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Friday, July 12, 2013

भाग मिल्खा भागः राकेश मेहरा और फरहान अख़्तर से बातें

 Q & A. .Rakeysh Mehra (director) & Farhan Akhtar (actor), Bhaag Milkha Bhaag.

Farhan Akhtar with Rakeysh Omprakash Mehra, both looking at Milkha Singh. Photo: Jaswinder Singh

राकेश मेहरा से पिछली मुलाकात दो साल पहले हुई थी, तब वह अपनी निर्माण कंपनी की फिल्म ‘तीन थे भाई’ पर बात करने आए हुए थे। बातें बायोपिक बनाने के पीछे चलने वाले विचारों और ‘मिल्खा सिंह’ बनाने को लेकर उनकी सोच पर हुई। उसका संक्षिप्त अंश यहां पढ़ सकते हैं। जब उन्होंने मिल्खा सिंह की भूमिका के लिए फरहान अख़्तर का चयन कर लिया तो संयोग से कुछेक दिनों में फरहान से भी मुलाकात हुई। वे उस वक्त अपने निर्देशन में बनी 'डॉन-2' पर बात करने आए थे। बातचीत यहां पढ़ सकते हैं।

खैर, ‘भाग मिल्खा भाग’ आज रिलीज हो चुकी है। उससे एक दिन पहले राकेश और फरहान से बातचीत हुई। चंडीगढ़ में अपनी फिल्म का विशेष प्रीमियर मिल्खा सिंह और उनके परिवार की उपस्थिति में भारतीय सेना के लिए करने हेतु वे आए थे। पढ़ें कुछ अंशः

इस कहानी की कहानी

राकेश ओमप्रकाश मेहराः मिल्खा सिंह जी की जिंदगी से प्रेरित है ये कहानी। बचपन में मिल्खा सिंह की गाथा सुन-सुन के हम बड़े हुए। दो नाम होते थे, मिल्खा सिंह और दारा सिंह। आगे चलकर मौका मिला कि फ़िल्म बनानी है। तो मेरे एक मित्र हैं, उनके पास एक ऑटोबायोग्राफी मिली जो गुरुमुखी में थी और गुरुमुखी मुझे आती नहीं थी। हमारे प्रोड्यूसर हैं राजीव चंदन, उनके अंकल को आती थी पढ़नी। उन्होंने पहले दो-तीन पन्ने जब पढ़े, तो उसी में आग लग गई। मैंने कहा, यार रोक दीजिए। अपने दोस्त से मैंने कहा कि क्या मिल्खा सिंह से मिलवा सकते हैं। उन्होंने मीटिंग फिक्स करवाई। चंडीगढ़ आए, एक दिन बिताया। निम्मी आंटी (निर्मल कौर, मिल्खा सिंह की पत्नी) ने ऐसे घर पर रखा जैसे हम घर के ही हैं। पूरे दिन बातचीत हुई। जब मैं मुंबई के लिए वापस निकला तो अगले दो-चार महीने नींद उड़ गई थी क्योंकि मेरे लिए ये फैसला लेना बहुत मुश्किल काम होता है कि अगली फ़िल्म कौन सी बनेगी। जेहन में बातें चलती रहीं। फिर हम वापस आए मंजूरी लेने। उस वक्त जीव मिल्खा सिंह जी वहां थे। मिल्खा सर को बहुत सारे ऑफर आए, 50-50 लाख, एक-एक करोड़, डेढ़-डेढ़ करोड़। अब मिल्खा सर तो पिक्चर देखते नहीं, पर जीव रोज शाम को एक पिक्चर देखते हैं। उन्होंने बोला कि ये कहानी जाएगी तो राकेश को ही जाएगी और हम देंगे भी तो एक ही रुपये में देंगे। वो एक रुपया दस करोड़ रुपये से ज्यादा है, मेरी नजर में। उसके बदले भले आप सारा कुबेर का खजाना दे दो, वो भी कम है क्योंकि उस लाइफ की कोई कीमत लगाई नहीं जा सकती। हम 1960 का एक रुपये का नोट लेकर आए, वो मिला बड़ी मुश्किल से लेकिन मिल गया। उन्हें दिया। खैर, सारी बातों की एक बात ये है कि हमने फ़िल्म बनाई। फरहान ने एक्टिंग की, प्रसून ने लिखी। फिर भी हमने कुछ नहीं किया है। हमें ये मौका मिला, हमारे को चुना गया है, ये हमने नहीं चुना है। ये अपने आप हो जाती हैं चीजें, जबकि हमें लगता है हम कर रहे हैं। ये मौका मिला हमें, ये ही बड़ी बात है। हो सकता है कि हमसे कुछ छोटी-मोटी गलतियां हुई हों, पर हमने जान लगा दी है।

