Saturday, February 12, 2011

काहलों फैमिली से एक परिचय कर ही लें

फिल्मः पटियाला हाउस
डायरेक्टरः निखिल अडवाणी
कास्टः अक्षय कुमार, अनुष्का शर्मा, ऋषि कपूर, डिंपल कपाड़िया, टीनू आनंद, फराज खान, हार्ड कौर, सोनी राजदान, अरमान किरमानी, रैबिट सेक सी, जेनेवा तलवार, नासिर हुसैन, एंड्र्यू साइमंड्स
स्टारः ढाई 2.5

'पटियाला हाउस’ एकबारगी का ठीक-ठाक मनोरंजन है। ऋषि कपूर 'दो दूनी चार’ में संतोष दुग्गल देसाई के रूप में इम्प्रैस करने के बाद यहां बाउजी के मजबूत रोल में हैं, तो डिंपल कपाडिय़ा 'दबंग’ बाद फिर पति का साथ देने वाली मां के रोल में दिख रही हैं। 'बैंड बाजा बारात’ की श्रुति कक्कड़ बनना अनुष्का शर्मा के करियर की सबसे सुनहरी घटना थी, दूसरी ऐसी घटना है 'पटियाला हाउस।‘ अक्षय कुमार को कुछ हद तक अपने जीवन की 'स्वदेश’ मिल गई है। याद रखिएगा पूरी तरह नहीं। फ्रेंड्स, फैमिली, फिलॉसफी या अकेले.. किसी भी मूड के साथ 'पटियाला हाउस’ देखने जा सकते हैं, आपके पैसे जाया नहीं जाएंगे। चूंकि अच्छी फिल्ममेकिंग और नए किस्म के एंटरटेनमेंट का तकाजा है इसलिए मैं इसे खास फिल्म नहीं मान सकता। ग्रेटर लंदन में रहने वाले थियेटर एक्टर फराज खान पुनीत सिंह कहलों के रोल में बाकियों से अलग दिखते हैं, इसलिए खास जिक्र।

पता पटियाला हाउस काः स्टोरी
कहानी गुरतेज सिंह काहलों (ऋषि कपूर) की है। इन्हें घर पर सब बाउजी कहते हैं। 20 साल पहले सीनियर एडवोकेट लीडर सैनी साब (प्रेम चोपड़ा) को बेदर्दी से कत्ल कर दिए जाने के बाद से ही बाउजी ब्रिटिश कौम से नफरत करने लगे। उन्होंने लंदन के साउथहॉल में अपनी इंडियन कम्युनिटी को मजबूत बनाया, उनके लिए जेल गए, उनके अधिकारों के लिए लड़े। एक दिन पूरी कम्युनिटी के सामने कह दिया कि उनका फास्ट बॉलर बेटा परगट (अक्षय कुमार) इंग्लैंड के लिए क्रिकेट नहीं खेलेगा। अगले 17 साल तक परगट उर्फ गट्टू सिर झुकाए अपने बाउजी के वचनों का पालन करता है। मां (डिंपल कपाड़िया) भी अपने पति के आगे चुप है पर बेटे के दबे सपनों को खूब समझती है, जानती है कि वह आज भी रोज रात छिपकर बॉलिंग प्रैक्टिस करने जाता है। पड़ोस में रहती है सिमरन (अनुष्का शर्मा), जो 'शोले’ की बसंती जैसी चुलबुली और प्यारी है। वो परगट की जिंदगी में सपने फिर से जगाने की कोशिश करती है। इसी का हिस्सा बनते हैं बेदी साब (टीनू आनंद) भी। इस कहानी में पटियाला हाउस फैमिली से जुड़े बाकी मेंबर कोमल, जसमीत, हिमान, जसकिरण, अमन, डॉली, पुनीत, रनबीर और प्रीति हैं। इनमें से किसी का ड्रीम शेफ-रैपर-फिल्ममेकर या डिजाइनर बनने का है तो कोई इसाई बॉयफ्रेंड से शादी करना चाहती है। ये सब चुप हैं क्योंकि गट्टू चुप है। अब गट्टू को बाउजी के हुकुम और अपने सपने के बीच एक को चुनना है। क्लाइमैक्स का अंदाजा लगाना ज्यादा मुश्किल नहीं है। बाकी आप मालिक।

कितने अलग हैं परगट
पिछली दर्जनों फिल्मों की तरह 'पटियाला हाउस’ भी अक्षय कुमार की कोई नई इमेज नहीं गढ़ पाती है। जिन क्रिकेटिंग शॉट्स पर अक्षय के कैरेक्टर का अलग होना टिका था, उनमें परफेक्शन की खासी कमी दिखती है। हालांकि कुछ बॉलिंग वाले सीन में एनिमेशन के इस्तेमाल से काम चल जाता है। मगर इस क्रिकेट तत्व वाली फिल्म से 'लगान’ वाले रियल टच की उम्मीद करना बेकार है। हल्के-फुल्के ड्रामा वाले मनोरंजन के साथ चूंकि ये मूवी बेहतरीन होने की महत्वाकांक्षा भी नहीं रखती इसलिए हमें भी इस पर कोई बात नहीं ही रखनी चाहिए। फिर भी स्पोर्ट्स का हिस्सा कहानी में जहां भी आएगा, इसकी तुलना हमेशा दूसरी खेल वाली फिल्मों से होगी ही। जैसे 1992 में मंसूर खान की बनाई 'जो जीता वही सिंकदर।‘ खेल के साथ परिवार, कॉलेज लाइफ और प्रेम जैसे तत्वों से मिलकर बनी ये हिंदी फिल्म इस श्रेणी में आज भी शीर्ष पर बनी हुई है। हालांकि इस फिल्म का संजय लाल शर्मा (आमिर खान) और 'पटियाला हाउस’ का परगट सिंह काहलों कई मायनों में अलग हैं, पर खेल खेलने या न खेलने का पैशन, बीच में पिता के साथ गैप भरा रिश्ता, एक चाहने वाली फ्रेंड-कम-लवली सी गर्लफ्रेंड, कुछ यंग दोस्त-रिश्तेदार और क्लाइमैक्स में जीत पर टिकी सबकी आंखें.. जैसी बातें दोनों फिल्मों को जोड़ती हैं।

