Tuesday, November 19, 2013

राजकुमारी कागुया: कथा हमारी सब राजकुमारियों की

अविरल. सरल. नम.
लकड़हारे की लोक कथा पर आधारित इसाओ ताकाहाता की लिखी, निर्देशित की जापानी एनिमेटेड फिल्म "राजकुमारी कागुया की कथा" का लंबा ट्रेलर। फिल्म 23 नवंबर को जापान में प्रदर्शित होगी।



The Story of Princess Kaguya (Kaguya-hime no Monogatari) is an upcoming Japanese animated film directed and co-written by Isao Takahata. Based on the folktale The Tale of the Bamboo Cutter, the film releases in Japan on 23 November.
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Friday, July 19, 2013

शोएब मंसूर की ‘बोल’ के बाद अब पाकिस्तान से आ रही है ‘जिंदा भाग’; बातें निर्देशकों मीनू गौड़ व फरज़ाद नबी से

 Q & A. .Meenu Gaur & Farjad Nabi, director duo of Pakistani film “Zinda Bhaag”.

Farjad Nabi and Meenu Gaur, during the shooting of "Zinda Bhaag."
भारी टैक्स और सेंसरशिप के बीच छटपटाती पाकिस्तान की फ़िल्म इंडस्ट्री में बनीं तो ‘जट्ट दे गंडासे’ जैसी ही फ़िल्में, जैसी भारतीय पंजाब में काफी वक्त तक बनती रहीं। इस बीच भारत में बैठकर हमें अगर पाकिस्तानी सिनेमा की ख़ैरियत मिलती रही तो सबीहा सुमर की फ़िल्म ‘ख़ामोश पानी’ (2003) से, शोएब मंसूर की ‘ख़ुदा के लिए’ (2007) से और मेहरीन जब्बार की ‘रामचंद पाकिस्तानी’ (2008) से। बेहद अच्छी फ़िल्में रहीं। दो साल पहले मंसूर की ही फ़िल्म ‘बोल’ भी आई। कोई भी दर्शक, चाहे वो मामूली समझ-बूझ वाला हो या बेहद बुद्धिजीवी, ऐसा नहीं था जिसे इस फ़िल्म ने भीतर तक नहीं छुआ। जब-जब ‘बोल’ की बात आज भी होती है, आदर के साथ होती है। पाकिस्तानी सिनेमा को वहां से आगे ले जाने की कोशिश करती एक और फ़िल्म तैयार है। नाम है ‘जिंदा भाग’। वहां के सिनेमा के लिए ये वही काम कर सकती है जो भारतीय सिनेमा के लिए ‘खोसला का घोंसला’ ने किया।

इस फ़िल्म को बनाया है प्रोड्यूसर मज़हर ज़ैदी और डायरेक्टर द्वय फरज़ाद नबी और मीनू गौड़ ने। अपनी ही मेहनत, सोच और छोटी-छोटी संघर्ष भरी कोशिशों से इन्होंने एक परिपूर्ण फ़िल्म बनाने का ख़्वाब देखा है। फ़िल्म की कहानी तीन पाकिस्तानी लड़कों की है जो अपनी-अपनी जिदंगी की परेशानियों को दूर करने और समृद्ध होने के ख़्वाबों को पाने के लिए ‘डंकी मार्ग’ यानी गैर-कानूनी इमिग्रेशन का रास्ता अख़्तियार करते हैं। बेहद सच्ची परिस्थितियों और सार्थक मनोरंजन के बीच ही फ़िल्म को रखने की कोशिश की गई है। नसीरूद्दीन शाह भी एक प्रमुख भूमिका कर रहे हैं। इसमें ‘बोल’ में दकियानूसी ख़्यालों वाले पिता की बेहतरीन भूमिका करने वाले मंजर सहबई भी थोड़ी देर के लिए नजर आएंगे। फ़िल्म में एक अभिनेत्री और तीन नए अभिनेता (आमना इल्यास, खुर्रम पतरास, सलमान अहमद ख़ान, जोएब) केंद्रीय भूमिकाओं में हैं। संगीत साहिर अली बग्गा ने दिया है जो पंजाबी फ़िल्म ‘विरसा’ का लोकप्रिय गीत “मैं तैनू समझावां की...” गा चुके हैं। ‘जिंदा भाग’ के गाने राहत फतेह अली ख़ान, आरिफ लोहार, अमानत अली और सलीमा जव्वाद ने गाए हैं।

प्रोड्यूसर मज़हर और फरज़ाद पहले जर्नलिस्ट रहे हैं, बाद में फ़िल्म निर्माण में आ गए। गंभीर मिजाज के फरज़ाद को उनकी डॉक्युमेंट्री ‘नुसरत इमारत से निकल गए हैं... लेकिन कब?’ (Nusrat has Left the Building... But When?) और ‘प्रोफेसर का यकीन कोई नहीं करता’ (No One Believes the Professor) के लिए जाना जाता है। इसे साउथ एशिया में कई पुरस्कार मिले। इसके अलावा उनके लिखे पंजाबी स्टेज प्ले ‘अन्ही चुन्नी दी टिक्की’ (Bread of Chaff & Husk) और ‘जीभो जानी दी कहानी’ (The Story of Jeebho Jani) हाल ही में प्रकाशित हुए हैं। वहीं मीनू भारत की ही रहने वाली हैं। मज़हर से शादी के बाद वह पांच साल से कराची और लंदन के बीच बसेरा करती हैं। वह जामिया मिल्लिया इस्लामिया, दिल्ली से पढ़ी हैं। 2010 में उन्होंने लंदन विश्वविद्यालय से फ़िल्म और मीडिया स्टडीज में पीएचडी की। इसके लिए उन्हें फेलिक्स स्कॉलरशिप और चार्ल्स वॉलेस स्कॉलरशिप प्राप्त हुई। वह एक पुरस्कृत डॉक्युमेंट्री फ़िल्म ‘पैराडाइज ऑन अ रिवर ऑफ हेल’ (Paradise On A River Of Hell) का निर्देशन कर चुकी हैं।

अपनी फ़िल्म को अगले महीने यानी अगस्त तक पाकिस्तान, पश्चिमी देशों और भारत में रिलीज करने की योजना बना रहे फरज़ाद और मीनू से बातचीत हुई:

Poster of the movie.
 Q.. जिंदा भाग का ‘आइडिया’ सबसे पहले कब आया? किस्सा क्या था?
फरज़ाद नबीः जब आप गैर-कानूनी अप्रवासियों (इमिग्रेशन) की कहानियां सुनते हैं तो फैक्ट और फिक्शन की लाइन मिटती चली जाती है। इन कहानियों में हीरोइज़्म और ट्रैजेडी आपस में उलझते होते हैं। जब हमने अपने दोस्तों से ऐसी कहानियां इकट्ठी कीं तो हमारे लिए सबसे बड़ा सवाल था कि वो कौन सी जरूरत, ख़्वाहिश या दबाव हैं जो हमारे मुल्क (भारत, पाकिस्तान, नेपाल, बांग्लादेश, श्रीलंका) के नौजवान लड़कों को गैर-कानूनी इमिग्रेशन या ‘डंकी का रास्ता’ चुनने पे मजबूर करते हैं। इसी सवाल के जवाब में ये स्क्रिप्ट लिखी गई।
मीनू गौड़ः हमारी फ़िल्म ‘जिंदा भाग’ एक साउथ एशिया फ़िल्म प्रोजेक्ट के साथ जुड़ी है, जिसकी थीम मैस्क्युलिनिटी है। जब हम इस फ़िल्म की रिसर्च पर निकले तो हमें एहसास हुआ कि अपनी जान पे खेल के, डंकी के रास्ते फॉरेन जाने को मर्दानगी का इज़हार माना जाता है। इस नज़रिए में जिदंगी को एक जुए के तौर पर बरता जाता है और नौजवान लड़के हर समय किसी शॉर्टकट या जैकपॉट की ताक में रहते हैं। रिसर्च के दौरान हमें इन लड़कों की खीझ का अंदाजा हुआ। आज के दौर में सक्सेस और सक्सेसफुल होने का प्रैशर एक तरफ और दूसरी तरफ ये एहसास कि हर जायज रास्ता आपके लिए बंद है, हमारी फ़िल्म इसके दरमियां की कहानी बयां करती है।

 Q.. उस कहानी को स्क्रिप्ट की शक्ल देने तक आप दोनों में क्या विमर्श चले? फ़िल्म और उसके संदेश के पीछे पूरी बहस क्या रही?
 मीनूः असल मैं स्टोरी और स्क्रिप्ट साथ-साथ डिवेलप हुए। कुछ राइटर्स के पास पहले स्टोरी होती है और कुछ को पता नहीं होता कि ये स्टोरी क्या दिशा लेगी। हमारे पास शुरू में कुछ सीन्स थे, पूरे-पूरे, डायलॉग्स समेत। हमें फिर बाकी सीन तक पहुंचने का रास्ता बनाना पड़ता। आई थिंक, ये तरीका ज्यादा मुश्किल है और अगली बार हमने ठान ली कि पहले कहानी और फिर सीन और डायलॉग्स की डीटेल। लेकिन हमारे इस तरीके का फायदा ये था कि हमें हर डायलॉग और सीन के पीछे बहुत खास मोटिवेशंस सोचने पड़ते। शायद ज्यादा स्पॉनटेनियस भी था ये प्रोसेस। एक राइटर के तौर पर बहुत संतुष्टि होती है जब आप ये नहीं जानते कि आपके कैरेक्टर्स अब क्या करने लगेंगे। इस प्रोसेस में ज्यादा एक्साइटमेंट भी होती है और ये ज्यादा तकलीफ भरा भी होता है।
फरज़ादः मैसेज पर ये स्पष्टता थी कि फ़िल्म की आवाज असली होनी चाहिए, नक़ली नहीं। कुछ कैरेक्टर्स मुक़म्मल तौर पर रीराइट हुए क्योंकि उनकी आवाज स्वाभाविक नहीं थी। फिर स्ट्रक्चर के ऊपर बहुत मेहनत हुई क्योंकि इस फ़िल्म के ढांचे में एक बहुत अनोखा तत्व है जो देखिएगा, अभी ज्यादा नहीं कह सकता।

