शुक्रवार, 19 जुलाई 2013

शोएब मंसूर की ‘बोल’ के बाद अब पाकिस्तान से आ रही है ‘जिंदा भाग’; बातें निर्देशकों मीनू गौड़ व फरज़ाद नबी से

 Q & A. .Meenu Gaur & Farjad Nabi, director duo of Pakistani film “Zinda Bhaag”.

Farjad Nabi and Meenu Gaur, during the shooting of "Zinda Bhaag."
भारी टैक्स और सेंसरशिप के बीच छटपटाती पाकिस्तान की फ़िल्म इंडस्ट्री में बनीं तो ‘जट्ट दे गंडासे’ जैसी ही फ़िल्में, जैसी भारतीय पंजाब में काफी वक्त तक बनती रहीं। इस बीच भारत में बैठकर हमें अगर पाकिस्तानी सिनेमा की ख़ैरियत मिलती रही तो सबीहा सुमर की फ़िल्म ‘ख़ामोश पानी’ (2003) से, शोएब मंसूर की ‘ख़ुदा के लिए’ (2007) से और मेहरीन जब्बार की ‘रामचंद पाकिस्तानी’ (2008) से। बेहद अच्छी फ़िल्में रहीं। दो साल पहले मंसूर की ही फ़िल्म ‘बोल’ भी आई। कोई भी दर्शक, चाहे वो मामूली समझ-बूझ वाला हो या बेहद बुद्धिजीवी, ऐसा नहीं था जिसे इस फ़िल्म ने भीतर तक नहीं छुआ। जब-जब ‘बोल’ की बात आज भी होती है, आदर के साथ होती है। पाकिस्तानी सिनेमा को वहां से आगे ले जाने की कोशिश करती एक और फ़िल्म तैयार है। नाम है ‘जिंदा भाग’। वहां के सिनेमा के लिए ये वही काम कर सकती है जो भारतीय सिनेमा के लिए ‘खोसला का घोंसला’ ने किया।

इस फ़िल्म को बनाया है प्रोड्यूसर मज़हर ज़ैदी और डायरेक्टर द्वय फरज़ाद नबी और मीनू गौड़ ने। अपनी ही मेहनत, सोच और छोटी-छोटी संघर्ष भरी कोशिशों से इन्होंने एक परिपूर्ण फ़िल्म बनाने का ख़्वाब देखा है। फ़िल्म की कहानी तीन पाकिस्तानी लड़कों की है जो अपनी-अपनी जिदंगी की परेशानियों को दूर करने और समृद्ध होने के ख़्वाबों को पाने के लिए ‘डंकी मार्ग’ यानी गैर-कानूनी इमिग्रेशन का रास्ता अख़्तियार करते हैं। बेहद सच्ची परिस्थितियों और सार्थक मनोरंजन के बीच ही फ़िल्म को रखने की कोशिश की गई है। नसीरूद्दीन शाह भी एक प्रमुख भूमिका कर रहे हैं। इसमें ‘बोल’ में दकियानूसी ख़्यालों वाले पिता की बेहतरीन भूमिका करने वाले मंजर सहबई भी थोड़ी देर के लिए नजर आएंगे। फ़िल्म में एक अभिनेत्री और तीन नए अभिनेता (आमना इल्यास, खुर्रम पतरास, सलमान अहमद ख़ान, जोएब) केंद्रीय भूमिकाओं में हैं। संगीत साहिर अली बग्गा ने दिया है जो पंजाबी फ़िल्म ‘विरसा’ का लोकप्रिय गीत “मैं तैनू समझावां की...” गा चुके हैं। ‘जिंदा भाग’ के गाने राहत फतेह अली ख़ान, आरिफ लोहार, अमानत अली और सलीमा जव्वाद ने गाए हैं।

