शुक्रवार, 12 जुलाई 2013

भाग मिल्खा भागः राकेश मेहरा और फरहान अख़्तर से बातें

 Q & A. .Rakeysh Mehra (director) & Farhan Akhtar (actor), Bhaag Milkha Bhaag.

Farhan Akhtar with Rakeysh Omprakash Mehra, both looking at Milkha Singh. Photo: Jaswinder Singh

राकेश मेहरा से पिछली मुलाकात दो साल पहले हुई थी, तब वह अपनी निर्माण कंपनी की फिल्म ‘तीन थे भाई’ पर बात करने आए हुए थे। बातें बायोपिक बनाने के पीछे चलने वाले विचारों और ‘मिल्खा सिंह’ बनाने को लेकर उनकी सोच पर हुई। उसका संक्षिप्त अंश यहां पढ़ सकते हैं। जब उन्होंने मिल्खा सिंह की भूमिका के लिए फरहान अख़्तर का चयन कर लिया तो संयोग से कुछेक दिनों में फरहान से भी मुलाकात हुई। वे उस वक्त अपने निर्देशन में बनी 'डॉन-2' पर बात करने आए थे। बातचीत यहां पढ़ सकते हैं।

खैर, ‘भाग मिल्खा भाग’ आज रिलीज हो चुकी है। उससे एक दिन पहले राकेश और फरहान से बातचीत हुई। चंडीगढ़ में अपनी फिल्म का विशेष प्रीमियर मिल्खा सिंह और उनके परिवार की उपस्थिति में भारतीय सेना के लिए करने हेतु वे आए थे। पढ़ें कुछ अंशः

इस कहानी की कहानी

राकेश ओमप्रकाश मेहराः मिल्खा सिंह जी की जिंदगी से प्रेरित है ये कहानी। बचपन में मिल्खा सिंह की गाथा सुन-सुन के हम बड़े हुए। दो नाम होते थे, मिल्खा सिंह और दारा सिंह। आगे चलकर मौका मिला कि फ़िल्म बनानी है। तो मेरे एक मित्र हैं, उनके पास एक ऑटोबायोग्राफी मिली जो गुरुमुखी में थी और गुरुमुखी मुझे आती नहीं थी। हमारे प्रोड्यूसर हैं राजीव चंदन, उनके अंकल को आती थी पढ़नी। उन्होंने पहले दो-तीन पन्ने जब पढ़े, तो उसी में आग लग गई। मैंने कहा, यार रोक दीजिए। अपने दोस्त से मैंने कहा कि क्या मिल्खा सिंह से मिलवा सकते हैं। उन्होंने मीटिंग फिक्स करवाई। चंडीगढ़ आए, एक दिन बिताया। निम्मी आंटी (निर्मल कौर, मिल्खा सिंह की पत्नी) ने ऐसे घर पर रखा जैसे हम घर के ही हैं। पूरे दिन बातचीत हुई। जब मैं मुंबई के लिए वापस निकला तो अगले दो-चार महीने नींद उड़ गई थी क्योंकि मेरे लिए ये फैसला लेना बहुत मुश्किल काम होता है कि अगली फ़िल्म कौन सी बनेगी। जेहन में बातें चलती रहीं। फिर हम वापस आए मंजूरी लेने। उस वक्त जीव मिल्खा सिंह जी वहां थे। मिल्खा सर को बहुत सारे ऑफर आए, 50-50 लाख, एक-एक करोड़, डेढ़-डेढ़ करोड़। अब मिल्खा सर तो पिक्चर देखते नहीं, पर जीव रोज शाम को एक पिक्चर देखते हैं। उन्होंने बोला कि ये कहानी जाएगी तो राकेश को ही जाएगी और हम देंगे भी तो एक ही रुपये में देंगे। वो एक रुपया दस करोड़ रुपये से ज्यादा है, मेरी नजर में। उसके बदले भले आप सारा कुबेर का खजाना दे दो, वो भी कम है क्योंकि उस लाइफ की कोई कीमत लगाई नहीं जा सकती। हम 1960 का एक रुपये का नोट लेकर आए, वो मिला बड़ी मुश्किल से लेकिन मिल गया। उन्हें दिया। खैर, सारी बातों की एक बात ये है कि हमने फ़िल्म बनाई। फरहान ने एक्टिंग की, प्रसून ने लिखी। फिर भी हमने कुछ नहीं किया है। हमें ये मौका मिला, हमारे को चुना गया है, ये हमने नहीं चुना है। ये अपने आप हो जाती हैं चीजें, जबकि हमें लगता है हम कर रहे हैं। ये मौका मिला हमें, ये ही बड़ी बात है। हो सकता है कि हमसे कुछ छोटी-मोटी गलतियां हुई हों, पर हमने जान लगा दी है।