इंडिया से दूर परदेस
अब अगर लंदन, साउथहॉल, नस्लभेद, एशियाई कम्युनिटी और खेल के पैशन वाले नायकों वाली कहानी की बात करें तो 'दन दना दन गोल’ सबसे करीबी नाम है। विवेक अग्निहोत्री ने कुछ अंग्रेजी फिल्में लीं और कुछ जॉन अब्राहम, अरशद वारसी, बोमन इरानी लिए.. और डायरेक्ट कर दी 'दन दना दन गोल।‘ ऐसे में करण जौहर को 'कुछ कुछ होता है’ में असिस्ट कर चुके निखिल अडवाणी के लिए कोई मुश्किल नहीं थी। उन्होंने और अन्विता दत्त गुप्ता ने मिलकर एक ठीक-ठाक स्क्रीनप्ले लिख दिया। बाकी काम फिल्म विधा में मौजूद चालाकी कर देती है। जिन स्पोर्ट्स फिल्मों का मैंने जिक्र किया है, उनसे कुछ अलग इसमें मिल पाता है तो वो है अक्षय कुमार का अंडरडॉग वाला कैरेक्टर। अपने बाउजी के सामने हाथ बांधे खड़े रहने वाले और घर में सब छोटे भाई-बहनों के ताने सुनने वाले इस नॉन-वॉयलेंट कैरेक्टर को उन्होंने अपनी एक्टिंग क्षमताओं के साथ पूरी ईमानदारी से निभाया है। कुछ सीन में वो अपनी सारी कमियों को पीछे छोड़ देते हैं। बताना चाहूंगा कि सुबह-सुबह साउथहॉल की सड़कों-गलियों से चुपचाप अपनी शॉप की ओर बढ़ता परगट 'दिलवाले दुल्हनिया ले जाएंगे’ के बाउजी (अमरीश पुरी) वाली सिनेमैटिक एनआरआई यादें दे जाता है। ऐसा हो भी क्यों न सुबह के हल्के कोहरे में, बादलों के बीच, देस से दूर लंदन की सड़कों से गुजरने वाले, कबूतरों को दाना डालने वाले अमरीश पुरी ही तो पहले थे न, उसमें भी गोरों के खिलाफ गुस्सा और पंजाब की संस्कृति से अनहद प्यार करने वाला सरदारी तेवर वहीं से आया है। इससे पहले के जुड़ाव ढूंढने के लिए मनोज कुमार की फिल्मों के नाम लिए जा सकते हैं।

असल खिलाड़ियों की एक्टिंग
अंग्रेजी फिल्म 'गोल-द ड्रीम बिगिन्स’ के सांतियागो मुनेज (कूनो बेकर) वाली बात अक्षय में यहां नहीं आ पाती है। 2005 में आई डायरेक्टर डैनी कैनन की इस फिल्म को फीफा का पूरा सपोर्ट था इसलिए असल खिलाड़ी पूरे दो घंटे फिल्म में दिखते रहे। 'पटियाला हाउस’ में कुछ छितरे हुए से खाली बैठे प्लेयर ले लिए गए हैं। जिन ऑस्ट्रेलिया और इंग्लैंड के क्रिकेटर्स को रोल प्ले करने के लिए चुना गया उनमें सिर्फ इंग्लैंड की क्रिकेट टीम के कप्तान रह चुके नासिर हुसैन ही फिल्म का हिस्सा लगते हैं। एंड्रयू साइमंड्स परगट सिंह के प्रतिद्वंदी के तौर पर दो-तीन बार मूवी में आते हैं, पर न जाने क्यों वो फिल्म का हिस्सा नहीं बन पाते हैं। इंग्लैंड क्रिकेट चयन बोर्ड की मीटिंग वाले सीन और भी असरदार हो सकते थे। अगर ऐसी स्पोर्ट्स-फैमिली ड्रामा मूवीज में इन बोर्ड मीटिंग्स और खिलाड़ियों के प्रैक्टिस सैशन वाले सीन कुछ गंभीरता से लिखे-फिल्माए जाएं तो औसत होते हुए भी फिल्म की एंटरटेनमेंट वैल्यू 'चक दे’ इंडिया सरीखी हो सकती है। कुछ-कुछ 'लगान’ जैसी भी।

ब्रीफ में बड़ी बातें
अनुष्का के कैरेक्टर का परगट सिंह को आई लव यू बोलना और जाते-जाते पीछे से परगट का लव यू टू बोलना सुनकर लौटकर आना और गुदगुदी करते हुए-गले लगते हुए पूछना कि तुमने भी कहा न, तुमने भी कहा... फ्रैश आइडिया लगता है। अनुष्का के जिस चुलबुलेपन की मैं बात कर रहा था, वो इसमें देख सकते हैं। तुंबा-तुंबा तुड़क गया... और लॉन्ग दा लिश्कारा... दोनों ही (सदाबहार तो नहीं पर) खूबसूरत गाने हैं। हार्ड कौर, सोनी राजदान और टीनू आनंद का फिल्म में उतना इस्तेमाल नहीं किया गया जितना किया जा सकता था। शुरू के दस मिनट फिल्म का फ्लैवर ही कुछ और (रोचक और अच्छा) होता है। उस वक्त बाउजी के यंग-सीरियस और समझदार कैरेक्टर में कोई और एक्टर होता है और वॉयसओवर होता है ऋषि कपूर का। ये भी ठीक ही प्रयोग है, कम से कम कैरेक्टर्स के एज गैप के बाद उनकी शक्लें स्वीकार न भी हो तो आवाज तो एक रहे। शुरू में किन हालात ने बाउजी (ऋषि) को बदलकर इतना सख्त और निरंकुश बना दिया, देखना इंट्रेस्ट जगाता है। फिल्म में मीडियोक्रिटी शब्द का इस्तेमाल किया गया है। मुझे एतराज है। इसे ऐसे ही नहीं मान लेना चाहिए। आप फिल्म एनआरआई ऑडियंस को प्राथमिकता में रखते हुए बनाते हैं, लेकिन नसों में खास किस्म का विचार या विचारधारा इंजेक्ट करते हैं इंडिया के महानगरों और कस्बों में भी। जो गलत है। जब तक इस पर सार्वजनिक बहस पूरी न हो, आपको फिल्मी माध्यम का इस्तेमाल कुछ बेपरवाही से नहीं करना चाहिए। जाहिर है, मीडियोक्रिटी शब्द के पीछे अपने तर्क पुख्ता करने के लिए निखिल अडवाणी ने लॉजिकल सीन और डायलॉग प्रायोजित करने की कोशिश तो की ही है। खैर, इस पर खूब बात होनी चाहिए।

आखिर में...
मुझे सबसे अच्छा लगा फिल्म में अक्षय के कैरेक्टर का नाम... परगट सिंह काहलों। ऐसे जमीनी ठसक वाले नाम गुडी-गुडी फिल्मों के चक्कर में जैसे गायब ही हो गए थे। सरदारों के नाम बस मजाक में ही इस्तेमाल करने के लिए गढ़े जाने लगे। परगट सिंह काहलों छाछ और दही पिया हुआ नाम लगता है। दूसरी अच्छी बात अनुष्का-अक्षय की कैमिस्ट्री। तीसरी ऋषि की परफॉर्मेंस और डिंपल की साथ उनकी जोड़ी। (प्रकाशित)
गजेंद्र सिंह भाटी

Sunday, February 6, 2011

अफसोस! नाम जैसा ऊट-पटांग कुछ नहीं

फिल्मः ऊट पटांग
डायरेक्टरः
श्रीकांत वी. वेलागलेती
कास्टः सौरभ शुक्ला, विनय पाठक, संजय मिश्रा, माही गिल, मोना सिंह, बृजेंद्र काला
स्टारः 2