समयकाल

राकेशः ये कहानी 1947 से लेकर 1960 तक जाती है, फिर वहां रुक जाती है।

कितनी हकीकत, कितना फसाना

राकेशः एक फ़िल्म एक विजन होती है, संयुक्त प्रयास होता है। पहले उसे लिखा जाता है। जब गरम-गरम स्क्रिप्ट हाथ में आती है तो उसमें तस्वीरें डाली जाती हैं। वो कहते हैं न अंदाज-ए-बयां। एक शेर होगा तो आप अलग तरीके से पढ़ेंगे और मैं अलग तरीके से पढूंगा। फिर आर्ट डायरेक्टर के साथ और कैमरामैन के साथ बैठकर बात करने से स्पष्टता आ जाती है। स्क्रिप्ट फिर एक्टर्स को दी जाती है और एक्टर आकर सब बदल देते हैं। वो अपना लेकर आते हैं। ये मानवीय भावों का काम है। दर्शक सिनेमाघर आते हैं तो अपने इमोशन लेकर आते हैं और फ़िल्म में जोड़ते हैं। हम गाड़ियां तो बना नहीं रहे हैं कि एक गाड़ी बनाई और चल पड़ी तो वैसी ही दस लाख और बना दीं। तो मैं स्क्रिप्ट एक्टर के हाथ में देता हूं और तीन कदम पीछे होते हुए कैमरे के पीछे चला जाता हूं। एक्शन बोलता हूं और फिर सब उन पर है। इसमें अब वे अपना इंटरप्रिटेशन लाते हैं। कैमरामैन उसे अपनी नजरों से देखते हैं। फिर माल एडिटर के पास जाता है, वो अपने नजरिए से उसे काटता है। फ़िल्म बन जाती है तो ऑडियंस के सामने जाती है। अब हरेक ऑडियंस का हरेक मेंबर उसे अपनी अलग नजरों से देखता है। पूरी फ़िल्म के जितने दर्शक होते हैं उतने ही मायने हो जाते हैं।

मिल्खा सिंह निभाने का डर

फरहान अख़्तरः डर और नर्वसनेस जरूरी फैक्टर हैं। हम डरते हैं कि अनुशासन में रहें, चूकें नहीं। ये फिलॉसफी उन्हीं से ली। मिल्खा सिंह जी ने कहा कि मेहनत करो, काम करो। इसके अलावा जब आप ज़ोन में आ जाते हैं तो सब होता जाता है। डर को आप एक्साइटमेंट बना लेते हैं। मिल्खा सिंह दौड़े नहीं उड़े थे, वो इसलिए क्योंकि उन्होंने अपने डरों को पीछे छोड़ दिया था।

किरदार के साथ कोशिशें

फरहानः इस किरदार से न्याय करने की कोशिश तो पूरी की है, और एक एक्टर का काम ही होता है कि कहानी के इमोशनल कंटेंट को, चाहे वो फिक्शनल हो या नॉन-फिक्शनल, परदे पर ऐसे दर्शाए कि लोगों को लगे कि परदे पर भावों का पूरा बहाव देख रहे हैं। इस फ़िल्म में अपनी खुद की कल्पना के अलावा मैं मिल्खा सिंह जी से बात करके पहलू और भावनाएं डालता था। किसी एक्टर की जिंदगी में ऐसे मौके बहुत कम आते हैं जब ऐसे किसी इंसान पर फ़िल्म बने और वो रोल आप करें। ये लाइफ एक्सपीरियंस है। मिल्खा सिंह और उनकी जिंदगी से बहुत कुछ सीखने को मिला है।

निर्देशक का निर्देशन करना

राकेशः ये तो आप उल्टा बोल रहे हैं। देखिए न कि मैं कितना अक्लमंद था कि मैंने अपना सारा काम आसान कर लिया। जैसे, मैथ्स का पेपर देने जा रहा हूं और जो टीचर है उसको बोल दिया कि आप लिख दो पेपर। बतौर निर्देशक मेरा काम करने का स्टाइल ये है कि मैं किसी के काम में दखल नहीं देता। मैं ये नहीं कह सकता कि ये मत कीजिए, मैं कहता हूं कि ये करिए। क्योंकि इंटरप्रिटेशन तो एक्टर का ही होगा। मैं हर फैसला इंस्टिंक्ट से लेता हूं। मेरे अंदर की आवाज मुझे दिशा दिखाती है। फिर भी अगर कभी मुझे ऐसा लगा कि मेरे इंस्टिंक्ट मेरे से दूर हैं और मेरी अंदरूनी आवाज जवाब नहीं दे रही तो फरहान से अच्छा बाउंसिंग बोर्ड और क्या हो सकता था। उनसे बहुत मदद मिलती थी। ये बहुत अच्छी बात है कि आपकी टीम में एक ऐसे मेंबर भी हैं जो मेंबर ही नहीं है बल्कि स्तंभ हैं।

प्रोफाइल बेहतर होगा कि जिंदगी

राकेशः ये करियर डिफाइनिंग फ़िल्म नहीं है, ये तो लाइफ डिफाइनिंग फ़िल्म है। मेरी जिंदगी बदल गई है इस फ़िल्म से। फिर से परिभाषित हुई है।

वस्तुपरकता रखी कि भावावेश में छोड़ दी

राकेशः मैं इसके बारे में बहुत कुछ बोल सकता हूं। पर मेरी गुजारिश है कि आप फ़िल्म देखें, आपको सारे जवाब मिल जाएंगे। शॉर्ट में ये कहना चाहूंगा कि किरदार इतने असल हैं जितने हो सकते थे। जिंदगी के करीब हैं। वे ब्लैक एंड वाइट नहीं हैं, ग्रे हैं। पक्का ग्रे हैं। होना भी चाहिए। हम सभी होते हैं।