 Q.. क्या ऐसा भी है कि फरज़ाद ने कहानी के तीन लड़कों की हरकतें, अदाएं और सोच बचपन या जवानी के असल दोस्तों से पाई? और कहानी की बड़बोली हीरोइन के चारित्रिक गुण मीनू ने अपनी किसी सहेली में देखे और याद रखे?
फरज़ादः ऐसा सख़्त विभाजन तो बिल्कुल नहीं था। तमाम किरदार एक मुसलसल बहाव का हिस्सा हैं। कभी मुझे कोई आइडिया आता तो मीनू उसको शेप करतीं, और कभी मीनू के आइडिया को मैं शक्ल देता। अंत में ये किसी को याद भी नहीं रहता कि आइडिया किसका था और लाइन्स किसकी। ये हमारी ताकत है।
मीनूः हर राइटर अपने आस-पास के लोगों से प्रेरित किरदार और व्यक्तित्व लिखते हैं। लेकिन लिखने के प्रोसेस के दौरान वो किरदार इतने तब्दील हो जाते हैं कि फिर पहचाने नहीं जाते। एक कैरेक्टर सिर्फ एक रियल पर्सन से नहीं बल्कि सैकड़ों लोगों को मिला के बनता है। तो रुबीना के किरदार के डीटेल्स एक से ज्यादा लोगों से प्रेरित हैं। जब कल्पना उस प्रेरणा पे काम शुरू करती है तो ओरिजिनल प्रेरणा बहुत पीछे छूटती जाती है।

 Q.. नसीरूद्दीन शाह को कैसे प्रस्ताव भेजा? क्या उन्हें लेने से सबका ध्यान सिर्फ उन्हीं पर केंद्रित होकर नहीं रह जाएगा?
मीनूः जब हम ‘पहलवान’ का किरदार लिख रहे थे तो हमें पता था कि इस रोल को सिर्फ और सिर्फ एक बहुत पहुंचे हुए एक्टर अदा कर सकते हैं। ये एक मुश्किल रोल था। जब हम सोचने लगे तो बस बार-बार नसीरूद्दीन शाह साहब का ही जिक्र होता। फिर हमने तय किया कि हमें अपनी स्क्रिप्ट उन्हें भेजनी चाहिए। हमें उम्मीद नहीं थी कि कोई जवाब आएगा। मैं आज तक हैरान हूं कि नसीर साहब ने एक डाक में आई हुई स्क्रिप्ट पढ़ी।
फरज़ादः इसमें हमारे प्रोड्यूसर मज़हर ज़ैदी का भी बड़ा रोल है। जब हमने उन्हें कहा कि हम इस रोल में नसीर साहब को देखते हैं तो उन्होंने हमें हतोत्साहित करने के बजाय कहीं से नसीर साहब का पता निकाला और स्क्रिप्ट भेजी। जब नसीर साहब ने स्क्रिप्ट पढ़ी तो बहुत प्रेरित हुए और कहा कि “ये मैं जरूर करूंगा क्योंकि ये रोल लाखों में एक है”। सेट पर वो सबको साथ लेकर चले जिससे हमारे नए एक्टर्स का आत्म-विश्वास बहुत बढ़ा। फ़िल्म देखते हुए बिल्कुल भी ध्यान इस तरफ नहीं जाता कि नसीर साहब एक स्टार हैं।

 Q.. “मैं आपको रसगुल्ले की मिठास से ज्यादा, इमली की खटास से ज्यादा और पाकिस्तान में करप्शन से ज्यादा प्यार करती हूं,” …ऐसे डायलॉग का जन्म कैसे हुआ? कितनी आजादी से लिख पाए?
फरज़ादः जिसको कहते हैं न, असली घटनाओं से प्रेरित, बस इस डायलॉग की उत्पत्ति भी कुछ ऐसी ही रही। जो पहले दीवारों की पुताई से लिखे होते थे, अब टेक्स्ट मैसेज हो गए हैं।
मीनूः हमारी ये कोशिश थी कि हम उस भाषा में लिखें जो कि लाहौर के किसी मुहल्ले की एक पीढ़ी की नेचुरल ज़बान लगे, ऑथेंटिक लगे। इसके लिए हमने अपने एक्टर्स के साथ बहुत वर्कशॉप कीं, इम्प्रोवाइजेशन किए। इसी वजह से हमने ये फैसला भी लिया कि हम प्रफेशनल एक्टर्स को कास्ट नहीं करेंगे, मेन लीड में ऐसे लड़कों को कास्ट करेंगे जो उसी मुहल्ले से हों और उसी पर्सनैलिटी के हों, जिस तरह के हमारे तीन लीड कैरेक्टर हैं। फिर हमने बहुत ऑडिशन किया और सलेक्शन के बाद दो महीने तक वर्कशॉप और रिहर्सल्स भी किए। इनमें एक वर्कशॉप नसीर साहब ने भी करवाई। कुल-मिलाकर हम ये कहानी उसी तरह और उसी अंतरंगता के साथ परदे पर लाना चाहते थे जिस तरह हमने खुद उसे देखा... एक दोस्त, कजिन या पड़ोसी की कहानी।

 Q.. अपनी फ़िल्म के लिए आप लोग कैसा संगीत चाहते थे? उसके लिए साहिर अली बग्गा पहली पसंद कैसे बने?
फरज़ादः ‘जिंदा भाग’ का संगीत परिस्थितिजन्य है और कहानी के नैरेटिव को आगे लेकर बढ़ता है। हमने हर गाने की सिचुएशन विस्तार से सोची हुई थी और हमारे पास काफी संदर्भ भी थे कि किस किस्म का साउंड चाहते हैं। ये बग्गा का कमाल है कि उसने स्क्रिप्ट के मुताबिक म्यूजिक बनाया और सिंगर्स चुने।
मीनूः फरज़ाद और मैं दोनों ही पुरानी फ़िल्मों और गानों के फैन हैं। और फिर एक जमाना था जब लॉलीवुड एक फलती-फूलती इंडस्ट्री थी। मैडम नूरजहां और मेहदी हसन जैसे प्लेबैक सिंगर थे। हम दोनों की सोच है कि फिल्मी गानों का जो कायापलट हुआ है हाल ही के सालों में, वो अकल्पनीय है। गानों को ‘आइटम’ की तरह ट्रीट किया जाता है। फ़िल्म कोई वैरायटी शो तो नहीं कि उसमें आइटम हों। पुरानी फ़िल्मों के गाने उन हालातों या इमोशंस को जाहिर करते थे जिनको आप डायलॉग के जरिए नहीं कह सकते थे। जैसे कि एक निचले या गरीब वर्ग का इंसान अमीरों की ओर तंज करे, या कोई आध्यात्मिक असमंजस (spiritual dilemma) हो, या प्यार की बात हो। हम फिल्मी गानों के उस दौर को रेफरेंस रख कर चलना चाहते थे। बग्गा का ये कमाल है कि वो इस सोच को और भी आगे तक लेकर गए। उन्होंने पूरी तरह लाइव इंस्ट्रूमेंट्स से हमारी फ़िल्म का म्यूजिक तैयार किया है।

 Q.. पोस्ट-प्रोडक्शन इंडिया में कहां किया? अब जब बेहद कम टेक्निकल संसाधनों में भी एडिटिंग, डबिंग, साउंड मिक्सिंग और पोस्ट-प्रोडक्शन हो जाता है, फिर इस काम के लिए पाकिस्तान क्या उपयुक्त स्थान नहीं था? इससे पोस्ट-प्रोडक्शन सुविधाओं को भी वहां बढ़ावा मिलता।
फरज़ादः कुछ पोस्ट-प्रोडक्शन मुंबई में हुआ और कुछ कराची में। इनमें से कई सुविधाएं पाकिस्तान में उपलब्ध नहीं हैं। आमतौर पर डायरेक्टर्स बैंकॉक जाते हैं, हमने इंडिया इसलिए चुना क्योंकि वो सस्ता विकल्प था और हमारी ज़बान और सिनेमैटिक परंपरा एक हैं, तो साथ काम करना ज्यादा आसान होता है और मजा भी ज्यादा आता है।

 Q.. इंडिया में ‘बैंड बाजा बारात’, ‘विकी डोनर’ और ‘मेरे डैड की मारूति’ जैसी फ़िल्में बनी हैं। उन जैसी ही गति, शोख़पन, चटख़पन, गली-मुहल्ले वाले डायलॉग और चुस्त किरदार ‘जिंदा भाग’ में भी हैं। आपको क्या लगता है, मौजूदा दौर के सिनेमा में ये विशेषताएं और गति तमाम मुल्कों में एक साथ क्यों नज़र आ रही हैं?
फरज़ादः चुस्त और सुस्त में थोड़ा ही फर्क है और वो है कंटेंट का। अंत में तो आपको कहानी सुनानी है और अगर कहानी कमजोर है तो जितनी मर्जी चाहें चुस्ती कर लें आपकी फ़िल्म सुस्त ही रहेगी।
मीनूः शायद इन सब मुल्क में यंगर जेनरेशन फ़िल्म बना रही है और वो सब ऐसी कहानियां कहना चाहते हैं जिनका रिश्ता उनके खुद की रोजमर्रा की जिंदगी से हो?

