बीतता जा रहा है उनकी उम्र कम ही होती जा रही है। मेरी मां को मजा आता है कि मेरा बेटा टीवी पर आ रहा है। वो कभी मेरे को ये नहीं बोलती कि ये करो, वो करो।

शादी, बच्चे?
नहीं सर मैं बैरागी। मैंने अभी तक अपने आप को बचाए रखा है। और अब पूरी कोशिश रहेगी की ऐसा ही रहूं। हम में इतना प्रेम है कि उसमें एक इंसान समा नहीं पाएगा। तो किसी एक की जिंदगी बर्बाद करने से अच्छा है सबकी जिंदगी आबाद की जाए। मेरा स्कूल ऑफ थॉट आप आध्यात्मिक भी कह सकते हैं और एक तरह से सन्यास आश्रम में पला हूं। मैं कहीं सेटल नहीं हो सकता। कोई एक जगह मेरी फाइनल जगह नहीं है। मेरे लिए यात्रा मायने रखती है, डेस्टिनेशन नहीं। तो किसी एक को मैं डेस्टिनेशन नहीं बना सकता। 

कौन-कौन से दोस्त हैं जो आज फिल्मों में चल गए हैं और खुशी होती है?
खुराना (आयुष्मान) का बड़ा अच्छा लगता है मेरे को। मेरा रेडियो का एक साथी था होज़ेक जो आज एमटीवी पर बड़ा फेमस वीजे बन गया है। और ज्यादातर मेरे साथ थे वो पीछे ही रह गए यार। चंदन राय सान्याल बेहतरीन है। थियेटर में साथ थे। ‘कमीने’ में थे। रणवीर शौरी और विनय पाठक मेरे सीनियर हैं। यही बेल्ट है।

आपमें बड़ी एनर्जी है, ऐसा क्या है कि रोज सुबह उठकर आप इतने उत्साहित पूरे दिन रहते हैं?
जीने की इच्छा है। केवल एक ही सीक्रेट है मेरा। थैंकफुलनेस। शुक्रिया। भगवान का नहीं। मैं नास्तिक नहीं हूं, पर प्रकृति का शुक्रिया जिसने मुझे इतना कुछ दिया। इसने इतनी पत्तियां दी, इतनी हरियाली दी है, आप इतने अच्छे महाशय मेरे सामने बैठकर मुझसे बात कर रहे हैं, मेरे पास फोन है जिससे मैं बात कर सकता हूं, सिगरेट रखी है मेरे पास में, चड्डा मिल गया है पहनने को, हवा लग रही है। छोटी-छोटी चीजों में मेरे को खुशी मिल जाती है। जितना मैं शुक्रिया अदा करता हूं, थैंकफुल रहता हूं उतनी ही एनर्जी मुझमें बढ़ जाती है। जीने की इच्छा रहती है। नहीं तो इंसान जीने की इच्छा छोड़ दे तो अरबों-खरबों पास हों क्या कर लेगा।

निराशाओं से घिर जाते हैं...
मैंने कोई गुरु बना नहीं रखा है पर रजनीश (ओशो) की बातें मुझे बहुत प्रभावित करती हैं। एक वक्त पर मैंने रजनीश को बहुत पढ़ा है। रजनीश ने एक ही चीज कही थी कि लाइफ इज अ सेलिब्रेशन। उस सेलिब्रेशन का हिस्सा बनो और फूल के साथ कांटे भी आना लाजिमी है, अगर फूल ही फूल मांगोगे तो वो कांटे कहां जाएंगे बेचारे। हर चीज को अपना लो तो अपने आप अच्छे-बुरे का अंतर मिट जाएगा। तो निराशाओं से घिरना स्वाभाविक है, पर उसी वक्त में सोचना चाहिए कि सांस ले रहा हूं। कौन है जो सांसें पहुंचा रहा है, टैक्स तो मैं दे ही नहीं रहा हूं इसके लिए। मुफ्त में मिल रही हैं, थैंक यू यार। इत्ता काफी है मेरे लिए।

निजी जिंदगी में दिक्कत हो, उस मौके पर भी परफॉर्म करना होता है। कैसे करते हैं?
मुझे स्टेज पर चढ़ने के बाद मां, बाप, भाई, बहन कोई नहीं दिखता। जब तक एक्ट खत्म नहीं हो जाता मैं और कुछ सोचता भी नहीं हूं। और चिंता हो भी जाती है तो मुझे और ज्यादा ताकत मिलती है। सोचता हूं कि अरे ये तो एक्टर की परीक्षा है। कि यहां पर कोई मृत्युशैय्या पर पड़ा है और तुझे स्टेज पर जाकर कॉमेडी करनी है। राज कपूर साहब की ‘मेरा नाम जोकर’ याद आ जाती है। मैं खुश हो जाता हूं, और बेहतर परफॉर्म कर देता हूं। दो-तीन दोस्तों को बोल रखा है, तबीयत खराब करवाते रहा करो अपनी और फोन करते रहा करो एक्ट के पहले।