समयकाल

राकेशः ये कहानी 1947 से लेकर 1960 तक जाती है, फिर वहां रुक जाती है।

कितनी हकीकत, कितना फसाना

राकेशः एक फ़िल्म एक विजन होती है, संयुक्त प्रयास होता है। पहले उसे लिखा जाता है। जब गरम-गरम स्क्रिप्ट हाथ में आती है तो उसमें तस्वीरें डाली जाती हैं। वो कहते हैं न अंदाज-ए-बयां। एक शेर होगा तो आप अलग तरीके से पढ़ेंगे और मैं अलग तरीके से पढूंगा। फिर आर्ट डायरेक्टर के साथ और कैमरामैन के साथ बैठकर बात करने से स्पष्टता आ जाती है। स्क्रिप्ट फिर एक्टर्स को दी जाती है और एक्टर आकर सब बदल देते हैं। वो अपना लेकर आते हैं। ये मानवीय भावों का काम है। दर्शक सिनेमाघर आते हैं तो अपने इमोशन लेकर आते हैं और फ़िल्म में जोड़ते हैं। हम गाड़ियां तो बना नहीं रहे हैं कि एक गाड़ी बनाई और चल पड़ी तो वैसी ही दस लाख और बना दीं। तो मैं स्क्रिप्ट एक्टर के हाथ में देता हूं और तीन कदम पीछे होते हुए कैमरे के पीछे चला जाता हूं। एक्शन बोलता हूं और फिर सब उन पर है। इसमें अब वे अपना इंटरप्रिटेशन लाते हैं। कैमरामैन उसे अपनी नजरों से देखते हैं। फिर माल एडिटर के पास जाता है, वो अपने नजरिए से उसे काटता है। फ़िल्म बन जाती है तो ऑडियंस के सामने जाती है। अब हरेक ऑडियंस का हरेक मेंबर उसे अपनी अलग नजरों से देखता है। पूरी फ़िल्म के जितने दर्शक होते हैं उतने ही मायने हो जाते हैं।

मिल्खा सिंह निभाने का डर

फरहान अख़्तरः डर और नर्वसनेस जरूरी फैक्टर हैं। हम डरते हैं कि अनुशासन में रहें, चूकें नहीं। ये फिलॉसफी उन्हीं से ली। मिल्खा सिंह जी ने कहा कि मेहनत करो, काम करो। इसके अलावा जब आप ज़ोन में आ जाते हैं तो सब होता जाता है। डर को आप एक्साइटमेंट बना लेते हैं। मिल्खा सिंह दौड़े नहीं उड़े थे, वो इसलिए क्योंकि उन्होंने अपने डरों को पीछे छोड़ दिया था।

किरदार के साथ कोशिशें

फरहानः इस किरदार से न्याय करने की कोशिश तो पूरी की है, और एक एक्टर का काम ही होता है कि कहानी के इमोशनल कंटेंट को, चाहे वो फिक्शनल हो या नॉन-फिक्शनल, परदे पर ऐसे दर्शाए कि लोगों को लगे कि परदे पर भावों का पूरा बहाव देख रहे हैं। इस फ़िल्म में अपनी खुद की कल्पना के अलावा मैं मिल्खा सिंह जी से बात करके पहलू और भावनाएं डालता था। किसी एक्टर की जिंदगी में ऐसे मौके बहुत कम आते हैं जब ऐसे किसी इंसान पर फ़िल्म बने और वो रोल आप करें। ये लाइफ एक्सपीरियंस है। मिल्खा सिंह और उनकी जिंदगी से बहुत कुछ सीखने को मिला है।

निर्देशक का निर्देशन करना

राकेशः ये तो आप उल्टा बोल रहे हैं। देखिए न कि मैं कितना अक्लमंद था कि मैंने अपना सारा काम आसान कर लिया। जैसे, मैथ्स का पेपर देने जा रहा हूं और जो टीचर है उसको बोल दिया कि आप लिख दो पेपर। बतौर निर्देशक मेरा काम करने का स्टाइल ये है कि मैं किसी के काम में दखल नहीं देता। मैं ये नहीं कह सकता कि ये मत कीजिए, मैं कहता हूं कि ये करिए। क्योंकि इंटरप्रिटेशन तो एक्टर का ही होगा। मैं हर फैसला इंस्टिंक्ट से लेता हूं। मेरे अंदर की आवाज मुझे दिशा दिखाती है। फिर भी अगर कभी मुझे ऐसा लगा कि मेरे इंस्टिंक्ट मेरे से दूर हैं और मेरी अंदरूनी आवाज जवाब नहीं दे रही तो फरहान से अच्छा बाउंसिंग बोर्ड और क्या हो सकता था। उनसे बहुत मदद मिलती थी। ये बहुत अच्छी बात है कि आपकी टीम में एक ऐसे मेंबर भी हैं जो मेंबर ही नहीं है बल्कि स्तंभ हैं।

प्रोफाइल बेहतर होगा कि जिंदगी

राकेशः ये करियर डिफाइनिंग फ़िल्म नहीं है, ये तो लाइफ डिफाइनिंग फ़िल्म है। मेरी जिंदगी बदल गई है इस फ़िल्म से। फिर से परिभाषित हुई है।