 Q.. बचपन में कौन सी फ़िल्में आपने सबसे पहले देखी थीं और क्या तब जरा भी लगा कि ये सम्मोहन आपकी जिंदगी का अहम हिस्सा बनेगा? छुटपन में किन डायरेक्टर्स की फ़िल्में पसंद थीं, कौन सी फ़िल्में पसंद थीं?
फरज़ादः सबसे पहले तो सिनेमा की प्रेरणा मुझे म्यूजिक से मिली जो आज भी मिलती है। जहां तक फ़िल्ममेकर्स का ताल्लुक है, किसी एक का नाम लेना मुश्किल है। एक जमाने में जर्मन सिनेमा से मैं बहुत प्रेरित था, फिर ईरानी फ़िल्मों का दौर आया। क्यूबन सिनेमा बहुत कम देखा है लेकिन हमेशा कुछ नया होता है उसमें। आजकल फिर पुरानी पाकिस्तानी फ़िल्मों की तरफ वापसी है। तो ये सफर जारी रहता है। लेकिन इन सब प्रेरणाओं को लेकर हमें अपनी कहानियां अपने तरीके से कहनी हैं। अगर सब टैरेंटीनो, कोपोला या तारकोवस्की बनना चाहेंगे तो फिर क्या बनेगा। जिस तरह बॉलीवुड और हॉलीवुड की अलग-अलग जॉनर वाली फिल्मों से समान उम्मीदें होती हैं, उसी तरह यूरोपियन आर्ट सिनेमा का भी एक तय ढांचा या टेम्पलेट है। इस साल मैं बर्लिनैल गया तो हैरान था कि कितनी ज्यादा फ़िल्में अलग-अलग मुल्कों से होने के बावजूद भी एक हूबहू टेम्पलेट पे बनीं थीं। ये फंदे हैं जिनसे बचना एक फ़िल्ममेकर का संघर्ष है।
मीनूः हमारे घर में बहुत ज्यादा फ़िल्में देखी जाती थीं। बॉम्बे की फ़िल्में भीं और आर्ट फ़िल्म भी। शुरू से ही काफी थियेटर वगैरह से जुड़ाव रहा। हाई स्कूल के टाइम से ही काफी वर्ल्ड सिनेमा देखना शुरू कर दिया था लेकिन कॉलेज में ये और सीरियस पैशन बन गया। वहां फ़िल्म क्लब मैं हम हर नए डायरेक्टर को आज़माते थे। सैली पॉटर की ‘ऑरलैंडो’ (Orlando, 1992) जब देखी तब याद पड़ता है कि स्क्रीनिंग के बाद ये फीलिंग थी कि काश ये फ़िल्म बनाने में मेरा भी कोई छोटा-मोटा हाथ होता। सिनेमा डायरेक्टर्स तो बहुत सारे हैं जिनकी फ़िल्में इंस्पायर करती हैं। कई ऐसे भी हैं जिनकी फ़िल्में बहुत ज्यादा पसंद हैं और मैं जब फ़िल्म पढ़ती हूं तो उनको ही पढ़ना पसंद करती हूं जैसे कि आजकल हेनिके साहब (Michael Haneke) की फ़िल्में... लेकिन उसका ये मतलब नहीं कि मैं उन्हीं की तरह की फ़िल्में बनाना चाहती हूं।

Mazhar Zaidi, producer of the movie.
 Q.. आप दोनों में जब रचनात्मक मतभेद (creative differences) होते हैं तो कैसे सुलझाते हैं? दूसरे शब्दों में पूछूं तो जब दो लोग एक क्रिएटिव चीज को बनाने में साथ होते हैं तो तालमेल बनाए रखने का फंडा क्या है?
फरज़ादः क्रिएटिव डिफरेंस की टर्म का उस वक्त इस्तेमाल होता है जब आपके अहंकार का मसला बन जाए कोई बात। असल क्रिएटिविटी में ईगो की कोई जगह नहीं होती। ये बहुत प्रैक्टिकल और रियल प्रोसेस है। जब आप इस प्रोसेस में होते हैं तो एक एनर्जी आपको ड्राइव कर रही होती है और आप एक ही विजन की तरफ जा रहे होते हैं। फिर उसमें चाहे जो भी डिसकशन हो उसका नतीजा पॉजिटिव ही होता है। मीनू के साथ भी काम कुछ इस बेसिस पर होता है इसलिए हम बहुत डीटेल में हर चीज को तोड़कर दोबारा जोड़ सकते हैं। और जैसे कि मैंने पहले कहा, हम एक-दूसरे के आइडियाज को एक कदम आगे ले जाते हैं, पूरा करते हैं।
मीनूः मज़हर (ज़ैदी) और फरज़ाद पहले से ही साथ काम करते थे। उन्होंने मटीला रिकॉर्ड्स साथ शुरू की और काफी आर्टिस्ट्स को रिकॉर्ड किया। हम सब साथ मिलके अपने आइडियाज डिसकस किया करते थे और फिर हमने कुछ फ़िल्में साथ शुरू कर दीं। फ़िल्म तो एक साथ काम करने वाली चीज ही होती है। डायरेक्टर उसका एक छोटा पुर्ज़ा है। ट्रफो (Francois Traffaut) की डे फॉर नाइट (Day for Night, 1973) या फैलिनी (Federico Fellini) की इंटरविस्ता (Intervista, 1987) देखें, मेरी ये बात सही तौर पर जाहिर हो जाएगी कि आप कितने ही बड़े ऑटर क्यों न हों, फ़िल्म मेकिंग का मूल तो सहभागिता ही होता है। ये एक तथ्य है कि कई हजार चीजें आपकी फ़िल्म में, सेट पर मौजूद दूसरे लोगों के छोटे-छोटे प्रयासों से, होती हैं। इसलिए फरज़ाद और मैं बहुत आसानी से साथ काम कर लेते हैं क्योंकि हम हमारे आइडियाज, स्क्रिप्ट या फ़िल्म को निजी संपत्ति की तरह नहीं लेते।

 Q.. जिंदगी का लक्ष्य क्या है?
मीनूः अपनी फ़िल्म स्क्रीन तक पहुंचाना और उसके बाद अपनी दूसरी फ़िल्म बनाना!

“Zinda Bhaag (2013)” - Watch the trailer here:

Nusrat has Left the Building...But When?” - Watch Farjad Nabi's documentary here:

“Paradise On A River Of Hell” - Watch Meenu Gaur's documentary here:

Slated to release in August, 2013 ‘Zinda Bhaag’ is a Pakistani feature film directed by Meenu Gaur and Farjad Nabi. Meenu was born in India. She did her PhD in Film and Media Studies from the University of London in 2010. She received the Felix scholarship and Charles Wallace Scholarship for the same. She is also the director of award winning documentary film, 'Paradise on a River of Hell'. After her marriage with Mazhar Zaidi, producer of Zinda Bhaag, Meenu now lives in London and Karachi. Farjad Nabi has directed documentaries including ‘Nusrat has Left the Building... But When?’ and ‘No One Believes the Professor’, which won awards at Film South Asia. He has also documented the work of Lahore film industry’s last poster artist in The Final Touch. His Punjabi stage play ‘Annhi Chunni di Tikki’ (Bread of Chaff & Husk) and ‘Jeebho Jani di Kahani’ (The Story of Jeebho Jani) has been recently published.

For updates here is the Facebook page of the movie.

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Wednesday, July 17, 2013

मानो मत, जानोः “कित्ते मिल वे माही” ...अभूतपूर्व पंजाब

हॉली और बॉली वुडों ने दावा किया कि दुनिया बस वही है जो उन्होंने दिखाई... बहुत बड़ा झूठ बोला, क्योंकि दुनिया तो वह नहीं है। दुनिया का सच तो हिलाने, हैराने, हड़बड़ाने और होश में लाने वाला है, और उसे दस्तावेज़ किया तो सिर्फ डॉक्युमेंट्री फ़िल्मों ने। “मानो मत, जानो” ऐसी ही एक श्रंखला है जिसमें भारत और विश्व की अऩूठे धरातल वाली अविश्वसनीय और परिवर्तनकारी डॉक्युमेंट्रीज पढ़ व देख सकेंगे।

 Documentary. .Where the twain shall meet (2005), by Ajay Bhardwaj.

“ जो लड़ना नहीं जाणदे
  जो लड़ना नहीं चौंदे ...
  ... ओ ग़ुलाम बणा लये जांदे ने ”
           - लाल सिंह दिल, क्रांतिकारी कवि और दलित
              जीवन के बाद के वर्षों में इस्लाम अपना लिया

Lal Singh Dil, in a still.
उस दुपहरी में अपने पड़ोसी के साथ ऐसे पार्क में बैठे लाल सिंह दिल, जहां कोई न आता हो। जरा नशे में, पर होश वालों से लाख होश में। वहां का सूखापन और गर्मी जलाने लगती है, उन्हें नहीं मुझ दर्शक को। वो तपन महसूस करवा जाना अजय भारद्वाज की इस फ़िल्म की कलात्मक सफलता है, कथ्यात्मक सफलता है और जितनी किस्म की भी सफलता हो सकती है, है। इस डॉक्युमेंट्री को मैं कभी भूल नहीं पाऊंगा। कभी नहीं। लाल सिंह दिल जैसे साक्षात्कारदेयी और उनके उस दोस्त और पड़ोसी शिव जैसा साक्षात्कारकर्ता मैंने कभी नहीं देखा। विश्व सिनेमा के सबसे प्रभावी साक्षात्कार दृश्यों में वो एक है। अभिनव, अद्भुत, दुर्लभ।

लाल सिंह के विचार आक्रामक हैं। वो देश के उन तमाम समझदार लोगों के प्रतिनिधि हैं जो इसी समाज में हमारे मुहल्लों-गलियों में रहते हैं, पर चूंकि वैचारिक समझ का स्तर सत्य के बेहद करीब होने की वजह से उनका रहन-सहन और एकाकीपन समाज के लोगों की नासमझ नजरों को चुभता है, तो हम एक बच्चे के तौर पर या व्यस्क के तौर पर उनके करीब तक कभी नहीं जा पाते। कभी उनसे पूछ नहीं पाते कि ये दुनिया असल में क्या है? हमारे इस संसार में आने का व्यापक उद्देश्य क्या है? हमारे समाज ऐसे क्यों हैं? ये समाज की प्रतिष्ठासूचक इबारतें कैसे तोड़ी या मोड़ी जा सकती हैं? कैसे इंसान और मानवीय बनाए जा सकते हैं? काश, हम छुटपन में ऐसे किसी लाल सिंह दिल के पास बैठते तो एक बेहतर इंसान होते। समाजी भेदभाव के भविष्य पर दार्शनिक और दमपुख़्त यकीन भरी नजरें लिए एक मौके पर वे कहते भी है न,

“ जद बोहत सारे सूरज मर जाणगे
 तां तुहाडा जुग आवेगा...” 
  When many suns die
  Your era will dawn...