विनय पाठक की फिल्म-एक्टर के तौर पर जो कैटेगरी बनी है, उसमें उन्हें 'भेजा फ्राई’, 'दसविदानिया’, 'खोसला का घोंसला’ और 'मनोरमा सिक्स फीट अंडर’ जैसी फिल्मों के किरदारों से जोड़कर देखा जाता है। ऐसे में 'ऊट पटांगका आना एक बड़ी निराशा है। राम और लकी के दोहरे रोल में वो किसी सीमित एक्टिंग वाले टीवी सोप के एक्टर से भी बुरे लगते हैं। फिल्म में सबसे ज्यादा परेशान करती हैं मोना सिंह। या तो डायरेक्टर श्रीकांत उनके कैरेक्टर को सही से पेश नहीं कर पाए या फिर अब मान लेना चाहिए कि मोना बहुत ओवररेटेड एक्ट्रेस हैं। माही गिल हमेशा की तरह एक लाउड से रोल में हैं। 'ऊट पटांग’ में ठंडी हवा का झौंका बनकर आते हैं संजय मिश्रा और सौरभ शुक्ला। फिल्म को देखना ही चाहते हैं तो ये मान कर जाएं कि कोई मिनी टेलीविजन सीरिज देखने जा रहे हैं, वरना 'मिथ्या’, 'ओ माई गॉड’ या 'भेजा फ्राई’ में से कोई भी फिल्म डीवीडी पर देख लें, बेहतर रहेगा।

कहानी का क
कथा शुरू होती है एक रेस्टोरेंट-कम-बार से जहां राम (विनय पाठक) और उसका प्राइवेट डिटेक्टिव दोस्त नंदू उर्फ नंदन पांडे (सौरभ शुक्ला) बैठकर बातें कर रहे हैं। वेटर को सस्ते वाला पानी और बर्गर ऑर्डर कर रहे हैं। राम का अपनी गर्लफ्रेंड संजना (माही गिल) से ब्रेकअप हो गया है। वहां उन्हें मिलती है गुमसुम सी बैठी कोयल (मोना सिंह), वह अपना घर छोड़ आई है। क्यों? कहां से? कब? ये कहानी में नहीं बताया जाता। संजना राम को छोड़ एक फ्रेंच हैंगओवर वाले डॉन लकी (विनय पाठक) के पास चली गई थी, पर अब उसे भी छोड़ उसके ढाई करोड़ रुपए लेकर भागना चाह रही है। लकी की बीवी (डेलनाज पॉल) दुबई में है। अपने डॉन पिता (गोविंद नामदेव) को बिना बताए वह मुंबई में फ्लैट खरीदने के लिए पांच करोड़ रुपए लकी को भेजती है। अब इस लफड़े में कहानी आगे बढ़ती है। कहानी कहने और प्रस्तुत करने का तरीका ही फिल्म को स्पेशल बनाता है। जैसा कि छोटे बजट वाली स्मार्ट फिल्मों के साथ होता है, क्लाइमैक्स तक ये स्टोरी भी देखने लायक बनी रहती है।

पिंक पैंथर का फिक्सेशन
मुझे लगता है कि फिल्म की योजना बनाते वक्त डायरेक्टर श्रीकांत वेलाग्लेती ने विनय पाठक को पिंक पैंथर के अंदाज में बड़ा एक्साइटिंग पाया होगा। पर इसमें करना क्या पड़ता है, आपसे कुछ इनोवेटिव होते नहीं बनता तो वैसी काली हैट, मूछें, फ्रेंच एक्सेंट और हाव-भाव तक फिक्स मिल जाते हैं। बस पिंक पैंथर सीरिज वाली फिल्में लीजिए और जैक्स क्लूजों बने स्टीव मार्टिन का अनुसरण कर लीजिए। इसलिए यहां विनय भी अपनी तरफ से कुछ अलग नहीं जोड़ पाते हैं। हालांकि प्रेरणा के लिए हमारे पास जगदीप जैसे ऑरिजिनल सोर्स हैं, जिन्होंने अपने एक्सप्रेशन खुद डिवेलप किए हैं। राम के रोल में विनय को झेलना बड़ा मुश्किल है। स्लोद नाम के सुस्त जानवर की तरह उनकी एक्टिंग चुभती रहती है।

राहत के पल
फिल्म में खुशी होती है संजय मिश्रा को देखकर। वो लकी के गैंग के मैंबर हैं। एक सीन में नंदू लकी के ऑफिस में पैसों वाला बैग चुपके से रखने जाता है। पूछने पर संजय से कहता है वो पिज्जा डिलीवरी बॉय है और फ्री डिलीवरी देने आया है। हमने हिंदी फिल्मों में ऐसे बाहर से सख्त और होशियार होने का दिखावा करते भोले कैरेक्टर बहुत देखे हैं। 'शोले’ के जेलर असरानी से लेकर 'तू चोर मैं सिपाही’ के कमिश्नर अनुपम खेर तक सब ऐसे ही होते हैं। बृजेंद्र काला भी हमेशा ऐसे ही रोल में दिखते हैं पर यहां वो कॉमिकल नहीं होते हुए भी कॉमिकल लगते हैं। सौरभ शुक्ला उस सीन को इंगेजिंग बनाते हैं जहां वो संजना बनी माही को कहते हैं कि दाई से पेट नहीं छुपाते। उनका रेफरेंस संजना के बीते कल से होता है। फिल्म की स्टोरी के भीतर कैरेक्टर्स और घटनाओं का प्रेजेंटेशन ही ऐसी बात है जो इस फिल्म को बुरी फिल्म की कैटेगरी में जाने से बचा लेता है।

आखिर में...
मुरली शर्मा और गोविंद नामदेव फिल्म के आखिर में एक-एक सीन के लिए आते हैं। उनको इससे पहले भी फिल्म में शामिल किया जा सकता था। ‘ऊट पटांग’ शुरू में जितनी बोरिंग है, आखिर तक आते-आते कुछ देखने लायक बन जाती है। (प्रकाशित)
गजेंद्र सिंह भाटी

Saturday, February 5, 2011

बुलेट और इश्क में मिला मनोरंजन

फिल्मः ये साली जिंदगी
डायरेक्टरः सुधीर मिश्रा
कास्टः इरफान खान, अरुणोदय सिंह, सौरभ शुक्ला, अदिति राव हैदरी, चित्रागंदा सिंह, यशपाल शर्मा, प्रशांत नारायणन, सुशांत सिंह, विपिन शुक्ला, विपुल गुप्ता
डायलॉगः मनु ऋषि और सुधीर मिश्रा
स्टारः 3.5

सुधीर मिश्रा की ये फिल्म अच्छी मिसाल है इस बात की कि ग्रे शेड्स में कभी 'कमीने’ जैसी फिल्म बनाना चाहें, तो आप उसे सौ फीसदी एंटरटेनिंग भी रख सकते हैं। फिल्म के क्रेडिट 'सिन सिटी’ और 'जेम्स बॉन्ड’ मूवीज के अंदाज में स्कैची से आते हैं। छूटते ही सौरभ शुक्ला की जबान में ठेठ हरियाणवी डायलॉग आ लगता है... रे घुस गी ना पुराणी दिल्ली अंदर और आ गे ना प्रैण भार (प्राण बाहर)... यहां जो सिनेमा शुरू होता है वो आखिर तक बांधे रखता है। फिल्म में बहुत बार हिंदी के कर्स वर्ड इस्तेमाल हुए हैं। हालांकि ये रेग्युलर और फनी लगते हैं, बाकी फैमिली के साथ जाना न जाना अपनी पसंद पर है। बेस्ट ऑप्शन है अपने फ्रेंड्स के साथ जाना। काफी दिन बाद कोई रिपीट वेल्यू वाली फिल्म आई है जिसे आप दूसरी और तीसरी बार देख सकते हैं। सौरभ शुक्ला, इरफान, अरुणोदय, अदिति, यशपाल शर्मा और किडनैपिंग गैंग के मेंबर्स खासे याद रहेंगे।