शारीरिक कोशिशें/मुश्किलें

फरहानः काम मुश्किल तब होता है जब करने में आपको मजा नहीं आ रहा हो। मजा आ रहा होता है तो कोई दिक्कत ही नहीं, सब हो जाता है। फ़िल्म का और मिल्खा जी का कद इतना बड़ा है कि उसके लिए कुछ भी करना पड़े तो कम है, इसलिए जितना भी किया कम ही था।

इस किरदार से निकलने की प्रक्रिया

फरहानः मुश्किल है, क्योंकि बहुत इमोशनल इनवेस्टमेंट हुआ है। जिन लोगों के साथ काम किया है, उन्हें मिस करूंगा। लेकिन ये भी जरूरी है कि आप हमेशा अपने आप को याद दिलाएं कि इन सब चीजों के बाद आप एक कलाकार हैं , एक एक्टर हैं। आगे बढ़ने के लिए आपको कुछ ऐसी चीजें पीछे भी छोड़नी पड़ेंगी। अगर आप वहीं रह गए इमोशनली, तो आगे कैसे बढ़ेंगे, कुछ नया करने की कोशिश कैसे करेंगे, कुछ और पाने की कोशिश कैसे करेंगे। ये लड़ाई है और लड़नी पड़ती है इसलिए मैंने इसके बाद एक फ़िल्म की है ‘शादी के साइड इफेक्ट्स’। उसने भी मेरी बड़ी मदद की आगे बढ़ने में क्योंकि बहुत ही अलग किरदार था और दूसरे कास्ट और क्रू के साथ काम करने का मौका मिला। लेकिन ‘भाग मिल्खा भाग’ दुर्लभ अनुभव है। किरदार और फ़िल्म से लगाव का ऐसा अनुभव इससे पहले मेरे साथ ‘लक्ष्य’ के टाइम पर हुआ था। उस वक्त भी यादें और भाव मेरे साथ ही रुक गए थे। इस फ़िल्म में भी ऐसा ही हुआ। आशा करता हूं कि जिंदगी में ऐसी स्क्रिप्ट या कहानी फिर से आ सके जो मुझे ठीक वैसा ही महसूस करवाए जैसा ‘भाग मिल्खा भाग’ ने करवाया है।

सेना और मिल्खा सिंह

राकेशः मिल्खा सर की जिंदगी का बहुत अहम हिस्सा सेना रही। बचपन में उनके सिर के ऊपर न तो मां-बाप का साया था, न रहने को जगह थी, न पहनने को कपड़े थे, हाथ में चाकू था, कोयला-गेहूं-चीनी चुराते थे। तिहाड़ तक गए। पर उन्होंने एक मकसद बनाया कि इज्जत की रोटी खानी, मेहनत की कमाई खानी। तिहाड़ जेल में उनके सामने डाकू और खूनी भी आए और वो उनके साथ भी जा सकते थे, पर उन्होंने तय किया कि आर्मी में जाना है। तीन साल उन्होंने कोशिश की और चौथे साल में उनका चयन हुआ। आर्मी ने मिल्खा सिंह को पहचाना और हीरे को तराशा। बाद में दुनिया में जाकर मिल्खा सर ने अपना परचम लहराया, तिरंगा लहराया। वो हर बात में कहते हैं कि मैं जो भी हूं आर्मी की वजह से हूं। ये हम सब की खुशनसीबी है। ये बोलते हुए मेरे रौंगटे खड़े रहे हैं कि जहां से हमने शुरू की थी ये जर्नी। आज हम उसी शहर (चंडीगढ़) में वापस हैं। और इस बात के कितने बड़े मायने होते हैं ये मैं बोल तो गया हूं पर मुझे भी नहीं मालूम। बोलते-बोलते मुझे बड़ी अजीब सी फीलिंग आ रही है, दिल भी थोड़ा बैठ रहा है। ये फ़िल्म हम आर्मी को समर्पित कर रहे हैं।

Rakeysh Omprakash Mehra is an Indian filmmaker. He has directed Bhaag Milkha Bhaag (2013), Rang De Basanti (2006), Delhi-6 (2009) and Aks (2001). Farhan Akhtar is an Indian film director and actor. He made his directorial debut with Dil Chahta Hai (2001). Then he directed Lakshya (2004), Don (2006), and Don-2 (2011). He has acted in Rock on!! (2008) and Zindagi Na Milegi Dobara (2011). In Bhaag Milkha Bhaag he has portrayed Milkha Singh, an athlete.