प्लैनिंग नहीं करते कभी न आप?
नहीं, मैं बिल्कुल फ़ितरती इंसान हूं। जो भी है अब है, ये मेरा हमेशा का मंत्र है।

बुक्स कौन सी पढ़ते हैं?
रजनीश की किताबें। लोगों से और बाकियों से कहना चाहूंगा कि ‘संभोग से समाधि तक’ के अलावा बहुत कुछ कहा है उनने। वो अपने वक्त के बहुत आगे पैदा हुए शख़्स थे। आप उनकी बातों में विश्वास करें न करें, उनका ज्ञान लें न लें, लेकिन उनकी किताबों में बहुत कुछ पड़ा है। मैंने उन्हें बहुत पढ़ा, मतलब छान मारा, ऐसी कोई उनकी किताब नहीं है जो मैंने न पढ़ी हो। बाकी पब्लिशिंग हाउस से आता हूं। दासगुप्ता पब्लिकेशंस है कलकत्ता में। 1886 से है। तो पढऩे लिखने के तो शौकीन है हीं। कुछ अच्छा आ जाए तो वो पढ़ लेते हैं। उससे कहीं ज्यादा मुझे आध्यात्म की बातें इंट्रेस्ट देती हैं। आजकल सद्गुरू जग्गी वासुदेव काफी चल रहे हैं। उनका ईशा योग। तो वो मुझे ठीक लगते हैं। उनकी बातों को सुनता हूं। सुनता सबकी हूं करता अपनी हूं।

मूवीज जो अच्छी लगी?
‘पान सिंह तोमर’, क्योंकि मैं इरफान खान की कोई फिल्म मिस नहीं करता। ‘बर्फी’ सबसे अच्छी लगी। रणबीर वैसे मेरे पुराने परिचित हैं पर एक बार जब ‘कॉमेडी सर्कस’ में फिल्म प्रमोट करने आए तो धमका कर गए कि फिल्म रिलीज हो रही है देखना और देखकर मैसेज जरूर करना, वरना मैं समझूंगा तूने देखी नहीं। मैं शाम का शो देखने गया। मैंने लिखा कि आपने अच्छा किया और आपमें और भी ज्यादा टेलेंट है तो इससे भी अच्छा करेंगे। ‘बर्फी’ रणबीर-प्रियंका से कहीं ज्यादा डायरेक्टर-सिनेमैटोग्राफर की फिल्म थी। जैसे दार्जिलिंग को उन्होंने दिखाया है। तो इतना क्रेडिट आमतौर पर उन्हें मिलता नहीं है।

बीन, चैपलिन और हार्डी... ये ईंधन के स्त्रोत हैं जो कभी खत्म नहीं होने वाले।
बिल्कुल। बीन का तो मैं बहुत बड़ा कायल हूं। इसलिए कि वो आदमी बहुत ही खडूस आदमी है असली जीवन में। जैसे मेरे साथ भी होता है, पर बीन के सामने आकर कोई कहता है एक जोक सुनाओ न, तो बीन उनके मुंह पर कहता है “तुम्हारी ऐसी की तैसी, मैं तुम्हारे बाप का नौकर बैठा हूं यहां पर। मैं फिल्मों में जो करता हूं वो असल जिंदगी में नहीं हूं”। जो फिल्मों में उन्होंने किया वो असल जिंदगी में नहीं किया। कलाकार की इज्जत करनी चाहिए। वो जहां जो करता है उसे वहां वो करने दो। कहीं प्लंबर मिला तो ऐसे थोड़े ही करोगे कि नल ठीक करने लग जा।

(From Mantra’s wall – “The palaces you build will be the abodes of someone else tomorrow.”)
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Thursday, April 14, 2011

पथैटिक हैं एक्टिंग सिखाने वाली ये दुकानें: ओमपुरी

ओमपुरी के साथ संक्षिप्त बातचीत...