वस्तुपरकता रखी कि भावावेश में छोड़ दी

राकेशः मैं इसके बारे में बहुत कुछ बोल सकता हूं। पर मेरी गुजारिश है कि आप फ़िल्म देखें, आपको सारे जवाब मिल जाएंगे। शॉर्ट में ये कहना चाहूंगा कि किरदार इतने असल हैं जितने हो सकते थे। जिंदगी के करीब हैं। वे ब्लैक एंड वाइट नहीं हैं, ग्रे हैं। पक्का ग्रे हैं। होना भी चाहिए। हम सभी होते हैं।

शारीरिक कोशिशें/मुश्किलें

फरहानः काम मुश्किल तब होता है जब करने में आपको मजा नहीं आ रहा हो। मजा आ रहा होता है तो कोई दिक्कत ही नहीं, सब हो जाता है। फ़िल्म का और मिल्खा जी का कद इतना बड़ा है कि उसके लिए कुछ भी करना पड़े तो कम है, इसलिए जितना भी किया कम ही था।

इस किरदार से निकलने की प्रक्रिया

फरहानः मुश्किल है, क्योंकि बहुत इमोशनल इनवेस्टमेंट हुआ है। जिन लोगों के साथ काम किया है, उन्हें मिस करूंगा। लेकिन ये भी जरूरी है कि आप हमेशा अपने आप को याद दिलाएं कि इन सब चीजों के बाद आप एक कलाकार हैं , एक एक्टर हैं। आगे बढ़ने के लिए आपको कुछ ऐसी चीजें पीछे भी छोड़नी पड़ेंगी। अगर आप वहीं रह गए इमोशनली, तो आगे कैसे बढ़ेंगे, कुछ नया करने की कोशिश कैसे करेंगे, कुछ और पाने की कोशिश कैसे करेंगे। ये लड़ाई है और लड़नी पड़ती है इसलिए मैंने इसके बाद एक फ़िल्म की है ‘शादी के साइड इफेक्ट्स’। उसने भी मेरी बड़ी मदद की आगे बढ़ने में क्योंकि बहुत ही अलग किरदार था और दूसरे कास्ट और क्रू के साथ काम करने का मौका मिला। लेकिन ‘भाग मिल्खा भाग’ दुर्लभ अनुभव है। किरदार और फ़िल्म से लगाव का ऐसा अनुभव इससे पहले मेरे साथ ‘लक्ष्य’ के टाइम पर हुआ था। उस वक्त भी यादें और भाव मेरे साथ ही रुक गए थे। इस फ़िल्म में भी ऐसा ही हुआ। आशा करता हूं कि जिंदगी में ऐसी स्क्रिप्ट या कहानी फिर से आ सके जो मुझे ठीक वैसा ही महसूस करवाए जैसा ‘भाग मिल्खा भाग’ ने करवाया है।

सेना और मिल्खा सिंह

राकेशः मिल्खा सर की जिंदगी का बहुत अहम हिस्सा सेना रही। बचपन में उनके सिर के ऊपर न तो मां-बाप का साया था, न रहने को जगह थी, न पहनने को कपड़े थे, हाथ में चाकू था, कोयला-गेहूं-चीनी चुराते थे। तिहाड़ तक गए। पर उन्होंने एक मकसद बनाया कि इज्जत की रोटी खानी, मेहनत की कमाई खानी। तिहाड़ जेल में उनके सामने डाकू और खूनी भी आए और वो उनके साथ भी जा सकते थे, पर उन्होंने तय किया कि आर्मी में जाना है। तीन साल उन्होंने कोशिश की और चौथे साल में उनका चयन हुआ। आर्मी ने मिल्खा सिंह को पहचाना और हीरे को तराशा। बाद में दुनिया में जाकर मिल्खा सर ने अपना परचम लहराया, तिरंगा लहराया। वो हर बात में कहते हैं कि मैं जो भी हूं आर्मी की वजह से हूं। ये हम सब की खुशनसीबी है। ये बोलते हुए मेरे रौंगटे खड़े रहे हैं कि जहां से हमने शुरू की थी ये जर्नी। आज हम उसी शहर (चंडीगढ़) में वापस हैं। और इस बात के कितने बड़े मायने होते हैं ये मैं बोल तो गया हूं पर मुझे भी नहीं मालूम। बोलते-बोलते मुझे बड़ी अजीब सी फीलिंग आ रही है, दिल भी थोड़ा बैठ रहा है। ये फ़िल्म हम आर्मी को समर्पित कर रहे हैं।

Rakeysh Omprakash Mehra is an Indian filmmaker. He has directed Bhaag Milkha Bhaag (2013), Rang De Basanti (2006), Delhi-6 (2009) and Aks (2001). Farhan Akhtar is an Indian film director and actor. He made his directorial debut with Dil Chahta Hai (2001). Then he directed Lakshya (2004), Don (2006), and Don-2 (2011). He has acted in Rock on!! (2008) and Zindagi Na Milegi Dobara (2011). In Bhaag Milkha Bhaag he has portrayed Milkha Singh, an athlete.

Bhaag Milkha Bhaag released on July 12, 2013.
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