ये साली... क्या है कहानी?
अरुण (इरफान खान) को गोली लगी है, प्रीति (चित्रागंदा सिंह) उसे थामे है। यहीं से अरुण फ्लैशबैक में अपनी कहानी में हमें ले जाता है। पेशे से सीए अरुण अपने दोस्त और दुश्मन मेहता (सौरभ शुक्ला) की फर्म में ब्लैक-वाइट मनी इधर-उधर करता है। इस काम में उसका कोई मुकाबला नहीं। जब से सिंगर प्रीति से मिला है धंधे पर असर पड़ रहा है। उधर तिहाड़ में बंद है कुलदीप सिंह चौधरी (अरुणोदय सिंह), अपनी बीवी शांति (अदिति राव हैदरी) से बहुत प्यार करता है, पर शांति को कुलदीप का धंधा पसंद नहीं। वह बड़े (यशपाल शर्मा) के साथ काम करता है। जेल में बंद बड़े का रूस में बैठा सौतेला भाई छोटे (प्रशांत नारायणन) बड़े के खातों की डिटेल लेने के बाद उसे मारने का प्लैन बना रहा है। आगे की कहानी मैं नहीं बताउंगा। इतना बता देता हूं कि प्रीति कैबिनेट मिनिस्टर वर्मा के होने वाले दामाद श्याम सिंघानिया (विपुल गुप्ता) से प्यार करती है। बड़े को जेल से छुड़ाने के लिए श्याम को किडनैप होना है। बस इतना ही। मूवी देखने जाएं तो ये कहानी भूल जाएं। नए सिरे से देखें। ढेर सारे कैरेक्टर हैं, पर ढेर सारे एंटरटेनमेंट के साथ।

कच्ची कैरी, अरुणोदय अदिति
अरुणोदय हिंदी फिल्मों के उन बाकी भारी डील-डौल वाले लड़कों की तरह नहीं हैं, जो मेट्रोसेक्सुअल तो दिखते हैं, पर रोल के मुताबिक ऑर्डिनरी नहीं लग पाते। पर अरुणोदय यहां खुद में ठेठपन लेकर आते हैं। फिल्म में बीवी शांति से बार-बार थप्पड़ खाते हैं, और अपने पत्थर जैसे चेहरे पर अपनी रूठी बीवी को तुरंत मनाने का भाव ले आते हैं। अरुणोदय के जेल वाले इंट्रोडक्टरी सीन देखिए। यहां वो इतने बलवान शरीर के होने के बावजूद एक आम कैदी की तरह डरे-डरे और रियलिस्टिक से रहते हैं। इस फिल्म के साथ वो इंडस्ट्री के कई नए लड़कों से आगे निकले हैं। इसमें सुधीर के उन्हें प्रस्तुत करने के तरीके को भी श्रेय जाता है। अदिति दिल्ली की चाल-ढाल वाली लड़की लगती हैं। एक ऐसे बच्चे की मां भी लगती हैं जिसका पिता जेल में है और सब जिम्मेदारी का बोझ उसी पर है। वो जब गुस्से में कुलदीप को साला कुत्ता कमीना... बोलती हैं तो उनके एक्सप्रैशन ओवरएक्टिंग नहीं लगते। चेहरे पर मुस्कान ले आते हैं। सिर्फ इस कपल की स्टोरी देखने के लिए ही मैं फिल्म दो बार और देख सकता हूं। जब भी दोनों फ्रेम में आते हैं तो फिल्म में कच्ची कैरी का सा स्वाद और खूबसूरती घुल जाती है। ये कपल झगड़ते हुए भी इतना रोमैंटिक लगता है, कि शादी से पहले के प्यार की गर्लफ्रेंड-बॉयफ्रेंड वाली कोई फिल्म नहीं लगी है। हम नए जमाने के 'राजों' और 'सिमरनों' से खुद को कनेक्ट शायद न कर पाएं, पर शांति और कुलदीप से कर पाते हैं।

अब हिंदी के एफ वर्ड
फिल्म में कर्स वर्ड और आम बोलचाल वाली गालियां खूब हैं। पर ये थोपी हुई नहीं लगतीं। इस बार सुधीर मिश्रा की फिल्म का एक मुख्य कैरेक्टर ये फाउल लेंग्वेज है। ज्यादातर वक्त पर परिस्थितियों के हिसाब से खुद-ब-खुद सामने आते बुरे शब्द हंसाते हैं। संभावना यही है कि फैमिली के साथ देखने आई ऑडियंस को ये पसंद नहीं आए, पर हिंदी बोलने-समझने वाली यंग ऑडियंस को सब बहुत नेचरल और मजेदार लगेगा। फिल्म की कहानी ही हरियाणा-दिल्ली के बीच डोलती है इसलिए वहां की बसों, गलियों, रोड़ों, फॉर्म हाउसों और मॉन्युमेंटों, सब जगह देसी एफ-सी-जी-एम-बी वर्ड घुले हैं। इस वजह से फाउल लेंग्वेज की ज्यादा शिकायत नहीं कर सकता। वैसे इन शब्दों का फिल्मों में न होना तो हमेशा ही स्वस्थ रहता है।

मोटा मोटी बातें
एक सीन में दूसरा सीन पूरी तरह गुंथा हुआ है, कहीं भी कट या एडिटिंग में खामी नहीं दिखती। किसी सिचुएशन में जो भी अपने आप मुंह में आ जाए वही सुधीर और मनु ऋषि के डायलॉग बन गए हैं। मनु ने ही दिबाकर बेनर्जी की 'ओए लक्की लक्की ओए’ के डायलॉग लिखे थे। आपने उन्हें मजेदार कॉमेडी 'फंस गए रे ओबामा’ में अन्नी के रोल में देखा होगा। 'ये साली जिंदगी’ की हाइलाइट है दिल्ली-हरियाणा की टोन और ठेठ देसी गालियां.. जो कैरेक्टर्स की एक-एक सांस के साथ बाहर निकलती रहती हैं। इंटरवल से पहले किडनैपिंग के प्रोसेस में फिल्म थोड़ी धीमी लगने लगती है, पर हर दूसरा-तीसरा डायलॉग गुदगुदी चालू रखता है। जब गाड़ियां छतरपुर के फार्म हाउसों और हरियाणा बॉर्डर की कच्ची सड़कों पर धूल उड़ाती चलती हैं तो पृष्ठभूमि में चल रहा सारारारारा.. गाना अलग ही असर पैदा करता चलता है।

कुछ कैरेक्टर अलग से
फ्लैशबैक में इरफान अपनी कहानी सबसे आसानी से सुनाते हैं। चाहे फिल्म का शुरुआती सीन हो जब मेहता के आदमी उन्हें बालकनी से लटका देते हैं या फिर क्लाइमैक्स से पहले कुलदीप से करोलबाग का पता बताकर बात करने का सीन, इरफान अपनी 'प्यार में साली हो गई जिंदगी’ वाला शेड बरकरार रखते हैं। वो एक परफैक्ट फिक्सर-सीए लगते हैं और बार-बार लगते हैं। चित्रागंदा ने अपने रोल में कोई कसर नहीं छोड़ी है, पर जो तल्खी और अभिनय-रस अदिति के कैरेक्टर को मिलते हैं उनके कैरेक्टर को नहीं मिलते। कुछ मूमेंट खास हैं फिल्म में। इंस्पेक्टर सतबीर बने सुशांत सिंह का पहले-पहल बावळी बूच.. कहने का अंदाज। बड़े के रोल में यशपाल शर्मा का कुलदीप से कहना क्या हुआ? डर लग रहा है? अबे जान ही तो जाएगी ना, पर कर्जा तो उतर जाएगा ना। इन पलों के अलावा पूरी की पूरी किडनैपिंग गैंग एक विस्तृत कैरेक्टर है। इसमें कोई प्योर हरियाणवी लोकगीत गाता है, तो कोई खास लहजे में अंग्रेजी बोलता है। सब फिल्मों के लिहाज से बिल्कुल ताजा लगता है।