Bhaag Milkha Bhaag released on July 12, 2013.
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Saturday, December 24, 2011

"उन्होंने कोई आधा घंटा 40 मिनट मिल्खा की कहानी सुनाई और मैं दंग रह गयाः फरहान अख्तर"

उनके निर्देशन वाली पहली ही फिल्म 'दिल चाहता है को नेशनल अवॉर्ड मिला। फिल्म यूथ पर छा गई। अगली फिल्म 'लक्ष्य कुछ यूं रही कि आर्मी में ऑफिसर बनना चाह रहे लड़के इसका गाना (हां यही रस्ता है तेरा, तूने अब जाना है) सुनकर खुद को मोटिवेट करते। फिर 'रॉक ऑन में चार्टबस्टर गाने गाकर और एक्टिंग करके उन्होंने सबको चौंकाया। इस शुक्रवार शाहरुख खान के साथ उनकी बनाई 'डॉन’ की सीक्वल 'डॉन-2’ रिलीज हुई है। अब खास ये है कि डायरेक्टर राकेश ओमप्रकाश मेहरा की बहुप्रतीक्षित 'भाग मिल्खा भाग में मिल्खा सिंह का लीड रोल वो करेंगे। ये फरहान अख्तर हैं। सफल डायरेक्टर, सफल एक्टर, सफल प्रॉड्यूसर और सफल सिंगर। उनके खास सेंस ऑफ ह्यूमर और खराश भरी मोहक आवाज के साथ हुई ये बेहद संक्षिप्त मुलाकात। पढ़ें सबकुछ उऩके बातें डिलीवर करने के अपने अंदाज में, बिना कोई मोटी एडिटिंग के।


‘डॉन-2’ में आपको खुलकर खेलने का मौका मिला है? पिछली फिल्म में स्टोरी फिक्स थी, इसमें जैसे चाहे स्टोरी आगे बढ़ा सकते थे, जहां जाना चाहते जा सकते थे, जो करना चाहते कर सकते थे?
बिल्कुल। ऐसा ही था, आप बिल्कुल ठीक कह रहे हैं। ये एक्शन फिल्म है और सही मायनों में ये मेरी पहली एक्शन फिल्म है। जो पहली फिल्म थी वो ट्रिब्यूट थी, उस ‘डॉन’ को जो 1978 में आई थी। शाहरुख है, रितेश, प्रियंका, बोमन जी हैं, ओम जी हैं। सब के सब फैन थे पहली डॉन के। तो हमने सोचा कि मिलकर उस फिल्म को ट्रिब्यूट करें। उस फिल्म को ही नहीं, उस दौर में जो फिल्में बना करती थी। मैं बहुत प्रभावित हुआ हूं जिन फिल्मों से। तो इस बार मौका मिला है कि डॉन के कैरेक्टर को ऑरिजिनल स्क्रीनप्ले में डालने का, या जिस तरीके से मैं एक्शन फिल्मों को देखता-समझता हूं उस तरीके की एक्शन फिल्म बनाने का। तो ये वो मौका था जो मुझे मिला।

जब मैं प्रोमो देखता हूं ‘डॉन-2’ का, उसी वक्त ‘मिशन इम्पॉसिबल-4’ और ‘द गर्ल विद ड्रैगन टैटू’ के प्रोमो भी देखता हूं। इन्हें देख लगता है कि सबकी क्वालिटी एक ही है, एक ही रेंज की हैं, इनकी मेकिंग और रंग एक से ही हैं। तो ये बढ़िया चीज है। दूसरी चीज ये कि सब दिखने में एक जैसी हैं। ऐसे में हम कैसे पहचानें या भेद करें कि ये इंडियन फिल्म है? इंडियन आइडेंटिटी के साथ आई है? पहचान मुश्किल नहीं होती?
मतलब मैं इंडियन हूं, जो लोग हैं इस फिल्म में वो इंडियन हैं। जिस लेंग्वेज में बात करते हैं वो हिंदी है। हिंदुस्तानी जबान। कुछ दो दिन पहले शाहरुख और मैं बात कर रहे थे कि ये सवाल काफी पूछा गया है, और हमारी फिल्म की ‘एम.आई.4’ से काफी तुलना की जा रही है। तो हम लोग सोच रहे थे कि एक्चुअली इतनी अच्छी बात है और इतनी बड़ी बात है। अगर सोचने जाएं कि पांच साल पहले जब ‘डॉन-1’ रिलीज हुई थी, तो उसी साल ‘एम.आई.3’ भी रिलीज हुई थी। तो मतलब कभी ये बात हुई ही नहीं कि दोनों फिल्मों का नाम एक ही सेंटेंस में लिया जाता हो। मगर जो अवेयरनेस है इंडियन फिल्मों की, जो टेक्नीकल सैवी आ गई है हिंदी फिल्मों में, जो पॉलिश आ गई है, सॉफिस्टिकेशन आ गई है, जिस तरीके से लोकेशंस पर हम वेलकम किए जाते हैं शूट करने के लिए। और एक जो ऑडियंस बढ़ रहा है इस फिल्म का। तो एक्चुअली ये बड़ी गर्व करने की बात है। कि ‘एम.आई.’ या हॉलीवुड की बड़ी फिल्मों के साथ एक बराबरी पर हमारा नाम लिया जाए, हमारी फिल्मों की बात हो। ये बात दिखाती है कि इंडियन फिल्में कितनी बढ़ी हैं। तो मुझे उससे प्रॉब्लम नहीं है, जहां तक कहानी के फर्क का सवाल है तो ‘एम.आई.4’ अलग ही होगी, मैंने तो नहीं देखी। रितेश ने जाकर देखी, शाहरुख ने जाकर देखी। उन हॉलीवुड फिल्मों का जो अंदाज है स्टोरीटेलिंग का, वो हमारे स्टोरीटेलिंग अंदाज से अलग होता है। जब ऑडियंस देखेगी तो खुद-ब-खुद समझ जाएगी।