प्रोड्यूसर मज़हर और फरज़ाद पहले जर्नलिस्ट रहे हैं, बाद में फ़िल्म निर्माण में आ गए। गंभीर मिजाज के फरज़ाद को उनकी डॉक्युमेंट्री ‘नुसरत इमारत से निकल गए हैं... लेकिन कब?’ (Nusrat has Left the Building... But When?) और ‘प्रोफेसर का यकीन कोई नहीं करता’ (No One Believes the Professor) के लिए जाना जाता है। इसे साउथ एशिया में कई पुरस्कार मिले। इसके अलावा उनके लिखे पंजाबी स्टेज प्ले ‘अन्ही चुन्नी दी टिक्की’ (Bread of Chaff & Husk) और ‘जीभो जानी दी कहानी’ (The Story of Jeebho Jani) हाल ही में प्रकाशित हुए हैं। वहीं मीनू भारत की ही रहने वाली हैं। मज़हर से शादी के बाद वह पांच साल से कराची और लंदन के बीच बसेरा करती हैं। वह जामिया मिल्लिया इस्लामिया, दिल्ली से पढ़ी हैं। 2010 में उन्होंने लंदन विश्वविद्यालय से फ़िल्म और मीडिया स्टडीज में पीएचडी की। इसके लिए उन्हें फेलिक्स स्कॉलरशिप और चार्ल्स वॉलेस स्कॉलरशिप प्राप्त हुई। वह एक पुरस्कृत डॉक्युमेंट्री फ़िल्म ‘पैराडाइज ऑन अ रिवर ऑफ हेल’ (Paradise On A River Of Hell) का निर्देशन कर चुकी हैं।

अपनी फ़िल्म को अगले महीने यानी अगस्त तक पाकिस्तान, पश्चिमी देशों और भारत में रिलीज करने की योजना बना रहे फरज़ाद और मीनू से बातचीत हुई:

Poster of the movie.
 Q.. जिंदा भाग का ‘आइडिया’ सबसे पहले कब आया? किस्सा क्या था?
फरज़ाद नबीः जब आप गैर-कानूनी अप्रवासियों (इमिग्रेशन) की कहानियां सुनते हैं तो फैक्ट और फिक्शन की लाइन मिटती चली जाती है। इन कहानियों में हीरोइज़्म और ट्रैजेडी आपस में उलझते होते हैं। जब हमने अपने दोस्तों से ऐसी कहानियां इकट्ठी कीं तो हमारे लिए सबसे बड़ा सवाल था कि वो कौन सी जरूरत, ख़्वाहिश या दबाव हैं जो हमारे मुल्क (भारत, पाकिस्तान, नेपाल, बांग्लादेश, श्रीलंका) के नौजवान लड़कों को गैर-कानूनी इमिग्रेशन या ‘डंकी का रास्ता’ चुनने पे मजबूर करते हैं। इसी सवाल के जवाब में ये स्क्रिप्ट लिखी गई।
मीनू गौड़ः हमारी फ़िल्म ‘जिंदा भाग’ एक साउथ एशिया फ़िल्म प्रोजेक्ट के साथ जुड़ी है, जिसकी थीम मैस्क्युलिनिटी है। जब हम इस फ़िल्म की रिसर्च पर निकले तो हमें एहसास हुआ कि अपनी जान पे खेल के, डंकी के रास्ते फॉरेन जाने को मर्दानगी का इज़हार माना जाता है। इस नज़रिए में जिदंगी को एक जुए के तौर पर बरता जाता है और नौजवान लड़के हर समय किसी शॉर्टकट या जैकपॉट की ताक में रहते हैं। रिसर्च के दौरान हमें इन लड़कों की खीझ का अंदाजा हुआ। आज के दौर में सक्सेस और सक्सेसफुल होने का प्रैशर एक तरफ और दूसरी तरफ ये एहसास कि हर जायज रास्ता आपके लिए बंद है, हमारी फ़िल्म इसके दरमियां की कहानी बयां करती है।

 Q.. उस कहानी को स्क्रिप्ट की शक्ल देने तक आप दोनों में क्या विमर्श चले? फ़िल्म और उसके संदेश के पीछे पूरी बहस क्या रही?
 मीनूः असल मैं स्टोरी और स्क्रिप्ट साथ-साथ डिवेलप हुए। कुछ राइटर्स के पास पहले स्टोरी होती है और कुछ को पता नहीं होता कि ये स्टोरी क्या दिशा लेगी। हमारे पास शुरू में कुछ सीन्स थे, पूरे-पूरे, डायलॉग्स समेत। हमें फिर बाकी सीन तक पहुंचने का रास्ता बनाना पड़ता। आई थिंक, ये तरीका ज्यादा मुश्किल है और अगली बार हमने ठान ली कि पहले कहानी और फिर सीन और डायलॉग्स की डीटेल। लेकिन हमारे इस तरीके का फायदा ये था कि हमें हर डायलॉग और सीन के पीछे बहुत खास मोटिवेशंस सोचने पड़ते। शायद ज्यादा स्पॉनटेनियस भी था ये प्रोसेस। एक राइटर के तौर पर बहुत संतुष्टि होती है जब आप ये नहीं जानते कि आपके कैरेक्टर्स अब क्या करने लगेंगे। इस प्रोसेस में ज्यादा एक्साइटमेंट भी होती है और ये ज्यादा तकलीफ भरा भी होता है।
फरज़ादः मैसेज पर ये स्पष्टता थी कि फ़िल्म की आवाज असली होनी चाहिए, नक़ली नहीं। कुछ कैरेक्टर्स मुक़म्मल तौर पर रीराइट हुए क्योंकि उनकी आवाज स्वाभाविक नहीं थी। फिर स्ट्रक्चर के ऊपर बहुत मेहनत हुई क्योंकि इस फ़िल्म के ढांचे में एक बहुत अनोखा तत्व है जो देखिएगा, अभी ज्यादा नहीं कह सकता।