आखिर में...
अरुणोदय का अपने बेटे के स्कूल जाना और प्रिंसिपल की शिकायत पर कि इसने दूसरे बच्चे को मारा उससे पूछना कि क्यों मारा? बड़ा इंट्रेस्टिंग सीन है। बच्चा कुछ-कुछ ऐसे जवाब देता है मेरी खोपड़ी घूम जाती है फिर मुझे कुछ दिखता नहीं है। बस दे घपा घपा.. बोलते वक्त बच्चे का हाव भाव और पिता अरुणोदय को उसमें दिखता अपना अक्स कुछ असहज जरूर लगे पर कमाल है। यहां अगर सुधीर इस सीन को न भी लाते तो उनसे कोई पूछने नहीं आता। मगर यहीं पर आकर, ऐसे ही एंटरटेनिंग पलों से ये साली जिंदगी बाकी क्राइम-थ्रिल-लव वाली स्टोरीज से अलग हो जाती है। (प्रकाशित)
गजेंद्र सिंह भाटी

Friday, February 4, 2011

थियेटर से खुश निकलेंगे, मेरी गांरटीः सुधीर मिश्रा

एक छोटा सा साक्षात्कार...
अब तक की बेस्ट कॉमेडी कही जाने वाली 'जाने भी दो यारों’ से सुधीर मिश्रा ने फिल्म इंडस्ट्री में कदम रखा। बाहैसियत स्क्रिप्टराइटर। उन्हें सबसे ज्यादा पसंद किया गया उनकी निर्देशित फिल्म 'चमेली’ और 'हजारों ख्वाहिशें ऐसी’ के लिए। कुछ खास सिनेमाई भाषा वाली फिल्में भी उन्होंने बनाई। अब सुधीर तैयार हैं अपनी फिल्म 'ये साली जिंदगी’ के साथ, जो इस शुक्रवार यानी चार फरवरी को रिलीज हो रही है। उनके मुताबिक ये उनकी सबसे एंटरटेनिंग फिल्म है। प्रस्तुत हैं उनसे मेरी बातचीत के कुछएक अंश:

अभी एक महीने पहले तक जब मैं आप तक पहुंचने की कोशिश कर रहा था, आप अपनी फिल्म 'तेरा क्या होगा जॉनी’ को रिलीज करने की तैयारी कर रहे थे। अब देखने में आया कि रिलीज हो रही है 'ये साली जिंदगी’?
हां, सही है। पहले और बाद का चक्कर था। पर मैं 'ये साली जिंदगी’ का को-प्रॉड्यूसर भी हूं। इसलिए इसकी रिलीज को लेकर श्योर हूं। ये आखिरकार चार फरवरी को रिलीज हो रही है। होर्डिंग लगे हुए हैं, पोस्टर लगे हुए हैं। प्रिंट-रिलीज सब फाइनल है। बस अब आपको थियेटर में जाकर देखनी है।

क्या ये दोनों ही फिल्में आपने साथ-साथ बनाई हैं?
नहीं, पहले मैंने 'तेरा क्या होगा जॉनी’ बनाई थी। उसमें पोस्ट प्रोडक्शन और दूसरी किस्म की दिक्कतें थीं। इसकी शूटिंग पूरी होने के बाद मैंने 'ये साली जिंदगी’ का शूट शुरू किया।

हर बार आप कुछ-कुछ डार्क और ब्लंट सी फिल्में बनाते हैं। इस फिल्म को देखना कैसा अनुभव होगा?
'ये साली जिंदगी’ के साथ मैंने पहली शर्त ही एंटरटेनमेंट की रखी। इस बार कोई एक्सपेरिमेंट नहीं, कोई डार्क शेड्स नहीं, सिर्फ एंटरटेनमेंट मिलेगा। ये लव स्टोरी और थ्रिलर है। इसमें एक डायलॉग है इसी से फिल्म को समझ सकते हैं ...लोग सुनेंगे तो क्या कहेंगे चू** आशिकी के चक्कर में मर गया और लौंडिया भी नहीं मिली। इश्क के खतरे क्या हैं इसी पर एक मनोरंजक टेक है। जब बुलेट और लव में से एक चीज चुननी हो तो आप क्या चुनेंगे यही सार है।

प्रोमो में अरुणोदय और अदिति के साथ वाले सीन काफी आकर्षक लग रहे हैं। इनका काम कैसा रहा है?
मूवी में इन दोनों का कपल काफी रोचक सा है। अरुणोदय ने तो बहुत ही बढिय़ा परफॉर्मेंस मूवी में दी है। देखिएगा, ये एक बहुत बड़ा स्टार बनेगा। इंडस्ट्री में ऐसा लड़का मैंने नहीं देखा। इसका बल्की और फिट शरीर भी है और गजब की एक्टिंग भी। ये लड़का छाएगा।

अदिति का 'दिल्ली-6’ में ग्लैमरस लुक नहीं था। क्या इस मूवी में भी ऐसा ही है?
यहां अदिति का कैरेक्टर बड़ा आजाद और कलरफुल है। कैरेक्टर से अलग देखें तो वो एक अच्छी डांसर है, सिंगर है, एक्ट्रेस है। बहुत आगे जाएगी। मैं हमेशा बोलता हूं, चूंकि मैं टैलेंट की कद्र करता हूं इसलिए प्रतिभा को तुरंत पहचान लेता हूं।

आप अपने हिसाब की मूवीज बनाते हैं और ऐसा लगता है कि उन्हें रिलीज करने में आपको हमेशा मुश्किलों का सामना करना पड़ता है?
देखिए, जहां तक सवाल 'ये साली जिंदगी’ का है तो उसे रिलीज करने में कोई दिक्कत नहीं हुई। क्योंकि ये एक एंटरटेनिंग मूवी थी। जब आप अपनी पसंद की फिल्म बनाएंगे तो इन दिक्कतों से तो गुजरना ही पड़ेगा।

जब एंटरटेनमेंट पर ही ध्यान दिया गया है तो फिर फिल्म का टाइटल 'ये साली जिंदगी’ कुछ एक्सपेरिमेंटल सा क्यों लगता है?
ये एक मुहावरे के तौर पर लिया है मैंने। दिल्ली की कहानी है और वहां इन्हीं मुहावरों में बात होती है। ये 'साली’ शब्द मैंने किसी गाली या गलत मतलब में नहीं लिया है। साली कोई गाली नहीं है। ये एक फनी वे में कहा गया है। जहां तक फिल्म से इसका कनेक्शन है तो मैं आपको गारंटी देता हूं कि आप थियेटर से खुश होकर, मुस्कराते और हंसते बाहर निकलेंगे।