भाग मिल्खा भाग की शूटिंग कब शुरू हो रही है?
मार्च से शुरू हो रही है।

तो आप कैसे जुड़े, पहले राकेश ओमप्रकाश मेहरा ऑडिशन करने वाले थे मिल्खा सिंह के लीड रोल के लिए।
ये सारी डीटेल तो मुझे नहीं पता, वो तो वो ही बता सकेंगे। मगर, वो मुझे मिले ऑफिस में। और उन्होंने मुझे कुछ आधे घंटे 40 मिनट में कहानी सुनाई, मैं बिल्कुल दंग रह गया कि एक तो इतनी अच्छी कहानी लिखी है, मुझे इसमें किरदार निभाने का मौका मिल रहा है। ये बहुत ही इम्पॉर्टेंट फिल्म है हिस्सा लेने के लिए। मुझे ताज्जुब भी बहुत हुआ, जैसे आप कह रहे हैं कि ऑडिशन किया था राकेश जी ने ‘भाग मिल्खा भाग’ के लिए। दूसरे लोगों से भी बात की होगी उन्होंने। मुझे बहुत ताज्जुब था कि उन्हें इतनी मुश्किल क्यों हो रही है एक एक्टर ढूंढने में। जब कहानी इतनी बेहतरीन है। तो मैं उन सब एक्टर्स को भी शुक्रिया कहना चाहूंगा जिन्होंने शायद न की हो (हंसते हुए) इससे मुझे मौका मिल गया।

मिल्खा सिंह बनने के लिए खुद को फिजीकली कितना पुश किया?
चल रहा है, जारी है। मैं ट्रेन कर रहा हूं। सेंट्रल रेलवे के एक कोच हैं, दिल्ली के भी एक कोच हैं रितेंदर सिंह जी। वो हमारे हैड कोच हैं। उन्होंने सेंट्रल रेलवे के मुंबई में एक कोच हैं मेल्विन, उन्हें मेरा कोच बनाया है। हफ्ते में तीन दिन ट्रेन करता हूं। अभी तो इतना ट्रेवल वगैरह कर रहा हूं कि लगातार प्रैक्टिस का टाइम नहीं मिलता है। मगर देखिए ‘डॉन-2’ रिलीज होगी। फिर जनवरी से शुरू करेंगे। हफ्ते में चार दिन, और जैसे बढ़ते जाएगा तो पांच दिन और छह दिन।

स्क्रिप्ट कितनी एक्साइटिंग है?
बहुत ही ज्यादा एक्साइटिंग है। मैंने लिखी नहीं है, मैं डायरेक्टर नहीं हूं तो ज्यादा कह नहीं सकूंगा उस बारे में। किसी और की प्रॉपर्टी है, इंटेलेक्चुअल राइट्स हैं। मगर बहुत ही बेहतरीन फिल्म है। कहानी के अलावा इसमें एक पॉजिटिव मैसेज है। हम सब थोड़े कम्फर्ट में हमेशा रहने के आदी हो गए हैं। लेकिन जो आप हासिल करना चाहते हैं उसके लिए अपने कम्फर्ट से कॉम्प्रोमाइज करने को कितना तैयार हैं ये सीखने की बात है। उन्होंने (मिल्खा सिंह) इतनी कुर्बानियां दी हैं, जो वो रनर बने, किस तरीके से बने, किस तरह का मोटिवेशन था उनका, किन मुश्किलों से गुजरना पड़ा उन्हें। ये बहुत अच्छा मैसेज है आज के यूथ के लिए। यूथ में थोड़ा बहुत कनफ्यूजन हमेशा रहता है, क्योंकि मौके इतने ज्यादा हो गए हैं, उन्हें लगता है कि आसानी से कुछ भी बन सकता हूं। मगर त्याग तो करना पड़ता है। ये स्पिरिट का बहुत अच्छा मैसेज है।

एक्टिंग, डायरेक्शन, प्रोडक्शन आपने किया। बहुत कम लोग जानते हैं कि आपने और जोया नेब्राइड एंड प्रेजुडिसके तीन सॉन्ग लिखे थे। वो कैसे हुआ?
एक्चुअली, गुरिंदर जी की फिल्म में मेरे पिता जावेद अख्तर साहब लिरिक्स लिख रहे थे हिंदी में। तो गुरिंदर जी ने कहा कि वो चाहती हैं कि इंग्लिश में लिरिक्स भी वो ही लिखें। उन्होंने कहा कि “दरअसल अंग्रेजी में लिरिक्स लिखने में मैं इतना कम्फर्टेबल नहीं हूं। लेकिन जोया और फरहान दोनों इंग्लिश में पोएट्री लिखते हैं, शायद मैं उनसे बात कर सकता हूं। आप मिल लीजिए, अगर लगे कि वो कुछ अच्छा लिखकर दे सकते हैं तो ठीक है।“ हमारी मुलाकात हुई गुरिंदर जी से, हमने एक गाना लिखकर दिया, और उन्हें बहुत अच्छा लगा। बस वही हुआ।