‘कित्ते मिल वे माही’ हमें उस पंजाब में ले जाती है, जहां पहले कोई न लेकर गया। पंजाबी फ़िल्मों, उनके ब्रैंडेड नायकों, यो यो गायकों और पंजाबियों की समृद्ध-मनोरंजनकारी राष्ट्रीय छवि ने हमेशा उस पंजाब को लोगों की नजरों से दूर रखा। जाहिर है उनके लिए वो पंजाब अस्तित्व ही नहीं रखता। सन् 47 के रक्तरंजित बंटवारे के बाद इस पंजाब में न के बराबर मुस्लिम पंजाबी बचे। उनके पीछे रह गईं तो बस सूफी संतों की समाधियां। डॉक्युमेंट्री बताती है कि ये सूफी फकीरों की मजारें आज भी फल-फूल रही हैं। खासतौर पर समाजी बराबरी में नीचे समझे जाने वाले भूमिहीन दलितों के बीच, जो आबादी का 30 फीसदी हैं। जैसे, बी.एस. बल्ली कव्वाल पासलेवाले पहली पीढ़ी के कव्वाल हैं। उनके पिता मजदूरी करते थे और इन्होंने उस सूफी परंपरा को संभाल लिया। सूफी और दलितों का ये मेल आश्चर्य देता है। और इसे सिर्फ धार्मिक बदलाव नहीं कहा जा सकता, ये सामाजिक जागृति का भी संकेत है। महिला-पुरुष का भेद भी यहां मिटता है। जैसे, हम सोफीपिंड गांव में संत प्रीतम दास की मजार देखते हैं, जो दुनिया कूच करने से पहले अपने यहां झाड़ू निकालने वाली अनुयायी चन्नी को गद्दीनशीं कर चन्नी शाह बना गए।

फ़िल्म का महत्वपूर्ण हिस्सा 1913 से 1947 तक गदर आंदोलन के नेता रहे बाबा भगत सिंह बिल्गा भी हैं। उन्हें देखना विरला अनुभव देता है। वे और लाल सिंह दिल फ़िल्म बनने के चार साल बाद 2009 में चल बसे। ऐसे में जो हम देख रहे हैं उसका महत्व अगले हजार सालों के लिए बढ़ जाता है। डॉक्युमेंट्री के आखिर में लाल सिंह ये मार्मिक और अत्यधिक समझदारी भरी पंक्तियां सुनाते हैं...

“ सामान, जद मेरे बच्चेयां नूं सामान मिल गया होऊ
 तां उनाने की की उसारेया होवेगा…
 ... बाग़
 ... फसलां
 ... कमालां चो कमाल पैदा कीता होवेगा उनाने
 जद मेरे बच्चेयां नूं समान मिल गया होऊ
 जद मेरे बच्चेयां नूं समान मिल गया होऊ ”

(कृपया ajayunmukt@gmail.com पर संपर्क करके अजय भारद्वाज से उनकी 'पंजाब त्रयी' की डीवीडी जरूर मंगवाएं, अपनी विषय-वस्तु के लिहाज से वो अमूल्य है)

“Where The Twain Shall Meet” - Watch an extended trailer here:

Punjab was partitioned on religious lines amidst widespread bloodshed in 1947, and today there are hardly any Punjabi Muslims left in the Indian Punjab. Yet, the Sufi shrines in the Indian part of Punjab continue to thrive, particularly among so-called ‘low’ caste Dalits that constitutes more than 30% of its population. Kitte Mil Ve Mahi explores for the first time this unique bond between Dalits and Sufism in India. In doing so it unfolds a spiritual universe that is both healing and emancipatory. Journeying through the Doaba region of Punjab dotted with shrines of sufi saints and mystics a window opens onto the aspirations of Dalits to carve out their own space. This quest gives birth to ‘little traditions’ that are deeply spiritual as they are intensely political.

Enter an unacknowledged world of Sufism where Dalits worship and tend to the Sufi Shrines. Listen to B.S. Balli Qawwal Paslewale – a first generation Qawwal from this tradition. Join a fascinating dialogue with Lal Singh Dil – radical poet, Dalit, convert to Islam. A living legend of the Gadar movement, Bhagat Singh Bilga, affirms the new Dalit consciousness. The interplay of voices mosaic that is Kitte Mil Ver Mahi (where the twain shall meet), while contending the dominant perception of Punjab’s heritage, lyrically hint at the triple marginalisation of Dalits: economic, amidst the agricultural boom that is the modern Punjab; religious, in the contesting ground of its ‘major’ faiths; and ideological, in the intellectual construction of their identity.

(Users in India and International institutions, can contact Ajay Bhardwaj at ajayunmukt@gmail.com for the DVDs (English subtitles). You can join his facebook page to keep updated of his documentary screenings in a city near you.)

Monday, July 15, 2013

मानो मत, जानोः “एक मिनट का मौन” ...बलिदानों के लिए

हॉली और बॉली वुडों ने दावा किया कि दुनिया बस वही है जो उन्होंने दिखाई... बहुत बड़ा झूठ बोला, क्योंकि दुनिया तो वह नहीं है। दुनिया का सच तो हिलाने, हैराने, हड़बड़ाने और होश में लाने वाला है, और उसे दस्तावेज़ किया तो सिर्फ डॉक्युमेंट्री फिल्मों ने। “मानो मत, जानो” ऐसी ही एक श्रंखला है जिसमें भारत और विश्व की अऩूठे धरातल वाली अविश्वसनीय और परिवर्तनकारी डॉक्युमेंट्रीज पढ़ व देख सकेंगे।

 Documentary...A Minute of Silence (1997), by Ajay Bhardwaj.

Chandrashekhar in a still from the film.
1997 में 31 मार्च की शाम, बिहार के सीवान ज़िले में नुक्कड़ सभाएं कर रहे चंद्रशेखर प्रसाद को जे.पी. चौक पर गोली मार दी गई। वह जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय से पढ़े युवा छात्र नेता थे। अपने गृह ज़िले लौटे थे क्योंकि बेहतर दुनिया बनाने का जो ज्ञान ऊंची-ऊंची बातों और मोटी-मोटी किताबों से लिया था, उसे फैंसी कैंपस की बजाय बुनियादी स्तर पर ही जाकर उपजाना था। सीवान के खौफज़दा माहौल में जहां सांसद शहाबुद्दीन का आंतक था, चंद्रशेखर ने आवाज बुलंद की थी। स्थानीय स्तर पर इतने अनूठे, तार्किक और खुले विचारों के सिर्फ दो ही नतीजे निकलने थे। पहला था बदलाव हो जाना, राजनीति में अपराधीकरण खत्म हो जाना और दूसरा था मृत्यु।

इस बार भी हत्यारा उतना ही अलोकतांत्रिक और अपराधी था जितना कि 1989 में पहली जनवरी को लेखक और रंगकर्मी सफ़दर हाशमी की नुक्कड़ नाटक ‘हल्ला बोल’ के बीच हत्या करने वाला स्थानीय कॉन्ग्रेसी नेता। आज़ाद भारत में इन दो युवा कार्यकर्ताओं की हत्या ने भय के माहौल को और भी बढ़ाया है। लेकिन हौंसला आया है तो उसके बाद देश में हुए व्यापक प्रदर्शनों से। जिनके वो सबसे करीबी थे, वो ही आंसू पौंछकर सबसे आगे डटे थे। सफ़दर की मौत के दो दिन बाद उनकी पत्नी मॉलोयश्री ‘जन नाट्य मंच’ के साथ उसी जगह पर वापस लौटीं और उस अधूरे नुक्कड़ नाटक को पूरा किया। उसी तरह चंद्रशेखर की बूढ़ी मां ने अविश्वसनीय हौंसला दिखाते हुए बिना कमजोर पड़े, दोषियों को सरेआम फांसी देने की मांग की। हर रैली में वह दौड़-दौड़कर आगे बढ़ीं।

चंद्रशेखर प्रसाद की हत्या के बाद दिल्ली, सीवान और देश में बने गुस्से के माहौल को निर्देशक अजय भारद्वाज की ये डॉक्युमेंट्री बेहतर समझ से दस्तावेज़ करती है। स्वर सिर्फ शोक के नहीं होते बल्कि उस बलिदान की सम्मानजनक प्रतिक्रिया वाले भी होते हैं। फ़िल्म के बीच-बीच में बहुत बार खुद चंद्रशेखर को सुनने का मौका मिलता है, उनके व्यक्तित्व और विचारों को समझने का मौका मिलता है जो कि दीर्घकाल में न जाने कितने युवाओं के काम आ सकता है। फ़िल्म के शुरू में चंद्रशेखर और अन्य गांव वालों के शवों वाले दृश्य भौचक्का करते हैं, शहरों में बैठों का मानवीय समाज में रहने का भरम टूटता है। ‘एक मिनट का मौन’ देखना अपने असल समाजों के प्रति जागरूक होना है। अजय ने बनाकर कर्तव्य निभाया है, हमें सीखकर, लागू करके इस्तेमाल को सार्थक करना है।

“A Minute of Silence - Watch the full documentary here:

It was a late afternoon in Siwan, a small town in the Indian state of Bihar. A young leader, after already having addressed four street corner meetings, is on his way to JP Chowk to address another, quite unmindful of his apparently impossible dreams in a very cynical present. He is sighted by some associates of a local Member of Parliament, a notorious mafia Don. The young leader is Chandrashekhar Prasad. Seconds later he is killed.

The news spreads. Reaches Jawaharlal Nehru University in Delhi. The premier institute of whose students’ union Chandrashekhar was twice the president. There is an anger, a fury which refuses to subside…The Government refuses to respond. The apathy and ignoble silence so uniquely its hallmark and preserve. This apathy, this grief, this indifference, this hurt. This is what ‘Ek Minute Ka Maun’ sets to establish. Piecing together scenes from the agitation and combining with it the portrait of Chandrashekhar. The man and the leader, the rebel and the dreamer. An unwitting pawn, but a willing activist, caught in the spidery web of criminal – political nexus. But dreams do not die after Chandu. They live on, still hopeful, still optimistic. Very much like him.