आपकी हर फिल्म में मुंबई किसी न किसी रोल में मौजूद रहती है। क्या यहां भी है?
ये कहानी दिल्ली की है। इसलिए खासतौर पर इसमें यहीं की चीजें शूट होनी थीं। हमनें करोलबाग, गुड़गांव, हरियाणा बॉर्डर और पुरानी दिल्ली को चुना। यहां शूटिंग करके बड़ा मजा आया। मैं कह सकता हूं कि दिल्ली को इस अंदाज में आपने किसी भी फिल्म में नहीं देखा होगा।

पहले टाइटल आपने 'दिल दर-बदर’ रखा था। उसे बदल क्यों दिया?
जब फिल्म के लिए एक गाना लिख रहे थे तो ये सूझा। इसमें लाइन थीं,

जिंदगी पे तेरा मेरा किसी का न जोर है,
हम सोचते हैं कुछ वो साली सोचती कुछ और है,
हम चाहते यहां है साली जाती कहीं ओर है,
लम्हे और लम्हों के बीच ये टेढ़े मेढ़े मोड़ है,
ये जिंदगी, ये साली जिंदगी।


तो मुझे ये टाइटल पसंद आ गया। और फिर ये टाइटल मूवी की थीम को एक्सप्रेस भी करता है।

आप बड़े अंतराल लेकर फिल्में बनाते हैं। इस कहानी में ऐसी क्या बात थी कि आपने इसी पर फिल्म बनाई?
क्योंकि ये मनोरंजक थी। मैं भी काफी वक्त से ऐसी फिल्म बनाना चाहता था जिसे ज्यादा से ज्यादा लोग देख सकें। ऐसी फिल्म जो मजेदार हो। इसी वजह से मैं आकर्षित हुआ इस कहानी की तरफ। ये एक अलग सी लव स्टोरी है। इसमें थ्रिल का पहलू साथ-साथ चलता है।

इरफान, अरुणोदय, अदिति और चित्रांगदा में तो आपके दो यंग कपल हो गए। पर साथ-साथ सुशांत सिंह, यशपाल शर्मा, प्रशांत नारायणन और विपिन शर्मा जैसे मंझे हुए एक्टर भी फिल्म में हैं। क्या इसलिए कि एंटरटेनमेंट के साथ-साथ सीरियस एक्टिंग भी चलती रहे?
हां, कुछ-कुछ ऐसा ही है। सुशांत, विपिन और यशपाल फिल्म की वेल्यू और कंटेट क्वालिटी को बढ़ा देते हैं। सौरभ शुक्ला भी हैं, सौरभ तो बड़े कमाल हैं। ये सब मिलकर फिल्म को मजबूत करते हैं।

फिल्म में सितार प्लेयर निशात खां साब ने म्यूजिक दिया है। कैसा एक्सपीरिंयस रहा?
निशात साब बहुत बड़े आदमी हैं। उन्होंने कार्लोस सेनटाना, एरिक क्लेप्टन और जॉन मैकलॉफ्लिन जैसे बड़े आर्टिस्टों के साथ परफॉर्म किया है। लंदन के अलबर्ट हॉल तक उनका आर्ट पहुंचा है। म्यूजिक बहुत ही राहत भरा दिया है। क्यूं अलविदा... मेरा फेवरेट गाना है इस फिल्म के एलबम में से।
गजेंद्र सिंह भाटी (प्रकाशित)

Saturday, January 29, 2011

कॉमेडी यूज एंड थ्रो जैसी

फिल्मः दिल तो बच्चा है जी
डायरेक्टरः मधुर भंडारकर
कास्टः अजय देवगन, इमरान हाशमी, ओमी वैद्य, शहजान पद्मसी, श्रद्धा दास, श्रुति हसन, टिस्का चोपड़ा, रितुपर्णा सेनगुप्ता
स्टारः दो, 02


मेरे पास तीन लड़कों की इस कहानी को देखने की तीन वजहें थी। पहला इसका टाइटल जो मेरा ध्यान सीधे 'इश्किया' के खट्टे से गाने दिल तो बच्चा है जी... की ओर ले जाता है। दूसरा ये कि तीन बार नेशनल अवॉर्ड जीत चुके मधुर भंडारकर की ये पहली कमर्शियल कॉमेडी फिल्म है। तीसरा फिल्म की स्टार कास्ट। सीरियस और कॉमिक रोल के लिहाज से अजय देवगन को 'गंगाजल' के अनुशासित आईपीएस और 'गोलमाल' के गुस्सैल गोपाल से ही आंका जाता है, ऐसे में उन्हें एक दब्बू और शर्मीले लड़के नरेन बने देखना आकर्षित कर रहा था। 'थ्री इडियट्स' के बाद ओमी वैद्य की ये दूसरी मूवी थी और इमरान हाशमी किसी मल्टीस्टारर फिल्म में एक लाइट से रोल में नजर आ रहे थे। अब जब 'दिल तो बच्चा है जी' देख ली है तो इसे दोबारा देखने की ये तीन वजहें भी नहीं रह गई हैं। ये एक घटिया फिल्म नहीं है, पर कमर्शियल एंटरटेनर होने का दावा करती मधुर की ये फिल्म एंटरटेनमेंट देने में नाकाम रहती है। शुरू में स्टोरी और कैरेक्टर्स को जानने की जिज्ञासा होती है, पर बाद में बिना अच्छे डायलॉग और म्यूजिक के फिल्म का पेस धीमा बना रहता है। क्लाइमैक्स आते-आते फिल्म कुछ इंट्रेस्टिंग होती है कि अगले पंद्रह मिनट में थियेटर की एग्जिट लाइट्स जल जाती हैं। फ्रेंड्स के साथ एक बार जा सकते हैं, पर अल्टीमेटली ये एक यूज एंड थ्रो फिल्म ही रहती है।

बच्चे दिल की कहानी
कुछ भी अनोखा नहीं है कहानी में। इसके अंश आपने 'नई पड़ोसन', 'ढोल', 'एक्सक्यूज मी', 'स्टाइल' और 'गोलमाल' जैसी फिल्मों में देखे होंगे। तो झट पट मुद्दे की बात पर आते हैं। 38 साल के नरेन आहूजा (अजय देवगन) की एक जर्नलिस्ट वाइफ (रितुपर्णा सेनगुप्ता) और एक छोटी बेटी है। वैवाहिक जीवन टूट सा गया है, तलाक के पेपर दोनों ने फाइल कर रखे हैं। ऐसे में नरेन अपने खाली पड़े घर में रहने चला जाता है जहां उसके पेरंट्स रहते थे। घर की किश्त का खर्च निकालने के लिए वो दो पार्टनर रख लेता है। पहला है झटपट शादी डॉट कॉम में शादियां करवाने वाला मिलिंद केलकर (ओमी वैद्य) और दूसरा जिम ट्रैनर अभय सूरी उर्फ ऐबी (इमरान हाशमी). लव को लेकर नरेन शर्मीला है तो मिलिंद सिद्धांतवादी और अभय लड़की और पैसे पर जीने वाला। तीनों की लाइफ में प्यार का प्रोसेस अलग-अलग तरह से चलता है। नरेन मन ही मन अपने बैंक की इंटर्न जून पिंटो (शहजान पद्मसी) को चाहने लगा है। मिलिंद को रेडियो जॉकी गुनगुन (श्रद्धा दास) से प्यार हो गया है पर गुनगुन को फिल्मों में करियर बनाना है। अभय का अफेयर पहले अनुष्का नारंग (टिस्का चोपड़ा) के साथ चलता है फिर वो निकी नारंग (श्रुति हसन) को चाहने लगता है। क्लाइमैक्स में कहीं कुछ नयापन लगता है। ऐसे ही क्लाइमैक्स वाली एक अच्छी एंटरटेनिंग फिल्म है डेविड धवन की 'दीवाना मस्ताना।'