 Q.. क्या ऐसा भी है कि फरज़ाद ने कहानी के तीन लड़कों की हरकतें, अदाएं और सोच बचपन या जवानी के असल दोस्तों से पाई? और कहानी की बड़बोली हीरोइन के चारित्रिक गुण मीनू ने अपनी किसी सहेली में देखे और याद रखे?
फरज़ादः ऐसा सख़्त विभाजन तो बिल्कुल नहीं था। तमाम किरदार एक मुसलसल बहाव का हिस्सा हैं। कभी मुझे कोई आइडिया आता तो मीनू उसको शेप करतीं, और कभी मीनू के आइडिया को मैं शक्ल देता। अंत में ये किसी को याद भी नहीं रहता कि आइडिया किसका था और लाइन्स किसकी। ये हमारी ताकत है।
मीनूः हर राइटर अपने आस-पास के लोगों से प्रेरित किरदार और व्यक्तित्व लिखते हैं। लेकिन लिखने के प्रोसेस के दौरान वो किरदार इतने तब्दील हो जाते हैं कि फिर पहचाने नहीं जाते। एक कैरेक्टर सिर्फ एक रियल पर्सन से नहीं बल्कि सैकड़ों लोगों को मिला के बनता है। तो रुबीना के किरदार के डीटेल्स एक से ज्यादा लोगों से प्रेरित हैं। जब कल्पना उस प्रेरणा पे काम शुरू करती है तो ओरिजिनल प्रेरणा बहुत पीछे छूटती जाती है।

 Q.. नसीरूद्दीन शाह को कैसे प्रस्ताव भेजा? क्या उन्हें लेने से सबका ध्यान सिर्फ उन्हीं पर केंद्रित होकर नहीं रह जाएगा?
मीनूः जब हम ‘पहलवान’ का किरदार लिख रहे थे तो हमें पता था कि इस रोल को सिर्फ और सिर्फ एक बहुत पहुंचे हुए एक्टर अदा कर सकते हैं। ये एक मुश्किल रोल था। जब हम सोचने लगे तो बस बार-बार नसीरूद्दीन शाह साहब का ही जिक्र होता। फिर हमने तय किया कि हमें अपनी स्क्रिप्ट उन्हें भेजनी चाहिए। हमें उम्मीद नहीं थी कि कोई जवाब आएगा। मैं आज तक हैरान हूं कि नसीर साहब ने एक डाक में आई हुई स्क्रिप्ट पढ़ी।
फरज़ादः इसमें हमारे प्रोड्यूसर मज़हर ज़ैदी का भी बड़ा रोल है। जब हमने उन्हें कहा कि हम इस रोल में नसीर साहब को देखते हैं तो उन्होंने हमें हतोत्साहित करने के बजाय कहीं से नसीर साहब का पता निकाला और स्क्रिप्ट भेजी। जब नसीर साहब ने स्क्रिप्ट पढ़ी तो बहुत प्रेरित हुए और कहा कि “ये मैं जरूर करूंगा क्योंकि ये रोल लाखों में एक है”। सेट पर वो सबको साथ लेकर चले जिससे हमारे नए एक्टर्स का आत्म-विश्वास बहुत बढ़ा। फ़िल्म देखते हुए बिल्कुल भी ध्यान इस तरफ नहीं जाता कि नसीर साहब एक स्टार हैं।