(Users in India and International institutions, can contact Ajay Bhardwaj at ajayunmukt@gmail.com for the DVDs (English subtitles). You can join his facebook page to keep updated of his documentary screenings in a city near you.)

Saturday, July 13, 2013

मेरा प्रोसेस बस इतना है कि पहले कुछ सोचता हूं और जब किसी चीज के प्रति एक्साइटेड होने लगता हूं तो अपने आप एक अनुशासन आ जाता हैः रितेश बत्रा

 Q & A. .Ritesh Batra, film director (Dabba/The Lunchbox).
 
Irfan Khan, in a Still from 'Dabba' (The Lunchbox).
‘डब्बा’ या ‘द लंचबॉक्स’ के बारे में सुना है?
… झलक देखें यहां, यहां भी

इस साल कान अंतरराष्ट्रीय फ़िल्म महोत्सव-2013 में इस फ़िल्म को बड़ी सराहना मिली है। वहां इसे क्रिटिक्स वीक में दिखाया गया। रॉटरडैम अंतरराष्ट्रीय फ़िल्म महोत्सव के सिनेमार्ट-2012 में इसे ऑनरेबल जूरी मेंशन दिया गया। मुंबई और न्यू यॉर्क में रहने वाले फ़िल्म लेखक और निर्देशक रितेश बत्रा की ये पहली फीचर फ़िल्म है। उन्होंने इससे पहले तीन पुरस्कृत लघु फ़िल्में बनाईं हैं। ये हैं ‘द मॉर्निंग रिचुअल’, ‘ग़रीब नवाज की टैक्सी’ और ‘कैफे रेग्युलर, कायरो’। दो को साक्षात्कार के अंत में देख सकते हैं। 2009 में उनकी फ़िल्म पटकथा ‘द स्टोरी ऑफ राम’ को सनडांस राइटर्स एंड डायरेक्टर्स लैब में चुना गया। उन्हें सनडांस टाइम वॉर्नर स्टोरीटेलिंग फैलो और एननबर्ग फैलो बनने का गौरव हासिल हुआ।

अब तक दुनिया की 27 टैरेटरी में प्रदर्शन के लिए खरीदी जा चुकी ‘डब्बा’ का निर्माण 15 भारतीय और विदेशी निर्माणकर्ताओं ने मिलकर किया है। भारत से सिख्या एंटरटेनमेंट, डीएआर मोशन पिक्चर्स और नेशनल फ़िल्म डिवेलपमेंट कॉरपोरेशन (एनएफडीसी) और बाहर एएसएपी फिल्म्स (फ्रांस), रोहफ़िल्म (जर्मनी), ऑस्कर जीत चुके फ़िल्मकार दानिस तानोविक व फ्रांस सरकार ने इसमें वित्त लगाया है। ‘पैरानॉर्मल एक्टिविटी-2’ (2010) में सिनेमैटोग्राफर रह चुके माइकल सिमोन्स ने ‘डब्बा’ का छायांकन किया है।

कहानी बेहद सरल और महीन है। ईला (निमरत कौर) एक मध्यमवर्गीय गृहिणी है। भावहीन पति के दिल तक पेट के रस्ते पहुंचने की कोशिश में वह खास लंच बनाकर भेजती है। पर होता ये है कि वो डब्बा पहुंचता है साजन फर्नांडिस (इरफान खान) के पास। साजन विधुर है, क्लेम्स डिपार्टमेंट में काम करता है, रिटायर होने वाला है। मुंबई ने और जिंदगी ने उससे सपने और अपने छीने हैं इसलिए वह जीवन से ही ख़फा सा है। अपनी जमीन पर खेलते बच्चों को भगाता रहता है और शून्य में रहता है। जब ईला जानती है कि डब्बा पति के पास नहीं पहुंचा तो वह अगले दिन खाली डब्बे में एक पर्ची लिखकर भेजती है। जवाब आता है। यहां से ईला और साजन अपने भावों का भार लिख-लिख कर उतारते हैं। इन दोनों के अलावा कहानी में असलम शेख़ (नवाजुद्दीन सिद्दीकी) भी है। वह खुशमिजाज और ढेरों सपने देखने वाला बंदा है। रिटायर होने के बाद साजन फर्नांडिस की जगह लेने वाला है इसलिए उनसे काम सीख रहा है।

‘डब्बा’ हमारे दौर की ऐसी फ़िल्म है जिसे तमाम महाकाय फ़िल्मों के बीच पूरे महत्व के साथ खींचकर देखा जाना चाहिए। अंतरराष्ट्रीय निर्माताओं के साथ भागीदारी के लिहाज से ‘डब्बा’ नई शुरुआत है। उच्च गुणवत्ता वाली एक बेहद सरल स्क्रिप्ट होने के लिहाज से भी ये विशेष है। भारतीय फीचर फ़िल्मों के प्रति विश्व के नजरिए को बदलने में जो कोशिश बीते एक-दो साल में कुछ फ़िल्मों ने की है, उसे रितेश की ‘डब्बा’ मीलों आगे ले जाएगी। पूरे विश्व सहित फ़िल्म भारत में भी जल्द ही प्रदर्शित होगी। जब भी हो जरूर देखें, अन्यथा आज नहीं तो 15-20 साल बाद, देरी से, खोजेंगे जरूर।

रितेश बत्रा से तुरत-फुरत में बातचीत हुई। बीते दिनों में जितने भी फ़िल्म विधा के लोगों से बातचीत हुई है उनमें ये पहले ऐसे रहे जिनका पूरा का पूरा ध्यान स्क्रिप्ट पर रहता है, फ़िल्म तकनीक पर या भारतीय, गैर-भारतीय फ़िल्मकारों की शैली के उन पर असर पर आता भी है तो बहुत बाद में, अन्यथा नहीं आता। प्रस्तुत हैः

फैमिली कहां से है आपकी? आपका जन्म कहां हुआ?
बॉम्बे में ही पैदा हुआ हूं, यहीं बड़ा हुआ हूं। मेरे फादर मर्चेंट नेवी में थे, मां योग टीचर हैं। बांद्रा में रहता हूं। बंटवारे के वक्त लाहौर, मुल्तान से मेरे दादा-दादी और नाना-नानी आए थे।

फ़िल्मों की सबसे पहली यादें बचपन की सी हैं? कौन सी देखी? लगा था कि फ़िल्मकार बनेंगे?
फ़िल्मों में काम करने की कोई संभावना नहीं थी। फ़िल्में अच्छी लगती थीं, लिखना अच्छा लगता था। लेकिन आपको पता है कि 80 और 90 के दशक में भारत में फ़िल्मों में आगे बढ़ने और रोजगार बनाने की कोई संभावना कहां होती थी। पर जो भी आती थी देखते थे। गुरु दत्त की फ़िल्में बहुत अच्छी लगती थीं। ‘प्यासा’ हुई, ‘कागज के फूल’ हुई, उनका मजबूत प्रभाव था। वर्ल्ड सिनेमा की तो कोई जानकारी थी ही नहीं बड़े होते वक्त। हॉलीवुड फ़िल्में जो भी बॉम्बे में आती और लगती थीं, वो देखते थे। जब 19 साल का था तब भारत से बाहर पहली बार गया, इकोनॉमिक्स पढ़ने। वहां जाकर पहली बार सत्यजीत रे की फ़िल्में देखीं तो उनका बड़ा असर था। वैसे कोई इतना एक्सपोजर नहीं था यार ईमानदारी से। जो भी हिदीं फ़िल्म और इंग्लिश फ़िल्म आती वो देखते थे।

बचपन में क्या लिखने-पढ़ने का शौक था? उनके स्त्रोत क्या थे आपके पास?
बहुत ही ज्यादा पढ़ता था मैं। आप ‘लंच बॉक्स’ में भी देखेंगे तो साहित्य का असर नजर आएगा। मैं बचपन से ही बहुत आकर्षित था मैजिक रियलिज़्म से, लैटिन अमेरिकन लेखकों से, रूसी लेखकों से। मेरी साहित्य में ज्यादा रुचि थी और मूवीज में कम। अभी भी वैसा ही है, पढ़ता ज्यादा हूं और मूवीज कम ही देखता हूं।

जब छोटे थे तो घर पर क्या कोई कहानियां सुनाता था?
सुनाते तो नहीं थे पर मेरे नाना लखनऊ के एक अख़बार पायोनियर में कॉलम लिखते थे। वो बहुत पढ़ते थे और मुझे भी पढ़ने के हिसाब से कहानियां या नॉवेल सुझाते थे। पढ़ने को वो बहुत प्रोत्साहित करते थे।

स्कूल में आपके लंचबॉक्स में आमतौर पर क्या हुआ करता था?
हा हा हा। मेरे तो यार घर का खाना ही हुआ करता था। थोड़ा स्पाइसी होता था। चूंकि मेरी मदर बहुत स्पाइसी खाना बनाती हैं इसलिए मेरे लंच बॉक्स में से क्या है कि कोई खाता नहीं था। सब्जियां, परांठे और घर पर बनने वाला नॉर्मल पंजाबी खाना होता था। पर मिर्ची ज्यादा होती थी।

साहित्य और क्लासिक्स पढ़ते थे? क्या साथ में कॉमिक्स और पॉपुलर लिट्रेचर भी पढ़ते थे?
कॉमिक्स में तो कोई रुचि नहीं थी कभी भी, अभी भी नहीं है।

Ritesh Batra
घरवालों के क्या कुछ अलग सपने थे आपको लेकर? या वो भी खुश थे आपके फ़िल्ममेकर बनने के फैसले को लेकर?
उन्हें तो मैंने बहुत देर से बताया था। पहले तो मैंने तीन साल इकोनॉमिक्स पढ़ा। बिजनेस कंसल्टेंट था डिलॉयट के साथ। मैंने बाकायदा नौकरी की थी। बाद में वह नौकरी छोड़कर जब फ़िल्म स्कूल गया तब उन्हें बताया। जाहिर तौर पर उनके लिए तो बहुत बड़ा झटका था। उन्होंने सोचा नहीं था कि मैं ऐसा कुछ करूंगा।