एडल्ट नहीं पर 'ए' सर्टिफिकेट
मूवी में मोटा-मोटी दो अडल्ट डायलॉग हैं, चूंकि प्रोमो में फिल्म को कुछ अलग दिखाने के लिए अजय-शहजान के बीच का एडल्ट डायलॉग ही दिखाया जाता है। इस खातिर इसका जिक्र जरूरी है। इनमें ये पहला तो प्रोमो में ही दिखता है। जून (शहजान पद्मसी) अपने बॉस नरेन (अजय) को अपनी एक दोस्त के बारे में कहती है, सर डू यू नो, शी जस्ट लॉस्ट हर वी। वी मतलब? वॉलेट! (नरेन) ...नहीं सर, वी मतलब वर्जिनिटी। दूसरा है इमरान हाशमी के कैरेक्टर को इंट्रोड्यूस करवाने का तरीका। परेश रावल का वॉयसओवर सुनाई देता है... ये है अभय। दोस्त इन्हें ऐबी कहकर बुलाते हैं। ये जिम ट्रैनर हैं। इनकी लाइफ में तीन एफ हैं। पहला फन, दूसरा फ्लर्टिंग और ...तीसरा तो आप समझ ही गए होंगे। इसके बाद फिल्म में कुछ भी एडल्ट जैसा नहीं है। वही कहानी। तीन दोस्त या दो दोस्त, लाइफ में आती गर्ल्स, पैदा होता आकर्षण, प्यार, इजहार और लड़का जीत जाता है या जाता है हार। हां, लड़का-लड़की स्वभाव में अलग हो सकते हैं। शर्मीला लड़का, बेशर्म लड़का, सिद्धांतवादी लड़का, एम्बीशस लड़की, तेज लड़की, स्वीट लड़की। ये सब कैरेक्टर हर दूसरी यंग रॉमैंटिक कॉमेडी में होते हैं।

कॉमेडी हो तो कैसी
तीन दोस्तों की कहानी पर बनी आज तक की सबसे खास फिल्म है 'चश्मे बद्दूर।' इसमें गुदगुदी भी है, कॉमेडी भी है, क्लासिक होने का तत्व भी है, फ्रैश स्क्रिप्ट-डायलॉग्स भी हैं और सिनेमैटिक जीनियस भी है। फारुख शेख, राकेश बेदी और रवि बासवानी के कैरेक्टर्स सिद्धार्थ, ओमी और जोमो के बीच जो रैपो और सिचुएशनल कॉमेडी बनती है वो यहां मधुर अपनी मूवी में रत्तीभर भी नहीं ला पाते। 'दिल तो बच्चा है जी' के शुरुआती क्रेडिट्स जब आते हैं तो तीनों दोस्तों के कैरिकेचर कुछ-कुछ टीवी सीरियल 'मालगुड़ी डेज' के स्केचैज की याद दिलाते हैं। उम्मीद बंधती है कि कुछ ताजी हंसी नसीब होगी। नहीं हो पाती। फिल्म के डायलॉग लिखे हैं संजय छैल ने। यकीन नहीं होता कि इन्हीं संजय ने कभी 'रंगीला' के डायलॉग लिखे थे और इन्हीं संजय ने कभी 'कच्चे धागे' जैसी कमर्शियल फिल्म लिखी थी। प्रीतम का म्यूजिक एक भी ऐसा गाना नहीं दे पाया जिसे पलटकर दोबारा सुनने का मन करे। मुझे निराशा हुई कि फिल्म 'जिस्म' के लिए बेहतरीन गीत लिखने वाले नीलेश मिश्रा ने अभी कुछ दिनों से... और ये दिल नखरेवाला... जैसे टाइमपास बोल वाले गाने लिखे हैं।

आखिर में...
'दिल तो बच्चा है जी' मधुर भंडारकर की सबसे कमजोर फिल्म है। आज भी उनकी पहली फिल्म 'चांदनी बार' ही उनकी बेस्ट फिल्म है। बाद में इसमें 'सत्ता' और 'पेज थ्री' जैसे नाम शामिल कर सकते हैं।
गजेंद्र सिंह भाटी

Saturday, January 15, 2011

लवली देओल्स और कुछ कमियां

फिल्मः यमला पगला दीवाना
डायरेक्टरः समीर कर्णिक
कास्टः धर्मेंद्र, सनी देओल, बॉबी देओल, कुलराज रंधावा, नफीसा अली, सुचेता खन्ना, अनुपम खेर, मुकुल देव, पुनीत इस्सर
स्टारः ढाई 2.5