 Q.. “मैं आपको रसगुल्ले की मिठास से ज्यादा, इमली की खटास से ज्यादा और पाकिस्तान में करप्शन से ज्यादा प्यार करती हूं,” …ऐसे डायलॉग का जन्म कैसे हुआ? कितनी आजादी से लिख पाए?
फरज़ादः जिसको कहते हैं न, असली घटनाओं से प्रेरित, बस इस डायलॉग की उत्पत्ति भी कुछ ऐसी ही रही। जो पहले दीवारों की पुताई से लिखे होते थे, अब टेक्स्ट मैसेज हो गए हैं।
मीनूः हमारी ये कोशिश थी कि हम उस भाषा में लिखें जो कि लाहौर के किसी मुहल्ले की एक पीढ़ी की नेचुरल ज़बान लगे, ऑथेंटिक लगे। इसके लिए हमने अपने एक्टर्स के साथ बहुत वर्कशॉप कीं, इम्प्रोवाइजेशन किए। इसी वजह से हमने ये फैसला भी लिया कि हम प्रफेशनल एक्टर्स को कास्ट नहीं करेंगे, मेन लीड में ऐसे लड़कों को कास्ट करेंगे जो उसी मुहल्ले से हों और उसी पर्सनैलिटी के हों, जिस तरह के हमारे तीन लीड कैरेक्टर हैं। फिर हमने बहुत ऑडिशन किया और सलेक्शन के बाद दो महीने तक वर्कशॉप और रिहर्सल्स भी किए। इनमें एक वर्कशॉप नसीर साहब ने भी करवाई। कुल-मिलाकर हम ये कहानी उसी तरह और उसी अंतरंगता के साथ परदे पर लाना चाहते थे जिस तरह हमने खुद उसे देखा... एक दोस्त, कजिन या पड़ोसी की कहानी।

 Q.. अपनी फ़िल्म के लिए आप लोग कैसा संगीत चाहते थे? उसके लिए साहिर अली बग्गा पहली पसंद कैसे बने?
फरज़ादः ‘जिंदा भाग’ का संगीत परिस्थितिजन्य है और कहानी के नैरेटिव को आगे लेकर बढ़ता है। हमने हर गाने की सिचुएशन विस्तार से सोची हुई थी और हमारे पास काफी संदर्भ भी थे कि किस किस्म का साउंड चाहते हैं। ये बग्गा का कमाल है कि उसने स्क्रिप्ट के मुताबिक म्यूजिक बनाया और सिंगर्स चुने।
मीनूः फरज़ाद और मैं दोनों ही पुरानी फ़िल्मों और गानों के फैन हैं। और फिर एक जमाना था जब लॉलीवुड एक फलती-फूलती इंडस्ट्री थी। मैडम नूरजहां और मेहदी हसन जैसे प्लेबैक सिंगर थे। हम दोनों की सोच है कि फिल्मी गानों का जो कायापलट हुआ है हाल ही के सालों में, वो अकल्पनीय है। गानों को ‘आइटम’ की तरह ट्रीट किया जाता है। फ़िल्म कोई वैरायटी शो तो नहीं कि उसमें आइटम हों। पुरानी फ़िल्मों के गाने उन हालातों या इमोशंस को जाहिर करते थे जिनको आप डायलॉग के जरिए नहीं कह सकते थे। जैसे कि एक निचले या गरीब वर्ग का इंसान अमीरों की ओर तंज करे, या कोई आध्यात्मिक असमंजस (spiritual dilemma) हो, या प्यार की बात हो। हम फिल्मी गानों के उस दौर को रेफरेंस रख कर चलना चाहते थे। बग्गा का ये कमाल है कि वो इस सोच को और भी आगे तक लेकर गए। उन्होंने पूरी तरह लाइव इंस्ट्रूमेंट्स से हमारी फ़िल्म का म्यूजिक तैयार किया है।

 Q.. पोस्ट-प्रोडक्शन इंडिया में कहां किया? अब जब बेहद कम टेक्निकल संसाधनों में भी एडिटिंग, डबिंग, साउंड मिक्सिंग और पोस्ट-प्रोडक्शन हो जाता है, फिर इस काम के लिए पाकिस्तान क्या उपयुक्त स्थान नहीं था? इससे पोस्ट-प्रोडक्शन सुविधाओं को भी वहां बढ़ावा मिलता।
फरज़ादः कुछ पोस्ट-प्रोडक्शन मुंबई में हुआ और कुछ कराची में। इनमें से कई सुविधाएं पाकिस्तान में उपलब्ध नहीं हैं। आमतौर पर डायरेक्टर्स बैंकॉक जाते हैं, हमने इंडिया इसलिए चुना क्योंकि वो सस्ता विकल्प था और हमारी ज़बान और सिनेमैटिक परंपरा एक हैं, तो साथ काम करना ज्यादा आसान होता है और मजा भी ज्यादा आता है।