जिंदगी मिलेगी दोबारामें जावेद साहब की लिखी पोएट्री की लाइन्स आप फिल्म में बीच-बीच में जिस अंदाज में बोलते रहते हैं उसे काफी पसंद किया गया। (बहुत-बहुत शु्क्रिया), उसमें आपने खुद कुछ ध्यान रखा या जावेद साहब से बात की?
मैंने उनसे काफी बात की। मैंने उन्हें कहा कि आप मुझे रिसाइट करके टेप या सीडी में दे दीजिए। मैं सुनता रहूंगा क्योंकि एक अंदाज होता है बोलने का, जो मतलब हम डायलॉग लिखते हैं, डायलॉग बोलते हैं। जब आप नज्म पढ़ते हो या करीमा पढ़ते हो, तो उसमें जो वजन होता है, और कि कहां वजन आना चाहिए, कहां जल्दी बात निकल जाए या थोड़ा पॉज भी रहे। ये सब सीखना पड़ेगा। तो ये मैंने उनसे सीखा है। अगर घर में इतने टेलंटेड पोएट हैं तो कहीं और जाने की जरूरत भी नहीं पड़ी। मैं बहुत भाग्यशाली हूं इस मामले में, कि मैं उनसे इस मामले में इतनी डीटेल में बात कर सकता हूं।

आपने एचआईवी एड्स पर एकपॉजिटिवनाम की शॉर्ट फिल्म बनाई थी। उसकी मेकिंग कैसे हुई?
मेरा ये मानना है कि एचआईवी अवेयरनेस इस देश के लिए बहुत जरूरी है। ताकि आप एचआईवी अवॉयड कर सकें, सेफ्टी से अपनी जिंदगी जी सकें। एक ये भी पहलू है कि अगर आपकी फैमिली में, दोस्तों में किसी को ये इनफेक्शन हो जाए तो बहुत जरूरी है कि उनके साथ आपका बर्ताव बदले नहीं। क्योंकि वो बस एक मरीज है, उसने कोई जुर्म नहीं किया है। मतलब, लोग उन्हें कभी-कभी आउटकास्ट कर देते हैं। तो ये सब बताना-दिखना फिल्मों में बहुत जरूरी था। मीरा जी (मीरा नायर, डायरेक्टर) जो हैं उन्होंने मुझे फोन करके पूछा कि क्या मैं एक शॉर्ट फिल्म बनाना चाहूंगा। मैं खुद भी सोच रहा था कि किस तरीके से इस मुद्दे को उठाया जाए। मुझे लगा कि मैं ऐसे परिवार की बात करूं जिसमें एक मेंबर को ये इनफेक्शन हो गया है। उस फिल्म की सीडी डिस्ट्रीब्यूट हुई थी हर जगह। इंटरनेट पर भी फ्री अवेलेबल थी। सिर्फ मेरी फिल्म को ही नहीं, विशाल (भारद्वाज) ने भी एक शॉर्ट फिल्म बनाई थी, संतोष सिवन ने भी एक फिल्म बनाई थी और मीरा खुद ने। चारों शॉर्ट फिल्मों को लोगों ने बहुत सराहा है।

आपने एक्टिंग कहीं सीखी, क्योंकि एफर्टलेस लगती है?
नहीं, मुझे शौक बचपन से था एक्टिंग था। जब बड़ा हुआ तो, अंदर एक आवाज होनी चाहिए जो कहे कि अब तुम तैयार हो, वो आवाज मैंने 2008 तक कभी सुनी नहीं (हंसते हुए)। इसलिए मैं दूर ही रहा हूं। क्योंकि बहुत बड़ी जिम्मेदारी होती है, किसी और की स्क्रिप्ट होती है, डायरेक्शन होता है, तो मतलब अपने मन को बहलाने के लिए आप एक्टर नहीं बन सकते। जब मुझे लगा कि अब मैं एक्टिंग करने के लिए तैयार हूं, मैं डिलीवर कुछ कर पाऊंगा, तब मैंने ये स्टेप ले लिया। थैंक यू अगर आपको एफर्टलेस लगी।

दिल चाहता हैको नेशनल अवॉर्ड मिला। लोगों ने सराहा। आपको पता है कि देश के अंदरुनी हिस्सों में युवाओं पर इसका कितना असर पड़ा? फीडबैक मिलता है उसका?
हां, मिलता है। तब इंटरनेट और दूसरा कम्युनिकेशन इतना था नहीं। पर जब मैं ट्रेवल कर रहा था ‘लक्ष्य’ बनाने के दौरान देहरादून, दिल्ली और लद्दाख तो ये जानकर अमेजिंग लगा कि कहां-कहां लोगों ने फिल्म देखी है। और आज भी मैं कहीं जाता हूं, जैसे अभी कुछ दिन पहले कानपुर में था, इंदौर में था, जहां भी मैं जाता हूं लोग उस फिल्म के बारे में जिक्र हमेशा करते हैं। यूथ पर इस फिल्म का बड़ा असर रहा और खुशी की बात है अगर आपका पहला काम कुछ ऐसा कर दिखाए या यादगार हो जाए। अपने आपको लकी मानता हूं।