कब तय किया कि फ़िल्में ही बनानी हैं?
मैं 25-26 का था तब तय किया कि मुझे कुछ करना पड़ेगा मूवीज में ही। तब मुझे राइटर बनना था। फ़िल्म राइटर बनना था। मुझे पता था कि जब तक पूरी तरह इनवेस्ट नहीं हो जाऊंगा, नहीं होगा। बाकी सारे दरवाजे बंद करने पड़ेंगे। उसके लिए एक ही रास्ता बचा था कि जॉब छोड़कर फ़िल्म स्कूल जॉइन कर लूं। न्यू यॉर्क यूनिवर्सिटी के टिश स्कूल ऑफ आर्ट्स फ़िल्म प्रोग्रैम में दाखिला लिया। पांच साल की पढ़ाई थी और बड़ा सघन और डूबकर पढ़ने वाला प्रोग्रैम था। उसे सिर्फ डेढ़ साल किया। सेकेंड ईयर में था तब एक स्क्रिप्ट मैंने लिखी थी जो सनडांस लैब (2009) में चुन ली गई। ये संस्थान बहुत पुराना है। स्टीवन सोडरबर्ग और क्वेंटिन टेरेंटीनों जैसे नामी फ़िल्मकारों की स्क्रिप्ट भी इस लैब से ही गई थी। तो राइटर्स लैब और डायरेक्टर्स लैब दोनों में चुन ली गई मेरी स्क्रिप्ट। इसमें टाइम लग रहा था और पढ़ाई करिकुलम बेस्ड हो रही थी तो मैंने फ़िल्म स्कूल छोड़ दिया। शॉर्ट फ़िल्में बनाने लगा।

यूं नौकरी छोड़ देने से और पढ़ने लगने से पैसे की दिक्कत नहीं हुई?
मेरी सेविंग काफी थी। तीन साल काम किया हुआ था, उस दौरान काफी पैसे बचाए थे। फिर फ़िल्म स्कूल भी तो एक-डेढ़ साल में ही छोड़ने का फैसला कर लिया था, इससे आगे की फीस पर खर्च नहीं करना पड़ा। मेरी वाइफ मैक्सिकन है। वो बहुत प्रोत्साहित करती थी। पेरेंट्स भी प्रोत्साहित करते कि लिखो। कहते थे कि जॉब होनी जरूरी है, फैमिली का ख़्याल रखना जरूरी है। अवसरों के लिहाज से लगता था कि जॉब नहीं छोड़ी होती तो इतने कमा रहा होता, इतना कम्फर्टेबल होता, या ट्रैवल कर पा रहा होता। तो वो सब नहीं कर पा रहा था लेकिन खाने और रहने के पैसे थे।

फ़िल्म स्कूल से निकलने के बाद शॉर्ट फ़िल्म और डॉक्युमेंट्री से कुछ-कुछ कमाने लगे थे या अभी भी आपको वित्तीय तौर पर स्थापित होना है?
नहीं यार, ये शॉर्ट फ़िल्म वगैरह बनाने में तो कोई कमाई नहीं होती। बस सनडैंस लैब का ठप्पा लग गया था तो मुझे बहुत सी मीटिंग लोगों से साथ मिलने लगी। तो मौके थे, टीवी (न्यू यॉर्क में) के लिए लिखने के, लेकिन मैंने वो सब किया नहीं क्योंकि मुझे मूवीज में ही रुचि थी। रास्ते से भटक जाता तो वापस पैसों के पीछे या किसी और चीज के पीछे भागने लगता। इसलिए तय किया कि शॉर्ट्स बनाऊंगा और अपनी लेखनी पर ध्यान केंद्रित करूंगा। तो ऐसी कोई कमाई नहीं हो रही थी, सिर्फ तीन-चार साल पहले मैंने एक शॉर्ट फ़िल्म बनाई थी, ‘कैफै रेग्युलर कायरो’ (Café Regular, Cairo)। उस शॉर्ट से मेरी कमाई हुई, उसे फ्रैंच-जर्मन ब्रॉडकास्टर्स ने खरीद लिया। तो उससे अर्निंग हुई, वैसे इतने साल कोई कमाई नहीं हुई।

पहली बार कब कैमरा हाथ में लिया और शूट करना शुरू किया?
फ़िल्म स्कूल के लिए 2005-06 में अप्लाई किया तो एप्लिकेशन के लिए एक शॉर्ट बनाई। तब पहली बार कुछ डायरेक्ट किया था। उसके बाद मैंने पांच और शॉर्ट बनाईं। एक फ़िल्म स्कूल में रहकर बनाई और चार स्कूल छोड़ने के बाद बनाईं।

न्यू यॉर्क यूनिवर्सिटी में फ़िल्म स्कूल वाले दिन कितने रचनात्मक और कितने तृप्त करने वाले थे?
काफी फुलफिलिंग थे। गहन (इंटेंस) थे। लेकिन राइटिंग करने का टाइम मिल नहीं रहा था और मेरे लिए सबसे जरूरी था कि लिखता रहूं और बेहतर लिखता रहूं। इसलिए मुझे जमा नहीं और छोड़ दिया। दूसरा बहुत ही महंगा भी था।

सनडांस का और फ़िल्मराइटिंग का आपको अनुभव है, तो बाकी राइटर्स या आकांक्षी लेखकों को काम की बातें बताना चाहेंगे?
सबसे बड़ी टिप तो मैं यही दूंगा कि किसी की सलाह नहीं सुनने की। क्योंकि हरेक का अपना प्रोसेस होता है, हरेक की अपनी जरूरत होती है और हरेक की अपनी मजबूती होती है। बहुत से डायरेक्टर्स की विजुअल सेंस बहुत मजबूत होती है, रिच होती है, कैरेक्टर डिवेलपमेंट के लिहाज से या राइटिंग के लिहाज से वे कुछ खास नहीं कर पाते। वहीं दूसरी ओर वूडी एलन जैसे भी फ़िल्म डायरेक्टर होते हैं जो सिर्फ ग्रेट राइटर हैं इसलिए लोग उनकी फ़िल्म देखने जाते हैं। तो बंदा खुद ही जानता है कि उसकी मजबूती क्या है, वह किस बात में खास है। उसे अपनी कमजोरी और मजबूती देखनी चाहिए। किसी की सलाह नहीं लेनी चाहिए। उसे ईमानदारी से सोचना चाहिए कि मेरे में क्या कमी है और मैं क्या बेहतर कर सकता हूं।

आपकी स्टोरीराइटिंग कैसे होती है? प्रोसेस क्या होता है?
मुझे तो यार लिखने में बहुत टाइम लगता है। ऐसा कोई प्रोसेस नहीं है कि पहले कुछ आइडिया आए फिर उस पर कुछ रिसर्च करना शुरू करें, वो वर्ल्ड से या कैरेक्टर बेस्ड हो। मुझे लगता है ये सब अंदर से आना चाहिए। मेरा प्रोसेस बस इतना है कि पहले मैं कुछ सोचता हूं। जब किसी चीज के प्रति एक्साइटेड होने लगता हूं तो अपने आप एक अनुशासन आ जाता है कि सुबह उठकर 8 से 11 या 8 से 12 या 8 से 2 बजे तक बैठकर लिखना है। तो इस तरह कहानी के एक खास स्तर तक पहुंचते ही अपने आप राइटिंग का डिसिप्लिन आ जाता है। मेरा राइटिंग प्रोसेस काफी लंबा होता है, महीने या साल लग जाते हैं।

‘डब्बा’ बुनियादी तौर पर बेहद सीधी फ़िल्म है, लेकिन फिर भी ये इतनी बड़ी हो सकती थी, क्या आपने लिखते वक्त सोचा था?
मुझे लगा कि लोगों को अच्छी लगेगी, इतनी अच्छी लगेगी नहीं सोचा था। अवॉर्ड मिलेंगे ये नहीं सोचा था। तब तो यही लगा कि अच्छी कहानी होगी और इसकी अच्छी शेल्फ लाइफ होगी और उसके बाद मुझे दूसरी फ़िल्में मिल जाएंगी। ये नहीं सोचा था कि इतने कम वक्त में इतना कुछ हो जाएगा।

शूट कितने दिन का था और कहां किया?
29 दिन का प्रिंसिपल शूट था फिर बाकी छह दिन हमने डिब्बे वालों को फॉलो किया था डॉक्युमेंट्री स्टाइल में। पूरी स्टोरी बॉम्बे में ही स्थित है और शूटिंग वहीं हुई सारी।

इरफान का किरदार जिस दफ्तर में काम करता है वो कहां है?
चर्चगेट में है, रेलवे का दफ्तर है।

Irfan and Nawaj, in a still from the movie.
इरफान और नवाज को पहले से जानते थे या फ़िल्म के सिलसिले में ही मुलाकात हुई?
नहीं, पहले से तो मैं किसी को नहीं जानता था। प्रोड्यूसर्स के जरिए उनसे संपर्क किया। उन्हें स्क्रिप्ट दी तो अच्छी लगी। एक बार मिला, उन्होंने हां बोल दिया। शूट से पहले तो बहुत बार मिले। कैरेक्टर्स डिस्कस किया। बाकी जान-पहचान शूटिंग के दौरान ही हुई।

इन दोनों में क्या खास बात लगी आपको?
दोनों ही इतने अच्छे एक्टर्स हैं, केंद्रित हैं, किरदार को अपना हिस्सा मानने लगते हैं, पर्सनली इनवॉल्व्ड हो जाते हैं। जो मैंने लिखा उसे दोनों ने और भी गहराई दे दी। उनके साथ काम करना तो बड़ी खुशी थी। मैंने बहुत सीखा उनसे।