इस फिल्म पर लिखना मेरे लिए कुछ उलझन भरा रहा। उलझन इसके एंटरटेनमेंट को डिफाइन करने की। पंजाबी सेंटिमेंट्स वाली ऑडियंस के लिए 'यमला पगला दीवाना' एक फन राइड है। देओल फैमिली के फैन्स भी देखकर खुश होंगे। मगर ओवरऑल ये काफी कमियों वाली मूवी है। मुकेश ठाकुर की ढीली एडिटिंग और समीर कर्णिक का बिखरा डायरेक्शन 'यमला पगला दीवाना' में स्टोरीटेलिंग फैक्टर को मार देता है। कुछ देखने लायक रहता है तो मुकुल देव, सनी देओल और सुचेता खन्ना के निभाए कैरेक्टर। सनी वैंकूवर से आए परमवीर सिंह के रोल में मूवी को एक साथ थामे रहते हैं। बिल्ला के कैरेक्टर में मुकुल देव का ठेठ पंजाबी एक्ट और कैनेडा ड्रीम्स में खोई भोली के रोल में सुचेता इस फालूदा फिल्म में ताजगी ले आते हैं। पंजाबी ऑडियंस के लिहाज से मैं मूवी को साढ़े तीन स्टार दूंगा, मगर अपनी रेटिंग में ढाई स्टार रख रहा हूं।
कहानी क्या है?
परमवीर सिंह ढिल्लों (सनी) अपनी वाइफ मैरी (एमा ब्राउन गैरेट) और दो बच्चों के साथ वैंकूअर कैनेडा में रहते हैं। अपनी मां (नफीसा अली) की इच्छा पूरी करने और बीस साल पहले घर छोड़ गए पिता और छोटे भाई को खोजने वो बनारस जाते हैं। यहां भाई गजोधर (बॉबी) और पिता (धरम सिंह) मिल तो जाते हैं, पर दोनों अव्वल दर्जे के ठग हैं। इन्हें सही रास्ते पर लाना है और मां के पास ले जाना है। परमवीर की इस कोशिश के बीच गजोधर और साहिबा (कुलराज रंधावा) की लव स्टोरी है। साहिबा के भाई जोगिंदर (अनुपम खेर), बिल्ला (मुकुल देव), जरनैल (हिमांशु मलिक) और एक-दो दूसरे भाई हैं। मूवी थोड़ा-थोड़ा रुलाती है, पर क्लाइमैक्स समेत ज्यादातर टेंशन फ्री ही रखती है। कहानी से ज्यादा जोर टुकड़ों-टुकड़ों में बंटी हंसी पर ही रहता है।
इससे बेहतर डिजर्व करते हैं धर्मेंद्र
पल-पल न माने टिंकू जिया, इसक का मंजन घिसे है पिया... इस आइटम नंबर में धर्मेंद्र और बॉबी की एंट्री होती है। यहां धर्मेंद्र की प्लेसमेंट और उनका इस्तेमाल परेशान करता है। लंपट और लड़कियों के इर्द-गिर्द मंडराने वाले धरम सिंह से उस धर्मेंद्र को अलग करना मुश्किल हो जाता है, जिसे मूवी में देखने सब आए हैं। परमवीर सिंह, गजोधर और धरम सिंह भी असल में हमें सनी, बॉबी और धर्मेंद्र ही लगते हैं। तीनों को असली रिश्ते से अलग करके नहीं देख पाते हैं। धर्मेंद्र के कैरेक्टर को बिना लॉजिक डिवेलप किया गया है। धरम सिंह बुरे क्यों हैं? ये नहीं बताया जाता। बीवी को क्यों छोड़ देते हैं? नहीं बताया जाता। छोटे बेटे गजोधर को शराबी और अय्याश क्यों बना देते हैं? ये भी नहीं बताया जाता। शुरू से लेकर क्लाइमैक्स तक गजोधर यानी बॉबी धर्मेंद्र को ओए धरम तू बड़ा कमीना है यार... कहते दिखते हैं। ये कॉमिक अंदाज समझ में नहीं आता, न ही डायरेक्टर समीर इस लाइन का संदर्भ बताते हैं।
हैंडपप वाला हीरो जमा
मूवी में स्क्रिप्ट से ज्यादा देओल्स की फैन फॉलोइंग और जट फैक्टर काम करता है। तीनों देओल में सिर्फ सनी का कैरेक्टर ही थियेटर स्क्रीन पर खुद के 'सनी देओल' इम्प्रेशन को जी पाता है। वो हैंडपंप लेकर नाचते हैं तो भी लॉजिकल लगता है, जट रिस्की ऑफ्टर बाल्टी विस्की... डायलॉग बोलते हैं उस वक्त भी लॉजिकल लगते हैं। परमवीर सिंह का उनका कैरेक्टर भी इस इल्लॉजिकल मूवी में खरा लगता है। पूरी फिल्म में सनी के जितने भी एग्रेसिव होने वाले सीन आते हैं उनमें ऑडियंस को एड्रेनलिन रश होता है। उनके कुछ स्टंट्स सम्मोहित करने वाले हैं।
यमला पगला.. गाना और मूवी
प्रोमो में दिखने और सुनाई पडऩे वाले 'प्रतिज्ञा' फिल्म के गाने मैं जट यमला पगला दीवाना... से मूवी की कहानी का कोई लेना देना नहीं है। सोनू निगम इस रीमिक्स में मोहम्मद रफी वाली नक तो नहीं ला पाते, पर क्लासिक वेल्यू की वजह से ये गाना इस मूवी में भी एक्साइट करता है। फिल्मांकन में सनी 'जीत' फिल्म के यारा ओ यारा मिलना हमारा... के डांस स्टेप करते हैं, तो धर्मेंद्र कुछ नए और कुछ 'प्रतिज्ञा' के ही इस असली गाने के स्टेप दोहराने की कोशिश करते है। बॉबी के लिए बचते हैं उनकी पहली फिल्म 'बरसात' के डांस स्टेप्स।
कैरेक्टर्स कम-बेशी
इन ढाई घंटों में किसी को सीरियसली ले पाते हैं तो सिर्फ सनी देओल और मुकुल देव (गुरमीत उर्फ बिल्ला) को। जोगिंदर सिंह बने अनुपम खेर भी हमेशा की तरह अपने कॉमिकल कैरेक्टर को सही से निभा जाते हैं। गजोधर और धरम सिंह की तरह उनकी दाढ़ी नकली भी नहीं लगती। परमवीर सिंह के छोटे बेटे का 'डिट्टो' कहने का अंदाज थियेटर से बाहर आने के बाद भी याद रहता है। धर्मेंद्र और नफीसा अली की जोड़ी 'मेट्रो' मूवी के उनके कपल की याद दिलाती है। पर क्लाइमैक्स में उनके मिलने के सीन में फिल्ममेकर ने गंभीरता नहीं बरती। बीस-तीस साल बाद अपनी बीवी से मिल रहा एक दोषी पति कम से कम एक आंसू तो बहा ही सकता था। एमा ब्राउन और कुलराज रंधावा के यादगार रोल तो नहीं हैं, पर जरूरत जितना काम दोनों कर जाती हैं। भोली के किरदार में सुचेता खन्ना छाप छोड़ती हैं। कैनेडा की दीवानी भोली हूबहू 'दिलवाले दुल्हनिया ले जाएंगे' की प्रीति जैसी है। यहां आकर कहानी भी ऐसी ही हो जाती है। तीनों देओल का एक सीन जिसमें सनी शराब पी रहे बॉबी से उनकी मां के बारे में पूछते हैं और जवाब में बॉबी धर्मेंद्र को देखकर कहते हैं कि यही मेरी मां और बाप है। इस लिहाज से कि वो इसमें अपने पिता के सामने एक्ट कर रहे थे, बॉबी का ये फिल्म में बेस्ट सीन रहा।
असर भी होता है
'यमला पगला दीवाना' के शुरू में मजाक का पात्र बनते हैं मारवाड़ी (जानी लीवर), मारवाड़ी (भंवरलाल, धरम सिंह का एक फर्जी भेष) और नेपाली (एक बच्चा)। मुझे लगता था कि बॉलीवुड के फिल्ममेकर अब शायद समझदार हो चुके हैं और कम्युनिटी या राज्य विशेष को लेकर अब वो घिसे-पिटे मजाक नहीं करेंगे। पर यहां समीर कर्णिक मुझे गलत साबित करते हैं। मजाक में ही सही ये चलन अच्छा नहीं है। माना कि तेरी भेण दी... एक फनी पंजाबी मुहावरा सा है... पर वहां भी इसे बुरा ही माना जाता है। परमवीर के दो छोटे बच्चे इस मुहावरे को बोलते और लड़ते दिखते हैं तो उनकी गोरी मैम बीवी भी बीच-बीच में विदेशी एक्सेंट के साथ ये लाइन बोल जाती हैं। फिल्म-फिल्म में ये दोष भी मनोरंजन की सीरिंज में भरकर दर्शकों को इंजेक्ट कर दिया जाता है।
आखिर में...
पंजाब के मिर्जा-साहिबा की प्रेम कहानी का जिक्र है, जो स्क्रिप्ट में पहली इनोवेटिव चीज है। चढ़ा दे रंग... अच्छे बोल और अच्छे म्यूजिक वाला गाना है। फिल्मांकन में इसके कुछ शॉट बेहद खूबसूरत लगते हैं। धर्मेंद्र के लिखे इस गाने में कोरियोग्रफी तो खास नहीं बन पाई पर बोल हैं...कड्ड के बोतल डब्बे चो, जट मुंह नूं जग लावे, होये डफली बज्जे आपो आप, ते नशा सुरम चढ़ जावे।
गजेंद्र सिंह भाटी