मौजूदा फिल्मों में कौनसी पसंद है?
जो कुछ अलग कर रही हैं, जैसे एक ‘देल्ही बैली’ थी। उसने कुछ नियम तोड़े हैं हालांकि उसमें कॉन्ट्रोवर्शियल भी था। मगर मेरी ये सोच है कि अगर सिनेमा को इवॉल्व करना है तो हमें थोड़ा सा खुलना पड़ेगा। अगर एक ही नियम के भीतर घूमते रहेंगे तो लोग बोर हो जाएंगे। वही सब कुछ हो रहा है, उसी जबान में लोग बात कर रहे हैं, तो आपको बदलने की जरूरत है। थोड़ा बहुत रियल होना जरूरी है। उसके अलावा ‘डर्टी पिक्चर’ थोड़ी बहुत अच्छी लगी, वो अलग सी थी। ‘सिंघम’ मुझे एक्चुअली बहुत पसंद आई, जो एक मेनस्ट्रीम रिवाइवल ऑफ द ओल्ड फॉर्म्युला कहते हैं।
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गजेंद्र सिंह भाटी

Friday, August 12, 2011

'मिल्खा को शब्दों में शायद समझा न पाऊं'

फिल्मकार राकेश ओमप्रकाश मेहरा से मुलाकात
कॉलेज के बाद दिल्ली की गलियों में महीनों यूरेका फोब्र्स के वेक्यूम क्लीनर बेचने वाले राकेश बिल्कुल नहीं बदले। तब दोस्त मल्टीनेशनल्स में लगे और ये सेल्समैन बने। आज साथी फिल्ममेकर सुनी-सुनाई आसानी से बनने वाली कमर्शियल फिल्में बना रहे हैं और वह इंडिया के आइकॉनिक धावक मिल्खा सिंह पर बायोपिक अक्टूबर तक शुरू करने वाले हैं। थोड़ा नर्वस हैं, पर भेड़चाल में घुसने की मंशा नहीं है।
हाल ही में आपने 'तीन थे भाई' प्रॉड्यूस की थी। क्या लगा नहीं था कि वसीयत की कहानी पर दर्जनों फिल्में बन चुकी हैं, तो इसे क्यों प्रॉड्यूस किया जाए?
दुनिया में गिने-चुने प्लॉट ही होते हैं। बस बोलने का तरीका और कहानी में अनोखापन अलग होता है। ये एक कैरेक्टर ड्रिवन स्टोरी थी, सुनते ही मुझे कैरेक्टर्स से प्यार हो गया। इतनी जगह रामलीलाएं होती हैं, कहते तो वो भी एक ही कहानी हैं।

फ़िल्म बनाते वक्त आपमें
बैठे प्रॉड्यूसर-डायरेक्टर पर किसका प्रैशर होता है, मार्केट का या क्रिएटिव हूक का?
मेरा तो मेरे से ही होता है, अपने आप से। कि एक्सीलेंस का पीछा करता रहूं, काम अच्छा हो जाए। गलतियां तो इस दौरान होती रहती हैं। पर आपका छोटा सा प्रयास भी ऑडियंस को छूता है। हमारी ऑडियंस बहुत ब्रिलियंट है, वो दो मिनट में पहचान जाती है, कि किसने क्या किया है।

'भाग मिल्खा भाग' की शूटिंग चंडीगढ़ के आस-पास शुरू होने वाली थी। पर मैंने कहीं पढ़ा कि आप थोड़ा सा नर्वस हो रहे हैं?
थोड़ा सा? मैं रातों को सो नहीं पाता। इसके लिए थोड़ा सा कहना तो बहुत कम होगा। बड़ी चैलेंजिंग स्टोरी है। एक रियल लाइफ स्टोरी पर काम करने और उसे ड्रमैटिक बनाने में जरूरतें ही कुछ और हो जाती हैं। रियल इंसान पर बात कर रहे हैं तो हकीकत से जुड़े रहने होता है, सिनसियर बने रहना है, स्टोरी से जस्टिस करना है। मैं जब इस जर्नी में घुसता हूं तो दिल में इमोशन उमडऩे लगते हैं, शायद मैं आपको जुबां से समझा न पाऊं।

80-100 करोड़ में फिल्में बन रही हैं, स्टार्स करोड़ों फीस ले रहे हैं, पर रिजल्ट अच्छा नहीं दे रहे है?
ये स्क्रिप्ट तय करती है कि पैसा कितना लगे। अगर द्वितीय विश्व युद्ध पर या आजादी पर या कॉस्ट्यूम ड्रामा फिल्म बना रहे हैं तो बजट बड़ा होगा। अगर आप 'शोले' बना रहे हैं जिसमें ट्रेन सीक्वेंस है या बहुत सी रॉबरी हैं तो बजट बड़ा होगा। मगर सिंपल आइडिया पर रोमेंटिक या कॉमेडी बना रहे हैं तो बजट कम होना चाहिए। हमें अपने बजट को स्टार्स की तुलना पर नहीं लाना चाहिए। सौ-डेढ़ सौ करोड़ की फिल्म बनाइए पर वो परदे पर दिखना चाहिए। पर जरूरत से ज्यादा खर्चा खराब है। मैं दूसरों की बात क्यों करूँ, मैंने 'दिल्ली-6' बनाई और जहां एक रुपया खर्च करना था वहां दो रुपए खर्च किए। पर अब मैं सीख चुका हूं।