अपनी एक नई फिल्म के प्रचार से सिलसिले में चंडीगढ़ आए हुए थे एक्टर ओमपुरी। उनसे पहली बार आमना-सामना हो रहा था। सफेद बाल, सफेद टी-शर्ट, खराश भरी भारी आवाज और भारी होते शरीर के साथ उनका एक रौबीला स्वरूप भी दिखाई दे रहा था। हालांकि ये कहीं-कहीं नेगेटिव भी हो रहा था, तो कहीं मित्रवत भी, उन्हें मीडियावालों पर गुस्सा आ रहा था, तो सभी लोग सही एंगल से तस्वीरें खींच पाए इसकी चिंता भी। वो किसी नशे में लग रहे थे तो पूरी तरह होश-ओ-हवास में भी। उनके साथ बैठे तनु वेड्स मनु के पप्पी जी यानी एक्टर दीपक डोबरियाल डर से सहम रहे थे तो बाहर से सौम्य होने की कोशिश भी कर रहे थे। मतलब सब कुछ नियंत्रण में होते हुए भी तुरंत बेकाबू हो जाएगा ऐसा लग रहा था। मैंने अपनी बारी का यही कोई चार घंटे इंतजार किया। फिर बात की तो कुछ परेशान होते हुए भी सहज होकर उन्होंने किनारे बैठकर बात की। मगर तब तक मेरी इच्छा नहीं रही। बात करने का इतना उत्साह अब नहीं बचा था। पर ये भी था कि बहुत कुछ पूछना है। तो चार सवाल पूछे। उनके जवाब की कुछ जरूरी बात छूट भी गईं। भीड़-भड़ाके और हड़बड़ाहट के बीच बात टूटी। फिर करीब एक घंटे बाद एक होटल की दूसरी मंजिल पर नाश्ता करते वक्त उनसे आखिरी सवाल पूछा, इसमें कुछ ऑफ द रेकॉर्ड बिंदू भी रहे। फिर उन्हें उठना पड़ा। मिजाज ठीक नहीं थे तो उठकर चल पड़ा। दूसरी मंजिल की लिफ्ट की तरफ जा रहा था कि वो कुछ और मीडियावालों से बातकर सामने आते दिखे। मैंने हाथ मिलाकर कह दिया चलता हूं सर। थैंक यू। इस बार उनकी पकड़ में और चेहरे की मुस्कान में अलग ही अपनत्व लगा। पर उन्हें पांच मिनट में ही आसमान की उड़ान भरनी थी और मुझे सड़क पर उड़ना था। सो, उड़ चले। सोचता हूं किसी दुरूस्त माहौल में पारस्परिक रूचि के साथ उनसे फिर मुलाकात होगी, लंबी बातचीत के लिए। फिलहाल ओमपुरी के साथ ये संक्षिप्त बातचीतः

‘आक्रोश’ और ‘मंडी’ जैसी फिल्मों में आपने काम किया। वहां से आज इतने सालों का सफर तय कर लिया। मैंने देखा है कि अपनी फिल्मों में आप आज भी हर एक सीन में अपना सौ फीसदी देते हैं। आखिर वो क्या चीज है जो आपको इतने साल बाद आज भी ऐसा करने की प्रेरणा देती है या आप कर पाते हैं?
कुछ नहीं, बस इस क्षेत्र और अभिनय की विधा से प्यार है इसलिए ऐसा कर पाता हूं। बाकी बहुत से ऐसे एक्टर हैं जो आज भी दशकों बाद अपने काम को उसी तरह से लिए हुए हैं। इसमें मैं अमिताभ बच्चन की बहुत इज्जत करता हूं। वो मेरे सीनियर हैं और उनके जैसे अपने काम को गंभीरता से लेने वाले इंसान बहुत कम हैं। इस उम्र में भी उसी अनुशासन के साथ काम कर रहे हं। तो मैं भी ऐसे ही कर लेता हूं।

कॉमेडी में फूहड़पन या वल्गैरिटी को आप कैसे लेते हैं। टीवी पर कॉमेडी सर्कस जैसे प्रोग्रैम हैं जिसमें सिर्फ हंसी पैदा करने के लिए एक्टर एक दूसरे को लातें मारते हैं और डबल मीनिंग बातें करते हैं?
मैं इसके बिल्कुल खिलाफ हूं। बल्कि मैं तो ऐसे प्रोग्रैम देखता ही नहीं हूं। ये बहुत ही घटिया और सस्ती कॉमेडी होती है जिसे एक्टिगं तो जोड़कर ही नहीं देखा जाना चाहिए।

कॉमेडी मूवीज तो आपने लगातार बहुत की हैं, अब आने वाले वक्त में क्या आपको सीरियस काम करते हुए भी देखा जा सकेगा?
नहीं यार मैं नहीं समझता हूं कि अब मैं करुंगा। सीरियस सिनेमा में मेरा टाइम बीत चुका है। आई एम ओवर। पर हां, कुछ दूसरी फिल्में कर रहा हूं। इसमें ‘डॉन-2’ है और ‘अग्निपथ-2’ है। बाकी तो कर लिया यार जो करना था।