 Q.. इंडिया में ‘बैंड बाजा बारात’, ‘विकी डोनर’ और ‘मेरे डैड की मारूति’ जैसी फ़िल्में बनी हैं। उन जैसी ही गति, शोख़पन, चटख़पन, गली-मुहल्ले वाले डायलॉग और चुस्त किरदार ‘जिंदा भाग’ में भी हैं। आपको क्या लगता है, मौजूदा दौर के सिनेमा में ये विशेषताएं और गति तमाम मुल्कों में एक साथ क्यों नज़र आ रही हैं?
फरज़ादः चुस्त और सुस्त में थोड़ा ही फर्क है और वो है कंटेंट का। अंत में तो आपको कहानी सुनानी है और अगर कहानी कमजोर है तो जितनी मर्जी चाहें चुस्ती कर लें आपकी फ़िल्म सुस्त ही रहेगी।
मीनूः शायद इन सब मुल्क में यंगर जेनरेशन फ़िल्म बना रही है और वो सब ऐसी कहानियां कहना चाहते हैं जिनका रिश्ता उनके खुद की रोजमर्रा की जिंदगी से हो?

 Q.. बचपन में कौन सी फ़िल्में आपने सबसे पहले देखी थीं और क्या तब जरा भी लगा कि ये सम्मोहन आपकी जिंदगी का अहम हिस्सा बनेगा? छुटपन में किन डायरेक्टर्स की फ़िल्में पसंद थीं, कौन सी फ़िल्में पसंद थीं?
फरज़ादः सबसे पहले तो सिनेमा की प्रेरणा मुझे म्यूजिक से मिली जो आज भी मिलती है। जहां तक फ़िल्ममेकर्स का ताल्लुक है, किसी एक का नाम लेना मुश्किल है। एक जमाने में जर्मन सिनेमा से मैं बहुत प्रेरित था, फिर ईरानी फ़िल्मों का दौर आया। क्यूबन सिनेमा बहुत कम देखा है लेकिन हमेशा कुछ नया होता है उसमें। आजकल फिर पुरानी पाकिस्तानी फ़िल्मों की तरफ वापसी है। तो ये सफर जारी रहता है। लेकिन इन सब प्रेरणाओं को लेकर हमें अपनी कहानियां अपने तरीके से कहनी हैं। अगर सब टैरेंटीनो, कोपोला या तारकोवस्की बनना चाहेंगे तो फिर क्या बनेगा। जिस तरह बॉलीवुड और हॉलीवुड की अलग-अलग जॉनर वाली फिल्मों से समान उम्मीदें होती हैं, उसी तरह यूरोपियन आर्ट सिनेमा का भी एक तय ढांचा या टेम्पलेट है। इस साल मैं बर्लिनैल गया तो हैरान था कि कितनी ज्यादा फ़िल्में अलग-अलग मुल्कों से होने के बावजूद भी एक हूबहू टेम्पलेट पे बनीं थीं। ये फंदे हैं जिनसे बचना एक फ़िल्ममेकर का संघर्ष है।
मीनूः हमारे घर में बहुत ज्यादा फ़िल्में देखी जाती थीं। बॉम्बे की फ़िल्में भीं और आर्ट फ़िल्म भी। शुरू से ही काफी थियेटर वगैरह से जुड़ाव रहा। हाई स्कूल के टाइम से ही काफी वर्ल्ड सिनेमा देखना शुरू कर दिया था लेकिन कॉलेज में ये और सीरियस पैशन बन गया। वहां फ़िल्म क्लब मैं हम हर नए डायरेक्टर को आज़माते थे। सैली पॉटर की ‘ऑरलैंडो’ (Orlando, 1992) जब देखी तब याद पड़ता है कि स्क्रीनिंग के बाद ये फीलिंग थी कि काश ये फ़िल्म बनाने में मेरा भी कोई छोटा-मोटा हाथ होता। सिनेमा डायरेक्टर्स तो बहुत सारे हैं जिनकी फ़िल्में इंस्पायर करती हैं। कई ऐसे भी हैं जिनकी फ़िल्में बहुत ज्यादा पसंद हैं और मैं जब फ़िल्म पढ़ती हूं तो उनको ही पढ़ना पसंद करती हूं जैसे कि आजकल हेनिके साहब (Michael Haneke) की फ़िल्में... लेकिन उसका ये मतलब नहीं कि मैं उन्हीं की तरह की फ़िल्में बनाना चाहती हूं।