सेट पर उनके होने की ऊर्जा महसूस होती थी?
वैसे दोनों ही बहुत रेग्युलर और विनम्र हैं। सेट पर तो काम पर ही ध्यान देते थे हम लोग। बातें करते थे कि कैसे और बेहतर बनाएं फ़िल्म को, कैसे जो मटीरियल हमारा है उसमें और गहराई में जाएं। हम लोग नई-नई चीजें ट्राई करते थे, विचार करते थे। उनके कद का कोई प्रैशर नहीं महसूस हुआ। उन्होंने भी कभी फील नहीं करने दिया कि वे इतने सक्सेसफुल हैं। मैंने कभी सोचा ही नहीं कि वो इतने फोकस्ड होंगे। लेकिन मुझे लगता है आप सही हैं, अब फ़िल्म के बाद जब सोचता हूं तो लगता है।

आप खाना अच्छा बनाते हैं। फ़िल्म में जो डिश नजर आती हैं वो आपने पकाई थीं?
नहीं नहीं, मैंने नहीं बनाई थीं। सेट पर एक पूरी टीम थी फूड स्टाइलिस्ट्स की। क्योंकि खाना अच्छा दिखना बहुत जरूरी था। बहुत सारे लोग इन्वॉल्व्ड थे हरेक शॉट के पीछे। हमारे पास बहुत अच्छे फूड स्टाइलिस्ट थे जो खाने का ध्यान रख रहे थे।

फ़िल्म के विजुअल्स को लेकर आपके और डीओपी (Michael Simmonds) के बीच क्या डिस्कशन होते थे?
दो महीने पहले से विचार-विमर्श चल रहा था। वो तभी न्यू यॉर्क से बॉम्बे आए थे। स्क्रिप्ट को टुकड़ों में तोड़ा था, हर लोकेशन के मल्टीपल प्लैन थे और पूरा शूटिंग प्लैन बनाया था। प्री-प्रोडक्शन मूवी का छह महीने पहले शुरू कर दिया था। फ़िल्म के किरदार मीना की कहानी उसके फ्लैट के अंदर ही चलती है। वो फ्लैट हमने शूट के चार महीने पहले देखा और तय कर लिया था। हम वहां रोज बैठते थे, चीजें डिस्कस करते थे। उसकी शूटिंग पहले कर ली। हरेक डिपार्टमेंट के साथ, प्रोडक्शन डिजाइनर के साथ, डीओपी के साथ, कॉस्ट्यूम्स के साथ तैयारी बहुत ज्यादा थी।

आप दोनों का विजुअल्स को लेकर विज़न क्या था?
चूंकि मूवी कैरेक्टर ड्रिवन है और मुंबई व फूड इसके महत्वपूर्ण कैरेक्टर हैं, तो मेरा सबसे बड़ा एजेंडा था स्क्रिप्ट को ब्रेकडाउन करना और डीओपी को मेरा निर्देश था कि किरदारों के साथ ज्यादा से ज्यादा बिताना है। उससे जरूरी चीजें कुछ न थी। फूड के अलग-अलग शॉट्स लेने या बॉम्बे के मादक शॉट्स लेने से ज्यादा जरूरी ये था। हम रात के 12-12 बजे तक कैरेक्टर्स के साथ वक्त बिताते थे।

फ़िल्म के म्यूजिक के बारे में बताएं।
ज्यादा है नहीं म्यूजिक तो। गाने हैं नहीं, बैकग्राउंड स्कोर भी बहुत सीमित है। साउंड डिजाइन का अहम रोल है। वो कैरेक्टर की यात्रा दिखाता है। इसके लिए मुख्यतः सिटी का साउंड और एनवायर्नमेंट का साउंड रखा गया है। मेरी बाकी मूवीज में भी ऐसे ही सोचा और किया है। डब्बा में 14 क्यू (cues – different part/pieces of soundtrack ) हैं और म्यूजिक बहुत ही अच्छा है। इसे जर्मन कंपोजर हैं मैक्स रिक्टर ने रचा है।

‘द स्टोरी ऑफ राम’ के बारे में बताएं।
एक स्क्रिप्ट है जिस पर मैं काम कर रहा हूं और ‘डब्बा’ के बाद उसी पर लौटना चाहूंगा। ये बहुत पहले से (2009) दिमाग में है, चूंकि मेरा राइटिंग प्रोसेस बहुत स्लो और थकाऊ है तो वक्त लगता है। इस पर अभी क्या बताऊं। जब हो जाएगी तब बताता हूं।

‘कैफे रेग्युलर कायरो’...
ये एक शॉर्ट फ़िल्म है जो मैंने कायरो में बनाई थी। उसके लिए मैंने कायरो में बहुत सारा वक्त बिताया। ‘लंचबॉक्स’ भी मैंने कायरो में ही लिखी थी।

“The Morning Ritual” – Watch here:

“Café Regular, Cairo” – Watch here:


Ritesh Batra was born and raised in Mumbai, and is now based in Mumbai and New York with his wife Claudia and baby girl Aisha. His feature script 'The Story of Ram' was part of the Sundance Screenwriters and Directors labs in 2009. His short films have been exhibited at many international film festivals and fine arts venues. His Arab language short 'Café Regular, Cairo', screened at over 40 international film festivals and won 12 awards. Café Regular was acquired by Franco-German broadcaster, Arte. His debut feature 'The Lunchbox' (English, Hindi) starring Irrfan Khan, Nawazuddin Siddique, and Nimrat Kaur, was shot on location in Mumbai in2012. 'The Lunchbox' premiered at the Semaine De La Critique (International Critics Week) at the 2013 Cannes International Film Festival to rave reviews. It won the Grand Rail d'Or Award and was acquired by Sony Pictures Classics.
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Friday, July 12, 2013

भाग मिल्खा भागः राकेश मेहरा और फरहान अख़्तर से बातें

 Q & A. .Rakeysh Mehra (director) & Farhan Akhtar (actor), Bhaag Milkha Bhaag.

Farhan Akhtar with Rakeysh Omprakash Mehra, both looking at Milkha Singh. Photo: Jaswinder Singh

राकेश मेहरा से पिछली मुलाकात दो साल पहले हुई थी, तब वह अपनी निर्माण कंपनी की फिल्म ‘तीन थे भाई’ पर बात करने आए हुए थे। बातें बायोपिक बनाने के पीछे चलने वाले विचारों और ‘मिल्खा सिंह’ बनाने को लेकर उनकी सोच पर हुई। उसका संक्षिप्त अंश यहां पढ़ सकते हैं। जब उन्होंने मिल्खा सिंह की भूमिका के लिए फरहान अख़्तर का चयन कर लिया तो संयोग से कुछेक दिनों में फरहान से भी मुलाकात हुई। वे उस वक्त अपने निर्देशन में बनी 'डॉन-2' पर बात करने आए थे। बातचीत यहां पढ़ सकते हैं।

खैर, ‘भाग मिल्खा भाग’ आज रिलीज हो चुकी है। उससे एक दिन पहले राकेश और फरहान से बातचीत हुई। चंडीगढ़ में अपनी फिल्म का विशेष प्रीमियर मिल्खा सिंह और उनके परिवार की उपस्थिति में भारतीय सेना के लिए करने हेतु वे आए थे। पढ़ें कुछ अंशः

इस कहानी की कहानी

राकेश ओमप्रकाश मेहराः मिल्खा सिंह जी की जिंदगी से प्रेरित है ये कहानी। बचपन में मिल्खा सिंह की गाथा सुन-सुन के हम बड़े हुए। दो नाम होते थे, मिल्खा सिंह और दारा सिंह। आगे चलकर मौका मिला कि फ़िल्म बनानी है। तो मेरे एक मित्र हैं, उनके पास एक ऑटोबायोग्राफी मिली जो गुरुमुखी में थी और गुरुमुखी मुझे आती नहीं थी। हमारे प्रोड्यूसर हैं राजीव चंदन, उनके अंकल को आती थी पढ़नी। उन्होंने पहले दो-तीन पन्ने जब पढ़े, तो उसी में आग लग गई। मैंने कहा, यार रोक दीजिए। अपने दोस्त से मैंने कहा कि क्या मिल्खा सिंह से मिलवा सकते हैं। उन्होंने मीटिंग फिक्स करवाई। चंडीगढ़ आए, एक दिन बिताया। निम्मी आंटी (निर्मल कौर, मिल्खा सिंह की पत्नी) ने ऐसे घर पर रखा जैसे हम घर के ही हैं। पूरे दिन बातचीत हुई। जब मैं मुंबई के लिए वापस निकला तो अगले दो-चार महीने नींद उड़ गई थी क्योंकि मेरे लिए ये फैसला लेना बहुत मुश्किल काम होता है कि अगली फ़िल्म कौन सी बनेगी। जेहन में बातें चलती रहीं। फिर हम वापस आए मंजूरी लेने। उस वक्त जीव मिल्खा सिंह जी वहां थे। मिल्खा सर को बहुत सारे ऑफर आए, 50-50 लाख, एक-एक करोड़, डेढ़-डेढ़ करोड़। अब मिल्खा सर तो पिक्चर देखते नहीं, पर जीव रोज शाम को एक पिक्चर देखते हैं। उन्होंने बोला कि ये कहानी जाएगी तो राकेश को ही जाएगी और हम देंगे भी तो एक ही रुपये में देंगे। वो एक रुपया दस करोड़ रुपये से ज्यादा है, मेरी नजर में। उसके बदले भले आप सारा कुबेर का खजाना दे दो, वो भी कम है क्योंकि उस लाइफ की कोई कीमत लगाई नहीं जा सकती। हम 1960 का एक रुपये का नोट लेकर आए, वो मिला बड़ी मुश्किल से लेकिन मिल गया। उन्हें दिया। खैर, सारी बातों की एक बात ये है कि हमने फ़िल्म बनाई। फरहान ने एक्टिंग की, प्रसून ने लिखी। फिर भी हमने कुछ नहीं किया है। हमें ये मौका मिला, हमारे को चुना गया है, ये हमने नहीं चुना है। ये अपने आप हो जाती हैं चीजें, जबकि हमें लगता है हम कर रहे हैं। ये मौका मिला हमें, ये ही बड़ी बात है। हो सकता है कि हमसे कुछ छोटी-मोटी गलतियां हुई हों, पर हमने जान लगा दी है।