फिर से सवाल कॉमेडी पर है। आपने तकरीबन हर प्रतिभाशाली निर्देशक के साथ काम किया है। ऐसे में हमारे यहां का बेस्ट डायरेक्टर इसमें आप किसे मानते हैं?
मैं प्रियदर्शन को बहुत काबिल निर्देशक मानता हूं इसमें। फिल्मों और कॉमेडी को लेकर इसमें जो उनकी समझ है उसका कोई मुकाबला नहीं है। जब हम ‘मालामाल वीकली’ की शूटिंग कर रहे थे तो एक सीन के दौरान मैंने उनसे कहा कि आप इस तरीके से भागने और गिरने को कह रहे हैं ये तो बिल्कुल अजीब सा है। रियलिस्टक भी नहीं है और इसका सेंस भी कुछ समझ में नहीं आता। तो उन्होंने अपना मतलब समझाया। उन्होंने कहा कि आप टॉम एंड जैरी की कार्टून मूवी देखिए। इसमें वो बिल्ला चूहे के पीछे भागता है, उसके लगती है, पीटा जाता है खून भी आ जाता है पर लोग हंसते हैं, ठीक वैसे ही हमारी कॉमेडी है। लोग रिलैक्स होने और एंजॉय करने आते हैं। ऐसे में थोड़ा सा खून निकलने और गिरने-पड़ने भागने का मतलब सिर्फ टॉम एंड जैरी के संदर्भ में ही है। तो इस तरह उनकी समझ और उनकी क्षमता काफी ज्यादा है।

प्रियदर्शन की फिल्मों में जो गांव दिखाया जाता है, जो लोग दिखाए जाते हैं उसका असली गांव से कोई वास्ता नहीं होता। इसपर आपका क्या कहना है?
बिल्कुल सही है। उनके गांव से असली गांव बहुत जुदा होते हैं। स्टोरी नॉर्थ ईस्ट के धूप भरे गांवों की होती है और मूवी में साउथ के गांव शूट होते हैं। ये अंतर तो होता है।

जो युवा फिल्मों में आना चाहते हैं, एक्टर बनना चाहते हैं उन्हें आप क्या सलाह देंगे?
बस यही की पूरे पैशन के साथ आएं। लेकिन पहले सबसे जरूरी है कि अपनी पढ़ाई को पूरा करें। याद रखें पहले सिर्फ और सिर्फ अपनी पढ़ाई को पूरा करें। उसके बाद किसी अच्छे इंस्टिट्यूट से इसकी ट्रेनिंग लें। एक्टिंग सिखाने के नाम पर जो ये दुकानें खुल गईं है न, जो लाखों रुपए लेकर तीन महीने में एक्टिंग सिखाने का दावा करती हैं, उनमें बिल्कुल नहीं जाएं। नेशनल स्कूल ऑफ ड्रामा (एनएसडी), या एफटीआईआई, पुणे (फिल्म एंड टेलीविजन इंस्टिट्यूड ऑफ इंडिया) या सत्यजीत रे इंस्टिट्यूड से एक्टिंग सीखें।

मगर जिन एनएसडी, एफटीआईआई और सत्यजीर रे संस्थान का आपने जिक्र किया वो तो बहुत ही थोड़े हैं, इस फील्ड में आने वाले बहुत ज्यादा तो वो कैसे आ पाएंगे। इसके लिए क्या उन्हें एकलव्य बनना पड़ेगा?
नहीं, पर इसका मतलब ये नहीं कि वो इन दुकानों में जाएंगे। मेहनत करो और इन इंस्टिट्यूड में आकर दिखाओ। अगर नहीं आ सकते तो इसका मतलब तुममें एक्टर बनने की क्षमता ही नहीं है।

पर सीटें भी तो बहुत कम हैं?
तो क्या हुआ। उन्हें हासिल करो। मैं चंडीगढ़ में एक बड़े प्राइवेट एक्टिंग इंस्टिट्यूड में गया था। वहां शूटिगं कर रहा था तो मुझसे कहा गया कि आप जाएंगे तो बच्चों का हौसला बढ़ेगा। जब मैं गया तो वहां के बच्चों की एक्टिंग की हालत देखकर मुझसे सहा नहीं गया। आई मीन वो लोग पथैटिक थे। पर वहां आए हुए थे और क्यों तो साब एक्टिगं सीख रहे हैं, लाखों रुपए दिए हैं। तो ये हालत है, मुंबई की भी बाकी दुकानों की, पुणे की भी प्राइवेट दुकानों की। सब बेकार हैं।
गजेंद्र सिंह भाटी