'दिल्ली-6' में काला बंदर था, तो 'अक्स' में नेगेटिव पॉजिटिव का चेंज-इंटरचेंज। लोगों को ये एब्सट्रैक्ट पॉइंट समझ नहीं आए, ऐसे में फिल्ममेकर के तौर पर क्या बीतती है?
यही सोचता हूं कि मेरे को सीखना चाहिए। जो मैं बोल रहा हूं वो सही है, बस उसके बोलने के तरीके को और सहज करूं तो और फिल्म का आधार और व्यापक हो जाएगा। जरूरी ये नहीं कि फिल्म पांच या सात करोड़ में बनी है, जरूरी ये है कि उसकी कीमत सौ रूपए जितनी है कि नहीं। अपनी मेहनत से कमाए 100 रुपए से टिकट खरीदकर ऑडियंस फिल्म देखने जाती है, तो उसको उसकी कीमत मिलनी चाहिए। कई बार उसे 100 में हजार रूपए का अनुभव होता है, कई बार प्राइसलेस। जैसे लगा कि 'रंग दे बसंती' में हमने लाखों का अनुभव ले लिया, पर कई बार ऐसे नहीं हुआ।

'रंग दे बसंती' में क्रांतिकारियों की फुटेज और मौजूदा दौर को जैसे मिक्स किया, क्या वैसा ही 'भाग मिल्खा..' में भी करना पड़ेगा?
रंग दे.. में एक फिल्म में दो फिल्में चल रही थी। एक 1920 की क्रांति थी, जो चंद्रशेखर आजाद से होते हुए भगतसिंह तक पहुंची थी। पर मिल्खा जी की स्टोरी में हम मिल्खा जी पर ही फोकस्ड रहे हैं। फिल्म में हमें एक तो ग्यारह साल के मिल्खा को दिखाना है और एक बीस से अठाइस साल तक के मिल्खा को।

पर वो ब्लैक एंड वाइट दौर तो क्रिएट करना होगा न?
हां, पर आज मिलता नहीं है। आज की सड़कें देख लीजिए, तब मिट्टी की सड़कें होती थी। पहले टीवी, उसके एंटीने, मोबाइल टावर्स कुछ नहीं होते थे, तो ऐसी जगहें ढूंढनी पड़ेंगी। ईंटें भी अलग होती थी, मिट्टी के घर होते थे, अलग गाडिय़ां होती थी, तो वो सब ढूंढ-ढूंढ कर लानी पड़ेगी।

यूं नहीं लगता कि फिल्मों में एंट्री लेने से पहले बहुत कहानियां थी और अब कुछ भी आइडिया नहीं है?
सौ प्रतिशत ऐसा ही है। कमाल का सवाल है। जो आपके अंदर ये है वो ही बाहर निकलेगा। आप राइट साइड से खाली होते हैं तो अपने आप को भरने की बहुत जरूरत है, इसलिए लाइफ से जुडऩा पड़ता है। जैसे आप जुड़े हुए थे पहले। फ्रैश आइडियाज के लिए लोगों से मिलो, लोगों से प्यार करो, जिंदगी से प्यार करो, सोचो, जिनके लिए आप बनाना चाह रहे हो वैसे ही माहौलों में जाओ। बैसिकली अपने आप को सिंपल रखो, अलग मत रखो। खुद को रीइनवेंट करते रहो।

कौन सी फिल्मों पर काम कर रहे हैं?
दो-चार कहानियां और है। एक 'राजा' हैं, मिथिकल है, 1898 में सेट है। कृष्ण की कहानी है उनकी बांसुरी की कहानी है। 'कैजुअल कामसूत्र' है जो वल्र्ड फैशन में धूसर ग्रामीण अक्स दिखाएगी। कहानियां तो हैं। एक 'भैरवी' है।

कुछ और...
# मेरी फेवरेट फिल्में 50 और 60 के दशक की हैं। जब हम एस्केपिस्ट सिनेमा में नहीं घुसे थे, उससे पहले की। मैं अभी भी उन फिल्मों के इर्द-गिर्द ही घूम रहा हूं।
# सक्सेस को रिपीट करना जिंदगी में सबसे बोरिंग चीज है।
# ये सोचना गलत है कि अमेरिका से फिल्म कोर्स करके आओगे तो फिल्म बनाओगे। बनाओगे भी तो गलत, क्योंकि वो ज्यादा से ज्यादा एक अमेरिकन आइडिया मेड इन इंडिया होगी।
# बदलाव तभी आएगा जब कस्बों और छोटे शहरों से फिल्में बननी शुरू होंगी। जब वहां से सब्जेक्ट आएंगे, वहां से लोग आएंगे।