Mazhar Zaidi, producer of the movie.
 Q.. आप दोनों में जब रचनात्मक मतभेद (creative differences) होते हैं तो कैसे सुलझाते हैं? दूसरे शब्दों में पूछूं तो जब दो लोग एक क्रिएटिव चीज को बनाने में साथ होते हैं तो तालमेल बनाए रखने का फंडा क्या है?
फरज़ादः क्रिएटिव डिफरेंस की टर्म का उस वक्त इस्तेमाल होता है जब आपके अहंकार का मसला बन जाए कोई बात। असल क्रिएटिविटी में ईगो की कोई जगह नहीं होती। ये बहुत प्रैक्टिकल और रियल प्रोसेस है। जब आप इस प्रोसेस में होते हैं तो एक एनर्जी आपको ड्राइव कर रही होती है और आप एक ही विजन की तरफ जा रहे होते हैं। फिर उसमें चाहे जो भी डिसकशन हो उसका नतीजा पॉजिटिव ही होता है। मीनू के साथ भी काम कुछ इस बेसिस पर होता है इसलिए हम बहुत डीटेल में हर चीज को तोड़कर दोबारा जोड़ सकते हैं। और जैसे कि मैंने पहले कहा, हम एक-दूसरे के आइडियाज को एक कदम आगे ले जाते हैं, पूरा करते हैं।
मीनूः मज़हर (ज़ैदी) और फरज़ाद पहले से ही साथ काम करते थे। उन्होंने मटीला रिकॉर्ड्स साथ शुरू की और काफी आर्टिस्ट्स को रिकॉर्ड किया। हम सब साथ मिलके अपने आइडियाज डिसकस किया करते थे और फिर हमने कुछ फ़िल्में साथ शुरू कर दीं। फ़िल्म तो एक साथ काम करने वाली चीज ही होती है। डायरेक्टर उसका एक छोटा पुर्ज़ा है। ट्रफो (Francois Traffaut) की डे फॉर नाइट (Day for Night, 1973) या फैलिनी (Federico Fellini) की इंटरविस्ता (Intervista, 1987) देखें, मेरी ये बात सही तौर पर जाहिर हो जाएगी कि आप कितने ही बड़े ऑटर क्यों न हों, फ़िल्म मेकिंग का मूल तो सहभागिता ही होता है। ये एक तथ्य है कि कई हजार चीजें आपकी फ़िल्म में, सेट पर मौजूद दूसरे लोगों के छोटे-छोटे प्रयासों से, होती हैं। इसलिए फरज़ाद और मैं बहुत आसानी से साथ काम कर लेते हैं क्योंकि हम हमारे आइडियाज, स्क्रिप्ट या फ़िल्म को निजी संपत्ति की तरह नहीं लेते।

 Q.. जिंदगी का लक्ष्य क्या है?
मीनूः अपनी फ़िल्म स्क्रीन तक पहुंचाना और उसके बाद अपनी दूसरी फ़िल्म बनाना!

“Zinda Bhaag (2013)” - Watch the trailer here:

Nusrat has Left the Building...But When?” - Watch Farjad Nabi's documentary here:

“Paradise On A River Of Hell” - Watch Meenu Gaur's documentary here:

Slated to release in August, 2013 ‘Zinda Bhaag’ is a Pakistani feature film directed by Meenu Gaur and Farjad Nabi. Meenu was born in India. She did her PhD in Film and Media Studies from the University of London in 2010. She received the Felix scholarship and Charles Wallace Scholarship for the same. She is also the director of award winning documentary film, 'Paradise on a River of Hell'. After her marriage with Mazhar Zaidi, producer of Zinda Bhaag, Meenu now lives in London and Karachi. Farjad Nabi has directed documentaries including ‘Nusrat has Left the Building... But When?’ and ‘No One Believes the Professor’, which won awards at Film South Asia. He has also documented the work of Lahore film industry’s last poster artist in The Final Touch. His Punjabi stage play ‘Annhi Chunni di Tikki’ (Bread of Chaff & Husk) and ‘Jeebho Jani di Kahani’ (The Story of Jeebho Jani) has been recently published.

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