समयकाल

राकेशः ये कहानी 1947 से लेकर 1960 तक जाती है, फिर वहां रुक जाती है।

कितनी हकीकत, कितना फसाना

राकेशः एक फ़िल्म एक विजन होती है, संयुक्त प्रयास होता है। पहले उसे लिखा जाता है। जब गरम-गरम स्क्रिप्ट हाथ में आती है तो उसमें तस्वीरें डाली जाती हैं। वो कहते हैं न अंदाज-ए-बयां। एक शेर होगा तो आप अलग तरीके से पढ़ेंगे और मैं अलग तरीके से पढूंगा। फिर आर्ट डायरेक्टर के साथ और कैमरामैन के साथ बैठकर बात करने से स्पष्टता आ जाती है। स्क्रिप्ट फिर एक्टर्स को दी जाती है और एक्टर आकर सब बदल देते हैं। वो अपना लेकर आते हैं। ये मानवीय भावों का काम है। दर्शक सिनेमाघर आते हैं तो अपने इमोशन लेकर आते हैं और फ़िल्म में जोड़ते हैं। हम गाड़ियां तो बना नहीं रहे हैं कि एक गाड़ी बनाई और चल पड़ी तो वैसी ही दस लाख और बना दीं। तो मैं स्क्रिप्ट एक्टर के हाथ में देता हूं और तीन कदम पीछे होते हुए कैमरे के पीछे चला जाता हूं। एक्शन बोलता हूं और फिर सब उन पर है। इसमें अब वे अपना इंटरप्रिटेशन लाते हैं। कैमरामैन उसे अपनी नजरों से देखते हैं। फिर माल एडिटर के पास जाता है, वो अपने नजरिए से उसे काटता है। फ़िल्म बन जाती है तो ऑडियंस के सामने जाती है। अब हरेक ऑडियंस का हरेक मेंबर उसे अपनी अलग नजरों से देखता है। पूरी फ़िल्म के जितने दर्शक होते हैं उतने ही मायने हो जाते हैं।

मिल्खा सिंह निभाने का डर

फरहान अख़्तरः डर और नर्वसनेस जरूरी फैक्टर हैं। हम डरते हैं कि अनुशासन में रहें, चूकें नहीं। ये फिलॉसफी उन्हीं से ली। मिल्खा सिंह जी ने कहा कि मेहनत करो, काम करो। इसके अलावा जब आप ज़ोन में आ जाते हैं तो सब होता जाता है। डर को आप एक्साइटमेंट बना लेते हैं। मिल्खा सिंह दौड़े नहीं उड़े थे, वो इसलिए क्योंकि उन्होंने अपने डरों को पीछे छोड़ दिया था।

किरदार के साथ कोशिशें

फरहानः इस किरदार से न्याय करने की कोशिश तो पूरी की है, और एक एक्टर का काम ही होता है कि कहानी के इमोशनल कंटेंट को, चाहे वो फिक्शनल हो या नॉन-फिक्शनल, परदे पर ऐसे दर्शाए कि लोगों को लगे कि परदे पर भावों का पूरा बहाव देख रहे हैं। इस फ़िल्म में अपनी खुद की कल्पना के अलावा मैं मिल्खा सिंह जी से बात करके पहलू और भावनाएं डालता था। किसी एक्टर की जिंदगी में ऐसे मौके बहुत कम आते हैं जब ऐसे किसी इंसान पर फ़िल्म बने और वो रोल आप करें। ये लाइफ एक्सपीरियंस है। मिल्खा सिंह और उनकी जिंदगी से बहुत कुछ सीखने को मिला है।

निर्देशक का निर्देशन करना

राकेशः ये तो आप उल्टा बोल रहे हैं। देखिए न कि मैं कितना अक्लमंद था कि मैंने अपना सारा काम आसान कर लिया। जैसे, मैथ्स का पेपर देने जा रहा हूं और जो टीचर है उसको बोल दिया कि आप लिख दो पेपर। बतौर निर्देशक मेरा काम करने का स्टाइल ये है कि मैं किसी के काम में दखल नहीं देता। मैं ये नहीं कह सकता कि ये मत कीजिए, मैं कहता हूं कि ये करिए। क्योंकि इंटरप्रिटेशन तो एक्टर का ही होगा। मैं हर फैसला इंस्टिंक्ट से लेता हूं। मेरे अंदर की आवाज मुझे दिशा दिखाती है। फिर भी अगर कभी मुझे ऐसा लगा कि मेरे इंस्टिंक्ट मेरे से दूर हैं और मेरी अंदरूनी आवाज जवाब नहीं दे रही तो फरहान से अच्छा बाउंसिंग बोर्ड और क्या हो सकता था। उनसे बहुत मदद मिलती थी। ये बहुत अच्छी बात है कि आपकी टीम में एक ऐसे मेंबर भी हैं जो मेंबर ही नहीं है बल्कि स्तंभ हैं।

प्रोफाइल बेहतर होगा कि जिंदगी

राकेशः ये करियर डिफाइनिंग फ़िल्म नहीं है, ये तो लाइफ डिफाइनिंग फ़िल्म है। मेरी जिंदगी बदल गई है इस फ़िल्म से। फिर से परिभाषित हुई है।

वस्तुपरकता रखी कि भावावेश में छोड़ दी

राकेशः मैं इसके बारे में बहुत कुछ बोल सकता हूं। पर मेरी गुजारिश है कि आप फ़िल्म देखें, आपको सारे जवाब मिल जाएंगे। शॉर्ट में ये कहना चाहूंगा कि किरदार इतने असल हैं जितने हो सकते थे। जिंदगी के करीब हैं। वे ब्लैक एंड वाइट नहीं हैं, ग्रे हैं। पक्का ग्रे हैं। होना भी चाहिए। हम सभी होते हैं।

शारीरिक कोशिशें/मुश्किलें

फरहानः काम मुश्किल तब होता है जब करने में आपको मजा नहीं आ रहा हो। मजा आ रहा होता है तो कोई दिक्कत ही नहीं, सब हो जाता है। फ़िल्म का और मिल्खा जी का कद इतना बड़ा है कि उसके लिए कुछ भी करना पड़े तो कम है, इसलिए जितना भी किया कम ही था।

इस किरदार से निकलने की प्रक्रिया

फरहानः मुश्किल है, क्योंकि बहुत इमोशनल इनवेस्टमेंट हुआ है। जिन लोगों के साथ काम किया है, उन्हें मिस करूंगा। लेकिन ये भी जरूरी है कि आप हमेशा अपने आप को याद दिलाएं कि इन सब चीजों के बाद आप एक कलाकार हैं , एक एक्टर हैं। आगे बढ़ने के लिए आपको कुछ ऐसी चीजें पीछे भी छोड़नी पड़ेंगी। अगर आप वहीं रह गए इमोशनली, तो आगे कैसे बढ़ेंगे, कुछ नया करने की कोशिश कैसे करेंगे, कुछ और पाने की कोशिश कैसे करेंगे। ये लड़ाई है और लड़नी पड़ती है इसलिए मैंने इसके बाद एक फ़िल्म की है ‘शादी के साइड इफेक्ट्स’। उसने भी मेरी बड़ी मदद की आगे बढ़ने में क्योंकि बहुत ही अलग किरदार था और दूसरे कास्ट और क्रू के साथ काम करने का मौका मिला। लेकिन ‘भाग मिल्खा भाग’ दुर्लभ अनुभव है। किरदार और फ़िल्म से लगाव का ऐसा अनुभव इससे पहले मेरे साथ ‘लक्ष्य’ के टाइम पर हुआ था। उस वक्त भी यादें और भाव मेरे साथ ही रुक गए थे। इस फ़िल्म में भी ऐसा ही हुआ। आशा करता हूं कि जिंदगी में ऐसी स्क्रिप्ट या कहानी फिर से आ सके जो मुझे ठीक वैसा ही महसूस करवाए जैसा ‘भाग मिल्खा भाग’ ने करवाया है।

सेना और मिल्खा सिंह

राकेशः मिल्खा सर की जिंदगी का बहुत अहम हिस्सा सेना रही। बचपन में उनके सिर के ऊपर न तो मां-बाप का साया था, न रहने को जगह थी, न पहनने को कपड़े थे, हाथ में चाकू था, कोयला-गेहूं-चीनी चुराते थे। तिहाड़ तक गए। पर उन्होंने एक मकसद बनाया कि इज्जत की रोटी खानी, मेहनत की कमाई खानी। तिहाड़ जेल में उनके सामने डाकू और खूनी भी आए और वो उनके साथ भी जा सकते थे, पर उन्होंने तय किया कि आर्मी में जाना है। तीन साल उन्होंने कोशिश की और चौथे साल में उनका चयन हुआ। आर्मी ने मिल्खा सिंह को पहचाना और हीरे को तराशा। बाद में दुनिया में जाकर मिल्खा सर ने अपना परचम लहराया, तिरंगा लहराया। वो हर बात में कहते हैं कि मैं जो भी हूं आर्मी की वजह से हूं। ये हम सब की खुशनसीबी है। ये बोलते हुए मेरे रौंगटे खड़े रहे हैं कि जहां से हमने शुरू की थी ये जर्नी। आज हम उसी शहर (चंडीगढ़) में वापस हैं। और इस बात के कितने बड़े मायने होते हैं ये मैं बोल तो गया हूं पर मुझे भी नहीं मालूम। बोलते-बोलते मुझे बड़ी अजीब सी फीलिंग आ रही है, दिल भी थोड़ा बैठ रहा है। ये फ़िल्म हम आर्मी को समर्पित कर रहे हैं।

Rakeysh Omprakash Mehra is an Indian filmmaker. He has directed Bhaag Milkha Bhaag (2013), Rang De Basanti (2006), Delhi-6 (2009) and Aks (2001). Farhan Akhtar is an Indian film director and actor. He made his directorial debut with Dil Chahta Hai (2001). Then he directed Lakshya (2004), Don (2006), and Don-2 (2011). He has acted in Rock on!! (2008) and Zindagi Na Milegi Dobara (2011). In Bhaag Milkha Bhaag he has portrayed Milkha Singh, an athlete.

Bhaag Milkha Bhaag released on July 12, 2013.
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